वह एक बेघर जिजीविषा चिम्मड़

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी क़िताब
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम पंकज पराशर





क़िताब/अगली बार मंगलेश डबराल के संग्रह 'नये युग में शत्रु' पर व्योमेश शुक्ल


वह एक शोकगीत ही क्यों होता है हर बार
जब तुम स्त्री पर लिखते हो कविता


ज्ञानेन्द्रपति मानवीय जीवन-राग से आबद्ध, हाशिये के स्वप्न और स्वरों की पहचान से संबद्ध और आम जन के जीवन को दुष्कर बनाने वाली शक्तियों और सत्ता के विरोध में रचने वाले एक प्रतिबद्ध कवि हैं। जिस समय यथार्थ का यथावत चित्रण ही समकालीनता का पर्याय बन गया हो और अमूर्त और अर्थक्षरित रचनाएं 'सच्ची कला' और 'शुद्ध कविता' की संज्ञा से अभिहित की जाती हो, उस समय ज्ञानेन्द्रपति के यहां गहरे अनुराग से पगी और बड़े स्वप्नों को संजोने वाली अनेक कविताओं को लक्षित किया जा सकता है। इन दिनों जब तमाम कवियों में कथाकार बनने की उद्दाम लालसाएं बलवती हो रही हैं, तब ज्ञानेन्द्रपति विशुद्ध कविताई करने वाले बहुत थोड़े-से कुलवक्ती कवियों में हैं - जिन्होंने दिया बहुत-बहुत ज्यादा, लिया बहुत कम है। हिंदी जगत् को बहुत सारे काव्य-फूल-फल देने के बावज़ूद उनकी विनम्रता विरल है, जहां न 'हम न मरै मरिहैं संसारा' जैसी कबीराना गर्वोक्ति है, न 'क्या आसमां के भी बराबर नहीं हूं मैं' - जैसा गालिबाना अंदाज़। उनमें नागार्जुन की तरह खरी-खरी कह सकने का पर्याप्त साहस है और उन्हीं की तरह शब्द-रूप और काव्य-रूप का विपुल वैविध्य भी। उनकी अनेक कविताओं में यदि आपको निराला का ओज और नाद-सौंदर्य दिख जाए और अनेक कविताओं में मुक्तिबोध-जैसी फैंटेसी और लंबी तान, तो आश्चर्य की कोई बात नहीं। क्योंकि वे अपने समय के ऐसे कवि हैं, जिनकी कविता में समय, समाज और सत्ता की दुरभिसंधियों के साथ-साथ हिंदी कविता की परंपरा का भी साक्षात् निदर्शन होता है।
ज्ञानेन्द्रपति के समकालीन और परवर्ती दोनों में ऐसे कवियों की संख्या कम है, जिनकी कविताओं से गुजरते हुए हिंदी ही नहीं, पूरी भारतीय काव्य-परंपरा जेहन में कौंध जाए। उनमें बाबा नागार्जुन की तरह खरी-खरी कह सकने का साहस है, तो भाषा, छंद, अलंकार और रस को बरतने के मामले में भी नागार्जुनीय परंपरा का विस्तार दृष्टिगोचर होता है- जहां अनेक तरह के शब्द-रूप और काव्य-रूप के प्रयोग को लेकर कवि के भीतर कोई संकोच नहीं है। इस वज़ह से ज्ञानेन्द्रपति की काव्य-भाषा समकालीन हिंदी कविता की प्रचलित भाषा, लय और बिंब के मामले में उनकी निजता अलग से रेखांकित की जा सकती/जाती है। यह अकारण नहीं है कि हिंदी काव्य-आलोचना में सबसे अधिक नाखुशी का भाव उनकी काव्य-भाषा को लेकर ही व्यक्त की जाती है। गोया हर कवि को अपने समय में प्रचलित भाषा के आमफहम रूप को ही व्यक्त करना चाहिए, इससे इतर यदि किसी कवि की भाषा में उस भाषा की भाषिक-परंपरा बोलती हो, तो यह उसकी स्व-भाषा की एक कमी हो। दुर्भाग्य से हिंदी में ऐसे कवियों और आलोचकों की शुरू से उपस्थिति रही है, जिन्हें प्रचलित तत्कालीन काव्य-भाषा से अलग और किसी तरह के भाषा-रूप को पचाने में दिक्कत महसूस होती रही है। कहना न होगा कि निराला की अमर कविता 'राम की शक्तिपूजा' की तत्सम-प्रधान भाषा के कारण ही उनके एक समकालीन रचनाकार ने इस कविता को सांप झाडऩे का मंत्र बताया था और आज भी ऐसी मानसिकता के लोगों की कमी नहीं है, जो सिर्फ इस बिना पर ज्ञानेन्द्रपति की कविता को उल्लेखनीय मानने में चुप्पी साध लेते हैं कि उनकी काव्य-भाषा में हर शब्द-रूप का मुक्त-मन से प्रयोग हुआ है। चूंकि तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज-हर कोटि के शब्द उनकी काव्य-भाषा में सहजता से आए हैं, इसलिए इसे अतिरिक्त पांडित्य का प्रदर्शन मान लेना या सहजता के लिहाज से संप्रेषण में बाधक मान लेना न्यायोचित नहीं होगा।
ज्ञानेन्द्रपति का पहला कविता-संग्रह 'आँख हाथ बनते हुए' सन् 1970 में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद दूसरा संग्रह 'शब्द लिखने के लिए ही यह का$गज बना है' के प्रकाशन में ग्यारह वर्ष का अंतराल रहा और तीसरा संग्रह 'गंगातट' उन्नीस साल के लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ। परंतु उसके बाद के संग्रहो के बीच अंतराल थोड़ा कम हुआ। अभी हाल में प्रकाशित का उनका कविता-संग्रह 'मनु को बनाती मनई' एक वरिष्ठ कवि की पकी हुई काव्य-दृष्टि और सधी हुई काव्य-भाषा के अनुपम उदाहरण के रूप में आई है, बिला-शक, 'जिसमें पकते स्त्री-जीवन की विविध छवियां मिलेंगी-छली और दली जाती आत्म-दान की उसकी उमंग की कातर परिणतियां ही नहीं, बल्कि मानवता की स्रोतस्विनी होने के उसके गौरव और अकूत संघर्ष-क्षमता को उजागर करने वाले आख्यान भी'। अमेरिका के कैलीफोर्निया में मोबियस सिन्ड्रोम नामक एक अजीब बीमारी से ग्रसित एक बच्ची चेल्शी थामस मुस्कुराने में असमर्थ है। मोबियस सिन्ड्रोम एक ऐसी बीमारी है जिससे ग्रसित व्यक्ति के मनोभावों को उसके चेहरे से नहीं जाना जा सकता। मोबियस सिंड्रोम से ग्रसित व्यक्ति का चेहरा उसके मनोभावों को अभिव्यक्त कर पाने में असमर्थ हो जाता है- जिस वज़ह से न उसकी मुस्कुराहट का पता चलता है, न आवेश का। उस बच्ची को मुस्कुराहट प्रदान करने के लिए डॉक्टरों ने दस घंटे की मेहनत की, जिसे कवि ज्ञानेन्द्रपति ने 'एक मुस्कान की जन्म-कथा' नामक कविता में मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है, 'वे चाहते हैं, मवेशियों की-सी भारवाह जिंदगी जीते हुए/बँधुआ मजूर बच्चे भी/कम-से-कम नींद में भी मुस्कुराएँ/वे चाहते हैं, जहरीली गैस से मारे जाते बच्चे/उंगली में गैस-भरे गुब्बारे की ललकती डोर लपेटे मरें/वे चाहते हैं, संसार के सारे बच्चे मिलकर/हँसी-खुसी का इतना बड़ा पर्दा बुनें/कि छुप जाये उनकी स्वार्थान्ध आत्मा का अपार विषाद।' (पृ.19)
समकालीन हिंदी काव्य-परिदृश्य में ऐसे कवि बहुत-थोड़े हैं, जो सिर्फ कविता लिखते हैं और कविता की शक्ति पर जिनकी अटूट आस्था है। 'फकत कविता-लेखन' करने वाले रचनाकार हिंदी में कुछ गिने-चुने ही हैं। अंग्रेजी साहित्य में सुप्रसिद्ध कवि टी.एस. इलियट ने कविता के अलावा आलोचना में गंभीर और सार्थक हस्तक्षेप किया और यही काम हिंदी में, रामधारी सिंह 'दिनकर', गजानन माधव मुक्तिबोध और विजयदेव नारायण साही ने किया है। अपने विराट् अध्ययन और सर्जनात्मकता से इन कवियों ने आलोचना को गंभीर वैचारिक विमर्श से संपन्न किया। ज्ञानेन्द्रपति बहुविधावादी लेखक के रूप में नहीं, फकत काव्य-रचियता के रूप में जाने जाते हैं। लिखने को उन्होंने कुछ टिप्पणियां भी लिखी हैं और एक काव्य-नाटक, लेकिन वे हैं, मूलत: कवि, जिनका मन शास्त्र और लोक दोनों में समान रूप से रमता है। उनकी काव्य-भाषा को लेकर हिंदी काव्य-संसार में भले प्रसन्नता/प्रशंसा से अधिक अस्वीकार का भाव हो, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति के यहां लोक और शास्त्र ही नहीं, अंग्रेजी के शब्द भी पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित हैं। कहना न होगा कि समकालीन हिंदी कविता में सक्रिय अनेक कवियों के बीच ज्ञानेन्द्रपति अपने विरल काव्य-व्यक्तित्व और काव्य-भाषा के कारण अपनी एक अलग पहचान रखते हैं- निरंतर कर्मरत, अकुंठ, ईष्र्याहीन और बहुत हद तक समझौताविहीन।
इन दिनों ऐसी काव्य-तान प्राय: कम सुनाई पड़ती हैं, जिससे मन में उथल-पुथल मच जाए। लेकिन ज्ञानेन्द्रपति के इस संग्रह 'मनु को बनाती मनई' में ऐसी अनेक कविताएं हैं, जो हमारे चित्त में उतरती हुई भीतर तक वेध जाती हैं, 'ऋण देने को आगे आ रहे थे बैंक/और सभ्यता किसी की ऋणी नहीं रह गई थी/लुढ़कते बच्चे नहीं दिखते थे जिंदगी की सीढिय़ों पर/बच्चे घरेलू नौकर बनते बड़घर, बँधुआ मजूर बनते ईंट-भट्ठों और कालीन कारखानों में।' (पृ.37) नव-पूंजीवादी समाज में कृतज्ञता की कोई जगह नहीं है, ऐसे में भला सभ्यता किसी की ऋणी कैसे हो सकती है? एक तरफ सफेदी की चमकार ओढ़े बच्चे 'दाग अच्छे हैं' कहकर सायास दागों में लोट-पोट होते हैं, तो दूसरी तरफ विशाल जनसंख्या उन बच्चों की है, जो बकौल कवि किसी बड़े घर में घरेलू नौकर बनेंगे या ईंट-भट्टों और भदोही जैसी जगह में कालीन के कारखानों में बंधुआ मजदूर। ऐसी स्थिति देखकर कवि रोदन नहीं करता, बल्कि चुप्पी के खिलाफ मुखरता का पक्ष लेते हुए कहा है, 'बोल उठने का समय सही समय होता है सदा।' (पृ. 39) चतुर-सुजान और व्यवहारिक लोग मुखर होने के लिए सही समय की प्रतीक्षा करते हैं और अपने हित-अहित के मद्देनजर ही कुछ विरोध में कहते हैं, लेकिन एक ईमानदार और जनता से आबद्ध कवि शक्ति-संरचना के विरुद्ध न्याय और सत्य के पक्ष में बोलने की अपनी भूमिका से कभी पीछे नहीं हटता। अपने समय के यथार्थ की शिना$ख्त करते हुए इसी कविता में ज्ञानेन्द्रपति कहते हैं, 'चिरपरिचित आलू थालियों के लिए आकाश-कुसुम हो रहे थे/दाल के चुरने की सुगंध खो गई थी बटलोई से/और कटोरियां उदास थीं, आकाश से भरी/अधिकतर घरों में।' (पृ.37) महंगाई ने किस कदर आम आदमी का जीना मुहाल किया हुआ है, इस यथार्थ का अंकन करते हुए कवि साथ-साथ इस दुरभिसंधि को भी अनावृत्त करता हुआ चलता है कि सत्ता और पूंजी के गठजोड़ के कारण एक तरफ तो जीने के लिए जरूरी चीज़ों की कीमतें आसमान छू रही हैं, तो दूसरी तरफ गैर-ज़रूरी चीज़ों की कीमतें दिन-ब-दिन घटती जा रही हैं, 'एक मोटर कंपनी ने एक झटके में गिरा दी थी/अपने प्रचलित मॉडल की कीमत/और दफ्तरों के गलियारे/इसकी धमक से गूंज रहे थे।' (पृ.37)
बनारस को लेकर बहुत-सी रचनाएं की गई हैं, कई लोगों ने कविताएं लिखी हैं, कुछ पत्रिकाओं ने अपने विशेषांक प्रकाशित किए हैं,इसके बावज़ूद ज्ञानेन्द्रपति ने 'गंगातट' में जिस बनारस को ढूंढा है, अपनी बेहद मानवीय लेकिन पैनी नज़र से देखा है, वह पाठकों के लिए इससे पहले अलक्षित-सा था।
उस संग्रह के बाद उन्होंने गंगातट के जीवन को पूरी तरह जान लेने का दावा नहीं किया और बहुत गौर से इस 'टेर' को प्रस्तुत संग्रह में सुनने की कोशिश की, 'विधवा आश्रम की जगह गणपति गेस्ट हाउस होगा/क्योंकि/गणतंत्र में गणपति हैं कई/वे जो धनपति हैं।' (पृ.42) नये गणतांत्रिक भारत के धनपति परतंत्र भारत के धनपति की तरह विधवाओं के कल्याण हेतु कुछ करने में यकीन नहीं करते, बल्कि धन-संग्रह के अंतहीन लालच में वे धन-बल से पुराने विधवा आश्रमों और विधवाओं पर कब्जा करने में यकीन रखते हैं। पुरुष-सत्ता के यौन-आक्रमण की शिकार विधवा-बेबस औरतें, 'मुँडे हुए माथे वाली जिंदगी जीने/जिसमें किसी कोंपल के फूटने से बड़ा ज़ुर्म नहीं दूसरा कोई' (पृ.42) को झेलती हैं! परतंत्र देश के धनपतियों ने विधवाओं के लिए गंगातट पर मोक्ष के निमित्त विधवा आश्रम बनवाए थे, जिससे ताकत के दम पर गणतंत्र के धनलोभी गणपति विधवाओं को बेदखल करते हैं, 'दुबली बूढ़ी मटमैली स्त्री-देहों का कंठ-स्वर/कंठ-स्वर कि उनकी आत्माओं का आर्तनाद/वह ईश्वर को टेरती एक पुकार है/एक भजन/इसलिए उसकी अनसुनी करते चले जाते हो तुम।' (पृ.45)
'मनु को बनाती मनई' में शैशव से लेकर बुढ़ापे तक की स्त्री-जीवन की अनेक छवियां हैं- जिसमें हत्या और आत्महत्या से बचे शेष जीवन को देवीपूजक भारतीय समाज की स्त्रियां किस तरह बसर करती हैं- को लक्षित किया जा सकता है। यह घोषणा नहीं करने के बावजूद कि इस संग्रह की कविताएं स्त्री-जीवन पर केंद्रित कविताएं हैं, उनके इस संग्रह में जैसी कविताएं हैं और जिस क्रम में उन्हें संयोजित किया है, उसमें यह सायास न भी हो, तो भी एक कथाकार नज़र आता है।  निराला ने 'राम की शक्तिपूजा' में एक अद्भुत बिंब अंकित किया है, 'खिंच गए दृगों मे 'सीता के राममय नयन'। ज्ञानेन्द्रपति 'वे आँखें' में जिन आंखों को अपनी वेधक आंख से देखते हैं, उसे वही देखने में समर्थ हो सकते हैं जो आकाश से अपनी आंखें धोने का साहस कर सकते हैं, 'वे आंखें/प्याज की झांस से, चूल्हे के धुएं से/रोज़-रोज़ धोयी जाने वाली आंखें हैं/वे अँसुआती हैं अक्सर/और अक्सर अखुँआती हैं उनमें कोई कामना/बस सूख जाने को अनसिंची/आद्र्र नेत्रभूमि के बावजूद।' (पृ.164) दुनिया को रच सकने, रचकर जीने लायक बा सकने का ख्वाब जो आंखें देखती हैं, उन आंखों की आद्र्रता हमारे गणतंत्र के नव गणपति जन कभी समाप्त नहीं होने देते हैं और उनकी आंखें अक्सर अँसुआते रहने के लिए विवश होती हैं। जिनका 'बीता हुआ समय/कहां बीतता है इतनी जल्दी/पंखुडिय़ां खोलती अगली किसी शताब्दी/के पराग-कोष के बीच पथराया हुआ मिलता है/बीता हुआ समय।'(पृ.43)
ज्ञानेन्द्रपति की कविता में यूटोपिया और स्वप्न अनुस्यूत होते हैं और मानवीय प्रकृति और प्रवृत्ति के अलावा विशुद्ध प्रकृति औ शुद्धतम रूपों में प्रकट होती है। एक कविता में वे कहते हैं, 'कब के चले हमारे अंतरिक्षयानों की उड़ान का फीता भी/कहां माप पा रहा है/आकाश-वक्ष/अपार है पसार आकाश का/जो बढ़ता ही जा रहा है चारों तरफ/वद्र्धिष्णु ब्रह्मांड के साथ।' (मनु को बनाती मनई, पृ.12) मनुष्य की जिज्ञासा और आवश्यकताओं ने वैज्ञानिकों को नित नये आविष्कार हेतु प्रेरित किया था/है, जिसमें बाज़ार के कारण आज और अधिक गति आई है। व्यापक मानवीय कल्याण के बजाय आज अधिकांश आविष्कार बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों की जरूरतों और फंडिंग के कारण हो रहे हैं। आकाश को नापने वाले वैज्ञानिकगण इस बात से शायद बेखबर हैं कि जिस विशाल आकाश को वे तमाम फीतों से नाप नहीं पा रहे हैं, काश! उसी आकाश से प्रेरणा लेकर स्त्रियों के समाजाकाश को भी लोग इतना बड़ा होने दें कि उसे भी किसी फीते से नाप पाना नामुमकिन हो जाए! बड़े स्वप्नों को अपनी आंखों में संजोने वाले कवि ज्ञानेन्द्रपति कहते हैं, 'अरे! उन्हें इतना भर आकाश तो दीजिए-/समाजाकाश/कि उकस-विकस सकें उनके स्तन-शिशु/हुलक-पुलक सकें/और तिपहरी के सूरज के साथ बास्केटबाल खेलते हुए ताड़वृक्षों की तरह/निस्संकोच लंबोतरी हो लड़कियां/अपने अस्तित्व के प्रति कोई अपराध-बोध महसूस न करें वे।' (वही, पृ.13)
हिंदी कविता के इतिहास में क्रांति और प्रगतिशीलता को अक्षुण्ण रखते हुए प्रगतिशील कवियों ने बेमिसाल प्रकृतिपरक कविताएं लिखी हैं। नागार्जुन यदि एक तरफ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी से ये पूछते हैं कि 'इंदुजी इंदुजी क्या हुआ आपको' तो दूसरी तरफ इस आत्म-स्वीकार का पुलकते हुए वर्णन भी करते हैं कि 'बादल को घिरते देखा है'। लेकिन हिंदी आलोचना की तरह हिंदी कविता पर भी समकालीनता का इतना दबाव है कि आज की कविता ने प्रकृति और स्वप्न को गोया कलावादियों के ही हवाले कर दिया है, जहां शाब्दिक चमत्कार और अस्वाभाविक-सी वक्रोक्तियों के बावज़ूद जीवन-रस से रहित महज काव्याभास-भर लगता है। लेकिन ज्ञानेन्द्रपति प्रेममय स्त्री-छवि को भी प्रकृति के साथ देखते हैं, 'चौदसी के चांद में/देखा किया तुम्हारा फुल्ल मुखमंडल देर तक/और दुखमंडल छंट गया मेरे गिर्द का, धीरे-धीरे।'(पृ.131) नागार्जुन पर यह आरोप प्राय: चस्पां किया जाता था कि वे तात्कालिक घटनाओं पर अ$खबारी भाषा में कविता लिखते हैं, लेकिन वही नागार्जुन जब प्रकृतिपरक कविताएं लिखते हैं, तो स्वाभाविक रूप से उनकी भाषा तत्सम शब्द-प्रधान हो जाती है। ठीक उसी तरह ज्ञानेन्द्रपति की भाषा भी ऐसी स्थिति में तत्सम का चोला धारण कर लेती हैं, 'सागर का धूप-धुला आकाशोपम विस्तार, नेत्रातीत/आंखों को आंजती गंगा शरदारंभ की/तट की मंदिराभासी मस्ज़िद के गुंबद से निकल कर।' (पृ.99)
ज्ञानेन्द्रपति के यहां अनेक स्त्री-छवि है-जिसमें 'विलाप' का सत्य किस तरह कवि-सत्यके रूप में सामने आता है, •ारा देखिए, 'विलाप है/सोग का राग/स्त्री-कंठों से उठ रहा है/रोने का काम औरतें ही करती हैं/ज़िंदगी के सचमुच ज़रूरी दूसरे कामों की तरह/एक ज़िंदगी को विदाई देने का काम।'(पृ. 46) प्रकृति की रचना देखिए कि पुरूष न कुछ रच सकता है, न रो सकता है, न जिंदगी के पटाक्षेप के बाद उसे विदाई दे सकता है! संसार में स्त्री की उपस्थिति के बिना ज़िंदगी ही नहीं, मौत के बाद शव को विदा देने का काम भी पुरूषों के बूते की बात नहीं है! पुरूष राग दरबारी भले गा ले, लेकिन लोरी और सोहर जैसा जीवन-राग कोई स्त्री ही गा सकती है और मनुष्य के अंत समय में 'रूदाली' की भूमिका में भी कोई स्त्री ही आ सकती है, पुरूष नहीं! यह वास्तविकता है, जिसे जानकर भी पुरूष प्राय: इससे अनजान बने रहते हैं - लेकिन कवि नहीं। यह काम औरतें करती/कर सकती हैं, कवि इस तथ्य को जिस सत्य के साथ पेश करते हैं, उसकी 'आवाज़' की दृढ़ता भी सराहनीय है, 'मेरे भीतर/जितना ही धुआं भरा हो/मैं कोई धुएं की नहीं बनी/कि हवाओं में बिखर जाऊंगी बाहर/-औरत बोली' (पृ.46) छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद के महाकाव्य 'कामायनी' के मनु का मनई में रूपांतरण श्रद्धा के कारण ही होता है! अक्सर औरतें यह सत्य उद्घाटित करती रहती हैं कि पुरुष मकान बनाता है, लेकिन मकान को घर में रुपांतरित तो औरतें ही करती हैं। इस संग्रह की एक अद्भुत कविता 'अस्तित्व-राग' में स्त्रियों के विलाप और रुदन के संदर्भ में एक और चित्र देखिए, 'तुम्हारे रुदन में भी एक संगीत है/और बूढ़ी दादी/धरती का विलाप जैसे/शोक या आनंद से अलग/एक अस्तित्व-राग।' (पृ.158)
कवि औरतों का रुदन ही नहीं, उसकी हँसी को लेकर भी समाज की इस मानसिकता को अनावृत्त करता है, जो समाज इस तरह का मुहावरा आविष्कृत करता है, 'हँसी तो फँसी'। मध्यवर्गीय समाज में अक्सर यह कहा जाता है कि अधिक हँसने वाली औरतें कुलीन और भले घर की औरतें नहीं होतीं। स्त्रियों के प्रति भारतीय समाज के दोगलेपन की इंतहा है कि उसे स्त्रियों की हँसी नागवार लगती है। ज्ञानेन्द्रपति स्त्रियों की उन्मुक्त हँसी ही नहीं देखते, बल्कि पीठ की हँसी भी देखते हैं, 'एक उन्मुक्त हँसी/सरे राह ठिठक कर सुनी गई वह उन्मुक्त हँसी-/कोई कह रहा था चालू थी वह सांवली स्त्री।' (पृ.50) क्या अद्भुत सामाजिक मानक हैं कि उन्मुक्त हँसी हँसने वाली स्त्री चालू लगती है और अपने दु:ख और संताप से अँसुआती हुई औरतों का रुदन त्रिया-चरित्र! प्रगतिशील और क्रांतिकारी कवियों तक का पुरुष-मन स्त्रियों के मामले में पितृसत्ता का सख्त पहरेदार ही ठहरता है। यहां तक कि जो हरि मोरा पिऊ मैं हरि की बहुरिया कहते हैं, वे स्त्रियों को लेकर सदय और उदार नहीं नज़र आते हैं! ज्ञानेन्द्रपति की आंखों में स्त्रियों की उन्मुक्त हँसी के साथ-साथ स्त्रियों के पीठ की हँसी का अवलोकन भी कीजिए, 'हँस रही थी जब वह/स्त्री/मैंने देखा सड़क पर बगैर ठिठके/पीठ भी हँसती है/जी खोल हँसी।' (पृ. 51)
नए विमर्शकारों ने जिस तरह निम्नवर्गीय प्रसंग के समय और इतिहास को देखने का एक नया नजरिया पैदा किया, उसने बहुत-सी धारणाओं और अवधारणाओं को खंडित करके रख दिया। अन्नपूर्णा के खिताब से नवाज कर स्त्रियों के जीवन के अधिकांश हिस्से को रसोई में झोंक देने वाले समाज में सुस्वादु भोजन की तारीफ की परंपरा दरअसल स्त्रियों के निरंतर शोषण के लिए अनुकूलन की एक प्रक्रिया है। ताकि प्रशंसाओं और वाग्जाल में उलझकर वे सुस्वादु भोजन तैयार करने में ही अपने जीवन और हुनर की सार्थकता समझें। ज्ञानेन्द्रपति ने इस मानसिकता को बेहद बारीकी से अनावृत्त करने का प्रयत्न किया है, 'स्त्रियों की धैर्यमती पांत अब जीमने बैठी है। अब मिलेगी बाटी और भर्ते के बनवैयों को/सुधी समीक्षा, संतुष्ट प्रशंसा/क्योंकि स्वाद तो दूसरे के हाथों के खाने में ही बसता है/इस सच को स्त्रियां ही जानती हैं।' (पृ. 45) स्त्रियों के मन का लालसाओं को लक्षित करने वाले ज्ञानेन्द्रपति से उनके मन के भीतर निर्जनता भी अलक्षित नहीं करती, 'गूंजता रहता है/जिसकी देह का घर/दस्तकों से/उनके मन के  घर में/ओह! कितनी निर्जनता है।' (पृ.49)
इस संग्रह की पहली कविता 'वह' में वे लिखते हैं, 'इस दुनिया के भीतर गिरती-पड़ती/वह नहीं जानती/कि वह इसे लुढ़काए भी लिये जा रही है।' (पृ.11) जिसे पढ़ते हुए अनायास कई प्रश्न दिमाग में आते हैं। जिस दुनिया को वह लुढ़काए भी लिये जा रही है, वह दुनिया आखिर किसकी दुनिया है? जिसमें वह तनकर नहीं, गिरती-पड़ती जी रही है? गिरते-पड़ते जीने को विवश स्त्री किन कारणों से जीती है, यह हम जानते हैं, लेकिन यह जानकर भी मानते नहीं कि गिरते-पड़ते भी इस संसार को आखिरकार स्त्री ही लुढ़काए लिये जा रही है! रुदन, विलाप और उन्मुक्त हँसी हँसने वाली स्त्री की पीठ को लक्षित करने वाले कवि ने अनेक स्त्री-छवि का मार्मिक अंकन तो किया ही है, इस संग्रह में अनेक ऐसी प्रेम कविताओं की रचना की है, जिसमें आई स्त्री-छवि समकालीन कविता की स्त्री-छवियों से नितांत भिन्न और मानवीय है। अपने भीतर स्त्री होने की बात करने वाले कविगण जब संपूर्ण स्त्री-छवि को महज स्तन-भर मानते हों और कटे स्तनों से कवनियत्रियां भी महज हलो-हलो करती हों, तब ज्ञानेन्द्रपति विनम्रता से यह उद्घाटन करते हैं कि एक स्त्री ही वास्तव में मनु को मनई बना सकने में सक्षम है! मनई के संसार को जीवन-राग से रंजित और सृजन से पूरित कर सकती है! वे कहते हैं, 'बार-बार/तुम खुद को/सिक्त करने झुकते हो/और रिक्त करके ही उठते हो।' (पृ. 139)
प्रेम, बिछोह, मिलन, उदासी और अनुराग के गहरे भावों का अंकन करती ज्ञानेन्द्रपति के इस संग्रह की अनेक प्रेम कविताओं में आया पुरुष-मन अधिकार या उसके विलोम की भाषा में बात नहीं करता। बल्कि स्त्री-अस्मिता के प्रति आदर और उसकी प्रकृति/प्रवृत्ति के साथ गहरे अनुराग भाव लिए प्रेम के अलग-अलग शेड्स को अभिव्यक्त करता है, 'स्त्रियां तो बगल से उठ जाने के बाद भी/रक्त में सोई रहती हैं/सोयी रहती हैं देह में अनंत वार्तालाप की/अभिलाषा से भरी उसकी मित्र-देह/मन में सोया रहता है उसका मन।' (पृ. 145) हम पहले कह चुके हैं ज्ञानेन्द्रपति की कविताओं में हिंदी की पूरी काव्य-परंपरा बोलती है, सो उनकी सघन और सांद्र प्रेम-कविताओं को पढ़कर अनुभूति की शुद्धता और ऐंद्रियता के लिए विशेष रूप से याद किए जाने वाले कवि शमशेर याद आते हैं! ज्ञानेन्द्रपति भावनाओं की अकाल-वेला में भी उदारतापूर्वक यह स्वीकार करते हैं, 'भावनाओं की अकाल-वेला में/मेरे दुबलाये मन को/तुम्हारा प्रेम पोसता है।' (पृ. 117) प्रेम-पोषित हृदय ही ईमानदारी से आत्म-स्वीकार करते हुए अपने एकांत में यह आत्म-प्रश्न कर सकता है, 'वह एक शोकगीत ही क्यों होता है हर बार/जब तुम स्त्री पर लिखते हो कविता/समाज-देह की दुखती हुई रग छू लेने की तरह/क्यों तुम्हारे भीतर/आंसुओं का हिमपात होता है मौन।' (पृ.63) कृत्रिम संवेदना और उथले अनुराग के कारण पाठकों के चित्त में विरक्ति पैदा करने वाली अधिकांश कविताओं के बीच 'करूणामयी नारी-शक्ति के सबल हाथों में अनुरक्तिपूर्वक' समर्पित ज्ञानेन्द्रपति का यह संग्रह निश्चित रूप से हिंदी कविता के प्रति गहरी अनुरक्ति पैदा करेगा।

ज्ञानेन्द्रपति के कविता संग्रह 'मनु को बनाती मनई' का प्रकाशन किताबघर, नई दिल्ली ने किया।


पंकज पराशर एक अंतराल के बाद 'पहल' में प्रकाशित। उनसे सिरीज की शुरूआत हो रही है। पत्रकारिता से मुक्त होकर इन दिनों अलीगढ़ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अध्यापन।

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