फेसबुक: नफ़रत से मुनाफा

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    जनवरी 2021
श्रेणी फेसबुक: नफ़रत से मुनाफा
संस्करण जनवरी 2021
लेखक का नाम आनंद प्रधान





पहल विशेष/एक

सामयिक

 

 

झूठी सूचनाओं, जहरीले प्रोपेगंडा, सांप्रदायिक नफ़रत और ध्रुवीकरण को आगे बढ़ाता मंच

 

फेसबुक पिछले कुछ वर्षों से लगातार और ज्यादातर मौकों पर गलत कारणों से सुखिऱ्यों में है। खासकर 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में उसके दुरुपयोग के आरोपों के बाद से चाहे वह कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल हो या ब्रिटेन में ब्रेकजिट जनमतसंग्रह या फिर ब्राजील में राष्ट्रपति चुनावों में बोल्सनारो की जीत हो- फेसबुक की भूमिका सवालों और विवादों के घेरे में है। उस पर आरोप लग रहे हैं कि उसका दुरुपयोग लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को तोडऩे-मरोडऩे, लोकतान्त्रिक विमर्श को विषाक्त करने और जनमत को अनैतिक तरीकों से प्रभावित करने के लिए किया जा रहा है लेकिन वह न सिर्फ उसे नज़रंदाज़ कर रहा है बल्कि कई मामलों में उसमें सक्रिय भागीदार भी है।

यही नहीं, फेसबुक पर लोगों की निजता के उल्लंघन, झूठी सूचनाओं और फेक न्यूज की बाढ़ से लेकर सांप्रदायिक और नस्लभेदी जहरीले, हिंसक और नफरत भरे प्रोपेगंडा को आगे बढ़ाने और उससे मुनाफा कमाने के आरोप लग रहे हैं। यह भी कि वह दुनिया भर के कई देशों के समाजों और समुदायों में राजनीतिक-वैचारिक और सांप्रदायिक-एथनिक-नस्लभेदी ध्रुवीकरण को बढ़ा और तीखा कर रहा है। इन कारणों से बहुतेरे तकनीकविद, समाजवैज्ञानिक और बुद्धिजीवी फेसबुक को सामाजिक सौहार्द, भाईचारा, नागरिक अधिकारों और लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरे की तरह देखने लगे हैं। आखिर सच क्या है?  

फेसबुक का बड़ा बाज़ार है भारत

भारत से ही शुरुआत करते हैं। ताजा अनुमानों के मुताबिक, भारत में फेसबुक के उपयोगकर्ताओं (यूजर्स) की संख्या लगभग 34 करोड़ तक पहुँच चुकी है। इसका अर्थ यह हुआ कि हर चौथा भारतीय फेसबुक पर है और उसका कम या ज्यादा इस्तेमाल करता है। दुनिया भर में फेसबुक के सबसे ज्यादा यूजर्स भारत में हैं। अनुमान है कि वर्ष 2023 तक जब भारत अगले आम चुनावों में जाने की तैयारी कर रहा होगा, देश में फेसबुक का इस्तेमाल करनेवालों की संख्या बढ़कर लगभग 44.4 करोड़ हो चुकी होगी। यही नहीं, फेसबुक के स्वामित्ववाले मेसेंजर एप्प- व्हाट्सएप्प के यूजर्स की संख्या भी भारत में 40 करोड़ से ऊपर पहुँच चुकी है।

कहने की जरूरत नहीं है कि फेसबुक के लिए भारत उसके सबसे महत्वपूर्ण बाजारों में से एक है। इसका अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि फेसबुक ने इस साल भारत की सबसे बड़े और राजनीतिक रसूखवाले औद्योगिक समूह- मुकेश अम्बानी के स्वामित्ववाले रिलायंस समूह की टेलीकाम कंपनी- रिलायंस जियो में 5.7 अरब डालर का निवेश करके 9.9 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी है। अमेरिका से बाहर किसी देश में फेसबुक का यह सबसे बड़ा निवेश है। इससे पता चलता है कि भारत के विशाल और बढ़ते बाज़ार में उसकी कितनी गहरी दिलचस्पी है।

कारोबारी हितों के लिए राजनीतिक रिश्ते, पीआर और लाबीइंग

लेकिन इस भारी निवेश के कुछ महीनों बाद ही इस साल अगस्त महीने में अमेरिकी अखबार- वाल स्ट्रीट जर्नल ने कई रिपोर्टें छापीं जिनमें यह खुलासा किया गया था कि फेसबुक ने अपने प्लेटफार्म के उपयोग के लिए घोषित सामुदायिक मानकों (कम्युनिटी स्टैण्डर्डस) और नियमों के विपरीत सत्तारूढ़ पार्टी- भाजपा से संबंधित कुछ नेताओं और विधायक के ऐसे पोस्ट्स को नहीं हटाया जिसमें सांप्रदायिक नफरत फैलानेवाले बयानों के साथ हिंसा के लिए भी उकसाया गया था। इस रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक के आंतरिक कंटेंट माडरेटर्स और आडिटर्स ने इन पोस्ट को सामुदायिक मानकों के खिलाफ बताया था। इसके बावजूद इन पोस्ट्स को नहीं हटाया गया और न ही इन नेताओं के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई।

यही नहीं, खुद फेसबुक के संस्थापक और सीईओ मार्क जुकरबर्ग ने बिना नाम लिए दिल्ली भाजपा के नेता कपिल मिश्रा के एक वीडियो बयान के पोस्ट को फेसबुक के सामुदायिक मानकों के साफ़-साफ़ उल्लंघन के उदाहरण की तरह पेश किया था जिसमें मिश्रा ने दिल्ली दंगों के पहले दिए अपने बयानों में धमकी देते हुए कहा था कि अगर पुलिस ने जाफराबाद में धरना दे रहे सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शनकारियों को सड़क से नहीं उठाया तो उनके समर्थक वहां जाकर उनसे सड़क खाली करा देंगे। हालांकि इस पोस्ट को फेसबुक ने प्लेटफार्म से हटा दिया था लेकिन कपिल मिश्रा के और कई आक्रामक और हिंसा के लिए उकसानेवाले पोस्ट्स प्लेटफार्म पर बने रहे।

'वाल स्ट्रीट जर्नल’ के मुताबिक, तेलंगाना के भाजपा नेता और हैदराबाद के विधायक टी. राजा सिंह ने अपने फेसबुक पोस्ट और सार्वजनिक भाषणों में भारत में आप्रवासी रोहंगिया मुसलमानों को गोली मार देने, मुसलमानों को गद्दार बताने और मस्जिद गिराने की धमकी दी। फेसबुक के आंतरिक कंटेंट माडरेटर्स ने इन पोस्ट्स को कंपनी के सामुदायिक मानकों के खिलाफ और नफरत फैलानेवाले (हेट स्पीच) और हिंसा के लिए उकसानेवाले पोस्ट्स के रूप में चिन्हित किया था जिसे तुरंत हटा दिया जाना चाहिए था। यही नहीं, विधायक टी राजा सिंह के आक्रामक, हिंसा के लिए उकसानेवाले और हेट स्पीच से भरे पोस्ट्स के कारण फेसबुक के नियमों के मुताबिक इस एकाउंट को ''खतरनाक’’ घोषित करने और बंद करने का भी प्रावधान था।

लेकिन फेसबुक ने न तो उन पोस्ट्स को हटाया और न ही एकाउंट को बंद किया। अखबार के मुताबिक, इसकी वजह यह थी कि भारत में फेसबुक की एक उच्च अधिकारी आंखी दास ने आंतरिक तौर पर ऐसे किसी फैसले का यह कहते हुए विरोध किया था कि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के नेताओं द्वारा फेसबुक नियमों का उल्लंघन करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई करने से भारत में कंपनी के कारोबारी हितों को नुकसान हो सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि फेसबुक को भारत में अपने सामुदायिक मानकों के मुकाबले अपने कारोबारी हितों की ज्यादा चिंता थी। लिहाजा उसने उन भाजपा नेताओं के जहरीले और हिंसा को उकसानेवाले पोस्ट्स को अनदेखा किया।

लेकिन जब अमेरिकी अखबार ने फेसबुक से उन पोस्ट्स के बारे में कई महीनों के बाद पूछताछ की तो उन्हें तुरंत हटा दिया गया। अखबार की रिपोर्ट यह भी बताती है कि फेसबुक के भारत स्थित अधिकारी खासकर आंखी दास का स्पष्ट रूप से भाजपा की ओर झुकाव था। उन्होंने 2014 के आम चुनावों से लेकर कई राज्यों के चुनाव में भाजपा को खुलकर फेसबुक का राजनीतिक प्रोपेगंडा में इस्तेमाल करने में मदद की। अख़बार के मुताबिक, कंपनी ने भाजपा को फेसबुक के बेहतर इस्तेमाल की ट्रेनिंग दी। फेसबुक की उच्च अधिकारी आंखी दास ने एक इंटर्नल मेमो में 2014 में भाजपा की जीत का श्रेय लेते हुए लिखा कि हमने उनके सोशल मीडिया प्रचार अभियान को एक चिंगारी दी और बाकी फिर इतिहास है।

हालांकि फेसबुक का दावा है कि वे अपने प्लेटफार्म के बेहतर इस्तेमाल के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों को प्रशिक्षण देते हैं और कांग्रेस और दूसरी पार्टियों के लिए भी प्रशिक्षण आयोजित किए गए। यह आंशिक रूप से ही सही है। वरिष्ठ पत्रकार परन्जॉय गुहा ठाकुरता और सिरिल सैम ने वाल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्ट से कई महीने पहले अपनी किताब ''भारत में फेसबुक का असली चेहरा’’ में विस्तार से यह बताया था कि फेसबुक में सिर्फ आंखी दास ही नहीं बल्कि और वरिष्ठ अधिकारी हैं जिनका भाजपा या उसके 2014 के चुनाव अभियान से परोक्ष या सीधा संबंध रहा है। इन दोनों पत्रकारों का दावा है कि कई प्रकरणों में फेसबुक का स्पष्ट झुकाव भाजपा की तरफ दिखता है।

ठाकुरता और सैम के मुताबिक, फेसबुक सामुदायिक मानकों का हवाला देकर भाजपा और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरोधियों के पेज और एकाउंट निलंबित करने से लेकर उनके पोस्ट हटाने में जरा भी देर नहीं करता है। 'कारवां’ पत्रिका ने ऐसे कई मामलों का उदाहरण दिया है जिसमें बिना स्पष्ट कारण बताये सरकार विरोधी पेज या एकाउंट निलंबित कर दिए गए। लेकिन फेसबुक पर सांप्रदायिक नफ़रत फैलानेवाले और भड़काऊ पोस्ट्स, पेज और एकाउंट को जानबूझकर अनदेखा करता है। यह देखने के लिए किसी दूरबीन की जरूरत नहीं है कि फेसबुक पर झूठ और आधे-अधूरे तथ्यों पर आधारित ऐसे जहरीले कंटेंट की कितनी अधिक भरमार है जिसमें अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों और ईसाइयों को निशाना बनाया जाता है और उनके खिलाफ नफ़रत फैलाई जाती है।

लेकिन यह फेसबुक को दिखाई नहीं देता है या फिर उसे यह सब अपने लचीले और मनमाने सामुदायिक मानकों के अनुरूप दिखाई देता है तो यह बेवजह नहीं है। जाहिर है कि फेसबुक के लिए उसके कारोबारी हित सबसे पहले हैं. यह वैश्विक स्तर पर और भारत में भी कई मामलों में साफ़ हो चुका है कि फेसबुक कारोबारी हितों को आगे बढ़ाने और मुनाफे के लिए किसी भी हद तक जाकर समझौता करने को तैयार रहता है। उसके लिए सत्तारूढ़ पार्टी- भाजपा और एनडीए सरकार के प्रति उसका झुकाव भारत में अपने कारोबारी हितों को सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने के लिए है। लेकिन इसके साथ ही उसकी लाबीइंग टीम कांग्रेस समेत अन्य प्रभावशाली राजनीतिक पार्टियों और नेताओं के साथ भी बेहतर संबंध रखने के लिए लाबीइंग पर खूब पैसे खर्च करती है।

असल में, फेसबुक को अपनी सार्वजनिक छवि की बहुत चिंता रहती है। अपनी सार्वजनिक छवि साफ़-सुथरी रखने के लिए वह लाबीइंग और पीआर पर बहुत पैसे खर्च करता है। माना जाता है कि फेसबुक नकारात्मक प्रचार को रोकने या उसे नियंत्रित करने के लिए हरसंभव तौर-तरीके अपनाता है। प्रतिष्ठित पत्रिका ''न्यूयार्क’’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक की जनसंपर्क (पीआर) टीम में 500 से ज्यादा अधिकारी-कर्मचारी काम करते हैं। सबको जोडऩे, सूचनाओं के आदान-प्रदान और संपर्क बढ़ाने में मदद करने का दावा करनेवाला फेसबुक अपने कामकाज, गतिविधियों और तौर-तरीकों के बारे में अत्यधिक गोपनीयता बरतता है। फेसबुक का पीआर विभाग मीडिया में नकारात्मक रिपोर्टों को आने से रोकने के लिए प्रलोभन देने, मीडिया कंपनियों के साथ पार्टनरशिप, स्पांसरशिप से लेकर उन्हें डराने-धमकाने तक सभी हथकंडे अपनाता है। फेसबुक नकारात्मक प्रचार को मैनेज करने, उसे चुप कराने और मुद्दे से ध्यान बंटाने में माहिर है।  

इसका ताजा प्रमाण है- वाल स्ट्रीट जर्नल की रिपोर्टों के बाद उठे राजनीतिक विवादों और शोर-शराबे को ख़ामोशी से मैनेज कर लेना। याद कीजिए, इससे पहले 2018 में फेसबुक-कैम्ब्रिज एनालिटिका स्कैंडल को लेकर कितना हंगामा मचा था। एनडीए सरकार ने उस मामले की सीबीआई जांच की घोषणा भी की थी लेकिन उस मामले में आगे क्या हुआ, यह किसी को पता नहीं है। आश्चर्य नहीं कि वाल स्ट्रीट जर्नल अख़बार की रिपोर्टों के बाद देश में थोड़े समय के लिए राजनीतिक शोर-शराबा हुआ और कुछ सप्ताहों में फेसबुक की भारत में पब्लिक पालिसी प्रमुख आंखी दास ने इस्तीफ़ा दे दिया।

यह फेसबुक के पीआर प्रबंधन का एक और उदाहरण है जिसके जरिये उसने फेसबुक की सांस्थानिक और कारोबारी माडल की समस्या को आंखी दास तक सीमित कर दिया। इसके साथ ही फेसबुक की ओर से यह सन्देश देने की कोशिश की गई कि अब सब कुछ सामान्य है। फेसबुक की ओर से यह दावा किया गया कि वह अपने प्लेटफार्म पर सांप्रदायिक नफरत से भरे और हिंसा के लिए उकसानेवाले पोस्ट्स को लेकर पर्याप्त रूप से संवेदनशील और सचेत है और उसे रोकने के लिए वह अधिकतम संभव कोशिश करता रहता है।

नफ़रत और दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक प्रोपेगंडा का पाईपलाइन

तथ्य यह है कि भारत में फेसबुक पर अभी भी सैकड़ों ऐसे पेज हैं जिनके हजारों और लाखों में फालोवर हैं और जिनपर हेट स्पीच के दायरे में आनेवाले, खुलेआम सांप्रदायिक नफ़रत $फैलाने से लेकर भड़काऊ और हिंसा को उकसानेवाले पोस्ट्स और वीडियो हैं। इनमें से ज्यादातर पेज और पोस्ट्स झूठी, आधी-अधूरी, गढ़ी हुई, तोड़मरोड़ कर या सन्दर्भों से काटकर तैयार जानकारियों पर आधारित हैं। फेसबुक पर ऐसे लाखों यूजर्स सक्रिय हैं जो नफ़रत फैलानेवाले, जहरीले और भड़काऊ पोस्ट लिख और शेयर कर रहे हैं। इनमें ज्यादातर दक्षिणपंथी सांप्रदायिक संगठनों से जुड़े या उनसे सहानुभूति रखनेवाले हैं। वे बहुत संगठित और योजनाबद्ध तरीके से फेसबुक के मंच का इस्तेमाल जहरीले, नफरती और भड़काऊ प्रोपेगंडा को आगे बढ़ाने के लिए कर रहे हैं।

असल में, संगठित और योजनाबद्ध तरीके से देश में सांप्रदायिक नफ़रत फैलाने, लोगों को भड़काने और समूचे सार्वजनिक विमर्श को जहरीला बनाने का यह काम पिछले कई सालों से औद्योगिक स्तर पर चल रहा है। इस राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रोजेक्ट में जन माध्यमों की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। इसकी अगुवाई ज्यादातर टीवी न्यूज चैनल और कई भाषाई अखबार कर रहे हैं जो इस प्रोजेक्ट के भोंपू बन गए हैं. इसमें फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया नेटवर्क के साथ फेसबुक के स्वामित्ववाला व्हाट्सएप्प की भूमिका सांप्रदायिक नफरत और धुर दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा के डिलीवरी नेटवर्क का व्यापक तकनीकी इन्फ्रास्ट्रक्चर और पाईपलाइन तैयार करने की है। इस पाईपलाइन के जरिये ही करोड़ों भारतीयों के दिल और दिमाग को धीमे सांप्रदायिक जहर से धीरे-धीरे सुन्न करने और दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा और कांस्पिरेसी थियरी के लिए अनुकूलित किया जाता है।  

इस फेसबुक समेत सोशल नेटवर्क और व्हाट्सएप्प की पाईपलाइन के लिए औद्योगिक स्तर पर जहरीला कंटेंट तैयार करने की जिम्मेदारी पार्टी और दूसरे अनुषांगिक संगठनों के आईटी सेल में काम करनेवाले वेतनभोगी कर्मचारियों, सक्रिय समर्थकों और सहानुभूतिकर्ताओं की विशाल टीम की होती है। इनका काम पार्टी के प्रोपेगंडा सामग्री को फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क पर आगे बढ़ाने और ट्रेंड चलाने से लेकर विरोधियों को निशाना बनाना, उनके खिलाफ अभियान चलाना है। इन आईटी सेल कर्मचारियों के साथ खास बात यह है कि एक-एक कर्मचारी और सक्रिय समर्थक फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क पर दर्जनों एकाउंट चलाते हैं जिनमें से 90 फीसदी से ज्यादा फर्जी और गुमनाम एकाउंट होते हैं. इन्हें इंटरनेट की भाषा में 'ट्रोल’ भी कहते हैं। तथ्य यह है कि फेसबुक पर ऐसे लाखों एकाउंट और पेज हैं जो ये ट्रोल चला रहे हैं।

ये ट्रोल फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क पर दिन-रात न सिर्फ जहरीला प्रोपेगंडा फैलाने में लगे रहते हैं बल्कि उन तार्किक और विवेकपूर्ण आवाजों को चुप कराने के लिए उन्हें बेईज्जत करने, गाली-गलौज करने, फर्जी और झूठे आरोप लगाकर बदनाम और चरित्र हत्या करने से लेकर डराने-धमकाने की कोशिश करते हैं जिसे ट्रोलिंग कहा जाता है। कई बार वे आलोचकों के फोन नंबर सार्वजनिक कर देंगे और फिर उन्हें फोन करके और व्हाट्सएप्प के जरिये मेसेज भेजकर गाली-गलौज की जाती है और डराया-धमकाया जाता है। 

नफ़रत का अल्गोरिथम और उसपर टिका बिजनेस माडल   

इस अर्थ में फेसबुक आज सांप्रदायिक नफ़रत से भरे, जहरीले और भड़काऊ प्रोपेगंडा का मंच बनकर रह गया है। लेकिन दावों के विपरीत फेसबुक भारत में इस संगठित नफरती और भड़काऊ सांप्रदायिक अभियान को न सिर्फ लम्बे अरसे से अनदेखा कर रहा है बल्कि उसे प्रोत्साहित कर रहा और उससे मुनाफा कमा रहा है। 

इसके लिए फेसबुक का अल्गोरिथम ऐसा बनाया गया है जो ऐसे कंटेंट यानी न्यूज फीड, पोस्ट्स, वीडियो और पेज को आगे बढाता है और यूजर्स के सामने सबसे ऊपर रखता है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय और इंगेजिंग हों। कहने की जरूरत नहीं है कि फेसबुक के अल्गोरिथम को नफ़रती, उत्तेजक,भड़काऊ, हिंसक और विवादास्पद कंटेंट यानी वीडियो, पोस्ट्स और पेज सबसे ज्यादा इंगेजिंग लगते हैं। उसे लगता है कि ऐसा कंटेंट ज्यादा से ज्यादा यूजर्स को फेसबुक तक खींच कर लाएगा और उन्हें इंगेज करेगा। असल में, फेसबुक के अल्गोरिथम को पता है कि लोगों में नफरत, टकराव, डर, गुस्सा, चिढ़ और हिंसा जैसी भावनाएं और चौंकानेवाली-अविश्वसनीय ''ख़बरें’’ ज्यादा आकर्षित करती हैं, भले ही वे फर्जी और झूठी हों या आधी-अधूरी जानकारियों पर आधारित हों या संदर्भ और परिप्रेक्ष्य से काटकर पेश की गईं हों।

आश्चर्य नहीं कि फेसबुक पर ज्यादातर कंटेंट या तो सांप्रदायिक रूप से नफरती-जहरीला-उत्तेजक-भड़काऊ है या 'आदमी कुत्ते को काट ले’ टाइप अविश्वसनीय-अकल्पनीय-वैचित्र्य है या फिर भांति-भांति की कांस्पिरेसी थियरी की भरमार है, जैसे कि हाल में फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या से जुड़ी मनगढ़ंत 'फर्जी ख़बरें’ या फिर गाँधी-नेहरु आदि नेताओं के बारे में झूठी, उलजुलूल और आपत्तिजनक जानकारियां। फेसबुक का अल्गोरिथम ऐसे ही कंटेंट को आगे बढ़ाकर पैसे कमाता और मुनाफा बनाता है।

आपने बतौर यूजर्स कभी भी सहज उत्सुकता या गलती से भी ऐसे किसी कंटेंट को देखने या पढने के लिए क्लिक कर दिया या आपने नहीं भी किया लेकिन आपके किसी फेसबुक मित्र ने उसपर क्लिक कर दिया तो फेसबुक का अल्गोरिथम ऐसे दर्जनों और वीडियो, पोस्ट्स और पेज आपके सामने पेश करने लगता है। आप जब भी फेसबुक खोलेंगे या उसपर लौटेंगे तो वह आपके सामने फिर वैसी ही प्रकृति के और वीडियो, पोस्ट्स, पेज और मित्र के सुझाव आगे बढ़ाएगा।

फेसबुक पर रहते हुए इससे बचने का कोई उपाय नहीं है। आप उनमें से किसी वीडियो या पोस्ट्स को फिर क्लिक करेंगे या किसी मित्र के सुझाव पर फ्रेंड रिक्वेस्ट भेजेंगे तो फेसबुक ऐसे और नए सुझाव आपके सामने पेश करेगा। इस तरह धीरे-धीरे फेसबुक का अल्गोरिथम आपके कंटेंट के चुनाव को निर्धारित और नियंत्रित करने लगता है। आपको अंदाज़ा भी नहीं होता है और आप फेसबुक के अल्गोरिथम द्वारा तैयार घेरे या बुलबुले में फंसते जाते हैं। लगातार एक खास तरह के कंटेंट या प्रोपेगंडा को देखते-पढ़ते धीरे-धीरे आप उसके आदती होने लगते हैं।

आखिर उसका एकमात्र मकसद आपको फेसबुक की ओर आकर्षित करना और वहां ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत करने के लिए बांधे रखना है। इसके जरिये ही फेसबुक अरबों डालर का मुनाफा कमाता है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें ज्यादातर कंटेंट राजनीतिक मकसद से आगे बढ़ाये गए सांप्रदायिक नफ़रत के जहर को आगे बढानेवाला या दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा या कांस्पिरेसी थियरी या फर्जी/झूठी खबर है। लेकिन लम्बे समय तक इस तरह के नफ़रत भरे, जहरीले, भड़काऊ, हिंसक और विभाजक प्रोपेगंडा के उपभोग का नकारात्मक असर यूजर्स की स्वतंत्र और क्रिटिकल सोच और विवेक पर हावी होने लगता है। यह उसकी सोच और विश्व दृष्टि और उसके फैसलों और चुनावों को प्रभावित करने लगता है। इसके गहरे सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक निहितार्थ हैं।

निर्दोषों के खून से रंगे हैं फेसबुक और व्हाट्सएप्प के हाथ

इस नफरती और जहरीले प्रोपेगंडा का असर देश के अन्दर इस्लाम/मुस्लिमों के झूठे भय (इस्लामोफोबिया) के बढऩे के रूप में सामने आ रहा है। इस्लाम/मुसलमानों के बारे में सच्ची-झूठी सैकड़ों भ्रांतियां बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय के मानस में घर जमाती जा रही हैं। इससे न सिर्फ सार्वजनिक विमर्श जहरीला, मुस्लिम-विरोधी और अल्पसंख्यक विरोधी हुआ है बल्कि देश भर में एक मतान्ध और हिंसक भीड़ पैदा हो गई है जो खुद को धर्मरक्षक, गो-रक्षक, लव-जिहाद विरोधी बताती है और जिसे परोक्ष-अपरोक्ष राज्य और सत्तारूढ़ राजनीतिक दलों का समर्थन भी हासिल है। इन उग्र और हिंसक स्वयंभू गो-रक्षक या हिन्दू-रक्षक समूहों को एक तरह की राजनीतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक 'वैधता’ और नए रंगरूट फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क और व्हाट्सएप्प के जरिये फैलाए गए नफरती और जहरीले प्रोपेगंडा के कारण भी मिलती है।

यह किसी से छुपा नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों में देश के कई हिस्सों में गो-हत्या रोकने या गो-मांस रखने के नामपर निर्दोष मुस्लिमों और दलितों की पीट-पीटकर हत्या (लिंचिंग) की अनेकों घटनाएं हुई हैं। ऐसे ही लव जिहाद रोकने के नामपर या कई बार बिना किसी कारण के भी किसी भी अकेले मुस्लिम युवा या बुजुर्ग को ''भारतमाता की जय’’ या ''वन्दे मातरम’’ बोलने के लिए कहकर अपमानित करने या उनके साथ मारपीट करने की घटनाएं बढ़ी हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि ऐसी घटनाएँ खासकर मतान्ध भीड़ की हिंसा (लिंचिंग) और स्वयंभू गो-रक्षकों या हिन्दू धर्म-रक्षकों की हिंसा के लिए अनुकूल जहरीला सांप्रदायिक माहौल बनाने में फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्क की बड़ी भूमिका है।

दूसरी ओर, फेसबुक के स्वामित्ववाला व्हाट्सएप्प, वास्तव में, सूचनाओं के सैन्यीकरण के लिए इस्तेमाल हो रहा है। सार्वजनिक प्लेटफार्म होने के कारण जो फेसबुक पर नहीं कहा जा सकता है, वह भी व्हाट्सएप्प संदेशों, समूह-संदेशों और फारवर्ड के जरिये लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। निजी संदेशों के आदान-प्रदान का यूजर से यूजर तक गोपनीय (इनक्रिपटेड) सन्देश होने के कारण फेसबुक जहरीले और नफरती सांप्रदायिक-दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा को बिना किसी जांच-पड़ताल के लोगों तक पहुंचाने का सबसे बड़ा माध्यम बन गया है। फेसबुक पर किसी भी नफरती सन्देश के चिन्हित होने और हटाए जाने की फिर भी थोड़ी संभावना रहती है। कुछ और नहीं तो कुछ फैक्ट चेकर्स या कोई सतर्क यूजर उसकी सच्चाई सामने ले आ सकता है लेकिन व्हाट्सएप्प पर ऐसी कोई निगरानी या नियंत्रण नहीं है।

इस मामले में व्हाट्सएप्प खासकर व्हाट्सएप्प ग्रुप्स एक बंद (क्लोज्ड) फेसबुक है जो किसी भी सार्वजनिक जांच-पड़ताल के दायरे से बाहर है. आश्चर्य नहीं कि वह स्वयंभू गो-रक्षा और हिन्दू-रक्षा दलों के नेटवर्किंग, संगठित होने, प्रोपेगंडा करने और हिंसक कार्रवाइयों को संचालित करने का माध्यम बन गया है। नतीजा यह है कि व्हाट्सएप्प का औद्योगिक स्तर पर इस्तेमाल झूठी और फर्जी खबरों के प्रसार, सूचनाओं को तोडऩे-मरोडऩे, अफवाहें फैलाने से लेकर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक जहरीले प्रोपेगंडा को आगे बढ़ाने और उसे सैन्यीकृत करने के लिए किया जा रहा है. सूचनाओं और प्रोपेगंडा के सैन्यीकृत करने से आशय यह है कि उन्हें इस तरह से गढ़ा और पेश किया जा रहा है कि वह सिर्फ सूचना या प्रोपेगंडा भर न रहकर घातक हथियार बन जा रही है जो प्राप्तकर्ताओं को उत्तेजित करने और हिंसा के लिए उकसाने में इस्तेमाल हो रही है। 

इस साल फऱवरी-मार्च में दिल्ली के दंगों की जमीन तैयार करने और उस दौरान अफवाहें $फैलाने और तनाव भड़काने में फेसबुक और व्हाट्सएप्प की भूमिका पर ऊँगली उठ चुकी है। यह सही है कि सांप्रदायिक दंगे या तनाव के लिए सिर्फ फेसबुक या व्हाट्सएप्प को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है लेकिन उनकी दंगों, हिंसा या तनाव को भड़काने और फैलाने में उनका जमकर इस्तेमाल हो रहा है।          

कांस्पिरेसी थियरी का अड्डा

इसके अलावा फेसबुक पर धुर दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक और हिंदुत्व की राजनीति के समर्थक अनेकों फर्जी और वास्तविक पेज और एकाउंट हैं जो खुलेआम फर्जी कांस्पिरेसी थियरी को आगे बढ़ाते हैं। इनके निशाने पर आमतौर पर राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन के वे नेता और नायक और आज के दौर में विपक्षी पार्टियाँ और उनके नेता होते हैं जो वैचारिक रूप से हिंदुत्व की राजनीति के खिलाफ और सेक्युलर विचारों के पक्षधर रहे हों। इनमें भी खासकर महात्मा गाँधी और नेहरु इनके निशाने पर सबसे ज्यादा रहते हैं. इन नेताओं के बारे में फेसबुक पर अपुष्ट, आधी-अधूरी, मनगढ़ंत, फर्जी और असंबंधित सूचनाओं को मिलाकर और तस्वीरों को फोटोशाप करके कांस्पिरेसी थियरी का एक ऐसा घातक काकटेल तैयार किया जाता है जिसका एकमात्र उद्देश्य इन नेताओं को चरित्रहीन, अय्याश, भारत-विरोधी, हिन्दू विरोधी, मुस्लिम समर्थक और अंग्रेज परस्त साबित करने से लेकर देश की सभी समस्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराने का होता है। फेसबुक इस अभियान का सबसे बड़ा प्रसारक, भंडार और मददकर्ता (फैसिलिटेटर) बन गया है।

कहने की जरूरत नहीं है कि कांस्पिरेसी थियरी का अनोखापन, वैचित्र्य, कथात्मकता, स्थापित तथ्यों को चुनौती, इतिहास की अनसुलझी गुत्थियों की नई व्याख्या और प्रतिष्ठान विरोधी रुझान बहुतेरे लोगों को आकर्षित करता है। यह उन्हें कई अनसुलझी-जटिल सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक समस्याओं की जटिलताओं और बारीकियों को समझे बिना उसकी जिम्मेदारी किसी और पर डालने और उसे स्थाई रूप से कोसते रहकर अपना हाथ झाड़ लेने का मौका देता है। दक्षिणपंथी-सांप्रदायिक शक्तियां ऐसे कांस्पिरेसी थियरी गढऩे में माहिर रही हैं. उन्हें फेसबुक ने एक बड़ा प्लेटफार्म और उन कांस्पिरेसी थियरी को उपभोग करने के लिए विशाल उपभोक्ता वर्ग दे दिया है।

लेकिन इससे देश में नागरिकों के एक बड़े हिस्से में भारतीय इतिहास और उसके महत्वपूर्ण किरदारों, उनकी भूमिका और योगदान के बारे में एक बहुत ही आधारहीन, तोड़ी-मरोड़ी, अधकचरी और नकारात्मक समझ बन रही है। एक अर्थ में फेसबुक और व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी पर देश का नया लेकिन विकृत और अधकचरा इतिहास लिखा जा रहा है जिसके केंद्र में तथ्य नहीं बल्कि मनगढ़ंत कांस्पिरेसी थियरिज हैं. किसी भी देश और समाज के लिए इससे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है कि नागरिकों के एक बड़े वर्ग का इतिहासबोध वैज्ञानिक तथ्यों, साक्ष्यों और पुष्ट सूचनाओं के बजाय आधारहीन, अधकचरी, तोड़ी-मरोड़ी जानकारियों, कपोल-कल्पनाओं और कांस्पिरेसी थियरी पर आधारित हो।

याद रहे- विकृत, तोडा-मरोड़ा और खास राजनीतिक हितों को साधनेवाला इतिहासबोध फासीवाद और अधिनायकवाद से लेकर धार्मिक-एथनिक नरसंहारों के लिए जमीन और तर्क तैयार करता रहा है।                                

लोकतंत्र के लिए खतरा

फेसबुक लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के लिए भी गंभीर खतरा बनता जा रहा है।

अमेरिकी न्यूज वेबसाईट 'बजफीड’ की एक ताजा खोजी रिपोर्ट के मुताबिक, फेसबुक ने अनेकों देशों में  अपने प्लेटफार्म पर मौजूद लाखों-लाख फर्जी एकाउंट की समस्या को जानबूझकर अनदेखा किया है या उसपर कार्रवाई करने में सुस्त रहा है। ये फर्जी एकाउंट दुनिया भर में चुनावों और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को कमजोर करने, उसके साथ तोड़मरोड़ करने और उसे अनुचित तरीके से प्रभावित करने की कोशिश करते रहे हैं। 'बजफीड’ ने फेसबुक के एक पूर्व कर्मचारी और डाटा वैज्ञानिक सोफी झांग के 6600 शब्दों के आंतरिक मेमो का हवाला देते हुए बताया है कि झांग ने ठोस उदाहरणों के साथ बताया है कि अज़रबैजान और होंडुरस में राष्ट्रप्रमुखों और उनकी राजनीतिक पार्टियों ने फेसबुक के फर्जी एकाउंट्स का दुरुपयोग करके जनमत को अपने पक्ष में मोड़ लिया।

फेसबुक का इस्तेमाल राजनीतिक प्रक्रिया में अनुचित हस्तक्षेप और तोड़मरोड़ करने का उल्लेख करते हुए झांग ने लिखा कि उनके हाथों पर खून के दाग है। झांग ने भारत, यूक्रेन, स्पेन, ब्राजील, बोलीविया और इक्वाडोर जैसे देशों में पाया कि फेसबुक का दुरुपयोग सुनियोजित समन्वय के साथ राजनीतिक अभियान चलाने में किया गया जिसका मकसद किसी को राजनीतिक रूप से उठाना या गिराना था। झांग ने अपने मेमो में लिखा है कि उसने अनेकों ऐसे मामले देखे जिसमें फेसबुक के प्लेटफार्म को कई देशों में वहां की सरकारों ने बहुत बड़े पैमाने पर अपने नागरिकों को खुलेआम बहकाने या धोखा देने के लिए दुरुपयोग किया है। झांग के मुताबिक उन्होंने खुद फेसबुक में रहते हुए बिना किसी उपरी निगरानी के ऐसे कई मामलों में फैसले किए जिनसे सीधे सरकारें और राष्ट्रपति प्रभावित हुए और कई देशों में अनेकों नेताओं के खिलाफ फैसले किए कि उनकी गिनती करना मुश्किल है।            

इससे पहले फेसबुक और कैम्ब्रिज एनालिटिका से जुड़ी एक और अधिकारी और व्हिसलब्लोवर ब्रिटनी कैसर ने आरोप लगाया था कि फेसबुक (व्हाट्सएप्प) दुनिया भर के तमाम देशों में लोकतन्त्रों को सबसे ज्यादा बोली लगानेवाले को बेचने के लिए तैयार रहता है। उल्लेखनीय है कि कैम्ब्रिज एनालिटिका ने फेसबुक के 8.7 करोड़ से ज्यादा यूजर्स का निजी डाटा निकालकर चुनावों के दौरान लोगों को उनकी सोच और पसंद के मुताबिक छोटे-छोटे समूहों में बांटकर उनके लिए लक्षित विज्ञापन और चुनाव अभियान चलाने की शुरुआत की थी। इसमें फेसबुक यूजर्स की सोच, भावनाओं, पसंद-नापसंद और रुचियों आदि अनेकों आधारों पर उनकी व्यक्तिगत प्रोफाइलिंग की गई थी।  

यह उन यूजर्स के साथ धोखा था क्योंकि उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं था। यह उनके निजता के हनन और निजी डाटा की चोरी थी जिसमें फेसबुक भी शामिल था। आरोप है कि इस बारे में पता चलने के बाद भी फेसबुक ने तब तक कुछ नहीं किया जब तक कि इस स्कैंडल का भंडाफोड़ नहीं हो गया। कैम्ब्रिज एनालिटिका पर इस डाटा का इस्तेमाल करके 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में वोटरों को व्यक्तिगत स्तर पर और बारीक तरीके से लक्षित करके प्रभावित और मैनिपुलेट करने का आरोप लगा था। कैम्ब्रिज एनालिटिका भारत में भी सक्रिय था। उसका इस्तेमाल करने का आरोप दोनों ही बड़ी पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस पर लगा था।

यही नहीं, 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों के दौरान आरोप भी लगा था कि रूसी एजेंसियों ने फेसबुक के प्लेटफार्म का दुरुपयोग डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन के खिलाफ और रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप के पक्ष में अमेरिकी मतदाताओं को प्रभावित करने किया था। इसी तरह ब्रिटेन में यूरोपीय समुदाय से अलग होने के मुद्दे पर हुए जनमतसंग्रह (ब्रेक्जिट) के दौरान भी फेसबुक का दुरुपयोग वोटरों को अनुचित तरीके से प्रभावित करने के लिए किया गया। इसके अलावा फेसबुक का ब्राजील के राष्ट्रपति चुनावों में भी दुरुपयोग हुआ और उसका राजनीतिक फायदा जयर बोल्सनारो ने उठाया। भारत समेत अनेकों देशों के उदाहरण हैं जहाँ फेसबुक ने कारोबारी हितों के लिए जानते-समझते भी अपने प्लेटफार्म का दुरुपयोग सत्तारूढ़ या ताकतवर पार्टी को करने दिया।

यहाँ तक कि हालिया अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी फेसबुक के दावों के विपरीत प्लेटफार्म पर ट्रंप समर्थक धुर दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा सबसे अधिक छाया रहा। फर्जी और झूठे समाचारों के अलावा धुर दक्षिणपंथी और श्वेत श्रेष्ठतावादी क्यू-अनान जैसे कांस्पिरेसी थियरी में विश्वास करनेवाले समूहों ने फेसबुक का इस्तेमाल डेमोक्रटिक पार्टी के खिलाफ तथ्यहीन और झूठे आरोप लगाने और ट्रंप को अमेरिका को बचानेवाले नेता की तरह पेश किया। यही नहीं, नतीजों के बाद ट्रंप और उनके समर्थकों की ओर से चुनाव और मतगणना में कथित फर्जीवाड़े (फ्राड) के झूठे और गुमराह करनेवाले आरोप सबसे ज्यादा फेसबुक के जरिये फैलाए गए।

न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कथित चुनावी फ्राड के आधारहीन आरोपों को वायरल करने, लोगों से उसका विरोध करने और उसके खिलाफ हिंसा करने तक अभियान सबसे ज्यादा फेसबुक पर चलाया गया। हालाँकि बाईडन टीम पिछले एक साल से फेसबुक को अपने प्लेटफार्म के दुरुपयोग के बारे में चेता रही थी। लेकिन वायदों और दावों के बावजूद फेसबुक ने कुछ नहीं किया और इसका नतीजा यह हुआ है कि अमेरिका में पूरी चुनावी प्रक्रिया खासकर मेल-इन-बैलेट की वैधता और मतगणना को वोटरों के एक हिस्से में संदेहों के घेरे में ला दिया है। इसके कारण चुनावी प्रक्रिया की विश्वसनीयता के साथ अमेरिकी लोकतंत्र की साख दाँव पर लग गई है।

फेसबुक के दोहरे रवैये का अंदाज़ा इस तथ्य से भी लगाया जा सकता है कि वह निरंतर दावा करता रहता है कि फेसबुक पर फर्जी (फेक न्यूज) ख़बरों और नफरती कंटेंट (हेट स्पीच) को रोकने के लिए वह हरसंभव कोशिश कर रहा है और इसके लिए प्रोफेशनल फैक्ट-चेकर्स की मदद ले रहा है। फैक्ट चेकर्स की मदद से वह फर्जी और झूठी ख़बरों और दावों/आरोपों को फ्लैग करता है। लेकिन सच क्या है? असम सरकार में मंत्री और भाजपा नेता हेमंत बिस्वा शर्मा ने अपने फेसबुक एकाउंट से एआईडीयूएफ नेता बदरुद्दीन अज़मल के एक कार्यक्रम का वीडियो शेयर करते हुए आरोप लगाया कि उसमें 'पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगे। ऑल्ट-न्यूज और बूम लाइव जैसे प्रतिष्ठित फैक्ट चेकर्स ने उस वीडियो की जांच के बाद बताया कि यह आरोप आधारहीन है और उसमें ऐसे नारे नहीं लगे। फेसबुक ने इस आधार पर शर्मा के पोस्ट को ''फेक इन्फार्मेशन’’ के रूप में फ्लैग कर दिया।

लेकिन जब मंत्री शर्मा ने इसका विरोध किया तो फेसबुक ने यह कहते हुए टैग हटा लिया कि राजनेताओं के पोस्ट तीसरे पक्ष यानी फैक्ट चेकर्स से जांच नहीं कार्य जाते और यह गलती से हुआ था। इसका अर्थ हुआ कि कोई भी राजनेता या मंत्री फेसबुक पर कुछ भी कहने और लिखने के स्वतंत्र है क्योंकि फेसबुक उसकी तीसरे पक्ष से फैक्ट-चेकिंग की इजाज़त नहीं देता है। इसका अर्थ यह भी हुआ कि फेसबुक नेताओं के झूठ को चिन्हित नहीं करेगा। लेकिन नेताओं के फेसबुक पर सबसे ज्यादा फालोवर होते हैं, उनके बयानों को लोग और मीडिया गंभीरता से लेते हैं और उनके बयानों का लोगों पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है. इसके बावजूद फेसबुक को लगता है कि नेताओं के बयान जांच-पड़ताल से बाहर हैं और उसके बारे में फेसबुक के यूजर्स को तथ्य और सच्चाई नहीं बताई जानी चाहिए तो अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि फेसबुक का किस हद तक दुरुपयोग किया जा सकता है। इस मायने में ये प्लेटफार्म लोकतंत्र और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के साथ-साथ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया के लिए वास्तविक खतरा बन गए हैं।         

टेक्नो-यूटोपियनिज्म की सीमाएं

यहाँ यह याद दिलाना जरूरी है कि फेसबुक लोगों, दोस्तों और परिवारजनों को आपस में जोडऩे, उनके बीच संपर्क और संवाद बढ़ाने के मकसद से शुरू हुआ था। कोई 16 साल पहले अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों को एक आभासी (वर्चुअल) मंच पर साथ लाने के उद्देश्य से 19 साल के मार्क जुकरबर्ग और उनके साथियों ने द फेसबुक डाट काम शुरू किया था। फेसबुक का मिशन वक्तव्य है- लोगों को समुदाय बनाने के लिए ताकत देना और दुनिया को एक साथ करीब लाना. शुरुआत वर्षों में वह एक ऐसे मंच की तरह आया जिसने लोगों को आपस में जोडऩे, नेटवर्क बनाने,उन्हें साझा मुद्दों पर साथ लाने, सक्रिय (मोबिलाइज) करने, अपनी आवाज़ उठाने और कई अनसुनी आवाजों को मंच देने से लेकर पब्लिक स्फीयर और सार्वजनिक विमर्श के जनतान्त्रिकीकरण की उम्मीद पैदा की।

यह किसी बड़ी सामाजिक क्रांति से कम नहीं था जहाँ एक इंटरनेट प्लेटफार्म सोशल नेटवर्किंग के लोकप्रिय मंच में बदल रहा था. उसमें काफी हद तक विचारों और आवाजों की विविधता और बहुलता थी. मुख्यधारा के कार्पोरेट मीडिया में जो आवाजें सुनाई नहीं देती थीं या जिन विचारों को जगह नहीं मिलती थी, उन्हें भी उनकी ताकत और सक्रियता के मुताबिक जगह मिल रही थी. इन वजहों से फेसबुक और उसके जैसे दूसरे सोशल मीडिया प्लेटफाम्र्स को देशों और समाजों में जनतान्त्रिकीकरण के माध्यम की तरह देखा जा रहा था।

फेसबुक और दूसरे सोशल नेटवर्किंग साइट्स में मौजूद संभावनाओं को लेकर तकनीकविदों, समाजवैज्ञानिकों और मीडिया विशेषज्ञों का एक बड़ा बहुत उत्साहित था। उन्हें लग रहा था कि फेसबुक आम नागरिकों को न सिर्फ अपने अधिकारों के प्रति सचेत कर रहा है और अधिकारसंपन्न बना रहा है बल्कि नागरिक मुद्दों के साथ उनका एंगेजमेंट बढ़ा रहा है। कुछ तकनीकविदों को इस नई तकनीक- फेसबुक से इतनी अधिक उम्मीदें पैदा हो गईं थीं कि उन्हें लग रहा था कि दुनिया और देशों के सामने मौजूद बहुतेरी बुनियादी समस्याओं का हल इस नई तकनीक में है। इन तकनीक-आदर्शवादियों (टेक्नो-यूटोपियन) के लिए फेसबुक और दूसरे नए माध्यम एक नई सामाजिक-तकनीकी क्रांति के सूत्रधार थे।            

इन धारणाओं को वर्ष 2010-11 में अरब जगत में अरब बसंत (अरब स्प्रिंग) से लेकर भारत और दुनिया के कई और देशों में भ्रष्ट और अधिनायकवादी सरकारों के खिलाफ लोकतंत्र, आज़ादी, बुनियादी जरूरतों और बेहतर जीवन के लिए शुरू हुए लोकप्रिय आन्दोलनों में लोगों को संगठित और आंदोलित करने में फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म की अहम भूमिका से और ज्यादा बल मिला। इसमें कोई शक नहीं है कि अरब जगत की तानाशाह और उत्पीड़क हुकूमतों ने जहाँ जनसंचार के सभी माध्यमों और सूचनाओं/विचारों के स्वतंत्र प्रवाह पर कड़ा नियंत्रण लगा रखा था, फेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म ने लोगों गुमनाम रहकर या खुले में अपने विचार प्रकट करने, सूचनाओं और समाचारों को शेयर करने, अपनी परेशानियाँ, तकलीफ, गुस्सा जाहिर करने, इकठ्ठा होने और सड़क पर उतरने में मदद की। ये माध्यम लोगों के बीच सूचनाएं शेयर करने, नेटवर्किंग और संगठित करने और आन्दोलन के लिए सड़क पर उतरने के वैकल्पिक माध्यम बन गए।

लेकिन इन क्रांतियों की उम्र ज्यादा लम्बी नहीं रही। ज्यादातर देशों में लोकतंत्र बहाली का आन्दोलन शुरूआती कामयाबी के बाद नाकाम रहा। कई देशों में इन क्रांतियों के बाद हुए राजनीतिक बदलाव में एक अधिनायकवादी और उत्पीड़क सरकार की जगह जल्दी ही दूसरी तानाशाह और उत्पीड़क सरकार आ गई। कई देशों में लोगों में फैले असंतोष और गुस्से का फायदा उठाकर नए पापुलिस्ट और अधिनायकवादी नेता पैदा हो गए। उन्हें सोशल मीडिया की ताकत और प्रभाव का अंदाज़ा हो गया था। इन सरकारों और पापुलिस्ट नेताओं ने फेसबुक समेत सभी सोशल मीडिया का इस्तेमाल अपने संगठित प्रोपेगंडा के लिए करना, उसपर निगरानी रखना और फेसबुक की मदद से उसको अपने राजनीतिक हितों को आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करने से लेकर जनमत और पब्लिक परसेप्शन को तोडना-मरोडऩा (मैनिपुलेट) करना शुरू कर दिया।

अगले कुछ सालों में फेसबुक ने लोगों का ध्यान खींचकर उसे विज्ञापनदाताओं को बेचने और उससे मुनाफा कमाने के धंधे में अपनी बढ़त बनाए रखने के लिए ऐसा अल्गोरिथम तैयार किया जिससे फेसबुक पर फर्जी, झूठी और प्रोपेगंडा 'ख़बरों’ के साथ-साथ समाज में एक-दूसरे नफरत फैलानेवाली, सांप्रदायिक रूप से जहरीले, भड़काऊ, उत्तेजक और ध्रुवीकरण को बढ़ानेवाले दक्षिणपंथी प्रोपेगंडा कंटेंट- एकाउंट्स, पोस्ट्स, पेज, वीडियो आदि की खेती लहलहाने लगी। दूसरी ओर, फेसबुक ने अपने किसी भी प्रतिद्वंद्वी को आगे बढऩे नहीं दिया. जिस भी नए सोशल मीडिया उपक्रम और टेक्नालाजी कंपनी से उसे खतरा महसूस हुआ, उसने उसे भारी-भरकम कीमत देकर खरीद लिया। 

जरूरी है फेसबुक की असीमित ताकत और प्रभाव पर अंकुश                 

इसमें कोई शक नहीं है कि आज वैश्विक स्तर पर और भारत जैसे अनेक देशों में फेसबुक ने असीमित ताकत और प्रभाव हासिल कर लिया है। वह दुनिया की सबसे बड़ी, ताकतवर और राजनीतिक रसूखवाली कंपनियों में से एक है. शेयर मार्किट की गिरावट के बावजूद उसका बाज़ार पूंजीकरण 787.5 अरब डालर है। यह सबसे बड़ी भारतीय कंपनी रिलायंस के बाज़ार पूंजीकरण से चार गुना अधिक है। उसने ज्यादातर देशों में अपने पैसे और प्रभाव की ताकत, सत्तारूढ़ पार्टियों और नेताओं से गहरे रिश्तों और लाबीइंग के जरिये यह सुनिश्चित किया है कि वह किसी भी रेगुलेशन के दायरे में न आये और न ही उसकी किसी भी गलती या अपराध के लिए उसके खिलाफ कोई कार्रवाई हो।

आश्चर्य नहीं कि फेसबुक पर फेक न्यूज, नफरती, जहरीले और भड़काऊ कंटेंट की भरमार और उसके कारण दुनिया के अनेकों देशों में खतरनाक स्तर तक बढ़ गए सामाजिक/धार्मिक/एथनिक ध्रुवीकरण, विभाजन, तनाव, टकराव और हिंसा से लेकर सार्वजनिक विमर्श को जहरीला बनाने और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में तोड़मरोड़ जैसे गंभीर आरोपों के बावजूद उसे नियंत्रित करने, अपने सामुदायिक मानकों को बेहतर बनाने और उसे कड़ाई से लागू करने की व्यवस्था करने या रेगुलेशन के दायरे में लाने और उसपर कार्रवाई करने की हिम्मत कोई सरकार नहीं दिखा रही है. वैसे भी ज्यादातर देशों में सरकारें फेसबुक के नफरती/जहरीले कंटेंट और लोकतान्त्रिक और चुनावी प्रक्रिया में तोड़मरोड़ की लाभार्थी हैं। उनसे कार्रवाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।

उलटे एक खतरा यह है कि फेसबुक पर अंकुश लगाने या उसे रेगुलेट करने के नामपर सरकारें फेसबुक पर विरोधी और क्रिटिकल आवाजों को रोकने या बंद करने की कोशिश करें। यह दवा, बीमारी से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकती है। जाहिर है कि यह कोई वास्तविक समाधान नहीं है। इसी तरह फेसबुक पर कोई प्रतिबन्ध भी समाधान नहीं है। फेसबुक निजी और सार्वजनिक जीवन का एक अनिवार्य हिस्सा बन चुका है। 

यही नहीं, दुनिया के कई देशों में एक दैत्याकार कंपनी के रूप में फेसबुक की लगातार छोटी-मंझोली लेकिन प्रतियोगी कंपनियों को खरीदकर प्रतियोगिता को खत्म करने की कोशिशों के खिलाफ उसे विभाजित करने की मांग उठ रही है। इसके साथ ही अमेरिका और कुछ और देशों में फेसबुक के नफ़रत के कारोबार से मुनाफा कमाने के खिलाफ कई बड़ी कंपनियों ने एलान किया है कि जब तक फेसबुक नफ़रती कंटेंट को रोकने के ठोस और गंभीर प्रयास नहीं करता है, वे कम्पनियाँ फेसबुक पर विज्ञापन नहीं देंगी। इस साल जुलाई में फेसबुक के खिलाफ ''स्टाप हेट फार प्राफिट’’ अभियान शुरू हुआ है जिसमें यूनीलीवर, फाक्सवैगन, माइक्रोसाफ्ट, वेरिज़ोन जैसी बड़ी कम्पनियाँ शामिल हैं।

लेकिन इसका फेसबुक पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ा है. वह अभी भी मुद्दे से ध्यान भटकाने और दूसरे पीआर स्टंट के जरिये अपनी जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहा है। फेसबुक अपने अल्गोरिथम में कोई बदलाव करने के लिए तैयार नहीं है जो फेक न्यूज, धुर दक्षिणपंथी जहरीले प्रोपेगंडा, नफरती कंटेंट और हिंसक कांस्पिरेसी थियरी को आगे बढाता है। साथ ही, वह ऐसे जहरीले, भड़काऊ और हिंसा के लिए उकसानेवाले कंटेंट को फेसबुक पर से हटाने के लिए तत्परता दिखाने को भी तैयार नहीं है जो उसके अपने सामुदायिक मानकों के खिलाफ हैं और जिसे उसके अपने कंटेंट माडरेटर्स ने फ्लैग किया है।

समय आ गया है जब आम नागरिकों, सिविल सोसायटी संगठनों, बुद्धिजीवियों, यूनिवर्सिटियों, अदालतों और फेसबुक यूजर्स को फेसबुक और उसकी कारगुजारियों पर निगरानी रखने और उसपर सामाजिक अंकुश लगाने का तौर-तरीका पेश करें। फेसबुक पर दबाव बढ़ाया जाना चाहिए कि वह अपने प्लेटफार्म पर आनेवाले कंटेंट की जिम्मेदारी ले और अपने कामकाज को और पारदर्शी बनाए और उसे सार्वजनिक पड़ताल के लिए खुला करे। जन शिकायतों को सुनने और उसपर की गई कार्रवाई को पब्लिक करने की व्यवस्था करे। लेकिन सबसे बढ़कर फेसबुक पर अपने अल्गोरिथम को सामाजिक-नैतिक रूप से जिम्मेदार बनाने के वास्ते उसमें जरूरी बदलाव लाने के लिए भी दबाव बनाया जाना चाहिए।

जाहिर हैं कि जहाँ अरबों डालर का मुनाफा दाँव पर लगा हो, वहां फेसबुक में कोई भी बड़ा और प्रभावी बदलाव आसान नहीं होगा। फेसबुक के रवैये से भी साफ़ है कि वह आसानी से बदलनेवाला नहीं है।

लेकिन नागरिक समाज के पास विकल्प भी क्या है?

 

जनसंचार के प्राध्यापक आनंद प्रधान मीडिया, सामाजिक व आर्थिक मसलों पर विभिन्न माध्यमों में आलोचक एवं विश्लेषक के रूप में लम्बे समय से सक्रियता से हस्तक्षेप कर रहे हैं।

संपर्क- मो. 9818305418, नई दिल्ली

 

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