भाषा का शोर नहीं, रोर

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी भाषा का शोर नहीं, रोर
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम ओम निश्चल





किताबें

कविता का अमरफल (लीलाधर जगूड़ी)

 

अश्रुतपूर्व जीवनानुभव और अपनी अद्वितीय मौलिकता में सांस लेने वाला कवि

 

यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता

साप्यन्यम् इच्छति जनं स जनोऽन्यसक्त: ।

अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिद् अन्या

धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥

( अर्थ - मैं जिसका सतत चिन्तन करता हूँ वह (पिंगला) मेरे प्रति उदासीन है। वह (पिंगला) भी जिसको चाहती है वह (अश्वपाल) तो कोई दूसरी ही स्त्री (राजनर्तकी) में आसक्त है। वह (राजनर्तकी) मेरे प्रति स्नेहभाव रखती है। उस (पिंगला) को धिक्कार है! उस अश्वपाल को धिक्कार है ! उस (राजनर्तकी) को धिक्कार है! उस कामदेव को धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है !)

 

     जीवन की इस सचाई ने भर्तृहरि को सांसारिकता से विरत होकर वैराग्य के मार्ग पर प्रशस्त कर दिया। यह दुनिया उन्हें  छल और दिखावे की प्रीति से भरी लगी। इस प्रसंग ने बहुतों के हृदय को द्रवित किया सजल किया है, पर दुनिया है कि पल भर के वैराग्य सरीखे बोध के बाद फिर धरती को दुहने में लग जाती है। इस कविता ने हिंदी के कवि लीलाधर जगूड़ी को भी द्रवित किया तथा भर्तृहरि के अमरफल को कविता का अमरफल मानकर यह कविता लिख डाली। भर्तृहरि जीवन के सभी मोड़ों से होकर गुजरे थे। तभी वे धर्म अर्थ काम और मोक्ष को साध सकने योग्य  अनुभव पाया और जिया। वे इस दिए हुए जीवन को और स्वयं को इसी सख्त भाषा में धिक्कार सकते थे। भर्तृहरि की यह कथा लोक-व्याप्त  है। यही कि एक बार राजा भर्तहृरि के दरबार में एक साधु आया। उसके पास अमरफल था, उसने भर्तृहरि को वह अमर फल दिया कि वे अमर रहे। राजा ने सोचा मेरी अमरता से क्या होगा, मेरी अतिशय प्रीति तो रानी पिंगला है सो वह अमर रहे। उन्होंने रानी को वह फल दिया। रानी राजा से नहीं दरअसल सेनानायक से प्यार करती थी, सोचा मैं अमर होकर क्या करूंगी। मेरा प्रिय अमर हो इसलिए वह फल सेनानायक को दे दिया। सेनानायक राज्य की राजनर्तकी से प्यार करता था, सोचा मेरी अमरता का क्या, मेरी प्रेयसी अमर रहे यह ज्यादा अच्छा  होगा, उसने यह सोच वह फल राजनर्तकी को दे दिया। राजनर्तकी मन ही मन राजा भर्तृहरि को प्रेम करती थी, सोचा मैं तो राजनर्तकी हूँ सर्वगम्या सर्वकाम्या वेश्या हूँ मेरे अमर रहने का क्या प्रयोजन? अच्छा हो कि राजन अमर हों और राजा तो केवल राजा ही नहीं, कवि और नीतिकार हैं। उन्हें अमरफल मिले तो इससे कविता भी कालजयी और अमर हो जाएगी। जब राजा को उसने यह फल भेंट किया तो उन्हें उस अमरफल की पूरी यात्रा समझ में आ गयी और इस दुनिया से वैराग्य हो उठा । पर यही कविता का वह मूल बिंदु है जिसने भर्तृहरि को कविता के पक्ष में जाने पर विवश कर दिया।  यही वजह है सदियों बाद पैदा एक कवि अब भर्तृहरि की काया में नहीं, अमरफल की काया में प्रवेश करता है और सोचता है कि अमरफल की भला क्या इच्छा  होगी। कवि लिखता है :

अमरफल चाहता है कि कविता फिर किसी फल का

बीज बन कर अमर हो

बीज बार बार कवियों को बोधिवृक्ष के नीचे ले जाए

और योगियों को बुद्ध बनाकर वापस ले आए

इंद्रियां, समूह पत्नियों की तरह उनका हार्दिक साथ दें।

वे कवियों को धन्य मानते हैं जिन्हे गणिकाएं भी अमरफल के योग्य समझती हैं।

इसी अमरफल प्रसंग पर 'कविता का अमरफल’ नाम से एक कविता जगूड़ी ने अपने नये संग्रह के आयतन में संग्रहीत की है। पहली बार उनकी कविताएं कई खंडों में विभक्त हैं। पत्थर विमर्श, अँधेरा उजाला, अपनी भाषा पर संदेह करो, कई डेरों वाला शहर, यादों का पहाड़ और कविता का अमरफल। पहली बार हर खंड की कविताओं के पहले एक आधार वक्तव्य भी है। जगूड़ी कविता में मायकोवस्की की तरह उद्धरणीयता के हिमायती रहे हैं। पग पग पर उद्धरण, अनुभवगम्य सूक्तियां और जीवनानुभवों की नव प्रतीतियॉ यहां मिलती हैं जो कि जगूड़ी की सुपरिचित विशेषता रही है। जगूड़ी इतने बहुरैखिक अनुभवों के कवि हैं कि उन्हें  एक साथ कई कोणों से पढना जरूरी होता है, पता नहीं किस कोने से पकड़ में आने से छिटक जांय। गद्य को बाकायदा कविता के स्थापत्य और विचार की मनोभूमि में रोपते हुए वे अपनी कवि-मति का पूरा ख्याल रखते हैं तथा अपनी ही प्रजाति व वैशिष्ट्य  के कविता-पाठकों के लिए नित नया लिखने के लिए उद्यत करते जान पड़ते हैं। कविता लिखते हुए जैसे उनकी सारी बौद्धिक इंद्रियां सक्रिय हो उठती हैं। वे कविता रचने के लिए किसी भी युक्ति या उक्ति  का इस्तेमाल करते हुए नये से नया रचने का जोखिम भी उठाते  रहे हैं। शुरुआत में वे भले धूमिल की सोहबत में रह कर उन जैसी कविताओं से प्रेरित रहे हों तथा पहले संग्रह तक उसके झीने-झीने प्रभाव में भी रहे हों, पर अपनी राह अलग करते हुए जगूड़ी ने एक बार शुरू से ही गांठ बांध ली कि उद्धरणीयता का तो दामन नहीं छोडऩा है पर एक जैसा लिखने से बचना है, जो अनुभव एक बार व्यक्त किया जा चुका है, जो बिम्ब एक बार प्रयुक्त हो चुका हो, उसकी पुनरावृत्ति नहीं करनी है। यह बात भले ही सच हो कि हर नया कवि पुराने कवियों की कोख से जन्म लेता है पर इसका अर्थ यह नहीं कि पुराने कवियों की अंतध्र्वनियों से नया कवि अपनी नींव रखे। जगूड़ी  हर बार नए से नए विचार का पीछा करने वाले कवियों में रहे हैं। भाषा, शब्द, अंदाजेबयां में हर बार वे नया से नया तेवर अपनाने वाले कवियों में माने जा सकते हैं। मुक्तिबोध के बाद अपनी संरचना में वे प्राय: पढ़े लिखे पाठकों के कवि हैं जिन्हें हर कोई आसानी से समझ नहीं सकता। उनकी काव्य संचरनाएं अक्सर संश्लिष्ट और गहरे आशयों से जुड़ी होती हैं। इसलिए हर खंड के पहले दिए गए आधार वक्तव्य पहली बार अपने कवि को समझ पाने में पाठकों का सहयोग करते जान पड़ते हैं।

 

2

 

जगूड़ी की कविता असाध्यवीणा है। हर किसी के लिए साध्य नहीं। विचार की ऊपरी सतह पर बहने वालों के लिए तो कतई नहीं। बहुस्तरीय अर्थों और जीवन की हर गतिविधि से कवितोपयोगी विचारशक्ति ग्रहण करने वाले लीलाधर जगूड़ी कविता में हर वह युक्ति आजमाते हैं जिससे उनकी कविता तार्किकता का समाहार लगे। वे इसके लिए काफी मेहनत भी करते हैं जो कविता में दिखती है। वह 'नारिकेलसमाकार:मृदूनिकुसुमादपि भी नहीं है। कई बार पाठकीय उद्यम के बावजूद वह सरसता नहीं दिखती। सरसता या मृदुलता उसका लक्ष्य भी नहीं होता। क्योंकि ऐसी कविता उनका और कौन समकालीन कवि लिखता है। मंगलेश जितनी सादी अभिव्यतक्तियों के कवि हैं, उससे उलट उतनी ही नाटकीय अन्विति के कवि जगूड़ी हैं। ज्ञानेन्द्रपति इतने शाब्दिक और आलंकारिक हैं कि यदि शब्दों के आभरण को जरा सी देर हटा कर रख दें तो वह बात बहुत साधारण सी लगेगी और जिसे अखबारी समकालीनता (व्योमेश शुक्ल के हवाले से) कहते हैं उसके तो वे असाधारण कवि ठहरते हैं। ऐसी भी कविता हमने देखी पढ़ी है जैसे कुंवर नारायण व केदारनाथ सिंह की- शब्दों में कम, अपनी अनुगूँजों में ज्यादा घटित होने का माद्दा रखने वाली, तथा जिन रघुवीर सहाय से कविता राजनीतिक शिरकत को अपना लोकतांत्रिक विशेषत्व मान कर अग्रसर हुई और जिसने कविता को शब्दों  के घटाटोप से राहत भी दी, ऐसी भी कविताएं हमने पढी है।

जगूड़ी की कविता को उनकी रचनाप्रक्रिया के बारे में समय समय पर दिए वक्तव्यों के आलोक में भी पढा समझा जाना चाहिए। वे कवि तो हैं पर  ऐसे स्वत:स्फूर्त कवि नहीं कि एक बैठक में कविता अपना रूप ग्रहण कर लेती हो। क्यों कि उसमें सारे कील कांटे दुरुस्त। हों उसके लिए कवि का बसूला भी दिखता है, खपच्चियों की तराश भी और समकालीन मुद्दों का समायोजन भी। वे कहते तो हैं कि तमाम कविताएं उन्होंंने स्वप्न में हासिल की हैं और जाग कर उन्हें लिपिबद्ध किया है। पर यह केवल सपने में देखे गए की लिपिबद्धता भर नही है, यह कविता में नई अर्थध्वनि पाने की सतत छटपटाहट भी है जिससे वे देखे गए को रचते हुए नया रूप भी देते हैं। इसके लिए वे 'बीटिंग एबाउट द बुश’ का उदाहरण सामने रखते हैं। पत्थरों को लेकर लिखे पहले खंड में उनका एक वाक्य उनकी कविता में अर्थ ध्वनियों के लिए पीछा करते उनके बेचैन कवि की आत्माभ के दर्शन होते हैं -

शब्द  का हो सकता है कविता का एक ही अर्थ नहीं होता (छाती पर पत्थर, पृष्ठ  26)

अँधेरे-उजाले पर हमारे समय के एक बड़े कवि मलय ने भी बहुतेरे बिम्ब उकेरे हैं। उनकी कविता में उजेले अंधेरे के बिम्ब बहुअर्थी या श्लेषार्थी होते हैं। जगूड़ी दोनो के द्वैत में एक को दूसरे का अभाव मानते हैं। जैसे वे कहते हैं, उजाले का अभाव ही अंधेरा है। यह भी कि कला को अंधेरे- उजाले दोनों की जरूरत है। अपने ही एक सहयोगी कवि राजेश शर्मा की आत्महत्या पर लिखी उनकी कविता का यह वाक्य  कितना संवेदी और सूक्तिधर्मी है जिसमें वे इस आत्मंहत्यां की वजह को इस रूप में डिकोड करते हैं -- ''जब दूसरे वह ऊॅचाई नहीं देते/ जहां आप खुद का घंटाघर बनाए हुए होते हैं/ तो ऊँचाई आपको ढकेल देती है।’’ यह अनुभव का सारांश है- जीवन का भी। बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है-के-से अनुभव की तरह।

जगूड़ी की कविता निस्संदेह एक ऐसा स्वप्न देखती है जहां वह अपने पुराने न पडऩे का उद्यम रच सके। वे कहते हैं अनुभव के लिए कवि के लिए दुनिया का कोई कोना अलक्षित नहीं। बल्कि  कहीं भी जाना चाहिए। वह कहता है, ''भाषा के उत्खनन में मजदूर कवि के लिए अंधकूप भी अनुभव स्वरूप है। भाषा नई। विचार पुराना/विचार नया। भाषा पुरानी /ध्वनि का कोई आलोक नहीं/ इन हालात में फिर से उतरना पड़ेगा भव सागर में/ भाव का ताप भव-ताप से नापना पड़ेगा। (कविता का अमर फल, पृष्ठ 64)  अनुभव का यह ताप कविता में तब उतरता है जब कवि के अनुभव की रेंज बड़ी होती है। वह असूर्यम्पश्या बन कर अर्थ का संधान करती है। जगूड़ी कहते हैं, ''कवि को गर्हित, निकृष्ट, वर्जित और निषिद्ध का भी पीछा करना चाहिए।....कवि को रवि की तरह ही सब जगह बिना घृणा के जाने, रहने और सहने का तजुर्बा और साहस होना चाहिए।’’ यों तो रचना प्रक्रिया पर उन्होंने पूरी किताब ही लिखी है पर उनका यह कहा याद रखा जाना चाहिए कि ''मेरी कविता तदाकार और तादात्य की कविता है। शब्दों के शोर में भाषा के उद्दंड खिलवाड़ के बीच भी मैं किसी तल्लीन शब्दख की ढूढ़ में हूँ जो मेरी कविता में खोए बच्चे की तरह अचानक दिख जाए। (कविता का अमरफल, पृष्ठो 126)  यह खिलवाड़ जगूड़ी की कविता में अपने चरम पर दिखता है जो कविता में मानवीय अभिव्यक्ति  का नया रूप-रस तैयार करने के आकांक्षी दिखते हैं। उनका यह सोचना कि 'हर चीज मुझे इस तरह फॉंस ले कि मेरी आंखों से देखे और मेरी सांसों से सांस ले’ सचमुच कविता में बासी कढ़ी में उबाल लाने का उद्यम नहीं है बल्कि अनुभव में सदैव ताजगी का कायाकल्प  करने की कोशिश है।

भर्तृहरि अपने वाक्यपदीय के लिए जाने जाते हैं तो वे श्रृंगारशतक, नीति शतक व वैराग्यशतक के लिए भी। कवियों के लिए अनुकरणीय। वे संसार में भी रमे तथा परमार्थ में भी। अनुभव की सूक्तियां उनके यहां प्रचुरता से बिखरी हैं। सम्राट-भर होते तो इतिहास में पन्नों  में कहीं दब गए होते, कवि होने के नाते वे कवियों के पूर्वज भी हैं- पग-पग पर अपने कटु अनुभवों से सीख देते हुए; तभी तो जगूडी जैसा कवि भी यह स्वीकार करता है कि 'सांसारिक यथार्थ और लौकिक परमार्थ के बिना कोई कवि नहीं हो सकता।’

 

3

 

लीलाधर जगूड़ी पर लिखना सरल नही है। मैंने उन्हें निकट से देखा है। एक ही कार्यालय में कुछ सालों का सान्निध्यद भी रहा है। पर कवि शायद अपने कार्यालय या किसी चैंबर में नहीं अपने एकांत में खुलता है। पर वहां भी बातचीत में कवित्व की कोई न कोई कौंध झलक जाती। 'घबराए हुए शब्द’ उसी दौरान आया था। सामान्य  बातचीत में भी लगता कि किसी प्राच्य अनुभवविद और कलाकोविद से मिल रहे हैं । तब लगता था, प्रकृति और पहाड़ के स्थाापत्य  को भी नई निगाह से देखने वाला यह शख्स कोई बनावटी कवि नहीं, इसने कविता को जैसे अपना हृदय दे दिया है।  विकलता कवि के मूल में होती है। विकलता जगूड़ी के मूल में भी है। विकलता इस सृष्टि के मूल में भी है। बिना विकलता के किसी कवि को अविकल पढ पाना कठिन है। जगूड़ी एक विलक्षण कवि हैं। एकरैखिक नहीं, बहुरैखिक। वे अकाल आने पर कविता नहीं लिखते जैसे पंद्रह अगस्त आने पर आजादी की कोई इबारत। कविता के लिए कोई भी मुहूर्त उनके लिए त्याज्य नहीं है। वह सोते-जागते अनुभव की पगडंडियों पर विचरते हुए घटित हो सकती है। कहा भी है, भूमिका में कि 'मैंने बहुत सी कविताएं नींद में सपना देखते हुए सोची हैं और तुरंत जग कर उन्हेें लिखा भी है।’  किसी भी तरह के फौरी और त्योहारी लेखन से उनका नाता नहीं रहा है। उसे शायद वे दार्दुर कला से ज्यादा महत्व  भी न देते हों। उन्हों ने अपने कवि होने का प्रमाण दे दिया है। अब तक एक दर्जन कविता संग्रहों में उत्तरोत्तकर उनका कवि मौलिकता की उदभावना में प्रवीण हुआ है।

बहुधा जिज्ञासा रही कि आखिर कौन उनका रोडमाडल कवि होगा। वे किसकी तरह लिखना किसकी तरह दिखना चाहते रहे हैं। पर यह बात सहज अनुमन्य नहीं है। कोई भी उनके पाठ में झॉंकता नहीं मिलता। न किसी की भाषा, न शैली, न वाक्य विन्यास। जबकि यह दौर सहज वाक्य विन्यास का ही है। इसलिए किसी भी अन्य समकालीन कवि से वे अतुलनीय हैं। प्रतीकों का दौर चला तो प्रतीकों से खेले। बिम्बों का दौर चला तो उसकी अद्वितीय बानगियां पेश कीं।  कविता के अखाड़े में कितनों को बारीक पटकनी दी। सोच की मौलिकता की उनकी कसौटी दूसरों को निष्प्रोभ बना  देने के लिए काफी है। हर बार उनका मफूम बदला हुआ होता है। एक ही तरह की प्रतीति, अनुभूति और कथ्य की दो कविताएं शायद ही लिखी हों जैसे बसंत और बारिश तक पर उनकी एक एक कविता ही पूरे मौसम की कार्बन कापी लगने लगे। उन्हें मैं कविता की आईआईटी का कुलपति कहता हूँ तो इसलिए कि कविता के मिस्त्री  तो अनेक मिल जाएंगे। पर कविता के गुणसूत्रों को परंपरा से आयत्त कर उसे कविता की आधुनिकी में बदलना केवल जगूड़ी को आता है। कविता का अधिकृत शोरूम जगूड़ी के पास है और इसकी कोई अन्य  शाखा नहीं है। पहाड़ के कवि हैं तो पहाड़ भी मिलेगा, पूंजी के विवेचक हैं तो पूंजी का पुंजीभूत सत्य भी मिलेगा, बाजारवाद के प्रतिबिम्ब को उनकी कविताओं में देखें तो 'खबर का मुंह विज्ञापन से ढंका है’---से बेहतर उदाहरण शायद पूरी समकालीन कविता में न मिले, जैसे उदारतावाद और भूमंडलीकरण की आहट पर आया उनका संग्रह 'भय भी शक्ति देता है’ जब आया था तो उसकी यह उक्ति उस वक्त की एक सर्वमान्य सचाई लगती थी : पैदा तुम कहीं भी होओ/ बिकना तो तुम्हें  अमेरिका में ही है।  वे न तुकों से खेलते हैं, न छंदों से, न विमर्शों के कोलाहल में शामिल हैं न कविता में आरक्षण के पैरोकार। लेकिन उनकी कविता  बेतुक नहीं होती, न वे कोई बात बेतुकी करते हैं। इसलिए छंद में न होते हुए भी उनकी  कविता की एक तुक है।  कविता हर बार अपने आकाश को किस तरह विस्तृति करती है, वे हर कविता में इसे अपनी तरह से देखते-आजमाते और संभव करते हैं। वे धूमिल के सहचर हुए पर जल्दी ही रास्ता  बदला। फिर वे न रघुवीर सहाय के अनुयायी हुए; न विनोद कुमार शुक्ल की तरह कविता के नवरीतिवाद में उलझे। आलोचकों के दॉंत खट्टे करने वाली तो अनेक कविताएं उन्होंने लिखीं पर वे इतने जटिल प्रमेयों और तार्किकता के कवि भी होते गए कि उन्हें  ढंग का सहृदय आलोचक मिलना मुश्किल होता गया। क्योंकि जिस तरह का नवाचार उनके काव्य में दिखता है, वैसा नवाचार आलोचक के यहां नहीं। वह तो सबको किसी लौकिकता में बॉंचना चाहता है, या सबके यहां आसानी से दिखने वाले मार्क्सवादी भाष्य  की झलक देखना- दिखाना चाहता है। वैसा वैचारिक तेवर उनके यहां नहीं है बेशक उनकी हर पंक्ति विचारों की खराद से निकली है। छंदों पर अभी हाल में बहुतेरे द्वंद्व हुए । वे पारंपरिक छंदों के भक्त और पूर्वज कवियों कालिदास, भास, भारवि व भवभूति के प्रेमी हैं, इसलिए जब आज के समय को कविता में लिखना चाहते हैं तो वे जानते हैं आज की कविता की भाषा मौजूदा फैशन वाली होनी चाहिए। जैसे कपड़ों में अब बेलबाटम का जमाना नहीं रहा, छंदों ने भी नए काव्य के इस दौर अपनी प्रासंगिकता खो दी है। उसकी आधुनिकता कुछ कुछ नए गीतों में बची है।  यह छंदों का अवमान नहीं बल्कि छंदों की सुगठन को कविता के नये अवतरण में प्रस्तुत करना है। यही वजह है कि उनकी कविता का हर वाक्य जैसे किसी छंद की तरह सुगठित है, बोलचाल के अशआर की तरह। कहना न होगा कि हर वाक्ये जो व्याकरण से या बोलचाल से अनुशासित है, वह दूसरे शब्दों  में छंद से भी सुगठित है।

 

4

 

जगूड़ी की काव्य भाषा को मुझे निकट से देखने का अवसर मिला है। उनके साथ अक्सर चर्चाएं हुई हैं। उनकी भाषा नये से नये स्थापत्य से टकराती व होड़ लेती दिखती है। हम उनके भाषाई व्यवहार को देखें तो उनके पूर्व संग्रह  'भय भी शक्ति देता है’ की 'रोर’ कविता जैसे उनकी काव्यभाषा में आती अनुगूंजों को सही तौर पर पकड़ पाने में हमारी सहायता करती है --

एक अगाध कुँआ जिसके तल पर नदी बह रही हो

जिसमें से एक समुद्र की आवाज़ शंखों-सी आ रही हो

ऐसा अनुभव ऐसी भाषा

जिसका अदृश्य, दृश्यो से बड़ा हो

और अश्रुत श्रव्य?-सा खड़ा हो

अक्सर मैं सुनता हूँ ऐसी भाषा का रोर

अपने सपनों में ।

 

कविता में यह कवि पंरपरा से कितनी सीख लेता है, यह बात जगूड़ी बार बार कहते भी रहे हैं। यह कवि मानता है कि कोई भी कवि पुराने कवियों की कोख से ही जन्मे लेता है। आप छेड़ भर दीजिए कि कवि आपको ऐसी चलती फिरती आशु किस्सागोई सुना कर बांध लेगा --

अपनी आयु का मद्य चुक जाने के बाद भी

वे जो अपना गीत अपना गद्य ओढ़ती बिछाती हैं

उनमें से हम उन स्त्रियों के नाती हैं

जो हमारे लिए कहानियां बनाती हैं।

 

लाख आप कहें कि एक स्त्री  के हम ऋणी है, एक स्त्री के कारण बची रही एक स्त्री मेरे भीतर, या मेरे हृदय में बचा है स्त्री का एक कोना- उनकी कविता 'वह शतरूपा’ ऐसी हजार कविताओं पर भारी है। 'हत्यारे’ पर बेशक अनेक कविताएं आपने पढ़ ली हों पर इसी विषय पर उनकी कविता हत्यारों पर लिखी अन्य  कविताओं को नेपथ्य में ढकेलने के लिए काफी है। जैसा कि कह चुका हूँ, उनकी कविता पग पग पर उद्धरणीय रही है। पूरी कविता न सही; आप उसका एक सिरा भी पकड़ लें और वह आपको भा जाए तो कविता चरितार्थ हो उठती है। ऐसा ही एक अनुभवपगा वाक्य  'कविता का अमरफल’ में देखिए

जो ठोकर खाते हैं

वे प्रवाह पा जाते हैं

बिना गीत लिखे बिना गीत गाए

वे चाल के लय-ताल और छंद से परिचित हो जाते हैं

 

ठोकर पत्थर नहीं खाते

या तो आदमी खाते हैं या नदियां खाती हैं या हवाएं खाती हैं

जहां पानी को ठोकर खानी पड़ती है

बिना वाद्यों के आवाजें निकल आती हैं

 

ठोकर एक सँभली हुई भाषा को जन्म देती है

यहीं पर ठोकर खायी हुई और ठुकराई हुई भाषा का

पता पड़ जाता है

 

छोटी ठोकर लरजती है, गरजती है बड़ी ठोकर

पत्थरों से टकराता है पानी

पत्थर वहीं पड़े रह जाते हैं

आगे बढ़ जाता है ठोकर खाया हुआ पानी

जो ठोकर खाते हैं, प्रवाह पा जाते हैं। (कविता का अमरफल, पृष्ठक 29 )

 

यह सूक्तिमयता और मुहावरेदारी पहले से ही उनके कवि कौशल का अपरिहार्य हिस्सा रही है। वे अपनी भाषा में ही रचने और तोडऩे की जिस समझ के साथ पेश आते हैं वह कम कवियों में देखा जाती है।

कहना न होगा कि वे अदेखे-अजाने और अलक्षित अनुभवों के कवि हैं। हर नए विचार से टकराने वाले और अनेक वय:संधियों के कवि हैं। उनके यहां भाषा का 'शोर’ नहीं, ‘रोर’ सुनायी पड़ता है जो जीवन की अपनी ही अंतध्र्वनियों से निस्सृत होता है। उनकी काव्य भाषा प्रयत्न साध्यक है, अनुकरणीय नहीं। इसीलिए अस्सी के होने को आए और उनका कविता का कोई स्कूडल नहीं बना। जहां रघुवीरियत, शमशेरियत, केदारियत और वीरेनियत की बात होती हो, वहां जगूड़ी ऐसी मठानुकूलता से दूर गाढ़े जीवन यथार्थ को कविता की उस दागदार चादर में समेटते हैं जो जीवन जितनी ही मटमैली है। इसीलिए चाहे तंज में ही या विट में, अपने को बुराइयों से घिरे समय का 'अनादर्श कवि’ कहने में वह लज्जा का अनुभव नहीं करते।

हालांकि एक स्तर पर लगता है वे पाठकों का ज्यादा इम्तेहान न लें। कुछ कविताएं कवियों के भी सिर से ऊपर गुजर जाने वाली हैं पर वे हैं कि अप्रतिहत रच रहे हैं। हाल ही में उनके तीन संग्रह आए। कविता का अमर फल, नए मनु की प्रेमगाथा व कविता चयन: ग्याहरवीं दिशा में सातवीं ऋतु। इससे पहले लगभग एक दर्जन संग्रह और हजारों कविताएं लिखने के बाद भी उनमें दुहराव नहीं दिखता। एक से मिजाज का पुनरवतरण नहीं दिखता, एक ही शैली पर अपने वाक्य विन्यास को टिकाने से वे हमेशा बचते रहे। इससे पहले आए संग्रह 'जितने लोग उतने प्रेम’ को पढ़ते हुए मुझे जो बात आज भी अपील करती है वह है प्रेम के बारे में घिसी-पिटी थियरी या भावुकता से दूर प्रेम के नए प्रमेयों से गुजरना और इस बात में जगूड़ी स्वयंसिद्ध हैं। जीवनानुभव से काव्यानुभव तक प्रेम के इस संक्रमण, अनुभवन और प्रस्फुुटन को उन्होंने एक नई अवधारणा में पिरोया है: 'जितने लोग उतने प्रेम’ कह कर और इसके लिए गद्य में जो लयात्मकता विकसित की है, वही उनकी कविता का आधुनिक छंद है।

5

 

कविता के लिए जगूड़ी जैसे कवि को सदैव नए गद्य की तलाश रहती है। अखबारी गद्य, बोलचाल के गद्य के अलावा कविता का गद्य एक नए प्रकार का गद्य है जो कवि द्वारा अपनी शैली के गद्य का प्रस्तावन है। हर कवि जब तक अपनी कविता के लिए अपनी भाषा आविष्कृत नहीं करता, अपने स्थापत्य  को सुगठित नहीं करता, वह कविता के महाअरण्य में अलग से नहीं पहचाना जा सकता। हम अपने ही समय के कुछ बड़े कवियों को देखें तो हम उन्हें उनकी भाषा व स्थापत्य से दूर से पहचान सकते हैं, यथा, मुक्तिबोध, धूमिल, विनोद कुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, रघुवीर सहाय, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे व ज्ञानेन्द्र पति। लीलाधर जगूड़ी की कविताएं भी अपने अलग भाषाई अंदाजेबयां के लिए पहचानी जाती है। वे आज के जीवन की व्यथा कथा के अनुभवों को वाणी देती हैं। उनकी कविताओं में अकथित और अज्ञात के अनेक अनुभव मिलते हैं । वे कहते हैं, 'कवियों से मिलना हो/तो पहाड़ झेलते कवि के पते पर रहते हैं/ कालिदास, नागार्जुन और बादल।’ किन्तु हर बार कविता की एक नई प्रजाति को जन्म देने के आकांक्षी जगूड़ी यह कहने से गुरेज़ नहीं करते कि ''विचारों के ओम-तोम और जीनोम से पैदा हुआ/ परंपराओं का आधुनिक संस्करण हूँ मैं।’’

आधुनिक संस्कारों के इस कवि ने छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी कविताएं लिखी हैं जो 'शंखमुखी शिखरों पर’ संग्रह से लेकर 'कविता का अमरफल’ तक में शामिल हैं। उनके यहां प्रेम का आर्थिक और आत्मिक प्रेम दोनों का समन्वय दिखता है, केवल आत्मिक और आध्यात्मिक प्रेम का नहीं। बाज़ार में प्रेम का क्या हाल है, ये कविताएं जीवन के इन अनुभवों को भी सामने लाती हैं। जगूड़ी कविता की रचनाप्रक्रिया पर कहते हैं, कविता की रचना प्रक्रिया गद्य की रचना प्रक्रिया से बहुत भिन्नक होती है। कविता में सोचना ज्याादा पड़ता है जब कि गद्य में लिखना। उन पर तमाम शोध हुए हैं पर वे इस शोध से बहुत प्रसन्न नहीं दिखते। कहते हैं, ''आजकल शोध के नाम पर प्रतिशोध ज्यादा होता है’’ और खिन्न होकर कहते हैं, ''मुझ पर शोध तो बहुत हुए हैं पर किताब एक भी ढंग की एक भी नहीं लिखी गयी है।’’ इसी संग्रह में वे एक कविता में लिखते हैं : ''मेरी आत्मा लोहार है/ ज़न्दगी से रोज लोहा लेती है/मेरी आत्मा  धोबी है/मन का मैल ऑंसुओं से धोती है।’’  आज जहां राष्ट्रप्रेम पर नई नई बहसें होती हैं, कवि कहता है, 'सीमित नागरिकता के बावजूद मेरे पास असीम राष्ट्र  है/ और असीम मातृभूमि/ मुझे आल्पस  से भी उतना ही प्यार है जितना हिमालय से।’ जगूड़ी की कविता विचार कविता की प्रायोजित सरणि से अलग विचारों की एक ऐसी अटूट यात्रा है जिसने कविता में चिंतन की जड़ें मजबूत करने में अपने छह रचनात्मक दशक लगा दिए।

 

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कविता की फलश्रुति इस बात में है कि वह अपना अर्थ-विस्तार कैसे संभव करती है। अनुभव के नए इलाके में कैसे जाती है। इस कसौटी पर 'कविता का अमरफल’ रख कर देखें तो आश्वस्ति मिलती है। पहली बार उनका यह संग्रह पांच खंडों में विभाजित है: पत्थर विमर्श, अँधेरा-उजाला, अपनी भाषा पर संदेह करो, कई डेरों वाला शहर, यादों का पहाड़ और कविता का अमरफल। अपनी भूमिका 'अनुभव और भाषा का आज़ाद गुलाम’  में वे अपने कवित्व के लिए बचपन में सुने लोकगीतों की याद करते हैं। कवि परंपरा को याद करते हैं। कवियों के प्रभावों की बात करते हैं और यह भी कि राजकमल चौधरी और धूमिल के प्रभावों से प्रतिकृत होते हुए अलग रास्ता अख्तियार करते हैं। काशी और उत्तरकाशी दोनों की प्रकृति और जीवन पद्धति के मुरीद रहे, अच्छी कविता और अच्छे कवियों की सोहबत रही, प्रचलन से हमेशा चिढ़ रही, बदलाव और अभिव्यक्तिक के लिए नए उपार्जनों की खोज में रहे। कविता हमेशा  नए अनुभव मांगती है। वे कहते हैं '' बिना कीमत चुकाये मुफ्त की कविताई यशस्वी नहीं हो सकती।’’ किसी ने ऐसे नहीं कहा है, जहां न जाय रवि, वहां जाय कवि। वे भी मानते हैं कि रवि की तरह कवि को भी हर जगह जाना चाहिए, हर तजुर्बा हासिल करना चाहिए। हर समय नए नए विचारों का पीछा करना जगूड़ी के कवि की फितरत रही है। जैसा कि मैंने कहा जगूड़ी में दुहराव नहीं दिखता, वे खुद स्वीकार करते हैं, ''खुद को भुला देने के लिए फिर एक नई कविता रचता हूँ और फिर उससे आगे किसी और नई कविता की ओर बढ़ जाता हूँ। मैंने अब तक क्या  क्या सोचा,किया और लिखा, उसे याद रखता हूँ पर दोहराता नहीं हूँ।’’  एक और बात यह कि जब कविता प्रतीकों से खेल रही थी, पेड़, बच्चे, चिडिय़ा, तानाशाह आदि पर कविताएं लिखी जा रही थीं, जगूड़ी ने ऐसी एकाधिक कविताएं लिखीं अवश्य लेकिन जल्दी ही इस वशीकरण से मुक्त हुए।

वे पत्थर पर विमर्श करते हुए पत्थरों के साथ कितनी मनुष्यता से पेश आते हैं यह दृष्टव्य है। वे कहते हैं, यथार्थ का पीछा उस हद तक करना चाहिए कि उसके पीछे छिपा अर्थ उजागर हो सके। 'बीटिंग एबाउट द बुश’ की तरह 'जिससे अर्थध्वनि वाली चिडिय़ा बाहर आ जाए और द्रष्टा उसे उड़ते हुए देख सके। इससे यथार्थ के प्राण भी बच जाएंगे और यथार्थ का ठिकाना भी नष्ट नहीं होगा।’ हम देख सकते हैं कि कवि यथार्थ से कैसा रिश्ता अपनाता है। पत्थरों पर इस विमर्श में वह पत्थरों को लेकर कितनी नई बातें सोचता है। एक जड़ पदार्थ से कैसा रोमांचक जीवंत नाता स्थापित करता है। कभी कभी तो लगता है पत्थरों के जरिए वह मनुष्यों की नियति के बारे में बातें कर रहे हैं। जैसे वे सोचते है पत्थर को न हम मरा हुआ कह सकते हैं न जीवित। फिर भी आज की सबसे बड़ी वास्तुविकता पत्थर होना है। कुछ रत्नों में बदल कर भाग्यशाली हो उठते हैं तो कुछ रेत बन कर हजारों मीलों की यात्राएं करते हैं।  कुछ के पास घासफूस उग आती हैं, तो कुछ पत्थर के मां बाप होते हैं, यानी छोटे बड़े  पत्थरों का समूह, वे नदी में नहाते हैं, कुछ भगवान बन जाते हैं, कुछ मूर्तिवत खड़े रहते हैं। कुछ बहते लुढ़कते गंगोत्री-यमुनोत्री से निकल कर दिल्ली, प्रयाग और वाया काशी पटना पहुंचते और गंगासागर में पहुंचने का अवसर पाते हैं। पत्थरों से उन्हें याद आता है कि छाती पर पत्थर रखने का क्या अर्थ होता है, कुछ पत्थर पानी के बहाव में घिस पर उडऩे वाले पक्षियों से बन जाते हैं जैसे उन्हें जे स्वामीनाथन ने उकेरा हो। और अंतत: नई नई कल्पनाओं के प्रवाह में वे जिस अनुभव सारांश पर पहुंचते हैं वह यह कि 'जो ठोकर खाते हैं वे प्रवाह पा जाते हैं।’ यानी कामयाबी के लिए ठोकर जरूरी है। वे पत्थर परिवारों, पीढिय़ों, उनके स्नासन, उनकी जलक्रीड़ा, उनकी उड़ान, उनके संघर्ष, समुद्रों, बारिशों, बर्फ, और पानी की आवाजें सुनने वाले पत्थरों के साथ सुंदर और ध्यानाकर्षी लगने वाले पहाड़ों के दुखों की बात भी करते हैं और इस सारे वृत्तांंत में उनका कवित्व ऐसे फूटता है जैसे शाखों में टहनियां और टहनियों में पल्लव फूटते हैं--

हम तो बसंत की तरह यहीं पैदा होते हैं

और पत्तों की तरह यहीं झर जाते हैं

कौवे हमसे अच्छा  गाते हैं हमारे जीवन का कर्कश गद्य (कविता का अमरफल, पृष्ठ 33)

'अँधेरा-उजाला’ पर कविताएं लिखते हुए वे अंधेरे को उजाले का अभाव मानते हैं और यह भी कि कला को दोनों की जरूरत होती है। जगूड़ी की कविता पर विचार करता हूँ तो पाता हूँ कि जैसे भाषा की आधुनिकी को पाने के लिए उनकी कविता हर वक्त खराद पर है, वह जैसे नए स्व रूप के लिए हर वक्त निर्माणाधीन है। किसी भवन सज्जा की तरह वहां हर काम के लिए अलग मिस्त्री  कारीगर कलाकार नहीं हैं, बल्कि यह सारा काम कवि को स्वयं करना होता है। एक अच्छी कविता के लिए भाषा कैसी हो, कथ्य  कैसा हो, संवेदना कैसी हो, अंदाजबयां कैसा हो, शिल्प की पच्ची कारी कितनी हो, आदि इत्यादि सब कुछ जरूरी है। कभी जगूड़ी ने ही लिखा था, 'प्यार में प्रत्येक प्रश्न अनिवार्य है, सभी के अंक समान हैं।’ कविता में कथ्य, भाषा, संवेदना, शिल्प सभी कुछ अपरिहार्य है तभी कविता का कोई भव्यभुवन निर्मित होता है। हम न भूलें कि जगूड़ी ने कहा है-- 'भाषाएं भी अलग-अलग रौनकों वाले पेड़ों की तरह हैं. सबका अपना अपना हरापन है।’ कविता के भाषाई स्थापत्यो के लिए उनकी चिंताएं किसी लापरवाह कवि-सी नहीं बल्कि एक इंजीनियर जैसी हैं। जैसे वे कविता के  आर्किटैक्ट हों। उनकी कविता की जेनिटिक्स पर पकड़ है। उनकी कविता की अपनी अभियांत्रिकी है, मीडिया, बाजार और कारपोरेट के गठजोड़ को एक कवि ही इस लहजे में कह सकता है--

वे चुपचाप हर चीज में घुस गए/पहाड़ में, रेत में, खेत में और अभिप्रेत में।

वे घास  और काई की तरह स्वाभाविक लगने के बजाय

जंग की तरह स्वाभाविक लग रहे थे।

'एक मैं हूँ’--कविता इस संग्रह की नायाब कविता है। वे विनोद कुमार शुक्ल की तरह एक मात्र ऐसे कवि हैं जो किसी अव्यय, विशेषण, क्रियापद या योजक शब्दों से जुड़ कर कविताएं लिख सकते हैं; जगूड़ी ने जैसे खाने-जैसे क्रियापद को लेकर क्या  अद्भुत कविता लिखी है। क्या कुछ खा रही हैं कितनी चीजें इसका ठीक ठीक अंदाजा तो कोई सरकारी एजेंसी भी नही लगा सकती और यहीं कवि की भूमिका प्रबल होती है। बकौल कवि : ''समय ने खाए अन्न कपड़े घर और जूते/प्रकृति की और अपनी भी बहुत मार खाई मनुष्यों  ने/तब कहीं कितनी थोडी सी मनुष्यता सीख पाए।’’ खाए और खाए जाने पर तमाम चिंताओं के बीच वे कहते हैं -

थोड़ा जो हर किसी को चाहिए था समय

किसी को पूरा नहीं पड़ा

उसे भी नहीं जिसने एक वित्त वर्ष में ही करोड़ों खाए थे

मनुष्यों ने मनुष्य खाए श्रम देने वाले कच्चे माल की तरह

साल दर साल और सदियों खाया एक ने दूसरे को

उन्हीं समयों, उन्हीं मनुष्यों में से

एक मैं हूँ, अधखाया, अधमरा

न ठीक से जागा हुआ न ठीक से सोया हुआ। (कविता का अमरफल,पृष्ठ- 67)

कई डेरों वाला एक शहर-देहरादून पर लिखी कविता शहरी सभ्यता में बदलती दुनिया का एक उदाहरण है। लेकिन इससे पहले वे कुछ स्वीकारोक्तियां करते हैं। वे कहते हैं लेखक कैमरा नही है, एक संवेदनशील आंख है जिसके पास विचारधारा से पहले आंसुओं की धारा है। ऐसा कह कर वे विचारधारा के तयशुदा  रेटारिक में आराम फरमाते कवियों पर प्रहार भी करते हैं उन्हे जताते भी हैं कि कविता को विचार नहीं, संवेदना की आंख से देखना और पाना होता है। दुनिया यह ईश्वर भले ही बनाता हो, भाषा आदमियों ने बनाई और भाषाएं बनीं तो उसकी अलग विधि अलग कर्मकांड,अलग धर्म खड़े होते गए। यहां तक कि भाषाएं ही भाषाओं की दुश्मन होती गयी। वे कहते हैं जब हम सारी भाषाएं नही समझते तो ईश्वर कैसे समझता होगा। और जब भाषाएं नहीं समझता होगा तो वह मनुष्ये की प्रार्थनाएं कैसे समझता होगा। और अगर वह इतनी सारी भाषाओं में कवियों की प्रार्थनाएं समझता है तो  फिर तो ईश्वर सबसे बड़ा अनुवादक है। यानी यह सब कितना असंभव है। इसीलिए वे कहते हैं, ईश्वर पर नहीं अपनी भाषा पर संदेह करो।

जब वे 'देहरादून’ का काव्यात्मक भाष्य लिखते हैं तो हम चौकन्ने हो उठते हैं कि अब यह कवि कैमरे की आंख से देखेगा या संवेदना की आंख से। जगूड़ी उत्तर काशी में पैदा हुए। पढऩे के लिए बनारस गए। कुछ वर्ष जीविका के लिए लखनऊ भी रहे। शामे अवध की रंगीनियां भी उनके कदमों में रहीं, पर इस दुर्निवार आकर्षण के बावजूद वे पुन: पहाड़ लौट आए और देहरादून की शरण ली। एक कविता रिपोर्ताज में देहरादून को बदलते हुए वे सालावाला, जोगीवाला, कुआंवाला,गेहूंवाला से झंडावाला, सभावाला से केसरवाला तक फैलते देहरादून से थोड़ी ही दूर मसूरी के घंटाघर की याद करते हैं जो संकरी जगह पर एक गिरफ्तार व्याक्ति की तरह खड़ा है। वे इस कविता में दर्ज करते हैं कि देहरादून में जंगल काटकर कोठियां उग गयीं, '60 के पहले जहां पंखे की दूकान तक न थी, जो हिमालय का चेरापूंजी था, वहां अब बिना वातानुकूलन के काम नहीं चलता। यह भाषाई आधुनिकता की ही दमक है कि इस शहर में पब्लिक स्कूल के नाम से इतने अंग्रेजी स्कूल खुल गए हैं कि बेरोजगार कुत्तों से भी अंग्रेजी बोलते दिखते हैं। यहां दुश्चक्र और पंखे एक साथ घूम रहे हैं, तिकड़मी एक दूसरे को कोस भी रहे हैं और पोस भी रहे हैं और हर तरफ बेडौल फैलते शहर के बीच फँसे ऐसे लोग भी हैं जिन्हें  एक जोड़ी जूते की कीमत के बराबर भी मनरेगा की मासिक मजूरी नहीं मिलती। लब्बो लुआब यह कि किसी भी शहर की तरह देहरादून भी अब रहने की दृष्टि  से असह्य बनता जा रहा है। याद आते हैं उमाकांत मालवीय जिन्होंने लिखा था: खोली दर खोली में घर गए उघर, रहने लायक नहीं रहे महानगर। सो कवि-दृष्टि  में देहरादून भी अन्यद जनसंकुल शहरों की भांति व्याधियों का डेरा बन चुका है।

कवि बेशक पुनर्जन्म में न यकीन करता हो, पर वह जन्म में यकीन करता है; वह भाषा, शब्द- और बीज की तरह उगना चाहता है और वह चाहता है कि जहां उगे, लोगों को लगे कि यह तो शब्द है, भाषा है और हमारी भाषा में भी तो शब्द बीजों की तरह उड़ कर चले आते हैं और जगूड़ी तो ऐसी भाषा की, शब्दों की टोह में रहते हैं जो किसी नए अर्थ,नई प्रतीति का संवाहक बन सके। वे भाषा के वर्तमान में नहीं, भविष्यन में भी सांस लेते हैं। इसीलिए कहते हैं, ''भाषाओं से नहीं,आशाओं से भी नापो मुझे  और फिर एक ऐसे अनुभव से गुजरते हैं जब इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि

एक डग भीतर जाने के लिए

सौ डग बाहर आना पड़ता है

तुकबंदी करूं तो कर सकता हूँ

ठीक से खड़ा होने के लिए कई बार

लडख़ड़ाना पड़ता है। (वही, भविष्य की ओर,  पृष्ठ- 105)   

 

'कविता का अमरफल’ पर चर्चा की जा चुकी है तथापि इस बारे में कुछ और बातें जरूरी हैं । भर्तृहरि जैसे कवि को यदि जीवन के साक्षात अनुभव न हुए होते तो वे राजत्व  न छोड़ पाते। उसके लिए तो बुद्ध होना होता है। लेकिन एक जरा सी ठेस ने उनका जीवन बदल दिया। वे केवल राजा भर होते तो राजपाट में ही लिप्त  रह जाते और इतिहास की तारीखों में कहीं दब गए होते पर कवि हुए तो दिगदिगंत तक व्याप गए। जीवन का ऐसा कौन सा पल होगा जब भर्तृहरि के कथन याद नहीं आते। वह कविता से इतने तदाकार और तदात्म  थे कि उन्होंने जीवनानुभवों की ठेस को रचनात्मक बना दिया। मैंने निकट से देखा है कि जगूड़़ी में एक स्रष्टा की व्यग्रता है, एक कवि का जुनून है कि जो भी लिखा या रचा जाए वह अद्वितीय हो, अनिर्वचनीय हो। किसी की प्रतिकृति बनने के बजाय वे अपनी अद्वितीय मौलिकता में सांस लेने वाले कवि हैं। तभी तो कहते हैं, ''भाषिक अभिव्यक्ति का रूप- रस कविता द्वारा ही बचाया जा सकता है।’’ यह पूरी कविता एक जीवन का रूपक है-- अमरता का रूपक जहां एक सुहागिन भी अपने पति की नहीं, प्रेमी की अमरता की कामना करती है, किन्तु एक वेश्या  और सर्वगम्या स्त्री  चाहती है कि कविता के अमर फल वाला कवि अमर हो। कवि की दृष्टि में एक वेश्या की ऊॅचाई देखें कि उसकी कामना में राजपाट नहीं, कविता के वे गुणसूत्र हैं जो 'सुरसरि सम सब कँह हित’ की भावना से भरे हैं। कविता यहीं तक होती तो कोई नई बात नहीं होती। यह तो प्रदत्त प्रसंग है ही। इसकी ऐसी  व्याख्या भी कोई अलग नहीं; जगूड़ी इससे आगे 'अमरफल की इच्छा’ में प्रवेश करते हैं और पाते हैं कि अमरफल चाहता है कि कविता फिर किसी फल का बीज बन कर अमर हो। वह तो उन कवियों को धन्य मानता है जिनकी अमरता की कामना गणिकाएं भी करती हैं।   

'कविता का अमरफल’  में जगूड़ी फिर उस काव्यबोध के साथ सामने आते हैं जो अन्य  कवियों से उन्हें अलग बनाता है, उनका नैरेटिव दूसरों से अलग है, वह न विष्णु खरे जैसा नैरेटिव रचता है न मुक्तिबोध जैसी दुर्लंघ्य भाषाई दीवार खड़ी करता है, न वह केदारनाथ सिंह जैसी रोमैंटिक विस्मियता और पद लालित्य के वशीभूत होता है न रघुवीर सहाय जैसे वाक्य  विन्याबस और अभिधा का अनुगमन करता है । वह भाषा की शक्तियों से खेलता अवश्य है और हर बार अनुभव की विपुल जलराशि में डुबकी लगा कर नए सत्वर-तत्व खोज लाता है। जगूड़ी का कवि लक्षणा और व्यंजना में सांस लेता है। उनकी सूक्तिमयता और  उद्धरणीयता भी पहले से  कुछ कमतर हुई है। वे ही हैं जो माली की माली हालत से दुखी होते हैं तो फूलों की पत्थर हृदयता से विषण्ण  भी; और सचमुच के पत्थरों से जो आत्मीमयता उन्हें  मिली है उसका बयान तो इनमें से अनेक कविताएं देती ही हैं। लोक में लोग पत्थदरों में ईश्वर की  प्राण-प्रतिष्ठाी करते हैं, लीलाधर जगूड़ी ने इन पत्थरों में मनुष्यतता की प्राण-प्रतिष्ठा  की है। यह अवश्य है कि कहीं कहीं लगता है कि जगूड़ी अब जैसे किसी सेचुरेशन पाइंट पर  पहुंच चुके हैं पर फिर वहीं कोई  कविता औचक उठ कर सारे अवधारण को ध्वस्तक कर देती है कि अभी उनका सांचा पुराना नहीं पड़ा है न उनकी कविता के करघे पर 'हारे को हरिनाम’ की छाया पड़ी है। शब्द,अर्थ और संवेदना के उनके रूपाकार अभी भी रचनात्मकता से ओतप्रोत हैं और उनकी कविताओं में  जल, वायु, अग्निै, पृथ्वी और आकाश के सहकार की शिनाख्तत की जा सकती है।

 

 

ओम निश्चल हिंदी के सुपरिचित कवि-समीक्षक एवं भाषाविद हैं तथा आलोचना व भाषा विषयक कई पुस्तकें  प्रकाशित हो चुकी हैं। उप्र हिंदी संस्थान द्वारा आचार्य  रामचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार एवं विचार,कोलकाता द्वारा प्रो कल्याणमल लोढ़ा साहित्य सम्मान से समादृत।

संपर्क- जी 1/506 ए, उत्ताम नगर, नई  दिल्ली-110059,  फोन : 9810042770, मेल: dromnishchal@gmail.com

 

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