तस्वीरें, स्मृतियाँ और कविताएँ
कविता
दिल्ली नवम्बर : 2017 कभी-कभी तो मेरे मन में यही एक ख़याल डूबा रहता है। हम शहर में रहे। तब भी यह स्मृति का हिस्सा क्यों नहीं हुआ? हो सकता है, यह एक तरह का अतिवाद हो और भावनात्मक रूप से इस इकहरी नज़र का बायस हो कि यहां इस शहर के बिताए दिन यहां बीत गए। जैसे बस उनका बीत जाना ही कोई बहुत बड़ी बात हो। आज इस तरह अपने अंदर झाँकते हुए अपनी कविताओं और तस्वीरों के बहाने कुछ देखना चाहता हूँ। थोड़ा देख पाया, तब कहा जा सकता है, कुछ दिखा। इसमें कोई थोड़ा सा वक्त या समय होगा जो इन दोनों की ओट में छिपा रह गया होगा और उसे देख न पाया। एक क्षण के लिए उसे छिपा नहीं भी मानने का मन हो वह तब भी वह इस तरह उघड़ा भी नहीं था। यह शहर जो बाहर से अपने विस्तार में हम सबको समेटे हुए था। दरअसल, उसमें हम सिर्फ एक कमरे में सिमटे हुए लोग थे। उनमें गनीमत यह कि हमारे पास कहने को एक घर जैसी चीज़ हमेशा हमारे पास रही। सबके शहर की सीमा इसी घर की दीवार से शुरू होकर वापस उसकी दीवारों तक लौट आती है। न जाने कितने साल वहाँ बीत गए। एक कोना भी ऐसा नहीं था, जहां हमने सामान न गाँज रखा हो। बैठने के लिए उस घर में बस बीच की थोड़ी-सी जगह बची रह गई थी। जब हमसे वह कमरा भी छूट रहा था, तब उसकी बड़ी सी खिड़की वहीं रह गयी। जिस दुनिया को उसकी नज़र से देखना शुरू किया था, उसके खो जाने से कुछ तो चिटक गया। जो अब महसूस होता है। जिसे अभी कुछ पंक्ति पहले घर बोल आया हूँ, उसकी जो तस्वीर आप देख रहे हैं, उसे जानबूझकर धुँधला नहीं किया है। वह अपने आप ऐसी हो गयी है। सन कुछ तो यहाँ धुंधला ही रहा ही जैसे। (घर: जनवरी, 2017) इस कमरे की अव्यवस्था को ज़रा ठहर कर देखिये। यशपाल की कहानी पर्दा याद आने लगेगी। जैसे पर्दे के आगे बेतरतीब बर्तन बिखरे पड़े हैं, वैसे ही उसके पीछे भी उन्हें रख दिया गया है। कुकर के ऊपर कुकर यहीं मेरे सामने दिख रहा है। कढ़ाई है। गिलास है। कटोरियाँ हैं। दो टीन के कनस्तर है। एक में आटा है। दूसरे में चावल है। टेलीविज़न चल रहा है। मतलब हम लोग भी उसी क्षण में वहाँ मौजूद हैं। यह हमारा घर है। इसकी दीवारों का अधिकतम उपयोग हो चुका है। घड़ी भी तीन बजकर दस मिनट पर यादों की तरह टंगी हुई है। अलमारियाँ दीवार बनकर दीवारों को छिपा ले गयी हैं। किसी बीत रहे साल का कैलेंडर, अखबार की कोई ज़रुरी लगने वाली कतरन, कुछ जरूरी फोन नंबर और किसी के यहाँ डाली हुई कमेटी की माहवार किश्तों का ब्योरा चिपका हुआ है। इसी कमजोर-सी अलमारी के बगल में एक और अलमारी थी। हम बहुत छोटे थे, तब की एक याद है। पापा ने उस अलमारी की भीतरी दीवार पर बाबा दादी की 'ब्लैक एंड व्हाइट’ फोटो को गोंद में चिपकाया हुआ है। जब-जब वह अलमारी खोलेंगे, उसे वह तस्वीर दिखाई देगी। शायद उनके लिए यह उनके फोन की गैलरी को खोलकर उसे बार-बार देखने जैसा कोई अनुभव लगता होगा। तस्वीरें वहां से न जाने कब निकाल ली गयी थी। उसी अलमारी में एक टीन का बक्सा था। एक अटैची थी। एक पीले रंग का बड़ा सा झोला था। जिसें गर्मियों में गाँव से लौटते वक्त लखनऊ, चारबाग स्टेशन के पास खड़े ठेले वालों से दस-पंद्रह किलो दसेहरी आम खरीदकर पापा उन्हें भर देते थे। अब अगली सुबह 'लखनऊ मेल’ जब नयी दिल्ली स्टेशन पर पहुंचेगी, तब बिना कुली किए यह झोला किस तरह पहाड़ गंज की तरफ खड़े रिक्शे वालों तक पहुंचेगा, यह हम इतने सालों बाद लगभग भूल से गये हैं। गाँव कितने साल पहले एक साथ हम लोग गए होंगे, याद करना पड़ता है। शायद वह रीना की शादी का साल 2010 था। यह नीचे वाली तस्वीर उसके कई साल बाद गाँव की छत से खींची है। आप सबको यह सुंदर ही लग रही होगी। इस सुंदरता के पीछे की उदासी यह अपने आप में छिपा ले गए हैं। जैसे यहां हमारे चेहरे भी छिप से गए हैं। बस दिमाग उस लट्टू की तरह हरदम जलता रता है, जो सामने तार पर है। यह गाँव ही है, जो हमेशा हमारे दिल में दिमाग में इतनी दूर होकर भी एक साथ धड़कता रहा। यहीं वह बात भी आकर अपनी संगति को प्राप्त होती है, जहाँ सहर का जादू हम पर क्यों नहीं चल पाया, इस सवाल का जवाब हम खोज पाते हैं। हम रह तो रहे शहर में थे। पर सिर्फ़ रहने भर से क्या होता है। गर्मी की छुट्टियों के महीनों में जो दुनिया यहाँ आकर हमारे सामने खुलती थी, उसके आगे गोल मार्केट, क्नॉट प्लेस, मंदिर मार्ग कुछ भी नहीं ठहरते थे। यहाँ था ही कौन, जो हमें बता पाता परिवार किसे कहते हैं? अगर साल में मई और जून यह दो महीने न होते तो हम भी इन सालों में जबकि हमारी उम्र भी तीस के पास चली आई है, हम एकल परिवार की विफलताओं को अपने में बुनते और सारी उम्र उसे ढोते, उससे बहुत साल पहले पिता ने हमें गांव से जोड़ दिया। (गाँव: मई 2016) गाँव में सब हैं। यह हम बहुत छुटपन में ही जान गए। खडख़ड़ा चलाने वाले चाचा। बाबा। दादी। संदीप। डायमंड टाकीज़, दरगाह मेला, बरेली-मैलानी पैसेंजर, वैशाली एक्सप्रेस, गोण्डा, रोडवेज बस, जरवल रोड़, घाघरा नदी, रामनगर, बुढवल, चिनहट। सब। पानी बतासे लेकर हरीश जलपान गृह की काँच के गिलास में मिलने वाली स्पेशल रबड़ी लस्सी को हम तभी जान पाये, जब यह गाँव हमारी ज़िंदगी में दाखिल हुआ। शहर की घुटन और इसका छोटापन हममें भी आए होंगे, इससे बचना बहुत मुश्किल है लेकिन उन अनुभवों ने ही हमें थोड़ा संभाला। आदमी को मक्कार नहीं होना चाहिए। शहर जो काइयाँपन देता है, उससे किस तरह हट जाना है, यह व्यक्ति के संबंधों का ताप उसे बताता है। जो वही रहते हुए गिने चुने लोगों से मिलेगा, उसका दिल उन छोटे-छोटे कमरों की तरह ही सिकुड़ जाता है। हम भी अपनी हरकतों में कभी छोटे रह गए होंगे। पर ठीक बात यह रही, हम उन अवसरों को जान पाये। यह सारी बातें एक अतीत जीवी का आत्मप्रलाप ज़रूर लग सकता है, जिसके यहां सब कुछ बचा रहा। इस सबके बीच यही सोच रहा हूँ, उस क्षण तक कैसे आऊँ, जब यह तिलिस्म टूट जाता है। जब यह हमें भावुक बनाकर हमारे लिए उन दिनों को पीछे छोड़कर समय आगे बढ़ गया। हम पिछड़ गए। तब भी यह तो ध्यान में रहता ही है, सब चीज़ें जैसी भी घटित हुई, उनमें बहुत कुछ यहाँ कहना मेरे लिए संभव भी नहीं है। इसलिए भी अपनी दो कविताओं के साथ आपको छोड़े जा रहा हूँ। यह नीचे दी गयी कविताएं कहीं छपी नहीं हैं। पहली बार यह कहीं बाहर आ रही हैं। इनमें कुछ तो संताप है। कुछ छूट जाने और टूट जाने के बीच की मनोदशा है। मेरे लिए बहुत मुश्किल है, इस गाँव की स्मृति से बाहर आ पाना। (गाँव: 2016) इस सबमें जिन्हें भी अपनी कविताएं कह रहा हूँ, वह मेरे भीतर से बाहर और बाहर से भीतर आने की प्रक्रिया का विस्तार है। जो कोई भी कुछ कहना चाहता होगा या कह पाता होगा, उसके पास रचने के क्रम में यह ऐसे ही घटित होगा। विषय भी यहीं इसी दुनिया में बिखरे हुए हैं। किस पर लिखना चाहेंगे? धूप, बारिश, तिलचिट्टे, मेज, कुर्सी, दरवाजा, प्रेम, ईष्र्या, कुंठा या आसमान, बादल, दलदल? किस पर? मेरे लिए जो मेरे विषय हुए वह शहर, गाँव और परिवार से शुरू हुए। मुझे कभी समझ नहीं आया, इससे बेहतर शुरुवात मेरे लिए और क्या हो सकती थी। सारी पंक्तियों को इस कमरे में और इस कमरे में भी कुछ इस तरह लाया कि कह पाऊँ, मुझे क्या महसूस होता है। यहाँ मेरा होना आत्मकेंद्रित लग सकता है पर यह ऐसा है नहीं। जिस तरह यह समय एक व्यक्ति को अलग-थलग कर सबसे कमजोर इकाई मानता है, उसमें यह कविताएं एक कमजोर वक़्तव्य तो नहीं पर इस समय का स्पंदन ज़रूर हैं। हम जान ही नहीं पाते है, सामने वाला व्यक्ति कैसा महसूस कर रहा है। मैं बस यही सामने वाला व्यक्ति बनने के लिए आपके सामन आ गया हूँ। हो सकता है, यह आपके लिए कभी किसी तरह की कोई असुविधा बन जाये, तब भी बिना दिखे कुछ-कुछ कहना चाहता हूँ। असुविधा से सब बचना चाहते हैं, आप भी बच सकते हैं। विकल्प आपका अपना होगा। उस व$क्त जब आप मुझे नहीं पढ़ रहे होंगे, तब भी मैं, आने वाले कई सालों तक लगातार कहीं किसी कमरे में बैठा कुछ लिखने की कोशिश कर रहा होऊंगा। अंतिम बात यही कहना चाहूँगा के इन कविताओं को उस तीसरे क्षण वाले कवि और लेखक से बचाकर लिखने और उसकी छाया से दूर लाने के सिलसिले में इतना ज़्यादा व$क्त बीत जाएगा, यह मुझे भी नहीं पता था। हो सकता है, इन पंक्तियों से गुज़रते व$क्त एक पल के लिए आपको भी लगे, यह शहर किस तरह आपको कर गया, तो ज़रूर बताइएगा। लिख न पायें, तब भी बैठ जाइए। देखिये, वहाँ से चली आई कविता यह भी है:
पिता पर कुछ पंक्तियाँ
ऐसा भी नहीं है, कविताओं में पिता उपेक्षा के शिकार हैं। लेकिन उन पर कुछ लिखना बहुत मुश्किल काम में जुट जाना है।
कभी तो लगता, जितना हम अपने बचपन में माँ के करीब रहे, उतनी निकटता आने वाले निकट जीवन में पिता से कभी हो नहीं पाएगी।
पर ऐसा नहीं है। हम एक समय में दोनों के साथ उसी अनुपात में रहे। कई बातें दोनों से एक साथ सीखते रहे।
जैसे पिता ने हमारी अम्मा पर हाथ नहीं उठाया, हम कभी उनसे बेतरह किसी औरत को पीटना नहीं सीख पाये।
उनसे हमने अम्मा के बीमार हो जाने पर घर में झाड़ू लगाना, झाड़ू लगाकर पोंछा और वक्त निकालकर बर्तन धोना सीखा।
थोड़े बड़े हुए, तब उन्हें देख साबुन लगाकर हमें अपने कपड़े धोना आया।
वह गालियाँ नहीं देते थे, इसलिए हम उनसे गालियाँ भी नहीं सीख पाये। हमने उनसे हर रोज़ एक पन्ना सुलेख लिखना सीखा। किताबों को पलटते हुए किताब पर थूक न लगाना सीखा। पिता से ही आड़ा वक्त आने पर पैसे को पानी समझा। पैसा अभी मेरे पास नहीं है, पर ज़रूरत पडऩे पर वह कैसे किसी के काम आ सकता है, यह सीखा।
उनके भीतर हमने हर साल गाँव जाते हुए परिवार के पास रहने की उनकी इच्छा देखी। देखा, कैसे सब लोगों की ज़िंदगी में शामिल हुआ जाता है। उन्हीं से हमने यह याद को तस्वीर बनाने का हुनर सीखा।
उनसे हमने बिना शहरी हुए इस शहर में कैसे रहा जा सकता है, यह सीखा। कभी तो लगता है, पिता हमारे लिए हमारे व्यवहार की आचार संहिता साबित हुए। हम उनकी छाया में किसी पौधे की तरह रहे, उसी में थोड़े दब्बू और डरपोक बनते रहे।
हममें कभी किसी भी काम को अपनी ज़िम्मेदारी पर कर लेने का साहस और सहज बुद्धि दोनों ही विकसित नहीं हो पायी। हम हमेशा अपने पिता पर आश्रित बने रहे। जैसा उन्होंने कहा, हमने हमेशा वैसा किया।
तुमसे शादी करने के लिए भी उन्होंने कहा। उन्होंने कहा - मना मत करना।
तुमसे शादी के लिए मैंने कभी मना नहीं किया। बस उन दिनों दोस्तों के सामने बहाना बनाया, इस शादी के बहाने से एक और पीढ़ी गाँव से जुड़ी रहेगी।
पिता भी यही चाहते होंगे, यही सोच इस बात को अपनी ओट बनाया।
भोपाल-1
शायद राजेश जोशी की कोई कविता थी, जिसमें यह शहर किसी स्मृति की तरह मेरे अन्दर उतरने लगता है। यह उदास, धूल भरा शहर कभी देखा नहीं था। बस उनकी एक कविता में पढ़ा था।
कौन सी कविता थी, कह नहीं सकता। शायद वह 'सन् पिचासी का बसंत’ नाम से कोई कविता रही होगी। यह मेरा साल है। किताब के पन्ने पलटते हुए देख, सहसा रुक गया। रुक गया कि किसी ने उस पर कविता लिखी है।
कविता से गुज़रकर लगा, क्यों उस सुन्दर सी कल्पना के नाम में खोता हुआ उसे पढ़ गया? नहीं पढऩी थी यह कविता। यह कविता कविता नहीं मेरे साथ हुआ अब तक का सबसे बड़ा छल था। ऐसा धोखा, जिसने मेरे मन में बन रही उन कल्पनाओं को झुलसा दिया था।
मैं भी इस शहर पर अन्दर कई सारी विधाओं में लिखने की इच्छा लिए चल रहा हूँ, पर मेरी पंक्तियों में वह कौन सी लय है, जो चाह कर भी उग नहीं पायी? समझ नहीं पाया।
वहीं बड़े ताल के पास चाल्र्स कोरिया का भारत भवन ललित कला और संस्कृति का अध्ययन केंद्र बनकर रह गया। वह कुछ और भी हो सकता था। विनोद कुमार शुक्ल वहाँ कई और कविताएं लिख सकते थे। शायद उन्होंने लिखी भी हों। शायद अभी तक किसी को दिखाई न हों।
कभी लगता, भोपाल मेरे साथ, मेरे अन्दर बड़ा हो रहा है। आज उसे लिख कर अपने हिस्से का थोड़ा भोपाल बना लेने का मन हुआ।
वह उदासी थोड़ी-थोड़ी हम सबमें उतर जाए, यही सोचता हुआ, यह लिख रहा हूँ।
वरना एक शहर को जाने बिना वह हमारे अन्दर वह कैसे दाखिल होगा, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता। आप भी अपनी कल्पनाओं में किसी शहर को देखिये, क्या उसकी छाया में भोपाल का उदास मौसम दिख रहा है?
नहीं दिख रहा होगा।
यह सन् चौरासी के बाद का भोपाल है। शायद अब आपको थोड़ा बहुत दिखने लगा हो। वह उदासी आपमें भी थोड़ी थोड़ी उतरने लगे।
भोपाल-2
मेरे पैदा होने से लगभग महीने भर पहले भोपाल घट चुका था।
दो दिसंबर की रात से नौ जनवरी के बीच कितने दिन हुए, अगर उंगली पर गिनने लग जाऊँ, तब यह फ़ासला कुछ दिनों का रह जाएगा।
इस गैर ज़रूरी गिनती के उलट, यहाँ ज़रूरी बात है, वह दुनिया जो उन्होंने नहीं देखी, उसे देख रहा हूँ। खुरदरी, मटमैली, धूसर सी होती गयी दुनिया।
कभी जानने का मन होता है, वह कौन थे, जो इस समय से काफ़ी पहले अनुपस्थित हो गए? शायद उनमें से किसी को जान पाता। कोई चेहरा पहचान में आ पाता।
वह तस्वीरें मैंने भी देखी हैं, जिनमें जीवन नहीं है। भुरभुरी मिट्टी में हाथ भर जगह निकालने के बाद मृत शरीर को बीज की तरह रोपना मैंने भी देखा है। कुछ उनमें अजन्मे भ्रूण, कुछ नवजात शिशु थे। कुछ बहुत छोटी आयु में दम घुटने से मर गए।
वह अगर आज होते, तो मेरी उम्र के होते। हमउम्र होने के बावजूद हम कभी मिल पाते, इसकी संभावना बहुत कम थी। इस कम संभावना में भी हममें एक बात समान होती, वह सब मेरी ही तरह कुछ अधबुने सपनों में खोये-खोये से रहते।
उनमें खोने से ठीक हुआ, वह सपनों के इस हत्यारे समय में बहुत पहले से गायब हैं।
विदा गीत: चाचा के लिए
चाचा, चाची के साथ, 13 मई-2016, गाँव कोई खुद तय नहीं करता, जो लोग पीछे बच जाते हैं, वह तय करते हैं, किसी का आख़िरी दिन। चाचा भी तय कर नहीं पाये होंगे अपना आखिरी दिन।
यही नहीं, वह अपनी जिंदगी में बहुत सी बातें तय नहीं कर पाये।
सबसे बड़ा सवाल तो यही था, जब शादी के बाद चाची आई होंगी, तब उन्होंने किन कामों ख़ुद व्यस्त कर लिया होगा?
कोई उन्हें गैरज़रूरी, अनुपयोगी कहे या सरतरिहा कहे, वह इन्हीं के बीच झूलते रहे होंगे।
ऐसा नहीं है, वह कोई काम करते ही नहीं थे। कभी चाचा मोहर्रम से लेकर चालीसवें तक बाबा के कोचवान बन जाते। गाँव की उन कच्ची-पक्की सड़कों पर खडख़ड़ा हाँकते हुए वह ख़ुद को एक उपयोगी व्यक्ति समझ लिया करते, यही उनकी गलती थी।
वह हमेशा अतिरिक्त थे। चार भाइयों में सबसे छोटे। करने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। घर में खेत होते तो बैल की तरह जुते रहते। कितने सारे कामों के लिए मिट्टी बन जाते चाचा सबकी नज़र में फ़ालतू होने से बचे रहना चाहते थे, यह हमें बहुत बाद में समझ आया।
शादी के बाद उनकी हैसियत धीरे-धीरे बेटे से पति और बाद में पिता की हो गयी।
जो समझते हैं, संयुक्त परिवार स्वर्ग सरीखे हैं, उन्हें हमारी छोटकी चाची से मिलना चाहिए।
बाबा किसी मेले से लौटने के बाद अपनी पतोहियों को पाँच-पाँच रुपये का नोट दिया करते। यही उनकी इच्छाओं और भविष्य के लिए जमा पूँजी होती।
चाचा बिना कमाते हुए कहाँ से पैसा ला पाते होंगे, इसे किसी ने समझना नहीं चाहा। दादी जब तक रही होंगी, वह चूड़ी, साड़ी, पायल, नथुनी, बिंदी-टिकुली सब बराबर बाँटती आई होंगी। उनके जाने के बाद, देवरानी-जेठानी में यह बँटवारा कैसे होता होगा? क्या बाबा ने कभी इसमें ख़ुद उलझना चाहा होगा?
(दो)
तब एक वक़्त ऐसा आया, जब चाचा उकता गए।
मर्फी का टेप रिकॉर्डर सुनना छोड़ दिया। जो अताउल्ला खान की कैसिट दिल्ली से पापा ने लाकर दी थे, वह पता नहीं कहाँ खो गयी। चाचा अनमने होकर इतवार चार बजे आने वाली फ़िल्में छोड़ दिया करते।
'हरि टॉकीज’ तब तक बंद हो चुका था। खडख़ड़ा चलाना छूट चुका था। तब तक दरगाह वाला रेलवे का पुल कभी बनेगा, किसी ने सोचा भी नहीं होगा।
पहले उसी घर में दो चूल्हे हुए। तब भी किसी न किसी बात पर देवरानी-जेठानी में ठनी रहती। एक दिन आया, चाचा अपनी तीन लड़की और एक लड़के की अम्मा को लेकर घर से अलग हो गए।
घोड़ी का बाद में क्या हुआ, याद नहीं आता। शायद उसके मर जाने के बाद, ज़मीन में गड्ढा खोदकर उसे दफ़ना दिया होगा।
(तीन)
चिचड़ी चौराहे पर भी आकर चाचा कोई बहुत बड़ी किराने की दुकानें नहीं खोल पाये। एक छोटी सी ढाबली- में पान, बीड़ी, गुटखा, नमकीन लेकर बैठ गए। सुबह से लेकर देर रात तक उसी में जमे रहते।
शायद आप सोच रहे होंगे, ढाबली में बैठने की कोई ठीक-ठाक जगह होगी। बिलकुल नहीं। यह एक लकड़ी का बक्सा है, जो अपने चार पैरों पर खड़ा है। इसमें एक वक्त में एक ही आदमी बैठ सकता है। आप इसमें बैठे हुए हाथ पैर नहीं फैला सकते। खड़े होने की कोशिश करना बेकार है। चाचा ने इसी ढाबली में पिछले फागुन तक न जाने कितने साल बिता दिये। कितनी सर्दियाँ ठिठुरती हुई चली गईं। कितनी बरसातों में भीगते हुए वहाँ बैठे रहे। उनके वहाँ बैठने से घर चलने लायक हालत में आ गया था। घर सच में चल रहा था।
काश, इस सब में पिछला साल न आया होता, तो हमारे चाचा आज भी होते।
(चार)
मुझे इसे सूचना की तरह नहीं कहना था, पर क्या करूँ। कुछ समझ नहीं आ रहा। इसमें जो सपाटबयानी है, जो कुछ तिरछा नहीं देख पा रहा हूँ, वह सब मेरा है। मैं उसे इसी तरह देखता, जानता, समझता आया हूँ। कैसे बताऊँ, पार साल चाचा ने बहराइच में अपना बवासीर का ऑपरेशन करवा लिया। जबकि उन्हें बवासीर नहीं था।
उन्हें ऐसा डॉक्टर मिला, जिसे वह जो-जो कहते गए, वह वैसा मानता गया। अच्छा, बवासीर है। दिन में बीस-बीस बार जाते हो। बादी है। ख़ून निकलता है। पैसे जमा करवा कर उसने एक दिन बाद का व$क्त दिया और बदले में उनकी जिंदगी ले ली।
(पाँच)
ऑपरेशन के तीन महीने बाद पता चला, उन्हें मलाशय का कैंसर था।
यह बात हममें से किसी से उन्हें नहीं बताई। वह हमारे हाथों से रेत की तरह फिसलते। हम कुछ कर नहीं पाये। यह बीमारी की शक्ल में शरीर के लिए दीमक है। या शायद दीमक से भी भयानक। खोखला होते हुए हमने चाचा को देखा है। कैसे सारा ख़ून सूख गया। ख़ून न रहने पर सारी त्वचा कोयले की तरह काली पड़ती गयी।
ताकत बिलकुल नहीं बची। जो खाते उसके तुरंत बाद उन्हें टट्टी के लिए जाना पड़ता। आप किसी के लिए दिन में कितनी बार मैदान जाने की कल्पना कर सकते हैं? हमने चाचा को अपने सामने इस कल्पना से कल्पनातीत होते हुए देखा है। अभी हाथ मटियाते नहीं थे वापस भाग कर पीछे चले जाते। कभी-कभी तो दिन में तीन-तीन सौ बार।
यह गिनती कभी कुछ कम, कभी कुछ ज्यादा होती रही। इसी में कुछ भी खाने की उनकी इच्छा ख़त्म हो गयी। रही भी होगी, तब भी उसका होना अब किसी काम का नहीं था।
वह दिन में चार बार सिर्फ़ दवाइयाँ खाते, इसके अलावे कुछ भी पचा लेने की उनकी ताकत बची नहीं थी।
देह सूखकर बदतर होती गयी। टाँगों ने ज़ोर जाँगर बिलकुल नहीं बचा। कोई बिस्तर से सहारा देकर न उठाए तो ख़ुद उठ भी नहीं पाते।
एक शाम ऐसी भी आई, जब वह ठंड लगने पर ख़ुद रज़ाई नहीं ओढ़ पाये। तब उनके लिए एक हल्का सा कंबल नेपालगंज से लाये। सारा दिन उसी को ओढ़े रहते। उन्हें पता चल गया, वह अब कभी ठीक नहीं हो पाएंगे। उनकी बातों से नियामत अली से लेकर पता नहीं किस-किस के नाम आते रहे। जो लखनऊ गए और कभी वहाँ से ज़िंदा बचकर वापस नहीं लौट सके।
वह जानते थे, वह मर जाएंगे। फरवरी आते-आते वह बच नहीं सके। एक दिन वह मर गए।
(छह)
चाची हमारे चाचा के चले जाने के अब हर रात सिर्फ़ बुदबुदा रही होंगी। कुछ भी समझ नहीं पा रही होंगी। जो नवा पिछले साल मनाया, उसके बाद भी नहीं बचे।
ख़ुद मेरी भाषा में वह शब्द नहीं हैं, जो उनकी अनुपस्थिति को कह सकें। सिर्फ़ कुछ दृश्य हैं, जो कभी उनके बीमारी के दिनों को याद करते हुए आँखों में झिलमिला जाते हैं। लेकिन अभी जिस दिन की बात कर रहा हूँ, यह फरवरी का दिन हमारे वापस दिल्ली लौट आने वाला दिन है। चाचा घर के बाहर मुहारे, चारपाई पर लेटे हुए हैं। उन्हें पता है, हम आज जा रहे हैं। क्या देखता हूं, वह हमें एकटक देखते रहे फ़िर अचानक दूसरी तरफ़ पलट गए।
बड़ी देर तक उनकी तरफ़ देखता रहा। लगा, अभी वापस मुड़कर इधर देखेंगे। पर नहीं। वह मुड़कर एक बार भी नहीं देखते।
हम अभी भी किसी खाली टेम्पो की राह देख रहे हैं। हमारी आवाजें उन तक पहुँच रही है। तब वह भी बिलकुल नहीं पलटते
शायद अपने अंदर हमें आखिरी बार देख लेने की इच्छा पूरी हो जाने के बाद वह वहीं चारपाई पर सकुचाये सिकुड़े से पड़े हुए कुछ सोच रहे हैं। कुछ याद आ गया होगा। उसे समेटने में इधर देखने का वक्त चला गया होगा। इसे ही चाचा की आखिरी स्मृति कह रहा हूँ। वह शायद अंदर से जान रहे होंगे, हमसे कभी वापस मिल नहीं पाएंगे। इस वापस न मिल पाने में ही उनकी सारी ज़िंदगी सिमट कर रह गयी होगी।
उनका तब दो तह में दिया हुआ सौ का नोट, पता नहीं मुझसे कहाँ छूट गया। उसे किसी तरह जेब में रखते हुए उनका आख़िरी स्पर्श भी कहीं उस हवा में घुला रह गया होगा।
लेकिन इस दृश्य से बहुत पहले जिस खालीपन, रिक्तता, दुख की कल्पना में हम जी रहे थे, वह सब सामने घटित हो चुका था। गोण्डा से मैलानी पैसेंजर के छूटने के तीन घंटे बाद जो हमें अपने खडख़ड़े के साथ बहराइच में मिलते थे, यह हमारे वह वाले चाचा बिलकुल भी नहीं थे।
इनकी कविताओं का बीज तत्व है शहरों में हमारा रहना और गाँवों की स्मृति। पहल में दूसरी बार। संपर्क- मो. 9971617509, नई दिल्ली
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