राजेश रेड्डी की ग़ज़ल ग़ज़लें

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी ग़ज़ल
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम राजेश रेड्डी






एक

उधर परिन्दे को जब आसमान खींचता है
इधर ज़मीन पे कोई कमान खींचता है
    वो खींच लेता है मेरी जुबाँ से अपनी ही बात
    कुछ और बोलूँ तो ज़ालिम जुबान खींचता है
चले ही जाते हैं इक और ख्वाब के पीछे
सराब बनके यकीं को गुमान खींचता है
    बड़े मकान के बेटे के सब तो है फिर भी
    हमें वो गाँव का कच्चा मकान खींचता है
ये वक्त है वो ज़मींदार जिसका कारिन्दा
हर एक साँस का हमसे लगान खींचता है
    कोई तो है जो बुरे वक्त का बिछाता है जाल
    जो देके दाने परों से उड़ान खींचता है
नज़र उठाता नहीं बज़्म में किसी की तरफ
कुछ इस तरह से भी वो सबका ध्यान खींचता है
    है ज़िन्दगी कि कोई टीवी सीरियल यारब
    बिना कहानी के क्यूँ दास्तान खींचता है

दो

हम धुएँ में जब ज़रा उतरे, धुआँ खुलने लगा
राख में मलबा कुरेदा तो मकाँ खुलने लगा
    जैसे-जैसे उस तआल्लुक़ का गुमाँ खुलने लगा
    क्या नहीं था और क्या था दरमियाँ खुलने लगा
हमने तो उसके इक आँसु को ज़रा खोला था बस
फिर तो अपने आप ही वो बेज़ुबाँ खुलने लगा
    नाउमीदी, अश्क़, तनहाई, उदासी, हसरतें
    रफ्ता-रफ्ता ज़िन्दगी का हर निशाँ खुलने लगा
हमने जब छोड़ा उसे दैरो-हरम में ढूँढऩा
बंद पलकों में हमारी लामकाँ खुलने लगा
    हमने अपनी ज़ात से बाहर रखा पहला क़दम
    और हमारे सामने सारा जहाँ खुलने लगा
जैसे-जैसे दोस्तों से दोस्ती गहरी हुई
पीठ के हर ज़ख्म का इक-इक निशाँ खुलने लगा
    उम्र ढलने पर समझ में ज़िन्दगी आने लगी
    जब सिमटने लग गए पर, आसमाँ खुलने लगा

तीन

जो आईने में है उसकी तरफ़दारी भी करनी है
मगर जो हममें है उससे हमें यारी भी करनी है
    ज़माने भर में ज़ाहिर अपनी खुद्दारी भी करनी है
    मगर दरबार में जाने की तैयारी भी करनी है
हर इक से मिलने-जुलने की क़वायद से भी बचना है
हर इक से मिलने-जुलने की अदाकारी भी करनी है
    है मोहलत चार दिन की और हैं सौ काम करने को
    हमें जीना भी है मरने की तैयारी भी करनी है
मिलाकर अपनी ही कमज़ोरियों से हाथ छुप-छुप कर
ख़ुद अपने आप से थोड़ी सी गद्दारी भी करनी है
    ख़ुद अपने आप से होते भी रहना है फ़रार अक्सर
    ख़ुद अपने आपकी अक्सर गिरफ्तारी भी करनी है
ख़ुदा की रहमतों को रायगाँ जाने भी दें कैसे
हमें ये पाप की गठरी ज़रा भारी भी करनी है
    हमारे पाँव थकने लग गए आसान रस्तों पर
    सफ़र में अपने पैदा थोड़ी दुश्वारी भी करनी है
छुपाते आए हैं हम जिनसे अब तक अपने अश्कों को
बयाँ हमको उन्हीं लफ्ज़ों में लाचारी भी करनी है

चार

किसी ने ग़म को कुछ समझा कोई समझा खुशी को कुछ
नज़र इक ज़िन्दगी आई किसी को कुछ किसी को कुछ
    इक आलम बेहिसी का उम्र भर तारी रहा हम पर
    गिना कुछ मौत को हमने न माना ज़िन्दगी को कुछ
समुन्दर को मुक़द्दर मानती है हर नदी अपना
मगर कोई समुन्दर कब समझता है नदी को कुछ
    तेरी दरियादिली का हमने रक्खा है भरम कायम
    न दे पानी, दुआ ही दे हमारी तिशनगी को कुछ
रज़ामंदी से हमने कब कोई लम्हा गुज़ारा है
तवज्जो कब मिली अपनी खुशी और नाखुशी को कुछ
    बहुत समझाया, जितने मुँह बनेंगी उतनी ही बातें
    समझ आता कहाँ हैं लेकिन अपनी खामुशी को कुछ
जो लेते ही रहे थे ज़िन्दगी से, मर गए कबके
वो ही ज़िन्दा रहे, देते रहे जो जिन्दगी को कुछ
    अभी बेवज्ह खुश-खुश था अभी बेवज्ह चुप-चुप है
    नहीं कुछ ठीक इस दिल का, घड़ी को कुछ घड़ी को कुछ

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