हबीब क़ैफी की ग़ज़लें

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    दिसम्बर 2013
श्रेणी ग़ज़ल
संस्करण दिसम्बर 2013
लेखक का नाम हबीब क़ैफी







1

जो साथ चल रहा था अचानक बदल गया
मौका मिला जो उस को तो आगे निकल गया

वर्ना तो हम किसी के भी बस के नहीं हुए
जादू था तेरी आँख का और हम पे चल गया

सोचा कि उसकी ओर न देखेंगे अब कभी
लेकिन, वो मुस्कराया तो सब कुछ बदल गया

अब इसमें कोई दाना या नादान क्या करे
फिसला वहीं पे मैं जहाँ हर इक संभल गया

उसका ग़ुरूर दूर तक मशहूर था मगर
मुझसे मिला तो प्यार के साँचे में ढल गया

तारीकियों के शह्र में ये मोजज़ा हुआ
मैंने लिया वो नाम कि दीपक-सा जल गया

हाथ आया उसका हाथ में या ख्वाब था कोई
कुछ सोचने से पहले ही मंज़र बदल गया

कुछ कह न पाया भीड़ में तो मैंने ये किया
नज़रों से उसको धीरे-से छू कर निकल गया

2

तहरीरों में खून मिलाया करते हैं
यूँ ही हम मज़मून बनाया करते हैं

दर्द अकेले ही सहने ही आदत है
खुशियाँ हम बस्ती में मनाया करते हैं

बहरे बन जाते हैं जब अहबाब सभी
दीवारों को दर्द सुनाया करते हैं

शहरों-शहरों लुटने वाले लोग तमाम
जँगल-जँगल शोर उठाया करते हैं

तिल-तिल जल कर जो भी उजाला होता है
आप उसे क्यों घर ले जाया करते हैं

3

उस ने घबरा कर जो पूछा कौन है मेरी तरफ़
ख़ामशी से हो गया मैं साथ उस के सरबकफ़

नापना होती है गहराई मुसलसल मुद्दतों
चलते-फिरते रास्ते में ही कहाँ मिलते सदफ़

कोई पत्ता भी न खड़के हुक्म है जुम्बिश मकुन
लेकिन फिर भी चुपके-चुपके बज रहे हैं तब्लो-दफ़

क्या ग़ज़ब है शह्र में अब ख़ास ओहदे के लिए
खून से तर आस्तीं वाले उठाएंगे हलफ़

गर कोई अफ़सोस है तो है फ़क़त इस बात का
जिस तरफ़ से तीर आया आप भी थे उस तरफ़

सरबकफ़=सिर हथेली पर लिये हुए, मुसलसल=लगातार, सदफ़=मोती, मकुन=मनाही, प्रतिबंध, तब्लो-दफ़=ढोल व ढपली, हलफ़= शपथ

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