भविष्य की ओर जाती कविता

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    जुलाई २०१३
श्रेणी अर्धशती/अंधेरे में/मुक्तिबोध
संस्करण जुलाई २०१३
लेखक का नाम मंगलेश डबराल





 

गजानन माधव मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में' अपने पचास वर्ष पूरे कर चुकी है, कर रही है, और करेगी। हालांकि उसका लिखा जाना सन् 1957 में शुरू हुआ था, लेकिन 1962 में उसने पूरा आकार लिया और कई संशोधनों से गुजरने के बाद वह नवंबर 1984 की 'कल्पना' में प्रकाशित हुई। इस तरह उनके पांच दशक सन् 2014 तक जारी रहेंगे और सन् 2016 आते-आते हम मुक्तिबोध की जन्मशती मना रहे होंगे। समय बीतने के साथ चीजें अतीत की ओर जाती हैं, लेकिन 'अंधेरे में' एक ऐसी कविता है जो अतीत की ओर नहीं, बल्कि भविष्य की ओर गयी है। वह इतिहास बनने से इनकार करती रही है और व$क्त में आगे चलती रही है। हिंदी और दूसरी भाषाओं में भी ऐसी कविताएं बहुत कम हैं जिन्हें यह गौरव नसीब हुआ हो। बहुत-सी लंबी कविताएं हैं जो अपने समय में ही आवर्तन करती रहीं। अज्ञेय की 'असाध्य वीणा', नरेश मेहता की 'समय देवता', धर्मवीर भारती की 'कनुप्रिया' इस सिलसिले में याद आ सकती हैं। निराला की 'सरोज स्मृति' और राजकमल चौधरी की 'मुक्ति प्रसंग' जरूर अपने समय को लांघ कर भविष्य की ओर गयीं। 'अंधेरे में' शायद हिंदी की अकेली कविता है, जिसे पढऩा कठिन और कष्टकर माना गया, लेकिन जिस पर सबसे अधिक लिखा गया था, जिसकी पंक्तियां सबसे अधिक उद्धृत की गयीं, जिसमें चित्रित 'एक मृत्यु-दल की शोभायात्रा' की बार-बार चर्चा हुई और जिसकी व्याख्या के बारे में प्रगतिशील आलोचकों की बिरादरी में भी गहरे मतभेद रहे।
सन् 1964 में जब मुक्तिबोध का पहला (और मरणोपरांत) कविता संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है' प्रकाशित हुआ था तो शमशेर बहादुर सिंह ने उसकी एक बहुत मर्मस्पर्शी भूमिका में लिखा था : 'एकाएक क्यों सन्' 64 के मध्य में गजानन माधव मुक्तिबोध विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो उठे? 'धर्मयुग', 'ज्ञानोदय', 'लहर', 'नवभारत टाइम्स' साप्ताहिक, मासिक और दैनिक उनका परिचय देने लगे और दिल्ली की साहित्यिक हिंदी दुनिया में एक हलचल-सी आ गयी? इसलिए कि गजानन माधव मुक्तिबोध एकाएक हिंदी संसार की घटना बन गये। कुछ ऐसी घटना, जिसकी ओर से आखें मूंद लेना असंभव था। उसकी एकनिष्ठ तपस्या और संघर्ष, उसकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारा भावना के केन्द्रीय मंच पर सामने आ गये। शमशेर की ही तरह कहा जा सकता है कि एकाएक क्यों सन् 1964 के बाद मुक्तिबोध की लंबी कविता 'अंधेरे में' हिन्दी की आधुनिक कविता का एक बड़ा प्रस्थान-बिंदु और आगे चलकर कई पीढिय़ों की संवेदना का प्रत्याख्यान और चेतना का मानचित्र बन गयी। और यह भी सिर्फ एक संयोग नहीं है कि 'कठोर' और 'कडिय़ल' माने जाने वाले मुक्तिबोध के संग्रह की भूमिका शमशेर सरीखे 'प्रेम' और 'सौंदर्य' के कवि ने लिखी। क्या दोनों की संवेदना में कोई गहरा संबंध है। शायद इसका एक कारण यह हो कि शमशेर प्रेम की जिस पृथ्वी पर खड़े हैं, वह मुक्तिबोध सरीखी तकलीफों से ही निर्मित होती है। दरअसल, पिछले पांच दशकों की कविता का स्वभाव जानने के लिए अगर हम किसी केन्द्रीय रूपक या प्रतिनिधि पाठ की खोज करें तो वह 'अंधेरे में' ही होगा।
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उस दौर के कुछ बिंब भी हमेशा के लिए दर्ज हो गये हैं : मुक्तिबोध का मरणोपरांत प्रकाशित पहला संग्रह 'चांद का मुंह टेढ़ा है', उसमें चित्रकार-कथाकार रामकुमार की बनायी एक पीडि़त मुखाकृति, शमशेर की भूमिका और तमाम कविताओं के बीच से उभरती हुई कविता 'अंधेरे में'। उन दिनों तेज़ी से उभर रही नयी पीढ़ी ने उसे अपने आइने की तरह देखा और यह पहचाना कि हमारे लोकतंत्र का समूचा अंधेरा किस तरह एक अकेली कविता में एकत्र हो गया है, और उसके अंतिम छोर पर एक उम्मीद भी झलकती है: खोयी हुई परम अभिव्यक्ति को पाने की उम्मीद। दिल्ली में युवा चित्रकार और रंगकर्मी विजय सोनी उन दिनों पोलैंड से येर्जी ग्रोतोव्स्की का 'निर्धन और प्रायोगिक रंगमंच' सीख कर आये थे और उन्होंने 'अंधेरे में' को एक प्रभावशाली नाट्य रूप दिया, जिसके सैकड़ों प्रदर्शन हुए। 'अंधेरे में' शायद हिंदी की पहली आधुनिक कविता है, जिसका समग्र मंचन किया गया।
'अंधेरे में' की प्रासंगिकता की वजहें कारण मुक्तिबोध के यंत्रणामय जीवन, अस्वस्थता और असमय निधन में नहीं, बल्कि उस सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया में हैं जो एक उथल-पुथल से भरी हुई थी। सन् 1964 से 1974 तक का दशक दरअसल समाज और राजनीतिक में एक बहुस्तरीय और अभूतपूर्व वैचारिक हलचल का समय था। कांग्रेस के प्रति मोहभंग, कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन, नक्सलबाड़ी की 'वसंत गर्जना', लोहिया का गैर-कांग्रेसवाद, वियतनाम युद्ध का विरोध, बीट कविता, ब्लैक पोयेट्री, भूखी पीढ़ी, नग्न पीढ़ी जैसे साहित्यिक आंदोलनों न एक साथ बेचैनी और उम्मीद उपजायी थी और राजसत्ता से लेकर सांस्कृतिक सत्ता तक सब कुछ डगमगाता हुआ लगता था। तत्कालीन हवाओं में हर वक्त किसी परिवर्तन की आहट थी और साहित्य में अपने पैर रोप रही पीढ़ी के चेहरों पर भी यह साफ झलकता था कि दुनिया जल्दी बदल जायेगी। यह सिर्फ भावनात्मक उछाल नहीं, बल्कि एक संवेदनात्मक आवेग था और वही 'अंधेरे में' के कैनवस पर भी चित्रित हुआ था।
इस कविता ने एक और काम यह किया कि एक पूरी पीढ़ी को उस अकविता की दैहिक भूलभूलैया में भटकने से रोक दिया, जिसका बाजार उन दिनों काफी सजा हुआ था और कई बुर्जुग कवि भी शब्दों में दैहिककुंठा और अराजकता की नदियां बहा रहे थे। 'अंधेरे में' के जरिये जैसे इस रुग्ण क्रोध को एक सामाजिक दिशा और राजनीतिक धार मिल गयी। इस तरह इस कविता ने अगली पीढ़ी की संवेदना के स्वभाव को बदल दिया और उसे एक ऐसा रूप दिया जो मुक्तिबोध को ही उद्धृत करें तो, 'स्थानांतरगामी' था। यह व्यक्ति से समाज की ओर जाने की शिक्षा देने वाली कविता थी। प्रगतिशील कविता की परंपरा और रघुवीर सहाय जैसे कवि को छोड़ दें तो उस समय तक उपलब्ध ज्यादातर नयी कविता मानसिक प्रत्याघातों का चित्रण ही अधिक थी और 'भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से आगे नहीं जाती थी।' इस कविता से उस समय की बहुत सी चर्चित लंबी कविताओं का व्यक्तित्व भी महज परछाईं बन कर रह गया।
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'अंधेरे में' मनोरंजन के विरुद्ध है। वह पाठक को प्रसन्न नहीं करती, बल्कि उसे झिझोड़ती, झकझोरती, उसके भीतर खलबली मचाती है। उसे पढऩे का अनुभव कुछ ऐसा है जैसे हम किसी सघन-बीहड़ जंगल में या किसी सुरंग में प्रवेश कर रहे हैं जहां कहीं-कहीं धुंधली-सी रोशनी है, लेकिन हर अगले कदम के साथ यह आशंका भी है कि पता नहीं क्या घटित हो जाये। उसकी संरचना बहुत दृश्यात्मक, लगभग एक उत्कट श्वेत-श्याम फेंटेसी फिल्म की तरह है और उसके दृश्य-विधान में जो दुनिया खुलती है, वहां 'भीत से फूले हुए पलस्तर गिरते हैं', 'वृक्षों के शीर्ष पर बिजलियां नाच-नाच उठती हैं', 'सांवली हवाओं में काल टहलता है', 'सलिल के तम-श्याम शीशे में कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है' और अंतत: 'आत्मा के चक्के पर संकल्प-शक्ति के लोहे का मजबूत ज्वलंत टायर चढ़ाया जाता हुआ' दिखता है। कविता की शुरुआत में ही मुक्तिबोध एक तिलिस्मी सिनेमाई तकनीक से अपनी पटकथा को प्रतिष्ठित कर देते हैं: 'जिंदगी के.../कमरों में अंधेरे/लगातार है चक्कर/कोई एक लगातार;/आवाज पैरों की देती है सुनाई/बार-बार... बार-बार, वह नहीं दीखता.../नहीं ही दीखता/किन्तु वह रहा घूम।' किसी फिल्म के 'ऐस्टेब्लिशिंग शॉट्स' की तरह 'अंधेरे में' का यह आरंभिक दृश्य अपनी भव्यता में आज भी आकर्षित करता है जैसे कवि एक शक्तिशाली कैमरा हाथ में लेकर जंगल के अंतरतम में चला गया हो और एक-एक दृश्य को कैद करता हुआ और उसी जगह संपादन का काम करता हुआ आगे बढ़ रहा हो। यह एक विलक्ष्ण तरकीब है। सिनेमा के इतिहास में पहली बार जापानी फिल्मकार अकीरो कुरोसावा की फिल्म 'राशोमोन' (1950) में कैमरे ने जंगल के भीतर प्रवेश किया था। कुरोसावा की फिल्म मनुष्य की निजी और आंतरिक सचाइयों का दस्तावेज थी, लेकिन मुक्तिबोध की कविता हमारे समाज और राजनीति का 'राशोमोन' है।
कविताएं अपने विलक्षण दृश्यात्मक आरंभ के लिए भी याद रहती हैं।  ऐसी कविताओं की शुरुआती पंक्तियां पाठक को अभिभूत कर देती हैं और कविता के भीतर खींच ले जाती हैं। निराला की कविता 'राम की शक्तिपूजा' का आरंभ ऐसे ही शक्तिशाली बिंब से शुरू होता है जिसे हम सचमुच देख सकते हैं; 'थी अमा निशा/उगलता गगन घन अंधकार/खो रहा दिशा का ज्ञान/स्तब्ध है पवन-चार।' बीट कवि एलेन गिंसबर्ग की प्रसिद्ध रचना 'हाउल', जिसने सन् 2007 में पचास वर्ष पूरे किये, का आरंभ भी ऐसा ही है: 'आई सॉ द बेस्ट माइंड्स ऑफ माई जनरेशन डिस्ट्रॉयड बाई मैडनेस'। गिंसबर्ग की यह पंक्ति बाद में अमेरिकी व्यवस्था को परिभाषित करने वाला वाक्य ही बन गयी। अंग्रेजी कवि थॉमस ग्रे की कविता 'एलेजी रिटन इन अ कंट्री चर्चयार्ड' की आरंभिक पंक्तियां 'द कफ्र्यू टॉल्स द नेल ऑफ पार्टिंग डे' या टी एस एलियट की कविता 'लव सांग ऑफ एल्फ्रेड जे प्रूफ्रॉक' की पहली पंक्ति 'लेट्स गो देन, यू एंड आई, वेन द ईविनिंग इज स्प्रेड अगेंस्ट द स्काई, लाइक अ पेशेंट ईथराइज्ड ऑन द टेबल' भी कविता के अनोखे आरंभों के इतिहास में अपनी खास जगह रखती हैं।
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मुक्तिबोध के काव्य-नायक का सामना शुरू में ही 'नुकीली नाक और भव्य ललाट' वाले एक मनुष्य से होता है जो आगे भी कई बार प्रकट होकर काव्य-नायक को उद्वेलित करता रता है। वह 'फटे हुए वस्त्र पहने हुए' है, उसके 'वक्ष पर बड़ा सा घाव' है और वह 'कारावास-दुख झेल' चुका है, लेकिन इस भयानक स्थिति के बावजूद उसके मुख पर मुस्कुराहट है, वह प्रचंड शक्तिमान दिखाई देता है, रह-रहकर दरवाजे की सांकल बजाता है और काव्य-नायक को किसी खतरनाक शिखर या खुरदुरे कगार-तट पर छोड़ कर जैसे कहता है : 'पार करो पर्वत-संधि के गह्वर/रस्सी के पुल पर चलकर/दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुंचो।' मुक्तिबोध यह भी बतला देते हैं कि वह रहस्यमय व्यक्ति 'अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है/मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव और/आत्मा की प्रतिमा है।' वे इस आत्मा की प्रतिमा को 'कौन मनु?' का संबोधन देते हैं। इस भव्य-दिव्य आलोक-स्नात पुरुष का आविर्भाव आलोचकों के लिए एक पहेली बना रहा और उसे जयशंकर प्रसाद की 'कामायनी' के मनु से भी जोड़कर देखने की कोशिश की गयी। इस मनु के व्यक्तित्व के कुछ-कुछ पारलौकिक लगते वर्णन से यह निष्कर्ष निकाला गया कि मुक्तिबोध किसी दैवी भक्ति का संदर्भ दे रहे हैं और या फिर वह मुक्तिबोध की अस्मिता का प्रतिबिंबन है। मुक्तिबोध को एक सांचे में फिट कर देने की हड़बड़ी में शायद यह अनदेखा कर दिया गया कि कवि साफ शब्दों में कई जगह कहता है कि वह व्यक्ति 'मेरी बात मुझे बताने के लिए ही बुलाता है।' कविता के अगले हिस्सों में मुक्तिबोध बरगद के पेड़ के नीचे बैठने वाले एक सिरफिरे और पागल के रूप में फिर से उसी व्यक्ति को देखते हैं जो 'ऊंचे गले से/आत्मोद्बोधमय/कोई गान गा रहा है' और जिसमें 'करुण रसाल हृदय के स्वर' हैं। पागल का यह गान सबसे मर्मस्पर्शी और विकल अंशों में से है जिसमें हम एक मध्यवर्गीय ग्लानि या आत्म-धिक्कार की अभिव्यक्ति भी पाते हैं। आश्चर्य नहीं कि यह अंश सबसे अधिक उद्धृत हुआ है, अब एक नश्वरता प्राप्त कर चुका है और इसकी अंतिम पंक्तियां इस तरह हैं : 'अब तक क्या किया,/जीवन क्या जिया,/ज्यादा लिया, और दिया बहुत-बहुत कम/मर गया देश, अरे, जीवित रह गये तुम!!'
इस आत्म-धिक्कार की काफी चर्चा हुई है और उसे मध्यवर्गीय बुजदिली और अकमण्र्यता को धिक्कारने की कार्रवाई मानते हुए कहा जाता है कि मुक्तिबोध अपने ही वर्ग की तीखी आलोचना कर रहे हैं। यह सब सही है, लेकिन ग्लानि का यह बोध कहीं अधिक गहरा और राजनीतिक है। इटली के प्रसिद्ध माक्र्सवादी आलोचक अंतोनिओ ग्राम्शी के एक प्रसिद्ध कथन की तरह कि 'ग्लानि-बोध एक क्रांतिकारी भावना है।' सूत्र वाक्यों में एक नयी दार्शनिक दृष्टि रखने के लिए प्रसिद्ध ग्राम्शी का आशय यह था कि ग्लानि का एहसास ही हमें किसी वास्तविक परिवर्तन के लिए प्रेरित करेगा। यह बोध ऐंगेल्स के इस प्रसिद्ध कथन से भी जुड़ जाता है कि 'स्वतंत्रता मनुष्य की आवश्यकता का बोध है।' यह निश्चय ही आवश्यकता को न पहचाने की, अपनी भूमिका न निभा पाने की ग्लानि है। मुक्तिबोध की ग्लानि ग्राम्शी के आशय के अनरूप इसलिए विलक्षण और क्रांतिकारी है कि वह काव्य-नायक की चेतना को झकझोर कर, उसकी झड़ता को तोड़कर उसे एक नयी यात्रा के लिए प्रवृत्त करती है। मुक्तिबोध की ग्लानि 'मर गया देश/जीवित रह गये तुम' क्या एक स्तर निराला की 'सरोज स्मृति' की ग्लानि 'धन्ये, मैं पिता निरर्थक था/तेरे हित कुछ कर न सका' से नहीं जुड़ती? 'धन्ये' की जगह अगर हम 'देश' को रख दें तो निराला की स्वीकारोक्ति में मुक्तिबोध की चेतावनी सुनाई दे जायेगी और यही एहसास रघुवीर सहाय की एक कविता में सवाल ही दिखेगा: 'लेखक क्या हत्याओं के साझीदार हुए!'
पागल के गान के बाद काव्य-नायक पहले की तरह पीड़ाएं समेट कर अपने मध्यवर्गीय खोल में नहीं पड़ा रहता, बल्कि खुद के सामने खड़ा हो जाता है और खुद से ही बहस करता है। फिर इस यात्रा में मार्शल लॉ लगने, चौराहे पर बंदूकों-टैंकों और गोलीबारी के दृश्य हैं, बाल गंगाधर तिलक और गांधी की मूर्तियां हैं और स्वाधीनता के संघर्ष का एक सशक्त रूपक है। गांधी काव्य-नायक के हाथ में एक शिशु को थमाकर उसे संभालने-सुरक्षित रखने के लिए कहते हैं। जाहिर है, यह शिशु हमारी आजादी का एक रूपक है, और जैसा कि हमारी आज़ादी के साथ हुआ, जल्दी ही यह शिशु अदृश्य हो जाता है और कंधों पर फूलों के लंबे गुच्छों की बजाय एक बंदूक आ जाती है। आगे चलकर आततायी सत्ता द्वारा हत्याओं, गिरफ्तारियों और यंत्रणा दिये जाने के बिंब हैं, जिनमें अंग्रेज साम्राज्यवादियों से जन साधारण के संघर्ष और कम्युनिस्ट पार्टी के भूमिगत आंदोलन झलक उठते हैं। एक जगह यातनागृह के आततायियों की चिंता यह है कि 'इस संस्था के मंत्री को खोजो/शायद उसका ही नाम हो आस्था/कहां है सरगना इस टुकड़ी का/कहां है आत्मा?' इन्हीं पंक्तियों के आसपास मुक्तिबोध अपने प्रतिरूप को एक कलाकार के रूप में भी देखते हैं, जो शासकों के हाथों मार दिया जाता है।
अब एक नया मोड़ आता है और वह जिन पंक्तियों में अभिव्यक्त हुआ है, वे भी प्रसिद्ध हो चुकी हैं: 'अभिव्यक्ति के सारे खतरे/उठाने ही होंगे/तोडऩे होंगे ही मठ और गढ़ सब।' 'सत्य से सत्ता के युद्ध के इस रंग में' काव्य-नायक देखता है कि लोगों की पंक्तियां मुट्ठियां बांधे हुए चल रही हैं, वे उसके अपने ही 'विक्षोभ और विवेक की मणियों और रत्नों के लेकर' उत्साह के साथ अंधेरे में बढ़ रहे हैं और जो पर्चे बांटे जा रहे हैं उनमें भी उसके ही विचार, दबी हुई संवेदनाएं, अनुभव और पीड़ाएं जगमगा रही हैं। एक और वक्तव्य इस कविता का एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है: 'कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूं/वर्तमान समाज चल नहीं सकता/पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकती,/स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी/छल नहीं सकता मुक्ति के मन को,/जन को।' इसके बाद एक क्रांति के, युग बदलने के जीवंत दृश्य है, जिनमें बौद्धिक वर्ग, समाचार पत्रों के मालिकों और किराये के विचारों की बजाय 'दादा के सोटे, काका की लाठी और मुन्ने के सलेट-पट्टी' की भूमिका को एक अतियर्थाथवादी सुंदरता के साथ चित्रित किया गया है। इसी क्रम में एक बार फिर उस प्रतिरूप और 'परम अभिव्यक्ति' की एक झलक दिखती है जो कहीं भीड़ में खो जाती है। काव्य-नायक का वह गुरु, 'अनखोजी निज समृद्धि का परम उत्कर्ष' और अपने फटेहाल रूप में 'प्रतिपल जगत की गलियों में' घूमता है और उसी की खोज में काव्य-नायक 'हर गली और हर सड़क पर हर एक चेहेरे को झांक-झांक कर देखता है।' शमशेर बहादुर सिंह ने 'चांद का मुंह टेढ़ा' है की भूमिका में कहा कि यह कविता 'देश के आधुनिक जन इतिहास का, स्वतंत्रता के पूर्व और पश्चात् का एक दहकता इस्पाती दस्तावेज है। इसमें अजब और अद्भुत रूप से जन का एकीकरण है।'
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काव्य नायक का यह प्रतिरूप या ऑल्टर ईगो कौन है? क्या वह मनुष्य की अंतश्चेतना है? क्या उसका स्वत्व और उसकी आत्मा है जो निस्पंद पड़ी है? या फिर क्या यह जन की मुक्ति-कामना और वर्ग-विहीन समाज का यूटोपिया है? अधूरी क्रांति के पूरा होने का स्वप्न? इसके संदर्भ जगह-जगह है, जहां मुक्तिबोध बार-बार जन संघर्षों को अपने 'स्व के विस्तार' के रूप में देखते हैं। इस कविता को समझने का एक प्रस्थान-बिंदु शायद यही है कि काव्य-नायक का आदर्श उसे उसी की आत्मा और चेतना की बात बनाने के लिए आता है और काव्य-नायक समाज में जनता की उथल-पुथल को अपने ही आत्म के विस्तार की तरह देखता है। यह एक बहसतलब सवाल है और डाक्टर रामविलास शर्मा ने इसी आधार पर मुक्तिबोध को माक्र्सवादी नहीं, बल्कि अस्तित्ववादी कवि बताने की कोशिश की है। लेकिन मुक्तिबोध खुद ही 'स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी छल नहीं सकता मुक्ति के मन को' कह कर अस्तित्ववादी व्यक्ति-केंद्रिकता को कभी का खारिज कर चुके हैं। दरअसल व्यक्ति-केंद्रिकता के मुद्दे पर ही मुक्तिबोध ने नयी कविता की तीखी आलोचना भी की थी और उसे 'आत्मबद्ध, भावनात्मक प्रतिक्रियाओं तक सीमित' बताया था।
'अंधेरे में' स्वप्न के भीतर स्वप्न के दृश्य-विधान के साथ आजादी के बड़े संघर्ष और उसके बाद और भी बड़े मोहभंग को देखती है। जनक्रांति के दमन के निमित्त चल रहे उसके फौजी जुलूस में लेखकों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों की मौजदूगी हमारे समय में सत्ता-तंत्रों से संस्कृति की सांठगांठ की एक बड़ी त्रासदी को सामने रखती है और आज भी एक आसन्न खतरे की तरह मंडराती हुई दिखती है। यह जुलूस या 'मृत्युदल की शोभायात्रा' हिंदी कविता के सबसे अधिक चर्चित और प्रसिद्ध बिंबों में से हैं। यह बहुत दृश्यात्मक है और इसे पढ़ते हुए कई फिल्मों की याद आती है। इस जुलूस में अत्याचारियों, फौजी जनरलों, कसाइयां के साथ कवि, लेखकगण, कलाकार, पत्रकार यानी समाज का वह तबका भी शामिल है, जो मध्यवर्ग से आता है और पारंपरिक रूप से समाज में परिवर्तन और क्रांति और एक नये युग के आरंभ का उत्प्रेरक माना जाता रहा। लेकिन इस जुलूस में वह उन ताकतों के साथ है जो मनुष्य विरोधी और फासिस्ट हैं। यह जुलूस रात में चुपके से निकलता है जिसे काव्य-नायक देख लेता है और आशंकित हो उठता है कि बुद्धिजीवी वर्ग को नंगा देखने की सजा उसको मिलेगी। ज्यादातर आलोचकों ने इस 'प्रोसेशन' को नात्सियों और हिटलर की फौज के जुलूस के रूप में पहचाना है और कुछ की राय में यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जुलूस है। निश्चय ही इन दोनों का असर मुक्तिबोध की चेतना पर रहा होगा क्योंकि वे नात्सियों के अत्याचारों और जर्मनी के कुछ तत्कालीन बुद्धिजीवियों-वैज्ञानिकों की मानवद्रोही भूमिका से परिचित थे और संघ परिवार की क्रूरता के तो वे भुक्तिभोगी ही थे क्योंकि संघ की मांग पर उनकी इतिहास संबंधी पुस्तक पर प्रतिबंध लगा था।
मनुष्य द्वारा शैतान और उसके आधुनिक रूपों, सैनिक शासकों, तानाशाहों और फासिस्टों के हाथों अपनी आत्मा को गिरवी रखने का मिथक बहुत पुराने समय से कविता, नाटक, संगीत, ऑपेरा, चित्रकला और संगीत में तरह-तरह से उभरता रहा है। जर्मन नाटककार क्रिस्टोफर मॉर्लो का 'डॉक्टर फाउस्टस', गोयेठे का 'फाउस्टस', ठोमास मान का 'डॉक्टर फाउस्टस' इस पर आधारित कालजयी कृतियां हैं। यूरोप के बहुत से फिल्मकारों ने भी शैतान और उसके प्रतिनिधि मैफिस्टोफेलीस को आधुनिक समय की कई घटनाओं में पहचाना और कई अविस्मरणीय सिनेमाई कृतियों की रचना की। इसी तरह पचासों ऑपेराओं के केन्द्र में भी यह विषय रहा। रूसी उपन्यासकार मिखाइल बुल्गाकोव के उपन्यास 'मास्टर ऐंड मार्गरीता' में मैफिस्टो की कथा स्तालिन काल के सोवियत संघ में घटित हुई जहां शैतान मस्क्वा में प्रकट होकर तरह-तरह से लोगों को प्रलोभन देता है। दुनियावी प्रसिद्धि, पैसे और सुख के लिए अपनी आत्मा को बेचने की यह दुर्घटना आज भी कई स्तरों पर घटती दिखाई देती है, उनमें हंगरी के फिल्मकार इस्तवान साबो की फिल्म 'मैफिस्टो' बहुत चर्चित रही। यह एक ऐसे अभिनेता की दिल दहला देने वाली कहानी है जिसका एक बड़ा सपना मंच पर मैफिस्टो की भूमिका अभिनीत करना है, लेकिन सुख-सुविधा की तलाश में वह अपनी आत्मा को बेचने के बाद नात्सी जर्मनी में उसकी जिंदगी खुद एक मैफिस्टो में बदल जाती है। सच तो यह है कि रोम के शासक नीरो के समय से यह इतिहास का एक बेहद 'हांटिंग' रूपक है। 'अंधेरे में' के इस दृश्य पर इस सबका प्रभाव रहा होगा, लेकिन यहां उसने और अधिक विस्तार लिया है, उसके सामाजिक-राजनीतिक आशय ज्यादा स्पष्ट और खौफनाक हो गये हैं।
गहन मृतात्माएं इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परंतु, दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।
हाय, हाय! मैंने उन्हें देख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सजा मिलेगी।
* * *
'अंधेरे में' बहुत सुगठित कविता नहीं है। हो भी नहीं सकती थी क्योंकि उसका फलक आजादी से पहले और गांधी-नेहरू युग, कम्युनिस्ट पार्टियों के संघर्ष, फिर नेहरू युग के महास्वप्न के टूटने और एक नयी क्रांति की आशावादिता तक फैला हुआ, विशाल और महाकाव्यीय है। निराला की 'सरोज स्मृति', राजकमल चौधरी की 'मुक्ति प्रसंग', अज्ञेय की 'असाध्य वीणा', शमशेर की 'टूटी हुई बिखरी हुई' या एलेन गिंसबर्ग की 'हाउल' और मलयराय चौधरी की 'जख्म' जैसी कई लंबी कविताएं हैं जो अपने संरचनात्मक कसाव के लिए जानी जाती हैं। लेकिन इन सभी कविताओं का कैनवस 'अंधेरे में' जितना बड़ा नहीं है, उनमें एक खास तरह की व्यक्ति-बद्धता या वैयक्तिकता है और वे 'स्व' का विस्तार करने की बजाय 'स्व' के बोध पर अधिक टिकी हुई हैं। लेकिन 'अंधेरे में' दूर और बाहर तक जाती है और हम उसमें मुक्तिबोध की इस मान्यता को बखूबी देख सकते हैं कविता की प्रवृत्ति स्थानांतरगामी होती है।
लघु विमर्शों के खंडित दौर के बावजूद 'अंधेरे में' का महावृत्तांत काल से अपनी होड़ ले चुका है। वह महाकाव्यों से रहित हमारे समय का महाकाव्य है। प्रकाशन के बाद कई वर्षों तक ज्यादातर आलोचकों ने उसे मुक्तिबोध के निजी और अस्तित्वमूलक संताप की अभिव्यक्ति की तरह, वैयक्तिक अस्मिता की खोज की तरह देखा, लेकिन पचास वर्ष बाद हम देखते हैं कि वह निजी संताप नहीं, बल्कि एक सामूहिक सामाजिक यातना और सामूहिक मुक्ति की आकांक्षा का सबसे प्रामाणिक और सबसे अधिक हिला देने वाला दस्तावेज है और उसका जीवन समय में आगे की ओर चलता जायेगा। ऐसी कविता की अर्धशती मनाने का अर्थ यही हो सकता है कि हम हिंदी में बुरी तरह प्रचलित प्रतिमा-पूजन और कर्मकांडी आडंबर से अलग हटकर इस कविता के बीहड़ और तकलीफदेह वन-प्रांतर में जायें और यह देखें कि उसके अर्थ हमारी समकालीनता में कहां-कहां घटित हो रहे हैं। हम उस डरावने जुलूस को फिर से देखें जिसमें डोमाजी उस्ताद से लेकर शहर के तमाम बुद्धिजीवी, कलाकार, लेखक, कविगण शामिल हैं और जिसमें 'लोगों को नंगा देखने के कारण' मिलनेवाली सजा की आशंका से ग्रस्त एक कवि बुरी तरह घिरा हुआ है, और जिसका ग्लानिबोध इतना त्रासद है कि वह गोली चलने और कफ्र्यू लगने की घटना के लिए भी अपनी ही किसी भूल को जिम्मेदार मानता है। 'अंधेरे में' की अर्धशती यह जांचने का समय भी है कि क्या हमारे भीतर मुक्तिबोधीय ग्लानि का कोई अंश बचा हुआ है, क्या हम खुद को धिक्कार सकते हैं और आज जीवन के तमाम क्षेत्रों में शोषित-वंचित और हाशिये पर धकेले गये लोगों और आदिवासियों पर तरह-तरह के जो अत्याचार बढ़ रहे हैं, क्या उनमें हमारी भूमिका की कोई चूक दिखाई देती है? क्या समाज में हमारे ही कारण कोई 'दुर्घट' घटित हुआ है और क्या हमारे 'ज्ञानात्मक संवेदन' में यातना का वह बोध कहीं बचा है, जिसके साथ मुक्तिबोध के काव्य-नायक ने पिछले पांच दशक बिताये हैं? 'अंधेरे में' अब तक इसीलिए जीवित रह पायी है कि पिछले पचास वर्षों में हमारे समाज के भीषण और अनसुलझे संकट भी जीवित हैं। और उनका कोई समाधान नहीं दिखता।

 


स्व . मुक्तिबोध अपनी धर्मपत्नी शांता के साथ (धर्मयुग से साभार)

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