किल्लत और ज़िल्लत में जूझने और जीने का रास्ता

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    जुलाई २०१३
श्रेणी सिरीज
संस्करण जुलाई २०१३
लेखक का नाम शिरीष कुमार मौर्य






हमारी आज की हिंदी कविता में, आलोक धन्वा और मनमोहन, दो बड़े हमराही और हमज़बान कवि बस एक ही किताब के साहिब हैं पर उनके लिए पाठकों का प्यार और सम्मान भरपूर है। मनमोहन का कविता संग्रह ज़िल्लत की रोटी हमें बहुत विलम्ब से मिला है। कवि के लिखना शुरू करने के एक उम्र बाद ये आया है और मैं अनुमान कर सकता हूं कि उनकी बीच की उम्रों के अनुभवों की कितनी कविताएं इसमें आयीं होंगी, कितनी छूट गई होंगी। असद ज़ैदी ने ब्लर्ब पर साफ उल्लेख किया है कि मनमोहन 1969 से कविता लिख रहे हैं जबकि यह संग्रह 1985 के बाद की कविताओं से बना है। मैं इसे इस तरह देखता हूं कि कई कविताएं ही नहीं, कुछ ज़रूरी राजनीतिक दस्तावेज़ भी छपने से छूट गए हैं, जो उन कविताओं में मौजूद थे। बिल्ली आ गई मुंडेर पर आपातकाल के विरुद्ध ऐसी ही एक दस्तावेज़ी कविता है, जो यहां मौजूद नहीं है... या फिर कई चुनौतियों में इस निकट इतिहास को याद करने की ज़रूरत ही नहीं रह गई, जिनसे हमारा आज बना है... ये मेरी शुरूआती उलझन है, जिसका उल्लेख ज़रूरी लगा मुझे।
मनमोहन एक कुलउम्र कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं और इस तथ्य की रोशनी में उनकी कविताओं का आकलन एक सरल रास्ता है लेकिन जितना मैंने उन्हें पढ़ा है, वे आक्रोश की राजनीति के वाचाल कवि कतई नहीं हैं। उनमें विचार जीवन के अनुभवों में खूब तपा है, जिससे उन्हें अपनी कला मिली है - जनता के पक्ष में गवाही देती और उसके संघर्षपथों पर खड़ी कला। हिंदी के चंद स्वघोषित कलावादियों के बनाए गहरे रहस्यात्मक बादलों में मुझे बिजली की-सी यह बहुत साफ चमक दिखती है कि आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल, मनमोहन और असद ज़ैदी हिंदी कविता में कला को जनता के हक में नए सिरे परिभाषित कर चुके हैं... जिसमें शमशेर उनके स्थापित अगुआ हैं। ये जो चार नाम मैंने लिए, ये सभी आपस में विचारधारा के अलावा शायद ही कोई साम्य रखते हों। इनकी आवाज़ें अलग हैं, भाषा-लहजा अलग है, विषयों और वस्तुओं को देखने और अपने देखे हुए को कविता में रचने का तरीका अलग है - फिर भी ये कलात्मक चुनौतियों को बेहतर स्वीकारने-निभाने वाले कवि हैं, जिनकी कला कलावादी कहाने वालों पर भारी है।
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मनमोहन ने संग्रह का नाम ज़िल्लत की रोटी चुना, जिसे कविता पढऩे के बाद स्वीकार करना मेरे लिए इतना आसान नहीं था। किल्लत और ज़िल्लत के इस मुहाविरे में मेरी अपनी कई उलझनें सिर उठाती हैं। सर्वहारा के ही जीवन की बात करें तो किल्लत में कभी ज़िल्लत न हो, ऐसा मुझे नहीं लगता - वहां तो ज़िल्लत झेलते भी किल्लत बनी रहती है। मैं अपने अनुभव संसार और उससे जुड़ी तर्कपद्धति में इस कविता को खारिज करने लगता था... फिर विचार ही जगाता है कि मेरे निजी अनुभवों और तर्क के बाहर जो जीवन और मेरी प्रिय राजनीति है, उसमें मुझसे कहीं ज़्यादा समझ, जगह और गुंजाइश है। बात किसी तरह तो कही जाएगी और मनमोहन ने उसे इसी तरह कहा है- वे विचार के रस्ते पर मेरे अगुआ हैं और उनके अनुभव में चीज़ें ऐसे ही आयी होंगी। यह कविता दरअसल हम मध्यवर्गियों को सम्बोधित है, जो पुरानी किल्लत से बाहर आते हुए सुख-सुविधाओं की तलाश में एक लगातार ज़िल्लत की गिरफ्त में फंसते गए हैं। नौकरियां करते हमारा इस ज़िल्लत से सामना है, इसकी अपनी एक ऐतिहासिक बेबसी है।
मेरा मानना है कि सिद्धान्त और विचार आलोचना से अधिक रचना में सम्भव होते हैं। आलोचना के गढ़े हुए सिद्धान्तों से रचना नहीं चलती है, वह अपना पथ चुनती है, जिसमें आलोचना को उसे आंकना होता है। जिन देशों के साहित्य जगत में इधर आलोचना और थियरी का बहुत बोलबहाला है, वहां रचना का उल्लास कम होता गया है। जहां ऐसा नहीं है, वहां अधिक रचनात्मकता है और उसे रेखांकित भी किया जा रहा है। उदाहरण के लिए उधर फ्रांस सही-गलत थियरी का मुल्क होता गया है और वहाँ के रचनात्मक साहित्य ने इसकी कीमत चुकाई है... वरना थियरी और क्रिएशन के अद्भुत संतुलन का भी वहां एक दौर था।
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मनमोहन की कविता राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय स्मृतियों की कविता भी है। इसमें अन्याय के दु:खद बिम्ब, बेबसी और उससे लडऩे के चित्र हैं। इस संग्रह में एक कविता है 'काला लड़का', जो इस बारे में कुछ कहती है —

खुले मैदान में
गेंद जब दौड़ती है
दूर खड़ा ग्यारह बरस का
एक काला लड़का उसे
देखता है

उसके देखने की जगह
उसके खड़े होने की जगह से भी
कोसों दूर है

किसी बड़े खेल में
काम आ गई है उसकी आत्मा
तब से वह इसी तरह देखता है

किसी बड़े खेल में काम आ गई है उसकी आत्मा- एक आख्यानात्मक वाक्य है, वह एक वाक्य नहीं, पुस्तक है, उसमें हमारी मनुष्यता के पराभव का इतिहास है। मनमोहन मूलत: धीरे बोलने वाले कवि हैं। उनमें राजनीति अधिक गंभीर स्वर में बोलती है। एक राजनैतिक कार्यकर्ता का कविता में इस तरह बोलना अजीब तो लगता है, पर यह आवाज़ उतनी ही देर तक महसूस भी होती है। काला लड़का में एक तरह के खेल का उल्लेख हुआ, मनमोहन की एक और कविता है एक खेल, जिसमें वे खुद मौजूद हैं—

यह खेल मेरा नहीं
लेकिन दोस्तो क्या करूं
इन दिनों मैं यही खेलता पाया जाता हूं

और शायद इसे खेलना पसन्द भी करने लगा हूं

अगले पल दुर्घटनाएं मेरा इंतज़ार करती हैं
जब मैं आपको जहां-तहां मुस्कराता
जिस-तिस से हाथ मिलाता
खुशी से दम फुलाता नाचता गाता मिल जाता हूं

किसी शहर में कुत्ते की तरह
बिलखती है आत्मा

किसी दूसरे शहर में
मुझे पक्षाघात हो जाता है
लेकिन छोटे-छोटे पक्षाघातों को
मैं क्या गिनूं

यह कविता मेरे हिसाब से माक्र्सवादी राजनीति से एक नपे-तुले नौकरीपेशा जीवन में आए हर आदमी की कविता है। और जो हर आदमी की कविता है, वही सच्चे अर्थ में कविता है। मेरा हठ है कि ऐसी हर बात को खुद पर लागू करके देखूं... ऐसा करते ही वे पक्षाघात साकार होने लगते हैं ये खेल हमारा नहीं पर हम इसमें मौजूद हैं।
मैं जितना मनमोहन को पढ़ता हूं वो मुझे मध्यवर्गीय विडम्बनाओं और उसके छटपटाते हृदय के कवि अधिक लगते जाते हैं। गो शुरूआत उन्होंने आलोक धन्वा के साथ की थी। आंदोलन गीत भी लिखे पर कविता में वे अपनी वास्तविक मध्यवर्गीय गीड़ा और अपराधबोध के साथ दिखते हैं। उनके कवि कर्म के दो साफ रास्ते हैं — पहला उन्हें अल्ट्रा लेफ्ट की राजनीति से जोड़ता है, जिसमें उनका शुरूआती कविकर्म अधिक शामिल था फिर दूसरा उन्हें अपनी प्रिय विचारधारा और उस पर आधारित जीवनदर्शन की रोशनी में समकालीन अंधेरों पर केन्द्रित करने लगता है - ये दोनों ही निहायत ज़रूरी पक्ष हैं। किंचित संकोच के साथ यह बात कह रहा हूं कि पहले और इधर भी मध्यवर्ग को महज लालची और उच्चवर्ग का चाटुकार समुदाय समझ कर गरियाने की रवायत ज़्यादा रही है और यह समझ हमें माक्र्सवाद के सैद्धान्तिक पक्ष से ही मिली है लेकिन परिस्थितियां कुछ और होती चली गई हैं। मेरी इतनी हैसियत नहीं है कि मैं वर्गबोध और उसके दायित्वों को फिर से परिभाषित करूं पर इतना तो देखना ही होगा कि कुछ अवांतर मान लिए जाने वाले प्रसंग अब अंतरंग होते गए हैं। इस मध्यवर्ग में जीते हुए एक शुद्ध माक्र्सवादी आत्मा की आवा•ा यहां इस तरह दर्ज़ हो जाती है —

न कहना आसान है
और कहना मुश्किल

लेकिन कहते चले जाना
न कहने जैसा है
और काफी आसान है

इसी तरह न रहना आसान है
और रहना मुश्किल

लेकिन रहते चले जाना
न रहने जैसा है
और काफी आसान है

चाहें तो रहने के बाद भी
ऐसा ही कुछ कहा जा सकता है

लेकिन रहने-सहने के इस मध्यवर्गीय ढांचे में मनमोनहन अपने राजनैतिक काम की बात कभी नहीं भूलते—

अभी जो ललचाता है
हमें बुलाता है रास्ता चीर
खुद-ब-खुद आगे आते आता है निशाने पर

उसी से प्यार
उसी से कारोबार
जिसे मार गिराना है अभी
बिल्कुल अभी
* * *
द्वंद्व का क्षरण सभी विचारवान लोगों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। भेड़ों के रेवड़ में कोई द्वंद्व नहीं होता - अगुआ भेड़ जिस राह जाए, सब उधर चल पड़ती हैं फिर भले सब की सब किसी खाई में जा गिरें। माक्र्स ने द्वंद्व का सिद्धान्त स्थापित किया तो उसकी एक समूची ऐतिहासिक पृष्ठभूमि थी और अनिवार्यता भी, जिसकी ज़रूरत मनुष्य जाति के पृथिवी पर रहवास के रहते हमेशा बनी रहेगी। इसी से प्रतिरोध की संस्कृति कायम होगी और बेहतरी के रास्ते खुलेंगे। मनमोहन का इस चिंता में शामिल होना सहज ही है, तभी अपने सहमति का युग जैसी कविता लिखते हैं और उसे व्यंग्य के शिल्प में संभव करते हैं, जो खुद अपने आप में द्वंद्वात्मकता की देन है।

टेढ़े रास्ते सीधे हो रहे हैं
टेढ़े लोग सीधे हो रहे हैं

कोई दो ओर नहीं
कोई दो छोर नहीं

इनकार की ज़रूरत क्या
थोड़ा-सा इसरार काफी

लगातार बढ़ते हुए नवसाम्राज्यवाद के अभिप्रायों को स्पष्ट करती हुई कविता आगे बढ़ जाती है। खुद मनमोहन ने अपने संग्रह की भूमिका में इसका पूर्वउल्लेख किया है - नई दुनिया के ज़िद्दी और मगरूर शहंशाह बुलडोजर लेकर इन दिनों राष्ट्र-राज्यों सरहदों, राजनीतिक-आर्थिक संरचनाओं और पेचीदा रास्तों को मिस्मार करते और रौंदते हुए एक नया भूगोल रचने का दुर्दांत अभियान चला रहे हैं। नए नक्शे में दुनिया की शक्ल एक खुले चरागाह की है।
* * *

हालांकि उपलब्धता के नाम पर यह एक ही संग्रह है और इस तरह की बात कहने के लिए कविताएं कम हैं पर मनमोहन की कविता के सबसे मार्मिक प्रसंगों में स्त्री प्रसंग हैं, जिनकी ओर मेरा ध्यान बार-बार जाता है। इन प्रसंगों में मैं मनमोहन की उसकी थकान कविता से जिस तरह बिंधा हूं रघुवीर सहाय और चन्द्रकांत देवताले की कुछेक पंक्तियों के अलावा उसके दूसरे उदाहरण मुझे तुरत याद तक नहीं आ रहे —

यह उस स्त्री की थकान थी
कि वह हंस कर रह जाती थी

जबकि वे समझते थे
कि अंतत: उसने उन्हें क्षमा कर दिया

यह छोटे शिल्प में बहुत बड़ी कविता लगती है मुझे। हमारे घरों के दाम्पत्य में यह लगभग रोज़ ही घटने वाला प्रसंग हैं। कोई ज़रूरत नहीं कि आप सभी ब्यौरे प्रस्तुत करें... लगातार निपट ब्यौरे प्रस्तुत करते जाने वाले कवियों के सामने यह कविता एक विकट चुनौती की तरह भी है। ऐसे विषय में हम जितने विस्तार में जाएंगे, मूल कथ्य से भटकने का जोखिम बढ़ता जाएगा और कविता की धार भी खत्म होती जाएगी। छोटी होने के बावजूद यह आइडिया बेस्ड कविता हरगिज़ नहीं, इसी रचना प्रक्रिया में एक समूचा थॉट प्रोसेस है और फिर इसके पढऩे में भी। छोटी कविताओं में ऐसे उदाहरण दुर्लभ हैं।
हमने और हमारे बाज़ार में स्त्री-पुरुषों की बराबर भागीदारी और समान अधिकारों वाली एक सुन्दर मानवीय दुनिया के स्वप्न में किस कदर खलल डाला है, इसका प्रमाण एक दूसरी कविता प्रस्तुत करती है, जिसकी विषयवस्तु बिल्कुल इधर की है—

जैसे वे सिर्फ अपने-अपने शरीर लेकर
चली आई हों इस दुनिया में

वे जानती हैं
हमारे पास कैमरे हैं
स्वचालित बहुकोणीय दसों दिशाओं में मुंह किए
जो हर पल उनकी तस्वीरें भेजते हैं
जिन्हें कभी भी प्रकाशित कर सकते हैं

कितनी सावधान वे गुज़रती हैं
मुस्कुराती हुई एक-एक हमारी दुनिया से
जैसे खचाखच भरे किसी जगमगाते स्टेडियम से
अकेले गुज़रती हों

मनमोहन की कविता जब मां को याद करती है तो उसमें भी वह दु:ख शामिल होता है, जो दरअसल भयावह है—

हल्के उजाले की तरह
अचानक कमरे से गुज़रती थी वह स्त्री

कई बार पानी की तरह हिलती थी देर तक

यह एक पुरानी बात हुई

वह एक छवि थी
जो तुम्हें तुम्हारी छवि दे देती थी
और इस तरह तुमसे खुद को वापस ले लेती थी

अब इतने दिनों बात पता चलता है
कि वह मां का प्यार नहीं
एक स्त्री का संताप था

इस कविता में आगे सात पंक्तियां और हैं पर मेरे लिए यह यहीं खत्म हो जाती है। मां पर बहुत कविताएं लिखी गईं पर चन्द्रकांतदेवताले की कम खुदा न थी परोसने वाली और ये कविता साथ पढऩे पर जो असर पैदा करती हैं, वह अकादमिक विमर्शों और पोथियों में मिलने वाली चीज़ नहीं है।
एक स्त्री का भीतरी संसार बहुत जटिल चीज़ बताई जाती है। मुझे तो यह हमारी पितृसत्तात्मक रवायतों का ही एक षडय़ंत्र लगता है। किसी को दिए गए दु:खों, की गई उपेक्षा और हिंसा के बीच अकेला छोडऩा ही उसे जटिल बना देता है। एक पुरुष भी उतना जटिल नहीं होता क्योंकि उसके पास अवसाद में जाने के लिये पागल हो जाने तक की सुविधा है। यहां एक स्त्री का मन अधिक ताकतवर और विचारवान साबित होता है। वह जटिल होती है पर अपनी ताकत के साथ। मनमोहन की एक कविता अपने दु:खों के साथ इस बारे में कुछ कहती है —
अपने दु:खों के साथ अकेले रहती
वह यहां तक चली आई है
कि बाकी सब भूल गया है

कई बार जब वह कुछ कहती है
तो अपना कमाया सच कहने की तकलीफ
और अपनी विफलताओं के अभियान की सुन्दरता
एक साथ उनके चेहरे पर आ जाती है

कभी कुछ कहते-कहते यूं ही
उसकी आवाज़ भीग जाती है

उस ठिठके हुए लम्हे में
वह यही बताती है
कि अपने दु:खों पर से उसका भरोसा
अभी उठा नहीं है

और सामने वाले को आज़ाद कर देती है

पाठकों से मैं पूछना चाहूंगा कि कितने जन इस कविता पढऩे और महसूस करने के बाद उस ठिठके हुए लम्हे में वे अपने घर की स्त्रियों से आंखें मिला पाएंगे... क्या वे अब और आज़ाद होना चाहेंगे...
* * *

मनमोहन उन कवियों में हैं जिन पर आम तौर पर बात न करने की परम्परा रही है। अब यह कौन-सी परम्परा है, इसे तो आचार्य बेहतर बता पाएंगे... याद रखिए कि माक्र्सवादी आचार्य भी कम नहीं हैं हिंदी पट्टी में। हिंदी में उपेक्षा की हिंसा बहुत है, वह नाना-नाना विध नाना-नाना रूप है। बहुत दु:ख और क्षोभ होता है देख कर कि बहुत महत्वपूर्ण कवियों पर भी एक भी सुचिंतित लम्बा लेख नहीं मिला पाता है और इधर इन्हीं कवियों को पीएच.डी./डी.फिल की रूपरेखाओं में रखकर शोध का खेल विश्वविद्यालयों में विधिवत् शुरू हो चुका है। चूंकि मैं इसी का एक हिस्सा हूं इसलिए कह रहा हूं कि ऐसे हालात में हिंदी का आने वाला अकादमिक संसार कैसा होगा, इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल नहीं है।
* * *

मैंने इस लेख के आरम्भ में भी कहा कि इस संग्रह में मनमोहन की राजनीतिक कविताएं आने से छूट गईं हैं, जो छूटी हैं वे आंदोलनों को कुचलने और लोकतांत्रिक मूल्यों के समूल पराभव के दौर की कविताएं थीं। यहां राजनीतिक कविताएं हैं पर वे उस तरह शामिल रह कर लिखी गई कविताएं न होकर, विचार प्रक्रिया से गुज़रते हुए लिखी गईं कविताएं हैं, उनमें राजनीति की धार तो भरपूर है पर भावनात्मक आवेग कम हुआ है... भले उन पर कोई शानदार पर्चा तैयार किया जा सके लेकिन वे दिल में चुभ नहीं जातीं। हमें कवि की 1985 से पहले की कविताएं भी चाहिए... कैसे मिलेंगी पता नहीं... लेकिन एक कविता मुझे यहां भी साफ चमकती दिख रही है, जो मनमोहन की कविता पर संक्षिप्त और बिखरी हुई इस बातचीत का सबसे सही समापन भी है -

मैं तुम्हारी ओर हूं

गलत स्पेलिंग की ओर
अटपटे उच्चारण की ओर

सही-सही और साफ-साफ सब ठीक है
लेकिन मैं गलतियों और उलझनों से भरी कटी-पिटी
बड़ी सच्चाई की ओर हूं

गुमशुदा को खोजने हर बार हाशिए की ओर जाना होता है
कतार तोड़ कर उलट की ओर
अनबने अधबने की ओर

असम्बोधित को पुकारने
संदिग्ध की ओर
निषिद्ध की ओर
* * *
आगामी अंक में लाल्टू पर और उसी से सिरीज का समापन होगा।

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