वेद विप्लव कीर्त्तन जनगण

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    फरवरी 2014
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम विनय घोष/अनुवाद : प्रमोद बेडिय़ा





 

विनय घोष (14.06.1917-25.07.1980) - विशिष्ट समाज विज्ञानी साहित्य समालोचक एवं बांगला भाषा एवं संस्कृति खास कर लोक-संस्कृति के गवेषक। इतिहास तथा राजनीति से जुड़ी व्याख्याएं : साथ ही 'सोवियत सभ्यता' बांगला साहित्य को विशेष मात्रा प्रदान करती है। बंगाल के लोकशिल्प, लोक संस्कृति और उसका सामाजिक संदर्भ उनकी रचनाओं के मुख्य विषय रहे हैं।
'फारवार्ड' 'साप्ताहिक' 'अदनी' 'दैनिक वसुमति' 'युगान्तर' इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय विभाग से जुड़े रहे। भारतीय गणमान्य संघ द्वारा इनका एक नाटक 'लैबोरेटरी' अभिनीत हुआ तथा संघ के गायकों में एक रहे। फिर राजनीति से अलग हो कर पूर्णतया साहित्य से जुड़ाव। कलकत्ता विश्वविद्यालय की 'विद्यासागर व्याख्यान माला' के प्रथम वक्ता। 1958-60 में यहां से 'राकफेलर रिसर्च स्कालर' रहे। 1957 में रविन्द्र पुरस्कार। कम से कम 20/25 पुस्तकों की लंबी सूची जिसमें कहानी संग्रह और उपन्यास भी। कई उल्लेखनीय ग्रंथों में उल्लेखनीय विद्यासागर और बंगाली समाज' (चार खंड)। यह लेख 'एक्खन' (अभी), बांगला की लब्ध-प्रतिष्ठित पत्रिका के 1977 के अंक से लिया गया है, जिसके संपादक बांगला सिनेमा के सुप्रसिद्ध नायक और अभिनेता सौमित्र चट्टोपाध्याय और विद्वान निर्माल्य आचार्य हैं। लगभग 50/55 वर्षों से प्रकाशित होती यह पत्रिका बांगला जनगण के बौद्धिक मानस की जरूरी खुराक है। हिंदी के वाक्य विन्यास को विषय की ग्रहणयोग्यता के संदर्भ में कुछ तोड़ा-मरोड़ा गया है, जो कि बांगला में भी है; विषय की जटिलता को ज्यादा से ज्यादा सहज बनाने की प्रक्रिया में ही ऐसा हुआ है।

प्रकृति (NATURE) से संस्कृति (CULTURE) जैसे आलू से आलूदम। अर्थात कच्चे आलू की प्राकृतिक अवस्था से उबला हुआ आलू गुणगत रूपांतरण हुआ। और वही डायलेक्टिल है। सड़ा आलू भी एक विशेष रूपांतरण है लेकिन वह प्राकृतिक उपाय से रुपांतरित हुआ (Transformation by natural means) क्योंकि पकाना सांस्कृतिक क्रिया विशेष हुई। खासकर वह खाना किस प्रदेश का है यह बताया जा सकता है। भारत के विभिन्न प्रदेशों के पकवानों में विविधता है। पश्चिम बंगाल के अलग-अलग जिलों की रसोई में भी फर्क है। बांकुड़ा-पुरुलिया का खाना और नदिया-मुर्शिदाबाद का खाना या किसी दूसरे जिले का खाना अलग है। जीभ की भाषा की तरह खाना भी मानव सभ्यता का विशेष उपादान है। जैसे कि SOCIOLINGUISTIC वैसे ही sociogastronomy वैज्ञानिक संस्कृति की बहस में जरूरी है।
यह सांस्थानिक नेतृत्व (Structural Anthropology) से लिया गया है। लेवी स्ट्राइस के खाद्य-त्रिभुज  (Culinary Traingle) की याद आती है। इस खाद्य-त्रिभुज का चिंतन करने से समझ में आता है कि कच्चे आलू से स्वादिष्ट आलूदम का भक्षण जितना सहज है उतना सहज उसके सांस्कृतिक रूपांतरण को समझना नहीं है। खाद्य के साथ राजनैतिक आदर्शवाद को जोडऩे पर चकित होना पड़ता है। कम्युनिस्टों का खाना और कैपिटलस्टों का खाना एक नहीं है। एरिस्ट्रोक्रेट खाद्य और डैमोक्रेट खाद्य में भी फर्क है। यह किंतु बासमति चावल और बादशाहभोग चावल का फर्क नहीं है। जितना सरल लगता है उतना है नहीं। सभी कहेंगे कि गरीब पालक कद्दू खाते और अमीर लोग विरियानी मलाई खाते हैं इसलिए पालक कद्दू डैमोक्रेटिक और बिरियानी मलाई एरिस्ट्रोक्रेट खाना हुआ, फिर भी मामला इतना सहज नहीं है। पका मांस और रोस्टेड मांस। लेवी स्ट्राइस कहते हैं कि पके मांस में उसके खाद्य गुणों का संरक्षण रोस्टेड मांस से ज्यादा होता है। इसलिए पका मांस कम खर्च वाले गरीबों का खाद्य है एवं रोस्टेड मांस खर्चीले कुलीन लोगों के लिए है।1
Boiling provides a means of complete conservation of the meat and juices, whereas roasting is accompanied by destruction and loss. Thus one denotes economy the prodigality, the latter is aristrocratic, the former plebian
लेवी स्ट्राइस के इस खाद्य त्रिभुज और स्ट्रकल्चरल विचार से तो बंगालियों को गणतांत्रिक नहीं कहा जा सकता है। अगर मछली मांस को छोड़ भी दें तो साधारण निरामिष सब्जियों के सृजन में जो विविधता है, वह तो उन्हें मांसमज्जा से एरिसट्रोक्रेट ही साबित करती है। बंगाली याने बंगाली बाबू का जो उदार गणतांत्रिक परिचय है उसकी कोई वास्तविक खाद्य भित्ती नहीं है। फिर भी बंगाली भद्रगण यों धीरे धीरे बात करते हैं, जैसे कि वकील बैरिस्टर बंगाल के रुलिंग एलिट हैं; बात बात में बंगाली भद्रगण ऐसे रो सकते हैं या कविता कहानी लिख सकते हैं कि किसी भी सांस्थानिक विश्लेषण में उसका उत्स खोजना कठिन है। यह एक प्रकार का अन्तर विरोध है - लेकिन डायलेक्टिकल है कि नहीं पता नहीं और अगर है भी तो मेजर है या माइनर है - समझ में नहीं आता है। अर्थात मामला जितना सरल लगता है उतना है नहीं। लेवी स्ट्राइस स्ट्रकल्चरल व्याख्याओं को डायलेक्टिकल समझते हैं और मार्क्सवाद के प्रति गंभीर आस्था भी रखते हैं। लेकिन फिर भी कभी कभी उनके विश्लेषण दुर्बोध्य लगते हैं एवं इसीलिए उनकी अनवध्य नृतात्विक रचनाएं पढ़ते हुए रोमांच होता है। मार्क्सवाद के प्रसंग में वह कहते हैं 2
When I was about sixteen, I was introduced to Marxism by a young Belgian socialist …… I was all the more delighted by Marx in that the reading of the works of the great thinkers brought me into contact for the first time with the line of philosophical development running from kant to Hegel ; a whole new world is opened to me. Since then, my admiration for Marx has remained constant, and I rarely broach a new sociological problem without first stimulating my thought by rereading a few pages of the 18th brumaire of loouis Banabaric or the critique of Political Economy. Incidentally, Marx quality has nothing to do with whether or not he accurately forwawcertain historical developments. Following Rousseau, and in what I consider to be definitive manner. Marx established that social science is no more founded on the basis of events than physics is founded on sense : the object is to construct a model and to study its property and its different reactions in laboratory conditions in order later to reply the observations to the interpretation of empirical happenings, which may be far removed from what had been forecast.    
लेवी स्ट्राइस के इस उद्यरण का अंतिम हिस्सा आधुनिक मार्क्सवादियों के लिए कितना महत्वपूर्ण है वह सच्चे क्रांतिकारी समझ पाएंगे। जो रिविजनिस्ट या संशोधनवादी याने अभी वेरेस्टाइन-काउद्स्की के उत्तराधिकारी हैं उन्हें स्ट्राइस ने कचड़े में फेंक दिया है। मार्क्सवाद का मूल्यांकन क्योंकर हो सकता है एवं जो भी हो मार्क्स ज्योतिषशास्त्री समाज वैज्ञानिक नहीं थे यह वे साफ-साफ कहते हैं। मार्क्स ने जो कहा था वह परिवत्र्तित सामाजिक अवस्थाओं पर कितना फलित हुआ है या नहीं हुआ है इससे मार्क्सवाद की कुंडली नहीं बनाई जा सकती है। ठीक यही कथन लुकाच का भी है। लेकिन मार्क्सवाद की गहराईयों में जाने का कोई उद्देश्य यहां नहीं है। क्योंकि हमारी व्याख्याएं किसी निश्चित विषय पर नहीं है - वरन छुटपुट, इधर-उधर के बिखरे मामले हैं, लेकिन मार्क्सवाद जैसा- गंभीर विषय तो नहीं ही है। असंबद्ध, असंलग्न दृश्य जो हैं वे शायद नहीं हैं। उनकी प्रासंगिकता भी खोजनी पड़ती है फिर भी वर्तमान में 1977 के साल में याने सत्तर के दशक में चारों ओर घोषित क्रांति के काल में खोज पाने की जिम्मेदारी पाठकों की है तथा लेखक की जिम्मेदारी सिर्फ लिखना है और लेटे हुए छत की तरफ देखते हुए सोचते सोचते (निश्चय ही क्रांतिकारी सोच) बंगोपसागर में विलीन हो जाना।
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और कुछ नहीं। बाबा नाम केवलम। चीन के चैयरमैन हमारे चैयरमैन। पार्कसर्कस की दीवारों पर एशिया का मुक्तिसूर्य। फिर भी वह सर्कस नहीं है। रशियन या अमेरिकन कोई भी सर्कस नहीं है एवं सर्कस के बाघ का खेल भी नहीं है। है तो नहीं, लेकिन अगर होता! यदि गोलचक्कर से जनता (हाय, जनता!) बाघ की तरह जमींदारों, जोतदारों और पूंजीपतियों पर घोषित होती। पढऩे से जितना सहज लगता है उतना ही सहज मामला होता! यदि ऐसा होता तो न जाने कब से सब मिलकर समाजवाद का केक खाते हुए क्रांति की कहानियां कहते नहीं थकते। तब पकाए मांस जैसा प्लिबियन खाना खाते एवं रोस्टेड कुलीनता का वर्णन करते। इन बातों का कोई ओर-छोर नहीं है और यह कोई शर्त हो भी नहीं सकती है। खोजने की जिम्मेदारी है भी तो पाठकों की, लेखक की तो नहीं ही है।
कितना विकट ख्याल है। कलकत्ता के कुलीन होटल की खिड़की पर चील बैठी है। इसी होटल में फ्रांसीसी विज्ञानी लैवी स्ट्राइस थे। बहुत ही अजीब बात है। सोचना भी मुश्किल है। मुश्किल तो काफी कुछ सोचना है लेकिन इससे मेरा अपना उसका इसका किसी का भी क्या जाता है। चार्नाक कलकत्ता आए थे यह सोचा भी नहीं जा सकता। विश्वबैंक के चैयरमैन मैक्नमारा कई बार कलकत्ता आए थे एवं प्राय: आते हैं - बस्तियों का अवलोकन करने। कितना अजीब-सा लगता है। चारणकवि भोला मोयरा से बैरिस्टर भोलाबाबू तक कलकत्ता की अग्रगति का अनुमान किया जा सकता है। दिन में मक्खी रात को मच्छर ये सारे कलकत्ता के अक्षर। इन सबके साथ कलकत्ता में हैं; कितना आश्चर्यजनक है। रात में चील दिन में मैक्नमारा, हो गया कलकत्ता आत्महारा। नहीं सोचा जा सकता है। रिसर्च एण्ड ऐनलिसिस विंग सोचा जा सकता है। कलकत्ता के आकाश में चील जमीन पर चील खिड़की पर चील होटल में चील महलों पर चील बस्तियों में चील सोचा भी नहीं जा सकता। कलकत्ता एक चटकदार मनोहर विज्ञापन मात्र है। एवं कई करोड़ों-अरबों का विज्ञापन! सर्वोपरि सत्य विज्ञापन है, उस पर डालर, उस पर भी चील। मैक्नमारा का बस्ती-दर्शन दरिद्रदर्शन एवं सर्वोदयी लोगों के भूदान की तरह केवल डालरदान या फिर वर्तमान के भोला बाबुओं की कल्लोलिकी हिल्लोलिनी कलकत्ता के लिए बेरिस्टर अथवा इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कांसस (इसकॉन) का कलकत्ता की गलियों-रास्तों पर हरि-संकीर्तन-क्रांतिकारी सत्तर में दशक में कल्पना की जा सकती है। कल्पना करने से सिहरन होती है कलकत्ता के श्मसानों केवड़ातला से नीमतला तक दीवारों पर कोयले से लिखा कॉम. अरुप (19 वर्ष) लाल सलाम! श्मसानों में घूमकर हमने देखा है, लेवी स्ट्राइस ने नहीं।
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यह बातें तो सत्तर के दशक की है और स्ट्राइस कलकत्ता आए थे पचास के दशक में। तब जगत्गुरु नहीं आए थे और इसकॉन भी नहीं हुआ था। जॉब चार्नाक से मांउटबैटेन होते हुए जब हम नेहरु के काल में पहुंचे तक सिर्फ कलकत्ता ही नहीं  अनेक दूसरे शहर देखकर ही लैवी स्ट्राइस ने सोचा था 'The Large Town of India are Slum Areas' एवं कलकत्ता शहर को चौरंगी से देखकर उन्हें कुछ ऐसा लगा था -
What we are ashamed of as if it were a disgrace, and regard as kind of leprosy, is in india, the urban phenomenon, reduced to its ultimate expression: The herding together of individuals whose only reason for living is to heard together in millions, whatever the conditions of life may be : Filth, chaos, promiscuity, congestion, ruins, huts, mud, dirt, dung, urine, pus, humours, secretions and running scores: all the things, against which we expect urban life to give us organized protection, all the things we hate and guard against at such great cost, all these by-products of cohabitation do not set any limitation on it in india. They are more like a natural environment which the Indian town needs in order to prosper  कलकत्ता के होटल 'WHICH WAS BESIEGED BY COWS AND HAD VULTURES PERCHED ON ITS WINDOW SILLS' - जिस होटल में लेवी स्ट्राइस थे, नाम तो नहीं बताया है, लेकिन समझ में आता है कि चौरंगी के ही किसी होटल में जहां धार्मिक सांड और चीलें रोज उनका अभिनंदन करती थी। होटल से निकलते ही एक विचित्र नृत्यभंगी का अभिनय करते हुए चलते तो उनके चारों तरफ विभिन्न संगीत और अदाओं से अभिनय करते अभिनेता चलते। अचानक पैर पकड़ कर खींचा किसी ने - 'पालिश जूता पॉलिश'। पैर छूटते ही दूसरी विकृत आवाज आगे आई 'one anna, papa, one anna' और उसके जाते-जाते ही एक विकलांग भिखारी कुत्सित भंगिमा करते हुए अपनी कूबड़ या सड़ा हुआ घाव नाक के सामने नचाने लगता। बांसुरी बजी क्योंकि बांसुरीवाला बांसुरी बेच रहा है। सर्वोपरि हर तरह के दलालों का अविर्भाव तथा 'British Girl, Very Nice' इत्यादि खरीदने के आवेदन। इसके अलावा मूक अभिनेताओं की कतार लगी है। रिक्शा फिटन टैक्सी टाउट से ले कर फुटपाथ - के हॉकर दुकानदार। ऐसे भयावह करुण दृश्य से मर्माहत हो कर लैवी स्ट्राइस ने व्यंग्य करना उचित नहीं समझा, कहा कि यहां व्यंग्य करना 'Sacrilege' के अलावा कुछ नहीं है -
There would be no point in criticizing these grotesque gestures and controted movements, and it would be criminal to mock them; they should be seen for what they are clinical symptoms of a life-and-death struggle
भिखारियों, भीख तथा भीख की कलाओं के बारे में एवं और भी कई विषयों पर लेवी स्ट्राइस ने कलकत्ता के प्रसंग में कहा है। सादी बातों में उनकी आंखें आंसुओं से भींग जाती है यह स्पष्ट है। पूरे मामले में वे एक 'PERMANENT REPUDIATION OF THE CONCEPT OF HUMAN RELATIONS' के रुप में देखते हैं एवं 'CLINICAL SYMPTOMS OF LIFE AND DEATH STRUGGLE ' के रूप में देखते हैं। देखना भी चाहिए क्योंकि मानव-विज्ञानी हैं एवं मनुष्य के रूप में और एक मनुष्य (भिखारी) को और उसकी प्रतिक्रिया को देखकर स्तंभित हो गए। वे आदमी हैं यह तथ्य वे समझना सुनना देखना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें डर लगता है। चेहरा सफेद हो जाता है, अगर भीख नहीं मिली तो। इसीलिए वे कहते हैं - वही बाबू, दयामय, हमलोग तो आदमी नहीं हैं, आदमी तो आप लोग हैं। कई जन्मों की सुक्रिया, महापुण्य और धर्म के फलस्वरूप ईश्वर ने आप लोगों को 'मनुष्य' बनाया है, आप लोगों को छप्पर फाड़कर दिया है। आदमी तो आप लोग हैं! हम लोग नहीं। कई जन्मों के पापों के फलस्वरूप हमलोग तो अमानुष हैं, हमें आदमी मत कहो। अधर्म होगा। ईश्वर हंसेगा। लेवी स्ट्राइस ने इसका मनोहर वर्णन इस तरह किया है -

.... they do not want to be equal: they beg, they entreat you to crush them with your pride, since it is from the widening of the gapbetween you and them that they expect their mite (bribe), which will be greater in proportion to the width of yawning gulf ...The gulf separating extreme luxury and extreme poverty destroys the human dimension the outcome is a society in which those whoachieve nothing survive by hoping for everything (hence the typically Oriental daydream represented by the genii in the Arabian Nights!) and those who demand all offer nothing
इसीलिए! इसीलिए तो ऐसा है। इसीलिए सच्चाई जितनी सहज लगती है, उतनी है नहीं। भिखारियों का इतना वैविध्य दुनिया के किसी देश, किसी जाति में नहीं है। फिर भी हमारी परंपराओं की माला फेरते हम नहीं थकते। धार्मिक परंपराएं सांस्कृतिक और दार्शनिक परंपराएं - और भी क्या-क्या, कितना कुछ। लेकिन सारी परंपराओं का मूलाधार है - भिक्षा। इस देश के दर्शन और धार्मिक अनुष्ठानों का एक मात्र उद्देश्य है मनुष्य को अमानुष बनाकर अवमानुष के स्तर पर अवनत कर उसके अवचेतन में उस अमनुष्यत्व के बोध को मजबूत बनाना। समझ में नहीं आता है, फिर भी बहुत कुछ आता है। इस विशाल देश के करोड़ों लोगों की चेतना के स्तर से मनुष्यत्व के बोध को लुप्त करना पृथ्वी के इतिहास में भारतीय भद्र का अद्भुत कारनामा है एवं उसके लिए धर्म-दर्शन के पांडित्य के अजीब-अजीब आसन सब! मौर्ययुग से आधुनिक युग तक एक ही इतिहास की पुनरावृत्ति और एक ही उद्देश्य - वह है ज्यादातर लोगों के जीवन से 'ह्यूमैन डायरेक्शन' को ध्वस्त करना। इसीलिए धर्म और अद्भुत धर्मानुष्ठान। इसीलिए दर्शन है दर्शन के धोखे और मिथ्याचार! इसीलिए हर युग में इस देश के शासक सुखी और निश्चित हैं - ईसापूर्व चौथी सदी से ईसाबाद के सांतवे दशक तक (अभी तक-अनु.)। अवमानुषों, भिखारियों के इस देश में क्रांति का भय नहीं, विद्रोह का, प्रतिवाद का और प्रतिरोध का भी भय नहीं। हरिसभा के हरिसंकीर्तन के झोल-करताल की मधुर ध्वनि में भीतर के विद्रोह की भाप जल बन कर बह जाएगी। बहेगी ही। यह कार्यक्रम भद्रलोक द्वारा चालित है तथा शासक यह मानते हैं, इसीलिए वे दिल्ली के सिंहासन पर बैठे बेहाला बजाते रहते हैं। अतीत में बजाया है अभी भी बजा रहे हैं, एवं भविष्य में भी बजाएंगे - काफी दिनों तक। कम से कम उतने दिनों तक तो बजाएंगे जब तक भीख और भिखारियों के महात्मा इस देश में श्रेष्ठ धार्मिक और सांस्कृतिक धरोहर समझे जाएंगे।
हमारे देश के लोगों के जीवन में 'ह्यूमैन डायमेंशन' के विलोप होने पीछे लैवी स्ट्राइस ने एक महान ऐतिहासिक तथ्य खोजा है। वह हुआ एशियाटिक बर्बरता, निष्ठुरता और अमानविकता का तथ्य। धार्मिक और दार्शनिक मिथ्या और प्रतारणा की मुलायम चादर से सत्य को मृतदेह की तरह आवृत किया जाता है। वह सत्य लैवी स्ट्राइस की भाषा में -
This sheds a great deal of light on the sources of so-called Asiatic cruetily. Perhaps funeral pyres, executions an torture, as well as those surgical weapons intended to inflict incurable wounds, are the result of some appalling fancy to embellish abject relationships, in which the humble rectify their superiors by willing their own rectification and vice versa
जिस तरह लैवी स्टाइस ने MYTH तथा TOFEMISM की जैसी स्ट्रक्चरल-डायलैक्टिकल व्याख्या की है, लगभग उसी तरह 'ALIENATION' 'REIFICATION' का मार्क्सवादी प्रत्यय प्रयोग कर ऐशियाटिक तथा भारतीय क्रूरता और दमन की कई कहानियां दिल्ली, कोलंबो, कलकत्ता तक कही सुनी जाती हैं। अत्याचारों की तालिका बनाने कमीशन भी बैठाए जाते हैं। फिर से अत्याचारों की पुरावृत्ति होगी और लगता है उसकी विविधता और भंयकरता और बढ़ेगी। क्योंकि REILIFILATION तथा ड्रग की बड़ी खुराक जनमानस में धर्म के नाम पर, दर्शन और संस्कृति, बुद्ध महावीर शंकराचार्य के नाम पर प्रयोग की जाएगी और अंदर का सारा विद्रोह छन कर देशी शराब हो जाएगा। हो जाएगा इसीलिए कहता हूं पद्य में नहीं, गद्यमें। अभी C. I. A . BID TO CONTROL MIND के बारे में बहुत कुछ कहा सुना जाता है (The statesman 10.8.77 ) लेकिन L.S.D. हो MK -ULTRA या OPERATION MIDNIGHT CHANCES या PSYCHO SURGERY हो, हमार ब्राह्मण भद्र लोक ने स्वदेशी धार्मिक आचार अनुष्ठानों से काफी पहले मानव दुर्दशा का बिंदु खोज लिया है एवं उसकी व्यापकता अति भयंकर है। इसका एक छोर तो है निर्यातन निष्ठुरता की कहानी जो कि संपूर्ण सत्य अमनुष्यत्व का छोटा-सा अंश मात्र है। इसलिए लैवी स्ट्राइस की व्याख्याओं का अनुसरण कर लगभग निश्चित होकर कह सकते हैं कि गरीबी और विलासिता में जितना फर्क बढ़ेगा उतना ही आदमी का आदमी से संबंध क्षीण होता जाएगा और होते-होते वह अमानविक से अवमानविक हो जाएगा। क्योंकि 'REIFICATION' 'ALIEVATION' बढ़ता जाएगा एवं मनुष्य सिर्फ अवमनुष्य ही नहीं होगा, वरन वह पूरा आदमी (TOTAL) नहीं होना चाहेगा क्योंकि पूरे आदमी का बाहरी-भीतरी चेहरा, शरीर की गंध सब भूल जाएगा। भूल जाएगा, इसीलिए कहता हूं, कविता में नहीं 'गद्य में'!
सांस्कृतिक परंपरा बौद्ध जैन वैदिक वैष्णव शैव और भी क्या क्या! एवं अभी कलकत्ता के किसी उपनगर के किसी असहाय गरीब की शवयात्रा देख कर ही पता चलेगा कि इस परंपरा का तथाकथित महासागर क्यों गलीकूंचों के दुर्गंधमय नाले में परिणत हो गया है। क्यों शवयात्रियों के 'बोल हरी - हरि बोल' एवं कृष्ण भक्तों के 'हरेकृष्ण हरे राम' में ऐसी भयावह सिहरन है। समझ में आता है क्यों लैवी स्ट्राइस के चौरंगी के अभिजात होटल की खिड़की पर चील बैठी देखी। बाहर निकलते ही क्यों धर्म के सांडों और अद्भुत सब भिखारी दलालों के अभिनय में हिस्सा लेना होता था। समझ में तो आता है, फिर भी सहज नहीं है। पहले भी कहा है, फिर कह रहा हूँ। संक्षेप में प्लिबियन पकाए हुए खादकों के उदार गणतंत्र की कोई संभावना नहीं है हमारे देश में। रोस्टेट खादकों की तानाशाही और नौकरशाही का भविष्य स्वर्णिम है - साथ ही मनुष्य के प्रति मनुष्य की निष्ठुरता और निर्यातन का भी।
लेवी स्ट्राइस ने पांचवे दशक का कलकत्ता दिखाया, यह सातवां दशक है। पचास और सत्तर के दशक में काल का बीस वर्षों का ही अंतर ही है, लेकिन दूसरे अंतर जैसे सामाजिक राजनैतिक मानसिक सांस्कृतिक अंतर तीन-चार शताब्दियों का है। इस बीच 'ALENATION' 'RELFICATION' के स्वास्थ्य में चार चांद लगे हैं। मिलना-जुलना कमता जा रहा है, क्योंकि चेहरे तो मुखौटे हैं, ऊपर की साजसज्जा के अंदर का कंकाल ही असली चेहरा है - यह चरम सत्य नग्न रुप में उद्घाटित हुआ है। इसलिए 'देखे बिना नहीं चैन' नहीं है। बातें सुनने की कोई इच्छा भी नहीं है - एक ही बात एक ही भाषा सुनते-सुनते कान पक गए हैं। कितना ज्यादा फर्क पचास और सत्तर में है! ज्यादा फर्क 'फ्रेजर' के 'टोटेमिज्म' और लैवी स्ट्राइस के 'टोटेमिज्म' में है तथा 'SAVAGE MIND' के विश्लेषण में। पचास और सत्तर में भी काफी फर्क है। पचास में जन्मे सत्तर में नौजवान हुए - बीस बरस के। पचास के पहले के और उसके बाद के तरुणों में काफी फर्क है। लैवी स्ट्राइस ने उनको नहीं देखा है। हमने देखा है। लैवी स्ट्राइस ने बहुत कुछ नहीं देखा है (हालांकि चौरंगी में चील देखी है, धर्म के सांड दलाल और भिखारी देखे हैं) लेकिन हमने देखा है। सातवें दशक में युवाओं का एक दल (संप्रसारित अर्थ में) 'यंग बंगाल' 'यंग कलकत्ता' कहा जाने लगा और उन्होंने अचानक जीर्ण, जराग्रस्त समाज के कमजोर हृदय पर ऐसा आघात किया कि उसकी सांस अटक गई और नसनाड़ी सहित छत् पिंड प्राय: बहिरागत होने लगा। जो डिरेगियन (हेनरी लूई डिवियन) के चेलों द्वारा गौमांस भक्षण कर हड्डी फेंक देने पर भी नहीं हुआ। गजब! हमने देखा है। इसके बाद से तिलचट्टे, चूहे, छिपकली और गिरगिट कलकत्ता के गलीकूचों में रेंगते थे, लेकिन आदमी नहीं। सूर्यास्त के बाद से कलकत्ता की सड़कों बाजारों स्कूल कालेज और विश्वविद्यालयों में केवल चूहों और छुछंदरों का उपद्रव एवं विद्या के, अविद्या के मामले में सब तटस्थ, हतचकित! विद्यालय ज्यों-ज्यों गायब होते गए, उतने ही विश्वविद्यालय इस देश में बढ़ते गए (उत्तरबंग, कल्याणी, वर्धमान रविन्द्रभारती, यहां तक कि मेदिनीपुर भी) शिक्षित समूहों की फौज खड़ी करने एवं असीम व्यय से कुलीन भद्र पोसने के लिए। एक गजब था जो लैवी स्ट्राइस ने नहीं देखा है, लेकिन हमने देखा है। रास्ता पार करते लगता जैसे पीठ से कुछ चिपक गया हो। पीछे मुड़कर तो सभी देखते हैं। हर कोई डरता है और डर भी गंभीर लेकिन उन्हें बिंदुमात्र भय नहीं होता जिनके पास गुलामी की जंजीर खाने के सिवा कुछ नहीं होता। वे ही निर्भय घूमते रहे हैं बाकी सबों के दरवाजे शाम के बाद बंद - हमने देखा है।
फिर क्या हुआ, क्या जो हुआ, एशियाटिक बर्बररता का घनघोर अंधेरा उतरा और एक अतिवीभत्स तरुण-निधन तांडव में भूत प्रेत पिशाच मत्त हो उठे। स्थूलदेह वृद्ध शासकों का अद्भुत पैशाचिक आनंद! तरुण गलती करते हैं, बहुत गलती करते हैं। जैसे बड़े गलती नहीं करते हैं अन्याय भी नहीं या फिर वे जवान ही नहीं थे कभी। गलती की सजा तो भुगतनी होगी सो भुगतो। उसके बाद से बूढ़ों के कंधों पर हाथ रखकर देश और समाज लंगड़ाता हुआ चल रहा है। आज भी। हमने यह दृश्य देखा है, आज भी देख रहे हैं। हम जो बचे हुए हैं, आज भी मरे नहीं है, केवल देशी विदेशी गुप्त गोयंदा लोगों के कंधों पर सवार होकर अंर्तजली यात्रा की है एवं अभी भी कर रहे हैं। श्मसान की तरफ एवं इसीलिए आज भी उनका 'BUGGING'  'DRUGGING' तथा मिडनाइट चांस आपरेशन गेट टु गेदर -अतिश्रम करके आदि गंगा के किनारे डूबती सांसों के साथ अर्थात जीवित हैं क्योंकि मरे नहीं हैं। इसीलिए हमने देखा है, देख रहे हैं और देख रहे हैं इसलिए जिंदगी के आखरी लम्बे दिन रात दु:स्वप्न देखते हुए गुजार रहे हैं। जो देखते हैं सब कहा नहीं  जा सकता क्योंकि जरूरत नहीं है। यहां कहना है, किन्हें कहना है, क्यों कहना है और कह कर भी क्या होगा। इसीलिए जिस पर लिखा था वह कागज ही फाड़ दिया है। फटे टुकड़े जोड़कर क्या कहा जाएगा पता नहीं। अलावा इसके मामला सहज नहीं है, क्योंकि विषय सहज नहीं है, कम से कम, जितना सहज लगता है, उतना नहीं।
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कलकत्ता 1973/73/74/75
कलकत्ता - 1969/70/71 की बात कही क्योंकि वह सब जानते हैं एवं जो जानते हैं वह भूलेंगे नहीं क्योंकि भूल नहीं सकते। बात 1972 से 1975 की है। ऐसा कलकत्ता कभी नहीं देखा था। इतने दीर्घ जीवनकाल में कभी भी नहीं देखा था नानाविद्य कदाचार कीटपतंगों का किलबिलाना, किसी भी कपड़े में, कूड़ेदान में, कूड़े में यहां तक कि छोटे बड़े नालों में। 1969/70/71 के दीवारों पर लिखे नारे अस्तप्राय: हैं। केवल छुटपुट शब्द बचे हैं कहीं-कहीं जैसे माओ त्से-तुंग का 'तुंग', चैयरमैन का 'मैन' या 'चेयर' या फिर 'चोलेछे चोलबे' या 'जोतदार' वगैरह। सिर्फ शासन की दीवारों का लेखन अभी भी है - जैसे 'कॉमरेड अमल लाल सलाम', 'कामरेड बादल तुम याद रहोगे', कामरेड सपन, हजारों सपने बन कर रहोगे - इत्यादि - यद्यपि कोयला द्वारा लिखित, तथापि भयंकर निर्यातन द्वारा दलित मथित विकृत देह सभी से अदृश्य भस्माभूत कर भी। हमने श्मसानों में देखा है, हर श्मसानों में देखा है। कलकत्ता 1972/73/74/75 दिवालों पर उत्कीर्ण लेखन। फ्रांसीसी नृविज्ञानी लैबी स्ट्राइस ने वह नहीं देखा है, देखते तो भी समझ नहीं पाते बांगला में था न। भटकते हुए हमने देखा है।
मुक्तिफौज अदृश्य। मुक्तिसूर्य उद्भाषित। महानगर की दिवालों पर एशिया का महिला मुक्ति सूर्य। यद्यपि 'बाबी' फिल्म के उनचासवें सप्ताह के पोस्टर से रह रहकर एशिया का मुक्तिसूर्य राहुग्रासाच्छादित तथापि बेक बगान, कोला बगान की दीवारों पर उसकी मुक्ति रश्मि बिखरती। जोगादा, रामदा जुग-जुग जियो। शहीद मीनार चले- कॉम. हरिदास। आचार्य लोगों का भूदान तत्सह कॉम. लोगों का ज्ञानदान। सो बंगीय बाबूओं का अन्नमत्स्यगत प्राण कंठगत प्राय:। प्रह्लाद दा मानिक दा जुग जुग जियो। बंगाली एक हो - बंगाल की नयी सीमाएं बनानी होगी नहीं तो सारे बंगाल में आग जलेगी। आमरा बंगाली। केवल भूदान और मैदान।
रामनारायण राम। बाबा नाम केवलम।
उत्तर में राम। आर्यावत्र्त में। दक्षिण में रावण। द्रविड़ देश में। उत्तर में जलता है रावण और दक्षिण में राम दोनों की कुशपुत्तलिकाओं के जलने का आहा! क्या दृश्य नयनाभिराम! हा राम, हा राममोहन!
कल्चरल इंटिग्रेशन, जिसका बांगला अनुवाद है सांस्कृतिक संहति। ऊपर से फोककल्चर, तथा लोक संस्कृति तथा बंग-संस्कृति सेमिनार साहित्य सम्मेलन लिट्ल मैगाजीन, जातीय मेला एवं लाट भवन में शिल्पी कवि-बुद्धिजीवियों का  चायपार्टी सहित विशेष कथोपककथन। कितने केचुएं, कीड़े-मकोड़ों की भीड़ वहां और उतनी ही कहानियां। एक जो थी रानी वह मेरी तरफ देख कर हंसी थी। नहीं नहीं इसकी तरफ, नहीं मेरी तरफ। नहीं नहीं उसकी तरफ। सीधे खड़े होकर कहा हम लोग पेंटिंग करते हैं लेकिन बिकती नहीं है, कोई देखता भी नहीं - इसका कोई उपाय करें। कहा, हम लोग कविता लिखते हैं, लेकिन कोई पढ़ता नहीं है, खुद प्रकाशित करने पर भी कोई खरीदता नहीं है, मुक्त आंगन में, रास्तों पर फेरी करके बेचने पर भी नहीं। हमारी यह समस्या है; इसका कोई उपाय करें। महारानी मृदु हंसते हुए चली गई। डिनर का समय हो गया है। फिर उनके आमात्यगण धमकाने लगे - ऐसे क्यों कहा, वैसे क्यों कहा इत्यादि। संध्या-साक्षात्कारते लौटते समय लाट भवन के दरवाजे पर कवि-शिल्पी बुद्धिजीवियों में कवि - युद्ध  हो गया। मुख्य विषय था कि एक जो थी महारानी, किसकी तरफ देख कर हंसी थी एवं किसकी तारीफ की थी; इसी पर बहस, अंतत: छत्रभंग होने पर धर्मतल्ला के किसी गली-कूंचे में मद्यपान!
जनगणमुक्ति वाणिज्य क. (प्रा.लि.)। डिविडेंट अत्यंत आकर्षणीय, इसीलिए 'दोले-दोले' (झुंड़ में) मैदान चले। लेबर लीडर याने किसी भी बड़ी कंपनी के जनरल मैनेजर से भी लोभनीय पद एवं लाइफ-स्टाइल। अतएव जनगण मुक्ति मोर्चा वाणिज्य क. के शेयर खरीदें, ट्रैड युनियन करें, भविष्य अति उज्जवल!
कैबला दा, मानिक दा - जुग जुग जियो।
भोट देबे किसे। कास्ते धानेर शीषे। कास्ते हाथुड़ी कास्ते। भोट देबे किसे कास्ते धानेर शीषे। कास्ते हातुड़ी कास्ते। कास्ते (हातुड़ी+शीषे) वोट देबे किसे। जनगण मुक्ति वाणिज्य क. के शेयर का बाजार चढ़ते जा रहा है। कलकत्ता, टोकियो, न्यूयार्क, लंदन, पेरिस सारे स्टाक एक्सचेंज में। क्रांति का बाजार लेकिन मंदा है। दिवालों पर लिखा है - 'जनता जहां निर्यातित, अपमानित, मनुष्य का कंठरोध, व्यक्ति लांछित वहां गणतंत्र विपन्न है। इति स्वास्थ्यमंत्री की वाणी नोनापुकुर की दिवारों पर। कलकत्ता 1974-75। तथापि हस्पताल सिर्फ पाताल ही नहीं, नरक भी नहीं, जहां रुग्ण शिशु को चूहे कुतरकर खा जाते हैं (अखबार की खबर), रुग्ण वृद्ध को सियार कुत्ते खाते हैं एवं जहां डाक्टर नाम के आधुनिक वैद्यगण हृदयहीन अर्थपिशाच चतुष्पदमात्र!'
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बहादुर विश्वनाथ ने क्या बैटान बैटालो, देश का इज्जत बंचालो-कर्णस्पर्शित ट्रांजिस्टर में क्रिकेट की कॉमेंटरी सुनते हुए चलती बस में वात्र्तालाप। वैस्ट इण्डीज! अरे, पंचा को गोली मार दी सफेद पोशाक वाले पुलिस ने, अरे, वही पंचा, याद नहीं स्साला, वही पंचा जो दाहिने पैर से लंगड़ाता था, हठात-साला पगला गया रातो रात, जनता की मुक्ति के लिए; रात को दीवाल पर क्या जो लिख रहा था अचानक 'गुडुम-गुड़म' बस खतम! टालीगंज में खोल करताल सहित रामनारायणी मध्यवर्षीय नर-नारियों का 'धेई-धेई' उद्दाम नृत्य हमने देखा है जो कि फ्रांसीसी नृविज्ञानी ने नहीं देखा है। मुंह से उच्चारित 'राम नारायण राम'। श्रमिकों को नया पथ दिखाए कौन-बाबू रजनीकांत दे और कौन! लांगलीव लेबर लीडर फेलू दा। पूंजीपतियों के एकाधिकार और प्रतिक्रिया के दुर्ग पर आक्रमण करने शहीद मीनार चलें। आमरा बांगाली - हमारी मांगे नहीं मानने से आग जलेगी। बेकारी, अपसंस्कृति को खत्म करने मैदान चलें - वक्ता युवनेता पांचूदा (डैकर्स लैन)। काठ किरासिन कागज किताबों के लिए अनुदान देना होगा (युवदल-मदनदत्त स्ट्रीट)।
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चेचक की तरह दीवारों पर जो लिखा हुआ चमकता था, फिलहाल उस बारे में। कलकत्ता 1973-74-75। एवं जो लिख रहा हूं वह गद्य है पद्य नहीं। वेद और धर्म की बड़ी बात है कि कोई भूखा नहीं मरेगा, एवं धर्म कल्पना नहीं, हकीकत है। राम नारायण राम। वेद से क्रांति आएगी-समता और शांति। दिवारों पर लिखा है। कलकक्ता 1974-75। संताबदल। प्राग्रेसिव युटिलाइजेशन थ्योरिष्ट संक्षेप में 'प्राडटिस्ट' एवं उनका रास्ता ही भारत में क्रांति का एक मात्र विकल्प है। टोटल नहीं, सेमी टोटल क्रांति। स्टेशन पर, दिवारों पर, प्लैटफार्म कैबिन हर जगह प्राडटिस्ट और हंसुआ धान की बाली। वेद और कुरान में पार्कस्ट्रीट की दिवालों पर कोई भेद नहीं। संताबदल। कुरान में है समता की वार्ता, वेद में है क्रांति समता शांति-दिवालों पर राजा बजार से केड़ुआ तक। सुभाष (नेताजी) की सुवाष मिल रही है उसका काम चल रहा है। वेलसली में - बेकबागान में। वेद में कहा है जमाखोर कालाबाजारी  समाज के शत्रु हैं - वेद की विकृति से समाज का पतन। संताबदल। रामनारायण राम। बाबा काम केवलम। हरिचांद गुरुचांद कृपा ही केवलम। दिवालों पर लिखा है किंतु लिखा गया सब जासूसों के गवेषणा केंद्र के चमगादड़ों के दिमाग की उपज है। तथापि लिखा गया लंपटो द्वारा है।
दिवालों से सड़क तक आने पर भी एक ही दृश्य। हजारों बाबाओं, मांओं के ठिकानों, आश्रमों में, संतोषी मां अथवा साईबाबा के चौरंगी समावेश में अथवा साहित्य संस्कृति के सम्मेलन सेमिनार या जातीय सम्मेलनों में। रास्तों के किनारे शनीदेवों का उद्भव- कहीं कहीं तो दो तीन गज पर मां काली मंदिर प्रतिमा प्रतिष्ठा। हजारों शनी और काली कलकत्ता में 1974-75 में। साथ ही कलकत्ता में हरिनाम की आंधी और ज्योतिषियों का झुंड।
करोड़पति मंत्री महोदय स्वयं गौरमहाप्रभु एवं वे जहां भी जाते हैं, जो भी करते हैं जय गौर, निमीलित आंखों के जयगौर। कलकत्ता शहर में हरिनाम की आंधी और कहते हैं कि कलकत्ता राममोहन, विद्यासागर का शहर है। हाय राम, हाय मोहन (राम+मोहन=राममोहन) हाय ईश्वरचंद्र। हरिनाम की बाढ़ आई कलकत्ता में। वेद की क्रांति दिवारों से उतरकर सड़क पर आ गई। महाप्रभु गौरांग की क्रांति। मुंडितमस्तक गैरिक बसनी विदेशी श्वेतांग महिला-पुरुष कृष्ण भक्तगण चौरंगी पर खोलकर ताल के साथ कीर्तन करते हुए प्रचुर पथचारियों के आकर्षण का केंद्र बने। कुशल हाथों से वे खोल चटकाते हुए हरेकृष्ण हरेराम गाते रहते हैं। काफी 'खेल चतुर' हो गए हैं अमेरिका इंगलैंड युरोप जापान में। विदेशी मुद्रा की आमदनी होती है न! चौरंगी में सर आशुतोष की प्रतिमा के सामने, महात्मा गांधी की मूर्ति के सामने विदेशी कृष्णप्रेमी हरिनाम लुटा रहे हैं। हरेकृष्ण हरेराम! इसकान अथवा इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्ण कांशषनेश। नेशनल नहीं इंटरनेशनल और प्रतिष्ठा भी अमेरिका में। ठीक उसी समय जब विश्वव्यापी युवा विद्रोह छात्र विद्रोह मुक्ति संग्राम  साम्राज्यवादी शासकों के लिए विभीषिका की तरह हो रहा था तब, तब अमेरिका में 1966 में 'इस्कान' की प्रतिष्ठा हुई। अमेरिका से नवद्वीप मायापुर काफी दूर हैं, किंतु नवद्वीप पश्चिम बंगाल का महातीर्थ तो है ही, इससे भी महत्वपूर्ण हैे यह बांगलादेश की सीमांत से सटा हुआ सा है। इसलिए बांकुड़ा-पाचमुड़ा की दग्ध माटी के हाथी घोड़े और मुर्शिदाबाद को रेशमी साड़ी के साथ जैसे खोल करताल निर्यात हुए अमेरिका वैसे ही श्वेतांग कृष्ण भक्तों का आयात हुआ बंगाल में क्योंकि तब पूर्व और पश्चिम दोनों बंग की राजनीति वहां के शासकों के लिए भयानक विभीषिका हो चुकी थी तथा सशस्त्र क्रांति और मुक्तिसंग्राम की राजनीति का केन्द्रस्थल तो थी ही। अनेक अमेरिकन स्कालर भी आए उसी समय, 'वैष्णव धर्म की विभिन्न धाराओं पर गवेषणा करने,और भी कई विषयों पर, पता नहीं! अतएव अंत तक हरिनाम की बाढ़ आई कलकत्ता में 1973-74-75 में। इसे ही आपरेशन साइको सर्जरी एवं ड्रगिंग कहा जाए अगर तथापि मार्क्स-लेनिन का कथन सच हो कि 'धर्म जनता के लिए अफीम से ज्यादा कुछ नहीं।''
फिर अखबार के स्टाफ रिपोर्टर के विवरण से पता चला कि जगत्गुरु कलकत्ता आए हैं। 1974 के ही अक्टूबर में। दुर्गापूजा के समय। अच्छा समय। स्टाफ रिपोर्टर के विवरण का सार (१३ह्लद्ध शष्ह्लज् १९७४), उसकी ही भाषा में
लगभग -
शनिवार का सूर्य जब गंगा के पश्चिम किनारे पर अस्त हो रहा था तब इस पार गंगा के चांदपाल घाट पर हजारों नर-नारी उद्ग्रीव हो कर प्रतीक्षा कर रहे हैं। थोड़ी ही देर में किनारों को भेदते हुए कोलाहल-हजारों स्वरों की जयध्वनि 'हर-हर शंकर - जय-जय शंकर'। आदि शंकराचार्य के तपोधाम एवं उनके देहांत क्षेत्र कांचीकाम कोटी पीठाधिपति जगत्गुरु श्री शंकराचार्य का कलकत्ता में पादस्पर्श हुआ है (कलकत्ता 1974)। उस समय शाम के छह बज कर पच्चीस मिनट हुए थे। लगभग पांच हजार किलोमीटर जगत्गुरु ने अभी तक अतिक्रमण किया है। नागपुर, कुरुक्षेत्र, बद्रीनाथ, अयोध्या, वाराणसी, नेपाल, पटना के रास्तों पर कितने जनपदों और हजारों-हजार लोगों में वेद-वाणी प्रचारित करते हुए आज यहां कलकत्ता शहर में उपनीत हुए हैं 68 वें शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती। कल शाम को मेदिनीपुर होते हुए हावड़ा के बाउडिय़ा पहुंचे। वहां से गंगापार कर कलकत्ता। उम्र चालीस भी नहीं हुई है। रोज सिर्फ तीन घंटे सोते हैं। रात साढ़े तीन बजे उठते हैं; फिर ध्यान और आदिशंकर के उपास्य चंद्रमौलिश्वर शिव की पूजा और फिर पथिक होकर घूमना। बीच में अहार के लिए सामान्य भिक्षा। दिनरात में सिर्फ एक बार मृतपात्र में उबला हुआ खाना। फिर पदयात्रा। आराध्य में एकचित नर-नारियों को प्रवचन-दान। शाम होते ही सामने मशाल ले कर चलना। रोज बीस से पचीस किलोमीटर ऐसे ही चलते हुए रास्ते के पास किसी शिविर में विश्राम, सुबह उत्थान। खाली पैर बदन-जरा-सा गेरुआ वस्त्र जिसका आंचल कंधे पर रहता है।
हाथ में ध्वजदंड लेकर यह सन्यासी जब गंगा के किनारे खड़े हुए तो कलकत्ता के हजारों नरनारी चरणों पर लुंठित होने लगे। अद्भुत दृश्य था। जो लोग गाडिय़ों में आए थे वे भी गाड़ी में जूते कपड़े खोलकर, रख कर, लगभग निरावरण होकर सन्यासी के सामने आए। सभी चरणों की धूल लेना चाहते हैं। हरेक चाहता है माला पहना दे। गाडिय़ों का आवगमन स्तब्ध था। सिर्फ जनसैलाब अनर्गल जनसैलाब और वेद की श्रुतियां लगातार। हजारों स्वरों में हर-हर शंकर जय-जय शंकर की ध्वनीतरंग शंकराचार्य को ले जा रही है। शंकर गए सरस्वती ने कहा कि कलकत्ता आकर उन्हें अच्छा लगा। यह काली का स्थान है याने शक्ति का क्षेत्र है। काली क्षेत्र में कालीघाट। कुछ दिनों बाद ही श्रीश्री दुर्गापूजा। माँ दुर्गा की कृपा होगी यह उन्हें पता है एवं यह भी कहा याने कहकर अभय दिया कि 'माँ' की  दया से यहां के लोगों के सकल दुख-दुर्दशा दूर होंगे। मशाल जली बिगुल बजी हर-हर शंकर। गले में स्तवधनी देवी सुदेश्वरी भगवती गंगे। ऑकलैंड, रानी रासमनीरोड से जवाहरलाल नेहरू में शंकर शोभायात्रा अंतत: आशुतोष मुखर्जी रोड होते हुए हाजरा रोड की तरफ चली। उस समय रात के साढ़े सात बज रहे थे।
अक्टूबर 1974। उसके बाद जून 1975। उसके बाद
बाबा नाम केवलम। राम नारायण राम। वेद से आएगी क्रांति समता शांति-हर दिवाल पर संता बदल। हर दिवाल पर एशिया का मुक्तिसूर्य। बंगाल की सीमाएं बदलनी होंगी अन्यथा बंगाल जल उठेगा। आमरा बांगाली। प्राउटिस्ट। विदेशी नर-नारियों के गले में 'हरे कृष्ण हरे राम'। दम मारो दम। मिट जाए गम, बोलो सुबह शाम -
हरे कृष्ण हरे राम।
गैरिक वसन विदेशी कृष्ण भक्त कलकत्ता में। गैरिक वेश में 68 वें शंकराचार्य कलकत्ता में। हर-हर शंकर हरे कृष्ण हरे राम। सफेद कपड़ों की पुलिस द्वारा अनगिन तरुण वध- कलकत्ता के देशप्रेमी बूढ़ों के आदेश पर क्योंकि तरुण सारे देशद्रोही क्योंकि सेना पुलिस पर निर्भर जर्जर बूढ़े राष्ट्रनायक अहिंसावादी हैं एवं तरुण सारे सशस्त्र हिंसावादी हैं, इसलिए। बाबा नाम केवलम।
कलकत्ता 1973-1974
6 अक्टूबर 1973 शनीवार विजयादशमी उत्सव का समाचार। चारों ओर अमानविक तरुण हत्या के समाचार नहीं है। माँ दुर्गा आई और गई उसका उत्सव है। बेतार में 'महालया' का चण्डीपाठ स्वयं महारानी हुई चंडीदेवी। सर्वोपरि विजयादशमी के उत्सव का समाचार यह है

Hindusthan Standard October 7, 1973
By A Staff Reporter
  Most restaurant owners complained on Saturday night that their customers appeared reluctant to go home. Tables were books well in advance in every restaurant on Park Street. A few owners had arranged special restaurants were specially decorated for the occasion with festoons, baloons and streamers
Bars too reported a heavy rush … There were a good many visitors from other States, who had arrived in the city to taste its pleasures. At Park Street restaurants, a fair number of children were in evidence along with their parents .... Middle class restaurants on College Street and Bhowanipore areas were also crowded to…
उच्चवित्त मध्यवित्त बंगाली बाबुओं का विजयाउत्सव साथ में अब बंगालियों का भी। यह दृश्य फ्रांसीसी नृविज्ञानी लैवी स्ट्राइस ने नहीं देखा था एक ही समय श्वेतांबर पुलिस द्वारा निर्मम तरुण हत्या का अभियान कलकत्ता में या उसके आसपास। किंतु कौन हैं ये? लैवी स्ट्राइस ने जिन भिखारियों को देखा था वे तो नहीं ही हैं। तब। तब कौन हैं ये? स्मगलरदा, ब्लैकमार्केटियरदा, कंट्रक्टर दा - जुगजुग जियो। मस्तानदा, MLA  Dda, मंत्रिदा, कंट्रक्टर दा जुगजुग जियो। सिर्फ चंदननगर की सोलहआना जगतधामी पूजा का प्रतिवर्ष खर्च (1974) है पंद्रह लाख रुपए। 1973-74 में कलकत्ता के मस्तानों के कालीपूजा और दुर्गापूजा में! यद्यपि -
रुपए का मूल्य -
1950 - 99 पैसे
1960 - 80.6 पैसे
1970 - 44.6 पैसे
1973 - 36.00 पैसे और 1977 में शायद तीन पैसे।
फिर भी बड़े बाबुओं का खाना-पीना मुहल्ले पार्कस्ट्रीट में रैस्तराँ में बार में कुर्सी खाली नहीं यहां तक कि औसत और छोटे बाबुओं के मुहल्ले कालेज स्ट्रीट, भवानीपुर के रेस्त्रा में भी नहीं।
फिर भी कॉम. लिओनिद ब्रेजनेव के नई दिल्ली बैंक्वेट का विवरण - पी.टी.आई. द्वारा प्रदत्त - नई दिल्ली 26 Nov 1973


Hindusthan Standard, Oct  1973
By a Staff Reporter
The Soviet leader Mr. Leonid Breznve, was today treated to spicy indian delicacies at a glittering banquet held by the Prime Minister, Mrs Indira Gandhi in his honour at the Rashtrapati Bhawan here today
Besides members of the Soviet delegation, The one hundred guests included senior Cabinet Ministers, Speaker of the Lok Sabha three Service Chiefs and leading Congressmen 
The menu included cream doiel-dieu, vol-au -vent, tondoori chicken with kabab, nan cauliflower-bhujia, stuffed tomato, green peas mixed salad, aiad-gavacar chutney, fruit desert and coffee. Mrs Gandhi, who wore a beige coloured silk saree, called on the Soviet leader in his suit and spent some time with the invitees in the Ashoka room of the Rashtrapati Bhawan. After soft drinks the escorted her guest to the chandeliered banquet hall  
Mr. Breznev wearing dark blue suit, sat at the table to Mrs. Gandhi's right. To the left sat the Soviet Foreign Minister Andre Gromyko.

कॉम. लेनिन जुग-जुग जिओ, कॉम. ब्रेजनेव युग-युग जिओ। बाबा नाम केवलम। रामनारायण राम। विपिन बाबर, कारणसुधा, मेंटाप ज्वाला में टाप ज्वाला में टाप खुदा।
दम मारो दम मिट जाए गम
बोलो सुबह शाम हरे कृष्ण हरेराम
मिनी स्कर्ट-मैक्सी किशोरियों का गाना।
वेद से विप्लव समता शांति
हर हर शंकर जय-जय शंकर
हरे कृष्ण हरे राम
स्ट्रकल्चरिस्ट लैवी स्ट्राइस के खाद्य त्रिभुज की याद महानायक महाविप्लवी कॉम. ब्रेजनेव के महाभोग का मैनू देखकर भी आता है। तंदूर चिकन कबाब क्रीम डोमेल ड्यू माल औ मेंट नान, काली फ्लावर भुजिया भरवां टमाटर चटनी एवं उसके साथ गहरे नीले रंग का सूट एवं हॉस्टेस की धूसर पीली साड़ी Nature से Culture अर्थात प्रकृति से संस्कृति में उत्तरण जैसे कि Totem से caste। लेकिन यह पके खाद्य का ल्पिबियन उदार डैमोक्रेटिक मैनू नहीं है बल्कि रोस्ट कबाब खादकों का अभिजात भोज है शांदेलियार्ड बैनक्वैट बे हाल में। गहरा नीला रंग और धूसर पीला रंग यहां चमक रहा है एवं लाल रंग फीका होकर काला सतिया हो जाता है यहां। वहां दम मारो दम। बोलो सुबह शाम
हर कृष्ण हरे राम!
जगद्गुरु की अभयवाणी दुर्गातिनाशिकी दुर्गा दूर करेगी जैसे कि बेतार में महालया का चंडीपाठ, जैसे कि हुसैन की चित्रावली। डर नहीं सिर्फ असुरनिधन की देर है बस। वे कोई मानव नहीं है, इसलिए वे असुर हैं, ये ही चुहाड़ है इन्होंने ही तो तीर माला लेकर विद्रोह किया था। वे ही दास दस्यु वैदिक युग के, वे ही तो हैं। एवं वे ही तो नक्साल हैं इंदिरा युग के। वे ही तो असुर हैं - चैतन्य के सारे चरितामृत में इन्हीं को ही तो पाखण्डी कहा गया है जैसा कि गोपीबल्लभपुर के रसिकगण के मठ के प्रतिष्ठाता रसिकानंद के 'रसिक मंगल' में इन पाखण्डियों का वर्णन -
'अतिशय दुष्टकर्म करते निरंतर
ब्राह्मण-वैष्णओं की करते निंदा निरंतर।
नानापूजाओं से मत करते स्थापन
न सुनते हरिनाम, ना ही सुनते कीर्तन।
सुनते ही संकीर्तन दौड़ते दण्डायमान
इनकी आवाज सुनकर लक्ष्मी है धावमान।
दम लेते हैं गांव से निकालकर
वैष्णवों को तस्कर समझ कर।।'
यह गीत उत्कल प्रदेश के संदर्भ में होते हुए भी, वही गोपीवल्लभपुर वही मयूरगंज, वही झारखंड-पाखंडी हर जगह समान है। वे जो सारे शालबनों, जामुनबनों, मोहुलबनों के आदिवासी हैं। वे जो यहां की माटी के, वनजंगल जीवजंतु स्थल पर नभचर जलचर सबके आदिमालिक हैं। वे जो उच्चवर्ग के भद्र लोगों के शासकीय चक्रांत से आज अंत्यज के रूप में अवहेलित अस्पृश्च चूहाड़ पापिस्ट नराधम पाखण्डी यही तो है। चैतन्य चारित पार कहते हैं कि 'रसिकमंगल' के अनुसार वे निरंतर अतिशय दुष्कर्म करते हैं और ब्राह्मणों और वैष्णवों की भारी निंदा करते हैं तथा प्रवचन नहीं सुनते हैं, कीर्तन भी नहीं सुनते हैं और सुनते ही 'दौड़ते हैं दण्डायमान' और वैष्णवों को देखते ही 'दम लेते हैं गांव से निकाल कर' तस्कर समझ। वे ही तो असुर हैं एवं करते हैं बेतार असुरनाशिकी दुर्गा, असुर निधन के बाद, देश-विदेश भी दुर्गतिनाश करेगी कहते हैं कंपित कंठ से बेतार पर पदमश्री प्रचारक। बड़े-बड़े कैनवासों पर हुसैन बनाते हैं एवं उसमें जगद्गुरू वाणी का संचार करते हैं। ये पाखंण्डी असुर दस्यु ही नक्साल नाम से निंदित हैं क्योंकि सूदखोर महाजन देखते ही तीर चलाते हैं, सर्वग्रासी जोतदार देखते ही भाला चलाते हैं क्योंकि वे हरिनाम नहीं सुनते हैं एवं न सुनते हैं कीर्तन। बीसवीं शताब्दी के सत्तर के दशक में।
इसीलिए तो! इसीलिए आज स्वदेशी वैष्णओं के साथ विदेशी वैष्णव भी कीर्तन के प्रचार में अवतीर्ण हुए हैं। कारण मार्क्स की भाषा में धर्म अगर 'Opium of people' है तो इस अफीम व्यवसाय के युगों से होते आने पर भी आज उसका महत्व कई गुणा बढ़ गया है। क्योंकि आज चारों तरफ क्रांति की विभीषिका है अर्थात असुर और पाखण्डियों का ताण्डव। क्योंकि 'spectre of communism' सिर्फ युरोप ही नहीं सारे विश्व में 'haunt' कर रहा है और छद्मवेशी कम्युनिस्टों के नकाब भी खुल चुके हैं। इसीलिए कृष्ण चैतन्य आज सिर्फ जातीय ही नहीं अंर्तजातिक स्तर पर प्रचार जरूरी है। इसलिए 'ISKCON' का आविर्भाव धर्म एवं अफीम का व्यापार आज के मोनोपोलिस्ट लोगों का मल्टिनेशनल व्यवसाय है एवं जगद्गुरु के वेदप्रचार से शुरू कर कालेज स्ट्रीट कसबा बेलाघाट। टालीगंज के देवाश्रित मस्तानों की सोलहआना दुर्गापूजा सब एक ही लयतान में विलंबित हैं। इसके साथ फोककल्चर लिट्ल मैगाजिन गवेषणा केंद्र कवि साहित्यक बुद्धिजीवीगण का लाट भवन में देवी दर्शन इत्यादि गंभीर रूप से गुंथे हुए हैं। यही सच है!
एशिया का मुक्तिसूर्य। बाबा नाम केवलम। वेद से विप्लव समता शांति। रामनारायण राम। साईबाबा। संतोषी मां। शनी देवता। ज्योतिषा मोट दिये किसे कास्ते धाने शीषे। जहां गाय है वहां बछड़ा है। संतानदल। आमरा बंगाली-बंगाल की नई सीमा हो नहीं तो आग जलेगी। कलकत्ता के रास्तों दिवालों पर सब लिखा है। कलकत्ता 1972, 73, 74, 75।
श्मसान में लिखा है। कॉम. अरुप (19 वर्ष) लाल सलाम। श्मसान में लिखा है केवड़ातला नीमतला - कॉम. विम (21 वर्ष) लाल सलाम!
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लैवी स्ट्राइस ने पचास के दशक का कलकत्ता देखा था, लेकिन हमने सत्तर के दशक का देखा है। लैवी स्ट्राइस ने 'British girl very nice' का दलाल देखा है लेकिन सत्तर के दशक में इस देश की भटकती girl नहीं देखी है धर्मतला में चौरंगी में। हमने देखी हैं। लैबी स्ट्राइस ने अनेक आदिम धर्मानुष्ठान नाना देशों के देखे हैं लेकिन इस देश के तरुण निधन का 'धर्मानुष्ठान' नहीं देखा है। हमने देखा है। लैबी स्ट्राइस ने कलकत्ता में भिखारियों को देखा है लेकिन मंत्रियों और उनके मुसाहिबों को नहीं देखा है। हमने देखा है। लैबी स्ट्राइस ने Asiatic crnethy का उत्स खोजा है कलकत्ता के reification में। हमने उस एशियाटिक बर्बरता का उन्मत नृत्य देखा है कलकत्ता में। उस नृत्य-नाटिका के अभिनेताओं का Human Dimension लुप्त हो गया था, लेकिन अन्य अंश में पचास के दशक में लैपी स्ट्राइस ने कलकत्ता के अभिजात होटल की खिड़की पर चील बैठी देखी थी। सत्तर के दशक में हमने नर रुपी चीलों को दो पैरों पर चलते हुए झुंड के झुंड घूमते देखा है - राक्षसों और उनके वंशजों की तलाश में!







बांग्ला में विनय घोष और 'एक्खन' पत्रिका का गहरा सम्मान है। यह लेख देशीय सीमाओं में बंधे होने के बावजूद असीम विस्तार और विश्व दृष्टि लिए हुए है। 70 के दशक में इंदिरा सरकार ने आपातकाल में बंगाल में वामपंथियों का जो निधन-यज्ञ किया था उसी बहाने धर्म के धंधों की प्रासंगिकता पर विनय घोष ने यह तीखी छुरी चलाई है। लेख का अनुवाद बहुत जटिल और मशक्कत भरा था जिसे हमारे अभिन्न साथी प्रमोद बेडिय़ा ने सम्पन्न किया। प्रमोद बेडिय़ा की एक कहानी हमने पहल की दूसरी पारी में छापी है। वे मार्क्सवादी विचारक हैं, होम्योपैथी में निष्णात हैं और पुरुलिया में रहते हैं।

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