तीन उदास भाई

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी लम्बी कहानी/फारसी
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम अमीन फ़क़ीरी \ अनुवाद : अजमल कमाल







हमें तहख़ाने से हमेशा डर लगता था। अगर उस की तारीकी में दस मिनट खड़े रहें तब भी आंखें इस अजीब और ज़िद्दी अंधेरे से मानूस नहीं हो सकती थीं। बड़ी उम्र के लोग कहा करते थे, वो जगह क़ब्र की तरह अंधेरी है। अगर चिराग़ भी साथ ले जाते तो वो इर्दगिर्द के एक मीटर से ज़्यादा हिस्से को रोशन नहीं कर सकता था। तन्हा वहां जाने की मैं कभी हिम्मत नहीं करता था। शायद मेरे भाईयों के साथ भी यही मुआमला था। जब वो पाँच सीढिय़ां उतर कर नीचे के फ़र्श तक पहुंचते तो मेरे छोटे छोटे पैरों की नरम आहट से भी डर जाते। मेरा बड़ा भाई कहता, अरे ये तुम हो?
मैं हँसता और तारीकी में आँखें गाड़ देता। मंझला भाई कहता, ये ज़रूर यहां कोई चीज़ गुम कर बैठा है। अंधेरे ने जैसे इस पर जादू कर दिया है। तहख़ाने की सीढिय़ों के पास अब भी थोड़ी सी रोशनी थी और गाढ़ा अंधेरा इस ज़रा सी रोशनी को भी पीछे धकेलने की कोशिश कर रहा था। अब्बा नसीहत किया करते, कम से कम नंगे पैर तो वहां मत जाया करो। साँप बिच्छू बहुत हैं। क्या पता कौन चीज़ वहां चल फिर रही हो। कई बार ऐसा हुआ कि अब्बा किसी का हाथ पकड़ कर तहख़ाना दिखाने ले गए ताकि वो इस में भरे हुए काठ कबाड़ को साफ़ करे। मगर हर बार जब वो शख्स तहख़ाने से बाहर आता तो उसका रंग उड़ा हुआ होता और वो हकलाते हुए कहता, ये जगह तो क़ब्र की तरह तारीक है।
अब्बा कहते, मैं तुम्हारे लिए चिराग़ का बंदोबस्त कर देता हूँ। अगर कोई ढ़ंग की चीज़ दिखाई दे जाये तो वो तुम्हारी।
वो शख्स इस दिलकश वादे से भी मोम ना होता। मग़रिब के वक्त में भाईयों के साथ जा कर तहख़ाने का झुर्रियों भरा दरवाज़ा बंद कर देता। सूरज डूबने के बाद ऊंची चार दीवारी और इससे भी ऊंचे बतावे के पेड़ मकान की फ़िज़ा को हज़न अंगेज़ (ग़मगीन) और पुरमलाल कर देते और खिड़कियों के रंगीन शीशों के रंग फीके और बेजान मालूम होने लगते। हम डरते रहते और ख़ुद से कहते, चलो चल कर तहख़ाने का दरवाज़ा बंद कर दें ताकि रात हमारे घर में इतनी जल्द दाखिल ना हो।
अब्बा फ़क़त अख़बार पढ़ते रहते। अगर वो घर पर ना भी होते तो उनका वजूद महसूस होता रहता जैसे वो हौज़ के पास बने हुए पत्थर के शेर के बराबर में बैठे हमारी ख्याली दुनिया को तक रहे हैं। ऐसी ही एक शाम को, जब आसमान बादलों से ढका हुआ था, हमें बतावे के पेड़ों के पत्ते स्याह दिखाई दे रहे थे, हौज़ का पानी कसीफ़ और ग़मनाक था और बादलों के काले सायों की वजह से वो पानी के बजाए कोई और ही चीज़ मालूम हो रहा था, तहख़ाने का दरवाज़ा ज़ोर से धड़धड़ाया। हमारे चेहरे एक दम ज़र्द पड़ गए। हम तीनों ने सरासीमा (बदहवास) हो कर एक दूसरे की तरफ़ देखा। अब्बा घर पर नहीं थे। दरवाज़ा और ज़ोर ज़ोर से बजने लगा। दरवाज़ा खोल दें क्या?
हम ख़ौफ़ज़दा और मुतरद्दिद थे। मंझला भाई बोला, चलो चल कर हमसायों (पड़ोसियों) को ख़बर करें।
बड़ा भाई कुछ सोच कर कहने लगा, तुम चाहते हो वो ये बातें करें कि मुअल्लिम के घर में जिन आ गया है? फिर सब हमारे घर को जिनों वाला मकान कहने लगेंगे और ये बहुत बुरा होगा।
उसकी मंतिक़ तो दरुस्त थी मगर हमारे ख़ौफ़ की कुछ हद ना थी। तहख़ाने का दरवाज़ा मुसलसल हल रहा था और लगता था इस के साथ साथ सारे दरवाज़े और फीके रंग के शीशों वाली सब खिड़कियां भी हल रही हैं। ये ख्याल हम सब के ज़हन से गुज़रा कि कुछ ना कुछ तो करना ही होगा। फौरन ही कुछ करना होगा वर्ना ज़लज़ले जैसी ये धड़धड़ाहट कहीं मकान की बुनियादें ना हिला दें। हम तीनों डरते-काँपते आगे बढ़े। तहख़ाने के दरवाज़े की झिरी में से हल्की सी रोशनी निकल रही थी जिससे हम सब सख्त हैरत में पड़ गए। जब मेरे भाई ने दरवाज़े की कुंडी खोलने के हाथ बढ़ाया तो हमें वो लम्हा हज़ारों साल तवील महसूस हुआ। सबसे ऊपर की सीढ़ी के पास एक छोटा सा जानदार दिखाई दिया जो मुर्गी जैसा लग रहा था और हमें अपनी क़हवा रंग आँखों से घूर रहा था और इसके बदन से रोशनी फूट रही थी।
मालूम नहीं कितनी देर तक हम उसे देखते रहे। हमारे हाथ बेइख्तयार उसकी तरफ़ बढ़े। वो जानदार ना डरा ना घबरा कर पीछे भागा, बस शायद थोड़ा सा चौकन्ना हो गया। एक लम्हे बाद वो बदन, जिससे रोशनी फूट रही थी, मेरे भाई के हाथ में था। वो मस्हूर आँखों से इसे तक रहा था। हम सबी पर सहरसा तारी था। इसी लम्हे हमारे दिल में ख्वाहिश पैदा हुई कि उसे अपने क़ब्ज़े  में कर लें। निहायत पुरशकोह होने के बावजूद वो बेहद बेबस मालूम हो रहा था।
बड़े भाई ने कहा, इसे पालेंगे।
मंझला भाई बोला, अब्बा को बताएं या नहीं?
मैंने कहा, और दादी को?
बड़ा भाई ग़ुस्से से चिल्लाया, किसी को नहीं बताएंगे। बस अपने तक रखेंगे।
मैंने पूछा, और रखेंगे कहाँ?
यहीं तहख़ाने में।
मैंने कहा, ख़ुदा करे जो कुछ हम खाते हैं वही ये भी खा ले।
बड़ा भाई बोला, ज़रा रोटी का टुकड़ा लाना।
हमने रोटी के छोटे छोटे रेज़े किए। लगता था बरसों का भूखा है। पलक झपकते में तमाम रेज़े ग़ायब थे।
पानी भी लाया गया। पानी पी कर उसे कुछ सुकून हुआ। इससे फूटती हुई रोशनी की छूट हम सबको मुनव्वर किए हुए थी।
अभी इसके पर नहीं निकले थे। बाज़ू भी नहीं थे। मगर इसका बदन ख़ासाबड़ा हो चुका था। इसमें से नंगे बच्चे की सी ख़ुशबू आ रही थी और इसका नरम गोश्त रवी की तरह नरम था। तहख़ाना रोशन रोशन था। हमने इसके सब कोनों पर नज़र डाली। वहां पुराने और सैली हुई बू देते थोड़े से काठ कबाड़ के सिवा कुछ भी नहीं था।
अब्बा ने दादी से कहा, ये सबके सब साँप बिच्छूओं से भरे तहख़ाने में आखिर क्या करते रहते हैं? फिर हमारी तरफ़ देखकर बोले, तुम्हें अंधेरे से डर नहीं लगता? कम से कम चिराग़ तो साथ ले जाया करो।
हम तीनों हैरान होकर एक दूसरे को देखने लगे। यानी अब्बा को कुछ भी पता नहीं? क्या उन्होंने दरवाज़े की झुर्रियों में से रात को निकलने वाली रोशनी भी नहीं देखी? ज़ाहिर है, नहीं देखी होगी, वर्ना तहख़ाने में जाकर झांकते तो सही।
दादी बोलीं, बच्चों के वास्ते किताब खोलकर दुआ करानी चाहिए। कहीं जिनों के हाथों में ना पड़ जाएं। ज़रूर उन्हें कुछ हो गया है। बेचारे बिन माँ के बच्चे, दिन रात अपनी ही धुन में लगे रहते हैं। पता नहीं क्या करते रहते हैं।
ये कहकर वो फौरन ही, अब्बा की राय लिए बगैर, मुहल्ले के तावीज़ लिखने वाले के पास चल दीं, हममें से हर एक के लिए चमड़ा मंढा एक एक तावीज़ बनावा लिए और हमारे गलों में डाल दिए। इससे हम एक दूसरे के और इस अजीब जानदार के और भी नज़दीक आ गए। हम घंटों बैठे उसे घूरते रहते। तहख़ाना हमारी खेलने की जगह बन गया था। कभी कभी हम अपना खाना भी दादी की नज़र बचा कर वहां ले जाते और इस मुनव्वर जिस्म के पास बैठकर खाते। वो बेपर का परिंदा भी हमारे साथ खाता। हममें से हर एक उसे बारी बारी अपने हाथ से खिलाता।
मगर कैसे? ये हमारे समझ में ना आता था। हमारे हाथ और इसके मुँह के दरमियान कोई चीज़ जाती दिखाई ना देती और दम भर में बस ग़ायब हो जाती।
मेरे भाई ने कहा, देखने में ये बिलकुल परिन्दों की तरह है मगर इसके बाल-ओ-पर कुछ नहीं हैं। अभी उडऩा नहीं आया।
मेरा दिल लरज़ने लगा। अगर ये उड़ गया तो हमारे तहख़ाने में फिर अंधेरा हो जाएगा। दूरी तरफ़ ये जगह ऐसी मख़लूक़ के लायक़ तो बिलकुल नहीं थी।
अगले दिन से हम पर जमा करने में लग गए। हम बाज़ार के कोने पर खड़े हो जाते और हर उस शख्स पर निगाह रखते जो सय्यद अहमद क़स्साब से मुर्ग ज़बह कराने आ रहा होता, और अगले रोज़ जाकर उसकी दुकान के ढेर में से एक चुन कर ले आते। इन परों को हम अच्छी तरह धोकर साफ़ करते और बे बाल-ओ-पर के इस परिंदे के बदन पर चिपकाते जाते। इस अमल से उसे तकलीफ़ होती मगर वो बर्दाश्त कर जाता। होते होते इसका पूरा बदन परों से ढक गया और अजीब बात ये कि पर उग आए। इनका रंग जैसा भी था, उगने पर आतिशीं सुर्ख हो गया। ऐसा रंग जैसा आग के शोले का होता है। अर्गवानी क़िरमज़ी। या शायद ऐसा क़िरमज़ी रंग जिसका कोई नाम नहीं है। हमारे परिंदे के बदन में सब कुछ था मगर इस के बाज़ू नहीं थे। क्या ये उनके बगैर भी उड़ सकेगा? खैर, ख़ुदा का करना ये हुआ कि एक रोज़ हमारे घर में भी मुर्ग आया। ईद का मौका था। हम तीनों मुर्ग को ज़बह कराने सय्यद अहमद की दुकान पर ले गए। देखा कि बड़े भाई ने आहिस्ता आवाज़ में सय्यद अहमद से कुछ कहा जो हमारी समझ में ना आया। लेकिन जब अब्बा ने घूर कर बड़े भाई को देखा और पूछा, इस के बाज़ू कहाँ हैं? तो समझ में आ गया। सय्यद अहमद ने मुर्ग के बाज़ू काट कर अलग कर दिए थे। भाई बोला, बाज़ू नहीं हैं तो चलीए में मुर्ग को हाथ नहीं लगाऊंगा।
अब्बा का ग़ुस्सा जल्द ही उतर गया। दस्तरख्वान पर हमारे सिवा किसी को बाज़ूओं का ख्याल नहीं था, और हम जानते थे अब इस अजीब मख़लूक़ के बाज़ू भी लग जाएंगे। जिस वक्त हमारा परिंदा उड़ेगा, सब लोग हैरान रह जाऐंगे और ख़ुद से कहेंगे, मुअल्लिम के घर में आग के रंग का परिंदा है।
इसके बाज़ू भी उग आए। साल गुज़रते रहे। हम तहख़ाने के दरवाज़ा खुला रखते थे मगर उसने उडऩे की कोशिश नहीं की। हमें ख्याल आया: बतावे के पेड़ों के बेहतर कौन सी जगह होगी जिन की शाखें और पते बहुत घने हैं। हम इस के सामने खड़े होकर अपने बाज़ू हवा में लहराने लगे जैसे उसे उडऩा सिखा रहे हूँ, वर्ना तो वो तहखाने के घुप्प अंधेरे में पड़ा सड़ता रहेगा। इसने भी हमारे देखा-देखी अपने बाज़ू लहराने शुरू किए लेकिन उड़ा नहीं। हमें बहुत अफसोस हुआ। सारे परिंदे उड़ते हैं, यहां तक कि पिंजरों में बंद परिंदे भी पिंजरों के दरवाज़े तोड़ कर ऊपर आसमान में पहुंच जाते हैं। तो फिर हमारा परिंदा, जो इन सबसे ज़्यादा खूबसूरत है, क्यों नहीं उड़ता? हम इस पर नाज़ करना चाहते थे, मगर वो तो तहखाने से निकल कर होज़ तक भी ना जाता था।
इसी नाउम्मीदी के आलम में, जबकि हम परिंदे से भी ज़्यादा ग़मगीं थे। अचानक हमने देखा कि आग के रंग का वो परिंदा सहन नें खड़ा है और इसके बाज़ू हरकत कर रहे हैं। हम भी इसके साथ साथ बाज़ू लहराने लगे। ईंटों से बने हमारे सहन और सीले हुए मकान में जैसे जान पड़ गई। दरख्तों पर फिर से बहार आ गई। हम भी मस्त होकर परिंदे के इर्द-गिर्द चक्कर काटने और बेखुदी में रक्स करने लगे। वक्त की रफ्तार गोया थम गई। हमारी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। हमारा और परिंदे का वजूद एक हो गया था। हम एक दूसरे के गर्द घूम रहे थे। परिंदा हमारी तरफ मुस्कुरा कर देख रहा था, जैसे हमारा शुक्रिया अदा कर रहा हो। रक्स के हर दायरे के साथ वो बड़ा होने लगा। अब वो सारस जितना दिखाई दे रहा था। अचानक हम सब साकित हो गए जैसे किसी बात के होने के मुंतज़िर हों। हमारी बेताबी इसके रग-ओ-पै तक भी पहुंच गई। बड़ी दिक्कत के साथ उसने खुद को ज़मीन से उठा कर हौज़ के किनारे तक पहुंचाया। हम घंटों खून होते हुए दिल के साथ मुंतज़िर खड़े रहे, यहां तक कि इसमें हरकत पैदा हुई। वो थोड़ा सा ऊपर उठ कर बतावे के पेड़ की सबसे निचली शाख़ पर जा बैठा। हमें तवक्को थी कि कुछ देर वहां बैठकर दुबारा हौज़ के पास उतर आएगा। लेकिन वो अचानक और ऊपर उठने लगा: पहले तीन मीटर उठा, फिर छत के बराबर पहुंच गया। हम जल्दी से भाग कर छत पर पहुंचे। हम खुश थे। दो-चार बार अपने बाज़ू लहरा कर वो छज्जे तक आ गया। बराबर के मकान की दीवार और ऊंची थी। मेरा भाई चिलाया, अगर इसी तरह उड़ता रहा तो वो लोग इतना खूबसूरत परिंदा देखकर पकड़ लेंगे। ऐसे रंग का परिंदा किसके पास होगा? देखो देखो, बिलकुल आग के गोले जैसा है! आस पास हर चीज़ के इसके रंग की हो गई है। जहां बैठता है आग सी लग जाती है। ओह, मेरे खुदा, उड़ गया!
परिंदा उड़कर बराबर के मकान की छत पर जा बैठा। मकान का सहन सुर्ख हो गया। हरे पत्ते भी हरे नहीं रहे थे। खिड़कियां भी सुर्ख हो गई थीं।
हमसाए कहने लगे, हमारे छत पे क्या कर रहे हो?
हमने कहा, अपना परिंदा लेने आए हैं।
उन्होंने देखा। इनका सहन अर्गवानी रंग का हो रहा था। शायद उन्हें अब तक इस बात का एहसास नहीं हुआ था।
वो कुछ देर तक एक दूसरे को देखते रहे। उनकी आँखें अजीब सी रोशनी से चमक उठी थीं। तुम्हारा परिंदा? ये तो हमारा है! तुम्हार होता तो तुम्हारे घर में होता। मुहल्ले में कोई नहीं जानता कि तुम्हारे पास ऐसा परिंदा है।
मेरा भाई चिलाया, नहीं, आप लोग झूठ कह रहे हैं। आप को तो इसका पता भी नहीं था। आप तो उसको देखकर हैरान रह गए थे।
हमसायों ने कहा, हम कुछ सुनना नहीं चाहते। जिसके पास है उसी का माल है।
हमारा दिल मज़बूत था। हमने बरसों उसकी देखभाल की थी। वो कैसे किसी और के पास चला जाएगा? मुझे तो अब तक अपनी उंगलियों तले इसके दिल की धड़कन महसूस हो रही थी। मुझे यकीन था कि मेरे भाई भी यही महसूस कर रहे होंगे।
परिंदा फिर उडऩे लगा। अब वो इससे भी ऊंची किसी जगह पहुंचना चाहता था। तमाम शहर पर अर्गवानी रंग का पारचा सा उड़ रहा था। लोग अपनी अपनी छत पर आ खड़े हुए। हम इस भीड़ में गुम हो गए। आसमान सुर्ख हो गया था। सूरज दिखाई ना देता था। ये पता नहीं चलता था कि दिन है या रात। हमारे चीखने चिल्लाने पर किसी की तवज्जा ना थी।
हमारा परिंदा हर लहज़ और ऊपर उड़ रहा था। मगर इसका उडऩा, उडऩा मालूम ना होता था, बल्कि लगता था जैसे वो हवा से लड़ रहा हो। उसकी परवाज़ बहुत भारी थी। भाई बोला, डर रहा है। आसमान में नहीं उड़ सकता। लोग उसे पकड़ लेंगे। बहुत हंगामा होगा।
हमारा परिंदा दस दस मीटर, पाँच-पाँच मीटर, दो दो मीटर उड़ता हवाओं पर जा रहा था। मीनार से ऊंची जगह शहर भर में ना थी। वो बेपनाह कोशिश करके वहां तक पहुंच गया। ऐसे खड़ा था जैसे लोगों से बात करना चाहता हो। मेरा भाई मीनार की सीढ़ीयां चढ़कर ऊपर जाने लगा। तमाम लोग शहर भर पर फैले हुई अर्गवानी छत के साए में बेताब खड़े थे। हम अपने भाई के लिए बेचैन थे, सबको बता रहे थे कि वो हमारा भाई है और ये कि किस तरह हमने परिंदे को पाला था।
लोग हमें यूं देखने लगे जैसे, अहमकों को देखा जाता है। हमारा मज़ाक उड़ाने लगे। ऐसा परिंदा तुम्हारे हाथ किस तरह लग गया?
किसी ने हमारी कहानी पर य$कीन ना किया। सबने उसे हमारा बचपने का तखय्युल समझा। भाई अब परिंदे के पास जा पहुंचा था। अजीब बात ये थी कि किसी और को मीनार के ऊपर चढऩे की हिम्मत नहीं हुई थी। सबकी नज़रें भाई पर जमी हुई थीं। हमें खौफ के आलम में भी गरूर का सा एहसास हो रहा था।
हुआ चली और अर्गवानी छत्र का हुजूम ज़रा सिमट गया। भाई ने परिंदे को पकडऩे के लिए हाथ बढ़ाया।
परिंदा भाई की आगोश में आने को हुआ मगर लुढ़क कर पत्थर की तरह हवा में से गुज़रता हुआ नीचे आने लगा और इसके ज़मीन पर गिरने की ज़रा भी आवाज़ ना हुई। इसने दो तीन बार अपने बाज़ूओं को हरकत दी और साकित हो गया।
दुनिया के दूसरे कोने से तेज़ हवा चलने लगी। हर चीज़ उसकी ज़द में आकर दिरहम-बिरहम हो गई। हवा के ज़ोर से हर चीज़ एक दूसरे से टकराने लगी। मीनार बीच से टूट कर ज़मीन पर ढेर हो गया। परिंदा अब परिंदा नहीं था। अब वो कुछ भी नहीं था। मजमा बुलबुले की तरह फूटा और घुल कर ग़ायब हो गया।

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