मुमुक्षु

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी कहानी
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम वंदना शुक्ल






बासठ बरस तीन माह चार दिन की उमर में सुबह की सैर से लौटते हुए उस दिन अचानक विशन बाबू को लगा कि सचमुच जीवन का कोई अर्थ नहीं और यदि कोई अर्थ है तो भी जीना ऐसे नहीं था। हजारों वर्ष पहले सिद्धार्थ को नीलांजना नदी के पार एकांत में अकेले खड़े उस अश्वत्थ वृक्ष को देखकर कुछ ऐसा ही प्रतीत हुआ होगा और उसी बोधि वृक्ष के नीचे उन्होंने समाधि लगा ली होगी, वहीं निर्वाण का तत्व उन्हें प्राप्त हुआ होगा। लेकिन सिद्धार्थ तो तब युवा ही थे पर वो तो जी चुके हैं, जीवन के इस भवसागर में साँसों की नैया खेते अब तो किनारे आ लगे हैं... अब क्या फायदा ये सब सोचने से? उस पर तुर्रा ये कि हमने तो दुनियां देखी है साब... पढ़े लिखे, नौकरी में लगे, प्रेम किया, शादी ब्याह बाल बच्चे... और किसे कहते हैं एक सफल इंसान का शराफत से अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए जी जाना? लेकिन न जाने क्यूं उनका दम घुटता है अब... हर जगह एक से लोग  दोस्त, रिश्ते, अफसर, नौकर, पड़ोसी, नेता, लेखक...। अंतत: वो भी तो उन्हीं लाखों करोड़ों में से एक हैं जो सिर्फ खाने, रहने और सोने के लिए जिंदा हैं? विशन बाबू अक्सर ये भी महसूस करते हैं कि ज़िंदगी जीते जीते आदमी उकताने लगता है और अपने प्रायश्चितों विवशताओं को उम्र की पीठ पर लादे हुए तमाम भ्रमों की अंधेरी गलियों में भटकता हुआ वो किसी अलौकिक रोशनी का इंतजार कर रहा होता है। अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने ''ए क्रोस दी रिवर एंड इनटू दि ट्रीज़'' में अपनी मृत्यु की कल्पना करते हुए इसी रोशनी का कोई कतरा ज़रूर देखा होगा। काश पूछ पाते तो नचिकेता, गिल्गिमेश तुकाराम, नानक, महावीर, मुहम्मद, कबीर, क्राईस्ट बिठोवा से... कि क्या उन्हें भी ऐसा ही लगा था महावीर, नानक, कबीर ... होने से ठीक पहले?
कहते हैं मनुष्य ही नहीं हर नदी हर धरती हर पहाड़ का पुनर्ज़न्म होता है तो क्या उन्हें भी ये जीवन भुला अब अगले ठौर की ओर देखना चाहिए? लेकिन ग्रंथों पुराणों में भी तो लिखा है कि असंभव कुछ भी नहीं और फिर ये तो चमत्कारों का देश है ...खैर छोड़ो ...हाँ तो वो कह रहे थे कि मन मुताबिक जी नहीं पाए वो ...नौकरी, इज्ज़त बच्चे परिवार मकान, दूकान सब बढिय़ा तो है, और क्या चाहते थे वो खुद से ...ईश्वर से ...दुनिया से? अरे नहीं ये नहीं... किसी और तरह से जीना चाहते थे... किसी और अदा से... जैसे अँधेरा हो पर उसका रहवास अन्याय न हो... सपनों के लिए नींद की बंदिश और जीने के लिए नौकरी की कोल्हू बाज़ी न हो...। आँख खुलना ही सुबह नहीं बल्कि रात में भी जब आँख खुले उसी का नाम सवेरा हो जाये। जब वो सुबह को शाम की आँखों से देखें तो वृक्षों पर पक्षियों का सायंकालीन कलरव चहचहा रहा हो। अपने-अपने कामों से थके हारे लोग सुकून से अपने घर लौट रहे हों... शायद ऐसा ही कुछ...

काश मुझे पता होता कि आखिर क्या चाहता था मैं?

विश्वनाथ बाबू उर्फ विशन बाबू को तो कईयों दफा ये भी समझ में नहीं आता कि बारिश तो आसमान से बूंदों में पानी के गिरने को कहते हैं लेकिन उनकी बारिश उन्हें क्यूँ लगता है कि उनकी आत्मा से बरसती है, दिल और चेतना के वायुमंडल से होती हुई हर बार पलकों की देहरी पर आकर ठिठक जाती है...। उन अध् बुझे स्वप्नों की अधूरी राख छलछलाई आँखों के सामने रोशनी के रेगिस्तान सी झिलमिलाने लगती हैं। जैसे एडम जगायेव्स्की के सिरहाने संगीत, हेमिंग्वे की कल्पना में मृत्यु, नली साख्त की उड़ानों में अदृश्य ब्रम्हांड के रहस्य और कालिदास की बरौनियों में मेघ, ऐसे ही उनके आकाश में सपनों का कोई मिथक?... पता नहीं पर इन दिनों वो हकलाने कुछ ज्यादा लगे हैं। उन्हें याद आया कुछ सालों पहले तक ही तो वो कितना साफ बोलते थे, जुबां से निकला एक एक शब्द शीशे की तरह तराशा हुआ कि फोन में से भी उनका दिल आर पार देख लो और अब तो सामने खड़ा आदमी भी उकता जाता है, भागना चाहता है उनके पास से। अरे इस भाग दौड़ और मशीनी ज़माने में किसके पास वक्त है उनकी हकलाहट भरी बातें सुनने का? कमबख्त दो वाक्य बिना हकलाये नहीं बोल सकते वो। ...कहने को हिन्दी साहित्य के प्रकांड विद्वान...। प्रोफेसर, लेखक, आलोचक न जाने क्या क्या कहाते हैं। न जाने कितनी किताबें छप चुकी हैं अब तो उन्हें याद भी नहीं। टेक्नोलॉजी के इस युग में अलमारियों, पुस्तकालयों में रखी धूल धूसरित पुस्तकों को वो विचारों की कब्रगाह कहते हैं। जीवन के इस पड़ाव पर आकर न जाने क्यूँ उन्हें लगता है कि दुनियां भर में मशहूर होना और खुद के भीतर एक वैचारिक निरीहता से अकेले छटपटाते इंसान से रू ब रू होना, दो विपरीत ध्रुव हैं जिनके बीच वो अमूमन भटकते रहे। कहते हैं कि पूरी हो जाने के बाद लेखक की रचना या उपन्यास एक ''मरे हुए शेर'' की तरह हो जाता है... पर उनके लिए अपनी रचना से मुक्ति ज़िंदगी अज़ाब हो जाने की हद तक नाउम्मीद रही। हर रचना आत्मा में बजती रहती घंटियों की तरह गाहे ब गाहे... उलट पुलट... नहीं नहीं ये कोई फितूर नहीं ना ही कोई अजूबा ....यदि होता तो राइन नदी की बगलगीर उन झाडिय़ों और रास्तों में बीथोवन का उदास संगीत आज भी क्यूँ झरता रहता?
एक व$क्त था जब उन्हें लगता कि उनकी कलम में ताकत है दुनियां बदल डालने की। समाज को जगाती चेताती हुई सार्थक कवितायें उत्तेजक आलेख और मौजूदा दुर्दशायें लिख देने मात्र से यदि दुनियां बदल गई होती और कवि और लेखक निर्वाण टाईप कुछ पा लेते तो बुद्ध महावीर का नाम कोई जानता क्या इस धरती पर? (हाँ यदि भड़कता हुआ या चेतावनी नुमा कुछ लिख ही जायेंगे तो कबीर, रैदास या आधुनिक साहित्य के पुरोधा नागार्जुन, मुक्तिबोध, पाश, धूमिल या दुष्यंत की परिपाटी के कहे जाते हुए बी ए, एम ए के किसी पाठ्यक्रम में ''कोड'' करने लायक पढ़ लिख ज़रूर लिया जाएगा उन्हें और क्या?)
बूढ़ा होना भी एक कला है। अवश विवशताओं निरीहताओं को पीते हुए धीरे धीरे बूढ़ा होना...।
कितना कुछ भरा था उनके मन में जीवन में लेकिन कितने अतृप्त रहे वो मन से जीवन से? खैर हकलाना अब उनके लिए ज्यादा समस्या नहीं रहा अब उम्र के जिस दौर में हैं वो उससे आदमी को बोलने की ज़रूरत ही कहाँ पड़ती है? वो तो सिर्फ देखने सुनने और महसूस करने लायक ही तो बचता है? और कभी कभी तो उससे भी लाचार...। समाज तो क्या हमारा कानून भी साठ की देहरी पार होते ही ''सीनियर सिटीज़न'' कहकर ''पूजनीय'' हो जाने का एलान जो कर देता है। रिटायर होकर मन के प्रायश्चितों और हाहाकार को दाबे भोगो बुढ़ापे के सुख... सस्ती सुविधाजनक यात्रा बैंक पोस्ट ऑफिस में सुविधाएं, सरकारी वाहनों में रिज़व्र्ड सीट, सीनियर सिटीज़न पेंशन, ...ज्यादा ब्याज...वगैरह! साहित्य वाहित्य का कोई बड़ा पुरस्कार पाना है तो अपने मरने का इंतज़ार करो...। उन्हें हमेशा लगता रहा कि एक दिन रिटायरमेंट के बाद इसी सठियाई उमर में जब वो दुनियादारी से फुर्सत हो जायेंगे (और दुनियां उनसे) तब गृहस्थी लोकाचार के तमाम तात झाम यहीं छोड़ आखिरी बखत में वो अपने पुरखों के उसी गाँव चले जायेंगे जहाँ वो पैदा हुए लेकिन उससे पहले उन तीन लोगों से ज़रूर पूछेंगे यही प्रश्न... वो तीन लोग जो स्मृति में उनके साथ हर जगह, हर वक्त और हर हालत में साये की तरह अपनी मौजूदगी दर्ज कराते रहे। वो सबसे पहले जायेंगे कसबे के उस पुराने मुहल्ले में उसी नीम के घने वृक्ष की छांह में खटिया पर बैठ अपने हमउम्र दोस्त से पूछेंगे... श्रीधर गोरे...?

स्मृति एक
ज़ेहन में अनायास कौंधा श्रीधर गोरे जो कक्षा नौ तक हमारे साथ कसबे के 'सबसे अच्छे' स्कूल में पढ़ता था... श्रीधर यशवंत नारायण गोरे यानी बंडू...। हम से दो साल बड़ा था उम्र में और कक्षा में एक बरस आगे पर उसका उम्र और अक्ल में खुद को सबसे परिपक्व समझना 'होने' से भी कहीं ज्यादा विश्वसनीय था हम जूनियर दोस्तों के लिए। वो चार बहनों में इकलौता भाई था। उसके पिता राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक में पियून थे एवं चार बेटियों के पिता भी। लिहाजा बेटियों के पिता होने के एवज में काफी कंजूस और चिड़चिड़े भी हो गए थे। चार-चार बेटियों का अफसोस पूर्ण अहसास इकलौते बेटे बंडू के सुख भरी राहत से कहीं ज्यादा गाढ़ा और शाश्वत था। बंडू किताबें पढऩे से कम बोलता और 'होने' से ज्यादा सपने देखता। हम सब बच्चे स्कूल रिसेस में नीम के पेड़ वाले चबूतरे पर अपना अपना टिफिन लेकर बैठ जाते और खाने से ज्यादा बंडू की अजीबोगरीब बातों में चटखारे लेते। वो हम बच्चों का ''इनसाइक्लोपीडिया'' था।
वो कहता ''पता है आज मुझे सपने में कौन दिखा?''
... हम सब के बीच में अचानक एक प्रश्नवाचक चिन्ह आकर ठंस जाता और उसे खिसका बोढम से उसके चेहरे को देखते रहते।
''मुझे आज सपने में रंधावा दिखा, मेरा हाथ पकड़कर मुझे दौड़ा रहा था और पता है दौड़ते दौड़ते क्या कह रहा था? कह रहा था कि बंडू तुम्हारे जैसे मेहनती और जिद्दी पागल ही देश का नाम ऊंचा करते हैं ...देश का नाम करने के लिए पैसा नहीं जुनून, अपने काम के प्रति ईमानदारी होनी चाहिए।''
कही कहता मिल्खा सिंह का नाम तो सुना ई होगा तुम लोगों ने? नहीं? ...देखो ये हैं ...वो अपनी हाफ पेंट की जेब में से अखबार का गुड़ी मुड़ी किया पुर्जा निकालता जिसमें दुबले पतले दौड़ते हुए सरदार का ब्लेक एंड वाईट चित्र होता और हम सब टूट पड़ते उस ''देखने'' पर। देखो ये बन्दा पांच घंटे रोज़ ट्रेनिंग लेता था दौडऩे की और जानते हो पहाडिय़ों पर और पंजाब की एक बड़ी झील के किनारे किनारे दौडऩे का अभ्यास करता था और तो और मीटर गेज़ रेलगाड़ी के साथ भी दौड़ता था कभी कभी उसे खून की उल्टी तक हो जाती लेकिन वो घबराने वाले बन्दों में से नहीं था गुरु ...उसके चेहरे पर गर्व की रोशनी दीप दिपा जाती।
हम और नज़रें गड़ाए उस धुंधले चित्र में आँखें धंसा लेते जैसे बंडू जो कह रहा है वो देख भी रहे हों।
''कुछ बनने के लिए कितना खोना पड़ता है जानते हो, कुछ समझ में आया?''
''नहीं'' ...हमारे पास बंडू के हर सवाल का लगभग यही ज़वाब था और हमारे हर ज़वाब का उसके चेहरे पर एक ही भाव... अफसोस...।
हम सचमुच उस वक्त मूर्ख सिद्ध हो जाने की हद तक अचम्भित रह जाते।
हमें उसकी बातें खूब बड़ी बड़ी लगतीं इतनी बड़ी कि हमारे कद और हैसियत चींटी बनकर रेंगने लगते हमारे ही सामने मटमैली भूरी ज़मीन पर। तब उस छोटे कसबे में न तो टी वी था और कंप्यूटर की तो बात ही छोड़ो। रेडियो में भी ये बातें नहीं आती थीं। रेडिया तो घर में बड़े लोगों के लिए खबरें और हमारी उमर के नव युवकों के लिए 'गीतमाला' से ज्यादा प्रासंगिक नहीं था। बाद में पता चला कि बंडू समोसे खाने के लिए बाप से पैसे ले आता उन्हें जमा करता रहता और स्कूल के बाहर चौधरी बुक सेंटर से सामान्य ज्ञान की सेकेण्ड हेंड किताबें और पुराने अखबार खरीद लेता (बाप को किताबें विताबें सब फज़ूल खर्ची लगती लेकिन समोसे के लिए मनाही नहीं थी) अखबारों पत्रिकाओं में से खिलाडिय़ों के चित्र काट काट कर वो प्रेक्टिकल कॉपी में चिपकाता रहता। वो कक्षा में सबसे पीछे की सीट पर बैठता और कई बार मास्टरों की डांट-मार भी खाता जब कोर्स के अलावा दूसरी ''फालतू'' की किताबं पढ़ता हुआ पकड़ा जाता। लेकिन जब नहीं पकड़ा जाता तब वो आँखें गड़ाए रहता किताब पर। किताबों में लिखे शब्द उसकी चेतना में कीड़ों की तरह रेंगते हुए घुस जाते और उसकी इच्छाओं में दाखिल हो सपनों का एक डूह बना लेते। ये डूह इतना बड़ा हो जाता कि उसका कुछ हिस्सा उसकी पलकों में से बाहर छिटक आता ...उन्हें ही ''सपना'' कह बंडू हमें सुना देता। खैर... उसी ने बताया था कि बंबई में उसका ननिहाल है।
बंबई? हम सबके मुंह से एक साथ निकला था ...जहां देवानंद रहता है ...आशा पारीख? (बम्बई उस उम्र में हमारे लिए पृथ्वी का स्वर्ग हुआ करता था सिनेमा के पर्दों पर अप्सराएं जो दिखती थीं!)
हाँ हाँ भाई वही बम्बई ...हम सभी के चेहरे से बंडू के प्रति श्रद्धा भाव टप टप टपक रहा था।
बंबई में एक जगह है जानते हो एशिया की सबसे फेमस जगह है वो? एक दिन खाने के अवकाश में उसी ने हमसे कहा। हम बच्चे फिर मुंह खोले आश्चर्य से उसकी और देखते रहे...
उसका नाम जानते हो? हमने समवेत मुद्रा में सर हिलाया ...नहीं ...
वो हंसा ...तुम लोग सिर्फ अपना और बाप का नाम जानते हो ...शायद देश का भी जानते होगे ...इससे आगे तुम्हारी खोपड़ी बिलकुल खाली है। पता है आगे दुनिया कितनी बदलने वाली है?
कक्षा, दिन मौसम, साल बदलते तो देखे थे पर दुनियां भी बदलती है ये तो हमारे लिए एक बिल्कुल नई खोज थी और अन्वेषक था बंडू...
हम बच्चे अपराध भाव से ज़मीन की और देखते रहे
उस फेमस जगह का नाम ''धारावी''  है, मेरे मामू लोग वहीं रहते हैं।
हमें लगा कि ये ताजमहल जैसी दुनिया की आश्चर्य जनक ऐतिहासिक चीज़ों में से कोई एक होगी ...या गंगा जैसी पवित्र या अमरनाथ गया जैसी कोई तीर्थ नगरी। खैर पाप पुण्य की शिनाख्त किये बिना बात यहीं खत्म हो गई।
दुबला पतला सांवला बंडू पढऩे में तो साधारण ही था लेकिन क्या दौड़ता था भाई वो? स्कूल में जलेबी दौड़ हो, धीमी साइक्लिंग दौड़ रिले रेस या फिर व्यवधान रेस, सौ मीटर दो सौ मीटर मानो उसी का नाम लिखा था रेसिंग ट्रेक पर। दौड़ते में उसके पैरों में जैसे पहिये लग जाते... महान हॉकी खिलाड़ी मेजर ध्यानचंद की गेंद जैसे हॉकी से चिपक जाती थी (ये कहानी भी हमें बंडू ने ही बताई थी)। पूरा मैदान तालियो की गडग़ड़ाहट से गूंज जाता। हम बच्चे खुशी से पागल हो जाते, जोर जोर से खड़े होकर तालियाँ पीटते। दौड़ में कई अन्तर्विद्यालयीन और अन्यान्य प्रतियोगिताएं उसने जीती थीं। संभाग स्तर पर भी प्रथम आने का उसका रिकार्ड था। पहले अंडर टेन में फिर अंडर फिफ्टीन में। वो स्पोर्ट्स में इतने पुरस्कार जीत चुका था कहता था मेरे घर में एक लकड़ी की अलमारी है उसे जब खोलता हूं झन झन करके सब कप गिरने लगते हैं। पिताजी कहते हैं कि अब की दिवाली के बोनस में नई अलमारी ले आयेंगे कुछ बड़ी। जिला स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिता के परिणाम फोटो सहित अखबार के ''संभागीय समाचारों'' में आते जिसमें कभी कभी बंडू का भी दौड़ते हुए फोटो आता। वो उसे खूब संभालकर रखता और हम लोगों को दिखाता। हम उस तस्वीर को आसमान में टंगे चाँद की तरह देखते। स्कूल के प्रिंसिपल और अध्यापक उससे इसी गुण के कारण इतने खुश रहते थे कि उसे कभी फेल नहीं होने देते थे ...कुछ नंबर खींच खांच कर अगली कक्षा में चढ़ा देते। आखिर वो उनके स्कूल का हीरो था ...ये बात वो खुद भी जानता था। उसे स्कूल के बड़े लड़के ''सींकिया पहलवान'' कहते थे। वो सचमुच बहुत दुबला था लेकिन था फुर्तीला। स्पोर्ट टीचर जिन्हें वो आदर से गुरुजी कहता, उससे कहते कि बंडू तुम्हें यदि खेलों में आगे बढऩा है तो खूब पौष्टिक खाना खाना चाहिए क्यूँ कि एक धावक को सामान्य आदमी से ज्यादा ऊर्जा चाहिए ये बात तो उद्धरणों समेत कहते। उन्होंने ही माता मंदिर के पीछे एक नए खुले जिम का पता भी दिया था उसे कहा था कि वहां जाकर थोड़ी कसरत वर्जिश किया करो तो हड्डियां और मांस पेशियाँ मज़बूत होंगी। उनकी पहली सीख उसके वश में नहीं थी लेकिन तब वो माता मंदिर के पीछे वाले उस जिम में नियम से जाने लगा था वहां पुश अप करता, फ्री वेट्स, बार्बेल, डम्बल, स्प्रिंग पुली, टेंशन बेंड ये सब नाम उसी ने बताये थे हमें। फिर एक दिन एक नया लड़का आ गया स्कूल में कोशिक सोमानी नाम का। गोरा चिट्टा हष्ट पुष्ट... आभिजात्यपन और समृद्धि उसके गुलाबी चेहरे से टप टप टपकते। वो आठवीं तक किसी बड़े शहर के स्कूल में पढ़ा था। उसके नाना नानी इसी कसबे में रहते थे और नामी सेठों में गिनती होती थी नाना की। इतना ही नहीं वो इस विद्यालय के ट्रस्ट्रीज़ में से एक थे। कोशिक का स्कूल में विशेष सम्मान था। कोशिक के पिता उज्जैन में किसी प्राइवेट कंपनी में मैनेजर थे। उन्हें कंपनी एक साल के लिए हाँगकाँग भेज रही थी वो पत्नी को भी साथ ले जा रहे थे। लेकिन बेटे का एक साल बर्बाद होगा उसे नहीं ले गए होस्टल में भी करवाया लेकिन वो वहां इतना रोया कि घर लाना पड़ा अंत में। वो नाना नानी के पास इस कस्बे में आने को तैयार हो गया ...मजबूरी में उन्हें यहीं प्रवेश दिलवाना पड़ा ...वैसे ये स्कूल इतना गया गुज़रा भी नहीं था।
कोशिक पढऩे में होशियार था जिसकी होशियारी उसके अंग्रेजी ज्ञान पर भी टिकी हुई थी। अंग्रेजी के टीचर भी उसके सामने बोलने में थोड़े झिझकते ...खूब गिटर पिटर अंग्रेजी बोलता वो। बच्चे उससे भयभीत और सहमे से रहते। बंडू अब पहले की तरह रिसेस में हम सब बच्चों के साथ नहीं बैठता था। न जाने वो कहाँ गायब रहता। सुना था कि जब से उसे पता चला है कि कोशिक भी अच्छा धावक है तब से वो रिसेस में कसबे के नगर पालिका ग्राउंड में दौडऩे की प्रेक्टिस करने जाता है। उसे शायद प्रिंसिपल और अध्यापकों का कोशिक की तरफ झुकाव बर्दाश्त नहीं हो रहा था। बंडू उदास सा रहता। यहां तक तो ठीक लेकिन उस दिन जब जिला स्तर की फाइनल एथलीट प्रतियोगिता थी और कोशिक ने भी दौड़ में भाग लिया था उसने बंडू को पछाड़ दिया और फस्र्ट आ गया। पुरस्कार वितरण समारोह में उद्घोषक ने उसका परिचय देते हुए कहा कि विद्यालय गौरवान्वित हुआ है कोशिक सोमानी की इस विजय से। उन्होंने ये भी बताया कि कोशिक सोमानी पिछले दो वर्षों से एथलीट की ट्रेनिंग इन्दौर में एक जिला स्तर के कोच से ले रहे हैं। और हमें ये सूचित करते हुए भी अत्यंत खुशी हो रही है कि राज्य सरकार द्वारा प्रतिभाशाली खिलाडिय़ों को दी जाने वाली छात्रवृत्ति के लिए भी उनका चयन हुआ है। कसबे के बड़े व्यवसायी एवं विद्यालय ट्रस्टी की हैसियत से पुरस्कार वितरण श्री अवध बिहारी मोदी यानी कोशिक के नानाजी के कर कमलों से कराया गया। बंडू की ज़िंदगी में ये पहला अवसर था जब वो हार गया था सिर्फ दौड़ में ही नहीं बल्कि सपनों में भी ...ये पहला अवसर था जब इस प्रतियोगिता के एकछत्र विजेता बंडू उ$र्फ श्रीधर गोरे की अचूक अभेध्य जीत में किसी और ने सेंध लगा दी थी। ... हार भी ऐसी वैसी? न द्वितीय या तृतीय... न जाने क्या हो गया था बंडू को कि हर बार अपने और अन्य धावकों के बीच अच्छा खासा फासला रखते हुए जीतने की ही आदत थी उसकी लेकिन इस बार कोशिक शुरू से ही उससे आगे निकल आया तो वो कुछ समझ नहीं पाया उसकी आँखों के सामने अन्धेरा सा छाने लगा वो बुरी तरह हांफ गया और फिर उससे आगे एक दो तीन करके सब आने लगे जो हमेशा उससे फिसड्डी रहते थे। उसके बाद वो कई दिनों तक स्कूल नहीं आया।
वो खेल में ओलम्पिक तक जाना चाहता था।

बंडू अपनी पराजय से इतना आहत हुआ कि उसने रट लगा ली कि उसे नहीं रहना यहाँ उसे जयंता मामू के यहाँ बम्बई जाना है और वहीं ओलम्पिक की ट्रेनिंग लेनी है ...इस कस्बे में तो वो कभी बढ़ नहीं सकता और हारकर उसे मामू के यहाँ बम्बई भेज दिया गया। बीच का अंतराल काफी लंबा रहा कोई खोज खबर नहीं उम्रें सपाटे से दौड़ती रहीं। ज्यादा कुछ तो उसके बारे में जानकारी नहीं सिवाय इसके कि बंडू की भी धारावी में अपनी एक खोली है अब बीवी बच्चों के साथ रहता है खूब थुलथुल हो गया है और अब वो भी अपने मामाओं के साथ खोली बेचने खरीदने का धंधा करता है। विशन बाबू पूछना चाहते हैं बंडू से कि क्या उसको भी ऐसा ही लगता है जैसा विशन बाबू को लग रहा है इस व$क्त...? कि जीना कुछ अलग तरह से था और जी कुछ अलग तरह से लिए?...

चलो, अब गाँव ना भी जा पाए संभवत: क्यूँ कि अब तो वहां कोई रह नहीं गया होगा अपना ...और फिर आजकल गाँव ही कहाँ रह गए हैं...?

स्मृति दो
गाँव में नहीं ...अब तक तो विशन बाबू बनारस आ गए थे बी एच यू से पी एच डी कर रहे थे साथ में शिक्षक की एक पार्ट टाईम नौकरी भी। वो किराए के एक कमरे में रहते थे संध्या उसके मकान मालिक की बेटी संजू की मित्र थी और एक महिला छात्रावास में रहती थी मॉस कम्युनिकेशन की छात्रा थी वो विशन बाबू और संध्या की मित्रता कहाँ क्यूँ और कैसे ...ये सब तो ज़रूरी नहीं लेकिन संध्या उनका एक जुनून थी उनका सपना ये ज़रूरी भी है और सच भी। क्यूँ कि आगे की कहानी इसी सच में गुंथी हुई है। युवावस्था की ताज़ी स्फूर्ति और ढीठता संध्या के पोर पोर से उमगती। आधुनिक विचारों की पढ़ी लिखी लड़की थी समाज को बदलना चाहती थी। पढ़ाई पूरी करके पत्रकार बनना चाहती थी वो। ... उसकी हंसी उसकी होशियारी उसकी सूरत सब पर फुल िफदा विशन बाबू...। जब उन्हें लगा कि संध्या के बिना वो कुछ अधूरे हैं तो उन्होंने शादी का प्रस्ताव उसके सामने खिसका दिया। संध्या ने उतने ही त्वरित और अनापेक्षित रूप से स्पष्ट इनकार भी कर दिया। कहा कि वो समाज के ये शादी ब्याह जैसे ढकोसलों पर यकीन नहीं करती इन सड़े गले रीति रिवाजों को तोडऩा चाहती है। आजकल की लड़कियां पहले शादी और उसके बाद थोपे गए प्रेम में विश्वास नहीं करतीं बल्कि वो पहले प्रेम करती हैं फिर शादी ...नहीं करतीं तो करना चाहिए उन्हें ...वो कोई भेड़ बकरी नहीं इंसान हैं ...जैसे पुरुष...
उनकी उम्मीद एक थके हुए पक्षी की तरह निढाल ढह गई फिर भी उन्होंने मुरझाई सी आवाज़ में कहा ''लेकिन तुम मुझे तो जान ही गई हो अच्छे से क्या मुझ पर भी तुम्हें यकीन नहीं?''
यकीन है पर यार शादी की क्या ज़रूरत है साथ रहने के लिए? ...चलो रहने लगते हैं आज से ...अभी से, विशन बाबू ने संध्या को समझाने की भरसक कोशिश की। कहा कि ...तुम्हारे माता पिता दूर रहते हैं तुम्हें विश्वास करके उन्होंने इस शहर में भेजा है पढ़ाई के लिए क्या ये उनके साथ विश्वास घात नहीं होगा?
नहीं ...संध्या ने कुछ पल पहले ओढ़ी हुई चुप्पी को खुद ही परे सरकाते हुए कहा ''आजकल सम्बन्ध रिश्ते कम समझौते अधिक हो गए हैं। मेरे पिता एक छोटी सी नौकरी से रिटायर्ड हैं और माँ कम पढ़ी लिखी गृहणी। वो भाई भाभी पर ही आश्रित हैं मेरा वहां रहना भाभी को पसंद नहीं और बिना पढ़े लिखे बल्कि नौकरी के और बिना दहेज़ का वर मुझे कहां मिलेगा? इसलिए मुझे यहाँ भेजना उनकी विवशता थी ...एक बीच का रास्ता...। किस पर विश्वास करें रिश्तों पर, समाज पर, देश पर, या ईश्वर पर? सब पर करके देख लिया और किसी पर नहीं। और जब विश्वास ही नहीं तो विश्वास घात कैसा? जहाँ तक शादियों के लिए आडम्बर की बात है अब वो दिन गए जब कबूतर सबसे विश्वसनीय डाकिये माने जाते थे, या नाई जाकर पक्का कर आते थे ब्याह ...अब तो ज़माना बिल्कुल बदल गया है।''
यानी... बाज़ार से चीज़ ले आओ यदि पसंद ना आये तो वापस... विशन बाबू ने लाड से संध्या का हाथ अपने हाथ में लेकर हँसते हुए कहा था।
'अच्छा एक बात तो बताओ' संध्या ने कुछ देर की चुप्पी भरे अवकाश के बाद कहा 'तुम्हें महसूस नहीं होता कि अगली सदी में दाखिल होते हुए हम कितनी सड़ी-गली प्रथाओं सोचों बंदिशों से मुक्ति पाने जा रहे हैं? ...(उसकी आँखों में सहसा चमक कौंध आई थी) जैसे पिछली कुछ सदियाँ आध्यात्म के धुंधलके में रही... वर्तमान गुलामी और आजादी की गुत्थियों में उलझी वैसे ही आने वाली सदी बाज़ार की गिरफ्त में होगी ...संस्कृति, व्यक्ति, सोच, शिक्षा रिश्ते सब एक वस्तु यानी प्रोडक्ट में तब्दील होने को हैं ...आहट नहीं सुन रहे हो...? क्या तुम्हें लगता है कि बाज़ार की इस चकाचौंध में रिश्तों की शुद्धता और मासूमियत हम बचा पाएंगे?'
विशन बाबू को लगा कि बोलती तो ज़रा ज़्यादा है लेकिन कह ठीक रही है लड़की। यही है आधुनिकता की परिभाषा और यही है नए व$क्त की मांग ...औरत ने बहुत अन्याय सहे हैं सही है अब यदि वो भी अपनी इच्छाओं और खुशियों को पूरी करना चाहती हैं तो ये उसका हक भी है और न्यायपूर्ण भी। विशन बाबू के दिल में अचानक आधुनिकता और शाबाशी जैसा कुछ कुलबुलाया और उन्होंने संध्या का हाथ अपने हाथ में ले लिया। संध्या तब ट्रेनी पत्रकार के टेस्ट में पास होकर आ चुकी थी और एक स्थानीय दैनिक अखबार के संपादन विभाग में काम करती थी। भले ही विशन बाबू संध्या के साथ एक तथाकथित आधुनिक और विकसित सदी में प्रवेश करने जा रहे थे लेकिन अकेले नहीं बल्कि सैंकड़ों आशंकाओं की भीड़ के साथ जिसमें सबसे ज्यादा स्पष्ट चेहरा पिताजी का ही था... पिताजी जैसे लोग क्या इस नए युग में अपनी परम्पराओं के खूंटे को उखाड़ पायेंगे? क्या इस भूमंडलीय बाज़ार का एक उपभोक्ता बनना मंज़ूर होगा उन्हें या उनके परिजनों को? बाज़ बख्त उन्हें लगता कि उनसे जोश जोश में बड़ी गलती हो गई एक ऐसी भूल जिसकी कोई माफी भी नहीं। किसी स्त्री के साथ छिपकर रहना कितना अजीब और डरावना होता है उन्हें अब महसूस हो रहा था। लेकिन संध्या विशन बाबू के दिल के घमासान से अनभिज्ञ अब भी आसमान में उड़ रही थी अगली सदी के द्वार के आसपास... उसके खुलने का इंतज़ार करती हुई।
सच ये भी था कि संध्या के साथ कुछ देर को वो सब डर भूल जाते। वो सचमुच एक आनंदमय अनुभूति थी जैसे किसी ने उन्हें चिपचिपाती गाढ़ी गर्मी में शीतल जल में उतार दिया हो। शुरू के दिनों में वक्त ने पंख पहने हुए थे लेकिन उड़ते उड़ते जब वक्त कुछ थकने लगा और आसमान कुछ ज्यादा ही ऊंचा दिखाई देने लगा तो वो ज़मीन पर उतर आया और उसने अपने पंख उतार कर रख दिए। क्यूँ कि ज़मीन पर पैदल चलने के लिए पंखों का उतार रखना ज़रूरी था। ज़मीन बेहद ऊबड़ खाबड़ और पथरीली थी और आसमान उनके साहस से ज्यादा ऊंचा...। अपने हौसलों के पंखों को फडफ़ड़ाकर उन्होंने तैयारी ही की थी आसमान में फिर उडऩे की कि तभी विशन बाबू के पिता का गाँव से टेलीग्राम आया था तुम्हारे लिए लड़की देख ली है आ जाओ... पिता का कहा वो टाल नहीं पाए और बिना संध्या को बताये कहीं चले गए ...कहीं क्या यहीं बम्बई चले आये .. जो अब तक मुंबई हो चुकी थी। वैसे सीधे मुंबई भी नहीं उसके बीच में भी शादी, बच्चे, नौकरी करते हुए कई शहरों में रहे ...जूझे ...रहने की कोशिश में जूझते रहे और जूझते हुए रहते रहे खुद को सुखी होने का धोखा देते हुए। लेकिन क्या आदमी जिन्हें सुख कहता है धन स्त्री ओहदा उसके पार भी वो कभी वाकई सुखी हो पाता है? जी तो गए इतने बरस सब जिम्मेदारियां भी अच्छे से निभाते गए पर क्या एक पल को भी भूल पाए वो संध्या को? क्या अवकाश के किसी पल में उन्हें उनकी कायरता, डरपोकपन और धृष्ठता ने नहीं कचोटा? संध्या पर क्या गुज़री होगी सोच सोच कर उन्हें खुद पर क्रोध आता ...बुजदिल कायर डरपोक कहीं के...। न जाने क्या हो गया था उन्हें उस वक्त संध्या को सोता छोड़ चुपचाप बैग उठाकर चले आये स्टेशन और बैठ गए ट्रेन में? दिनों क्या महीनों तक वो आत्म ग्लानि के इन अँधेरे झुरमुटों से उबर नहीं पाए लेकिन क्या करते? एक रेशमी जाल में जकड़े थे वो उलझ चुके थे नख शिक तक उसमें। वो संध्या को जानते थे भली प्रकार... वो उन्हें खोजने या शिकायतें करने की कभी कोशिश नहीं करेगी बल्कि उनके चले जाने को वो विशन बाबू की व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानेगी ...लेकिन फिर भी...! विशन बाबू स्वयं को अंतर्मुखी मानते थे एक ऐसा इन्ट्रोवर्ट आदमी जो वो सब करता है जो दूसरे उससे करवाना चाहते हैं वो नहीं करता जो वो खुद करना चाहता है। अजीबोगरीब है महसूस करना कि आतंक और आकर्षण एक ही सिक्के के दो पहलु होते हैं।
सुख एक अनुभूति है या स्वीकृति! कभी कभी आदमी अकारण सुखी हो जाता है और कभी कारणों के पहाड़ पर बैठा भी •ामीन की ओर ही तकता रहता है। वो सुखों के इसी पर्वत पर बैठे थे ...पति भक्त पत्नी ...अपना मकान एक बेटा एक बेटी ...दोनों अपने अपने घर में सुखी ...लेकिन फिर भी उन्हें न जाने कैसी रिक्तता, क्या कमी लगती थी जीवन में कि वो फिर निपट तनहा होना चाहते थे जीवन के कोलाहल से दूर किसी शांत एकांत वन में नितांत अपनेपन और अपनी आत्मा की गूढ़ता के भीतर? फिर से एक बार जीवन की तलहटी से पहाड़ पर चढऩा चाहते हैं वो... लेकिन इस तरह के चाहने और होने में दो ध्रुवों का फासला होता है। और फिर जीवन के पहाड़ से लौटते हुए वापस चढऩे की ऊल जुलूल चाह?
उनके और संध्या के बीच अब अलंघ्य दूरियां थीं उड़ती हुई खबरें आई थीं कि संध्या के उन उन्मुक्त विचारों ने बहुत कष्ट उठाये.... एक सदी बीत गई... नई सदी आ भी गई ज़माना बदल भी गया ...बाज़ार घुस भी गए समाज के रोंये रोंये में लेकिन स्वछंदता एक विचित्र ही रूप लेकर अवतरित हुई इस नए युग में एक आंधी की तरह। आँखों के आगे से समय बहने लगा। ये एक अभूतपूर्व वाकया या घटना थी। समय के साथ न जाने कितने सपने, योजनायें, संस्कार, आदर्श, सब वक्त के साथ बहने उडऩे और लुप्त होने लगे...। नए पन की धूम मच गयी नित नया ...नए को पछाड़ता नया ...नए को दबोचता नया, पिछली सदी व$क्त के सात सरपट दौड़ती आधुनिकता के आगे टिक नहीं पाई और वो गिरती पड़ती दौडऩे लगी। दुनियां तेज़ी से बदल रही थी, चीन की दीवार, सोवियत संघ के टुकड़े, फिर 26/11, ईराक, अफगानिस्तान ग्वाटानामों... कश्मीर, बावरी मस्जिद...। नेपाल, बांग्लादेश, इथोपिया, चांग यहाँ तक कि टूटे हुए सोवियत रूस तक से लड़कियां देह व्यापार के लिए लाइ जाने लगीं...।
ज्यादा कुछ पता नहीं संध्या का क्या हुआ लेकिन सुना है कि अभी किसी सरकारी कार्यालय में नौकरी कर रही है। पिता गुज़र चुके हैं माँ और भाई हैं। भाई अपनी गृहस्थी लिए कहीं दूसरे शहर में बैठा है। कहते हैं कि भाई सपरिवार सुखी है। (उसके परिवार में अब माँ बहन को नहीं जोड़ा जाता...उसका अपना परिवार... निखालिस) संध्या की बूढ़ी माँ अब अनब्याही अधेड़ बेटी संध्या की ज़िम्मेदारी है। वो दोनों वहीं बनारस की एक पुरानी गली में रहती हैं। वे वही माँ हैं जिन्होंने उस पर शादी का जोर डाला था पर सफल नहीं हुई थीं। वो पूछना चाहते हैं अब उससे कि ''संध्या क्या मेरी तरह तुम्हें भी लगता है कि ...''

स्मृति तीन
''कुछ लोग अपनी मौत मरते हैं कुछ लोगों की हत्या उनकी ज़िंदगी करती है''

विशन  बाबू की उम्र तब पैंतालीस छियालीस की होगी जब वो उत्तर प्रदेश के एक नामी शैक्षिक संस्थान में प्रो$फेसर के पद पर पदस्थ थे। साहित्य जगत में बतौर लेखक भी पहचान होने लगी थी उनकी। उनके मित्र थे एम बी बी एस एक डॉक्टर पी के दुबे...प्रभात कुमार दुबे मूलत: कन्नोज के रहने वाले शुद्ध कन्नोजिया ब्राह्मण। जनेऊ धारी, हर वार त्यौहर पर दोधी कुर्ता माथे पर टीका... अपनी एम एस सी फिजिक्स खूबसूरत रोबदार अध्यापिका धर्म पत्नी का पर्याप्त सम्मान और प्रेम करने वाले। एक भोली मुस्कुराहट स्थाई भाव की तरह पान खाए चेहरे पर हमेशा खिली रहती। वो उस संस्थान के चिकित्सालय में सी एम ओ थे। यद्यपि उन्हें देखकर कभी कभी लगता कि डॉक्टर की डिग्री इनके जैसे व्यक्तित्व पर फब्ती नहीं, इन्हें तो कोई अध्यापक अथवा पंडित वंडित कुछ होना चाहिए था। ब्राह्मण होने के नाते लेखकाई भी उन पर खूब जंचती ...अरे हाँ लेखक से याद आया... वो स्वप्न दर्शी कुछ दार्शनिक टाइप और भावुक इंसान थे जब समाज व देश में होने वाले अत्याचारों और किसी अन्याय पर चीख चिल्लाहट,  बहस मुहावसे के बावजूद भी कुछ कर नहीं पाते तो उसकी एक कविता बना लेते और घर दफ्तर में हर आने जाने वाले को पढ़ाते। कभी कभी अस्पताल में उसे अपनी टेबिल के कांच के नीचे रख लेते ताकि मेडीकल रिप्रजेंटेटिव पेशेंट्स आदि की न•ार उस पर पड़ती रहे। वो अपने चिकित्सकीय उत्तरदायित्व गंभीरता से निभाते और सच ये भी था कि उनकी चिकित्सकीय छवि एक अंधविश्वास की हद तक लोकप्रिय थी। उनके केबिन के आगे भीड़ लगी रहती, लोग मानते की दुबेजी के इलाज तो क्या स्पर्श करते ही मरीज़ ठीक हो जाता है। वो अपने मरीजों से भी बहुत आत्मीयता से पेश आते। सरल इतने कि कोई विशन बाबू जैसा परिचित (लेखक) कभी उनके केबिन में आ जाता तो वो उठकर खड़े होकर उनका स्वागत करते। लेखकों की वो इज्ज़त करते थे और लेखन की भी। यहाँ तक कि कोई पढ़ा लिखा मरीज़ अस्पताल में उन्हें अपना चेक अप करने कहता तो कहते ''अरे सब छोड़ो, शरीर तो खुद एक मशीन है, छोटी मोटी बीमारियाँ तो खुद ही ठीक कर लेता है। हम घबराकर बड़ी बड़ी दवाइयां खाकर बीमारी बढ़ा लेते हैं। आदमी को अपना मन और दिमाग सही रखना चाहिए। लीजिए एक नई कविता लिखी है... सुनिए'' वो मुस्कुराकर कहते। कमरे के बाहर मरीजों की लाइन लम्बी होती जाती और वो खुद किसी मरीज़ को बैठकर कविता सुना रहे होते। लेकिन थे प्यारे इंसान... बिलकुल भोले और मासूम...। दुनियादारी जानते ही नहीं थे। उनकी तीन किताबें कविता की छप भी चुकी थीं। किसी युवा प्रकाशक की माताजी मरते मरते अचानक जी उठी थीं। ये पुण्य कर्म दुबे जी के हाथों माना गया लिहाजा उनके कविता संग्रह के सपनों का साकारीकरण उन्हीं प्रकाशक महोदय के कर कमलों द्वारा संपन्न हुआ। अपनी पहली किताब के छपते ही उन्होंने स्वयं को लेखक घोषित कर दिया।
डॉक्टर साब विशन बाबू के निवास पर आये थे अपनी कविताओं की पहली किताब भेंट करने उसमें से कुछ कवितायें सुनाईं...। उनकी किताब के सबसे पहले पृष्ठ पर लिखा होता ''माताराम को समर्पित''। माताराम वो अपनी माँ को कहते जिन्हें वो दुनियाँ में सबसे अधिक प्रेम करते। कभी कभी वो कवि-सम्मेलन, मुशायरा आदि का आयोजन भी करते, आसपास के कवियों को आमंत्रित करते उनका पर्याप्त सम्मान किया जाता। अपने द्वारा आयोजित कवि सम्मेलनों में वो स्वयं ही कार्यक्रम का संचालन करते और अंत में अपनी कविता पढ़ते जिसकी लम्बाई चौड़ाई का कोई निश्चित माप नहीं होता। अपनी कविताओं का पाठ करते हुए उनके चेहरे पर एक परम संतुष्टि दर्प और खुशी की छाया दिपदिपाती। वो विद्यार्थियों को विशेष रूप से आमंत्रित करते कवितायें सुनने को। प्रेम या हल्की फुल्की हास्य कवितायें उन्हें नापसंद थीं कहते प्रेम व्रेम के लिए हमारी फ़िल्में हैं तो कविताओं की क्या ज़रूरत है? साहित्य तो लोक जागरण के लिए होना चाहिए। उनकी हिन्दी अच्छी थी निस्संदेह। बिंदास तबीयत, सहज मिजाज़ और भरे पूरे व्यक्तित्व के मालिक यानी डॉक्टर पी के दुबे। पूरा इलाका उनके स्वभाव व काबीलियत की कसमें खाता सिवाय एक को छोड़कर, वो थे उन्हीं के अस्पताल में और उनके हम उम्र डॉक्टर मोदी... जो सीनियरिटी में उनसे नीचे थे लेकिन उन्हें दुबे जी फूटी आँख न सुहाते। वो मरीजों को दुबेजी के खिलाफ भड़काते, कभी उनका मज़ाक उड़ाते, उन्हें गंवारू कहते, बिलो स्टेंडर्ड पर्सन कहते। डॉक्टर मोदी कुछ वर्ष दिल्ली के किसी बड़े अस्पताल में काम कर आये थे, ये उनके लेटर हेड पर लिखा था और स्वभाव पर भी। वो किसी से सीधे मुंह बात नहीं करते। एक ठसक थी उनके व्यवहार में। थे भी किसी बड़े शहर के इसलिए दुबे जी की आदतें स्वभाव उन्हें देहाती लगते। अपने सरल स्वभाव और परोपकारी प्रवृत्ति के चलते दुबे जी नगरपालिका का चुनाव जीत गए और अध्यक्ष के असमय देहांत के कारण नगरपालिका अध्यक्ष पद पर कार्यकारी नियुक्त किये गये। पूरे कस्बे में उनकी ख्याति हो गई। एक सीमेंट फैक्ट्री के बोर्ड मेम्बर्स के सदस्य भी बना दिये गए और एक नई कार उन्हें फैक्ट्री की ओर से दी गई। ये सब उपलब्धियां इतनी त्वरित और क्रमिक हुईं कि और तो क्या वो स्वयं बी अचंभित रह गए। उन्हें लगने लगा कि नहीं... अच्छाई की अभी भी कद्र है इस संसार में, समाज को उनकी ज़रूरत है और उन्हें इस विश्वास को कायम रखते हुए ज़िम्मेदारी को गंभीरतापूर्वक निभाना है। ...उन्हें संस्थान परिसर में ही एक शानदार कोठी आवंटित कर दी गई। जब उन्हें नई कोठी मिली तब उन्होंने सात दिनों का भागवत पुराण का आयोजन अपने घर के विशाल लॉन में करवाया। मथुरा से पंडितों को विशेष रूप से आमंत्रित किया गया। आसपास के गाँव देहात से लोग वहां आये, हजारों लोगों ने उसका आनंद लिया। रात दिन खाना पीना चलता रहा। वो डॉक्टर मोदी के निवास पर उन्हें आमंत्रित करने स्वयं गए। दुबे जी के लिए ये वर्ष उपलब्धियों से भरा रहा लेकिन मोदी की छाती पर सांप लोट रहे थे। शिकार करने के पहले हिंसक पशु अपने शरीर को सिकोड़ घात लगाकर किसी झाड़ी के पीछे छिप जाते हैं वैसे ही डॉक्टर मोदी अवसर तलाशने लगे।

बिल्ली के भागों छींका...
दिनचर्या सामान्य हो गई, सब ठीक ठाक...। ख्याति और बदनामी एक सिक्के के दो पहलू हैं। एक दिन पूरे इलाके, बल्कि संस्थान परिसर के आसपास के गांवों तक ये खबर आग की तरह फैल गई कि डॉक्टर दुबे ने किसी महिला मरीज को छेड़ दिया। उन्होंने शराब पी रखी थी। जबकि पूरा कस्बा जानता था कि वो शराब को हाथ नहीं लगाते थे ...हाँ सिगरेट शौकिया तौर पर पी लिया करते थे। लोगों को ये खबर पच नहीं रही थी। करीब बीस वर्षों से यहाँ रह रहे दुबे जी के बारे में कभी किसी ने ऐसी वैसी बात नहीं सुनी थी। करीब बीस वर्षों से यहाँ रह रहे दुबे जी के बारे में कभी किसी ने ऐसी वैसी बात नहीं सुनी थी। लेकिन प्रबंध कमेटी की जांच के अनुसार कई सबूत खबर सच होने का दावा करते थे। जिस औरत ने उन पर इलज़ाम लगाया था वो युवा परित्यक्ता चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थी, जिसके दो बच्चे भी थे। पूरा का पूरा भंगी समाज खड़ा हो गया उसकी तरफ दारी में... संस्थान के मेन गेट के बाहर भीड़ ने डॉक्टर दुबे को बर्खास्त करने के नारे लगाये। अब प्रबंध कमेटी के पास डॉक्टर दुबे को सस्पेंड करने के अलावा कोई चारा नहीं था। लिहाजा दुबे जी एक महीने के लिए घर बैठा दिए गए। दरअसल जिस नगर पालिका के दुबे जी कार्यकारी अध्यक्ष हो गए थे हवा थी कि आगामी चुनाव में उन्हें ही अध्यक्ष पद के लिए खड़ा किया जा रहा है। इस खबर से कुछ स्थानीय बाहुबली नाराज़ थे जो नगर पालिका के सदस्य थे और अध्यक्ष पद के अगले चुनाव के उम्मीदवार भी। वो दुबे जी को चुनाव में खड़े होने देना नहीं चाहते थे। हालांकि मेनेजमेंट ने एक माह के लिए सस्पेंड किया था उन्हें लेकिन बात एक महीने की नहीं थी बात थी अपमान की... अनपेक्षित असोचे अपमान की... सजा उस गुनाह की मिल रही थी जो उन्हें याद ही नहीं कि उनसे कब हुआ? वो घर में बैठ तो गए लेकिन मन ही मन उबलते खौलते रहे। बाद में जब मामला कुछ शांत हुआ तो कहा जा रहा था कि जिसने उन पर दोषारोपण किया वो बहुत बदनाम औरत थी और दबाव में आकर ये सब किया था लेकिन कहते हैं न 'बद अच्छा बदनाम बुरा' दूसरे तो क्या स्वयं डॉक्टर दुबे की पत्नी और जवान बच्चों तक ने उन्हें अपराधी मान उनसे बातचीत बंद कर दी थी। वो अपने घर में ही अजनबियों की तरह रहते। सस्पेंशन की अवधि में ही उन्हें सीएमओ के पद से हटाकर डाक्टर मोदी को सीएमओ बना दिया गया। नगर पालिका कार्यकारी अध्यक्ष के पदसे हटाकर किसी और को कार्य भार सौंप दिया गया। उनकी साख उनके पद के समान्तर ही गिरती चली गई। उन्हें देखते ही जहाँ लोग कुर्सी से उठकर खड़े हो जाया करते थे, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी उनके चरण स्पर्श करते थे अब वही डॉक्टर दुबे ''सच्चाई'' और असलियत कहने इधर से उधर प्रबन्धन कार्यालय अकेले भागते-भटकते रहे लेकिन किसी ने ध्यान तक नहीं दिया। वो अपने विरोधी खेमे के षड्यंत्र के शिकार हो गए थे ये समझ में आ गया था उन्हें। कुछ बातें ऐसी होती हैं जो जानते हुए भी खुद पर बीतने पर ही समझ में आती हैं, जैसे दुबे जी को ये ज्ञान होना कि इस समाज में किसी को बेईज्ज़त करने का सबसे सरल और सुगम तरीका होता है उसे चरित्रहीन सिद्ध कर देना। लेकिन अब इस सबसे कोई फायदा नहीं था। वो हार चुके थे उस लड़ाई में जिसका ओर छोर वो नहीं जानते थे। जब खुद को सिद्ध करने की उनकी हर कोशिश नाकामयाब रही और घर बाहर सब जगह से उन्हें लगभग बहिष्कृत कर दिया गया तो एक दिन सचमुच दारु चढ़ाकर पहुंच गए रजिस्ट्रार की कोठी के बाहर। पहले तो चौकीदार डॉक्टर साब का ये रूप देखकर हतप्रभ रह गए लेकिन जब दारू की पुष्टि हो गई तो तुरंत ''साहब'' को फोन किया कि डॉक्टर दुबे बाहर खड़े गंदी-गंदी गालियाँ बक रहे हैं तो साहब ने आनन फानन में पीआरओ और पीआरओ ने सिक्युरिटी को इन्फॉर्म कर दिया। बस फिर क्या था धड़धड़ाती दो गाडिय़ाँ आ गई और डॉक्टर साब को बिठाकर ले गईं। होश में तो थे नहीं डॉक्टर साब सो उस दिन तो घर छोड़ आये लेकिन अगले दिन उन्हें टर्मिनेशन लेटर मिल गया। खैर.. बाकी बीच में तो बहुत कुछ हुआ... नौकरी से बेदखल कर दिए जाने के बाद डाक्टर दुबे शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार रहने लगे। हष्ट पुष्ट देह और हंसमुख डॉक्टर सूखकर काँटा हो गए थे, मोटे ग्लास का चश्मा चढ़ गया था उनकी आँखों पर। उन्होंने घर के बाहर निकलना लगभग बंद कर दिया था। कभी कभार धुंधलाती शाम को गर्दन झुकाए वो अपनी पालतू कुतिया के साथ घर के आसपास ही कुछ दूर घूमते।
उनकी पत्नी इसी संस्थान के कॉलेज में नियुक्त थीं इसलिए रहने को एक दूसरा छोटा घर आवंटित कर दिया गया उन्हें। जो लोग डॉक्टर साब के अच्छे दिनों में उनके आगे पीछे घूमते थे वो अब उनसे कन्नी काटने लगे। डाक्टर दुबे जब इस अवसाद से कुछ बाहर निकले तो उन्होंने बगल के गाँव के खेत का एक हिस्सा खरीद कर उस पर दो तीन कमरे और एक आंगन बना क्लीनिक खोल लिया। दोपहर खाना खाने वो घर आते, सुबह शाम क्लीनिक में मरीजों को देखते और बाकी समय आंगन में पड़ी खाट पर लेटे कुछ पढ़ते या सोचते रहते। अब उनका ज्यादातर वक्त चेरिटी में बीतता। गांव के लोग उन्हें देवता समझते क्यूँ कि आधी रात में भी वो उन्हें देखने घर चले जाते, दवाई मुफ्त में दे दिया करते, फीस भी बहुत कम थी उनकी... लेकिन वो खुद बीमार होते चले गए और एक दिन एक मरीज को देखते हुए ही उनका हार्ट फेल हो गया। जब उनकी मृत्यु की खबर विशन बाबू ने सुनी तब न जाने क्यूँ उन्हें एक अजीब सा सुकून मिला।
यदि डॉक्टर दुबे आज जिंदा होते तो विशन बाबू उनसे ज़रूर पूछते कि क्या उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ? क्या वो चाहते थे कि एक बार सिर्फ एक बार उनकी ज़िंदगी फिर से उनके बचपन में लौट जाए और गंवई भोलेपन ईमानदारी और भलाई की जिद्द छोड़ वो भी आडम्बर, झूठ और दंभ ओढ़कर एक बार फिर जियें जीवन ...एक सफल, समृद्ध और सुखी जीवन...।

''जो कोई अपने लिए एक नया स्वर्ग बनाने में कामयाब होता है वह उस स्वर्ग बनाने के लिए जरूरी सारी ताकत अपने नरक से ही लाता है'' (नीत्शे)

वंदना शुक्ल का एक कहानी संग्रह प्रकाशित

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