एक भाषा है वाणी के दमन का अस्त्र

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    फरवरी 2014
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम विनोद शाही





आधुनिक भाषा-चिंतन और पातंजलि दर्शन








हमारे बोल सकने से
सभी डरते हैं
इसलिए वे हमें भाषा देते हैं
ताकि हम वही बोलें
जो उनकी भाषा में मुमकिन हो

भाषाविद न  होते हुए भी लाओत्से ने एक पते की बात कही है कि 'बोलते ही सब झूठ हो जाता है।' उनकी इस बात के रहस्यवादी अर्थ लगाये व खोजे जाते रहे हैं, इसलिए इस बात का भाषा चिंतन के क्षेत्र में ज़्यादा उपयोग नहीं हो सका है। यहां 'वाणी' और 'भाषा' के बीच के बुनियादी फर्क की समझ मौजूद है। बोलते है, 'बोली बात', भाषा की दुनिया  का हिस्सा हो जाती है। यहां सवाल यह है कि भाषा की दुनिया का हिस्सा होने में रहस्यदर्शी लोग इतना गुरेज़ क्यों करते हैं? उन्हें क्यों लगता है कि भाषा, 'झूठ' को पहनाये गये लिबास जैसी कोई चीज़ होती है? इस बात के ठोस सामाजिक अर्थ हैं, जिन्हें न समझ पाने की वजह से, भाषा चिंतन एकांगी और एक तरह से, सामाजिक अंतर्वस्तु से दूर ले जाने वाला ज्ञान-क्षेत्र होता चला गया है।
इस बात को हम एकदम पकड़ पायेंगे, जब हम इस विचार को अपने सामने रखेंगे कि जब तक वाणी, भाषा-निबद्ध नहीं होती, तब तक उसका वर्ग-विभाजन भी नहीं होता और तभी तक वह वर्चस्वी सत्ताओं की मुख्यधारा की दुनिया के दमन की संभावनाओं से अलहदा रहती है। तो, जब तक हमारे मानवीय इतिहास में यह मुमकिन नहीं था कि हम सामाजिक मुक्ति को ठोस शक्ल में हासिल करने की संभावनाएं खुलती पाते, तब तक यह इंतज़ाम काम की वस्तु साबित हुआ। भाषा की दुनियां से अलहादा होते हुए, लोग 'अपनी' वाणी को उपलब्ध करते और निजी तल पर मुक्त होने के अनुभव के करीब हो पाते। परन्तु सत्ताओं के लिये हमेशा ही यह  जरूरी होता है कि वे मनुष्य की 'किसी तरह की' भी मुक्ति की संभावना को अपनी मुट्ठी में कैद रखें, ताकि उन्हें अपनी तरह से चलाना मुमकिन बना रह सके। इसीलिए हमारे यहां ऐसा हुआ।
दुनियां के सबसे पुराने भाषा में बांधे गये ग्रंथ 'ऋग्वेद' को खास वर्गों के लिए 'आरक्षित' कर लिया गया। इससे मिल सकने वाले ज्ञान के फायदों से शूद्रों को बाहर रख दिया गया। साथ ही वर्ण-व्यवस्था से बाहर जितने अवर्ण समुदाय थे, वे भी इस भाषागत वर्गविभाजन की सियासत के निशाने पर आ गये। वर्ण-जाति मूल इस प्राचीन वर्ग विभाजन को ठोस सामाजिक हकीकत में बदलने के पीछे भाषा की क्या भूमिका थी, अभी इसका ठीक विवेचन व मूल्यांकन नहीं किया गया है। परन्तु एक दफा हम इस दिशा में आगे बढऩे लगेंगे, तो हम यह बात भी समझ पायेंगे कि हमें वेदों के उलट या विरोध में जा खड़े होने वाले लोग इतनी गहराई में प्रगतिकामी चेतना से लैस क्यों लगते हैं? बात कर्मकाण्ड या वर्णवाद आदि के विरोध तक ही सिमट कर रह जाने वाली नहीं है। अपितु कहीं ज़्यादा गहरी व बुनियादी है। इससे हम यह भी समझ पाने लायक हो पाते हैं कि इस तरह की शुरुआती किस्म की प्रगतिशीलता, उस दौर के चिंतकों को, रहस्यदर्शी व एक हद तक यथार्थ का परित्याग तक कर देने वाली क्यों बनाती थी? 'जगत का मिथ्यात्व' एक ऐसा सिद्धान्त है जो कदम-कदम पर हमारा रास्ता रोक कर खड़ा हो जाता है। नतीजतन हम अपनी चिंत परंपरा की जमीन को ही खोज पाने में असमर्थ दिखायी देने लगते हैं और जड़ों से रहित होती हमारी आधुनिक प्रगतिशीलता, हवा में अमरबेल की तरह झूलती, परजीवी होकर जीवित रहने की हद तक चली गयी नजर आने लगती है।
* * *
बात यहां से शुरू की जा सकती  है कि मानव समाजों की सारी भाषाएं, 'सामाजिक उत्पाद' होती हैं; और मनुष्य की वाणी से बोलने की सामथ्र्य, इन उत्पादों का 'कच्चा माल' या, 'आधार सामग्री'। परन्तु यहां यह भी सच है कि इस यथार्थ को 'आधार-अधिरचना' वाले 'निर्मित-मूलक' (कंस्ट्रक्शनिस्ट) मॉडल के सतही इस्तेमाल से समझना उचित नहीं है। परन्तु आगे बढऩे से पहले यह पूछना-खोजना है कि आखिर ऐसा करना उचित क्यों नहीं?
दरअसल भाषा के मामले में होगा यह (जैसा कि अब तक होता रहता है) कि हमारे पास उपलब्ध ठोस वस्तु होती है भाषा। हम यह भी जानते हैं कि वह एक  सामाजिक उत्पाद है, जो संप्रेषण से लेकर समाज की सौंदर्यमूलक जरूरतों की पूर्ति के लिए खपत में आ सकने की वजह से बड़ी उपयोगी भी है। इसलिए हम क्या करते हैं कि भाषा की व्याख्या करते हुए हम उसके 'आधार' को, 'सामाजिक अंतर्वस्तु' के दायरे से बाहर नहीं जाने देते। आधार-वस्तु ही भाषा का 'अर्थ' है और अगर भाषा का अर्थ, सामाजिक होता व बना रहता है - तो वह सीधे सीधे हमारी 'व्यवस्था' (या अव्यवस्था) का अक्स हो जाता है। अर्थ, व्यवस्था के पक्ष में होता है, तो मुख्य धारा उसका इस्तेमाल आसानी से कर लेती है - जैसा हमारे यहां वेदों का, महाभारत या रामायण अथवा रामचरित मानस के भाषा-पाठों के अर्थों के संबंध में समझा जा सकता है। परन्तु जब अर्थ 'अव्यवस्था-मूलक' होता है, तो व्यवस्था के चिंतक वहां अर्थ की बजाय 'शून्य', 'व्यर्थता', 'क्षणिकता', 'अराजकता', 'अनिश्चय या विखण्डन' आदि को देखने-दिखाने लगते हैं - जैसा हमारे यहां नागार्जुन आदि बौद्ध दार्शनिकों ने किया, या जैसा काम हमारे दौर के उत्तराधुनिक भाषाचिंतकों में देरिदा, फूको, पाल दी मान, गेडामर या पाल टिकट जैसे लोग कर रहे हैं।
सामाजिक व्यवस्था या अव्यवस्था को, भाषा का समूचा अर्थ-संसार बना देने की वजह से यह मुमकिन बना रहता है कि भाषा के असल अर्थ, आधार या स्रोत के रूप में वाणी का दमन होता रह सके। यह दमन, मानव सभ्यता के इतिहास  के आरंभ से लेकर, आज तक इसलिए जारी है क्योंकि इसके खात्मे का मतलब यह होगा कि सामाजिक व्यवस्था या अव्यवस्था के पास अमानवीय होने और होते रहने की गुंजाइश का भी करीब करीब अंत हो जायेगा।
यों, आधुनिक समयों में प्रवेश करती मानवजाति ने, इस दिशा में एक कदम जरूर उठा लिया है। यह कदम उठा है - मनुष्य की श्रममूलक संभावनाओं की सामाजिक व्यवस्थाओं के द्वारा दोहन-शोषण की प्रवृत्तियों को दी गयी चुनौतियों के रूप में इसका नतीजा, भाषा की दुनियां के तल पर भी निकला है। और वह यह है कि हमारे इन समयों में भाषा का अर्थ, व्यवस्था के 'महाख्यानों' के अनुशासनों के बाहर निकल सका है। परन्तु उसके ठीक से 'मानवीय आख्यान' हो सकने का दौर तब आरंभ होगा, जब बात वाणी की ऐसी मुक्ति तक चली आयेगी, जो 'अपनी भाषा' की खुद स्वामिनी हो सकेगी। आइए, उत्तराधुनिक भाषाचिंतकों के द्वारा उद्घाटित कुछ उल्लेखनीय अंतर्दृष्टियों की मदद से, इस 'वास्तव-यथार्थ' को थोड़ी तफसील से, कुछ और स्पष्टता से, समझने की कोशिश करें।
* * *
भाषा की सामाजिक अंतर्वस्तु के गठन का काम कौन करता है? आधुनिक काल से पहले तक यह काम धर्म और दर्शन की मदद से किया जाता था, परन्तु उसे नाम दिया जाता था - दैवीय व्यवस्था का। ईश्वर दुनियां को बनाने के लिये क्या करता था? किसी शब्द का उच्चारण करता था और इस तरह भाषा, इस तरह की व्यवस्था की बुनियाद के तौर पर स्थापित कर ली जाती थी। जहां तक भाषा को 'बोलने' का सवाल है, वह तो मानवजाति के पास तब भी थी, जब कोई वैयाकरण, धर्मगुरू, दार्शनिक या सत्ता-व्यवस्थापक नहीं था। तो भाषा के दैवी 'आधार' के द्वारा, भाषा के नियम बनाना और उन्हें सत्ता-व्यवस्था के पर्याय की तरह इस्तेमाल में लाना, एक सवाल तो खंडन कर ही देता था। सवाल यह था कि अगर भाषा का उत्स या स्रोत दैवी होता है, तो उसके हजारहां रूपों और उन्हें हजारहां अलग अलग तरह की धारणाओं व मान्यताओं के द्वारा, सभी अलग अलग तरह से कैसे बोल और समझ लेते हैं? यानी क्या दैवी व्यवस्थाएं भी हजारों तरह की होती या हो सकती हैं? इससे भाषा के किसी सार्वभौम रूप और उसकी किसी कुदरती व्यवस्था की मौजूदगी की तरफ ध्यान गया। यहां 'वाणी' के आधार की बात खुद ही नुमायां हो जाती है। भाषा के भेदों के बावजूद 'मनुष्य की वाणी' तो एक कुदरती सामथ्र्य की तरह सभी में सांझी होती है... तो मानना यह चाहिये था कि वाणी के जो नियम हैं, व उन नियमों की जो व्यवस्था है - वह भाषा की बुनियाद है; अत: भाषा के 'असल अर्थ' की तलाश हमें वहीं करनी चाहिए। परन्तु बात वहां तक पहुंचते-पहुंचते रह गयी।
आधुनिक-उत्तराधुनिक भाषा-चिंतन में भी दो तरह की सोच वाले लोग दिखायी दिये। वे दोनों इस बात पर एकमत थे कि भाषा का उत्स दैवी न होकर, सामाजिक होता है। परन्तु इस बात पर असहमति जरूर उभर कर सामने आयी कि वह सामाजिक अंतर्वस्तु, 'संस्थागत' या 'वर्गगत' होती है, अथवा उसके पीछे किसी सार्वभौम समाज-व्यवस्था की बुनियाद मौजूद होती है? नाआम चैमस्की या बोआज़ जैसे लोग इस दूसरी तरह की समझ को विकसित करते रहे हैं। वे मानवविज्ञान की मदद से कबीलों के भाषा-व्यवहारों तक गये और यह तलाश करते रहे कि भाषा की 'गहरी संरचनाएं' क्या किसी ऐसी सामाजिक व्यवस्था की उपज होती हैं - जो पूरी मानवजाति के लिए एक जैसी हैं। दरअसल हुआ यह है कि माक्र्सवादी अध्ययनों ने भाषा की वर्ग-संरचनाओं की बात को बहस का हिस्सा बना दिया था परन्तु भाषा में सामाजिक वर्ग-विभाजनों वाली फांक सीधे सीधे नज़र नहीं आती थी। तो विचार पैदा हुआ कि क्या वर्गविहीन समाज की संभावना को, कबीलों की वर्ग विभाजन-पूर्व वाली स्थितियों से जांच लिया जाये और फिर किसी सांझे वर्गविहीन मानव-समाज की धारणा को, भाषा की सार्वभौम गहरी संरचना के तौर पर देखने की कोशिश की जाये।
माक्र्सवादी-नवमाक्र्सवादी तरीकों व नजरियों से भाषा को व्याख्यायित करने वाले चिंतकों का ध्यान, भाषा के 'पूंजीवादी उद्योग' पर केंद्रित रहा। खास तौर पर उत्तराधुनिक समय में पनप रहे मीडिया-उद्योग पर; जो भाषा के लिखित रूप के साथ-साथ उसके दृश्य श्रव्य रूपों के बाजार के अमानवीय व मुनाफाखोर उपभोक्ताकरण को बेनकाब करना चाहता था। भाषा के अध्ययन की यह पद्धति, मोटे तौर पर भाषा के प्रकार्यगत (फंक्शनल) रूप तक सीमित होकर रह जाती थी। हालांकि एंगेल्स और लूनाथास्र्की का ध्यान, आरंभिक रूप में इस ओर भी गया था कि भाषा को मानवश्रम के सहचर के रूप में प्रकट होने वाली व्यवस्था की तरह समझा जाये। परन्तु बात शुरू होकर बाद में वही रुकी रह गयी थी, क्योंकि उत्तर माक्र्सवादी चिंतक भाषा को श्रम-संसाधन जैसी आधार-वस्तु मानने की स्थिति पर टिके न रहकर, उसे श्रमजनित व्यवस्थाओं की अधिरचनाओं की तरह-सामाजिक निर्मित (कंस्ट्रक्शन) या उत्पाद (प्रोडक्ट) की तरह ही •यादा देखने लग पड़े थे। इससे भाषा को लेकर जो 'आधार' भूत बहस पैदा हो सकती थी, वह नहीं हो पायी। भाषा को, भाषा से 'बाहर' मौजूद सामाजिक व्यवस्था या अव्यवस्था के खोल की तरह देखने का वही पुराना तरीका फिर से केन्द्र में आ गया। पहले भाषा से बाहर मौजूद ईश्वर को केंद्र में बिठाने लायक बनाया गया था - क्योंकि वह प्रतीक हो सकता था उस सामाजिक व्यवस्था के सार का - जिसे राजशाही या सामंत लाना चाहते थे। अब बात सीधी हो गयी। भाषा के रूप और अर्थ के सारे नियम, सीधे सीधे सामाजिक व्यवस्था के पर्याय की तरह धारणा-बद्ध कर लिये गये - जहां समाज को व्यवस्थागत सार, भाषा की 'गहन संरचना' या असल अर्थ की तरह स्थापित कर लिया गया। भाषा पहले की तरह 'कत्र्ता' के वर्चस्व वाली ही बनी रही। शेष पूरी दुनिया उसका 'कर्म' या 'वस्तु' हो गयी। इस तरह भाषा की वाक्य-संरचना का जो बुनियादी ढांचा था, वह वही रहा, यानी सत्ता-वर्चस्व को स्थापित करते हुए, शेष तमाम यथार्थ को उसकी वस्तु 'बना' कर रखने की 'क्रिया' का विस्तार किया चला जाता रहा।
भाषा के जरिये,जब हम यथार्थ को समझते हैं, तो उसका 'भाषागत विखण्डन' होता है। यथार्थ को पहले 'दृष्टा' और 'दृश्य' में तोड़ा जाता है - तब उससे 'दर्शन' या अर्थ प्रकट होता है। इस बात को हमारे यहां के भाषा-दार्शनिक समझते थे। इसलिए शास्त्रीय दौर के भाषा-मीमांसक पतंजलि का योग-दर्शन एक ही काम करता है। वह हमें समझाता है कि हम कैसे भाषा के परे मौजूद यथार्थ के उस समूचे अर्थ को पकड़ सकते हैं - जहां द्रष्टा, दृश्य और दर्शन एक हो जाते हैं। इस आलेख के दूसरे हिस्से में इस का विस्तार किया जायेगा फिलहाल उत्तराधुनिक भाषा चिंतकों के द्वारा सामाजिक अंतर्वस्तु के 'खास' यानी सत्ता-व्यवस्थागत अर्थ को, भाषा का असल अर्थ बना देने से जुड़ी उसकी चिंतन-धाराओं का खुलासा करते हैं।
हैबरमास, फूको, ल्यौतार, पाल दी मान, मैक्स वेवर,गेडामरऔर रिकट जैसे समाजशास्त्र से दर्शन को जोडऩे वाले चिंतकों ने, सस्यूर के भाषा-मॉडल का नये अर्थों में दूर तक विकास-विस्तार कर लिया है। ये लोग भाषा में सामाजिक व्यवस्थागत अंतर्वस्तु की 'बहुलार्थक कंस्ट्रक्शन' के रूपों व तरीकों पर केंद्रित हो सके हैं। देरिदा भी इसी श्रेणी में आते हैं, परन्तु वेद व्यवस्था की जगह अव्यवस्था के खतरों की अराजक दुनियां की संभावना भी खोल देते हैं। बहुलार्थता, 'आधार' बहुलता का नतीजा है। यह क्या है? बहुत से वर्गों, जनसमुदायों का हमारे दौर में अचानक उभार नज़र आने लगा है। नारी, दलित, युवा, पर्यावरणवादी, मूल निवासी, प्रवासी या अश्वेत आदि ऐसे जन-समुदाय हैं, जो नयी तरह की समाज-व्यवस्था के एक बहुलता-धर्मी ढांचा बनाने का 'आधार' होते चले गये हैं। तो, यह दरअसल सत्ता में नये भागीदारों को स्वीकार करने की मजबूरी से पैदा हुआ चिंतन है। इसलिए इसका पूरा जोर, भाषा के संस्थानीकरण को बनाये-बचाये रखने पर लगा हुआ है। सरकारी, गैर-सरकारी हर तरह की संस्था का इस्तेमाल कर लेने के लिये यहां जैसे एक आपाधापी सी नजर आती है।
इसे समझने के लिए यह सवाल पूछना जरूरी लगता है कि हम भाषा कैसे  सीखते हैं और कैसे समझते हैं? बच्चा पैदा होते ही, परिवार नामक संस्था से भाषा की सिखलायी की प्रक्रिया में आ जाता है, फिर स्कूल, अकादमिक दुनिया, विज्ञान, बाज़ार, सांस्कृतिक संस्थाएं, व्यवसायिक संस्थाएं वगैरह सब मिलकर, उत्तराधुनिक भाषा के मानव-उत्पाद को जन्म देते हैं। हर विषय की - इतिहास, अर्थशास्त्र, विज्ञान, साहित्य, धर्म आदि सबकी अपनी-अपनी विशिष्ट शब्दावली वाली भाषा है। यह जो विविधता या बहुलता है, वह संस्थागत 'आधारों' से आती है। तो भाषा के ये तमाम रूप जब हमारे द्वारा बोले समझे जाते हैं, तब इससे हमारी उन संस्थाओं के प्रति प्रतिबद्धता अंतत: संस्थानीकरण हो जाता है। समाज, जो भाषा के बाहर खड़ा है, भाषा के सार, या उसकी अंतर्वस्तु की तरह, भाषा की आत्मा तक होकर वहां भीतर देवमूर्ति की तरह स्थापित हो जाता है।
नतीजतन, हम भाषा के जरिये अपनी वाणी तक भी पहुंच नहीं पाते। हालांकि जिस तरह श्रम हमारी वास्तविक सृजनशीलता की 'आधार' भूमि होता है, उसी तरह हमारी 'वाणी' हमारे ज्ञान की असल जमीन होती है। वह यथार्थ के समग्र दर्शन से उपजती है। शास्त्रीय दौर में हमने वहां तक पहुंचने का जो रास्ता खोजा था, पहले उसे समझना होगा, फिर उसका विस्तार करते हुए आगे बढऩा होगा।


दो : भाषा ही है वाणी का प्रवेश-द्वार

'शब्दार्थ-प्रत्ययानां इतरेतराध्यासात् संकरस्तत्प्रविभागसंयमात् सर्वभूतरुतज्ञानम्'
पातंजल योगदर्शन, विभूतिपाद 3/17
यानी 'शब्द, अर्थ और बोध के एक-दूसरे पर हुए आरोप से पैदा संकर हालात के खास हिस्सों पर संयम करने से, सब भूलों की वाणी का ज्ञान हो जाता है।'
* *
सब भूत-पदार्थ और प्राणी बोलते हैं। जहां गति है कर्म-व्यवहार है, वहां ध्वनि है। सब कंपन, कुछ न कुछ, कहते हैं हम सब ध्वनियों को सुन नहीं पाते। वह ज़रूरी नहीं है। जीवन के विकास क्रम में, सभी प्राणियों के पास, ध्वनि का गुंजार ही नहीं, अपनी अपनी अलग और खास वाणी भी आ जाती है। जड़ भौतिक पदार्थों के पास महज़ ध्वनि होती है। जीवन से युक्त प्राणियों के पास वाणी या तत्त्वत: दोनों एक ही चीजें हैं। फर्क है जटिलता, स्वायत्तता और इच्छा से पैदा हुई रचनाशीलता का। जड़ पदार्थों की ध्वनियों को यंत्र नाप सकते हैं उनके ग्राफ तैयार हो सकते हैं। इसके आधार पर इन ध्वनियों के अर्थों को काफी हद तक समझा जा सकता है। हवा, पानी, लावा छोड़ते पहाड़ या गर्जते बादलों की ध्वनियां, उनकी गति, वेग, अनिकूलता, प्रतिकूलता आदि से जुड़े अर्थों की खबर देती हैं। सब ध्वनियां अर्थपूर्ण होती हैं। पर जरूरी नहीं कि हम सब ध्वनियों के सही अर्थ जानते भी होते हों।
पर जीवित प्राणियों में शब्द के साथ अर्थ ही नहीं, बोध भी अनिवार्यत: मौजूद रहता है। पहले तो ध्वनियां, शब्दों की जटिल व्यवस्था में चली आती हैं। दूसरे, किस शब्द का क्या अर्थ होगा, इसे तय करने की आजादी भी इन प्राणियों के पास चली आती हैं। बेशक यह तय करने का काम निजी बहुत ही कम और सामूहिक ही ज़्यादातर हुआ करता है। पर अर्थ के मामलों में, सभी प्राणी, एक हद तक स्वायत्त हो जाते हैं। पर एक हद तक ही ऐसा होता है।
उत्तर आधुनिक भाषा-मीमांसा में शब्द और अर्थ को संकेतक और संकेत कहा जाता है। इनके रिश्तों को ऐच्छिक बताया जाता है। पर यह ऐच्छिकता, कभी भी मनमानापन नहीं होती। क्योंकि संकेतक शब्द के अर्थ-संकेत सामूहिक रूप से तय होते हैं। इतना ही नहीं, गहरे में संकेतक-शब्द, पदार्थों की कुदरती ध्वनियां से पैदा होने की वजह से, उनसे एक ऐसा रिश्ता बनाये रखते हैं, जो सजग रूप ने पकड़ में नहीं आता।
भाषा को शब्द और अर्थ की व्यवस्था के रूप में ही, अभी तक आम तौर पर समझा और समझाया जाता रहा है। उत्तर आधुनिक भाषा-मीमांसा भी इससे आगे, कुछ खास सफर करती दिखायी नहीं देती। पर यह बेहद अपर्याप्त है। यह केवल, भाषा की सतह को ही जानने समझने जैसा है। पतंजलि का योग-दर्शन, भाषा के सवाल पर बहुत गहरी व्याख्या मुहैया नहीं करता। परन्तु वे एक भाषाविद भी थे। इसीलिए, उनके इस विषय से ताल्लुक रखने वाले, इस सूत्र को, ज़्यादा गहराई से समझना जरूरी लगता है।
भाषा को, पतंजलि, शब्द और अर्थ की ही नहीं, शब्द, अर्थ और बोध की व्यवस्था मानते हैं।
सभी जीवित प्राणी बोध-युक्त होते हैं। अपने-अपने बोध के स्तर के मुताबिक, वे शब्द और अर्थों के रिश्तों में, खास तरह की रचनाशीलता का परिचय देते हैं।
वाणी, प्राणियों के जीवन के विकास क्रम के मुताबिक, ज्यादा उच्चतर रूपों में उपलब्ध होती जाती है। यह वाणी ही, बोध की जैव जमीन है। इसलिये, बोध को ठीक से समझने के लिए, पहले वाणी को समझना होगा - व्याख्यायित करना होगा।
वाणी, ध्वनि-संसार की जड़ भौतिक पदार्थों के द्वारा की जाने वाली यांत्रिक अभिव्यक्ति की सीमाओं को तोडऩे और उनसे, एक हद तक युक्त होने का, जैव उपकरण है।
यानी, हम जब बोलते हैं, तो एक तरह से हम, एक वैकल्पिक यथार्थ का निर्माण करते हैं। हम ध्वनियों को यांत्रिक व्यवस्था से आजाद करके, नयी व्यवस्था देने लायक हो गये होते हैं। तो वह जो ध्वनियों का पदार्थों की कंपन-गतियों से कुदरती रिश्ता है - उसे हम बोलते वक्त थोड़ा बहुत बदल रहे होते हैं। बोलने से जो कंपन-गति से बंधी ध्वनियां होती हैं, वे नयी तरह के कंपनों की व्यवस्था में बदल जाती हैं। पर उससे पदार्थ की संरचना नहीं बदलती बस हम, पदार्थ में स्वतंत्र, एक भाषागत विकल्प संसार रचने की ओर थोड़ा आगे बढ़ गये होते हैं।
फिर वह जो वैकल्पिक ध्वनि-संसार है, उस में से जितना हमारे बोध का विषय बनता जाता है, उतना ही हम, ऊर्जा भौतिक जगत में, बदलाव या रूपांतर को एक अंजाम तक ले आने की कोशिश कर पाते हैं।
वाणी और बोध के रिश्तों को अभी तक बहुत कम समझा जा सकता है।  हालांकि हम जो बोलते हैं, उतना ही समझते  हैं। बिना बोले, हम कभी कुछ भी, समझ पाने में असमर्थ रहते हैं। जिन ध्वनियों या शब्दों को हम सुनते हैं, उनमें से जितने ध्वनि-शब्दों को हम अंर्तवाणी के तल पर दोहरा पाते हैं - उतना ही हमारी समझ का हिस्सा बनता है। शेष सब सुना, अनसुना रह जाता है। 'अनसुना रह जाना'- एक मुहावरा है। दरअसल, उसे भी हमने सुना तो होता ही है, तो अनसुना उसे कदापि नहीं कहा जा सकता। चूंकि वाणी को लेकर हम, करीब करीब अचेतन या सोये हुए से होते हैं, इसलिये हम यह नहीं कहते कि दरअसल हम उसे भीतर बोल कर साथ साथ दोहरा नहीं पाये। जबकि असल में यही होता है। हमारी वाणी, हमारे जाने बिना हमेशा काम करती रहती है। हम प्रकट में न भी बोल रहे हों, पर भीतर वह कभी चुप नहीं होती।
दूसरी बात यह भी गौरतलब है कि हम वही बोलते-दोहराते हैं, जितना हमारे भीतर पहले ही स्मृतियों-संस्कारों से ताल्लुक रखने वाला, कोई अर्थ प्रकट हो गया होता है। निरर्थक शब्दों को हम आम तौर पर तभी दोहराते-बोलते हैं, जब अर्थग्रहण में कठिनाई आ रही हो उसका हम किसी की नकल करने या ऐसे किसी अन्य प्रयोजन से इस्तेमाल करना चाह रहे हों। इसलिये नये अर्थ, हमारे भीतर  मौजूद पहले के अर्थों की नयी व्यवस्था या संयोजन भर होते हैं। नये शब्दों के नये अर्थ हम तब ग्रहण करते हैं, जब उनके वे नये अर्थ हमारे भीतर, अन्य संवेदक इंद्रियानुभवों के बिम्बों की तरह उनके रिश्ता बना पाते हैं। ऐसे शब्दों को अर्थगर्भ बनाने के लिये हमें उन्हें बार बार दोहराना पड़ता है, ताकि ये हमारी स्मृति में खास अर्थों के साथ रिश्तों के साथ, दर्ज हो जायें।
स्मृतियों में दर्ज, शब्दार्थ योजना, वाणी को उपलब्ध रहती है। इस तरह वाणी, स्मृतियों का अभिव्यक्ति-उपकरण है, जो बोध का हेतु है। वाणी, बोध की जमीन है, जिस पर ज्ञान की फसल उगा करती है। बोध, बुद्धि का लक्षण या गुण है परन्तु बोध मात्र से, बुद्धि का काम नहीं चलता बुद्धि, शब्द और अर्थ के बोध को, पहले ज्ञान से बदलती है; फिर उस ज्ञान के सार को, विवेक की तरह पुनरुपलब्ध करती है। यानी बोध कच्ची सामग्री है, ज्ञान उत्पाद है और विवेक पुनरुत्पाद। परन्तु, भाषा की व्यवस्था शब्द से अर्थ तक, और फिर अर्थ से बोध तक, फैली होती है।
वाणी, भाषा के शब्दार्थ वाले पक्ष को, बोध का रूप लेने में मदद करती है। परन्तु शब्दार्थ का भाषा-संसार, इससे आगे नहीं जाता। बोध में बदल गया शब्दार्थ, वाणी की कच्ची सामग्री बन जाता है। वाणी इस कच्ची सामग्री को, बुद्धि की मदद से, ज्ञान और विवेक के उत्पादों-पुनरुत्पादों में बदला करती है।
वाणी का जो सबको सुनाई देने वाला रूप है, वहां भाषा संप्रेषण की यानी सबके सामूहिक बोध की वस्तु की तरह काम आती है। वह वाणी का उथला स्तर है। उसे परंपरागत चिंतन 'वैखटी' कहता है। भीतर की स्मृतियों में पड़े शब्दार्थ का, संप्रेषित शब्दार्थ से रिश्ता जोडऩे वाला, वाणी का भीतरी स्तर, मध्यमा वाला है। इन्हीं अर्थों ने बोध भी सामूहिक-सार्वजनिक एवं स्मृतिमूलक - दो स्तरों वाला होता है। वाणी और बोध के अगले जो और गहरे स्तर है, वहां शब्दार्थ भाषा की जगह उसके बोध-उत्पाद पर एकाग्र होने की स्थिति सामने आती है। अब शब्द पीछे छूटने लगता है और अर्थ ही खुद को प्रकाशित करने की स्थिति में आ जाता है। इसे पतंजलि 'स्वरूप शून्य अर्थमात्र इव' कहते हैं। यानी शब्दार्थ शब्द-स्वरूप के शून्य हो जाने पर अर्थ मात्र होकर शेष बचता है। इस अर्थ समाधि में ज्ञानप्रकट होता है फिर अर्थ भी पीछे छूट जाता है। बचती है तो बस एक विवेक-दृष्टि; जो साक्षी की तरह वहां सब तरफ अंतव्र्याप्त रहती है। अर्थ-समाधि में वाणी और बुद्धि के बीच का फासला गिर जाता है। लगता है जैसे हम जो जान रहे हैं, वही बोल रहे हैं और जो बोल रहे हैं, वही हमारा बोध है। इसे 'परा' वाणी का नाम दिया गया है, क्योंकि यहां बोलना अपने-आप में कोई अर्थ नहीं रखता, पर मौन भी नहीं होता। बुद्धि हमसे जो बुलवाती है, हम इस अवस्था में वही बोल रहे होते हैं। जबकि साक्षी या 'पश्यंती' वाले स्तर पर वाणी खुद को पुन: अति-व्याप्त पाती है पर अब वह बोलना, गोया किसी और का बोलना होता है। साक्षी, हमारे भीतर मौजूद एक अजनबी है। धीरे-धीरे हम बेशक वही होकर रह जाते हैं पर तब हम जैसे अपने उस अन्य की तरह खुद को बोल ही नहीं पाते, उसके बोलने से अभिभूत या आत्म-मुग्ध से हो जाते हैं। ऐसा इसलिये होता है क्योंकि इससे पहले हम ने कभी खुद से, इतनी गहराई में उतर कर, बोलने की उम्मीद नहीं की होती सो, कुछ लोग इसे खुद पर 'वाणी के उतरने' की तरह भी देखने लगते हैं। जैसे प्लेटो-अरस्तू के संवादों में सुकरात के साथ कवियों की वात्र्ता पर टिप्पणियां आयी हैं कि वे कविता करते हुए, जैसे अपने आप में नहीं होते तो, इसे 'बोध' की कसौटी पर आप रद्द भी कर सकते हैं। पर इस तरह का बोलना ऐसा होता है जो श्रव्य होता है और तुरंत बोध हो जाने की हैसियत भी रखता है।
भाषा के काव्य हो जाने की जो प्रक्रिया है, वह भाषा-मीमांसा के दायरे से बाहर ही मालूम पड़ती रही है हमारे दौर में उसकी व्याख्या भी हम भाषा के नियमों से विचलन या अपरिचयीकरण आदि से करने की कोशिश कर रहे हैं। अन्यार्थ की मौजूदगी के अनेक स्तर हमें वहां दिखायी देते हैं। इस गुत्थी को 'भाषा' के दायरे में महदूद रहते हुए सुलझाना कठिन है। यहां हमें 'वाणी' के शास्त्र तक आना होगा। सुकरात-प्लेटो आदि दार्शनिकों ने कवियों की बाबत जो टिप्पणियां की हैं, उनका आधार काव्यपाठ करने वाले लोग थे। हमारे यहां भी काव्यशास्त्र, खुद को शब्दार्थ पर नहीं, वागर्थ पर एकाग्र करता है पर हमारे समय तक आते आते, यह जो भेद था, इसे पूरी तरह भुलाया जा चुका है।
* *
असल बात भाषा को समझने की नहीं, वाणी को समझने की है।
भाषा तो महज़ वाणी का द्वार है।
भाषा पूरी तरह एक सामाजिक वस्तु या संपत्ति है जबकि वाणी हमारा ज्यादा व्यापक, जैव-सामाजिक यथार्थ है।
भाषा के सहारे हम उसी तरह वाणी के द्वार खटखटाते हैं, जैसे समाज में कुछ लोग, दूसरों के घरों तक जाते हैं। उनकी रसाई वहां घर के भीतर के ड्राइंग रूम तक रहती है। भीतर के कमरों में प्रवेश, भाषा के अंतरंग में अथवा नेपथ्य में प्रवेश है।
 हम अपनी भाषा दूसरों को, तथा दूसरों की भाषा खुद को, आदान-प्रदान व इस्तेमाल आदि सामाजिक कार्यों के लिये उसी तरह दिया करते हैं, जैसे तमाम दूसरी चीजों को। परन्तु वाणी के तल पर कोई उधार, कोई लेन-देन नहीं चलता। अभिनेता दूसरों की वाणी की नकल तो कर सकते हैं, परन्तु वाणी से उपजने वाले किसी के बोध में कभी सीधे हिस्सेदार नहीं हो सकते।
वाणी के विविध रूपों, उतार-चढ़ावों, भंगिमाओं व क्लयों आदि के अध्ययन से, हमें वाणी से चिपटे हुए बोध का अनुमान भर हो सकता है, बशर्ते हमारा अपना अनुभव इतना व्यापक व संवेदनशील हो कि हम अपने अनुमान को असल के करीब ले आने की सामथ्र्य रखते हों। जैसे कवियों, नाटककारों या अभिनेताओं में होती है। वाणी का अनुकरण हमें एक तरह की व्यक्तित्व-बहुलता प्रदान करता है।
वाणी, व्यक्तित्व की कुंजी है; भाषा नहीं भाषा द्वार भर है, जिसे वाणी की कुंजी से खोला जा सकता है।
तो क्या अन्य प्राणियों की 'वाणी का ज्ञान' मुमकिन है? आइए, पतंजलि के इस सूत्र की संभावना को यथा-सामथ्र्य खोलने समझने का प्रयास करें।
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वाणी के रहस्य-संसार में प्रवेश करने का रास्ता कहां से खुलता है? पतंजलि इशारा करते हैं कि इसके लिये हमें शब्द, अर्थ और बोध की संकटावस्था पर निगाहें टिकानी होगी। वे कहते हैं कि वाणी, तीन चीजों के अलग-अलग अनुपातों में संकट या मिश्रित हो जाने का परिणाम है। दरअसल ये तीनों, एक दूसरे से अलहदा चीजें हैं। शब्द को अर्थ से और अर्थ को बोध से, अलगाया जा सकता है।
जैसे प्रयोगशाला में वैज्ञानिक पदार्थों को अलग अलग तत्वों में तोड़ देते हैं। फिर उनके अलग-अलग अनुपातों के नये मिश्रणों से, नयी चीजें बन जाती हैं। वाणी को भी उसी तरह के निर्मित हो सकने वाले उत्पाद में बदलना मुमकिन है।
उच्च तकनीकी यहां हमारी मदद कर सकती है। आज हम जानते हैं कि बोध भी एक उत्पाद है। इसे कम्प्यूटर की भाषा में 'ई-इंटेलिजैंस' या 'सायबर-स्पेस' जैसे नाम दिये जा रहे हैं।
तो हम किसी भी प्राणी की वाणी का विखण्डन और विश्लेषण कर सकते हैं। पहले है - शब्द ध्वनि उनके 'सैंपल' लिये जा सकते हैं। इसमें कठिनाई नहीं है फिर है अर्थ और बोध इनका आकलन जटिल व कठिन है। पर कुछ हद तक मुमकिन जरूर है। आसपास के या दैहिक स्थिति से ताल्लुक रखने वाले हालात में शब्द-ध्वनियों के 'अर्थ' मौजूद रहते हैं। किस हालत में कैसी शब्द-ध्वनि अक्सर बोली जाती है । इसका अध्ययन किया जा सकता है। फिर उनके रिश्तों से शब्दों के अर्थों का कोष तैयार हो सकता है।
'बोध' का अध्ययन, प्रतिक्रिया के आवृत्ति चक्रों से हो सकता है। किस शब्द-ध्वनि से, किसी प्राणी की देह क्या प्रतिक्रिया करती है। इससे पीछे छिपी पूरी बोध प्रक्रिया तक पहुंचा जा सकता है।
फिर इन तीनों के बीच नये तरह के रिश्ते या 'अध्यास' स्थापित हो सकते हैं।




विनोद शाही समूचे पांतजल दर्शन का पुनर्पाठ कर रहे हैं। 'पहल' में विनोद शाही अपने सर्वोत्तम लेखन के साथ अनेक बार प्रकाशित। पहल पुस्तिकाओं में प्रकाशित।

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