नवल शुक्ल की कविताएं

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    जनवरी 2021
श्रेणी नवल शुक्ल की कविताएं
संस्करण जनवरी 2021
लेखक का नाम नवल शुक्ल





कविता

 

 

 

यह युद्ध का समय है

 

जो कमजोर हैं, उन्हों कमजोरी के कारण अलग करो

जो बीमार हैं, उन्हें बीमारी के कारण

जो बूढ़े हैं, उन्हें बुढ़ापे के कारण अलग करो

जो लाचार हैं, उन्हें लाचारी के कारण अलग करो

धर्म भी हो सकता है अलगाव का कारण

लेकिन जो भूखे हैं, लाचार हैं

उन्हें गरीबी और लाचारी के कारण अलग करो।

 

जो जिन्दा रहने लायक हैं

उन्हें जिन्दा रहने के लिए छोड़ दो

जो झेल सकते हैं मृत्यु

उन्हें मृत्यु का सामना करने दो

जो जिन्दा रहना झेल सकता है

उधर पलकें न झपकाओ।

 

तुम चयन कर सकते हो

तुम चयन करो

दो, फिर दस, फिर सौ में से एक का चयन करो

बाकी के ऑक्सीजन सिलेण्डर हटाओ

जरूरतों को भूल जाओ।

 

यह समय युद्ध से कम नहीं है

जनता को ही लडऩा है यह युद्ध

हम अवश्य जीत हासिल करेंगे

याद रखो जनता हमारे साथ है।

 

सिर्फ सांस नहीं है समस्या

 

उनके चेहरे पर उथल पुथल अधिक है

जैसे लगातार कुछ टूटता जा रहा है

जैसे उसका देश छूटता जा रहा है।

 

वे बीमार हैं पर व्याकुल किन्हीं अन्य कारणों से हैं

उनके चेहरे पर बची हुई है आशा

पर रखरखाव जो ढहता, बदलता जा रहा है

उसके कारण डर बढ़ता जा रहा है

निर्णायक दृढ़ता उनके जबड़े क पास जितनी साफ है

उनकी आंखों में उतनी ही विनम्रता है

वे समय में खोते हुए, भुला दिये जाने जैसे

टूटते बिखरते नागरिक के पायदान पर हैं।

 

मैं उन्हें बीमार की तरह देखता हूँ

वे कुचले हुए समय की तरह दिखते हैं

उन्हें ढाढस बंधाता कहता हूँ

आप इस समय बीमार हैं और कमजोर भी

यह आपको देखते ही कहा जा सकता है

आप निश्चित ही मेहनती और ईमानदार रहे होंगे

आपको देखकर न जाने क्यों

भरोसा हो रहा है और खो रहा है

पर आप में जो प्यार है, उसे जीवित रहना चाहिए

संघर्ष भी, जिसे आपने अकेले के लिए नहीं किया होगा

वह संघर्ष भी जीवित रहना चाहिए।

सिर्फ साँस नहीं है समस्या

ठीक से साँस नहीं ले पाना इस समय की समस्या है

गरीबी एक कमजोर गला है

और अन्याय सबसे घातक शस्त्र

प्रत्येक जीवन को बचाने से बचती व्यवस्था में

आप मर भी सकते हैं और बच भी सकते हैं

आपको साँस की जरूरत है

कतार में इंतजार की नहीं

यकीन मानिए आप बेहतर इंसान हैं

मैं डाक्टर हूँ फिर भी

आप बेहतर निर्णय ले सकते हैं।

 

वे हमें ध्यान से देखते हैं

जैसे पिता, बच्चे को आखिरी समय में निहारता है

मन ही मन हिसाब लगाते हैं

बची हुई साँसों या बचे हुए पैसों का

फिर शुक्रिया कहते हैं

शुक्रिया डाक्टर शुक्रिया

मुझे इंतजार करना होगा

आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा

आपके होने का शुक्रिया।

 

वे थोड़ा रुकते हैं

फिर ठहर ठहर कर कहते हैं

आपको सुनकर संतोष से भर गया हूँ

जिसे आखिरी शुक्रिया के लिए अपने आप रखता हूँ

अब मेरे पास सिर्फ यह देह है

खर्च करने के लिए या करवट लेने के लिए

मुझे करवट लेने में मदद करो

बहुत-बहुत शुक्रिया।

 

पहला संदेश

 

जितना किया जा सकता है

वह किया जा रहा है

कोई क्या कर सकता है

हमारे हाथ में कुछ नहीं है।

 

यह सुनते ही हमारे देखते देखते

सब कुछ दूर होता जा रहा था

बदलता जा रहा था सब कुछ

भौतिक दूरी जो सामयिक प्रक्रिया थी

वह सामाजिक दूरी के मूल्य में स्थापित हो रही थी।

 

वह आवाज में एक जादू था, जो छा रहा था

हमारी चेतना विरल हो रही थी

हम सुन रहे थे और सन्न थे

हमारे हाथ में कुछ नहीं था।

 

तब एक औरत नागपुर से दिन रात पैदल चलते हुए

सिवनी के अपने गाँव जा रही थी

एक युवा अपनी पतनी को काँधे पर टाँगे

पैदल पैदल अहमदाबाद जा रहा था

असम से निकले चाय बागान के मजदूर

मालगाड़ी के डिब्बों में जगदलपुर पहुँच रहे थे

दिल्ली से पैदल निकला युवा आगरा की सड़कों पर

दम तोड़ रहा थाष

 

ऐसे सभी लोग समाचार पत्रों में थे

बाकी लोग पहले संदेस से आशंकित थे

और सांसत में थे।

 

वे अविश्वास और अनिश्चय में थे, आहत थे

चुपचाप थे, भीड़ में थे और भयभीत थे

उनमें जज्बा था और पैरों में ताकत थी

उनके कंधों पर पूरा जीवन था

उनके हाथों में कुछ नहीं था, इसका उन्हें गम था

पर एक दूसरे को सम्हाले हुए उनके हाथ सलामत थे।

 

हममें वह क्या बचा हुआ है

 

हममें वह क्या बचा हुआ है जो हम बचे हुए हैं

और इस सम्प्रभु देश के अस्सी प्रतिशत लोग हैं

 

हमारे लिए यह सम्प्रभु क्या है

जब हमारा कोई रक्षक नहीं है

जब हम अपनी ही हड्डियों के भरोसे चलते हैं

और कहीं रुकने की जगह नहीं पाते हैं

 

हम मालगाडिय़ों के डिब्बों

ट्रक के कंटेनरों और बियाबान रास्तों पर

अपने घरों को निकलते हैं

तो हममें ऐसा क्या है कि

हमारे घर पहुँचने के रास्ते बंद मिलते हैं

 

लोकतंत्र क्या है और क्या हैं इंतजाम

संविधान, न्याय, प्रशासन और पुलिस किस लिे हैं

किसके इंतजाम के लिए हैं।

 

हम जो अलग-अलग रास्तों पर

अलग-अलग समूहों में चीटियों की तरह चल रहे हैं

बच्चों को काँख में दबाये

अपना बोझ सिर पर लादे

यह दृश्य क्या है

यह सिर्फ भूख का दृश्य है या भयानक का

यह अपराध है, जघन्य है या सिर्फ विस्थापन है।

 

क्या भरोसे के टूटने, आश्रय के छूटने

संभव मृत्यु या असंभव जीवन के लिए

लौटते प्राणियों का दृश्य इसे कह सकते हैं

यदि यह दृश्य है तो प्राणी कहाँ हैं।

 

क्या इसे विफलताओं का कारुणिक दृश्य कहना चाहिए

या सम्प्रभू देश में निर्मित दु:खों का दृश्य।

 

अभी नहीं पता कि हममें क्या बचा है

सामने देखता हँू तो रास्ते बचे दिखते हैं

ऊपर देखता हूँ तो अनन्त तारे हैं, टिमटिमा रहे हैं।

 

हम फिर आयेंगे

 

हम फिर आयेंगे

हम दूध नहीं हैं जो फट जायेंगे

हम मरेंगे तो भी बचेंगे

हम मार दिये जाने के प्रतिकार में

हर जगह, हर वक़्त आयेंगे।

 

हमें जनमों से याद हैं आने जाने के रास्ते

याद है कि यहीं कहीं बेरुखी थी और हिकारत

यहाँ टूट गयी थी चप्पल

यहाँ साँस टूट गयी थी

मुन्ना यहीं रोया था

यहाँ छलकने को थे आँसू

यहाँ एक पेड़ था बेल का, जहाँ हम सुस्ताये थे।

 

हम पिता के पैर में चुभे कांटे को निकालेंगे

अमावस जैसे समय में लौटने को याद करते हुए

टिम टिम तारों की तरह आयेंगे।

 

विभाजित नागरिकता का दुष्चक्र है

विकराल रूप धारण करता हुआ

और तेजी से स्पप्ट हो रहा है यह समय

हम समय और मनुष्यता के उधड़ते सीवन को

अपने ही हाथों थामेंगे

 

हम हाथ पैर हैं इस पृथ्वी के

हम विभाजन की मानसिकता

पर गोंदे की तरह चिपक जायेंगे।

हम इस पृथ्वी की धड़कन हैं

पृथ्वी के मन और उनकी इच्छाएँ

किसी खिड़की से नहीं देखेंगे यह पृथ्वी

अपने घरों के दरवाजे की तरह इसे खोलेंगे

हम फिर आयेंगे।

 

लोकतांत्रिक राग ढूंढ रहा हूँ

 

हाहाकारी धुनों के बीच

प्यार के बारे में सोच रहा हूँ

अविश्वास से उपजे दृश्यों को

मनुष्यों की तरह देख रहा हूँ

जिसके पाश्र्व संगीत की रचना अभी नहीं हुई है

संगतकार उसे थालियों की आवाज के पीछे ढूंढ रहे हैं।

 

तितलियाँ वसंत ऋतु के फूलों पर बैठती हैं

एक पराग कण टूटता है

तो उसकी आवाज के साथ कई आवाजें टूटती हैं

सन्नाटे में टूटने की आवाजों का सन्नाटा है

जो हमारी आवाजों से मिलता है।

 

मैं पृथ्वी पर उखड़ते पैरों से उठती आवाजों की थाप पर

उसाँसों और धड़कनों से एक गीत सोचता हूँ

ढूंढ रहा हूँ एक लोकतांत्रिक राग

उमड़ता घुमड़ता और सम पर टिका हुआ

गले में हर बार कुछ टूट रहा है और बिखर जा रहा है।

 

लोकतांत्रिक बंदिशों में नहीं बोल पाने

और अपनी ही बोली में बिखरने के सन्नाटे में

आवाजों को खोजता हूँ

उसे आवाज देता हूँ।

 

 

संपर्क- भोपाल

 

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