'भारतीय मुसलमान’ : परम्परा और नवजागरण

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी 'भारतीय मुसलमान’ : परम्परा और नवजागरण
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम समीर कुमार पाठक





किताबें

मूल्यांकन/कर्मेन्दु शिशिर

 

 

     राष्ट्र, राष्ट्रवाद और देशभक्ति की उत्सवी कीर्तन-लीला करने वाले लोग 'एकांतिक इस्लामी राजनीति... अलगाववाद, विशेषाधिकारवाद और उग्रवाद’ के सवाल पर बात करते हुए यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि : 'शरीयत और कुरान को राजनीति का सिद्धान्त बना देने के कारण मुस्लिमों में लोकतंत्र और देशभक्ति जैसे मूल्य खारिज करने का बीज स्वत: निहित है।’ मुसलमानों के बारे में कई बार बहुसंख्यकवादी मानसिकता और स्कूली पाठ्यक्रमों की संकीर्णता के कारण हम अल्पसंख्यक सवाल, योगदान और उपलब्धियों को न सिर्फ नज़रअन्दाज करते हैं बल्कि अपनी साझी सहादत और साझी विरासत को भी गड्डमड्ड कर देते हैं। 'इस्लाम, मुसलमान और आतंकवाद’ को घालमेल कर पर्यायवादी सा बना दिया जाता है। चाहे यह जानबूझकर किया जाता है या नासमझी के कारण होता है - पर है यह बेहद खतरनाक!

आज देश में जो दौर चल रहा है, उसमें राजसत्ता की साम्प्रदायिक विद्रूपताओं और बौद्धिक-अकादमिक महत्वाकांक्षाओं का गठजोड़ जोर-शोर से कहने लगा है कि अतीत में मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुस्तान में इस्लाम को लादने और इसकी गलत और नाजायज़ तबलीग करने की कोशिश की और इस सिलसिले में तरह-तरह के जुल्म भी किये। इस सोच के विकास में आज की मीडिया और राजनीति ने अभूतपूर्व योगदान दिया है। दरअसल ये लागे सिर्फ अपनी जात, अपनी क़ौम और अपने कारनामों के अलावा और कुछ भी नहीं देखते और न देखना चाहते हैं। इस तरह वे एक तरफ सांस्कृतिक लम्पटता का प्रदर्शन करते हैं तो दूसरी तरफ भारतीय सांस्कृतिक चेतना को सीमित करने का अक्षम्य अपराध भी करते हैं। अली सरदार जाफरी ने कहीं लिखा है कि ''हम दरअसल नैरो नेशनलिज़्म के शिकार हो गये हैं। कल्चर का हॉरिजन, नैरोनेशनलिज्म से बड़ा हुआ करता है। नैरो नेशनलिज़्म हमेशा कल्चर के परों को कुतरना चाहता है और ख़ानों में बाँटकर देखता है और यही इन दिनों हो रहा है, जिसकी सख्त मज़म्मत की जानी चाहिए।’’ इस दिशा में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित कर्मेन्दु शिशिर की किताब 'भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’ - एक महत्वपूर्ण हस्तक्षेप हैभारतीय मुस्लिम चेतना के बारे में कर्मेन्दु शिशिर ने इस किताब में अत्यन्त सारगर्भित, तार्किक और वस्तुनिष्ठ विश्लेषण किया है। वे इस्लाम सम्बन्धी इन पूर्वाग्रहों से मुक्त हैं, जिनसे हमारे अकादमिक बौद्धिक भी यदाकदा ग्रस्त रहते हैं। कर्मेन्दु शिशिर 'विषय-प्रवेश’ केरूप में फ्रेंच अमेरिकन स्तंभकार गाय सोर्मन के उद्धरण से 'अपनी बात’ प्रारम्भ करते हैं : ''मुसलमान सभ्यताओं के आधार पर जितने बँटे हुए हैं, उतने धर्म की डोर से नहीं बँधे हैं... भारतीय मुसलमान उतने ही अपने सांस्कृतिक परिवेश की उपज हैं, जितने कि इस्लाम के। एक अरब मुसलमान भारतीय मुसलमान से बिल्कुल अलग हैं... ये पश्चिम की इस धारणा का मजाक है कि मुस्लिम तथाकथित इस्लामी संस्कृति के अतिरिक्त किसी भी स्थानीय संस्कृति में रच-बस नहीं पाते... भारत में रहने वाले मुसलमानों ने इस मिथक की धज्जियाँ उड़ा दी हैं कि इस्लामिक धर्मनिरपेक्ष राज्य या लोकतंत्र के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाता। भारतीय लोकतंत्र में उन्होंने दिलोजान से शिरकत की है।’’  यह उद्धरण सिर्फ एक पुस्तक का उद्धरण भर नहीं है बल्कि भारतीय समाज की बहुधार्मिकता एवं बहु-संस्कृतिवाद के बीच मुस्लिम समाज की उपस्थिति, इतिहास और पहचान को समझने की कुंजी भी है।

भारतीय समाज में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच बहुत दिलचस्प किस्म के रिश्ते रहे हैं, जहाँ का धार्मिक-साम्प्रदायिक तानाबाना काफी कुछ इन दो बड़े धर्मों के आपसी सम्बन्धों से निर्मित होता है। भारत में इस्लाम के आगमन से ही दोनों के बीच खट्टे-मीठे रिश्तों की शुरुआत होती है। इनके रिश्तों में सहयोग-सद्भाव और संघर्ष का अजीब त्रिकोण है। दोनों ने एक-दूसरे से बहुत कुछ लिया और दिया परंतु सैकड़ों सालों से परस्पर लड़ते-झगड़ते भी रहे। साहित्य, संगीत, स्थापत्य, चित्रकला, मूर्तिकला, पाकशास्त्र, दर्शन, युद्धशास्त्र - जीवन का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं था, जिसमें इन दोनों धर्मों ने एक-दूसरे को प्रभावित न किया हो। इसलिए यह कहना वाजिब है कि ''इस्लाम के आने के बाद भारत वही नहीं रह गया जो उसके आने के पहले था और इसी तरह भारत में इस्लाम के तौर-तराकों में जो फर्क आया वे उसे उसके उद्गम मध्यपूर्व और दूसरे भूखण्डों पर फल-फूल रहे इस्लाम से काफी हद तक भिन्न बना देते हैं।’’ बावजूद इसके भारतीय समाज में साम्प्रदायिक मानसिकता का संस्थानीकरण मजबूती के साथ आगे बढ़ा है। साम्प्रदायिक मानसिकता का यह विकास अत्यन्त खतरनाक है। यह खतरनाक इसलिए नहीं है कि इससे अल्पसंख्यकों के बारे में पूर्वग्रहों में बढ़ोत्तरी हुई है बल्कि यह खतरा इससे अधिक है क्योंकि इसी अवधि में अल्पसंख्यकों का दानवीकरण हो रहा है; बहुसंख्यक आबादी के एक बड़े हिस्से को उग्र विजयोन्माद के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा है; धर्मनिरपेक्षता के प्रचलित अर्थ को प्रश्नांकित किया जा रहा है साथ ही मु$ख्तलिफ धर्मों के वाजिब पर्सनल लॉ विधान को प्रजातंत्र से असंगत निरुपित किया जा रहा है और इससे आगे बढ़कर राष्ट्रवाद की किसिम-किसिम की व्याख्याओं द्वारा भय और उन्माद की हवा भी बहाई जा रही है। ऐसा नहीं कि यह पहली बार हो रहा है बल्कि पहले भी यह उन्मादी हवा चल चुकी है और इसका प्रतिरोधी मूल्यांकन भारतीय बौद्धिकों ने किया भी है। इस विषय पर लगभग डेढ़ दर्जन से ऊपर पुस्तकें निकली हैं।

कर्मेन्दु शिशिर के काम से परिचित लोग जानते हैं कि वे न सिर्फ कहानीकार-उपन्यासकार एवं आलोचक हैं बल्कि हिन्दी नवजागरण के गंभीर अध्येता और बौद्धिक विमर्शकार भी हैं। हिन्दी नवजागरण के शोध-विश्लेषण एवं आधुनिक भारतीय परिदृश्य में उसकी महत्ता का मूल्यांकन करने के कारण हिन्दी समाज में उनकी अलहदा सम्मानजनक विशिष्ट पहचान है। उनकी वैचारिक परिधि नवजागरण के बीहड़ अरण्य की ओझल स्मृतियों और हिन्दी भाषा-भाषी समाज के महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दुओं की खोज करती है। उनके आलोचनात्मक चिंतन का बड़ा हिस्सा नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन-विवेचन से सम्बन्धित है। अपनी तथ्यपरक अनुसंधान दृष्टि एवं गहरी अन्वेषण दृष्टि के कारण विस्तृत हिन्दी जगत् में उनका अपना खास पाठक वर्ग है। उनका यह विमर्श परिवार कई महानगरों, शहरों, कस्बों, और गाँवों तक में फैला है और उनके सहयोग-मार्गदर्शन में भारतीय नवजागरण की अनन्त संभावनाओं एवं अज्ञात-अल्पज्ञात पक्षों के अनुसंधान में सक्रिय है। भारतीय क्रांतिकारी आन्दोलन और जनपदीय इतिहास लेखन से सम्बद्ध सुधीर विद्यार्थी के लेखन पर टिप्पणी करते हुए कर्मेन्दु जी ने लिखा है कि : ''भारतीय नवजागरण की एक सशक्त धारा उन लोगों की थी, जिन्होंने सशस्त्र संघर्ष से देश को आजाद कराने की दुर्लभ कोशिश की... इनका लिखा तथा इन पर लिखा साहित्य नवजागरण की दुर्लभ थाती है। यह भारत के आधुनिक इतिहास की शर्मनाक विडंबना ही है कि इस समझौताविहीन क्रांतिकारी धारा को सायास परिधि से बाहर या पास रखने की कोशिश की गई। यह सुखद बात है कि अत्यन्त कर्मठ और समर्पित रचनाकार सुधीर विद्यार्थी ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्यों के द्वारा अपनी एक पहचान कायम की है। वे नवजागरण के एक जरूरी अध्याय को पूरा कर रहे हैं... उन्होंने उसके प्रति रचनात्मक दायित्वबोध को इस रूप में संभव किया, जो बेशक एक उपलब्धि है। हिन्दी के समकालीन साहित्यकारों के आत्ममुग्ध और अनेक प्रवंचनाओं से भरे इस परिदृश्य में सुधीर विद्यार्थी उन लोगों में है, जो आत्म-प्रचार और यशाकांक्षा से अधीर हुए बिना चुपचाप इस जरूरी कार्य को सम्पन्न और विस्तार देने में लगे रहे। उन्हें इस बात की कभी चिंता नहीं रही कि उनके सप्रयोजन और सकर्मक प्रयत्नों की साहित्य के इस उदारीकरण वाले रंगारंग बाज़ार में कितनी गुंंजाइश होगी। दरअसल उनका कार्य उन बीहड़ रास्तों की ओर ले जाने को प्रेरित करने वाला है, जिन पर चलने की कूवत आज की पीढ़ी में बड़ी तेजी से क्षीण होती जा रही है।’’  असल में कर्मेन्दु शिशिर की यह बात जितना सुधीर विद्यार्थी के लिए सच है, उतनी ही स्वयं उनके बारे में भी। वे हिन्दी भाषा-भाषी समाज की जातीय-सांस्कृतिक परम्परा और पृष्ठभूमि का वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने वाले थोड़े से लोगों में हैं, जिन्होंने अनुसंधानपरक चिंतन से भारतीय समाज के विचार-भूगोल के बनने, बिगडऩे और बदलने की ऐतिहासिक प्रक्रिया का विश्लेषण किया। 'नवजागरण और संस्कृति’; 'राधामोहन गोकुल और हिन्दी नवजागरण’; 'हिन्दी नवजागरण और जातीय गद्य परम्परा’; 'भारतीय नवजागरण और समकालीन संदर्भ’ और '1857 की राज्यक्रांति : विचार और विश्लेषण’ जैसी आलोचनात्मक पुस्तकों के द्वारा उन्होंने सन् 57 की पृष्ठभूमि में हिन्दी नवजागरण का महत्व स्थापित करते हुए हिन्दी प्रदेश के दुर्लभ उन्नायकों की खोज की है और 'राधामोहन गोकुल समग्र’ (दो भाग); 'नवजागरण, पत्रकारिता और मतवाला’ (तीन खण्ड) तथा 'नवजागरणकालीन पत्रकारिता और मर्यादा’ (छह खण्ड) जैसे सम्पादित ग्रंथों के माध्यम से नवजागरणकालीन परिवेश और विचारबोध से सम्बन्धित दुर्लभ सामग्री का दस्तावेजीकरण कर नवजागरण विमर्श के विचार क्षेत्र का विस्तार भी किया है; साथ ही बँधे-बँधाये पैटर्न से अलग अध्ययन-अनुसंधान के नये गवाक्ष खोले हैं। यह अकारण नहीं है कि पुस्तक की भूमिका में अपने मित्रों-सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए उन्होंने विनम्रता से कहा है कि : ''मैं इन तमाम मित्रों, शुभेच्छुओं में किसी के प्रति कोई कृतज्ञता प्रकट नहीं कर रहा, क्योंकि ये सभी इस काम के भागीदार हैं और उन सबके सामूहिक उपक्रम का ही यह सुफल है।’’  'सबकी भागीदारी’ और 'सामूहिक उपक्रम’ की बात इसलिए भी कि अरबी-फारसी के दस्तावेज, उर्दू की टिप्पणियाँ तथा भारतीय समाज की धार्मिक संरचना के बीच मुस्लिम समाज की सामाजिक-आर्थिक संरचना एवं धर्मशास्त्रीय विधि-निषेध सम्बन्धी निष्पत्तियों पर राय काम करने, तार्किक निष्कर्ष पर पहुँचने या अपने तर्क-विश्लेषण की सही दिशा तय करने में कर्मेन्दु जी ने न जाने कितने लोगों से अकादमिक स्तर पर सहयोगी रिश्ता कायम किया होगा। मैं व्यक्गित रूप से जानता हूँ कि फारसी की किसी सामग्री की दूसरी प्रति की उपलब्धता जानकर या मूल सामग्री में हल्का पाठ-भेद मिलने पर भी कर्मेन्दु जी ने बहुत सारा अतिरिक्त धन खर्च कर, अपने दैनिक कामकाज का नुकसान कर इस पुस्तक के लिए अपना सर्वोत्तम झोंक दिया लेकिन अपने स्तर से विषय निरुपण और महत्व-मूल्यांकन में किसी तरह की कमी नहीं आने दी और इस तरह भारतीय समाज के भीतर मुस्लिम समाज की निर्मिति, संगति और परिणति का बृहद लेखा-जोखा के रुप में 'भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’  विषयक दो खण्ड कर्मेन्दु शिशिर की जीवटता और ज्ञान साधना के महत्वपूर्ण पड़ाव हैं। यह किताब 'भारत में इस्लाम की शुरुआत’ से प्रारम्भ होती है और गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंंश, मुगलवंश से होते हुए आधुनिक भारत और भारतीयता के निर्माण में सक्रिय मुस्लिम बौद्धिकों के अवदान पर खत्म होती है। एक गहरी सांस्कृतिक समझ और आलोचनात्मक विवेक के साथ मुस्लिम विचारलोक और समाजबोध का इतिहास बयान करते हुए भी कर्मेन्दु शिशिर 'इतिहास लेखन’ से अपने का अलगाने की कोशिश करते हैं। उन्हें शायद इस बात का डर है या सहज अकादमिक संकोच कि जो लोग इतिहास को एक विशिष्ट ज्ञान-अनुशासन के रूप में देखते हैं (और ऐसा देखना वाजिब भी है), वे उन्हें न इतिहासकार मानेंगे, न उनके विश्लेषण को प्रमाणिक क्योंकि अकादमिक अर्थ में इतिहास से संबद्धता रखने वाले लोगों ने डॉ. रामविलास शर्मा जैसी महत्वपूर्ण शख्सियत को भी इतिहासकार नहीं माना जबकि उनकी स्थापनाएँ पेशेवर इतिहासकारों के लिए चुनौती सी हैं। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर ने कहा कि : ''इतिहास में अनाधिकृत अतिक्रमण की मेरी कोई मंशा नहीं, न कोई दावा - यह सिर्फ और सिर्फ इतिहास का एक निजी सफर है और इस सफर के अपने संस्मरण हैं।... मैं फिर दुहराऊँ - यह इतिहास नहीं है; इतिहास का एक सफर है, निजी और नितांत निजी सफ़र!’’

1.

'भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’  का पहला खण्ड आज के दौर में सुनियोजित ढंग से फैलाये जाने वाली भ्रामक मान्यताओं का खण्डन है बल्कि आगे बढ़कर इस बात का भी खण्डन है कि मध्यकालीन भारतीय समाज में हिन्दुओं के मुसलमान बनने के पीछे मुस्लिम राजाओं की ताकत और आतंक की भावना थी। यह सच है कि कुछ व्यक्तियों और जमींदारों ने डर के मारे या इनाम-वो-इकराम की उम्मीद से इस्लाम को अपनाया होगा परंतु ऐसे लोगों की संख्या उन दलित-शूद्रों से बहुत कम थी जो काफी बड़ी संख्या में मुसलमान बने। कई समुदायों ने इस्लाम और हिन्दू दोनों धर्मों की परम्परा को अपनाया लेकिन धार्मिक-साम्प्रदायिक भ्रान्तियाँ लगातार बढ़ती रहीं। इसका कारण यह भी रहा कि हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा फैलायी गयी झूठी किंवदन्तियों का मुकाबला, मुस्लिम फिरकापरस्त ताकतों ने उतनी ही झूठी और उतनी ही शरारतपूर्ण अफवाहों से किया और इस तरह फिरकापरस्ती का यह गठजोड़ एक-दूसरे समुदाय के बारे में बेसिर-पैर की अफवाहें फैलाने में कामयाब रहा बल्कि आज भी जब तब एक-दूसरे के लिए खाद-पानी उपलब्ध कराता रहता है। कर्मेन्दु शिशिर ने लिखा है कि : ''ज्यों ही हम यह मान लेते हैं कि भारतीय मध्यकाल के शासक, सामन्त शासक नहीं बल्कि एक कौम विशेष के प्रतिनिधि थे, बरा... मामला आर-पार का बन जाता है। इसमें एक कौम बादशाहों को मुसलमान मानकर खुद को शासक जाति से जोड़कर एक मूर्खता भरे अहंकार में डूब जाता है तो दूसरा उस समूचे दौर के एक-एक मामले का बदला लेने को उद्धत हो जाता है।’’  कर्मेन्दु शिशिर का जोर इस बात पर है कि ''यह कहना कि मुस्लिम कौम में परिवर्तन और गतिशीलता अनुपस्थित रही है- एकदम गलत बात होगी।... पूरे इस्लामी समाज में एकरेखीयता जैसी बात नहीं रही... इस्लाम के नाम पर स्थापित राज्यों में भी कुरानशरीफ के आदेशों का हू-ब-हू अनुपालन नहीं हुआ।’’  भारतीय समाज में मुसलमानों के आगमन और महमूद गजनवी के बारे में तरह-तरह की किंवदन्तियाँ कही-बताई जाती हैं, जो आज भी भारतीयों को कसमसाती, उत्तेजित और विचलित करती हैं पर कर्मेन्दु शिशिर 7वीं शताब्दी में ईरानी-अरब व्यापारियों, सैलानियों के आवागमन के सिलसिले से लेकर मुहम्मद गोरी के आक्रमण तक के समय का मूल्यांकन करते हुए एक तरफ यह कहने का साहस करते हैं कि भारत में इस्लामी राज्य स्थापित करने का यशोगान किया जाता है लेकिन क्रूरता, कत्लेआम और तलवार की नोंक पर धर्म परिवर्तन की घटनाओं को प्रयत्न पूर्वक ढंका जाता है लेकिन दूसरी तरफ यह भी कहना नहीं भूलते कि भारत और मुसलमानों के आक्रमण, मंदिर ध्वंस और बेशुमार लूट-खसोट को लेकर जिस घनीभूत घृणा का इजहार किया जाता है, उसमें आवेग-उत्तेजना ज्यादा और विवेक तथा समझदारी कम दिखाई देती है। इस संदर्भ में महमूद गजनवी से सम्बन्धित डॉ. आर.सी. मजूमदार और प्रो. इरफान हबीब के विवेचन में 'लुटेरा’ और 'धर्मयोद्धा’ वाली छवि के लिए कर्मेन्दु शिशिर ने इतिहासकारों के अन्तर्विरोध को जिम्मेदार माना है। दरअसल मध्यकालीन इतिहास की मूल स्रोत-सामग्री से गुजरते हुए कर्मेन्दु शिशिर कई जगह प्रो. इरफान हबीब, हरवंश मुखिया, सतीशचन्द्र और खालिक अहमद निजामी की स्थापनाओं से असहमति जाहिर करते हैं लेकिन कोशिश सार्थक और रचनात्मक यथार्थ तक पहुँचने की करते हैं। इस तरह कर्मेन्दु शिशिर ने पं. जवाहरलाल नेहरू, डॉ. ताराचन्द, प्रो. इरफान हबीब एवं प्रो. हरबंश मुखिया के हवाले से 'भारत में इस्लाम के उदय’ की पृष्ठभूमि समझने की कोशिश की है लेकिन उनका उद्देश्य राजसत्ता और धर्मसत्ता का वर्चस्व बयान करना नहीं है, न धार्मिक हठीलेपन के खूनी संघर्ष का वर्णन करना है। वहाँ कर्मेन्दु शिशिर का जोर इस्लाम के आगमन और भारतीय समाज के साथ उसकी अन्त:क्रिया को समझने का है जिसके कारण 'उत्तर भारत’ के कितने ही हिन्दू राज्य और कुछ दक्षिण भारत के राज्य भी, दिल्ली में स्थापित मुस्लिम सत्ता के अधीन हो गये थे और उन्होंने सल्तनत की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार कर लिया था।

कर्मेन्दु शिशिर ने दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल के परिवेश में अन्तर करते हुए बहुत मार्के की बात की है : ''अगर आप बाबर और इसके बाद के शासकों और पूर्व के शासकों और शासन की तुलना करते हुए भारतीय समाज को देखें तो एक किस्म का गुणात्मक अन्तर दिखाई पड़ेगा... यह इतिहास का ठोस यथार्थ है कि सम्राट अशोक के बाद दूसरी बार मुगलिया सल्तनत ने भारत को आमूलचूल बदल दिया और उसी की कोख से एक अभिन्न भारत का जन्म हुआ।’’ क्योंकि बाबर ने जिस मुगलशासन की नींव रखी, वह पहले से बिल्कुल भिन्न थी। वे एक भरी-पूरी समृद्ध और समानान्तर संस्कृति के साथ आये और उसे भारत पर बलात थोपने की कोई कोशिश भी नहीं की। मुगल बेहद तहजीब वाले और अपेक्षाकृत खुले थे। उन्होंने एक तरफ न सिर्फ धर्म, साहित्य, संगीत, कला, स्थापत्य, भवन-निर्माण, दस्तकारी, शिल्पकारी की सारी खिड़कियाँ खोल दीं बल्कि दूसरी तरफ खान-पान और रहन-सहन की बंदिशें भी तोड़ दीं। जब मुसलमान मध्य एशिया से भारत पहुँचे थे तो अरबी अमामा, जुब्बह, कुलाह, मोज़ा वगैरह पहनते थे लेकिन हिन्दुस्तान में आते ही धीरे-धीरे यह सब गायब होता गया और उनकी जगह कुर्ता, अंगरखा, अचकन, शेरवानी, पगड़ी, दुपट्टा वगैरह ने ले ली। जो मुसलमान अरब से आये थे, उनकी मादरी जबान अरबी थी। महज एशिया के मुसलमानों की ज़बान तुर्की थी लेकिन मुगल हुकूमत की सरकारी ज़बान फारसी थी। इसलिए इतिहास का ईमानदार मूल्यांकन करते और मध्यकालीन सांस्कृतिक वीथियों से गुजरते हुए यह बात स्मरण रखने की है कि आज हम जिस प्राचीन संस्कृति के असाधारण वैभव का आत्ममुग्ध पाठ करते हैं, उसे बचाये रखने में मुगलकाल के शासकों की भी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। 'बाबरनामा’ तुर्की साहित्य में ही नहीं विश्वसाहित्य की आत्मकथाओं में अनुपम महत्व की कृत्ति है। वह अपनी विलक्षण अन्तर्दृष्टि से हिन्दुस्तान की भौगोलिक बनावट को देखता समझता है, सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के अन्दरूनी गह्वरों में प्रवेश करता है। गोया वह इस मुल्क से बहुत आत्मीय रिश्ता कायम करना चाहता हो। वह युद्ध जीतकर बादशाह बन गया है फिर भी फूलों, फलों, पक्षियों, जानवरों, जलचरों, ऋतुओं तक ही नहीं सिंचाई, कृषि, माप-तौल, भूमि नदियों, पहाड़ों सहित देश के समग्र गुण-दोष को समझना चाहता है। मानो उसके भीतर देश को जानने की सतत प्रक्रिया चल रही है। अबुल फजल के हवाले से कर्मेन्दु जी ने लिखा है कि मृत्यु के पूर्व उसने सभी अमीरों को बुलाकर एक तरफ हुमायूँ को बादशाह घोषित किया तो दूसरी तरफ हुमायूँ को स$ख्त हिदायत दी कि : ''तुझे तेरे भाईयों एवं अपने सभी सम्बन्धियों तथा आदमियों को ईश्वर को सौंपता हूँ और इन लोगों को तुझे सुपुर्द करता हूँ... अपने भाईयों की हत्या का चाहे वे इसके जितना भी पात्र क्यों न हों, विचार न करना।’’ जाहिर था कि बाबर को न सिर्फ मध्यकालीन सत्ता का स्वभाव मालूम था बल्कि उसे यह भी मालूम था कि किस तरह सत्ता के वर्चस्व में भाई और बेटों का कत्ल होता है। यह विडम्बना ही है कि मुगल शासन के संस्थापक बाबर की सख्त हिदायत के बाद भी यह सिलसिला मुगलवंश का चरित्र बनता गया। कर्मेन्दु शिशिर ने इस प्रसंग में बाबर और हुमायूँ से सम्बन्धित कुछ और दस्तावेजों का उल्लेख किया है, जो मुगल शासन की अलग प्रस्तावना और बाबर के अलहदा व्यक्तित्व का निदर्शन हैं। 27 नवम्बर 1528 को हुमायूँ के नाम एक ख़त में बाबर कहता है - 'बादशाह से बड़ा बंधन कोई दूसरा बंधन नहीं। यह याद रखना, हुकूमत बेपरवाही से नहीं चलती।’ वह हुमायूँ को सावधान करते हुए यह भी कहता है कि 'अब वक्त आ गया है कि तुम जिन्दगी में खतरे उठाओ। किस्मत ने जो जिम्मेवारी तुम्हें सौंपी है, उसकी तरह लापरवाही न बरतना। हुकूमत के साथ सुस्ती और आरामतलबी का मेल नहीं।’  वह बार-बार अपने अनुरूप हिन्दुस्तान पर शासन की बात को प्राथमिकता देता है। यह भावना उसकी वसीयत में भी मुखर है : ''हिन्दुस्तान का मुल्क भिन्न-भिन्न धर्मों का गहवारा है। यह मुनासिब है कि तू अपने दिल से सभी धर्मों की तरफ अगर कोई बदगुमानी है तो उसे निकाल दे और हर मिल्लत अथवा सम्प्रदाय के साथ उनके अपने तरीके से उनका न्याय कर और विशेषकर गाय की कुर्बानी से परहेज कर। क्योंकि इससे तू हिन्दुस्तान के दिल को जीत लेगा और इस मुल्क की रैयत का दिल इस अहसान से दबकर तेरी बादशाही के साथ रहेगा। तेरे साम्राज्य में हर धर्म के जितने मंदिर और पूजा घर है, उनको नुकसान न हो। इस तरह अदल और इन्साफ करना जिससे रैयत शाह से, शाह रैयत से आसूदा रहे।’’  जाहिर है कि यह भावना मुगल शासन की संकल्प-प्रस्तावना भी है, जिसका विकास अकबर के शासन में दिखाई पड़ता है। कर्मेन्दु शिशिर बाबर से लेकर औरंगजेब तक के काल का मूल्यांकन करते हुए राजनीतिक-संदर्भ का ही आकलन नहीं करते हैं बल्कि उसके साथ-साथ हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव और सह-अस्तित्व की कडिय़ाँ भी तलाशते हैं, जिसके माध्यम से हिन्दू और मुसलमान इस तरह करीब आये बल्कि दोनों के बीच परस्पर इतना मेल-जोल बढ़ा कि रहन-सहन, रस्म-रिवाज, अकीदत-व-मुहब्बत और हद यह कि पूजा और इबादत में नाम भर का फर्क रह गया।

अकबर का समय मध्यकालीन भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल है। विन्सेंट स्मिथ की पुस्तक ' Akbar the Grate Mughal” का पहला वाक्य है : ' “Akbar was a foreigner in India । स्मिथ की औपनिवेशिक दृष्टि में अकबर विदेशी इसलिए था कि इसकी रगों में भारतीय रक्त की एक बूँद भी नहीं थी। पिता की तरफ से सात पीढिय़ों बाद वह तैमूर का वंशज था, ध्यान रहे तैमूर मध्य एशिया का तुर्क था। बाबर माँ की ओर से मंगोल था। डॉ. रामविलास शर्मा ने विन्सेंट स्मिथ की औपनिवेशिक-दृष्टि की सीमाओं को रेखांकित करते हुए सही कहा है कि अकबर ऐसा तुर्क था, जो सात पीढिय़ों के बाद पूरी तरह हिन्दुस्तानी हो गया था: ''अकबर के पहले तुर्क मूलत: लुटेरे थे। अकबर व्यवस्थित साम्राज्य का निर्माता था। मूर्तियों को तोडऩा मंदिरों को ध्वस्त करना, इस्लाम का प्रचार करना उसका उद्देश्य न था। एक बड़े क्षेत्र में साम्राज्य के व्यवस्थित होने से उद्योग, व्यापार और इनके साथ संस्कृति में अभूतपूर्व उन्नति हुई।’’  कर्मेन्दु शिशिर ने अकबर के बारे में इतिहासकारों में व्याप्त दो तरह की मान्यताओं का जिक्र किया है; पहला, जो उसकी महानता का गुणगान करते हैं और दूसरा, जो उसकी महानता पर जमकर नुक्ताचीनी करते हैं बल्कि कुछ तो उसे काफिर बादशाह मानते हैं, जिसने इस्लामी सल्तनत को कलंकित किया।

भारतीय समाज में धार्मिक सद्भाव, संगीत, स्थापत्य, कला-कौशल और कारीगरी की जो उन्नति अकबर के शासन में हुई थी; वह जहाँगीर के शासन में यथावत बनी रही जो सामान्यत: अपने पिता की शासन पद्धति पर ही चलता रहा। कर्मेन्दु शिशिर ने बहुत बारीकी से जहाँगीर की राजनीतिक दूरदर्शिता और मुस्लिम जन की भावनाओं की समझदारी का आकलन करते हए उसे अकबर की धर्मनिरपेक्ष सोच का ही विस्तारक माना है : ''जहाँगीर थोड़ा आज़ादख्याल तबियत का बादशाह था... हर समुदाय के त्यौहारों में खुलकर भाग लेता था... दशहरा और दीपावली में वह खुशी से शरीक होता। ईस्टर और क्रिसमस भी उसे अच्छा लगता और वह उसमें शामिल भी होता था। उसने जैन सन्त सिद्धिचक्र मुनि को नादिर-ए-जमाँ की उपाधि दी... बनारस में तो उसके शासनकाल में 70 से भी अधिक मंदिरों का निर्माण हुआ... उदारता की लगातार तीखी आलोचना करने वाले कट्टरपंथी सन्त शेख अहमद सरहिन्दी को तो उसने बंदी भी बना लिया था... उसकी शासन-व्यवस्था और संचालन-पद्धति बेहतर थी। उसने अपने पिता की विरासत का विस्तार ही किया; कम-से-कम रेखांकित करने वाली किसी अवनति के प्रमाण तो नहीं मिलते।’’ मुगल साम्राज्य जहाँगीर और शाहजहाँ तक आते-आते अपने उत्कर्ष के चरम पर था. डॉ. रामविलास शर्मा का मानना है कि ''जिसे इतिहासकार मध्यकाल कहते हैं, वह इंग्लैण्ड, फ्रांस, जर्मनी या इटली के समकालीन कलात्मक विकास से घटकर नहीं है। खासतौर से इंग्लैण्ड में इस तरह का चौमुखी विकास 16वीं सदी में न हुआ था।’’  मानो शाहजहाँ अपने समय में विश्व का शीर्ष बादशाह बन चुका था। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो जहाँगीर को अपने शासन के कार्यकाल मेंं स्वयं युद्ध नहीं लडऩा पड़ा था क्योंकि उसके शासन के उत्तराद्र्ध में कांगड़ा, मेवाड़ और अहमदनगर का युद्ध उसके बहादुर बेटे खुर्रम (जो बाद में शाहजहाँ के रूप में विख्यात हुआ) के नेतृत्व में लड़ा गया और उस फतह के बाद जहाँगीर ने ''दुनिया के बादशाह’’  के रूप में उसे शाहजहाँ की उपाधि दी लेकिन यह इतिहास की त्रासदी है कि सत्ता-संघर्ष का कड़वा अभिशाप मुगल साम्राज्य के सबसे 'रेशमी बादशाह’  शाहजहाँ को ही झेलना पड़ा। उसके जीवन के आखिरी दस वर्ष दारुण कष्ट से गुजरे, उसके हिस्से में साम्राज्य के सौभाग्य और दुर्भाग्य दोनों की अतियाँ आयीं। कर्मे्दु शिशिर शाहजहाँ का मूल्यांकन करते हुए यह कहते हैं कि वह जहाँगीर की तुलना में बड़ा योद्धा था लेकिन इस्लाम के प्रति अपनी कट्टर आस्था को दिखाने के लिए तीर्थाटन कर के साथ-साथ हिन्दुओं के ऊपर नैतिक पाबन्दियाँ भी जारी कर दीं। लेकिन धीरे-धीरे उसकी नीतियों में नरमी आने लगी। यह अकारण नहीं है कि दाराशिकोह के प्रभाव वाले काल में राज्य की धार्मिक नीतियाँ पूरी तरह बदल गयी थीं। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर का यह कहना सही है कि ''मुगलकाल के बादशाओं में शाहजहाँ के व्यक्तित्व को समझना सबसे मुश्किल काम है... कामुकता और रतिकांक्षा उसकी ऐसी बड़ी कमजोरी थी, जिससे वह मुगलवंश का सबसे विवादास्पद और शायद एक हद तक कलंकित बादशाह बन गया।’’

अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब - इन सबकी शासन व्यवस्था की प्रमुख विशेषता यह थी कि अधिकांश हिन्दू सामन्त बादशाह का साथ दे रहे थे, यह राज्य के गैर-साम्प्रदायिक स्वरूप का प्रमाण है। कर्मेन्दु शिशिर का मानना है कि ''मुगलवंश का कोई भी शासक वह चाहे औरंगजेब ही क्यों न रहा हो, पूरी तरह इस्लाम और मुसलमान पर निर्भर होकर न साम्राज्य कामय रख सकता था और न ही विस्तार कर सकता था। न ही ऐसा हुआ। इस आसंग में सारी गड़बडिय़ों की जड़ में ये उलेमा ही थे; जो जड़, संकीर्ण, महत्वाकांक्षी, अकृतज्ञ और परम स्वार्थी थे।’’ और इस तरह सन् 1657 तक मुगल साम्राज्य के भीतर परस्पर अविश्वास, ईष्र्या, घात-प्रतिघात और षड्यन्त्रों का सिलसिला प्रारम्भ हो चुका था, जिसका परिणाम था - दाराशिकोह, सुल्तान शुजा, औरंगजेब और मुरादब$ख्श के बीच उत्तराधिकार का संघर्ष। कर्मेन्दु शिशिर यहाँ 'उत्तराधिकार का संघर्ष’ और 'औरंगजेब  की जीत’ के संदर्भ में औरंगजेब को नायक या खलनायक बनाने जैसे विवेचन से बचते हैं। उनका मानना है कि औरंगजेब मुगल शासन के इतिहास में सबसे अधिक जटिल व्यक्तित्ववाला बादशाह है। आप उसके बारे में जो राय रखेंगे ठीक उसके विपरीत तथ्य-तर्क उसके जीवन या कार्यों से तुरत मिल जायेंगे।आप उसे कट्टर सिद्ध करेंगे तो उदारता के साक्ष्य मिल जायेंगे, हिन्दू विरोधी मानेंगे तो इसके विपरीत उदाहरण भी... उसकी धार्मिकता ऐसी कि बिना नागा पाँचों वक्त की समाज तो पढ़ता ही था, युद्धभूमि में भी बिना सुरक्षा के चादर डाल घुटने टेक नमाज पढऩे लगता था। उसका निजी जीवन अत्यन्त सादगी से भरा-कुरान की नकल (किताबत) और टोपियाँ सीकर गुजारे की रकम जुटाता। लेकिन वहीं औरंगजेब कुरान को बीच में रखकर अपने सहोदर छोटे भाई मुरादबख्श से समझौता करता है और मौका आते ही विश्वासघात भी कर देता है।’’ इन सबके बीच औरंगजेब सम्बन्धी इतिहास लेखन में इतिहासकारों के अपने पक्ष-प्रतिपक्ष हैं, जिनका क्रमश: कर्मेन्दु शिशिर ने किया है। वे अल्लामा शिब्ली नोमानी, मुंशी जकाउल्ला, सर यदुनाथ सरकार, इरफान हबीब और सतीशचन्द्र के विवेचन-विश्लेषण के प्रति अपनी सहमति-असहमति दर्ज करते हैं लेकिन इस बात का बराबर ध्यान रखते हैं कि औरंगजेब की पहली प्राथमिकता सत्ता-साम्राज्य पर वर्चस्व स्थापित करना था। वह धार्मिक नीतियों का कार्यान्वयन भी साम्राज्य का ख़याल करके करता था। औरंगजेब के समय तक भारतीय सामन्तवाद युद्धनीति और रणकौशल के मुकाबले घूस, बेईमानी और षड्यन्त्र की दलदल में डूब चुका था। औरंगजेब समर्थक हिन्दू राजाओं के लिए Political Cunning और ॥ His agent in all intrigues with Hindu Princes लिखने वाले सर यदुनाथ सरकार जानते थे कि औरंगजेब के अत्याचारों के कारण उसके राज्य में विद्रोह हो रहे थे। मराठों के खिलाफ वह जसवन्त सिंह को पहले ही इस्तेमाल कर चुका था... शिवाजी को घेरने के लिए उसने पूर्तगालियों से दुरभि संधि की। यह अकारण नहीं है कि जहाँ-जहाँ हिन्दू राजाओं से वास्ता पड़ता था, औरंगजेब उन्हें फुसलाने और मिलाने के लिए जयसिंह को आगे कर देता था। इस शातिराना चालबाजी और सामन्ती पतनशीलता का गठजोड़ औरंगजेब को शक्तिशाली बना रहा था। लेकिन औरंगजेब के रणकौशल की प्रशंसा करने वाले यदुनाथ सरकार के अनुसार 'दारा परास्त हुआ, औरंगजेब विजयी।’  डॉ. रामविलास शर्मा ने सर यदुनाथ सरकार की स्थापना पर व्यंग्य करते हुए टिप्पणी की है : 'दारा यदि कुशल सेनापति होता तो हारता ही क्यों? जीतने वाला कुशल सेनापति होना ही चाहिए। दारा वास्तव में ओरंगजेब की कुटिल नीति से परास्त हुआ था, उसके रणकौशल से नहीं। जैसे अलाउद्दीन खिलजी ने अपने चाचा के बहुत-से अमीरों और सिपहसालारों को खरीद लिया था, वैसे ही औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहाँ और भाई दारा के बहुत से सेनानायकों और अमीरों को मिला लिया था।’  औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच संघर्ष-प्रतिरोध की विभिन्न दन्तकथाओं की लोक व्याप्ति भिन्न-भिन्न है। एक तरफ हिन्दू जनमानस में धार्मिक सद्भाव के कारण दाराशिकोह के प्रति सम्मान का भाव और धार्मिक कट्टरता के कारण औरंगजेब के प्रति घृणा का भाव है तो दूसरी तरफ आम मुस्लिम जनमानस में दाराशिकोह काफिर है और औरंगजेब इस्लाम का तारणहार! महत्वपूर्ण यह है कि कर्मेन्दु शिशिर इस प्रसंग में दाराशिकोह के प्रति किसी भी तरह के बौद्धिक भाववाद से प्रभावित हुए बिना साफ-साफ कहते हैं कि  ''बेशक दाराशिकोह बहुत उदार था... लेकिन उदात्त सोच के बावजूद मुगल बादशाह की गद्दी को लेकर उसकी महत्वाकांक्षा और लिप्सा में कोई कमी नहीं थी... उसमें महत्वाकांक्षा चाहे जितनी प्रबल हो, उसमें युग के राजत्व की कोई योग्यता नहीं थी... युद्ध की रणनीति में वह बिल्कुल अनाड़ी था... दाराशिकोह विश्वासघातियों से घिरा था। उसके जीवन में पग-पग पर ऐसे कृतघ्न लोग आये और उन्होंने अपना बदला चुका लिया। उसे कत्ल करने के लिए जिस नजीर नामक गुलाम को चुना गया था, वह शाहजहाँ के यहां ही पला था।’’ इस तरह कर्मेन्दु शिशिर दाराशिकोह और औरंगजेब या औरंगजेब की शासन नीति पर किसी तरह के सरलीकरण से बचते हुए तथ्य और सत्य के साथ रहते हैं। यही कारण है कि वर्तमान समय में मंदिर तोडऩे के लिए कुख्यात औरंगजेब के बारे में वे हिन्दुओं और उनके मंदिरों के प्रति औरंगजेब के उदार रवैये की दुर्लभ मिसालें प्रस्तुत करते हैं।

 

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भारतीय नवजागरण में अपनी सांस्कृतिक गौरव की चेतना के साथ औपनिवेशिक दमन के खिलाफ असंतोष की भावना आकार लेती है। बांग्ला, मराठी, तमिल, तेलुगू और हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्र में असंतोष की अकुलाहट अपने-अपने ढंग से मुखर होती है। नवजागरण की यह चेतना सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षधरता के साथ 1857 की हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त मोर्चेबंदी के लिए भी विख्यात है। इस परम्परा का विकास एक तरफ राजा राममोहन राय, दादाबाई नौरोजी, बालगंगाधर तिलक, बदरुद्दीन तैय्यबजी, महादेव गोविन्द रानाडे, गोपाल गणेश अगरकर, गोपाल कृष्ण गोखले, गुरजाडा अप्पाराव, सर सैयद अहमद खाँ तथा महात्मा गाँधी में दिखता है तो दूसरी तरफ जमालुद्दीन अफगानी, मौलाना महमुदूल हसन, औबैदुल्ला सिन्धी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और मौलाना हुसैन अहमद मदनी के यहाँ भी पूरी प्रखरता से मौजूद है। लेकिन दु:खद यह है कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण की चर्चा करने वाले बुद्धिजीवी हिन्दू-मुस्लिम संयुक्त मोर्चेबंदी की बातें बहुत करते हैं, पर अपने अध्ययन विश्लेषण और विचार-विमर्श से मुस्लिम बौद्धिकता को बाहर रखते हैं। यह समस्या इतनी भर होती तो काम चल जाता पर असल समस्या इससे अधिक है और खतरनाक भी। यह खतरनाक इसलिए है कि हिन्दी प्रदेश के नवजागरण को 'हिन्दू नवजागरण’ तक रिड्यूज करने वाले लोग एक तरफ नवजागरण सम्बन्धी बहस में मुस्लिम बौद्धिकता की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं तो दूसरी तरफ आधी-अधूरी सामग्री के आधार पर 'पूरी बहस’ का दावा करते हुए हिन्दू-मुस्लिम वर्चस्व की अनोखी थीसिस भी रखते हैं। कर्मेन्दु शिशिर का 'भारतीय मुसलमान और नवजागरण संदर्भित’ यह काम इस तरह की इकहरी अकादमिक बौद्धिकता के लिए जवाबी चुनौती है। 'भारतीय मुसलमान’ का दूसरा खण्ड आधुनिकता का सवाल और 19वीं शताब्दी की मुस्लिम बौद्धिकता से जुड़ा हुआ है। यह विषय कर्मेन्दु शिशिर के चिंतन और समूचे अध्ययन-विश्लेषण का नाभिक है। उसके अध्ययन-विश्लेषण का बड़ा हिस्सा नवजागरण और उसके उन्नायकों से सम्बन्धित है। कर्मेन्दु शिशिर के नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन की महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि वह एक तरफ नवजागरण की एकांगी विश्लेषण दृष्टि की अपर्याप्तता साबित करते हैं तो दूसरी तरफ मूल स्रोत सामग्री के साथ हिन्दू-वर्चस्व और मुस्लिम-विरोध की उत्साही अवधारणा की व्यर्थता भी साबित करते हैं। इस दृष्टि से 'भारतीय मुसलमान : इतिहास का संदर्भ’  का  दूसरा खण्ड भारतीय नवजागरण के समग्र पाठ का विशिष्ट अध्याय है। बल्कि कहना चाहिए कि 19 वीं सदी के भारतीय नवजागरण के आसंग में मुस्लिम अस्मिता की परम्परा, पहचान और प्रतिष्ठा को रेखांकित करने वाली दृष्टि का आधार दूसरा खण्ड ही है और पहला खण्ड इस आधारभूमि की प्रस्तावना मात्र है। जहाँ पहला खण्ड इतिहास की विकास-यात्रा का प्रस्तुतीकरण है तो दूसरा खण्ड इतिहास-निर्माण का विश्लेषण। कर्मेन्दु शिशिर 'नवजागरण और आधुनिकता’  के सवाल को हिन्दी-उर्दू भाषा भाषी क्षेत्र में व्यापक संदर्भ में उठाते हैं और बहुत सावधानी से उन सवालों का हल तलाशते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि 'समग्रता और सकारात्मकता के अभाव में नजरिया दोषपूर्ण होगा तो आकलन में भी निर्दोषिता नहीं आ सकेगी।’  उनका दृष्टिकोण साफ है कि : 'नवजागरण हमारे निकटतम अतीत का समग्र साक्ष्य है - उसे सहेजते या उकेरते समय हमें अपना आशय और नजरिया बिल्कुल दुरुस्त रखना होगा... कोई अध्येता विचार करते समय थोड़ी मनमानी करता है तो उसका हठ भी दिखने लगता है... हमें हमेशा समय सापेक्ष गतिशीलता का ध्यान रखकर नवजागरण को पूरी समग्रता में सारे वैविध्य के साथ समझना चाहिए... यह नहीं भूलना चाहिए कि अतीत झगडऩे या कब्जाने से अपने अनुकूल नहीं हो जाता। ऐसा करने से जटिलताएं बढ़ती हैं और अतीत की प्रेत-छाया समकालीनता पर भी बड़ा घातक असर डालती है...। आज की भिन्नता से उपजे तनावों को हमें नवजागरण पर आरोपित नहीं करना चाहिए। यह एक अस्वस्थ बात होगी, जो इतिहास में कीचड़ पैदा करेगी और इससे आज की सकारात्मक धाराएँ और प्रवृत्तियाँ भी प्रभावित होंगी।’  कर्मेन्दु शिशिर नवजागरण के महानायकों की फेहरिश्त में सर सैयद अहमद खान, मौलवी ज़काउल्ला, अल्ताफ हुसैन हॉली, बदरुद्दीन तैयब जी सहित औबेदुल्ला सिंधी, अल्लामा इकबाल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, सैफुद्दीन किचलू और हसरत मोहानी के माध्यम से नवजागरण की विविध विचार सरणियों में मुस्लिम मन:श्चेतना और विचार-यात्रा का प्रतिनिधि रुप प्रस्तुत करते हैं। इस तरह का काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था लेकिन यह आज तक नहीं हुआ। यह हमारी अकादमिक दिलचस्पी पर गंभीर टिप्पणी है। यहाँ कर्मेन्दु शिशिर ने विलियम डेलरिम्पल के बहाने भारतीय बौद्धिकता की अन्यमनस्कता पर भी टिप्पणी की है : ''उर्दू-फारसी में 1857 की राज्यक्रांति से जुड़ी विपुल सामग्री का अभी तक पूरी तरह इस्तेमाल ही नहीं हुआ है। फारसी और उर्दू के दस्तावेज पड़े-पड़े नष्ट हो रहे हैं... 1857 की राज्यक्रान्ति की डेढ़ सौवीं जयन्ती पर जब विलियम डेलरिम्पल की पुस्तक 'द लास्ट मुगल’ छपकर आयी तो उसकी भूमिका में उन्होंने लिखा कि लगभग बीस हजार उर्दू-फारसी के ऐसे दस्तावेजों का उन्होंने अध्ययन किया जिसे उनके पहले किसी ने नहीं देखा था... दिल्ली में मौजूद अथाह दस्तावेज... विद्वानों के लिए सुलभ हैं... इसके बावजूद किसी भारतीय लेखक ने उनको देखने-पढऩे छानबीन करने और विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की। डेलरिंपल साहब को कौन समझाये कि भारतीय लेखक कोई बेवकूफ नहीं हैं। वे जानते हैं कि डेलरिम्पल जैसे कई यूरोपीय विद्वान आएँगे, वे मशक्कत करेंगे ओर लिखेंगे। तब भारतीय लेखक जो बड़ी संख्या में अंग्रेजी जानते हैं, उसे पढ़ लेंगे। जो अंग्रेजी नहीं जानते हैं, वे अनुवाद होने पर पढ़ लेंगे... भारतीय बुद्धिजीवियों का काम ऐसे ही चलता है और खूब मजे से चलता है।’’

भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू-मुस्लिम चेतना के बीच वर्चस्व-विरोध की थीसिस का जो प्रारूप 19वीं शताब्दी में तैयार हुआ, उसमें मोहम्मडन एंग्लो ओरियेंटल कॉलेज के प्रिंसिपल आर्चबोल्ड, हैदराबाद निजाम के विश्वस्त बिलग्रामी और भारतंत्री मार्ले - जैसे बहुत सारे किरदार जुड़ते जा रहे थे। इन संदर्भों को जाने-समझे बिना मुस्लिम मानस की वैचारिक अन्तर्कथा को जानना नामुमकिन है। यह गौर करने वाली बात है कि सर सैयद अहमद खाँ के प्रभामण्डल में पले बढ़े बहुत से ऐसे मुस्लिम बौद्धिक आगे आये जिन्होंने परम्परागत उलेमा के पूर्वग्रहों और अवरोधों को नजरअंदाज किया साथ ही साम्प्रदायिक विभेद की ब्रिटिश दुरभिसंधि को समझते हुए संयुक्त राष्ट्रीयता की पुरजोर वकालत की। अल्लामा शिब्ली नोमानी इस चेतना की महत्वपूर्ण कड़ी थे। दरअसल शिब्ली नोमानी की नकलनवीस से उल्लामा बनने तक में सर सैयद की महत्वपूर्ण भूमिका है और उन्होंने खुद इसे स्वीकार भी किया है बल्कि उन अहसानों के लिए वे जीवनभर सर सैयद के प्रति कृतज्ञ रहे। पर इस हद दर्जे की कृतज्ञता के बाद भी नवजागरण के आसंग में उन्होंने अपना अलग रास्ता चुना और अपनी वैचारिक निष्ठा से कभी रत्ती भर भी नहीं लचे। उन्होंने सर सैयद के सामने ही सन् 1892 में अलीगढ़ की एक सभा में लोकतंत्र की पुरजोर वकालत की, जो सर सैयद की वैचारिक लाइन का खुला विरोध था। उस सभा में सर सैयद बैठे थे लेकिन उन्होंने किसी तरह का त्वरित कोई प्रतिवाद नहीं किया बल्कि उसके बाद लोकतंत्र के विरोध में लेख लिखा और उसे प्रकाशित करा दिया। इस प्रसंग में कर्मेन्दु जी का आकलन बेहद महत्वपूर्ण और आज की वैचारिक असहिष्णुता की आंधी में ठहरकर विचारने का मौका देता है : ''यह एक विडम्बना ही है कि लोकतंत्र के प्रति वैचारिक विरोध के बावजूद सर सैयद साहब अपने आचरण में लोकतांत्रिक रहे। बिना ऊँचे मानसिक क्षितिज के आप युग में इंकलाब नहीं ला सकते। न सिर्फ इतना ही, बल्कि 1887 में लखनऊ में सैयद साहब ने जो तकरीर की थी, उसमें मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रहने की अपील भी थी... शिब्ली नोमानी ने इसका बेहिचक विरोध किया। वे इस सोच के दूसरे छोर पर खड़े थे। वे खुलेआम कहते कि मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल होकर हिन्दू कौम के साथ मिलकर राजनीतिक और आर्थिक प्रगति के लिए काम करना चाहिए।’’ इसलिए नवजागरण के महानायकों के बारे में सम्पूर्णता में जाने बिना आधुनिक भारतीय समाज के बारे में मुस्लिम चेतना की एकरुपता वाली बनायी गयी सरलीकृत छवि गलत ही नहीं, आपत्तिजनक भी है।

 

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय चेतना और हिन्दू-मुस्लिम सह-अस्तित्व की अवधारणा का विचार और विश्लेषण आज भी जारी है। हिन्दी प्रदेश 1857 के विद्रोह का मुख्य क्षेत्र रहा है साथ ही हिन्दी और उर्दू भाषा-भाषी विशाल जनता के द्वारा ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संयुक्त मोर्चेबंदी का कर्मक्षेत्र भी। लेकिन दु:खद यह है कि हिन्दी-उर्दू समाज के भीतर 'साझी सहादत, साझी विरासत’  की समवेत् समझ कम से कम है बल्कि परस्पर गलत समझ व्याप्त है - कहना ज्यादा सही है। बेशक इसका असर परस्पर के आपसी रिश्ते पर भी पड़ा है। इतिहास और समाज विज्ञान से जुड़े लोग भारतीय भाषाओं में नवजागरण की अवधारणा पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देते हैं और उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। लेकिन ऐसे समय में कर्मेन्दु शिशिर जैसे गंभीर अध्येता का बिना किसी संस्थागत मदद के हिंदुस्तानी सहजीवन का गौरवशाली वृत्तांत प्रस्तुत करना गैरमामूली उपलब्धि है। उनकी यह कोशिश उर्दू भाषा-भाषी समुदाय की राष्ट्रीय विरासत का भारतीय नवजागरण से अन्त:सम्बन्ध स्थापित करने और उसकी महत्ता प्रमाणित करने की सार्थक पहल है। कर्मेन्दु शिशिर दु:खी हंै कि ''हिन्दी में ज्यादातर विचारक मुस्लिम समाज के नवजागरण को पूरी तरह सर सैयद अहमद खाँ तक ही महदूद रखते हैं और उन्हीं के अलीगढ़ आन्दोलन के पक्ष-विपक्ष तक अपना विमर्श सीमित रखते हैं, इसका बड़ा ही घातक असर हिन्दी नवजागरण और हिन्दी समाज के नवजागरण की समझ पर भी पड़ा है। पूरा विमर्श एकरेखीय या एकांगी होकर रह गया है। हिन्दी समाज के साथ अभिन्न रूप से रह रही एक बड़ी कौम से सम्बद्ध नवजागरण के नायकों के जीवन, कार्य और उपलब्धियों पर कोई रोशनी ही नहीं पड़ती। हिन्दी समाज यह देख-जान ही नहीं पाता कि उनकी सहभागी कौम में भी नवजागरण की निरंतरता और उत्कर्ष के ऐसे शिखर हैं - जिनके बिना हम भारतीय नवजागरण की समग्र तस्वीर को समझ ही नहीं सकते।’’ यही कारण है कि हिन्दी प्रदेश में झूठी आत्ममुग्धता और नासमझ घृणा की लपटें जब-तब जलने-भभकने लगती हैं और परस्पर की महानता और उपलब्धियों से अनजान लोग इस घृणा आधारित श्रेष्ठताबोध की आँच में जलने-झुलसने के लिए अभिशिप्त से हैं। हम एक ही पाठ की बार-बार आवृत्ति के बीच यह भूल जाते हैं कि सर सैयद अहमद $खाँ के मुकाबले राष्ट्रीय चेतना से सम्बद्ध स्वाधीनचेता उलेमा की महान परम्परा ने मौलाना  महमूद-उल-हसन (1851-1921) तथा मौलाना रशीद गंगोही (1882-1905) द्वारा स्थापित देवबंद उत्तर प्रदेश के मशहूर धर्मविज्ञान शिक्षण संस्था दारूल उलूम से प्रेरणा ग्रहण की थी। सर सैयद अहमद $खाँ के समानान्तर देवबंद का महत्व इसलिए है कि दारुल उलूम से सम्बद्ध उलेमा ने ''अक्टूबर 1888 में एक फतवा जारी कर मुसलमानों के कांग्रेस की गतिविधियों  में सहभागी होने के काम को न्यायसंगत ठहराया था। उनके उत्तराधिकारियों ने उनका अनुकरण किया और अपने अनुयायियों के दिलो-दिमाग पर यह सच्चाई अंकित की कि हिन्दुस्तानी मुसलमानों के व्यापक हितों की रक्षा के लिए हिन्दू-मुस्लिम सहयोग जरूरी है।’’  आगे चलकर जमीयत-उलमा-ए-हिन्द ने कांग्रेस के साथ मिलकर एक ऐसे स्वतंत्र, धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान के लिए काम किया, जहाँ मुसलमानों को हिन्दुओं के समकक्ष ही धार्मिक स्वतंत्रताएँ प्राप्त थीं।

लेकिन यह दुखद है कि भारतीय नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन और राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के मूल्यांकन विमर्श में मुस्लिम पक्ष की उपेक्षा आज तक यथावत बनी हुई है। नवजागरण का एक महत्वपूर्ण संदर्भ आलोकित होने की जगह ओझल होने लगा और अन्तत: इस दुर्दशा का असर पूरे भारतीय नवजागरण के स्वरूप पर पड़ा। जिसके कारण भारतीय नवजागरण का अपेक्षित स्वरूप आज तक सम्ग्रता में उभरकर सामने नहीं आ सका। इसलिए कर्मेन्दु शिशिर की यह चिंता वाजिब है कि ''हम यह भूल गये कि बिना उर्दू और मुस्लिम नवजागरण के हम न सिर्फ हिन्दी बल्कि पूरे भारतीय नवजागरण की भव्यता को कभी नहीं उकेर सकते।’’  इस दिशा में सार्थक पहल करते हुए वे इस बात पर भी चिंता व्यक्त करते हैं कि ''इस कालखण्ड में हमने जितनी जगह अलीगढ़ आन्दोलन और उसके नायकों को दी, उतनी उसके समानान्तर चली देवबंद आन्दोलन की धारा को नहीं दे सके। उसके महान नायकों को इतिहास के पन्नों में हमने उल्लेख तक ही सीमित कर दिया, जबकि उनकी जगह नि:सन्देह हमारी स्मृतियों, विचारों और चेतना में होनी चाहिए थी। हम यह भूल गये कि असफल होने के बावजूद उनकी अहमियत और प्रासंगिकता कहीं ज्यादा थी। हम यह भी भूल गये कि आज हमारी सोच और चेतना का नाभिनाल रिश्ता उन्हीं से जुड़कर अर्थवान हो सकता है। आज अलीगढ़ आन्दोलन से जुड़ी एक-एक सामग्री जितनी आसानी से उपलब्ध हो जाती है, देवबंद आन्दोलन की सामग्री उतनी ही अप्राप्य और दुर्लभ हो गयी है।’’ कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीय मुसलमान की वैचारिक विकास यात्रा में लगभग अप्राप्य, दुर्लभ और अचर्चित सामग्री के सहारे 'देवबंद आन्दोलन और नवजागरण’ के भव्य रुप को जिस ढंग से प्रस्तुत किया है, उसका ऐतिहासिक महत्व है। भारतीय नवजागरण के प्रसंग में मुस्लिम मन:स्थिति और मुस्लिम नवोत्थान पर विचार करते हुए सर सैयद अहमद खाँ के मुकाबले देवबंद से सम्बद्ध स्वाधीनचेता उलेमा की परम्परा पर जोर देना और उस परम्परा की कडिय़ों को शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन के रुप में रेखांकित करना सर सैयद अहमद के महत्व को कम आँकना नहीं है बल्कि शेख जमालुद्दीन अफगानी, हाजी हमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की (1817-1899), मौलाना मुहम्मद गनी (1819-1878); मौलाना रशीद अहमद गंगोही (1828-1905) तथा मौलाना शिब्ली नोमानी (1857-1914) जैसी अंग्रेजी राज विरोधी महत्वपूर्ण हस्तियों पर नये सिरे से विचार की अपील करना है। कर्मेन्दु शिशिर ने देवबंद आन्दोलन की बुनियादी पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए सही लिखा है कि : ''1857 के संग्राम में भारतीय सैनिकों की पराजय से नानौतवी साहब और गंगोही साहब बहुत दु:खी हुए। युद्ध के बाद हिन्दुस्तान की हुकूमत सीधे अंग्रेज कौम के हाथों में आ गयी और दिल्ली में महारानी विक्टोरिया की ताजपोशी के जश्न की तैयारियाँ होने लगीं। नानौतवी साहब उस समय दिल्ली में ही थे। उन्हें यह सब देखकर अन्दर से कुढऩ हो रही थी। वे भारी मन से अपने गाँव नानौता आ गये... नानौतवी साहब की ससुराल देवबंद के दीवान मुहल्ले में ही थी। उसी के पास मस्जिद में उनका आना-जाना था। वहीं हाजी मुहम्मद आदिब और मौलाना रफीउद्दीन साहब भी टिका करते थे। देवबंद के बुजुर्ग दानिशमंद मौलाना जुल्फिकार अली और फजलुर्रहमान भी अक्सर आकर वहीं बैठते थे। इन सबसे तब के हालात पर गुफ्तगू होती। दरअसल वह पूरा दौर ही पस्ती का था। ब्रिटिश दमनचक्र चरम पर था। ईसाई पादरी बाइबिल सोसाइटी बनाकर लोगों को अपने धर्म में दीक्षित करने का अभियान चला रहे थे, जिनको ब्रिटिश सरकार का भरपूर संरक्षण मिला हुआ था। वे खुलेआम हिन्दूधर्म और इस्लाम का उपहास उड़ाया करते थे। मैकाले की नयी शिक्षा प्रणाली का प्रसार हो रहा था... उन्हें मुसलमानों की ओर से एक बड़े नायक सर सैयद अहमद खाँ का जबर्दस्त समर्थन मिल रहा था - जो मुसलमानों को अंग्रेजों के पक्ष में लाने के लिए बेहद प्रयत्नशील थे।’’ मुस्लिम अस्मिता के सवाल को लगातार प्रश्नांकित करने वाले और देवबंद आन्दोलन की विराट छवि को इस्लामिक कट्टरतावाद में रिड्यूज करने वाले ध्यान दें और ठहरकर सुन लें - देवबंद, दारूल उलूम (ज्ञान का घर) की स्थापना मई 1867 में सहारनपुर के एक छोटे से कस्बे देवबंद में हुई थी। मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी और मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जबर्दस्त लड़ाइयाँ लड़ीं और ब्रिटिश सेना को कड़ी शिकस्त दी। इसकी प्रतिक्रिया में अंग्रेजों ने इस इलाके में बड़ी भयंकर तबाही मचायी और 50 लोगों को बर्बरतापूर्वक फाँसी पर लटका दिया। इस बगावत के एक रणनीतिकार हाजी इमदादुल्लाह मुहाजिर मक्की थे, जो कुरान और हदीस के बड़े आलिम थे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के कट्टर विरोधी भी। दारुल उलूम देवबंद की स्थापना की पृष्ठभूमि में 1857 के विद्रोह की गूंज सुनी जा सकती है। 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद का पूरा दौर पस्ती का था, ब्रिटिश दमन चक्र चरम पर था, इसलिए अंग्रेजीराज के खिलाफ संगठनात्मक तैयारी के उद्देश्य से देवबंद की नींव पड़ी। याद करिए 1857 के बाद तीव्र औपनिवेशिक दमन के दौर में 'असबाबे बगावत-ए-हिन्द’  लिखने वाले सर सैयद अहमद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ''मैं उनमें से नहीं हूँ जो मानते हैं कि राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेने से मुसलमानों का भला होगा क्योंकि मेरी सम्मति में उन्हें जिस चीज की जरूरत है, वह शिक्षा है।’’  लेकिन इस बदली सियासी दशा से चिंतित पारम्परिक उलेमा के भीतर क्रांति की ज्वाला धधक रही थी - इस कड़ी में 31 मई 1867 जुमेरात के दिन मस्जिद छत्ता के खुले आँगन में अनार के पेड़ के साये में दारुल उलूम की स्थापना हुई। हजरत मौलाना मुल्ला महमूद देवबंदी को पहला मुदर्रिस बनाया गया और महमूद हसन नामक बच्चा इस मदरसे का पहला विद्यार्थी बना, जो बाद में शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन नाम से विख्यात हुआ। यह एक छोटा सा मदरसा था लेकिन भारत में दीनी तालीम और दीनी दावत के एक नये दौर की शुरुआत थी। वह नया दौर था - ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफत का, राष्ट्रीयता के विकास का, जनभागीदारी का और हिन्दू-मुस्लिम सहअस्तित्व का, जिसके प्रस्थान-प्रस्तावक मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी हैं।

कर्मेन्दु शिशिर ने सही लिखा है कि ''यह संस्था सिर्फ धार्मिक शिक्षण तक ही महदूद नहीं थी। धीरे-धीरे यह संस्था एक प्रभावशाली और सक्रिय आन्दोलन के रुप में विकसित होती गयी। इस संस्था से उठे आन्दोलन ने मुसलमानों के विचार आरै आचरण से तमाम कूड़ा-कचरा साफ कर दिया और उन्हें शुद्ध और सच्चे इस्लाम से परिचित कराया। वे कई तरह के अंधविश्वासों से मुक्त हुए। सबसे बड़ी बात यह थी कि इसने सच्चे इस्लाम से राष्ट्रीयता आरै देशप्रेम को जोड़ा। इस्लामी मान्यताओं के प्रति अपनी आस्था को बनाये रखते हुए दूसरी कौम के साथ एक साझी संस्कृति का आदर्श प्रस्तुत किया।... किसी देवबंदी ने साम्प्रदायिक संकीर्णता का न तो कभी समर्थन किया और न ही बढ़ावा दिया। देवबंद से शिक्षित किसी भारतीय मुस्लिम नेता ने कभी पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया। आगे चलकर धार्मिक स्तर पर भी इसमें इतनी उदारता आयी कि हमने अलीगढ़ आन्दोलन के प्रति भी नरम रुख रखा और मुसलमानों को कांग्रेस से जुडऩे की अपील की।’’  दारूल उलूम की स्थापना का घोषित उद्देश्य इस्लामी सिद्धान्त और दर्शन का अध्ययन-अध्यापन था लेकिन सियासी इरादे भी स्पष्ट थे। यह बात साफ तब हुई जब इस केन्द्र से सम्बद्ध शैखुल हिन्द मौलाना महमूद हसन और उनके क्रांतिकारी छात्रों ने रेशमी रुमाल तहरीक के रूप में अपनी विस्तृत राजनीतिक कार्ययोजना प्रस्तुत की। सन् 1889 में शैखुल हिन्द के सदर मुदर्रिस बनने के बाद इस राजनीतिक चेतना का उत्तरोत्तर विकास हुआ। यह अकारण नहीं है कि देवबंद ने, 1885 में कांग्रेस की स्थापना का खुला समर्थन किया। यह बात ध्यान देने की है कि देवबंद की परम्परा से सम्बद्ध उलेमा के भीतर यह स्वप्न एकदम साफ था कि भारत की स्वतंत्रता हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना नहीं प्राप्त की जा सकती।

कर्मेन्दु शिशिर ने भारतीय मुसलमान और आधुनिक भारत के समय-संदर्भ और परिप्रेक्ष्य को शाह वलीउल्लाह देहलवी से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तक के विचारकों के माध्यम से समझने की कोशिश की है। उनका ''भारतीय मुसलमान और नवजागरण’’ विषयक विमर्श 'मुस्लिम नवजागरण के महानायक : मौलाना अबुल कलाम आज़ाद’ के साथ पूरा होता है। यह सही भी है क्योंकि आधुनिक भारतीय समाज की समन्वित विवेक परम्परा, उदार चिन्तनशीलता और धार्मिक सहिष्णुता के संदर्भ में यदि महात्मा गांधी के बाद किसी दूसरे का नाम लिया जा सकता है तो वे मौलाना आज़ाद हैं। कर्मेन्दु शिशिर ने मुस्लिम नवजागरण की महान विरासत की उपलब्धियों और अन्तर्विरोधों को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन के दौर में आज़ाद भारत की निर्माण प्रक्रिया में बहुत खूबसूरती से रेखांकित किया है।

हिन्दू-मुस्लिम रिश्तों से जुड़े सवाल तकरीबन हजार साल से भारत और भारत की पहचान से बहुत गहरे संदर्भित हैं। दु:खद यह है कि तमाम तरह की आध्यात्मिक, भावनात्मक और बौद्धिक-अकादमिक कोशिश के बावजूद हिन्दू-मुस्लिम बिरादराना यकजेहती का वास्तविक लक्ष्य आज भी नहीं हासिल हो पाया है। बल्कि वर्तमान समय में जो मध्यकालीन सवालों के प्रेत नयी-नयी शक्लों में आने लगे हैं या लाये जाने लगे हैं - इसलिए धार्मिक सद्भाव, वैचारिक सहिष्णुता और विवेकशील आधुनिकता के आलोक में भारतीय मुसलमान और नवजागरण के सवालों को समझना आवश्यक है। कर्मेन्दु शिशिर ने इस भारी भरकम किताब (दोनों खण्ड मिलाकर लगभग 850 पृष्ठ) के माध्यम से मुस्लिम समाज की धार्मिक सांस्कृतिक परम्परा, ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और नवजागरणकालीन कशमकश को विवेकसंगत ढंग से विश्लेषित करने का प्रयास किया है। उनके विश्लेषण की विशेषता यह है कि वे तथ्यों का विश्लेषण मनोनुकूल ढंग से नहीं करते बल्कि एक आब्जेक्टिविटी उनके पूरे विवेचन में व्याप्त है। हालांकि दूसरे खण्ड में कर्मेन्दु शिशिर ने नवजागरण के बौद्धिकों - कवि, राजनेता, सम्पादक, पत्रकार, विद्वान, समाजसुधारक - जैसे विचार-चिंतन के महत्वपूर्ण प्रतीकों को चुना है और विश्लेषण में पर्याप्त स्थान दिया है, लेकिन आधुनिक भारत और मुस्लिम बौद्धिकता की दृष्टि से - डिप्टी नज़ीर अहमद, मिर्जा अबु तालिब, मोहम्मद अली जिन्ना, अकबर इलाहाबादी और डॉ. जाकिर हुसैन का इस किताब में न होना खटकता है। लेकिन जो नहीं है, उस पर बहस करना बेकार है। जो है, उसका निर्वाह और विश्लेषण - कर्मेन्दु शिशिर के लेखन को महत्वपूर्ण बनाता है। आज सूचना क्रांति और बौद्धिक-अकादमिक तरक्की के बाद भी भारतीय हिन्दू मन में यह धारणा बद्धमूल है  कि मुस्लिम समाज यथास्थितिवादी है। मुसलमान बहुपत्नी प्रथा में विश्वास रखते हैं। मुसलमान, देशभक्त नहीं है। वे परिवार नियोजन का पालन नहीं करते हैं। उनकी वफादारी पाकिस्तान के साथ है। उनके लिए इस्लाम पहले हैं, राष्ट्रवाद बाद में है। मुसलमान विश्वव्यापी इस्लामवाद से प्रतिबद्ध हैं। वे हिन्दुओं को 'काफ़िर’ कहते हैं। स्वाधीनता आन्दोलन में मुसलमानों ने अंग्रेजों से मिलकर भारत का विभाजन कराया। वे भारत को फिर से तोडऩा चाहते हैं। इस तरह की विद्वेषपूर्ण भ्रांतियाँ बहुसंख्यक समाज के एक बड़े हिस्से की दिलो-दिमाग में बैठी हैं या बैठायी गयी हैं, जिन्हें निकालना किसी भी अकादमिक विमर्श का लक्ष्य होना चाहिए। जाहिर है कि कर्मेन्दु शिशिर ने पूरी ईमानदारी से एक तरफ भारतीय समाज में व्याप्त एकरेखीय मुस्लिम चेतना की छवि को तोडऩे की कोशिश की है तो दूसरी तरफ नवजागरण के मुस्लिम महानायकों के माध्यम से स्वाधीनता आन्दोलन और भारतीय नवजागरण के आलोक में मुस्लिम अन्तश्चेतना के प्रति व्याप्त विद्वेषपूर्ण भ्रांतियों का निराकरण भी किया है। वैसे शाह वलीउल्लाह से लेकर मौलाना अबुल कलाम आज़ाद तक के मुस्लिम नवजागरण की अन्तर्धाराओं की पड़ताल करने वाली एक महत्वपूर्ण कृति (मुस्लिम नवजागरण और अकबर इलाहाबादी का 'गांधीनामा’) वीरेन्द्र कुमार बरनवाल ने भी लिखी है, जहाँ मुस्लिम नवजागरण के महत्वपूर्ण विचारकों, चिन्तकों के माध्यम से उन्नीसवीं शताब्दी की मुस्लिम मानसिकता को समझने की कोशिश भी है लेकिन इस संदर्भ में भी कर्मेन्दु शिशिर के मुस्लिम नवजागरण विषयक अध्ययन का अपना अलग महत्व है, क्योंकि जहाँ वीरेन्द्र कुमार बरनवाल बहुत परिचयात्मक ढंग से मुस्लिम नायकों का महत्व स्थापित करते हैं लेकिन न स्रोत सामग्री का हवाला देते हैं और न नवजागरण के भीतर परस्पर भिन्न विचार सन्दर्भों को समझने की जरूरत महसूस करते हैं, वहीं कर्मेन्दु शिशिर मुस्लिम नवजागरण के महानायकों के माध्यम से भारतीय समाज की मुस्लिम बौद्धिकता की उपलब्धियों और सीमाओं का मूल स्रोत सामग्री के साथ विश्लेषण करते हैं। मूल सन्दर्भ सामग्री के साथ इस कार्य के लिए कर्मेन्दु शिशिर की श्रमसाध्य तैयारी और पूर्वाग्रह मुक्त विचारदृष्टि ने उनकी नवजागरण विषयक इस पुस्तक को अधिक अर्थवान बना दिया है।

एक तरह से यह किताब हिन्दू-मुस्लिम समाज की शताब्दियों पुरानी आपसदारी के प्रति भरोसा जगाती है तो दूसरी तरफ उस धार्मिक सद्भाव के बीच कौमी खुशहाली का भविष्य देखती है। भारत में इस्लाम का आगमन, शासन-सत्ता में भागीदारी, मुगल सत्ता के भीतर भारतीय कला संस्कृति का उत्कर्ष, मुस्लिम समाज में समाजसुधार की नई करवट और इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीयता का संश्लेष - यह भारतीय मुस्लिम मन:स्थिति के आकलन के कुछ महत्वपूर्ण पड़ाव हैं; जिन्हें कर्मेन्दु शिशिर ने बिना किसी हड़बड़ी के बहुत तटस्थापूर्वक संदर्भों के साथ विश्लेषित किया है। दोनों खण्डों में परिशिष्ट के अन्तर्गत-मुस्लिम परम्परा की 'विशिष्ट शब्दावली’, इस्लाम के भीतर विभाजन के प्रतीक, विभिन्न मत-मान्यताएं तथा आधुनिक काल के वैचारिक उथल-पुथल से संदर्भित आनुषंगिक सामग्री का इस्तेमाल कर मानो लेखक अपने पाठकों के विवेक को अधिकाधिक स्वतंत्र बनाना चाहता है ताकि विश्लेषण-संदर्भ और परिशिष्ट की सामग्री का मिलान कर पाठक अर्थग्रहण के लिए स्वतंत्र हों। दरअसल कर्मेन्दु शिशिर यहाँ दोहरे दायित्व का निर्वहन कर रहे हैं। एक तो वे मुस्लिम परम्परा के भीतर विनम्र और संवादी धार्मिकता को खोजते हैं और दूसरे भारतीय नवजागरण के भीतर मुस्लिम बौद्धिक चेतना के लिए जगह की तलाश करते हैं। यह दोनों कार्य भारतीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण कदम हैं और इस अभूतपूर्व कार्य के लिए कर्मेन्दु शिशिर आदर और बधाई के पात्र हैं। इस किताब की एक अन्य अहम् बात यह है कि कर्मेन्दु शिशिर ने इतिहास को बहुत रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है, जो पाठक को सहज ही बाँध लेता है। इस विषय और कालखण्ड में अपनी अकादमिक दिलचस्पी के कारण मुझे डॉ. रफीक जकरिया, प्रो. मुशीरूल हसन, वीरेन्द्र कुमार बरनवाल जैसे कुछ और लोगों की किताबें पढऩे का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। लेकिन जितनी रोचकता, पठनीयता और तथ्य-विश्लेषण की यथार्थता का अपूर्व संतुलन कर्मेन्दु शिशिर की किताब में है, उतना किसी दूसरी किताबों में नहीं है। यह किताब एक तरफ हिन्दी पाठकों को बेहद जरूरी लेकिन अल्पज्ञात दुनिया का सम्यक परिचय कराती है तो दूसरी तरफ हिन्दी भाषा-भाषी समाज की ज्ञानराशि को समृद्ध भी करती है। नवजागरण सम्बन्धी अध्ययन विश्लेषण के क्रम में कर्मेन्दु शिशिर की मान्यता रही है कि इस तरह का कार्य हम सबकी जिम्मेदारी है और उसे सामूहिक भागीदारी से पूरा किया जाना चाहिए। वे अध्ययन विश्लेषण के क्रम में अपनी धारणाओं का न सिर्फ संशोधन-परिमार्जन करते हैं बल्कि भिन्न तथ्य सामग्री के आलोक में पुनर्लेखन हेतु तत्पर भी रहते हैं। यहाँ प्रस्तुत पुस्तक में प्रकाशित अधिकांश लेख स्वतंत्र रूप से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर चर्चित-प्रशंसित हो चुके हैं और सहमति-असहमति की पर्याप्त गुंजाइश रखते हैं क्योंकि 'अपने तरीके से एतराज का हक़ सभी को हासिल है’- यह कर्मेन्दु शिशिर के बौद्धिक अकादमिक विमर्श का उद्देश्य वाक्य है।

 

 

समीर कुमार डीएवी कॉलेज, वाराणसी में अध्यापक हैं। नवजागरण (बालकृष्णभट्ट को लेकर) बड़ा काम। एनबीटी से मौलाना अबुल कलाम आज़ाद पर एक किताब। पिछले वर्ष जामिया और त्रिमूर्ति में दो महत्वपूर्ण व्याख्यान। वीरेन्द्र डंगवाल के शागिर्द।

संपर्क- मो. 9453114193

 

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