लाल्टू की कविताएं

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी कविताएं
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम लाल्टू






सुबह-सुबह साँसों में

1.

अलसुबह वह आदमी एक शरीर लेकर निकलता है।
वजन के साथ घुटने ढोते हैं कई और जीवन। सुबह वह वरजिस करता है कि दिनभर ढो सके एकाधिक प्राण। पुख्ता करता है तन-मन। इस कोशिश में तेजी से टहलता है। कभी थोड़ी दौड़ भी। दौड़ते हुए बिड़बिड़ाता है :

कसरत करो तो मन की भी करो तन की तरह
मन की भी होतीं शिराएँ, मज्जाएँ, हड्डियाँ, तन की तरह।
मन की कसरत न होने पर सूख जाता है मन।
अक्सर दुबारा गीले नहीं हो पाते सूखे मन।

शरीर चलता है मैदान के एक कोने से दूसरे कोने तक। शरीर चलता है ब्रह्मांड की शुरुआत तक।

2

मसलन याद आता है अभी सड़क पर चलते टूटे नल से पिया पानी। पहाड़ी शहर की गली में चट्टानों पर कोठरी की खिड़की के हाथ हिलाती बच्ची।
लोक अचानक ही जीवन से गायब होते हैं, हालांकि हर रोज वे हमारे आस-पास ही दिखते हैं।

3.

अंकल को देखकर वह अन्ना के पीछे छिप जाती है। अंकल कहता है - मैं तुम्हें देख रहा हूँ। वह छिपने दिखने का खेल गढ़ती है। अंकल हँसते हँसते दो कदम दाँए बाँए होता है। वह फूलों की झाड़ी के पीछे छिप जाती है। फूल उसे छिपाकर जोर से हँसते हैं।

उसका खेल, फूलों का हँसना, अंकल की सुबह।

4.

मैदान में कुत्तों ने डेरा जमा रखा है। थोड़ी दूर और छोटे मैदान में पाँच पिल्ले खेल रहे हैं। आदमी को पिल्लों से प्यार है। वह डरता है कि पास जाने पर पिल्लों की माँ उस पर हमला कर देगी। सोचता है कुत्तों के बारे में शिकायत करे। फिर सोचता है कि आखिर कुत्ते कहाँ जाएँ?
इन दिनों कुत्तों की आवाजें सिर्फ रात को सुनाई देती हैं। बेजान आवाज़ें ही दिन की आवाज़ें हैं।

सुबह-सुबह साँसों में पिल्लों के खेल, फूलों की हँसी।
* * *

रात अकेली न थी

रात अकेली न थी
जैसे सचमुच कोई न था रात के साथ
एक एक अनेक सपने थे
हर सपना जानता था कि तारे भी हैं
सपने अकेले न थे
जैसे सचमुच कोई तारा न था किसी सपने के साथ
गम भी अकेले न थे
सुबह और तेज़ धूप साथ साथ
जैसे सचमुच धूप न थी सुबह के साथ

तुम्हारा निर्णय और तुम साथ आए
दोनों को जाना ही था साथ
जब से तुम गई हो
आती हो तुम हर रात
जैसे सचमुच तुम नहीं आती हो
मैं दरवाजों की ओर जाना चाहकर भी नहीं जाता
बारिश होती है तुम्हारे साथ
जैसे कोई बारिश सचमुच नहीं होती

मैं सचमुच तुम्हें लेने बाहर नहीं आता
अंदर वापस जाता हूँ
जैसे सचमुच नहीं जाता

वे दिन जो थे सच थे
अकेले होते थे हम साथ साथ
रातें थीं गमज़दा
जब लेते थे खुशियाँ बाँट
नींद होती थी वह भी रात
जब तुम नहीं होती थी साथ
तुम कहाँ किधर होती थी
हमेशा मुझे पता न होता था
अकेले होते थे हम साथ साथ
अकेलापन था धरती का साथ

तेज़ धूप में तपता है कमरा
गर्म हवा हल्की हो गई है इतनी
हर साँस भारी होती जाती है
साँस की दूरी बढ़ती है
सुबह सुबह कोई रोता है
जैसे सचमुच सुबह कोई नहीं रोता है।

खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं

खिड़की की कॉर्निस पर दो पक्षी हैं
चिडिय़ा कहता हूँ उन्हें
मन ही मन कई सारे नाम दुहराता
मैना, चिरैया आदि सोचते हुए फूलों के नाम भी सोचने लगता हूँ

यहाँ से हर रोज पक्षी दिखते हैं
ऋतुओं के साथ पक्षी बदलते हैं
आजकल कोई देसी नामों से उन्हें नहीं पहचानता
इंडियन फेज़ेंट का हिंदी नाम कौन है जानता

पक्षियों के नाम न जानने से जो तकलीफ थी, फूलों के नाम सोचने पर वह कम हुई है
जैसे कोई बुखार उतर सा गया है, या तुम्हारे न होने की तकलीफ कम हो
गई है

तुमसे दूर रहना भी एक बीमारी है
जिसे किसी अस्पताल में जाँचा नहीं जा सकता
मैं बीमार और डाक्टर भी मैं हूँ
अनजाने ही पक्षियों फूलों के साथ सोचते हुए
अपना इलाज कर बैठता हूँ
देसी नाम भूलकर भूला बचपन
पक्षियों को दुबारा देखते हुए याद आता है टुकड़ों में

बचपन, कैशोर्य, कुछ निश्छल प्रतिज्ञाएँ।

प्रतिज्ञाएँ सोचते हुए डर लगता है
इंकलाब जैसे शब्द अब कविता में थोड़े ही लिखे जा सकते हैं
जो वैज्ञानिक है उसे विज्ञान
जो अर्थशास्त्री उसे अर्थशास्त्र लिखना है
मैं जो सपनों की चीरफाड़ करता हूँ

मुझे कभी तो लिखना है सपनों पर
आलोचक बतलाएँगे कि सपना आत्मीय शब्द नहीं है।

खिड़की की कार्निस पर दो पक्षी हैं
चिडिय़ा कहता हूँ उन्हें।

प्रतीक्षालय

चारों ओर से अलग-अलग किस्म की आवाज़ें आ रही हैं।
दो महीने नहीं लिख पाने की तकलीफ को धन्यवाद; एक घंटा आवाज़ों के साथ बैठना आसान हो गया।
ऐसे वक्त कविता और चित्रकला आपस में गुफ्तगू करते हैं।

थोड़ी दूर सामने छत से एक टेलीविज़न लटका हुआ है। टेलीविज़न में लोग तालियाँ बजा रहे हैं। टेलीविज़न के ऊपर लोहे की पाइपों में बने मचान पर बैठा कामगार बिजली की तारों से खेल रहा है। जो मुझे खेल लगता है, उसे वह रोटी दिखता है।

लाल स्कर्ट सफेद ब्लाउज़। थोड़ी देर पहले आइने में देखते हुए उसने खुद को थप्पड़ मारा है। कारण जानने से पहले उसके साथ आया लड़का मुझसे टाइम पूछ रहा है। हर जगह वक्त की घोषणा हो रही है, हर कोई वक्त पूछ रहा है। वक्त पूछने से दुनिया हो जाती है जो वह है। टेलीविज़न पर आदमी को फाँसी दिए जाने की खबर आ जाती है। बहुत सारे लोग खबरें और खबरों की ब्रेक्स सुनते हैं। एकटक ताकती उनकी आँखों में मानव और निष्प्राण मशीनें एक से बिकते हैं।
मैं लिखता हूँ खबरें जिसको सत्यापित करने के लिए मेरे पास कोई पुराण नहीं है, कोई विज्ञान नहीं है। खबरें आवाज़ें। आवाज़ें खबरें। प्रतीक्षा लंबी है। प्रतीक्षा कभी खत्म नहीं होती। मैं नहीं रहूँगा, मेरी प्रतीक्षा रहेगी।

दो महीने नहीं लिख पाने की तकलीफ को धन्यवाद; एक घंटा आवाज़ों के साथ बैठना आसान हो गया।

क्या हो सकता है और क्या है

हो सकता है
दो महीने तुम्हारे साथ किसी पहाड़ी इलाके में रहना।
हर सुबह एक दूसरे को चाय पिलाना।
थोड़ी सी चुहल। पिछली रात पढ़ी किताब पर चर्चा।
दोपहर खाना खाकर टहलने निकलना।
घूमना। घूमते रहना।
शाम कहीं मेरा बीयर या सोडा पीना।
इन सब के बीच सामुदायिक केंद्र में बच्चों को कहानियाँ सुनाना।
एक साथ बच्चे हो जाना।

है
बच्चों की बातें सुन कर रोना आना।
बच्चों को देख-देख रोना आना।
रोते हुए कई बार कुमार विकल याद आना।
कि 'माक्र्स और लेनिन भी रोते थे
पर रोने के बाद वे कभी नहीं सोते थे।'
फिर यह सोच कर रोना आना
कि इन सब बातों का मतलब क्या
धरती में अब नहीं बिगड़ रहा ऐसा बचा क्या।
इस तरह अंदर बाहर नदियों का बहना।
पहाड़ी इलाकों से उतरती नदियों में बहना।
नदियों में बहना खाडिय़ों सागरों में डूबना।
कोई बीयर नहीं सोडा नहीं जो थोड़ी देर के लिए बन सके प्रवंचना।

फिर भी तो है ही जीना।
तुम्हें साथ लिए बहते हुए नदियाँ बन जाना।
ताप्ती, गोदावरी, नर्मदा, गंगा
अफरात नील दज़ला
नावों में बहना, नाविकों में बहना।
यात्राओं में विरह गीतों में बहना।

आखिर में कुछ लड़ाइयों में हम ही जीतेंगे खुद से है कहना।

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