कविताओं का संसार
बचपन के दिनों से लेकर आज तक मैंने अपने परिवेश की परिस्थितियों में कोई परिवर्तन नहीं देखा है। आज तो स्थिति पहले से भी भयानक हो गई है। जब हमारे खेलने कूदने के दिन थे हम नारे लगाते हुए सड़कों पर उतरते थे - ''जल, जंगल, जमीन हमारा है'' , ''जान देंगे पर जमीन नहीं देंगे''। लेकिन हमारी जान भी गई और जमीन भी। हमारी स्थिति और भी बदतर होती गई। नेहरु की नीतियों के साथ जिस भारत की शुरूआत हुई उसमें आदिवासियों के लिए कोई जगह नहीं थी। देश में विकास और उन्नति की बात हो रही थी, आज़ादी के जश्न का माहौल था लेकिन आदिवासी चिन्तक बहुत खुश नहीं थे उन्हें एक अंदेशा था कि जो रास्ता चुन लिया गया वह अंतत: आदिवासियों के अस्तित्व की शर्तों पर ही अपनी मंजिल पा सकता है। आदिवासी चिन्तक जयपाल सिंह मुंडा उसी समय कह गये कि जिन्हें विकास का मंदिर कहा जा रहा है वह आदिवासियों के लिए विनाश का कारण है और बहुत जल्दी हुआ वही। विस्थापन ने और उसके बाद हुए पलायन ने आदिवासियों के जीवन और उनकी संस्कृति को तहस-नहस कर रख दिया। उनका जीवन अजनबियत की अंधेरी गली में धकेल दिया गया। आदिवासियों ने जब प्रतिरोध करना शुरू कर दिया तो उन्हें विकास विरोधी कहा गया है बल्कि यहां तक निष्कर्ष निकाल लिया गया कि जंगली जंगल में ही रहना पसंद करते हैं, वे नरभक्षी हैं, हत्याएं करते हैं। सब कुछ बाहर से थोपा जा रहा था। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि अचानक हुए इस दबाव से उनके बीच कोलाहाल मच गया। घर, जमीन, नदी, जंगल, खेत-खलिहान लुटने से वे सांस्कृतिक अजनबीपन की अवस्था में पहुंच गये। पहली बार उन्होंने अपना आत्मविश्वास हिलते हुए पाया। इस बीच जिन्हें थोड़ी भी हमदर्दी रही वे आदिवासियों के बीच आये लेकिन वे अपने साथ अपनी झोलियाँ भी लाये थे और उन्होंने भी कुछ अलग नहीं किया। बाहर से आये समाज-सुधारक, धर्म और संस्कृति के पालकों ने भी अंतत: अपना औपनिवेशक रूप ही प्रस्तुत किया। इन्होंने न केवल आदिवासियों को सांस्कृतिक रूप से पंगु बनाया बल्कि आदिवासियों में विद्वेष भी पैदा किया। दूसरी ओर आजादी के बाद जिस संविधान में आदिवासियों ने अपना विश्वास जताया था वह सामंतों, जागीरदारों और पूंजीपतियों के भेंट चढ़ा। आदिवासियों ने जो भी अधिकार और स्वायत्तता औपनिवेशिकों और रजवाड़ों से लड़कर हासिल किया था उसे भी संशोधित कर बदला जाने लगा। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, संथाल परगना टेनेंसी एक्ट, विल्किंसन रूल जैसे आदिवासियों को सुरक्षा देने वाले कानून खतरे में पड़ गये। आदिवासियों ने हिम्मत नहीं हारी और लड़कर पेसा कानून (PESA-1956) का अधिकार लिया। लेकिन इसे उनके असंतोष को कम करने के औजार के रूप में प्रयोग कर निष्क्रिय कर दिया गया। निस्संदेह पेसा कानून से एक उम्मीद जगी थी जिसने आदिवासियों को पहली बार रेत से लेकर पहाड़ का मालिकाना हक दिया था। लेकिन जिस तरह धीरे-धीरे देश के ऊपर धनाड्यों, पूंजीपतियों और बाहरी नव-उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी शक्तियां हावी होती गई उसने आदिवासियों की उम्मीद को धराशाही कर दिया और संसद से ''सेज'' जैसी परियोजनाएं पारित हो गईं। इस तरह की परियोजनाएं इसलिए लाई गईं ताकि आदिवासी सुरक्षा के लिए बने कानून के विरूद्ध उद्योगपतियों, पूंजीपतियों और बाहरी निवेशकों के हितों की सुरक्षा की जाए। वह संविधान जिसके प्रति आदिवासियों ने अपना विश्वास जताया था अंतत: वही विरोधाभासों के अंतरजाल में फंस गया। जिस संविधान में पुनर्वास, विस्थापन और अधिग्रहण जैसे समान प्रावधान हैं वह केवल अधिग्रहण और विस्थापन को क्रूरता से निभाकर अपने लोकतांत्रिक होने का बयान देता है और पुनर्वास की झोली हवा में लटकती रहती है। 90 के दशक के बाद आदिवासियों पर हमले और तेज हो गये और आदिवासियों ने भी प्रतिरोध करना तेज कर दिया। उनका यह प्रतिरोध पहले से ज्यादा तीव्र और आक्रामक होने लगा। इसकी प्रतिक्रिया में उन्हें नक्सली और माओवादी घोषित कर अमानवीय और असामाजिक करार दिया जाने लगा। यह ठीक उसी तरह का व्यवहार है जैसे वैदिक आर्यों ने उन्हें राक्षस, असुर, दैत्य और जंगली कहकर असामाजिक बना दिया था और अंग्रेजों ने जन्मजात चोर। देश की व्यवस्था भूमंडलीकरण की नव-साम्राज्यवादी नीतियों के सामने आत्मसमर्पण कर गई और संविधान पूंजीपतियों कि गिरफ्त में होते चला गया। राज्य अपनी कल्याणकारी भूमिका को उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के यहां गिरवी रख आयी। सारी व्यवस्था, सारा तंत्र एक मायावी जाल में फंस गया लेकिन उसके बौद्धिक यह कहते हुए नहीं चूक रहे कि आदिवासी नक्सलियों के बीच फंस गये हैं। एक ऐसे समय में जब राज्य स्वयं नये साम्राज्यवादी और औपनिवेशिक ताकतों की चपेट में है अपनी आत्मालोचना करने के बजाय उससे मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे आदिवासियों का दमन करने में लगी है। उनके साथ उपनिवेश की तरह व्यवहार कर रहा है। अपने ही आदिवासी नागरिकों को उनकी जमीन से, जंगलों से, नदियों पहाड़ों से, सैन्य बल द्वारा खदेड़ रहा है। ऐसे में आदिवासी कैसे अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ें? कैसे अपनी पहचान और अस्मिता को सुरक्षित करें? अभी आदिवासियों के सामने सबसे बड़ी विकराल समस्या खुद को बचाने की है। यदि वह खुद को बचा पाता है तो उसका विकास सम्भव होगा नहीं तो ''विकास के भगवान'' संहारक ही साबित हो होंगे। एक जमाने में क्या ऐसे ही मानव सभ्यता के विकास का पाठ श्रीकृष्ण भगवान ने अर्जुन को पढ़ाकर पूरे खांडव का दाह नहीं करवा दिया था? विकास और समरसता...? सांस्कृतिक एकता का प्रलाप...? जो सहमत नहीं है उसका संहार करो। कई सदियों बाद हिन्दी के बड़े रचनाकार प्रसाद जी को दया आई और उन्होंने सामंजस्य बनाने की कोशिश करते हुए ''जनमेजय का नाग यज्ञ'' करवाया, क्या इस बार भी ऐसा होगा? खांडव का दहन करने के बाद कोई भावुक करुणामयी समरस बनाने की कोशिश करेगा और विजेता जातियां अपने इतिहास का गौरवशाली गान करेंगी? शायद, इस बार ऐसा नहीं होगा क्योंकि समरस बनाने के लिए दूसरा पक्ष मौजूद नहीं रहेगा और जो एकरस है वही समरस कहलायेगा। आज आदिवासी समुदाय को विस्थापित कर उस स्थिति मे पहुंचा दिया गया है जहां सिर्फ चिडिय़ाघर और म्यूजियम का रास्ता ही बचता है। मैंने एक बार अपने छोटे-छोटे भतीजों और भांजियों से पूछा था कि अगर हम अपने गाँव से विस्थापित कर दिए जायेंगे तो क्या होगा? उनका सीधा जवाब था हम लड़ेंगे। मैंने फिर पूछा क्यों। तो उन्होंने कहा - क्योंकि अब और पीछे हटने के लिए कोई जमीन नहीं बची, अब कोई जंगल, नदी और पहाड़ नहीं रहे। संविधान में समाज के कमजोर तबकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधान किये गए थे, क्या हुआ उन प्रावधानों का, क्यों लागू नहीं किये गए? जब लागू ही नहीं करना तो प्रावधान हुए ही क्यों... क्या इसलिए कि कहा जा सके यह आदिवासी समाज का भी प्रतिनिधि है...? यह सब अकारण नहीं है इसके पीछे सुनियोजित मंशा छुपी है। यह मंशा विकास की बात नहीं करता विकास की राजनीति करता है। नये वैश्वीकरण की दुनिया में, हमारा राज्य भी जिन धनाड्यों, पूंजीपतियों और नव-औपनिवेशिक शक्तियों के अधीन आ गया है वह उनके आर्थिक हितों के लिए ही आदिवासियों को अपना उपनिवेश बना रखा है। एक ओर राज्य ने आदिवासियों को आर्थिक उपनिवेश बना रखा हैं वहीं दूसरी ओर राज्य के बहुसंख्यक समाज आदिवासियों को अपना सांस्कृतिक और धार्मिक उपनिवेश बनाये हुए हैं। कोई कहता आदिवासियों का कोई धर्म नहीं, कोई कहता उनकी कोई संस्कृति नहीं, उनकी सामाजिक व्यवस्था ही नहीं है आदि आदि। सांस्कृतिक, धार्मिक और आर्थिक उपनिवेशीकरण की आंतरिक प्रक्रिया ने आदिवासियों के आत्मविश्वास और मनोबल को झकझोर कर अजनबियत की अवस्था में ला पटका है। लेकिन आदिवासी आत्महत्या नहीं कर रहे, वे आत्महत्या करना नहीं जानते, उन्होंने फिर से संघर्ष का रास्ता चुना है। परिस्थितियों का दबाव रचना पर स्वाभाविक रूप से पड़ता है, अगर किसी रचना में यह गायब है तो यह कहने में कोई हर्ज नहीं कि रचनाकार ने अपने समय, समाज और परिवेश से आँख चुरा ली है। यह उसके कलात्मक क्षमता की कमी नहीं उसके नैतिक साहस की कमी है। सौन्दर्य संघर्ष निरपेक्ष नहीं होता है बल्कि यह उसे और मजबूत करता है। हाँ, दिक्कत इतनी-सी जरूर होती है कि उसे कैसे कलात्मक रूप दिया जाये। क्योंकि जब आप बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में होते हैं तो भावनाओं का आवेग आपके संयम से बाहर होने लगता है। जब मैं लिखने बैठता हूँ तो एक अलग तरह के रचनात्मक संघर्ष से जूझता हूँ। बचपन में जो चीजें देखी थी, भोगी थी वह आज और भी कड़वे स्वाद के साथ है। ऐसे वातावरण में चिंतन से ज्यादा चिंता हावी हो जाती है जो रचनात्मकता को प्रभावित करती है। आदिवासी समाज का सांस्कृतिक जीवन संघर्ष, सृजन और सौन्दर्य का अद्भुत समन्वय है। वे गीत गाते हुए लड़ भी सकते हैं और लड़ते हुए गीत भी गा सकते हैं। अपनी प्रत्येक क्रियाओं से वे नया सृजन कर लेते हैं। लेकिन परिस्थितियों का दबाव इन समन्वय को बिखेरने लगता है। मेरी कलम के साथ भी ऐसा होता है। इस बिखराव को समेटने में मुझे और मेरे लोगों को हर बार एक युद्ध से होकर गुजरना पड़ता है।
चिडिय़ाघर में जेब्रा की मौत
चिडिय़ाघर में जेब्रा की मौत पर रोने के लिए कोई और नहीं था सिवाय उसके एक और साथी जेब्रा के जिसे रखा गया था उसके साथ केवल प्रजनन के उद्देश्य से,
वह डर कर दुबका हुआ था एक कोने में भयानक अकेलेपन और अजनबीपन में उसकी आँखें देख रही थी फ्लैश्बैक में वह दृश्य जब वह झुण्ड के झुण्ड अपने दल के साथ दिन भर चौकड़ी भरा करता था जहाँ चरने के लिए खुला मैदान था प्यास मिटाने के लिए उन्मुक्त नदी थी और एक जंगल था आत्मिक विश्रांति के लिए,
अब कुछ भी नहीं रह गया उनके हिस्से के लिए उनका हिस्सा भी नहीं रहा वह जो कभी उनका पूरा होता था अगर यह सब होता तो शायद यह न होता जो आज हुआ अगर होता भी समय के चक्र में तो ऐसा न होता जो आज हुआ आज होता सामूहिक शोक सारा गाँव आखरी बार फिर उसके साथ होता उसके सम्मान में होता एक आखरी गीत कोई उसकी जिद से उसे अंतिम बार पहचानता कोई उसकी नृत्य शैली से कोई कहता करमा नाचने में उसका कोई जोड़ नहीं था तो कोई उसे उसके पुरखों के इतिहास से पहचानता, यहाँ जुटी भीड़ उसे नहीं पहचानती है और न ही वह उसके साथी के लिए शोक गीत में शामिल होगी यह भीड़ केवल तब तक बेचैन है जब तक कि वह उसकी तस्वीर न ले ले
मेरा दु:ख जेब्रा की मौत से है और डर चिडिय़ाघर से चिडिय़ाघर की जमीन फैल रही है और दीवार ऊँची पिंजरों की संख्या बढ़ाई जा रही है और वहां जंगल में आदिम जनसंख्या उसके लिए तैयार की जा रही है म्यूजियम में उसकी खाल, हड्डियां वाद्य यंत्र, भाषा और उसके गीत सुरक्षित किये जा रहे हैं
चिडिय़ाघर में जेब्रा की मौत केवल जेब्रा की मौत नहीं, हमारी संभावित आगामी मौत है। झानू बुआ जंगली सूअरों से फसल की रखवाली करती है
झानू बुआ अपने भाई के हाट चले जाने पर फसल की रखवाली करती है उसका भाई घुमंतू है जंगल-जंगल, गाँव-गाँव घूमता है जतरा नाचने, मांदल बजाने से पहले जंगली सूअरों से बचाने के लिए वह फसल के चारों और फंदा डाल देता है जब वह घर पर नहीं होता है तो झानू बुआ के हाथ में होती है जिम्मेदारी बूढ़ी माँ खेत की ओर जाने से पहले उसे याद दिलाती है कि वह अपना धनुष और कुल्हाड़ी लेना ना भूले झानू बुआ अपनी धुन में एक टीले पर बैठकर अपने प्रिय के लिए कोई प्रेम गीत गुनगुनाती है और तभी सूअरों का झुण्ड खेत पर धावा बोलता है झानू बुआ घात लगाती है और भागते हुए सुअर फंदे में फंस जाते हैं अगले दिन फसल के तैयार हो जाने पर वह अपने भाई के साथ फसल काट कर घर ले आती है,
झानू बुआ मेरी बुआ है और झानू बुआ का भाई मेरा पिता इन दोनों की बूढ़ी माँ मेरी दादी और मेरी दादी मेरे दादू की साथी है हम सब साथी हैं और हम जंगल में उगे पेड़ हैं हमारे आगे, हमारे पीछे हमारे दायें और हमारे बाएँ पेड़ ही पेड़ हैं ये पड़ोसी पेड़ हमारे साथी हैं और हम सब समूह हैं,
झानू बुआ जंगली सूअरों से फसल की रखवाली करती है और उसका भाई गीत गाता है। 27/3/13 रात 12.56
बसंत के बारे कविता
बसंत के बारे कविता लिखने के लिए एक कवि भंवरे की सवारी पर चढ़ा और वह धम्म से गिर पड़ा,
एक कवि अपनी प्रेमिका की गोद में लेट कर मौसम का स्वाद ले रहा था और उसकी कविता स्वादहीन हो गई उसकी कविता के पात्र और चरित्र मरे हुए पाए गये उसकी भाषा जिसके माध्यम से वह सबसे अच्छी कविता लिखने का दावा करता था उसकी जुबान को लकवा हो गया,
बसंत के बारे में कविता लिखने से डरता हूँ कि कहीं कोई भंवरा मेरे गीतों पर रीझ ना जाय पपीहे भूल ना जाएँ बाज़ के हमलों से बचने, सबसे बुरे समय में सबसे खुशनुमा और रंगों से साराबोर मौसम पर कविता लिखते हुए डरता हूँ अपनी भाषा और शब्दों के दिवालिया हो जाने से,
बसंत के बारे कविता लिखने से पहले अपने बारे सोचता हूँ और पाता हूँ अपनी बहन को बंदूक की नोंक से आत्मा के जख्म सीते हुए उसके पास ही होती है एक उदास और ठहरी हुई नदी जिसकी आंसूओं में जलमग्न होते हैं हरवैये बैल और मुर्गियों के अंडे मैं सुनता हूँ अपने बच्चों और मवेशियों की डूबती हुई चीख और वहीं देखता हूँ अपने ही देश के दूसरे हिस्से के नागरिकों को पिकनिक मनाते, जश्न मनाते और फोटो खिंचवाते हुए, तब मेरी धरती और मेरे लोगों का खून मेरी कलम की जीब से बहने लगता है मैं विद्रोह करता हुआ पहाड़ की सबसे ऊँची चोटी पर पहुंचकर पेड़ों से कहता हूँ कि विदा करो पतझड़ को अब और देर नहीं ले आओ मेरी माँ की आँखों में हँसी,
पेड़ मेरी बात को गौर से सुनते हैं और ले आते हैं अपनी कोमल नयी डालियों पर छोटी-छोटी चिडिय़ों और फूलों के गीत जंगल में घुलने लगती है महुवाई गंध गिलहरी नृत्य करते हुए नेवता देते हैं पंडुकों को भी नृत्य करने के लिए और पंडुक संकोचवश केवल गीत ही गा पाते हैं, तब भी मैं लिख नहीं पाता हूँ उनकी प्रशंसा में कोई कविता बस उन्हें शुक्रिया कहता हूँ कि उनके बीच अब भी हमारी पहचान बाकी है और वे हमें हमारी भाषा से पहचानते हैं, बसंत के देश में बसंत के दिनों में बसंत के बारे कविता ना लिखना अपराध है जैसे किसी देश में रहते हुए उस देश के राजा के मिजाज की कविता न लिखना और तब मैं कवि नहीं अपराधी होता हूँ जो बूढ़ी माँ की आँखों में डूबते अपने गाँव को बचाने के लिए समुद्र की पागल लहरों से टकरा जाता हूँ,
बसंत के बारे कविता लिखने बैठा मैं बसंत के बारे नहीं अपने बारे लिखता हूँ और कविता के शब्द जेल की अंधेरी कोठरियों को तोड़ते हैं उसके अन्दर $कैद पतझड़ को विदा करने के लिए 11/3/13
मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा
अंधेरी रात के आधे पहर जब हवा अपने तेज झोंकों से पेड़ों को डरा रही थी फकइर की फें-फें जंगल की पगडंडियों को और डरवाना बना रही थी पूंछ वाले चमगादड़ साल के पेड़ों को खरोंच-खरोंच कर घायल कर रहे थे तब नन्हें कदमों से मैंने दस्तक दी और लोगों ने झट दरवाजे खोले उन्हें डर था कि कहीं कोई आदमखोर मुझे उठा ना ले बचपन के ये दिन थे जब सूरज भी डर से हमें कोहरे की ओट से देखता था डर अपने लिए नहीं हम बच्चों के लिए था उन्हें डर था कि हमारी तोतली बोली हमारे घरौंदे रौंद दिए जायेंगे डर डर था लेकिन वह समर्पण कतई नहीं था,
मैंने आँख खोली मेरे साथ और भी कई बच्चे आँख खोले हम अबोध के लिए हर घड़ी एक उत्सव था और भूख की दुनिया माँ की गोद तक सीमित थी लेकिन माँ की आँखों में इसका असीमित विस्तार था पिता की छाँव में गीत थे लेकिन आहत और घायल एक दुनिया जल रही थी जिसे हम अपनी अबोध आँखों से देख नहीं पाते थे,
ओह मेरी माँ! तुम्हें प्रसव की पीड़ा कितनी सहज लगी होगी इस दर्द के सामने..? रात में ढिबरी की छोटी-सी रोशनी में अकेले हम बच्चों को अपनी आँचल में छुपाये तीर धनुष लिए डरावनी आहटों को टोहती थी कुत्तों के भौंकने पर अचानक सतर्क होकर धनुष की डोरी तन जाती थी तेज बारिश, बिजलियों की कड़क और हवा की सांय-सांय के बीच जब कोई भी आहट नहीं होती थी तब तुम्हारी आँखों में रोशनी बढऩे लगती थी तुम्हारे दिल की धड़कन तेज हो जाती थी यही वक्त होता था पिताजी और उनके साथियों के जंगल से घर लौटने का दरवाजे पर हल्की दस्तक होती थी और किवाड़ खुलते ही तुम्हारी आत्मा का सूरज आधी रात को मुस्कुराने लगता था,
ये हमारे खेलने-कूदने के दिन थे हम यहीं बढ़ रहे थे हमारा भविष्य यहीं तय हो रहा था आज मैं अपने बचपन से बहुत दूर निकल आया हूँ लेकिन तुम अब भी वहीं की वहीं हो सुदूर गाँव में जंगलों के बीच मनोरम छोटी-बड़ी नदी, पहाडिय़ों के वीभत्स हलचलों के बीच उसी हालत में उसी तरह तुम्हारे तन के वस्त्र पर कितने टाँके हैं उससे ज्यादा टाँके तुम्हारी आत्मा पर हैं तुम्हारे बच्चे मेरे छोटे भाई वहीं बड़े हो रहे हैं रेल की धकधकाती आवाज और बुलडोजर की आदमखोर दहाड़ के बीच,
गुवा और नुवामुन्डी की घटना को हुए दशकों बीत गये हत्या और आगजनी के दौर हुए अरसा हुआ दाउजी और उसके साथियों के शहादत के दिन पीछे छूट गये तुमने तो देखा ही था किस तरह चाचाजी को सिमडेगा जेल के ठीक सामने जेल से निकलते ही गोली मार दी गयी थी हमारे पुरखों की शहादत कहाँ रुकी है..? अनगिनत सदियों पुरानी हमारी इस धरती में किसी का पुनर्जन्म नहीं होता कोई अवतरित नहीं होता सिवाय विस्थापन, हत्या, लूट, आगजनी, बलात्कार और सैन्य कारवाईयों के,
हमारा पुनर्जन्म नहीं होता लेकिन हम जीवित रहते हैं आनेवाली पीढिय़ों में हजार-हजार शताब्दियों से भी आगे फसलों में, गीतों में, पत्थरों में मृत्यु के बाद भी हम अपनी धरती से दूर नहीं होते
ओ ममतामयी..! पुरखों के जीवन का विधान मुझ पर भी लागू हो मेरा पुनर्जन्म नहीं होगा लेकिन मेरे बाद भी कोई और आयेगा गीत गाते हुए... 11/1/2013
मैं गीत गाना चाहता हूँ
मैं घायल शिकारी हूँ मेरे साथी मारे जा चुके हैं हमने छापामारी की थी जब हमारी फसलों पर जानवरों ने धावा बोला था
हमने कार्रवाई की उनके खिलाफ जब उन्होंने मानने से इनकार कर दिया कि फसल हमारी है और हमने ही उसे जोत -कोड़ कर उपजाया है हमने उन्हें बताया कि कैसे मुश्किल होता है बंजर जमीन को उपजाऊ बनाना किसी बीज को अंकुरित करने में कितना खून जलता है हमने हाथ जोड़े, गुहारें की लेकिन वे अपनी जिद पर अड़े रहे कि फसल उनकी है, फसल जिस जमीन पर खड़ी है वह उनकी है और हमें उनकी दया पर रहना चाहिये
हमें गुरिल्ले और छापामार तरीके खूब आते हैं लेकिन हमने पहले गीत गाये
माँदर और नगाड़े बजाते हुए उन्हें बताया कि देखो फसल की जड़ें हमारी रगों को पहचानती हैं, फिर हमने सिंगबोंगा से कहा कि वह उनकी मति शुद्ध कर दे उन्हें बताये कि फसलें खून से सिंचित हैं, और जब हम उनकी सबसे बड़ी अदालत में पहुँचे तब तक हमारी फसलें रौंदी जा चुकी थीं मेरा बेटा जिसका बियाह पिछली ही पूर्णिमा को हुआ था वह अपने साथियों के साथ सेंदेरा के लिए निकल पड़ा
यह टूटता हुआ समय है पुरखों की आत्मायें, देवताओं की शक्ति क्षीण होती जा रही हैं हमारी सिद्धियाँ समाप्त हो रही हैं सेंदेरा से पहले हमने शिकारी देवता का आह्वान किया था लेकिन हम पर काली छायाएं हावी रहीं हमारे साथी शहीद होते गये
मैं यहाँ चट्टान के एक टीले पर बैठा फसलों को देख रहा हूँ फसलें रौंदी जा चुकी हैं मेरे बदन से लहू रिस रहा है रात होने को है और मेरे बच्चे, मेरी औरत घर पर मेरा इंतजार कर रही हैं मैं अपने शहीद साथियों को देखता हूँ अपने भूखे बच्चे और औरतों को देखता हूँ पर मुझे अफसोस नहीं होता मुझे विश्वास है कि वे भी मेरी खोज में इस टीले तक एक दिन जरूर पहुंचेंगे
मैं उस फसल का सम्मान लौटाना चाहता हूँ जिसकी जड़ों में हमारी जड़ें हैं उसकी टहनियों में लोटती पंछियों को घोंसला लौटाना चाहता हूँ जिनके तिनकों में हमारा घर है उस धरती के लिये बलिदान चाहता हूँ जिसने अपनी देह पर पेड़ों के उगने पर कभी आपत्ति नहीं की नदियों को कभी दुखी नहीं किया और जिसने हमें सिखाया कि गीत चाहे पंछियों के हों या जंगल के किसी के दुश्मन नहीं होते
मैं एक बूढ़ा शिकारी घायल और आहत लेकिन हौसला मेरी मुट्ठियों मे है और उम्मीद हर हमले में मैं एक आखिरी गीत अपनी धरती के लिये गाना चाहता हूँ... 18/11/12
मैं जिस जंगल में रहता हूँ वहां भेडिय़े आदमी नहीं हैं
उस दिन मैं बहुत दुखी था जब उसने मुझे कहा था कि मैं भेडिय़े कुल का हूँ उसने मुझे जंगली कहा और कहा कि हमारे सींग होते हैं और हम आदमी खाने वाले नरभक्षी असुर हैं मेरे काले नाखूनों को देखकर उसने कहा कि यह राक्षस प्रजातियों का है,
घर लौटने पर मैंने अपनी माँ को बहुत गौर से देखा मैं देख रहा था कि मेरी माँ में क्या है जो मुझमें है उसके शरीर में सींग, पूंछ, दांत और नाखून खोज रहा था तब मेरी माँ ने मुझे देखकर बहुत प्यार से एक गीत गाया - ''पंडुक के बच्चे तुम बड़े हो जाओगे तो अपनी प्रियतमा के साथ मेरे लिए गीत गाओगे'' तब मैंने पाया कि मेरी माँ के गीत दुनिया के लिखे किसी भी पोथी और ज्ञान से ज्यादा सुन्दर और मधुर हैं और मैं भी उसी का अंश हूँ,
उस दिन जो अपने पोथियों और ज्ञान के भण्डार का सन्दर्भ देकर मुझे जंगली कह गया मैंने देखा उसके दो हाथ, दो पैर, सिर और नाक के बीच कोई पूँछ नहीं थी ना ही उसके कोई सींग थे वह पूरा आदमी ही था और एक दिन जब मैं अपने साथियों के साथ गाँव में घुस आये भेडिय़ों को भगा रहा था तो रात के अंधियारे में भी मैं पहचान गया कि वे भेडिय़े ही थे 19/3/13
रेड इंडियंस पुनश्च: ''तुम्हारे लिए यह धरती दुश्मन का इलाका भर है''
(एक बार एक गोरे अधिकारी ने रेड इंडियंस की जमीन पर कब्जा जमाने के लिए उनके सरदार से पेशकश की, उसके जवाब में सरदार ने उस गोरे अधिकारी से रेड इंडियंस की प्रकृति से सम्बद्ध जीवन के बारे में लम्बी बहस की और उसे किसी भी तरह अपनी जमीन देने से इनकार कर दिया और कहा था कि ''तुम्हारे लिए यह धरती दुश्मन का इलाका भर है जिसे तुम जीत कर आगे बढ़ जाते हो।'' उसके बाद एक बार फिर एक दिन गाँव के बुजुर्ग डोडे वैद्य ने गोंडवाना के युवा गोंड से कहा कि कोंड डोंगरिया, हो, मुण्डा, संथाल, उरांव, खडिय़ा, चीक, असुर सबसे कह दो कि अधिकारियों और व्यापारियों के पैर उनकी तरफ बढऩे से पहले यहीं रोक दें।)
वहां तुमने अपना झंडा गाड़ा और फसलों को रौंद कर आगे बढ़ गए,
अब तुम्हारे सामने नदी थी तुमने नदी का पानी पीया और उसके बाद उसे पहले गन्दला किया ताकि उसे और कोई न पिये फिर भी प्यासों ने गंदे पानी से अपनी प्यास बुझाई तो तुमने उसे सोख लिया अब पक्षी और तितलियाँ बिना पानी के मरने लगी हैं तुम और आगे बढ़े, एक और नदी पर कब्जा जमाया
तुमने अपने रास्ते के सारे जंगल उजाड़ डाले जो जानवर तुम्हारी शोभा बढ़ा सकते थे उसे तुमने अपने पिंजरे में कैद कर लिया और जो बाकी बचे थे उसका सामूहिक संहार किया, तुमने पहाड़ पर कब्जा कर उसकी ऊँचाई काट डाली,
तुम धरती के सभी प्राणियों को अनाथ कर विजेता बने हो तुम्हारे लिए यह धरती दुश्मन का इलाका भर है जिसे तुम जीत कर आगे बढ़ जाते हो 19/3/13
मदाईत
संगी हो...! सूरज ढलने को है अब मिट्टी ढोना बंद करते हैं खेत इसी तरह तैयार होते हैं धीरे-धीरे जैसे प्यार गहराता है फिर वह आत्मिक आनंद देता है ये लो पानी पी लो हडियाँ तो घर जाकर ही मिलेगा,
आज हमने खेत को पूरब की ओर खिसका दिया है बरसात में पानी दखिन से खेत में घुसेगा उधर ऊँचाई है लेकिन उसका दबाव उत्तर में नहीं पछिम की ओर होगा कल उस ओर मेड़ को और मजबूत करेंगे,
मदाईत करते हुए पता ही नहीं चलता कैसे कठिन काम हो गया इस विशाल पत्थर को हटाते हुए लगा जैसे हमने पृथ्वी को एक कोने से उठा कर दूसरे कोने में रख दिया है मदाईत- सामूहिक काम करने की प्रथा। प्रत्येक व्यक्ति का काम सभी गाँव वाले मिल कर एक समूह में बिना कोई मूल्य लिए सहयोग की भावना से करते हैं।
औरत की प्रतीक्षा में चाँद
उस रात आसमान को एकटक ताकते हुए वह जमीन पर अपने बच्चों और पति के साथ लेटी हुई थी उसने देखा आसमान स्थिर, शांत और सूनेपन से भरा था तब वह कुछ सोचकर अपनी चूडिय़ाँ, बालियाँ, बिंदी और थोड़ा-सा काजल उसके बदन पर टांक आई और आसमान पहले से ज्यादा सुन्दर हो गया,
रात के आधे पहर जंगल के बीच जब सब कुछ पसर गया था छोटी-छोटी पहाडिय़ों की तलहटी में बसे इस गाँव से होकर गुजरती हवाओं को वह अपने बच्चों और पति के लिए तलाश रही थी उसी समय चाँद उसके पास चुपके से आया और बोला - ''सुनो! हजार साल से ज्यादा हो गये एक ही तरह से उठते-बैठते, चलते, खाते-पीते और बतियाते हुए तुम्हारा हुनर मुझे नए तरीके से सुन्दर और जीवन्त करेगा तुम मुझे तराश दो,'' वह औरत अपने बच्चों और पति की ओर देख कर बोली- ''मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ खेत में काम कर लौटी हूँ और अभी-अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ सब सो रहे हैं अब मुझे घर की पहरेदारी करनी है इसलिए जब मैं खाली हो जाऊं तब तुम्हारा काम कर दूंगी अभी तुम जाओ'' और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में,
चाँद आज भी उस औरत की प्रतीक्षा में है। 21-22/3/13
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