संजय राय की कविताएं

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    जनवरी 2021
श्रेणी संजय राय की कविताएं
संस्करण जनवरी 2021
लेखक का नाम संजय राय





कविता

 

 

'देश’ वेंटिलेटर पर है (कोरोना समय)

 

ये खिले हुए फूल हैं

या मौसम की नसों में बहता रंगीन लहू!

 

चिडिय़ों के कलरव की नशीली धुन है

या हारमोनियम पर

कोई ग़ज़ल गा रहा है भरी दोपहर!

 

ये लोगों का मजबूर हुजूम है

या 'देश’ वेंटिलेटर पर है

इस कोरोना-समय में!

 

अनखाई रोटियाँ चाँद हो गई हैं (कोरोना समय)

 

ट्रेन आती है

और चली जाती है

लेकिन

जैसे धूप से छनकर

धरती पर पसर जाती है साँझ

नींद से छनकर सपना टहल रहा है पटरी पर

सूखी रोटियों का ताज़ा सपना

जब भी उतना ही ताज़ा है

जबकि लोग अंतिम रूप से जा चुके हैं

घर की ओर लौटते अपने साथियों को बिना बताए

अनखाई रोटियाँ चाँद हो गई हैं

पटरी पर पड़े-पड़े

और भूख उनके सपने से निकल कर

अब भी भटक रही है यहाँ-वहाँ

 

ट्रेन आती है

...चली जाती है

व्यवस्था

सफेद पोशाक में

मुँह पर मास्क लगाए बगल में खड़ी है

और चाँद से ख़ून रिस रहा है

 

अजीब बात है

पता ही नहीं चलता कब

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का

बड़े गर्व से दावा करने वाली व्यवस्था के भीतर

भूख को मार-मार कर जीने की

सदियों से चली आ रही तमाम कोशिशें

उसी व्यवस्था और भूख का शिकार होने के लिए

छोड़ दी जाती हैं

 

घर लौटने की उम्मीद (कोरोना समय)

 

रास्ते

जो रफ्तार के लिए बने हैं

वहाँ इन दिनों भूख रेंगती है

 

ट्रकों से भरे सपने

रोड ऐक्सिडेंट में मारे जाते हैं

और

घर लौटने की हवा में तैरती उम्मीद

हवा में तैरती छूट जाती है

असंख्या अनुत्तरित सवालों जैसी ज़िंदगी के जवाब में

हमेशा मौत आती है

 

हाई वे इन दिनों (कोरोना समय)

 

हाई वे पर जगह-जगह

गड्ढों को भरने की कोशिश की गई है

वह किसी गहरे घाव पर बँधी पट्टी जैसी दिखती है

 

ठीक वहीं से इन दिनों खून रिसता है

 

दिल्ली हिंसा: 2020

 

एक बहुत पुराने शहर में

किसी बिल्कुल नई-सी रंजिश की तरह

पलता है एक सपना

और टूट जाता है

 

हवा में टँगी रह जाती है

गोली चलने की आवाज़

 

यूटोपिया

 

दुनिया

या तो युद्ध में लगी है

या युद्ध की तैयारी में

 

शांति

एक हसीन ख़्वाब के अलावा कुछ नहीं

 

आत्महत्या

 

भाषा एक सामाजिक औजार है

सामाजिक हथियार की तरह इस्तेमाल होने की

सभी संभावनाओं से भरपूर

 

इस हथियार से जब कोई क़त्ल होता है

तो उसे तथाकथित सभ्य समाज में

आत्महत्या कहते हैं

 

बारिश में नींद

 

हारमोनियम पर बजती हुई

सरगम की धुन होती है बारिश

और नींद

उस सरगम के समानांतर चलनेवाला

मौखिक रियाज़

 

अन-सोई रातों की बेचैनियाँ

 

बिस्तर पर पड़ी सलवटें

किसी नैसर्गिक लिपि के अक्षर-समूह हैं

जिनमें

अन-सोई रातों की बेचैनियाँ

दर्ज होती हैं

 

आवाज़ की अर्थछवियाँ

 

मैं जो हूँ

उसके लिए खुद ही

किसी उचित-उपयुक्त शब्द की

तलाश में हूँ

न मैं 'शोर’ हूँ, न 'सन्नाटा’

'धमाका’ तो बिल्कुल नहीं

हाँ, 'आवाज़’ बेहतर शब्द हो सकता है मेरे लिए

पर जैसे ही

दौड़ते-हाँफते इस शब्द तक पहुँचता हूँ

ख़याल आता है

कुछ ऐसे भी लोग हैं जो सुन नहीं सकते

ऐसे लोगों को बहरा कहने का चलन है

 

अब ये आप पर है

कि इस शब्द को अभिधा में लेंगे

या फिर लक्षणा-व्यंजना में

 

चाहे जैसे भी लें आप इस शब्द को

एक आवाज़ ज़रूर सुनाई पड़ेगी

 

 

संजय राय हिन्दी अध्यापक हैं। पहल में पहली बार। कांचरापाड़ा, उत्तर चौबीस परगना, पश्चिम बंगाल के निवासी है।

मो. 983468442

 

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