मन-दर्पण पर समय का अक्स

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    जनवरी 2021
श्रेणी मन-दर्पण पर समय का अक्स
संस्करण जनवरी 2021
लेखक का नाम जीवन सिंह





 क़िताब

गंगा बीती/ज्ञानेन्द्रपति

 

 

ज्ञानेन्द्रपति

   प्रगतिशील—जनवादी काव्यपरम्परा के एक  महत्वपूर्ण और विशिष्ट  रचनाकार  ज्ञानेंद्रपति का आठवाँ कविता संग्रह है - 'गंगा—बीती’। इसका प्रकाशन पिछले साल 2019 में हुआ। इससे पूर्व 2000 ई में भी गंगा और उसके परिवेश से सम्बन्धित ''गंगातट’’ के नाम से लीक से हटकर उनका एक संग्रह प्रकाशित हुआ था। यह सर्वविदित है कि ज्ञानेंद्रपति  पिछली सदी के आठवें दशक से काव्य रचना कर रहे हैं। यहाँ पर हम उनके ''गंगासाहित्य’’ के क्रम में  पिछले दिनों में प्रकाशित नए काव्य संग्रह ''गंगा—बीती’’ की कविताओं पर बात कर रहे हैं। दरअसल गंगा और बनारस ज्ञानेंद्रपति के लिए सिर्फ एक नदी और शहर मात्र नहीं हैं जैसे ''धन्वी काम नदी पुनि गंगा’’ कहने वाले  तुलसी के लिए नहीं थे।  ये इनसे बढ़कर कुछ ऐसी संज्ञाएँ हैं जिनसे जीवन की तरह से कविता और काव्य सृजन के उनके गहरे और अटूट रिश्ते भी हैं। वैसे काशी/बनारस और गंगा से कौन अपरिचित होगा। ये भारत के आम शहरों की तरह नहीं हैं। इनका भारतीय जीवन में  विशेष महत्व रहा है। जहां ये धर्म के केंद्र रहे वहीं ज्ञान के  केंद्र भी और मनुष्य की सहज जिजीविषा तथा उमंगों के साथ मृत्यु का उत्सव-नगर भी। मृत्यु के जितने रूप यहाँ देखे जा सकते हैं , शायद ही किसी और जगह पर इस तरह के अनुभव होते हों। यहाँ हमारा यह कहने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि ज्ञानेन्द्रपति ने  इस जीवन के विभिन्न पहलुओं को एक कलाकार काव्य—सृष्टा की  आधुनिक नज़र से देखा है। यह तो हम जानते ही हैं कि  गंगा  और काशी/बनारस  प्राचीन काल से भारतीय सभ्यता और संस्कृति के ह्रदय एवं केंद्र रहे हैं। आज भी हैं। यहाँ से उस राजनीति  को आसानी से किया जा सकता है जो धर्म के आवरण में संचालित होती हैं और जहां से धार्मिक प्रतीकों का उपयोग करते हुए भोलीभाली धर्मप्राण  जनता को अपने वश में किया जा सकता है। इसके विपरीत उल्लेखनीय है कि यहाँ से बैकल्पिक  जीवनमूल्यों की भी एक सतत धारा प्रवाहित  रही है जो पीछे से  महात्मा बुद्ध के सारनाथ के प्रथमोपदेश  और कबीर तक जाती है। कहने का मतलब यह है कि यह एक ही परम्परा का ह्रदय—स्थल नहीं है। यह परस्पर विरोधी धाराओं की संगम—स्थली है। जब यहाँ ग़ालिब आते हैं तो वे भी गंगा -बनारस के सम्मोहन में बंधे बिना नहीं रहते। बिस्मिल्लाह खां इसे छोड़कर और कहीं जाना पसंद नहीं करते। सच में यह विविधरूपा और विश्वमोहनी  है। यहाँ जीवन के अनेक रूप हैं और उनकी समग्रता भी है। यहाँ जितनी प्रकृति है उतनी ही संस्कृति , जो निरंतर बदलती रही है। यहाँ श्रम है तो उसका अद्भुत शिल्प-कौशल भी है और वह नयी वित्तीय पूंजी भी जो इसे आधुनिक रूप दे रही है तो इसके सहज प्राकृतिक सौन्दर्य को अजगर की तरह लील भी रही है। कहने का मतलब यह है कि यह एक कविता नहीं वरन इन कविताओं के भीतर जीवन की बहुआयामी छवियों को एक जगह पर देखा जा सकता है।

 इनमें भी गंगा की महिमा को कविता के भारतीय आदि सृजन वेदों और वाल्मीकि से लेकर आज तक के कवियों ने बड़े सम्मान और श्रद्धापूर्वक न केवल याद किया है वरन उसे अपनी वाणी में तरह तरह से सृजित भी  किया है। उसके अवतरण और काव्य की हमारे यहाँ एक पूरी और समृद्ध काव्य परम्परा रही है। काशी को लेकर आधुनिक साहित्य भी खूब लिखा गया है। रूद्र काशिकेय का ''बहती गंगा’’ उपन्यास, शिवप्रसाद सिंह की 'नीला चाँद’  और काशीनाथ सिंह के ''काशी का अस्सी’’ की चर्चा भी इससे पहले खूब हो चुकी है’’  लोकतंत्र—गणतंत्र बन जाने के बाद हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने भी अपनी 21 जून 1954 को  लिखी और उनकी मृत्यु के बाद 3 जून 1964 में प्रसारित  वसीयत में खासतौर से गंगा को केंद्र में रखते हुए लिखा था कि  'मरने के बाद मेरी मु ट्ठी भर अस्थियाँ गंगा में डाल दी  जाएँ।’ अपना स्पष्टीकरण देते हुए उन्होंने इसी में आगे लिखा है कि 'इसके पीछे मेरी कोई  धार्मिक भावना नहीं है। मुझे बचपन से गंगा और यमुना से लगाव रहा है।’ वसीयत के केन्द्रीय हिस्से में वे अपने भाव—प्रवाह में लिखते हैं कि ''गंगा तो विशेषकर भारत की नदी है जनता की प्रिय है, जिससे लिपटी हुई हैं भारत की जातीय स्मृतियाँ, उसकी आशाएं और उसके विजय गान, उसकी विजय और पराजय। गंगा तो भारत की प्राचीन सभ्यता का प्रतीक रही है, निशानी रही है, सदा बदलती, सदा बहती, फिर वही गंगा की गंगा, मुझे याद दिलाती है हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियों की और गहरी घाटियों की।’’ इसी परम्परा में ज्ञानेंद्रपति के ''गंगातट’’ और गंगा—बीती ''दोनों को रखा जा सकता है। लेकिन ये दोनों कृतियाँ उस—हमारी गंगा--- काव्य परम्परा  का कोई मध्यकालीन महिमा मंडन एवं भक्ति--आख्यान न होकर वर्तमान की हकीकत का एक नया रचना--प्रस्ताव हैं। कोई शायद ही अंदाजा लगा  पाए  कि गंगा  के माध्यम से भी राजनीतिक कविता लिखी जा सकती है। लेकिन ज्ञानेंद्रपति ने ऐसा किया है। देखने की बात यह भी है कि उनके यहाँ की राजनीति, सिर्फ राजनीतिभर नहीं है उसमें समाज, संस्कृति, धर्म और मानवीय आकांक्षाओं सभी कुछ समाये हुए हैं जो कविताओं से गुजरते हुए धीरे धीरे खुलते जाते हैं।     देखने की बात यह है कि इनमें सिर्फ गंगा नहीं है वरन गंगा का वह तट भी है जो अनेकवर्णी और बहुआयामी मानवीय क्रियाओं से  संघनित रूप से आपूरित है जिसमें जहां एक ओर बहुत कुछ अच्छा है तो ऐतिहासिक तौर पर बहुत कुछ ऐसा भी है जो मनुष्य के गंगा से निर्मल और प्राकृतिक रिश्तों को विकृतियों से कूड़े—करकट की तरह भर रहा है। जहां गंगा से मानव का सहज रिश्ता न बनकर एक उपयोगिता का व्यावसायिक रिश्ता बना दिया गया है। अब बचा है तो उसका रूढि़वाद। गंगातट और गंगा—बीती का कवि इस नए रिश्ते को लेकर बेहद चिंतित है। इसलिए यहाँ गंगा तट और गंगा—बीती का कवि गंगा की महिमा का कोई आख्यान न रचकर उसके लिए चिंतित ज्यादा होता नज़र आता है। इस संग्रह की दूसरी कविता ''गंगा मैया 'में ही वह अपनी इस चिंता को दर्ज करा देता है ------’ लेकिन एक आँख में / आनन्द की जगह विषाद भर आया है ----और उधर पका है चेहरा दुखों से गंगा का / जैसे जैसे उसका वक्ष गंदलाया है --- दुखियारी महतारी हमारी है / गंगा।’’ कहने की जरूरत नहीं कि महतारी गंगा के प्रति कवि की यह चिंता तरह तरह से पूरे संग्रह में व्याप्त है। इस तरह से यह कविताओं का एक ट्रेजिक संग्रह अधिक है इसके बावजूद कि इसमें ज़िन्दगी के वे आख्यान भी हैं जिनके लिए कविता और जीवन दोनों का उपक्रम किया जाता है। कवि ने यहाँ गंगा के सतत और निर्मल प्रवाह को बचाए रखने के लिए अपनी चिंताएं खुले तौर पर व्यक्त की है। इसीलिये उसे गंगा—बीती कहता है। वह यहाँ इसे संवादपरक रूप देने के लिए लोक में प्रचलित गंगू तेली का लोकाख्यान बनाकर प्रस्तुत करता है जो राजा भोज को आपदेखी यानी गंगा—बीती सुना रहा है। यह शैली लोक की है।  सामान्यतया लोक में 'आप बीती’ कही जाती है या फिर 'जग—बीती’। यहाँ कवि 'गंगा---बीती’ कह रहा है। यह भाषा और मुहावरा जिसमें 'बीती’ जैसे  पद का प्रयोग किया गया है, कोई सामान्य पद नहीं है। इसमें किसी पर कैसी बीत रही है जैसे चिंता -भाव को व्यक्त करने के लिए इस पद का प्रयोग किया गया है।

उल्लेखनीय है कि ज्ञानेंद्रपति कवियों में अपनी 'विशिष्ट पदरचना’ के लिए खासतौर से जाने जाते हैं। उनकी भाव—वैचारिकी के साथ कहीं कहीं आलंकारिक होती हुई यह 'विशिष्ट पदरचना’ ही है जो उनकी निजता का एक महत्वपूर्ण एवं उल्लेखनीय पहलू रचती है’ उनके यहाँ काव्यभाषा को लांघकर कोई बातचीत नहीं की जा सकती। जैसे ही हम उनकी कविता के पास जाते हैं, हमारा पहला सामना ही उनकी विशिष्ट पदरचना से होता है। उनके प्रसंग  में हमको रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक महान काव्यशास्त्री वामन की याद आये बिना नहीं रहती, जिन्होंने काव्य रचना के केंद्र में उसकी विशिष्ट पद रचना को ही माना था। भले ही काव्य मीमांसा के लिए आज उनकी बात पूरी तरह से मान्य एवं स्वीकार्य न हो लेकिन उसका काव्य की रचना—प्रक्रिया और उसके शिल्प से गंभीर रिश्ता आज भी है जिसे मुक्तिबोध ने अभिव्यक्ति से सम्बन्धित कविता का  तीसरा क्षण कहा है।  कहना न होगा कि ज्ञानेन्द्रपति की काव्य भाषा का यह विशिष्ट गुण है कि वे भाव और समकालीन विचार को जितना रचते हैं उतना ही अपनी भाषा को भी। वे यथार्थ की गलियों की उपेक्षा नहीं करते वरन  उसे रूखे —सूखेपन से बचाकर  और भाव—रस में भिगोकर अपनी पूरी और बहुआयामी व्यंजनाओं के साथ कविता में लाते हैं और अपने शब्द पर उतनी ही मेहनत करते हैं जितनी कभी मुक्तिबोध किया करते थे। अलबत्ता मुक्तिबोध के लिए हिंदी मातृभाषा नहीं थी, उनको कदाचित इसलिए भी भाषा पर बहुत श्रम करना पड़ता था, इसी वजह से उनकी काव्य भाषा हिंदी के सहज भाषा—प्रवाह से भिन्न दिखाई दे तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए।  लेकिन ज्ञानेंद्रपति के साथ यह बात न होकर भी कविता के अर्थसम्बद्ध सटीक शब्द के लिए उनको भी श्रम करना पड़ता है। कहना न होगा कि शब्द की यथार्थपरक सजीवता और सटीकता पर  ज्ञानेंद्रपति का जितना बल रहता है शायद ही उनके समकालीन किसी कवि का उतना रहता हो। कविता उनके लिए जितना सहज स्फुरण है उससे ज्यादा संवेदनात्मक ज्ञानात्मक्ता की समकालीन रचनात्मक अभिव्यक्ति भी। समकालीनता उसकी रचनात्मकता  की केन्द्रीय शर्त है जिसमें इतिहास और भविष्य दृष्टि भी शामिल रहती है और जिसमें स्थानीयता की भी आधारभूत भूमिका रहती है। 

 कहना न होगा कि ज्ञानेंद्रपति ने अपनी स्थानीय ज़मीन  को जीवन—यात्रा के चालीस साल बाद केवल काव्य रचना के प्रयोजन के लिए बदल लिया। बिहार के मौजूदा झारखंड की अपनी मूल जन्म—स्थानीयता को छोड़कर वे पिछली सदी के नवें दशक के अंत में गंगा तट पर बसे काशी—बनारस नगर में बस गए। इस तरह का यह एक विरल उदाहरण है। ऐसा नहीं है कि लोग विस्थापित नहीं होते। ऐसा खूब होता है। देखा जाय तो आज के अधिकाँश लेखक अपनी मूल जगह से विस्थापित होकर ही अपना लेखन कर रहे हैं। उनकी जन्मभूमि की स्मृतियाँ ही उनके साथ रह गयी हैं। लेकिन इनमें ज्यादातर का विस्थापन व्यावसायिक दवाबों से हुआ है ज्ञानेंद्रपति की तरह स्वचयनित विस्थापन नहीं और वह भी सिर्फ और सिर्फ काव्य सृजन के लिए। यह सचमुच विरल उदाहरण है। यह इस बात का प्रमाण भी है कि वे कविता—कर्म को जीवन के प्राथमिक प्रयोजन की तरह मानते हैं  कोई आनुषांगिक कर्म नहीं।  कितने लोग हैं जिन्होंने इस तरह से अपनी अच्छी—भली 'कमाऊ’ नौकरी को ठोकर मारकर काशीवास सिर्फ इसलिए कर लिया कि वे निश्चिन्त होकर अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा कर सकें? इतनी सार्थकता के साथ जीवन जीने के उदाहरण न के बराबर देखने को मिलते हैं। ऐसा एक जमाने में संत—भक्त कवि तो जरूर किया करते थे। जिनकी जरूरतें बहुत कम हुआ करती थी। उनके समय में वस्तुओं  का इतना आधिक्य भी नहीं होता था जितना आज है। आज तो वस्तु —भोग से बचना और सादगी का वरण करना  किसी त्याग से कम नहीं। आज के ज़माने में तो साहित्य—रचना आनुषांगिक कर्म की तरह है जिसमें लोग दूसरे -दूसरे काम करते हुए साहित्य—रचना भी करते हैं। जिनके पास नौकरी के साथ कमाई के दूसरे साधन भी होते हैं वे अपनी धाक साहित्येतर कारणों से भी जमाते देखे गए हैं। अब साहित्य और जीवन की नैतिकता के रिश्ते को जोड़कर शायद ही देखा जाता हो। लेकिन ज्ञानेंद्रपति सरीखे एक अपवाद रचनाकार की तरह विशेष उल्लेख हो जाते हैं जिन्होंने कविता और जीवन को एकरूप बना दिया। अब पिछले तीस साल से उनकी स्थानीयता का मुख्य आधार काशी-बनारस, गंगा और उसका परिवेश हो गए हैं। अब वे इन्ही की स्थानीयता को जी रहे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि स्थानीय वृक्षों, पहाड़ों, नदियों, मनुष्यों और उनकी भौतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक  प्रवृत्तियों की तरह उनकी कविता भी स्थानीयता की भूमि पर सृजित होती है यद्यपि उसका आकाश वैश्विक होता है। शर्त यह है कि स्थानीय होकर भी उसका स्वभाव स्थानीय संकीर्णताओं और रूढिय़ों से मुक्त हो। होता नहीं है तो होना चाहिए। जो कविता स्थानीयताओं के संकीर्ण चंगुल में फंसी रहती है, वह काव्य रूप में होते हुए भी सच्ची कविता नहीं होती। कविता विश्व मानवता की तलाश करने और मानवता को उसकी संकीर्णताओं से मुक्त करने वाली विधा है। इस वजह से उसकी कला प्रतिरोध के मुहावरे में व्यक्त होती है। और समाज की तरह उसका एक आयाम राजनीति भी होता है। जैसे सागरों —महासागरों के अलग अलग नाम होने पर भी वे सभी एक दूसरे से मिले हुए होते हैं वैसे ही कविता भी होती है। कहना न होगा कि ज्ञानेंद्रपति की इन कविताओं का रिश्ता एक निश्चित स्थान की स्थानीयता से होते हुए भी और इन पर उसकी छाप होते हुए भी ये जो सवाल जिस कोण से उठाती हैं वह इनकी प्रकृति को बेहद संश्लिष्ट बना देता है।

कहने की जरूरत नहीं कि गंगा की आबोहवा से ज्ञानेंद्रपति की 'गंगा तट’ और 'गंगा—बीती’ संग्रहों की कविताओं का सृजन हुआ है। यहाँ पर यह उल्लेख  करना भी जरूरी है कि ऐसा ज्ञानेंद्रपति ने यकायक किसी सनक की तरह से नहीं किया है। यह उनका  सुविचारित निर्णय है। ऐसा उन्होंने सोच—समझकर सिर्फ कवि का जीवन जीने के लिए किया है। पिछले संत कवियों के जीवन के बारे में उन्होंने सुना है, पढ़ा है। नागार्जुन, त्रिलोचन को उन्होंने देखा है, मुक्तिबोध के बारे में भी जाना है जिन्होंने जीवन निर्वाह के लिए छोटी—छोटी नौकरियाँ की कि वे अपनी गृहस्थी के साथ कवि—कर्म भी करते रह सकें। बाबा नागार्जुन तो हमेशा घुमक्कड़ की तरह घूमते ही रहे। लेकिन उनके जीवन की प्राथमिकता उनके लिए साहित्य ही रहा। ज्ञानेंद्रपति ने इसी वजह से विवाह जैसी संस्था तक का परित्याग कर दिया। बनारस में बसने का श्रेय वे त्रिलोचन के संपर्क को देते हैं, जिनसे काशी/ बनारस  में आकर वे मिला करते थे। पटना से आते तो वे धूमिल से मिलने के लिए थे लेकिन हुआ यह कि धूमिल के मार्फ़त उनका  संपर्क त्रिलोचन से हो गया और वह इतना गहरा और गाढा हो गया कि ज्ञानेंद्रपति सदा सदा के लिए बनारस के होकर रह गए। अलबत्ता, त्रिलोचन इस मामले में एक उस्ताद शायर की तरह रहे हैं जिन्होंने कई कवियों को कविता का सही रास्ता दिखलाया है। यही त्रिलोचन हमको ''गंगा—बीती’’ संग्रह की कविताओं में मिलते हैं -   ''सबसे साफ़ : त्रिलोचन’’ के नाम से। इसी से पता चलता है कि इस बनारस नगर से कवि   की गाढ़ी मैत्री कविवर त्रिलोचन की करायी  हुई है। इस कविता में ज्ञानेंद्रपति ने पूरा विवरण देते हुए बतलाया  है....’’ बातों के बीच मैंने कहा / आपको पता  हो कि न हो / बनारस आपका ही दिया हुआ है मुझको / आपकी संगत  में ही संकरी गलियों के गर्भगृह में विराजते आत्मिक खुलेपन का / भेद मिला / आपकी संगत में ही /गंगा की बांक /अंकवारती ममतामयी बांह बनी मुझको / मैं तो आवारागर्द कालेजी छोरा था पटनिया / खाता फिरता यहाँ वहां पटकनिया  /आता था बांके नगर से मिलने  / जहां दूर दूर से आते हैं लोग  / दूर दूर ही रह जाते हैं  /यह तो आप थे कि दोस्ती करायी /और कित्ती गाढ़ी।’’

गंगा के अर्धचन्द्र जैसे बांके तट पर बसे भारत के इस सबसे  प्राचीन नगर काशी  / बनारस से वास्तव में बहुत गाढ़ी दोस्ती कर ली है ज्ञानेंद्रपति ने। इन कविताओं से पता चलता है कि वे यहाँ की आबोहवा में पूरी तरह से रमे हुए हैं। आज उनको यहाँ की जितनी खबर है और इस नगर तथा गंगा के प्रति जितनी  गहरी आसक्ति और अनुरक्ति  है उतनी इस शहर के स्थायी वासियों को भी नहीं होगी, तभी तो वे इन कविताओं में सबसे ज्यादा चिंता गंगा के मरने, काले पड़ते जाने और तरह तरह से रौंदे जाने से बेहद चिंतित हैं। उन्होंने  अपनी पूरी शक्ति और सामथ्र्य से जीने और उसके कोने कोने को  साहित्य में उतार देने वाले इन दो संग्रहों की कविताओं में अपने समय के सम्पूर्ण सफेद, काले, पीले, हरे, जामुनी रंगों के साथ इतिहास और वर्तमान की तरह से अंकित कर दिया है जिसमें भविष्य की आहटों को भी सुना जा सकता है। कबीर, तुलसी,भारतेंदु, प्रेमचन्द, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी आदि अनेक साहित्यकार सदियों से यहाँ रहे। कहना न होगा कि इसकी  गली- गली और घाट—घाट के जीवन और छोटी से छोटी गतिविधि की बुनियादी खबर यहाँ मौजूद है। कहा जा सकता है कि कवि ने यहाँ के चप्पे—चप्पे को छान मारा है। बकौल आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे सूर ने वात्सल्य और श्रृंगार का कोना कोना देख लिया वैसे ही ज्ञानेन्द्रपति ने गंगा स्थित काशी/ बनारस की कोना कोना देख लिया है। इतना ही नहीं उनको यहाँ के श्रमिकों -मल्लाहों -नाविकों बुनकरों और अन्य मेहनतकशों की जितनी चिंता है उससे कम गंगा में पलने वाले कछुओं, मछलियों, डाल्फिनों जैसे जीव—जंतुओं की नहीं है। यही बात तो है जो वे यह भी जानते हैं कि यहाँ गंगा किनारे जो निर्माण किये जा रहे हैं उनके पीछे भी एक तरह का विध्वंस  है। वे कहते हैं... कई दफा / निर्माण के सामने से गुजरना / दरअसल एक विध्वंस  के बीच से गुजरना होता है। ''....विध्वंस अब अक्सर निर्माण की शक्ल में उपस्थित होने लगा है / प्रगति एक शब्द है जिसके मानी प्रभुवर्ग और प्रजाजन के लिए अलग अलग हैं।’’

गंगा—बीती संग्रह की तिरासी कविताओं में अधिकाँश कवितायेँ गंगा की प्रसन्नता और प्रकृति -सौन्दर्य की कवितायेँ न होकर उसकी और उसके परिवेश की उदासी और तरह तरह के तनावों और विसंगतियों और विडम्बनाओं से भरी वर्तमान सभ्यता को संबोधित कवितायें हैं और ये  गंगा और उसके सहज भोले और श्रमशील तटवासियों के तनावों  की ही नहीं वरन पूरे देश और वर्तमान सभ्यता से पैदा हुए तनावों, चिंताओं, उद्विग्नताओं, विकलताओं, आतंरिक तापों से सम्बन्धित उदासियाँ ही हैं। इनकी पूरी व्यंजना उस प्रतिरोध तथा उसके विकल्प की हैं जो गंगा और देश की नदी सभ्यताओं और उससे सम्बन्धित मानवता को बचाना और समृद्ध करना चाहती हैं। जो उसे आज के लोकतांत्रिक समय के अनुरूप जनवादी -प्रगतिशील जीवन मूल्यों के विकल्प की तरफ लाना चाहता है। कहना न होगा कि गंगा की  तरह से देशभर की नदियाँ मर रही हैं और काली पड़ रही हैं। देश की सभी नदियों का हाल गंगा जैसा ही है। इस तरह से इनको भी सभ्यता —समीक्षा की कविता की श्रेणी में ही रखा जा सकता है। जैसे मुक्तिबोध ने अपना पूरा साहित्य अपने समय यानी देश को आज़ादी मिल जाने के उपरान्त उस समय के यथार्थ के अनुरूप सभ्यता—समीक्षा के रूप में सृजित किया, उसी तरह से ज्ञानेन्द्रपति ने भी पिछले तीस वर्षों अर्थात वैश्वीकरण की आंधी चलने और विश्व में व्यक्ति एवं पूंजी का एकछत्र क्रूर, निर्मम एवं जनविरोधी राज्य कायम हो जाने के बाद के यथार्थ के अनुरूप एक नयी तरह की समीक्षा के रूप में ही सृजित किया है। और इसमें भी पिछले छ:—सात सालों से जिस तरह से बनारस को दक्षिणपंथी सत्ता राजनीति के केंद्र में लाकर एक नयी अनुदारवादी संकीर्ण साम्प्रदायिक राजनीति का उभार आया है उस सबको ध्यान में रखकर इन कविताओं को रचा गया है। इसलिए ये इतिहास  के बाहर की कवितायें न होकर उसके अभ्यंतर और अन्तरंग से सम्बद्ध संस्कृति के विध्वंसकारी प्रभाव के विपरीत प्रतिरोध की कवितायें हैं। यहाँ जो विवरण और वृत्तांत आये हैं इनकी व्यंजना है कि चाहे इनके प्राकृतिक सौन्दर्य वाला अतीत न लौटे किन्तु वह गंगा बनी रहे, जिसे गंगा की श्रेणी में रखा जा सके। कैसी विडंबना है कि मौजूदा सभ्यता के पास पहले जैसे कोई अभाव नहीं हैं वरन आज अभूतपूर्व वैज्ञानिक—तकनीकी कौशल, श्रम—शिल्प-सम्पदा और अकूत आवारा पूंजी की ताकत मौजूद है इसके बावजूद गंगा काली पड़ रही है और वह लगातार मरती हुई दिख रही है।  आसपास के धर्म भीरु भोले लोग गंगा के मरने की खबर सुनकर इस मोक्षदायिनी में आख़िरी स्नान करने के लिए आ रहे हैं। इसमें एक कविता है - आ रहे हैं लोग। जिसमें मोक्षदायिनी गंगा में आख़िरी डुबकी लगाने के लिए आसपास के लोगों के आने की खबर को कवि अपनी कविता में कदाचित इसलिए अंकित करता है कि लोगों को गंगा के बचाने की उतनी चिंता नहीं जितनी मोक्ष पाने की है।

 इस संग्रह की पहली कविता  है... नौका विहार, लेकिन यह पन्त जी की नौका विहार जैसी प्रकृति सौन्दर्य की कविता न होकर गंगा में होने वाले उस नौका विहार की कविता है जिसका पानी मनुष्य के कारनामों से निरंतर  काला पड़  रहा है। चांदनी रात में भी जब गंगा चांदनी से नहा जाती है तब वहाँ कवि 'सुरुचि संपन्न सहृदय’ लोगों की  ''भोग भूखी क्रूरता’’ को देखकर विचलित होकर सपाट भाषा में ही कह उठता है .... ''-कि नदी मर रही है और वे बाजरे पर बुढ़वामंगल मना रहे हैं / शहर के कुलीन -शालीन, शहर के सहृदय।’’ यहाँ 'कुलीन’, 'शालीन’ और 'सहृदय’ की जो व्यंजना है वह इन शब्दों का अर्थ ही बदल देती है’’

जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर  चुके हैं कि भारतीय काव्यशास्त्रीय चिन्तन परम्परा में  नवीं शताब्दी में काव्य की सृजन प्रक्रिया का विश्लेषण करने वाले एक नए रीति सिद्धांत को  जन्म देने वाले  आचार्य वामन, ने काव्य रचना की प्रादेशिकता के आधार पर उसे तीन रीतियों में विभाजित करके देखा था -विदर्भ में होने वाली कविता को वैदर्भी, गौड़ प्रदेश की कविता को गौड़ी और पांचाल में होने वाली को पांचाली रीति माना। इस आधार पर उन्होंने इनके काव्य गुणों का विवेचन करते हुए बतलाया कि इन तीनों में सर्वश्रेष्ठ वैदर्भी इसलिए है कि उसमें कविता के सभी दस गुण मिलते हैं जबकि गौडी और पांचाली में सिर्फ दो दो गुण ही मिलते हैं।  यहाँ  यह बतलाने का हमारा उद्देश्य सिर्फ इतना—सा  है कि भारत में  भी प्राचीनकाल से कविता की स्थानीयता --प्रादेशिकता  के आधार पर कविता को देखने और उसके गुणों को जांचने—परखने की एक कसौटी रही है जो कविता की 'विशिष्ट पद—रचना’ को एक विस्तृत आयाम प्रदान करती है। हमने देखा है कि प्रगतिशील—जनवादी  काव्य परम्परा में कई कवियों ने  हिन्दी की आधुनिक कविता को अपनी स्थानीयताओं जैसे   मिथिला, बुंदेलखंड, अवध, ब्रज आदि जनपदों में प्रचलित बोलियों के मुहावरे और जन—जीवन से जोड़ते हुए उसकी भावभूमि का विस्तार किया है। इससे कविता शहरी मध्यवर्ग के चंगुल से निकलकर बहुआयामी हुई। इसी परम्परा में ज्ञानेंद्रपति की  कविता भी आती है। वे गंगातट पर आकर अपनी भावभूमि का विस्तार करते हैं। यहाँ आकर उनके सृजनात्मक व्यक्तित्व के अनेक रूप सामने आते हैं और यहाँ से जीवन को एक नए रूप में पाते और देखते हैं। उनके  'गंगातट ' और ' गंगा—बीती ' जैसे काव्य संग्रहों की कविताओं में स्थान, प्रकृति, इतिहास, धर्म, संस्कृति, मेहनत करते हुए तरह तरह के लोग, अपने श्रम से अपने समय की दुनिया को रचते हुए लोग, धर्मभीरु स्त्री—पुरुष और पाखंडों को अपनी अज्ञानता के कारण सच मानते लोग तथा धर्म को एक व्यवसाय की तरह से उसका दोहन करने वाले लोग, पर्यावरण का संकट , विलासी जीवन की भव्यता और भयंकरता और इन सबके बीच आज की अहमन्य राजनीति को जल- दर्पण के साथ मन -दर्पण के अक्स के रूप में विभिन्न कोणों से देखकर उसे अपनी काव्य भाषा और अनूठे शिल्प में रचा है। यहीं से वे अपने समय की आधुनिकता और उत्तर—आधुनिकता से पैदा हुए सवालों से जूझते हैं। इसके लिए वे अपनी 'विशिष्ट पदरचना’ का आविष्कार करते हैं लेकिन रीति सिद्धांत की वैदर्भी, गौडी और  पांचाली जैसी रीतियों की तरह नहीं। यहाँ वे अपने समय की आधुनिक विशिष्ट पदरचना का प्रयोग अपनी तरह से करते हैं जो उनकी कला का प्रमाण प्रस्तुत करती है। यहाँ कोई अलग अलग प्रादेशिक विशेषताओं को दर्शाने वाली सामूहिक रीति नहीं है किन्तु इस पदरचना में कवि की अपनी निजता से उत्पन्न भावना और विवेक  को देखा और महसूस किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि  इस तरह की स्थान—आधारित प्रादेशिक रीतियों या आज की भाषा में कहें तो शैलियों को पूरी तरह से खारिज करते  हुए वक्रोक्ति सिद्धांत के प्रवर्तक आचार्य कुंतक ने सही कहा था  कि हरेक कवि का स्वभाव अलग अलग होता है इसलिए हरेक की रीति यानी शैली, जिसे उन्होंने मार्ग नाम दिया, कवि स्वभावानुसार अलग अलग होती है और ये उतनी ही होती हैं, जितने कवि होते हैं। उन्होंने  इस मामले में सही और क्रांतिकारी हस्तक्षेप किया था और रीति के स्थान पर मार्ग-निर्धारण करते हुए उनको सुकुमार, विचित्र और मध्यम नाम दिया। इस दृष्टि से देखें तो ज्ञानेंद्रपति का मार्ग या काव्य रीति (शैली) मध्यमार्ग वाली है। उसमें सुकुमार और विचित्र दोनों का अनूठा मेल है। सच तो यह है कि सामान्यतया कविगण इन्ही तीन मार्गों पर चलते हैं। ज्ञानेंद्रपति अपनी कविता में जिस तरह से बिम्बविधायिनी क्रियाशीलता का वृत्तांत रचते हैं उसमें सुकुमारता के साथ वैचित्र्य का मेल भी रहता है। उनका यह वैचित्र्य’ -----सहस्रमुख दीपाधार, नीललोहित, व्योम-क्रीडा, वायूर्मि-चिह्न, संक्रान्तिवेला, संगम—तीरे, सितम्बरांत, शीतारम्भ, जांगलिक मांगलिक,   'सूरजसोखी ' 'पतंगोद्धारक’, एकवस्त्रा ',  जैसे अनेक शब्दों में महसूस किया जा सकता है। वे सचमुच अनूठे शब्द—सृष्टा कवि हैं। वे रूप और कथ्य दोनों स्तरों पर एक अलग तरह के सृष्टा कलाकार हैं।  उल्लेखनीय है कि  इस तरह की पदरचना मुक्तिबोध के यहाँ भी खूब मिलती है। उनके विशिष्ट भाषा-रचाव की दृष्टि से ज्ञानेंद्रपति को मुक्तिबोध से जोड़कर भी देखा  जा सकता है। यह आकस्मिक नहीं है कि वे अपनी कविता में मुक्तिबोध का न केवल नाम लेते हैं वरन उनकी कविताओं के सन्दर्भ देने से भी परहेज़ नहीं करते। ''गंगातट’’ संग्रह में  ज्ञानेंद्रपति की एक कविता है --- ''उस पार के लिए’’, इसमें वे गंगा के इस पार के मणिकर्णिका घाट के एक चबूतरे पर लाये हुए चिता की लकडिय़ों के ढेर को देखकर गंगा के उस पार वाले  तट को देखते हैं जहां एक तरफ पेड़ों की हरियाली है तो साथ में एक नया पंचतारा होटल भी है जो अपनी ऊंचाई और फैलाव से आम जन के लिए सहज प्राप्त आक्सीजन और धूप दोनों को अवरुद्ध करता है , तो उस काले धन के क्रूर वैभव को देखकर कवि को यकायक मुक्तिबोध की कविता की पंक्तियाँ याद हो आती हैं और वह स्वयं कह उठता है... अरे , यह मन / 'कहीं खूंख्वार सिनिक , संशयवादी न हो जाऊं’ कहता हुआ / मन है मुक्तिबोधीय / ब्रह्मराक्षस का सिरफिरा मुंह / साथ साथ मंत्रोच्चार, गालियों की बौछार / मन मुक्तिबोधीय।  (गंगातट, पृष्ठ 12-13 )

इतना ही नहीं इससे आगे भी इस कविता में मुक्तिबोध की पंक्तियों को प्रेरणा की तरह से इस्तेमाल और उद्धृत करने से भी वे नहीं हिचकते। अपनी काव्य परम्परा और उसके भीतर से उसके सही चुनाव के सवाल को भी ज्ञानेंद्रपति इस तरह से हल कर रहे होते हैं।  यह बात यह बतलाती है कि वे निजता के नाम पर आत्ममुग्धता और भावुकता के घेरे में घिरे हुए कवि नहीं हैं। वे जितने आत्मसजग हैं उतने ही वस्तुसजग भी। अपनी काव्य परम्परा के कद्रदान भी। इन दोनों के द्वंद्वात्मक रिश्ते से  वे चीजों को लांघने और छोड़ देने की कला को भी जानते हैं। सवाल उठ सकता है कि इस तरह से ज्ञानेंद्रपति ने खुद के कवि—व्यक्तित्व को गंगा, काशी और बनारस से ही क्यों घेर और बांधकर जकड़ सा लिया है?  लेकिन जब हम उनकी इन कविताओं से गुजरते हैं तो हमारी ऐसी धारणा को धक्का लगता है। दरअसल यह बनारस, गंगा और काशी की भूमि पर लिखी होने पर भी सिर्फ और सिर्फ स्थान एवं दृश्य —केन्द्रित कविताएं  नहीं है। इनमें देश और काल दोनों अपने अटूट रिश्तों के साथ समाए हुए हैं। ये इस समय की आधारभूमि की तरह से काम में आयी हैं। इसीलिये वे गंगा के उस पार बन रहे- ''भव्य भयावह पंचतारा होटल / ऐश्वर्यशालियो की विलास—बुभुक्षा बहुमंजिली एक / काले धन की गोरी बाहों में बाँध आकाश का सारा आक्सीजन / नथुनों के नीचे लाने को उद्यत / जनशत्रु  जीवनशत्रु / दुर्दम दुष्ट /’’ (उस पार के लिए; गंगातट , पृष्ठ-13 )

इस कविता का अंत ज्ञानेंद्रपति, मुक्तिबोध की एक कविता की इन मशहूर पंक्तियों से करते हैं ... यह मन जो गुनगुना ही रहा है सोते—जागते जीवन-मन्त्र मुक्तिबोधीय /कोशिश करो, /कोशिश करो, /जीने की, / जमीन में गड़कर भी। ( गंगातट ,  पृष्ठ—13 )

यहाँ पर मुक्तिबोध का उल्लेख करने का हमारा एक मकसद यह भी है कि कुछ लोगों ने यह उड़ा रखा है कि मुक्तिबोध की कविता की कोई परम्परा उनके आगे नहीं चली। वे यहाँ आकर देख सकते हैं कि मुक्तिबोध इनसे आगे के कवि के यहाँ अपनी कविताओं के साथ मौजूद हैं। मेरा मानना  तो यहाँ तक है कि ज्ञानेंद्रपति ने अपनी काव्यभाषा की विशिष्ट पदरचना की प्रेरणा अपनी काव्य परम्परा के साथ मुक्तिबोध से भी ली है। एक होटल को ''भव्य भयावह’’ ज्ञानेंद्रपति ही कह सकते हैं। इससे पहले मुक्तिबोध भी एक दूसरे के विपरीत परस्पर विरोधी विशेषण लगाकर शब्दार्थ की सम्पूर्णता को रचते हैं। इक्कीसवीं सदी में काली और आवारा पूंजी से खडा हुआ पंचतारा होटल भव्य ही नहीं है भयावह भी है। उच्च और उच्च मध्यवर्ग के लिए वह भव्य हो सकता है अनैतिक और सरप्लस  पूंजी का अबाध उपभोग करने वाले वर्ग के लिए वह भव्य है वहीं मेहनतकश निम्नमध्य और निम्नवर्ग के लिए यह उतना ही भयावह है। इस तरह से द्वंद्वात्मक नज़रिए से ज्ञानेंद्रपति  अपने समय के रिश्तों, स्थितियों और दृश्यों को देखते हैं और अपनी भाषिक कला से उनकी सचाइयों को भी उद्घाटित करते हैं। इस तरह से काली सचाइयों का उदघाटन करना ज्ञानेंद्रपति की इन कविताओं का एक महत्वपूर्ण आयाम है। यहाँ के व्यक्तियों, वस्तुओं, स्थानों, पशु—पक्षियों  और मेहनत पर जीने वाले सामाजिक समूहों पर लिखकर जहां ज्ञानेंद्रपति अपने समय के विभिन्न  पहलुओं और बहुलताओं से पाठक को परिचित कराते हुए उन नए सांस्कृतिक मूल्यों को रचते और स्थापित करते हैं जो आधुनिक—प्रगतिशील जीवन—व्यवस्था के लिए जरूरी होते हैं। इन मूल्यों को उन्होंने अपने सामने रहे कुछ व्यक्तियों में देखा इसलिए उनको भी अपनी कविता का विषय बनाया मसलन गंगा—बीती संग्रह में मल्लू मल्लाह, महात्मा पोई, कवि कौशिक के प्रति, शिला नहीं शैलेन्द्र, चन्द्रबली जी के साथ चाय, चन्द्रबली जी नहीं रहे, लल्लन सिंह, एक अथक यायावर, दीप्तिप्रकाश मोहन्ति एवं सबसे साफ़ त्रिलोचन ऐसी ही कवितायें हैं। देखने की बात यह है कि यहाँ कवि ने चन्द्रबली जी पर दो कवितायें लिखी हैं जो इस बात का सबूत हैं कि चन्द्रबली जी के व्यक्तित्व ने उनको गहरे में प्रभावित किया है। वे लिखते हुए सवाल उठाते हैं... ''उन्हें ताकते हिंदी का हठ  दिखता है / जनपक्षधर जीवट  दिखता है / दिखती है अँधेरे  से जूझती कंदील / तभी मन को चुभती है एक नन्ही -सी कील / हिंदी समाज अपने हितुओं से मुंह फेरे क्यों है / एक उदासीनता उसके जहन को घेरे क्यों है।’’ यहाँ सामाजिक हैसियत से देखा जाय तो ये सभी व्यक्तित्व साधारण कोटि में आते हैं किन्तु कवि ने इनके भीतर की असाधारणता को उद्घाटित करते हुए इनके माध्यम से मानवता के उस विकल्प को प्रस्तुत किया है जो सच में ही इस सभ्यता का विकल्प हो सकता है।

प्रकृति और मनुष्य का रिश्ता आदिकाल  से रहा है इसलिए हमारे आदिकवि के यहाँ कविता और प्रकृति के गहरे रिश्ते उभरते और बनते हुए दिखाई देते हैं। संयोग से  यह ज्ञानेंद्रपति की आत्मसजगता भी है कि वे गंगा के तट पर आकर यहाँ के स्थानीय और देश—विदेशों से आने वाले  लोगों और प्रकृति से प्रभावित उनके रिश्तों को भी सामने लाते हैं। जानने की बात यह है कि यह सब उनके यहाँ यथार्थ—पद्धति से हुआ है। उनके यहाँ गंगा सिर्फ एक पवित्र नदी नहीं है, वह न जाने कब से अपने बदले हुए समयों को अपने भीतर समेटकर इतिहास के न्याय, स्वप्नों और अन्यायों के साथ अनेक तरह के पाखंडों के साक्ष्य लिए हुए आज के कवि की आँखों के सामने है। इसलिए आज की गंगा निरंतर बदलती हुई अनेक इतिहासों और संस्कृतियों को अपने भीतर समेटे हुए आज अपने समय के वर्तमान की अच्छाइयों और विकृतियों की गवाह बनी हुई है। इस तरह के काव्य विषयों के साथ सबसे बड़ा ख़तरा कविता का अतीतगामी हो जाने का रहता है लेकिन ज्ञानेंद्रपति ने यहाँ शायद ही कोई इस तरह की कविता लिखी हो। देशकाल की दृष्टि से गंगा, काशी / बनारस अपने वर्तमान के सवालों से ही यहाँ सामना करते दिखाई देते हैं। संग्रह में आखिर की आठ—दस कवितायेँ तो इस समय के उस राजनीतिक सन्दर्भों वाले बनारस की कवितायेँ हैं जिनमें एक फावड़ा, न नौ में न सौ में, क्यों न, हिंसा के विरुद्ध, उपसंहार, रेत के द्वीप पसर आये हैं,  मालवाहक जलपोत उतरे हैं और गंगा के वक्ष पर प्रमुख हैं। इनमें खासतौर से कवि की व्यंजना की  कला के कौशल और प्रतिरोधी स्वर को देखा जा सकता है। यहाँ चौदह खण्डों वाली एक लम्बी कविता ''पारपुल  की रहगुजर’’ भी विशेष उल्लेखनीय है।

 यह कवि का वैचित्र्य—विधान  ही होता है जिसमें कवि की कल्पना की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। जहां कल्पना है वहाँ थोड़ा—बहुत वैचित्र्य रहता ही है। यही वैचित्र्य तो है जो कविता की भूमिका को सृजनकारी बनाता है। वैचित्र्य का मतलब यहाँ चमत्कार से न होकर साधारण के साथ उस असाधारणता को लाना है, और असाधारणता के साथ साधारणता को, जो कवि की कला और कल्पना की द्योतक होती है। जो पाठक इस तरह की काव्य—भाषा और मुहावरे के अभ्यस्त नहीं हैं उनको सम्प्रेषण में यहाँ कुछ अवरोध महसूस हो सकता है लेकिन थोड़े से अभ्यास के बाद यह बाधा भी दूर हो जाती है। असल बात यह है कि अनुभव, कल्पना और शब्द के वैचित्र्य से बने अर्थ को ज्ञानेंद्रपति कभी दिशाहीन होकर भटकने  नहीं  देते। कवि का मुख्य काम होता है अपनी शैली और कला के माध्यम से अपने समय को व्यापक स्तर पर इस तरह से व्यक्त करना  कि उससे मानवता और न्याय के सवाल खासतौर से केंद्र में बने रहें। कहना न होगा कि यहाँ कवि ने समकालीनता और समकालीन बोध की निर्मिति सीधे सीधे राजनीतिक सवालों से करने के बजाय एक पुरातन शहर और प्रकृति से सम्बद्ध सांस्कृतिक सवालों और परिदृश्यों के मार्फ़त की है जो ज्ञानेंद्रपति ही कर सकते थे।

 

 

जीवन सिंह वरिष्ठ आलोचक हैं।

संपर्क- 1/14 अरावली विहार, काला कुआ, अलवर 301002 राजस्थान, मो. 97 850 10072

 

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