अंधेरे के बाद

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    फरवरी 2014
श्रेणी पहल विशेष
संस्करण फरवरी 2014
लेखक का नाम जितेन्द्र भाटिया





इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां




दो अंक पहले हमने इस श्रृंखला में अरविंद केजरीवाल और उनके आंदोलन के महत्व को रेखांकित किया था। तब उनकी पार्टी का झंडा भी बुलंद नहीं हुआ था। हमारे समय के अधिकांश सुधी आलोचकों ने जिस हल्केपन के साथ उनके आंदोलन पर हंगामाखेज़ होने के आरोप लगाए थे, उस पर भी हमने आपत्ति दर्ज की थी। चुनावों के तमाम उलट-फेरों के बाद वही अरविंद अब बड़े जनादेश के बूते पर दिल्ली राज्य के नेता के रूप में सत्ता संभाल चुके हैं। यह एक तरह से उनके आत्मविश्वास और उनके प्रबंधन का सबसे कठिन इम्तहान है। दोनों प्रतिपक्षी पार्टियों की दुरभिसंधि के बीच, इरादों और वादों की इस अग्निपरीक्षा से वे कितने खरे बनकर निकलते हैं, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इसमें शक नहीं कि केजरीवाल और उनकी पार्टी के उदय ने देश में कांग्रेस और बीजेपी से अलग एक तेज-तर्रार तीसरे विकल्प की उम्मीदें जगा दी हैं। बुद्धिजीवियों के एक तबके को हर चीज़ को शक की निगाह से देखने (अंग्रेज़ी में 'डाउटिंग थॉमसेज़') जैसी आदत है। इन लोगों ने गठन के साथ ही इस नयी पार्टी का क्रियाकर्म भी सम्पन्न कर डाला था। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि भ्रष्टाचार और महंगाई की दोहरी मार झेल रहा सामान्य जन बहुत धैर्य और उम्मीद के साथ केजरीवाल और उनके साथियों को देख रहा है। शकील बदायूनी के शब्दों में कहें तो -
ज़माना अहल-ए-खिरद से तो हो चुका मायूस
गज़ब नहीं, कोई दीवाना काम कर जाए!
* *
पौराणिक काल में पांडवों ने एक वर्ष अज्ञातवास की स्थिति में जंगलों में गुज़ारा था। शर्त यह थी कि अज्ञातवास के दौरान कोई भी उन्हें ढूंढ या पहचान न पाए। कुछ वर्ष पहले तस्कर डाकू वीरप्पन भी कई वर्षों तक कर्नाटक-केरल के जंगलों में पनाह लेने में कामयाब रहे। आज के युग में नक्सलपंथियों ने जंगल की शरण ली है। लेकिन वहां उनकी गोपनीयता और सफलता जंगल से अधिक आसपास रहने वाले बाशिंदो के सहयोग और उनके समर्थन पर कायम है।
जंगलों की तुलना धरती और जीवन के फेफड़ों से की जा सकती है। जहां जंगल सांस नहीं लेते, वहां जीवन की सम्भावना भी देर सवेर समाप्त हो जाती है। पूरी दुनिया में जिस तेज़ी से जंगल हमारे तथाकथित विकास की बलिवेदी पर कुर्बान किए जा रहे हैं, उसका लेखाजोखा हमारे समय की सबसे भयानक वास्तविक 'हॉरर्र स्टोरी' से कम नहीं है। जिस प्रलय और विनाश की परिकल्पना हमारे कई ग्रंथों में मिलती है, पर्यावरण के खिलाफ हमारे ये विनाशकारी आत्महंता कदम शायद आने वाले दशकों में इस पौराणिक प्रलय को वास्तविकता में बदल सकते हैं।
यूं तो लाभ की अंधी आकांक्षा में डूबकर कॉरपोरेट का एक बहुत बड़ा हिस्सा पर्यावरण के तकाज़ों को नज़रअंदाज़ करता रहा है, लेकिन जंगलों के साम्राज्य का मटियामेट करने में जिन बहुराष्ट्रीय पूंजीवादी ताकतों ने सबसे मारक भूमिका निभायी है, उनमें ज़मीन से तेल और खनिज दोहने वाली कम्पनियों डच 'शेल' और अंतर्राष्ट्रीय खनिज कम्पनी 'रियो टिंटो' के नाम सबसे ऊपर आते हैं। 'शेल' की भारत में अच्छी खासी उपस्थिति है और - 'रियो टिंटो' इधर बहुत ज़ोर शोर के साथ भारत में खनिजों को बटोरने के लिए उतर रही है। इन दोनों ही कम्पनियों पर तीसरी दुनिया के देशों में प्राकृतिक सम्पदा को बेहिसाब लूटने, पर्यावरण को तबाह करने और अपने रास्ते के रोड़े बनने वाले जन-जातियों के प्रतिनिधियों को मौत के घाट उतरवा देने के संगीन आरोप हैं। अपने उद्देश्य के लिए सरकारों को खरीदना और उनके कंधे पर बंदूक रखकर अपने प्रतिद्वंद्वियों को रास्ते से हटाना इनकी स्थापित नीति है।
तेल कम्पनी 'शेल' दुनिया के 200 से अधिक देशों में तेल बेचती है और उसकी सालाना 500 अरब डॉलर की आय दुनिया के 100 गरीब मुल्कों की कुल सालाना जी डी पी अथवा आय से कहीं अधिक बैठती है। ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी पूंजी के चलते इसके लिए सरकारों को अपनी जेब में रखकर चलना बहुत आसान हो जाता है। दृष्टव्य है कि तीसरी दुनिया के जिन-जिन देशों में तेल के भंडार मिले, वहां वहां इस पर एकाधिकार करने के लिए कंपनियों ने राजनीतिज्ञों, तानाशाहों और उद्योगपतियों से सौदेबाज़ी कर इन गरीब देशों की अर्थव्यवस्था को जोंक की तरह चूसकर धरती, जंगल और पर्यावरण पर अकल्पनीय कहर ढाए हैं। अफ्रीकाई देशों में इनके सबसे अच्छे उदाहरण हैं अंगोला और नाइजीरिया।
टेक्नॉलॉजी पर 'पहल' की श्रंृखला (बाद में 'सदी के प्रश्न' नाम से पुस्तक रूप में प्रकाशित) में हम पहले भी नाइजीरिया का उल्लेख एकाधिक बार कर चुके हैं। दृष्टव्य है कि इस देश की लगभग आधी जनसंख्या पूरी तरह कृषि पर आधारित है, लेकिन देश की सकल आय का 90 प्रतिशत तेल के निर्यात से आता है और कृषि से होने वाली आय पांच प्रतिशत से भी कम है। ज़ाहिर है कि तेल के निर्यात से होने वाली आय सीधे तेल कम्पनियों की तिजोरियों में जाती है और जन सामान्य का इससे कोई वास्ता नहीं होता। निस्संदेह ऐसी विसंगति तेल कम्पनियों और सरकारों की आपसी साठगांठ के बगैर पैदा नहीं हो सकती।
नाइजीरिया की अल्पसंख्यक जनजाति ओगोनी के मूल निवास-स्थल ओगोनी प्रदेश में 1950 से ही तेल कम्पनियां तेल की खुदाई के लिए वहां के पर्यावरण को दीर्घकालीन विनाश की ओर धकेलती रही हैं। इनमें शेल सबसे आगे है। ओगोनी जाति में ही पैदा हुए नाइजीरिया के प्रख्यात लेखक केन सारो विवा ने सबसे पहले इस प्रदेश में पेट्रोलियम दूषित कचरे के फेंके जाने के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। बाद में उन्होंने ओगोनी जाति संरक्षण अभियान 'मूवमेंट फॉर दि सरवाइवल ऑफ दि ओगोनी पीपल' (MOSOP) का गठन किया। केन सारो विवा के नेतृत्व में इस संस्था ने ओगोनीलैंड में शेल और दूसरी तेल कम्पनियों द्वारा धरती, वनस्पति और जल प्रदूषण के विरोध में एक ज़बर्दस्त शांतिपूर्ण जन-आंदोलन खड़ा कर दिया, जिससे उस प्रदेश में तेल कम्पनियों के लिए काम करना तक दूभर हो गया। देश की तानाशाही सरकार पूरी तरह इन कम्पनियों के साथ थी। MOSOP के कार्यकर्ताओं को अनेकानेक बार किसी न किसी बहाने से गिरफ्तार कर जेलों में ठूंसा जाता रहा, लेकिन इससे भी आंदोलन की तेज़ी में कोई बाधा नहीं आयी। 1993 में केन सारो विवा को गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन भारी प्रतिरोध के बीच उन्हें एक महीने बाद ही एक गहरी चाल के तहत छोड़ दिया गया, हालांकि उनके लिए ओगोनीलैंड में प्रवेश की मनाही अब भी बरकरार थी। 1994 में ओगोनी जाति के चार अपेक्षाकृत परम्परावादी ओगोनी नेताओं की नृशंस हत्या कर दी गयी और इन हत्याओं को उकसाने की जिम्मेदारी केन सारो विवा के मत्थे मढ़ दी गयी। हत्या के बाद उन्हें और उनके आठ प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। तानाशाही सरकार की सेना ट्रिब्यूनल ने आनन-फानन में बहुत हड़बड़ी के साथ सभी 'अभियुक्तों' को मौत की सजा सुना डाली। सारी दुनिया में इस फैसले के विरुद्ध ज़बर्दस्त आवाज़ उठी। बचाव पक्ष के सारे वकीलों ने इस अंधे कानून के खिलाफ अपने पदों से इस्तीफा दे दिया। लेकिन सारे जनमत और प्रतिरोध को दरकिनार करते हुए तानाशाही सरकार ने 10 नवंबर 1995 को केन सारो विवा और उनके आठों साथियों को फांसी पर लटका दिया।
बताया जाता है कि फांसी पर लटकाए जाने वाले 'अभियुक्तों' में केन सारो विवा आखिरी थे और उन्हें अपने सभी साथियों को एक-एक कर फांसी दिए जाने का नज़ारा देखने के लिए विवश किया गया था। कहा यह भी जाता है कि कोई भी जल्लाद उन्हें फांसी देने के लिए तैयार नहीं हुआ था तो सुदूर उत्तर के पोर्ट हारकोर्ट से जल्लाद मंगवाना पड़ा था। बताया यह भी जाता है कि उन्हें खत्म करने के लिए लगातार पांच बार फांसी देनी पड़ी थी। अपनी पुस्तक 'एक महाद्वीप के खुले ज़ख्म' के अध्याय 'नाइजीरिया का संकट-एक व्यक्तिगत बयान' में प्रख्यात अफ्रीकी लेखक वोल सोयेंका लिखते हैं कि 'चौथी फांसी से पहले केन सारो विवा ने चिल्लाकर कहा था - तुम लोग मेरे साथ ऐसा क्यों कर रहे हो? कैसे देश के कैसे वासी हो तुम?'
फांसी के बाद मुकदमे के लिए हाजिर किए जाने वाले तमाम सरकारी गवाहों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि उन्हें झूठी गवाही देने के लिए शेल के अधिकारियों की ओर से तगड़ी घूस मिली थी। जैसा कि रिवाज है, मृत्यु के बाद केन सारो विवा को 'राइट लाइवली अवार्ड' और अमरीका के 'गोल्डमैन पर्यावरण पुरस्कार' से नवाज़ा गया और सारी दुनिया में उनका नाम अमर शहीदों की सूची में शामिल हो गया। अमरीका ने बहुत सारा गुस्सा दिखाया, कॉमनवेल्थ राज्यों की समिति ने नाइजीरिया को कॉमनवेल्थ से हटा डाला और दुनियाभर के लेखकों ने अपने अपने ढंग से केन सारो विवा को श्रृद्धांजलि दी। उधर नाइजीरिया में शेल कम्पनी ने ओगोनी जातियों के गिने चुने प्रतिनिधियों के बीच बेहिसाब पैसा बांटा ताकि मामला रफा-दफा हो जाए। मानवाधिकारों की अवहेलना के लिए शेल कम्पनी के खिलाफ एक मुकदमा अमरीका में भी दर्ज किया गया। लेकिन 2009 में मुकदमें की सुनवाई से पहले शेल ने डेढ़ करोड़ डॉलर देकर कोर्ट से बाहर समझौता करवा लिया। अपनी मृत्यु से पहले केन सारो विवा ने जेल से एक पत्र लिखा था जो बाद में 1995 में ब्रिटिश समाचारपत्र 'गार्जियन' में प्रकाशित हुआ इसमें उन्होंने लिखा था -
'हमारी इस दुर्दशा के लिए अंतत: ब्रिटिश सरकार जिम्मेदार है क्योंकि वही नाइजीरिया के सैनिक तानाशाहों को पैसे उधार देकर हथियार बेचती है - अच्छी तरह जानते और समझते हुए भी कि ये हथियार अंतत: देश के निरीह और निहत्थे लोगों के विरुद्ध इस्तेमाल किए जाएंगे!'
मुकदमें के दौरान ट्रिब्यूनल के सामने अपने आखिरी वक्तव्य में केन सारो विवा ने कहा था -
'मैं आज समय के सामने साक्षी बनकर खड़ा हूं। यह मुकदमा सिर्फ मेरे और मेरे साथियों पर ही नहीं चलाया जा रहा। यहां 'शेल' भी मुकदमें पर है और अच्छा है कि उनके प्रवक्ता यहां मौजूद हैं, हालांकि 'शेल' स्वयं इस मुकदमे से भाग खड़ा हुआ है। लेकिन एक समय आएगा, जब इस मुकदमे के सबक उसके लिए उपयोगी होंगे। मुझे पूरा विश्वास है कि देर सबेर इस प्रदेश के पर्यावरण पर ढाए गए जुल्मों के लिए इस कम्पनी से सवाल मांगे जाएंगे और दोषियों को सज़ा दी जाएगी। ओगोनी जाति पर इस कंपनी द्वारा चलायी जा रही घिनौनी लड़ाई की सजा भी इसे एक दिन भुगतनी होगी। ...अपने विरुद्ध गढ़े गए झूठे आरोपों के मुकाबिल खड़ा मैं, ओगोनी जनमानस, नाइजर डेल्टा और नाइजीरिया की तमाम जनजातियों को आह्वान करता हूं कि वे निर्भीक खड़े होकर अपने जायज़ अधिकारों की शांतिपूरक लड़ाई लड़ें। आज इतिहास और ईश्वर इन लोगों के साथ है। लेकिन कुरान में लिखा है कि - दमन के विरुद्ध लड़ाई लडऩा कोई अपराध नहीं है और अल्लाह इन दमनकारियों को एक दिन सजा ज़रूर देगा।'



केन सारो विवा
1941 में जन्मे केन सारो विवा अफ्रीका के उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिन्होंने अपना सारा लेखन शांति और पर्यावरण को समर्पित कर दिया और अंतत: जनजाति ओगोनी के मौलिक अधिकारों के लिए लड़ते हुए अपनी जान भी दे दी। उनकी प्रसिद्धि उनके अफ्रीकियों द्वारा बोली जाने वाली अंग्रेज़ी में लिखे उपन्यास 'सोज़ब्वॉय : एक उपन्यास - सड़ी हुई अंग्रेज़ी में' से है जिसे अंग्रेज़ी के अभिजात आलोचक उपन्यास तक मानने से इंकार करते हैं, लेकिन जो रेडियो की मौखिक विधा में बेतरह लोकप्रिय हुआ। इस उपन्यास में विवा स्थानीय लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा में युद्ध के विरुद्ध एक पुरज़ोर आवाज़ उठाते हैं। 'अडाकू और अन्य कहानियां' (1989) तथा मृत्यु के बाद प्रकाशित उपन्यास 'लेमोना की कहानी' (1996) उनकी अन्य प्रसिद्ध रचनाएं हैं। अपनी किताब 'नाइजीरिया - जनसंहार और विनाश की कगार पर' (1992) में उन्होंने राजनीतिक भ्रष्टाचार में लिप्त शेल और ब्रिटिश पेट्रोलियम कम्पनियों के विरुद्ध आवाज़ उठायी। उन्होंने टेलीविज़न पर 'बासी एवं उसके साथी' नाम से एक अत्यंत लोकप्रिय सीरियल का निर्माण किया, जिसके लगभग डेढ़ सौ एपिसोड प्रसारित हुए और जिस पर बाद में नाइजीरियन सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया। उनकी सर्वाधिक चर्चित कृति उनकी कहानी 'अफ्रीका द्वारा अपने पुत्र की हत्या' (1989) है, जिसमें केन सारे विवा एक पत्र की शक्ल में, कारावास में मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रहे साथियों की झकझोर देने वाली कथा सुनाते हैं। नियति का एक क्रूर मज़ाक था कि छ: वर्षों के बाद यह कहानी हू-ब-हू उनकी अपनी जीवन कथा का अंतिम अध्याय बन गयी। हिंदी में इस कहानी का रमेश उपाध्याय द्वारा अनुवाद 'कथन' के अप्रैल-जून 2012 अंक में 'शिलालेख' नाम से प्रकाशित हुआ है!
'वह हल्के से हॅसा, तो मैं आश्वस्त हुआ
यह जानकर
कि बंदूक के बावजूद,
वह अब भी आदमी था।
उसकी हल्की सी हॅसी से
रात के घटाटोप में
अंधेरा आलोकित हो उठा...
पर वह दबी सी हॅसी
उस शख्स की थी, जिसे पता हो
कि बहुत जल्दी ही वह मरने वाला है..'
(सांग्स इन ए टाइम ऑफ वॉर 1985)


लेकिन हकीकत में केन सारो विवा के हत्यारों को इंसाफ मिलने का समय अभी तक नहीं आया है। अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और केन सारो विवा के परिवार द्वारा शेल के विरुद्ध लगाए गए विविध मुकदमे आज भी हॉलेंड की हेग अदालतों में घिसट रहे हैं, तेल और खनिज कम्पनियां जंगल पर जंगल उजाड़कर उसी तरह पैसा उगाह रही हैं और नाइजीरिया में शेल द्वारा तेल के दोहन और पर्यावरण के मटियामेट की प्रक्रिया उसी तरह अनवरत जारी है।
केन सारो विवा को फॉसी दिए जाने की खबर सुनने के बाद पर्यावरण संस्था ग्रीनपीस इंटरनेशनल के थिलो बोडे ने कहा -
'केन सारो विवा को आज नाइगर डेल्टा में पिछले 37 वर्षों से शेल ऑयल द्वारा चल रही तेल की खुदाई के विरूद्ध आवाज़ उठाने के लिए फॉसी दे दी गयी। केन सारो विवा साफ हवा, ज़मीन और जल जैसे मूलभूत मानवीय अधिकारों के लिए अभियान चला रहे थे। उनका एकमात्र अपराध यह था कि उन्होंने सारी दुनिया का ध्यान इस गंभीर समस्या की ओर खींचा था। ...यदि शेल और तानाशाही सरकार समझती है कि केन सारो विवा को रास्ते से हटाकर वह अपने इरादों में सफल हो जाएगी तो यह उनके लिए बहुत बड़ी भूल होगी। हम सब आज के दिन तेल कम्पनियों द्वारा पर्यावरण पर ढाए जाने वाले अत्याचारों के विरुद्ध अपनी लड़ाई जारी रखने का संकल्प करते हैं...'
1873 में स्थापित दुनिया की सबसे बड़ी खदान कम्पनी रियो टिंटो की कहानी शेल से बहुत अलग नहीं है। पूरी दुनिया के 140 देशों में ज़मीन से खनिजों और बहुमूल्य धातुओं को खोदने वाली इस कम्पनी की 1911 की कुल बिक्री तीन हज़ार करोड़ डॉलर और इससे होने वाला शुद्ध लाभ 1550 करोड़ डॉलर था। अधिकृत रूप से इस कम्पनी में 67000 कर्मचारी हैं, लेकिन अविकसित देशों में जंगलों को काटने और जमीन से खनिजों को निकलाने के काम में यह कम्पनी हज़ारों मजदूरों को सस्ते दामों पर बंधुआ बनाकर खरीदती है। कहा जाता है कि इस दुनिया में पर्यावरण को जितना नुकसान इस कम्पनी ने पहुंचाया है उसकी शायद ही कोई दूसरी मिसाल इस दुनिया में मिलेगी। इंडस्ट्रियल ग्लोबल यूनियन की जून 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार 140 देशों में 5 करोड़ से अधिक खान मजदूर इसकी गतिविधियों से प्रभावित हुए हैं और पपुआ गिनी जैसे देश में तो हज़ारों मजदूरों की हत्या के लिए भी इसे जिम्मेदार माना जाता है। अविकसित प्रदेशों के जंगलों में बहुमूल्य खनिजों और धातुओं की संभावना ताड़ चुकने के बाद यह विस्तृत भूखंडों पर खुदाई का ठेका लेती है और सस्ते दामों पर स्थानीय मजदूरों एवं भारी-भरकम मशीनों को जुटाकर अपने काम को अंजाम देती है। लोहे से लेकर एलुमूनियम, ताबें और कोयले, सोने-चांदी से लेकर यूरेनियम और बहुमूल्य हीरों-जवाहारतों तक पूंजी उगाहने वाला कोई भी खनिज इसकी नज़र से नहीं छूटा है। खदानों की ज़मीन बनाने के लिए पहलेजंगल काटे जाते हैं, फिर खदानों से निकलने वाला टनों-टन मलबा इधर-उधर छितरा दिया जाता है, जल धाराओं को •ाहरीले रसायनों से दूषित किया जाता है और अधिकांश उत्पाद को जहाज़ों में भरकर विदेशों भेज दिया जाता है। यानी इस कम्पनी के एजेंडे में जंगलों की सफाई करने, हवा, ज़मीन और हज़ारों की संख्या में मजदूरों को बंधुआ बनाकर जानवर की तरह उनसे काम लेने तक का हर विवादास्पद कुकर्म शामिल है। ज़ाहिर है कि जंगल, धरती और जल के विरुद्ध इतनी बड़ी कार्रवाई स्थानीय सरकारों की मिलीभगत के बगैर पूरी नहीं हो सकती, लिहाजा अधिकारियों, राजनीतिज्ञों और ओहदे वालों को खरीदकर अपनी जेब में रखना इस कम्पनी को बखूबी आता है। दृष्टव्य यह भी है कि खदानों से पूरे खनिज निकाल चुकने या उसकी आर्थिक संभावनाओं में कमी होने के बाद यह कम्पनी पुरानी खदानों को खाली कर अपने पीछे प्रदूषण और मजदूरों के शोषण की घिनौनी परछांइयां छोड़ नए प्रदेशों में विनाश की नई संभावनाओं की ओर निकल जाती है। कम्पनी द्वारा रौंदे गए ये विशाल भूखंड अमरीका, ऑस्ट्रेलिया, पपुआ न्यू गिनी, अफ्रीका और एशिया के विभिन्न देशों में फैले हैं।
इंडस्ट्रियल ग्लोबल यूनियन के अनुसार दुनिया भर में खनिज निकालने वाली कम्पनियां हर साल अरबों डॉलर कमाती हैं, लेकिन इस आमदनी का नगण्य हिस्सा भी इन खदानों में काम करने वाले मजदूरों तक नहीं पहुंचता। और विकासशील देशों में स्थित कारखानों और खनिज ठिकानों में तो स्थिति और भी बदतर है। बेशक ये सभी कम्पनियां दावा करती हैं कि खनिज उगाहने की प्रक्रिया में ये अपनी सामाजिक जिम्मेदारी और पर्यावरण की सुरक्षा का विशेष ख्याल रखती हैं, लेकिन वस्तुस्थिति इससे ठीक उलट है। लंदन माइनिंग नेटवर्क के अनुसार रियो टिंटो ने पपुआ न्यू गिनी से नमीबिया, अमरीका के मिशिगन प्रायद्वीप से मैडागास्कर, कैमरून से इंडोनेशिया तक हर प्रदेश में अपने लम्बे, शर्मनाक इतिहास के दौरान मानव सम्पदा से लेकर सामाजिक और आर्थिक जिम्मेदारी और पर्यावरण की सुरक्षा से मानवीय विकास तक हर संभव मानवीय मानदंड का खुला उल्लंघन करती रही है। ऑस्ट्रेलिया के भूतपूर्व प्रधानमंत्री बॉब हॉक ने एक बार कहा था कि 'इस कम्पनी (रियो टिंटो) की सारी गतिविधियों के पीछे हमेशा यह फलसफा रहा है कि इसके कारखानों/ठिकानों से किस तरह ट्रेड यूनियनों का आमूल सफाया हो जाए!' विकिपीडिया के अनुसार यह दुनिया की सबसे विवादास्पद कम्पनियों में से एक है।
लेकिन रियो टिंटो के रक्तरंजित इतिहास का सबसे शर्मनाक, रक्तरंजित इतिहास पपुआ न्यू गिनी के बोगेनविले क्षेत्र से संबंध रखता है। यहां की धरती में तांबे और सोने की संभावनाएं देखकर 1969 में रियो टिंटो ने अपनी ऑस्ट्रेलियन कम्पनी बोगेनविले कॉपर लिमिटेड की मार्फत यहां ताबें, सोने और चांदी की खदानों की स्थापना की और धरती से अपार मात्रा में ये खनिज निकाले जाने लगे। तब यह इलाका ऑस्ट्रेलिया की श्वेत सरकार के अधीन था। 1975 में पपुआ न्यू गिनी की स्वतंत्रता के बाद के बोगेनविले भी पपुआ न्यू गिनी का ही हिस्सा बन गया हालांकि इसे कुछ हद तक स्वायत्ता प्राप्त थी। बोगेनविले की सबसे महत्वपूर्ण खदान पेंगुना में थी जिसके लाभ का 20 प्रतिशत पपुआ न्य गिनी को मिलता था और बोगेनविले के हिस्से लाभ का सिर्फ आधे से एक प्रतिशत आता था। ज़ाहिर है कि शेष सारा लाभ कम्पनी के खाते में जाता था। बोगेनविले के मूल वासियों को लगता था कि इस खदान से उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा है। एक तो वहां श्वेतों और अश्वेतों को मिलने वाले पैसों में काफी अंतर था और दूसरे, पूरे देश का पर्यावरण इन खदानों के कारण नष्ट हो रहा था। कम्पनी की गतिविधियों से पूरी जबा नदी प्रदूषित हो गयी थी, बच्चों में जन्मजात बीमारियां मिलने लगी थीं और प्रदेश में पायी जाने वाली दुर्लभ उडऩ लोमड़ी की तो नस्ल ही विलुप्त हो गयी थी। अंतत: आदिवासियों ने इस विनाश को रोकने के लिए कम्पनी से सहयोग करना बंद कर दिया। सरकार के सिपाहियों की मदद से बागी मजदूरों की घेराबंदी की गयी और अंतत: रियो टिंटो को यह खदान बंद कर देनी पड़ी, लेकिन इस संघर्ष में हजारों मजदूरों की जान गयी। बोगेनविले के संघर्ष पर फिल्म निर्देशक डॉम रोथेरो ने एक डॉक्यूमेंटरी 'दि कोकोनेट रेवोल्यूशन' बनायी है जिसमें दर्शाया गया है कि बोगेनविले के आदिवासियों ने किस तरह रियो टिंटो और न्यू गिनी की सेना को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। दुनिया की विभिन्न अदालतों में आज भी रियो टिंटो के विरुद्ध हत्या, मानव अधिकारों के उल्लंघन और आगजनी के विभिन्न मुकदमे पिछले कई वर्षों से घिसट रहे हैं। लेकिन इसमें भारी संदेह है कि इतने वर्षों के बाद भी आर्थिक दम-खम वाली इस उद्दंड कम्पनी को इन संगीन अपराधों के लिए दंडित करना सम्भव हो पाएगा।
पपुआ इंडोनेशिया में ग्रासबर्ग की तांबे और सोने की खदान में रियो टिंटो की 40 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। इस खदान से प्रतिदिन 230,000 टन की प्रदूषित धोअन नदी में बहायी जाती है। इतने विशालकाय प्रदूषणकारी कदम की जानकारी मिलने के बाद नॉरवे की सरकार ने इस कम्पनी को सारी वित्तीय सहायता हमेशा के लिए बंद कर दी। 2010 में कैलिफोर्निया की एक खदान में रियो टिंटो पर 600 मजदूरों की घेराबंदी का आरोप लगा। और सबसे ता•ाा उदाहरण हमारे अपने देश का है। सूचना के अधिकार के लिए लडऩे वाली भोपाल की शहला मसूद मध्यप्रदेश के जिन खुलासों पर काम कर रही थी, उनमें सरकारी अधिकारियों से मिलीभगत में छतरपुर क्षेत्र में रियो टिंटो द्वारा हीरों की अवैध खुदाई और जंगलों के काटे जाने का गंभीर मामला भी था। अगस्त 2011 में तीन लोगों ने भोपाल में शहला मसूद की दिन दहाड़े गोली मारकर हत्या कर दी। पुलिस अब तक हत्या के मकसद का पता नहीं लगा पायी है लेकिन मीडिया में बार-बार शक की उंगली इसी विवादास्पद कम्पनी की ओर उठ रही है। आने वाले दिनों में यह कम्पनी सरकार से मिलकर ओडि़सा में जंगलों को काटकर वहां खनिज लोहे की खदानें बैठाने की प्रोजेक्ट पर भी काम कर रही है।
दरअसल कॉरपोरेट दुनिया की शब्दावली में 'प्रगति' का जो अर्थ आम तौर पर निकाला जाता है, उसका पर्यावरण से छत्तीस का आंकड़ा है। दुनिया भर में जनसंख्या की वृद्धि से जंगलों पर दबाव लगातार बढ़ रहा है। इस दबाव के चलते बहुत तेज़ी के साथ जंगलों को काटकर ज़मीन कारखानों, खदानों या फिर खेती के लिए मुहैया की जा रही है। खेती जहां सिर्फ जंगल को ही खत्म करती है, वहीं कारखाने और खदानें ज़मीन के साथ-साथ जल धाराओं और हवा को भी प्रदूषित करते हैं। जंगलों को कटाने के लिए अक्सर 'स्लैश ऐंड बर्न' की पद्धति अपनायी जाती है। इसमें ज़मीन के टुकड़े को साफ करने के लिए पहले वहां के बड़े-बड़े पेड़ों को काटा जाता है और फिर शेष झाडिय़ों और झंखाड़ों में आग लगा दी जाती है ताकि शेष वनस्पति जलकर स्वाहा हो जाए। काले धुंए से सारा जंगल नहा जाता है और जब यह प्रक्रिया पूरी हो जाती है तो ज़मीन को समतल करने के लिए बुलडोज़रों के जत्थों को बुलवा लिया जाता है। पिछले साल सुदूर नागालैंड की यात्रा के दौरान हमने जले हुए ठूंठों के न जाने कितने विशालकाय कब्रगाह देखे होंगे। ज़ाहिर है कि इन जले हुए इलाकों से जन-जीवों, पक्षियों और कीड़े-मकोड़ों के रहने की सम्भावना भी पूरी तरह समाप्त हो जाती है। विकास के नाम पर जंगलों को खत्म करने की यह प्रक्रिया जितनी भयावह है, उतनी ही हृदयविदारक भी है। सत्तर के दशक में सुंदर बहुगुणा के साथ कवि घनश्याम रतूरी, गौरा देवी और उसके साथियों ने 'चिपको आंदोलन' के ज़रिये उत्तराखंड में स्त्रियों को पेड़ों के बचाव के लिए खड़ा किया था। अब वह आंदोलन धुंधला पड़ चुका है। कुछ महीने पहले देहरादून के निकट चकराता से आगे देववन से लौटते हुए हमें कुल्हाड़ी वालों का एक जत्था सरकारी ट्रक लेकर पेड़ काटता हुआ मिला। पूछने पर पता चला कि उन्हें मरे हुए पेड़ों की लकड़ी बटोरने का ठेका मिला है, लेकिन कोई यह पूछने वाला नहीं कि वे लकड़ी बटोर रहे हैं या पेड़ काट रहे हैं। नज़दीक ही कनासर मंदिर के नज़दीक कई सदियों पुराने कुछ विशालकाय देवदार के वृक्ष हैं। हमें एक पेड़ के तने के पास एक मार्मिक सूक्ति टंगी मिली -
''मैं एक बुजुर्ग वृक्ष प्राणी हूं, बोल नहीं सकता, फिर भी मैं कनासर देवता से आपकी यात्रा/बच्चों/वंश के सुख समृद्धि की कामना करता हूं और आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप भी मेरे वंश-प्राणियों (पेड़ पौधों वन प्राणियों) की सुरक्षा का ख्याल अपने बच्चों, परिवार की तरह करेंगे! धन्यवाद!--- सदियों पुराना वृक्ष प्राणी''
लगता है कि उत्तराखंड में यदि निरीह वृक्ष की इस मूक फरियाद पर अमल किया गया होता, तो हाल ही में उस प्रदेश को भयानक विभीषिका और जान-माल के नुकसान से बचाया जा सकता था। 'डाउन टु अर्थ' पत्रिका के अनुसार उत्तराखंड में पिछले कुछ वर्षों में विभीषिका से घिरे पहाड़ी क्षेत्र में कुल 244 हाइडेल योजनाएं कार्यान्वित की गयी हैं और नदियों की 1609 हेक्टेयर ज़मीन पर खुदाई कर ज़मीन काटी गयी है, जिससे कुल 15000 हेक्टेयर से भी बड़ा जंगली क्षेत्र पूरी तरह नष्ट हो गया है। दृष्टव्य है कि जंगल के पेड़ न सिर्फ जीवनदायी ऑक्सीजन देते हैं, बल्कि बाढ़ के समय पानी के बहाव काटने वाली महत्वपूर्ण ढाल का भी काम करते हैं। लेकिन आधुनिक विकास और शहरीकरण के तकाज़े हमें शब्दश: उसी डाल को काटने मजबूर कर रहे हैं, जिसके सहारे हमारा जीवन टिका हुआ है।
और ऐसा नहीं कि यह कहानी सिर्फ उत्तराखंड की ही है। 'डाउन टु अर्थ' के अनुसार पूरा देश ठेकेदारों द्वारा बालू की चोरी और नदियों की अवैध खुदाई की चपेट में है। गुजरात में अम्बिका, पूर्णा, तापी और खापी नदियों की अवैध खुदाई से जंगल घट रहे हैं, पानी खारा होता चला जा रहा है और खेती की पैदावार में कमी आ रही है। महाराष्ट्र में ठाणे, नवी मुंबई, रायगढ़ और रत्नागिरी के क्षेत्र इस अवैध खुदाई से बेतरह प्रभावित हैं। 2010 में सरकार ने एक नया कानून बनाया था जिसके तहत बालू की किसी भी खुदाई से पहले ग्राम-सभा से अनुमति लेना ज़रूरी हो गया था। लेकिन इस नियम पर अमल होना अभी बाकी है। केरल, तमिलनाडु और आंध्रप्रदेश में तमाम नियमों के बावजूद नदियों की खुदाई ज़ोर-शोर पर है। बताया जाता है कि श्रीकाकुलम जिले से अवैध बालू निकालने वाले कम से कम 300 ट्रक हर रोज़ निकटवर्ती विशाखापटनम में उतारे जाते हैं। ओडि़सा में तो जाजपुर का पूरा जिला ही बालू तस्करों और ठेकेदारों की चपेट में है। बिहार के भागलपुर, बंका, मुंगेर और 25 अन्य जिलों में अवैध खुदाई को रोकने वाला कोई नहीं है। पश्चिम बंगाल में बीरभूम का मोहम्मद बाज़ार भू-माफियाओं द्वारा पत्थरों की खुदाई के लिए कुख्यात है। नागालैंड में वहां की सबसे बड़ी नदी दानसारी अपनी रेत के लिए अब पूरे प्रांत के निर्माण उद्योग द्वारा खोखली की जा रही है। मध्यप्रदेश में बालू की खुदाई को पर्यावरण की अनुमति के दायरे से बाहर रक्खा गया है। लिहाजा जहां ठेकेदारों, राजनीतिज्ञों और अधिकारियों की मिली-भगत से चम्बल, नर्मदा, बेतवा और केन नदियों की तलहटी में जमकर खुदाई जारी है। मुरैना का इलाका एक समय चम्बल के डाकुओं और उनकी फिरौतियों के लिए कुख्यात था। आज इन डाकुओं का स्थान भू-माफियाओं ने ले लिया है। यहां के गांवों में लगभग हर दूसरे परिवार में आपको बालू खोदने वाला ट्रैक्टर और एक अदद बंदूक मिल जाएगी। सरकार के लिए इन अवैध गतिविधियों को रोकने से अधिक बड़ी प्राथमिकता अपने वोट बैंक को बचाने की है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में बालू और पत्थर की अवैध खुदाई का पूरा चिट्ठा पिछले दिनों आई ए एस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल के निष्कासित किए जाने के प्रकरण में सामने आया है। इससे पहले हरिद्वार में इन माफिया के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले स्वामी निगमानंद की ज़हर देकर हत्या कर देने का मामला भी ज़ेहन में आता है। इनकी कहां तक गिनती की जाए?
लेकिन बालू की खुदाई और वन-क्षेत्र के खेती के लिए मुहैया होने के संकट जितना या इससे भी बड़ा खतरा इन जंगलों में होने वाली खनिजों की खुदाई से है। हमारे देश में कोयले के अलावा हेमेटाइट (लौह अयस्क) और बॉक्साइट (एलुमीनियम) के प्रचुर भंडार हैं और पिछले पचास वर्षों में राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों और सरकारी कर्मचारियों ने जहां इसे चूस और खोदकर अधिकृत-अनाधिकृत तरीकों से अकल्पनीय सम्पत्ति बटोरी है, वहीं इस आर्थिक हवस से उन्होंने पर्यावरण और वन सम्पदा का अपरिवर्तनीय नुकसान भी किया है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि खनिजों से भरे इन जंगली क्षेत्रों में सबसे गरीब और आदिवासी वर्ग रहता है और साधनसम्पन्न तबके के लिए इन्हें आर्थिक लालच या ज़ोर-ज़बर्दस्ती से दबाना बेहद आसान साबित होता है। देखा जाए तो हमारे देश के नक्सलवादी आंदोलन को इन जंगलों में दिन रात घटित हो रही अत्याचारों और पर्यावरण के विनाश की कहानियों से अलग काटकर देखना भी शायद मुश्किल होगा।
देश में कोयले के अधिकांश भंडार मध्य और पूर्वी भारत में स्थित हैं जहां दूसरे देशों के मुकाबले घटिया किस्म का कोयला मिलता है, लेकिन 26700 करोड़ टन के हमारे कोयले के भंडार दुनिया में सबसे बड़े हैं और इसीलिए ऊर्जा की दृष्टि से हमारे लिए इनका महत्व पेट्रोल से भी अधिक है। इन दोनों लगातार सुर्खियों में बने हुए कोयला घोटाले का मूल मुद्दा यह है कि सरकार ने नए कोयला खंडों का आबंटन नीलामी के स्थान पर आवेदनों की प्राथमिकता पर कर डाला, जिससे सरकार पर प्रभाव डाल सकने वाले व्यक्तियों को नाजायज़ ढंग से ये खंड मिल गए और इस प्रक्रिया में सरकार के लिए कोई 186000 हज़ार रुपये की कम वसूली या नुकसान हुआ और दूसरी ओर यह फायदा परोक्ष रूप से आबंटन पाने वाली कम्पनियों को मिल गया। लेकिन इस आर्थिक घोटाले से अलग भी भारतीय कोयला मजदूर और कोयला खदानों के आस पास रहने वाला आदिवासी वर्ग आज भी एक असुरक्षित जीवन व्यतीत करता है। चासनाला और दूसरी खदान दुर्घटनाओं के बाद खदानों के रख-रखाव में कुछ सुधार ज़रूर हुआ है, लेकिन कोयला खदानों से भूमि और जल के प्रदूषण की गंभीर समस्या का खतरा लगातार बना हुआ है। भारत में कोयले के अलावा लौह अयस्क 'हेमेटाइट' के भंडार भी दुनिया में सबसे बड़े और सर्वाधिक फैले हुए हैं। मुश्किल यह है कि लोहे के अधिकांश बड़े भंडार घने जंगलों में मिलते हैं और इससे भी बड़ी समस्या यह है कि ज़मीन से हेमेटाइट को सघन करने की प्रचलित पद्धति जंगलों के बड़े इलाकों को बेतरह नुकसान पहुंचाती और उसे प्रदूषित करती है। भारत में हेमेटाइट के 37 प्रतिशत भंडार ओडि़सा में, 18 प्रतिशत गोवा और कर्नाटक में से प्रत्येक में 14 प्रतिशत छत्तीसगढ़ और 11 प्रतिशत झारखण्ड में है। भारत द्वारा निर्यातित 90 प्रतिशत से अधिक लौह अयस्क चीन जाता है। वहां पिछले ओलम्पिक खेलों के पहले हेमेटाइम की मांग बहुत अधिक बढ़ गयी थी और इस दौरान भारत में अवैध ढंग से लौह अयस्क निकालने का अत्यंत फायदेमंद धंधा बच निकला था। हम बात करते समय सिर्फ व्यक्तियों और संस्थानो द्वारा लौह की खदानो से बनाए गए पैसे की चर्चा करते हैं, लेकिन अयस्क निकालने अवैध कच्चे-पक्के  तरीकों से पर्यावरण, जंगल और जन-जीवन का कितना दीर्घकालीन और अपरिर्वतनीय नुकसान हुआ है, इसका कोई आकलन फिलहाल नहीं हुआ है। देखा जाए तो भावी पीढिय़ों जीवों और वनस्पतियों को इतने गंभीर संकट में डालने वाले व्यक्तियों के लिए मृत्युदंड जैसी संगीन सज़ा भी नाकाफी होगी, लेकिन ऐसी मानसिकता विकसित करने में हमारे समाज को अभी काफी वक्त लगेगा।
ज़मीन से लौह अयस्क निकालने के लिए बहुत गहरे में नहीं जाना पड़ता। इसी कारण इसकी अवैध खुदाई भी अपेक्षाकृत आसान है। पिछले एक दशक में अवैध ढंग से लौह अयस्क निकालने का धंधा चल निकला है और इसकी सर्वाधिक गतिविधियां कर्नाटक और विशेष रुप से बेलारी जिले में सामने आयी हैं, हालाकि छत्तीसगढ़ और ओड़ीसा के कई इलाके भी इस मामले में पीछे नहीं रहे है।
दरअसल लौह अयस्क निकालने का व्यवसाय अत्यंत लाभकारी है। इसके लिए सबसे पहले जंगल की ज़मीन को व्यवसायिक गैर-जंगल उपयोग की ज़मीन घोषित कराने का पहला कदम उठाना पड़ता है। इसमें एक मुश्त आठ से दस लाख प्रतिहेक्टेयर का खर्चा आता है- अधिकारियों को दी जाने वाली संभावित रिश्वत सहित। फिर इसके बाद वहां से जंगल को काटना होता है। यह काम सरकार स्वयं करती है, प्रति हेक्टेयर 1.25 लाख का खर्चा लेकर। फिर खदान के मालिकों को पूरे इलाके के चारों ओर सुरक्षा के लिए साढ़े सात मीटर चौड़ी हरित पट्टी बनानी पड़ती है जिसमें 1.25 लाख प्रतिहेक्टेयर का खर्च आता है। 2008 तक खदान पर सरकार को देय रॉयल्टी मात्र 19 से 20 रूपए प्रति टन उत्पाद थी जिस पर दो प्रतिशत वैट देना पड़ता था। यह सब मिलाकर अयस्क निकालने का कुल खर्चा लगभग 250 रूपए प्रति टन आता है, जबकि अंतराष्ट्रीय बाज़ार में इसे 2000 से 2500 प्रति टन के हिसाब से लगभग सात सौ से आठ सौ प्रतिशत मुनाफे में बेचा जाता था। इससे बेहतर फायदे का सौदा दूसरा कौन सा होगा? देश में निकाला जाने वाला अधिकांश लौह अयस्क जाता है जहां उन दिनों ओलम्पिक खेलों के कारण निर्माण की गतिविधियां चरम पर थी और बढ़ी हुई मांग के कारण अयस्क के दाम लगातार बढ़ते जा रहे थे। लेकिन अयस्क उत्पादकों को इतने से ही संतोष नहीं था और वेे अवैध तरीकों से इससे भी अधिक मुनाफा कमाने में यकीन रखते थे।
दिसंबर 2008 में कर्नाकट लोकायुक्त जस्टिस संतोष हेगड़े ने पहली बार अपनी विस्तृत रिर्पोट में वर्षो से चले आ रहे इस भयानक षडय़ंत्र का भंडाफोड़ किया। उन्होंने बताया कि बेलारी में निजी कम्पनियों द्वारा किस तरह अधिकृत क्षेत्र से बाहर भी जंगल काटकर अयस्क निकाली जा रही है और इस प्रकिया मे किस तरह जंगल को तबाह किया जा रहा है। कागज़ों में उत्पाद को कम दिखाकर सरकार को अपनी ज़ायज़ रॉयल्टी नहीं मिल रही और इस आपाधापी में सरकारी कंपनियो को अयस्क के उत्पादन से वंचित रखा जा रहा है। इस रिर्पोट के आने के बाद कर्नाटक में हड़कम्प मच गया। इसके साथ ही आयकर विभाग ओबापुरम माइनिंग के मालिक रेड्डी बंधुओं और इस कम्पनी के अन्य मालिक बी श्रीरामुलू पर अवैध खनन के कई आरोप लगाए। इन सभी से मुख्यमंत्री के निकट संबंध थे। बाद में इन्हे गिरफ्तार किया गया और अंतत: कर्नाटक में येदुरप्पा की बी जे पी सरकार भी गिर गयी, लेकिन दिलचस्प यह है कि येदुरप्पा बी जे पी से बाहर निकलने के बाद अब धूल छंटने और नए चुनावों की चिंताओ में, सौ चूहे खा चुकने के बाद फिर से अपने पुराने मकाम और घर बी जे पी में लौट आए हैं। मौसेरे भाइयों की इस मंडली का यह भरत-मिलाप सचमुच द्रवित कर देने वाला है!
पिछले दस पंद्रह वर्षों की अवधि में इस घोटाले द्वारा आर्थिक क्षति के अलावा पर्यावरण को कितना बड़ा नुकसान हुआ है, इसका अंदाज़ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि 2003 में जब चीन में लौह अयस्क की मांग बढऩी शुरू हुई थी तो कर्नाटक की युदुरप्पा सरकार ने झट प्रदेश में लगभग 12 लाख हेक्टेयर जंगलों के लिए सुरक्षित ज़मीन पर से प्रतिबंध हटाकर इसे निजी खदान मालिकों के लिए उपलब्ध करवा दिया था। बाद के खुलासों से पता चला है कि खदानों के लिए अनाधिकृत रूप से हथियाई गयी ज़मीन इससे भी कई गुना अधिक थी। आप इतने विशालकाय वन प्रदेश के सफाए से जुड़े जघन्य अपराध की गंभीरता को सहज ही समझ सकते है। 2004 में अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रीय पर्यावरण यांत्रिकी शोध संस्था NEERI ने इस कदम से जुड़े खतरों के बारे में सरकार को आगाह भी किया था, लेकिन यह रिपोर्ट सरकारी फाइलों में धूल चाटती रही थी। 2005 के बाद के पांच वर्षों में अंधाधुंध खुदाई और अयस्क के निर्यात का भयावह सिलसिला शुरू हुआ। पर्यावरण के नुकसान का हिसाब तो खैर किसके पास होना था, लेकिन अनुमान है कि इससे सरकार को लगभग 16000 करोड़ रूपयों से भी अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ। यह पैसा किन लोगों के हाथ में गया, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं होना चाहिए। इस दौरान प्रदेश में ज़मीन से 214 लाख टन लोहे का अयस्क निकाला गया जिसमें से 61 लाख टन अयस्क जायज़ रूप से और 23 लाख टन लोहा अवैध रूप से देश से बाहर निर्यात हुआ। बहुत सी आवाज़ें उठने पर 2006 में राज्य सरकार ने जस्टिस यू एल भट्ट कमीशन को अवैध खुदाई की पड़ताल के लिए नियुक्त किया, लेकिन इसका भी कोई खास परिणाम न निकलने पर 2007 में यह जांच लोकायुक्त को सौंप दी गयी।
लोकायुक्त की रिपोर्ट और इससे जुड़ी इनकम टैक्स की खोजबीन के दौरान पाया गया कि रेड्डी बंधुओं की ओबुलापुरम माइनिंग और तीन अन्य सहयोगी कम्पनियों ने आय छिपाने के लिए सिंगापुर की एक फर्ज़ी एक डॉलर की कम्पनी से समझौता कर रक्खा था और सारा आयात इसी कम्पनी के ज़रिए होता था। यह भी पता चला कि कम्पनी अपने अधिकृत क्षेत्र से कहीं बड़े इलाके में खदानों से लोहा निकाल रही थी। यही नहीं ब्यूरो ऑफ माइन, जो देश भर में खदानों के लिए नियम बनाती है, लोहे की खदानों में छ: मीटर से गहरे जाने की अनुमति नहीं देती क्योंकि इससे पर्यावरण को स्थायी नुकसान होता है। लेकिन बेलारी में बेरोकटोक खुदाई से बेहिसाब लोहा ज़मीन से निकाला गया और इस आय को छिपाने के लिए कागज़ात पर कहीं कम लोहा दिखाया गया। चेक नाकों पर तैनात अधिकारियों को थोक में खरीद लिया गया और बताया जाता है कि जहां अनुमानित 4000 ट्रक प्रतिदिन निकाले जाते थे वहां कागज़ पर सिर्फ 200 ट्रकों का ही लेखाजोखा दर्ज़ होता था। ज़ाहिर है कि इतने बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार सरकार के सहयोग और उसकी मिलीभगत के बगैर सम्पन्न नहीं हो सकता। लोकायुक्त ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा कि इस अवैध खुदाई से पर्यावरण को दीर्घकालीन नुकसान पहुंचा है। प्रदेश में पाया जाने वाला स्लॉथ भालू अब लगभग विलुप्त हो गया है, औषधीय पौधे उजड़ चुके हैं, यहां की आबोहवा और वर्षा में स्थायी परिवर्तन आ गया है, जिसके चलते बंजर हो चुका यह और इसके आसपास का सारा प्रदेश अब किसी भी तरह की कृषि गतिविधि के लिए भी उपयुक्त नहीं रहा।
इस सारी स्थिति पर लीपापोती करने के लिए सरकार ने एक रिपोर्ट जारी की लेकिन जब वन विभाग के तत्कालीन प्रिंसिपल चीफ कंज़रवेटेर ऑफ फॉरेस्ट्स दिलीपकुमार ने जब इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया तो उनका तबादला दूसरे क्षेत्र में कर दिया गया और उनके स्थान पर नए पीसीसीएफ खारगे की नियुक्ति कर इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करवा लिए गए। सरकार ने इन कारनामों और इस अवैध खनन के प्रति सरकार के असहयोगी रवैये के विरोध में लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने जून 2010 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया।
लोहे के खनन की इस धांधली के परिणामस्वरूप सरकार ने 2008 और इसके बाद कुछ कदम जरूर उठाए, जिनमें सरकार को मिलने वाली रॉयल्टी को बढ़ाकर कुल उत्पाद का 10 प्रतिशत करना और उत्पाद पर 12 प्रतिशत 'जंगल विकास टैक्स' लगाना शामिल थे। इस दूसरे टैक्स के विरुद्ध खनन कम्पनियों ने अदालत में अर्ज़ी दी जिसपर कोई फैसला होने तक इस टैक्स को फिलहाल 6 प्रतिशत तक सीमित रक्खा गया है। सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक में अवैध खनन संबंधी सुझावों के लिए एक केंद्रीय कार्रवाई कमेटी ष्टश्वष्ट का गठन किया है, जिसने अपनी अप्रैल 2011 की कमेटी में कहा कि कर्नाटक के बेलारी क्षेत्र में लोहे का खनन बंद कर दिया जाना चाहिए। इसके तहत पिछले वर्ष तक यहां सरकारी कम्पनी एन एम डी सी को छोड़कर खनन लगभग बंद था। वनों के उप संरक्षक मणिकंदन के अनुसार इन 20 महीनों में इस प्रदेश के जंगल और यहां की सरिताएं एक बार फिर सांस लेने लगी हैं। ''हमने यहां एक दो भालू भी देखे हैं और एक दुर्लभ जाति का सांप भी पाया जाता है जिसे भारत में इससे पहले सिर्फ एक बार देखा गया था।'' लेकिन हमारा विकास का जुनून इन गैरज़रूरी सांसों को आखिर कब तक चलने देता? उद्योगों के दबाव में आकर इसी ष्टश्वष्ट ने फरवरी 2012 में एक बार फिर अपने फरमान को बदला और अब फिर इस प्रदेश में व्यक्तिगत कम्पनियों को कुछ शर्तों के साथ खनन की अनुमति दी जा रही है। अप्रैल 2013 को अदालत से 166 में से 108 खनन कम्पनियों पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है। ज़ाहिर है कि इस आदेश से सबसे अधिक खुशी जिंदल ग्रुप के जे एस स्टील को हुई है जो बेलारी में एक बड़ा स्टील प्लांट लगाए हुए हैं। कोर्ट ने अपने आदेश में प्रति वर्ष लौह अयस्क खनन को 250 लाख टन तक सीमित करने के आदेश दिए हैं और साथ ही हिदायत दी है कि अयस्क का इस्तेमाल सिर्फ स्थानीय कारखानों द्वारा ही किया जा सकता है और निर्यात सिर्फ उसी अयस्क का हो सकेगा जिसे स्थानीय कम्पनियां अयोग्य समझती हैं। 2010 में सरकार ने 2010 में जस्टिस एस बी शाह के आयोग को पूरे देश में लोहे और मैंगनीज़ के अवैध खनन की जांच करने का आदेश दिया था। जस्टिस शाह की रिपोर्ट के आधार पर गोवा सरकार ने पूरे राज्य में लोहे के खनन पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस रिपोर्ट ने पाया था कि गोवा में भी अवैध खनन के कारण सरकार को प्रति वर्ष 35000 करोड़ का नुकसान हो रहा है। लेकिन कर्नाटक के पिछले वर्ष के फैसले ने उद्योग जगत में उम्मीद जगा दी है कि गोवा में भी शर्तों के आधार पर लोहे का खनन फिर से शुरू किया जा सकेगा। शायद कुछ ऐसी ही शर्ते ओडि़सा में भी लागू होंगी जहां देश के 37 प्रतिशत लोहे के भंडार स्थित हैं। लेकिन इन कदमों से जंगल और उसमें रहने वालों को कब तक और कितनी राहत की सांसें मिल पाएगी, इसमें सभी को काफी संदेह है।
हमारे तथाकथित टेक्नोलॉजिकल विकास की सीढ़ी में लोहे के बाद सबसे महत्वपूर्ण धातु एलुमीनियम है। लोहे के मुकाबले एलुमीनियम वज़न में काफी हल्का होने के बावजूद बेहद मज़बूत होता है, जिसके कारण अब 'फ्यूएल एफिशिएंट' मोटरगाडिय़ों में इसका इस्तेमाल बहुत तेज़ी से आगे बढ़ता जा रहा है। एलुमीनियम खनिज के अयस्क 'बॉक्साइट' के ओडि़सा में विपुल भंडार हैं जिनमें कुल दुनिया का लगभग 5 प्रतिशत बॉक्साइट है। दुनिया में एलुमीनियम की बढ़ती हुई मांग के मद्दे नज़र इसके खनन पर नियंत्रण रखना एलुमीनियम कम्पनियों के लिए बेहद ज़रूरी हो जाता है। दृष्टव्य है कि लौह अयस्क के बड़े भारतीय खरीददारों में सार्वजनिक क्षेत्र की शेल और टाटा जैसी संस्थाएं हैं, वही भारत की अधिकांश ऐलुमीनियम की बड़ी कम्पनियां निजी क्षेत्र की हैं और इनमें हिंडैलको (बिरला) और वेदांता (इंगलैंड की कम्पनी, भारतीय सहयोगी स्टरलाइट) सबसे बड़ी हैं। ओडि़सा की सरकारी खनिज कम्पनी ओडि़सा माइनिंग कॉरपोरेशन लिमिटेड ने अपने राज्य के बाक्साइट भंडारों के खनन के लिए हिंडैलको और वेदांता के साथ मिलकर संयुक्त उद्यम प्रस्तावित किए हैं। हिंडैलको के पास कोरापुट जिले में बॉक्साइट खनन की योजना है तो वेदांता सरकार के साथ मिलकर कालाहांडी और रायगड़ा जिलों में बॉक्साइट खनन के लिए तैयार बैठी है। बॉक्साइट का खनन भी खुली खदानों में होता है और इनसे पर्यावरण को व्यापक नुकसान होता है। लोहे की तरह बॉक्साइट के ज्यादातर भंडार घने जंगलों के आदिवासी क्षेत्रों में हैं जहां खनन से उनके जीवन एवं जीविका का नष्ट हो जाना संभावित है।
ओडि़सा में अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी वेदांता (भारत में स्टरलाइट ग्रुप की सहयोगी) बेहद जल्दबाज़ी में थी। वह यहां झारसुगड़ा में एलुमीनियम का कारखाना बैठाने के साथ साथ कालाहांडी की नियामगिरी पहाड़ी पर बॉक्साइट की खुदाई करना चाहती थी। इसके लिए उसने झारसुगड़ा में 14 लाख टन क्षमता की एलुमीनियम रिफाइनरी पहले ही स्थापित कर ली है। उसे विश्वास था कि भारत जैसे भ्रष्ट देश में, यहां हर काम पैसे के ज़ोर पर आनन-फानन में सध जाता है, बॉक्साईट खनन के प्रस्ताव को पास करने में कोई अड़चन नहीं आएगी। कम्पनी के खरबपति चैयरमैन अनिल अग्रवाल ने सारा होमवर्क पहले ही सम्पन्न कर डाला था। लेकिन नियागिरी पहाड़ी पर बॉक्साइट के खनन की योजना उस समय अटक गयी जब सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने इसे पर्यावरण अनुमति देने से इन्कार कर दिया। वेदांता ने इसके जवाब में ओडि़सा सरकार से मिलकर उच्चतम न्यायालय में याचिका दर्ज़ की। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा कि वहां खनन की इजाज़त स्थानीय आदिवासियों और ग्राम पंचायत के अनुमोदन के बाद ही दी जा सकेगी। दुनिया में अपनी तरह के अनूठे कदम के तहत उच्चतम न्यायालय ने ग्राम पंचायत और खनन से प्रभावित होने वाले 12 गांवों में जनमत के आधार पर फैसला लेने को कहा। यहां तक भी कम्पनी के नुमाइंदों को पूरी उम्मीद थी कि वे धन और बल के बूते पर इन आदिवासियों को अपने हक में फैसला देने पर मजबूर कर ही लेंगे। नियमगिरी में पिछले वर्ष की 18 जुलाई से 19 अगस्त के दौरान आदिवासियों को जनमत के लिए बुलाया गया। ज़ाहिर है कि इस बीच राज्य सरकार और कम्पनी की ओर से इन्हें कई तरह के प्रलोभन दिए गए होंगे। लेकिन अपने ऐतिहासिक निर्णय में ये आदिवासी टस से मस नहीं हुए और उन्होंने एक सिरे से वहां खनन की इजाज़त देने से इंकार कर दिया!
'डोंगरिया कोंध और कुटिया गोंध आदिवासियों एवं गौडा एवं हरिजन गैर आदिवासियों ने एक स्वर में कहा कि उस पहाड़ी पर इनके ईश्वर का वास है और वे उनके विनाश की स्वीकृति हरगिज नहीं दे सकते। उन्होंने कहा कि खनन से उनकी 100 जल धाराओं के साथ साथ कटहल और आम के पेड़, हल्दी और अदरक की जड़ें, जंगली बूटियां और कुकुरमुत्ते, सब नष्ट हो जाएंगे। जिस पर 'डोंगर' में वे स्थानीय ज्वार, दालें और फलियां उगाते हैं, वे भी हमारे हाथ से जाते रहेंगे।' ...झरना, पानी, पबन, पतरा- सब लोस होई जिबो!
कुटिया कोंध आदिवासी तुनगुरू माझी ने गांव सभा में कहा - हम सब भी बिरसा मुंडा और रिंदो माझी की तरह मारे जाएंगे! हम एक 'मुर्खिया जाति' हैं जो कभी तुम्हारी बात नहीं मानेंगे!
गांव की पुजारिन बेजुनी ने कहा - ''तुम्हारे मंदिर ईटों और सीमेंट के बने हैं और हमारे ये पहाडिय़ां, ये जंगल, ये पत्तियां और ये झरने हैं। तुम इन्हें खोद दोगे तो अपने ईश्वरों के साथ हम भी मर जाएंगे।''
- नयनतन बेरा, 'डाउन टु अर्थ' से
लेकिन सभी जानते हैं कि इस इन्कार के बावजूद वेदांता इतनी आसानी से अपने दांतों के बीच आयी मछली को छोडऩे के लिए तैयार नहीं होगा। जैसा कि हर बार होता है, इन बड़े-बड़े कार्पोरेट दैत्यों के हक में कोई न कोई रास्ता ढूंढ ही निकाल लिया जाता है।
14 जनवरी, 2014
(इस आलेख को इसी निराशाजनक मोड़ पर समाप्त होना था लेकिन वक्त के तकाज़े और विलंब को लेकर सम्पादक की सख्त नाराज़गी के बावजूद मुझे आज फिर इसे आगे बढ़ाना पड़ रहा है!)
आज ही पूरी दुनिया में यह खबर प्रसारित हुई है कि नियमगिरी में चंद आदिवासियों के ऐतिहासिक जनमत के बाद कल रात पर्यावरण मंत्री वीरप्पा मोइली ने एक प्रेस कांफ्रेंस में ऐलान किया कि आदिवासियों के जनमत के आधार पर नियमगिरी में बॉक्साइट खनन की प्रोजेक्ट रद्द की जाती है!
सुदूर इंग्लैंड के पत्र 'गार्डियन' ने अभी अभी लिखा है -
'आदिवासियों की भूमि पर इंगलैंड के खनिज व्यापारियों द्वारा बॉक्साइट खनन की मांग का भारत सरकार द्वारा खारिज कर दिया जाना इस देश में मानव अधिकारों की एक बहुत बड़ी जीत है!'
तो उधर ब्लूम्सबर्ग के माइनिंग वल्र्ड ने बताया कि इस सूचना के आते ही लंदन स्टॉक एक्सचेंज में वेदांता के शेयर बीस प्रतिशत नीचे गिर गए हैं।
* * *
हमें विश्वास और संदेह है कि तात्कालिक विजयों के बावजूद शेल, रियो टिंटो, वेदांता और दूसरे तमाम दैत्य फिर कोई न कोई नया छलावी रूप धरकर दोबारा हमारे बीच लौटेंगे।
लेकिन इस सारी उठा-पटक के बीच हम बारम्बार अपने पुराने मित्र स्टीफेन गॉडफ्री के ऐतिहासिक सवाल या कि यक्ष प्रश्न की ओर लौटते हैं कि -
इस देश की प्राकृतिक सम्पदा का महत्व क्या है? और इसके स्वामित्व और इसके दोहन का अधिकार किसे मिलना चाहिए?
इस बार आज के महत्वपूर्ण दिन, यह फैसला हम आपके हाथों में छोड़ते हैं!

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