महाप्राण निराला और रामविलास शर्मा

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी महाप्राण निराला और रामविलास शर्मा
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम प्रकाश मनु





आलेख

 

 

 

साहित्य इतिहास की अमर जोड़ी

 

 

निराला बीसवीं सदी के हिंदी के सबसे बड़े कवि हैं। सबसे शक्तिशाली और प्राणवान कवि, जिनकी रचनाओं में मनुष्य के भीतरी-बाहरी संघर्षों के ताप से साथ-साथ युग-सत्य झलमला रहा है। वे भारतीय जनता के सच्चे कवि हैं, जिन्होंने आगे बढ़कर आम लोगों के दुख-दर्द को अंगीकार किया और उसे उतनी सच्चाई और मार्मिकता के साथ कविताओं में ढाला। यों उनका काव्य-संस्कार मानो भारतीय जनता के दुख-दर्द, सपनों और आकांक्षाओं का महाकाव्य है। अपने समय की अकथ कथा। और एक दुर्निवार सत्य की अभिव्यक्ति। इसीलिए उन्हें 'महाप्राण निराला’ कहा गया। हिंदी में कोई महाप्राण कवि है, तो वे निराला, निराला और बस निराला ही हैं।

निराला को गुजरे एक लंबा समय हो गया और तब से कविता का मिजाज भी बहुत बदला। लेकिन वे आज भी हमें उसी तरह भीतर गहराई से छुते, ललकारते और विचलित करते हैं। निराला आज भी निराला हैं, जैसे तब थे और उनके आसपास भी कोई नहीं पहुंचता। इसीलिए उनका नाम आते ही, हर लेखक और पाठक के मन में चाहे वह किसी भी पीढ़ी का हो, एकदम नया, युवा या वरिष्ठ साहित्यकार- थोड़ी देर के लिए जो एक मौन स्तब्धता, भावाकुल प्रशंसा और सम्मान का भाव आता है, वह सच में अव्याख्येय है। निराला ऐसे कवि हैं, जिनकी विराट प्रतिमा के आगे झुकना हर कवि को गौरव देता है।

ऐसे क्षणों में यह याद करना कि निराला को समझने, व्याख्यायित करने और उनकी बीहड़ असफलताओं और टूटन में सहारा देने का काम रामविलास जी ने किया,  मन को गहरी तृप्ति और सुकून से भर देता है। तब यह भी समझ में आता है कि निराला के लिए रामविलास क्या थे और रामविलास के लिए निराला के होने के मानी क्या थे? और तभी यह भी समझ में आता है कि क्यों निराला को याद करते ही तत्काल रामविलास शर्मा और रामविलास शर्मा को याद करते ही औचक निराला याद आते हैं? शायद यह करिश्मा भी हिंदी में अपने ढंग का अकेला और नायाब करिश्मा है, जबकि दो बड़े साहित्यकारों की जोड़ी हिंदी साहित्य के इतिहास में एक अनोखी और हमेशा-हमेशा उद्धृत की जाने वाली नजीर बन गई।

निराला का निधन सन् 1961 में हुआ और रामविलास उनके कोई चालीस बरस बाद गुजरे, बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की संधि-बेला पर। पर दोनों अपने-अपने क्षेत्र के महारथी होने के साथ-साथ, मानो एक-दूसरे के ऐसे पूरक भी हैं कि लगता है, एक के बिना दूसरे का जिक्र अधूरा है। लिहाजा निराला और रामविलास शर्मा के आपसी संबंधों और एक-दूसरे को निखारने में उनकी भूमिका और योगदान को समझना भी जरूरी है।

                                                                 *

रामविलास शर्मा जब लखनऊ में अध्ययन कर रहे थे, तब निराला जी से उनकी मुलाकात हुई और यह बहुत जल्दी गहरी अंतरंगता में बदल गई। पर देखा जाए तो निराला से उनकी मुलाकात तो बरसों पहले उनकी कविताओं के जरिए हो चुकी थी। रामविलास निराला की कविताओं के मुरीद थे। आगे चलकर रामविलास शर्मा का पहला कविता संग्रह 'रूपतरंग’ निराला जी की षष्ठिपूर्ति पर निकला था और वही रामविलास जी की कविताओं के सच्चे प्रेरक भी थे।

लखनऊ में रामविलास शर्मा निराला के साथ ही रहते थे और निराला थे साक्षात् कविता। तो भला रामविलास कविताओं से कब तक दूर रहते? जल्दी ही उन्होंने भी लिखना शुरु कर दिया। 'रूपतरंग’ में इसकी व्यापक रूप से चर्चा है। पर निराला से रामविलास शर्मा के संबंधों की कहानी तो उससे भी पहले शुरू होती है, जब रामविलास विद्यार्थी थे और पहली बार कविता के रस-आनंद को उन्होंने जाना था। शांतिप्रिय द्विवेदी द्वारा संपादित एक कविता संग्रह उनके हाथ लगा, जिसमें हिंदी के बहुत से कवियों की कोमल-कांत पदावली वाली कविताएं थीं, पर निराला का स्वर उसमें सबसे अलग था। रामविलास शर्मा पढ़कर अभिभूत हुए और उन्हें लगा, यह है सच्चा कवि। 'रूपतरंग’ की भूमिका में रामविलास जी  मानो अभिभूत होकर लिखते हैं -

''तभी निराला की काव्य सरस्वती से मेरा परिचय हुआ और उस परिचय का आनंद एक अरुण आलोक बनकर सारे वातावरण पर छा गया। कहते हैं कि प्रथम प्रणय की याद कभी भुलाई नहीं जा सकती। निराला की कविता से उस प्रथम परिचय का आनंद भी मैं कभी नहीं भूल। साधारणीकरण द्वारा निराला की कविता मेरे लिए कविता मात्र बन गई।’’

हिंदी के दूसरे समकालीन कवियों से निराला अलग क्यों थे और वह क्या था, जो उन्हें निराला बनाता था, यह भी इस भूमिका को पढ़कर समझ में आ जाता है। निराला की कविता में अतुलनीय गांभीर्य था और वह मन-प्राणों को झकझोरती थी। यहाँ निराला बाकी सब कवियों से अलग थे-

''शांतिप्रिय जी के संग्रह में कोमल-कांत पदावली के अन्य कवियों की रचनाएं भी थीं, लेकिन वह कोमलता हलकी थी, प्राणों को स्पर्श न करती थी, उसमें ओज का अभाव था, एक सशक्त व्यक्तित्व की गंभीर साधना न थी। अन्य कवियों की तुलना में मुझे निराला वैसे ही लगे, जैसे विंध्याचल की तुलना में हिमालय। तब से मेरी उस धारणा में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। निराला को लेकर हिंदी में कितना संघर्ष हो चुका है, तब मुझे इसका पता न था। सन् 34 में यह संघर्ष ही मुझे आलोचना के क्षेत्र में घसीट लाया और मेरा पहला आलोचनात्मक निबंध निराला की काव्य-प्रतिभा के समर्थन में प्रकाशित हुआ। संभव है, यह संघर्ष न होता- मेरे प्रिय कवि पर द्वेषपूर्ण आरोपों की वर्षा न की गई होती- तो मैं आलोचना के क्षेत्र में आता ही नहीं।’’

यहां परोक्ष रूप से रामविलास शर्मा के आलोचक बनने की कहानी भी है। रामविलास जी तो उन दिनों पूरी तरह कविताओं में डूबे हुए थे और वही उन्हें अच्छा भी लगता था। निराला के साथ रहते हुए सब दिन काव्य-चर्चा और उसी में रमे रहना। बड़े सौभाग्य से उन्हें यह कवितामय जीवन मिला था, जिसने उन्हें भीतर-बाहर से भर दिया था। उनकी कविताएं भी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थीं। जल्दी ही उस दौर के जाने-माने कवियों में रामविलास जी का नाम लिया जाने लगा। रामविलास जी औरों की तरह कविताएं नहीं लिखते थे। वे धरती की पीड़ा धरती के छंद के कवि थे। बड़े खुरदरे कवि, जिनकी कविताओं में आम जनता और गरीब किसान-मजदूरों की अवरुद्ध वाणी अपना आकार पा रही थी।

पर तभी एक और दिशा से पुकार उठी, जिसे अनसुना करना उनके लिए मुश्किल था। यह समय की ऐसी पुकार थी, जिसने उन्हें आलोचना के क्षेत्र में ऐेतिहासिक महत्व का काम करने के लिए आगे प्रथम पंक्ति में ला खड़ा किया। उन दिनों रामविलास शर्मा के सर्वाधिक प्रिय कवि निराला पर भीषण प्रहार हो रहे थे। द्वेषपूर्ण  ढंग से उनके महत् योगदान को नकारने और उनके उपहास की कोशिश हो रही थी। कुछ लोग तो उन्हें बीहड़ और दुरूह कवि कहकर भी मजाक उड़ाते थे। उनके मुक्त छंद को, जिसमें निराला कविता की मुक्ति का स्वप्न देखते थे, रबड़ छंद और केंचुआ छंद कहकर गाल बजाने वालों की भी कमी न थी। लगता था, खुद्दार और स्वाभिमानी कवि निराला के सारे विरोधी मानो लामबंद हो रहे हैं। रामविलास भला यह कैसे सहन कर सकते थे? उन्होंने निराला की काव्य-प्रतिभा को सामने लाने के लिए कलम उठाई और गंभीर आलोचनात्मक लेख लिखा, जिसमें विरोधियों के तर्कों का जमकर खंडन किया गया। यह उनके आलोचक होने की शुरूआत थी।

रामविलास जी ने माना है कि ''संभव है, यह संघर्ष न होता- मेरे प्रिय कवि पर द्वेषपूर्ण आरोपों की वर्षा न की गई होती- तो मैं आलोचना के क्षेत्र में आता ही नहीं।’’ इतना ही नहीं, रामविलास जी ने निराला पर पहले 'निराला’ नाम से पुस्तक लिखी और फिर तीन खंडों में निकली 'निराला की साहित्य साधना’ तो एक युगांतकारी कृति है, जो इस बात की नजीर है कि किसी बड़े कवि के जीवन और साहित्यिक अवदान पर कैसे लिखा जाना चाहिए। इसका प्रभाव भी पड़ा। धीरे-धीरे महाकवि निराला के असाधारण महत्व को साहित्य-जगत ने समझा, भले ही इसमें काफी समय लग गया। रामविलास जी के लिए यह बड़े संतोष की बात थी। उन्होंने अपने आलोचना-कर्म की सार्थकता साबित कर दी थी।  निराला जब बिल्कुल अकेले पड़ गए थे, रामविलास जी का यह पुरुषार्थ किसी महा रण से जूझने सेकम न था। और वे सच ही खड्गहस्त होकर निराला के साथ खड़े नजर आए। निराला कुछ समय से ही पूरा परिदृश्य बदला नजर आने लगा। स्वयं रामविलास जी के शब्द हैं-

''आज विरोधी कोलाहल शांत हो गया है। दिन-दिन निराला की प्रतिमा अपने वास्तविक प्रकाश में जनता के सामने आ रही है। यह हिंदी के नए युग की विजय है, जिसके लिए निराला ने अनवरत संघर्ष किया। इस विजय से निराला साहित्य के सभी प्रेमियों को संतोष होना स्वाभाविक है।’’

                                                                *

झाँसी में पढ़ते हुए रामविलास शर्मा ने निराला का एक छोटा सा कविता संग्रह पढ़ा, 'अनामिका’, जिसमें उनकी बहुत कम कविताएँ थीं। उसी से निराला की एक आदमकद प्रतिमा उनके मन में बनी। बाद में वे लखनऊ आए तो दूर से ही निराला को आते-जाते देखकर तृप्त हो जाते थे। इस बात की उन्हें कल्पना ही नहीं थी कि कभी वे निराला के इतने निकट आ जाएँगे कि साहित्य के इतिहास में बार-बार निराला के साथ उनका स्मरण किया जाएगा। पर अंतत: निराला से उनकी मुलाकात हुई और वे निराला के स्नेह से आप्लावित हो उठे। आइए, इसबारे में स्वयं रामविलास जी से ही सुनें -

''झाँसी में क्षीणकाय संग्रह 'अनामिका’ से अपनी प्यास बुझाते हुए मैंने यह कामना भी न की थी कि कवि से कभी साक्षात् परिचय भी होगा। लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्ययन कते हुए उन्हें दूर से देख लेता था और बिएट्रिस के मौन दर्शक दांते की तरह मन ही मन प्रसन्न हो लेता था (न मैं दांते हूँ न निराला जी बिएट्रिस, लेकिन खैर आनंद बिएट्रिस से कम न था, यह जरूर कहूँगा।) एक दुकान पर 'परिमल’ खरीदते हुए उनसे मेरा मौन परिचय मुखर बना, तब से जब तक वह लखनऊ में रहे, शायद ही कोई दिन रहा हो जब मैं उनके साथ न रहा हूँ। उन्होंने मेरे लिए एक और भी विस्तृत काव्य-संस्कार का द्वार खोल दिया। कितने तन्मय होकर वे दूसरों के काव्य में रस लेते थे, यह मैंने देखा। दूसरों की प्रतिभा के लिए उन्होंने मेरी श्रद्धा जाग्रत की। 'आत्मकेंद्रित’, 'अहंकारी’ निराला को मैंने दूसरों की रचनाओं से ही सबसे अधिक बिह्बल होते देखा।’’

निराला की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वे दूसरे कवियों की चर्चा करते थे तो पूरी तरह डूब जाते थे। दुर्भाग्य से निराला की छवि ऐसी बना दी गई, मानो वे बड़े अहंकारी और आत्मकेंद्रित कवि हों। पर सच तो यह है कि दूसरों की कविता की इस कदर भाव-गद्गद और तल्लीन होकर चर्चा करने वाला कोई और कवि था ही नहीं। हिंदी ही नहीं, संस्कृत, बांग्ला, उर्दू और अंग्रेजी सबमें वे समान भाव से रमते थे और अच्छे काव्य की चर्चा करते हुए सब कुछ भूल जाते थे। इस बात ने रामविलास शर्मा को मुग्ध किया। उनके आगे अपरिमित संभावनाओं वाला एक बड़ा काव्य-संस्कार खुल पड़ा। यह निराला ही थे, जिन्होंने रामविलास शर्मा को दूसरों की काव्य-प्रतिभा का सम्मान करना सिखाया। और कविता का रस लेना भी। कविता के मर्म तक पहुंचने की जो बेचैनी निराला में थी, वही रामविलास जी में भी आई। तुलसी हों या टैगोर, उनके काव्य-सौंदर्य को पहलेपहल निराला के जरिए ही उन्होंने जाना। इससे निराला की कहीं एक बड़ी प्रतिमा रामविलास जी के मन में बनी। वे लिखते हैं -

''लखनऊ विश्वविद्यालय में रिसर्च करते हुए अनिश्चित भविष्य के पति सशंक रहते हुए भी, उन दिनों मेरा जीवन कवितामय था। कविता की चर्चा करने वाले स्वयं निराला थे और सबसे रोचक कविता वे स्वयं थे। हिंदी उर्दू, बंगला, अंग्रेजी, संस्कृत सभी की कविता चर्चा का विषय थी। तुलसीदास की करुणा का पता निराला के आद्र्र कंठ से लगा। रवींद्रनाथ के सौंदर्य-स्वप्न उनकी आँखों में जगमगाते दिखाई पड़े। शेक्सपियर की सार्वजनिकता 'खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन’ में प्रतिध्वनित हुई। कालिदास की 'तन्वी श्यामा शिखरिदशना’ कवि को अतीत के स्वप्नों में विभोर कर देती थी। और फटेहाल निराला के जीवन में गालिब की तल्खी, उसका दर्द और आत्मविश्वास चरितार्थ होता था, जब वे कहते थे - 'हम सुखनफहम हैं गालिब के तरफदार नहीं’ या 'कर्ज की पीते थे मैं, पर समझते थे कि हाँ, रंग लायेगी हमारी फाकामस्ती एक दिन।’ और जब वे 'तुलसीदास’ और 'राम की शक्तिपूजा’ पढ़ते थे, तब जनसंस्कृति की वह अदम्य परंपरा साकार हो उठती थी, जो युगों-युगों से इस धरती पर जीवित रहती है। इस तरह निराला में समस्त काव्य-संसार मूर्तिमान हो उठता था।’’

यों निराला बड़े कवि तो थे ही, उनका व्यक्तित्व इससे भी कहीं अधिक बड़ा था। इतना बड़ा कि शायद निराला की बेहद समर्थ और अभिव्यंजनात्मक भाषा भी उसे पूरी तरह व्यक्त नहीं कर सकती थी। रामविलास शर्मा लिखते हैं-

''लेकिन इस सबसे भी महान था निराला का व्यक्तित्व, केवल मानव, वह जो सभी साहित्य से सरस था, जिसे स्वयं निराला की व्यंजना-शक्ति भी पूरी तरह प्रकट नहीं कर पाई। मेरे मन में एक अनिर्वचनीय संस्कार के रूप में उसकी स्मृति बनी हुई है।’’

*

रामविलास शर्मा जब निराला के बारे में बता रहे होते थे, तो उन्हें सुनना एक अनुभव था, जिसे आप कभी भुला नहीं सकते। एक ऐसे दुर्लभ और विलक्षण अनुभव, जो बरसों बाद भी स्मृतियों में दस्तक देता है।

इस लिहाज से मुझे बरसों पहले रामविलास जी से निराला को लेकर हुई मुलाकात याद आती है, जब उन्होंने निराला और उनकी शख्सियत के बारे में खूब खुलकर बातें की थीं। उस समय निराला की स्मृतियों से छलछलाता रामविलास जी का जो भावविह्वल चेहरा मेरे सामने था, उसे भूल पाना मेरे लिए संभव नहीं है। और यह मुलाकात निराला की जन्मशती के अवसर पर हुई थी।

स्वाभाविक है कि उस समय मुझे लगा, यह पीछे मुड़कर उस समय, हालात और परिस्थितियों को, जिनमें निराला जैसी बड़ी प्रतिभा ने जन्म लिया, लिखा और पूरे 'निरालापन’ के साथ लिखा और फिर उस जैसी सतेज, दुर्बह प्रतिभा को टूटकर बिखरते भी देखा गया, एक बार फिर से जानने और व्याख्यायित करने का शायद सही समय है। डॉ. रामविलास शर्मा ने निराला को 'तुलसीदास के बाद हिंदी का सबसे बड़ा कवि’ कहा। उन्हें छायावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद सबसे जोड़ा गया, लेकिन निराला जैसा बड़ा कवि सभी वादों से चौखटों को तोड़कर बाहर आ जाता है। और आज का हिंदी कवि निराला के गुजरने के इतने अरसे बाद भी उनसे सीधे-सीधे इस तरह प्रेरणा लेता है जैसे निराला हमारे समकालीन हों। यही शायद निराला का निरालापन है जो उनके दौर के दूसरे कवियों को नसीब नहीं हो सका।

निराला से रामविलास जी की पहली मुलाकात कब हुई? क्या वे पहले से ही एक बड़े कवि के रूप में उन्हेंं जानते थे और प्रभावित थे? या मुलाकात के बाद उन्होंने निराला के बारे में जाना? यह जानने की जिज्ञासा स्वभावत: हिंदी के सभी साहित्यिकों को रहती है। इस बारे में में मैंने रामविलास जी से पूछा तो वे भावविभोर होकर निराला से हुई पहली मुलाकात का पूरा किस्सा सुनाने लगे।

असल में लखनऊ में किताबों की एक छोटी-सी दुकान थी, सरस्वती पुस्तक भंडार। जो सज्जन यह दुकान चलाते थे, वे किताबें बेचने के अलावा विवेकानंद की किताबों के अंग्रेजी से हिंदी अनुवाद कराके, किताबें छापते भी थे। उन्होंने रामविलास जी को अनुवाद का कुछ काम दिया था, चार आने प्रति पेज के हिसाब से। रामविलास जी की अनूदित कुछ किताबें छपीं भी थीं। तब वे बी.ए. ऑनर्स के छात्र थे।

एक दिन रामविलास शर्मा वहाँ गए तो निराला जी उन्हें मिले। उसी दुकानदार ने परिचय कराया, ''निराला जी, ये है रामविलास शर्मा, जिन्हें आप पूछ रहे थे। इन्होंने ही विवेकानंद की किताब का अनुवाद किया है।’’ सुनकर निराला जी बेहद प्रसन्न हुए। वे स्वयं विवेकानंद के बड़े भारी प्रशंसक थे, वेदांत के अधिकारी विद्वान भी। रामविलास जी द्वारा किया गया अनुवाद उन्हें बहुत अच्छा लगा था और प्रकाशक से उन्होंने इसकी प्रशंसा भी की थी।

रामविलास जी ने वहाँ से निराला का काव्य-संग्रह 'परिमल’ खरीदा तो निराला बोले, ''इसमें बाद की कुछ कविताएं मुक्त छंद की हैं। वे शायद आपको पसंद न आएँ।’’ पर रामविलास जी ने मुसकराकर कहा, ''वही तो मुझे ज्यादा पसंद है, बल्कि मुझे तो लगता है कि आप तुकबंदी की कविताएं लिखते ही क्यों हैं।’’

निराला इस बात से और भी खुश हुए। कारण यह था कि उन दिनों मुक्त छंद का भारी विरोध हो रहा था। ऐसे में कोई मुक्त छंद का प्रशंसक मिल जाए, तो यह मन को बल देने वाली बात थी। इसके बाद तो निराला जी से रामविलास शर्मा की बहुत मुलाकातें हुईं। सिलसिला चल पड़ा। उसके साथ भी वे बहुत समय तक रहे। रामविलास एक तरह से निराला के परिवार का अंग ही बन गए थे। निराला जी से कविताओं पर बात करने में उन्हें बहुत आनंद आता था। हालाँकि वे अपने निजी जीवन की, घर-परिवार और सुख-दुख की भी बहुत-सी बातें उन्हें बताते थे। साथ ही वे अपनी और अन्य कवियों की कविताएं भी बहुत रस लेकर सुनाते थे।

उस समय निराला जी की मानसिक स्थिति कैसी थी? क्या तब भी उनमें थोड़ी बहुत असामान्यता या विक्षेप नजर आता था, जो बाद में बहुत बढ़ गया..? मैंने जिज्ञासावश पूछ लिया। इस पर रामविलास जी मानो बरसों पहले के कालखंड में बहुंच गए। एक प्रसन्न मुसकराहट के साथ उन्होंने जवाब दिया -

''तब के निराला यूनानी देवताओं जैसे स्वस्थ, सुंदर और तंदुरुस्त थे। खासकर कविताएं सुनाते समय उनकी तल्लीनता और भव्य रूप देखते ही बनता था। निराला को जितनी कविताएं कंठस्थ रहती थीं, उतनी तो शायद ही किसी दूसरे कवि को याद रहती हों।... और खास बात यह थी कि वह अपनी से ज्यादा दूसरों की कविताएं सुनाते थे। उस समय अपूर्व आनंद का भाव उनके चेहरे पर होता था। यही भाव तब होता था, जब वे कविताओं पर चर्चा करते-करते विचारों में एक दम डूब जाते थे।... मैंने निराला से ज्यादा कविताओं में डूबा रहने वाला कोई दूसरा व्यक्ति अपने जीवन में देखा ही नहीं। वे चौबीस घंटे कविताओं में ही रहते थे।’’

*

रामविलास शर्मा लखनऊ में काफी समय तक निराला के साथ भी रहे। हुआ यह कि वे लखनऊ में रहने के लिए किराए पर कमरा ढूंढ़ रहे थे। इस बारे में निराला जी से बात हुई तो उन्होंने कहा, ''परेशान क्यों होते हो? मेरे साथ आ जाओ।’’ रामविलास जी के लिए यह बहुत प्रसन्नता की बात थी। वे सामान लेकर पहुँच गए और निराला जी के साथ रहने लगे।

इस निराला सरीखी इतनी बड़ी मेधा के निकट रह पाना क्या इतना सहज रहा होगा? क्या निराला के साथ रहते हुए, उन्हें कुछ असुविधा, कुछ आँच-सी महसूस होती थी? इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा, ''असुविधा तो क्या थी! क्योंकि निराला जी का हर वक्त का साथ और मेरे लिए उनके काव्य-चर्चा से बढ़कर आनंद कुछ और न था। उनके पास रहकर यह विश्वास और पुख्ता हुआ कि एक विलक्षण प्रतिभा है उनमें और कोई दिखावा नहीं है।... जो भी लिखते थे, बीच-बीच में सुनाते थे। मुझे याद है, पूरा 'तुलसीदास’ उन्होंने मुझे इसी तरह सुनाया था।’’

होता यह था कि 'तुलसीदास’ के जो भी दो-दो, तीन-तीन छंद बनते, छोटे-छोटे कागजके टुकड़ों पर लिखकर निराला रामविलास शर्मा के पास लेकर आ जाते। कहते, ''सुनो डॉक्टर, यह लिखा है...!’’

वे निराला और रामविलास दोनों के ही जीवन के बड़े आनंदमय क्षण थे। पर हाँ, निराला जी का रोग इस काल से शुरू हो गया था। वे कभी-कभी बेचैन होकर आधी रात में उठ जाते थे, कमरे में टहलने लगते थे। कभी-कभी खुद से बातें करने का सिलसिला भी। लेकिन अभी यह बहुत कम था। शायद ज्यादा तनाव के क्षणों में ऐसा होता हो, लेकिन बाकी समय में निराला एकदम स्वस्थ, प्रसन्नचित रहते थे, खासकर कविता सुनाते समय या काव्य-चर्चा करते समय। लिहाजा कभी-कभी वे सबसे कटकर कल्पना की दुनिया में चले जाते, इस बात पर रामविलास जी का ज्यादा ध्यान नहीं गया। हालाँकि बाद में रोग बढ़ गया। इसकी चर्चा करते हुए रामविलास जी कहते हैं-

''उनका यह रोग बाद में बढ़ा और हालत यह हो गई कि वे सहज बात करते-करते कब एकाएक कल्पना की दुनिया में चले जाएँ और मनगढ़ंत बातें करने लगे, कुछ पता नहीं चलता था। अभी आपसे घर-परिवार की छोटी से छोटी बात पूछ रहे हैं और अभी-अभी बताने लगेंगे कि डॉक्टर, जब मैं इंग्लैंड में था, क्वीन विक्टोरिया ने मुझे बुलाया था...! और ये बातें वे इतने सहज और विश्वसनीय ढंग से कहते थे कि एकाएक विश्वास नहीं होता था कि ये सब कल्पित बातें हैं।’’

निराला जी के साथ रहते हुए रामविलास शर्मा ने उनके दुखों और जीवन की कुछ घटनाओं को भी पास से देखा। खासकर निराला की बेटी सरोज के निधन के समय की उनकी मन:स्थिति की चर्चा करते हुए वे काफी भावुक हो जाते हैं। उस समय के निराला को याद करते हुए रामविलास जी बताते हैं-

''मुझे अच्छी तरह याद है।... डाकिए ने आवाज लगाई, निराला चिट्ठी लेने नीचे गए। एक पोस्टकार्ड था उसके हाथ में, जिसमें सरोज की मृत्यु की खबर थी। उसे लिए-लिए मेरे पास आए, बोले, 'डॉक्टर, सरोज इज नो मोर!’ चिट्ठी डलमऊ से आई थी, सरोज की नानी के घर से। बीमारी के दौरान सरोज वहीं थी, नानी ने ही देखभाल की थी और अब...! उस समय का निराला का चेहरा मुझे कभी नहीं भूलता। एकदम सफेद हो गया था, जैसे एक पल में ही देखते-देखते राख हो गया हो। आवाज जैसे चली गई हो। कुछ देर बाद वह हाथ में छड़ी पकड़े घर से निकले और दिन भर कुछ पता नहीं चला। देर रात को वे घर आए। उसके बाद से उनकी हालत यह थी कि रात-दिन जैसे सरोज के बारे में सोचते हों। इसके कुछ ही रोज बाद, मुझे याद है, उन्होंने 'सरोज स्मृति’ लिखी थी। इसमें पहले जो भी कविताएं निराला जी लिखते थे, बीच-बीच में जैसे-जैसे बनती जाती थीं, मुझे सुनाते जाते थे। लेकिन यह कविता पूरी होने के बाद ही मैंने पढ़ी थी। इसकी हस्तलिखित प्रति देखी थी या छपने के बाद पढ़ी थी, इसकी अब मुझे याद नहीं है।...’’

इसके बाद 'राम की शक्ति पूजा’ लिखी गई तो उसका पहला पद उन्होंने रामविलास जी को सुनाया था। सुनते ही वे अवाक् रह गए थे। उन्होंने कहा, ''यह तो अद्भुत है निराला जी! ऐसी कविता तो आपने पहले कभी नहीं लिखी।’’

निराला के चहेरे पर भी गहरी तृप्ति नजर आई।

'भारत’ अखबार में 'राम की शक्ति पूजा’ कविता पूरी छपी थी। उसके कुछ ही समय बाद उस पर पहला लेख 'माधुरी’ में रामविलास जी का छपा था। पूरी कविता में निराला का अपना दुख है, 'सरोज-स्मृति’ की ही तरह। हाँ, 'राम की शक्ति पूजा’ में राम से जोड़कर उन्होंने उसे बहुत उदात्त बना दिया है, ''अन्याय जिधर है, उधर शक्ति...!’’

*

क्या निराला जी की आर्थिक स्थिति बहुत करुणाजनक थी? उनका निर्वाह कैसे होता था? सिर्फ रायल्टी पर...? पूछने पर कुछ सोचते हुए रामविलास जी विस्तार से बताने लगते हैं-

''देखिए, 29 से 35 तक जब तक वह लखनऊ में दुलारेलाल भार्गव के यहाँ रहे, कष्ट कोई बहुत ज्यादा नहीं था। दुलारेलाल भार्गव चाहे पैसा बहुत न देते हों, पर इतना तो देते ही थे कि गुजारा हो जाता था। फिर उसके संबंध केवल प्रकाशक-लेखक वाले ही न थे। दुलारेलाल भार्गव चूँकि खुद लेखक थे, तो थोड़े संवेदनशील भी थे और जरूरत पडऩे पर मदद करते थे।... सही बात तो यह है कि अगर उन्हें दुलारेलाल भार्गव का साथ न मिला होता तो उनकी चीजें शायद सामने आती ही नहीं। उस समय हालत यह थी कि निराला को छापने को कोई तैयार ही न था।... तो दुलारेलाल भार्गव ने अपनी सीमाओं के बावजूद मदद तो बहुत की, लेकिन दिक्कत तब हुई जब दुलारेलाल भार्गव से उनका झगड़ा हो गया।...’’

उन दिनों इलाहाबाद की लीडर प्रेस भी बहुत मशहूर था। हिंदी के बहुत से दिग्गज साहित्यकारों की किताबें लीडर प्रेस ने छापी थीं। दुलारेलाल भार्गव से दूरी बढ़ी तो निराला जी ने अपनी किताबें लीडर प्रेस के वाचस्पति पाठक को छापने के लिए दीं। वाचस्पति पाठक ने निराला जी की किताबें तो प्रकाशित कीं, पर वे कुछ भिन्न मानसिकता के कवि थे। एकदम कारोबारी किस्म के। इसलिए निराला जी का उनसे बहुत आत्मीयता का संबंध नहीं बन पाया। इससे निराला जी की मुश्किलें और बढ़ी। इस बारे में रामविलास जी, जो निराला के जीवन की कई त्रासदियों के गवाह भी हैं, खुलकर बताते हैं -

''वाचस्पति पाठक असल में दूसरी तरह के आदमी थे। बाद में उनसे भी उनका झगड़ा हुआ और हालात और बिगड़े। सचमुच बड़े आर्थिक संकट की स्थिति पैदा हो गई।... और जहाँ तक रॉयल्टी की बात है, तो रॉयल्टी तो उस समय लेखकों को मिलती ही कहाँ थी? प्रकाशक कॉपीराइट ले लेते थे। थोड़ी-सी एकमुश्त रकम लेखक को मिल जाती थी। वह भी कभी-कभी पूरी नहीं मिलती थी- आश्वासन भर मिलता था और बाद में कह दिया जाता था, ''आपकी किताब बिकी ही नहीं। पैसा कहाँ से दें?’’ अब लेखक भला इस बात का क्या जवाब दें?’’

जो कुछ निराला जी को रायल्टी से मिलता था, उससे उनका निर्वाह कैसे होता था? क्या ठीक से गुजर-बसर हो जाती थी? पूछने पर रामविलास जी ने बताया, ''असल में उधार चला करता था उनका। पैसे नहीं होते थे, तो कई-कई महीनों तक मकान का किराया नहीं दिया गया, होटल वालों के पैसे नहीं दिए गए। दूध, फल-सब्जी वाला, जिससे जो चीज मांगते, मिल जाती थी। ...एक फल वाला तो मुझे याद है, घर पर बड़े प्रेम से फल दे जाया करता था। सबको पता था, हाथ में पैसे आते ही निराला जी सबका पैसा चुका देंगे... और होता भी यही था। ज्यों ही हाथ में पैसे आते थे, निराला सबके पैसे देते थे। कभी हिसाब नहीं पूछते थे। जिसने जो मांगा, दे दिया।’’

पर दूसरे विश्वयुद्ध के समय, सन् 43-44 में ऐसा दौर भी आया, जब उन्हें खाने-पीने तक का कष्ट रहा। ये निराला के बहुत तकलीफ भरे दिन थे। रामविलास जी बताते हैं-

''इस दौर में निराला बहुत कष्ट में थे और आपको शायद पता नहीं, वह एक बहुत छोटे से कमरे में रहते थे, जिसमें एक तख्त था और दो-एक साधारण कुर्सियाँ भर पड़ी रहती थीं, कभी कोई आ जाए तो उसके बैठने के लिए। निराला उस कमरे में जीवन भर रहे और वह कमरा जिसके एकदम पास में संडास था और बदबू आती थी, निराला के रहने के योग्य कतई नहीं था।... अगर उन्हेें इस स्थान से निकलकर किसी खुले, साफ-सुथरे हवादार स्थान पर रहने की व्यवस्था कर दी जाती, तो निराला बहुत कुछ अपने रोग से उभर सकते थे। मैंने बात की भी थी एक मनोचिकित्सक से। उसने कहा था, रोग कुछ खास नहीं है और इसका इलाज संभव है। हाँ, उन्हें स्वस्थ परिवेश मिलना चाहिए, जिससे असुरक्षा की भावना घटे।’’

निराला की हालत ठीक नहीं थी। उनके भीतर गहरी असुरक्षा थी। तो क्या इस बात की कोशिश बिलकुल नहीं की गई लेखकों की ओर से - या फिर सरकार की ओर से कि उन्हें ठीक-ठाक स्वस्थ माहौल मिले? यह पूछने पर रामविलास जी थोड़ी तल्खी भरे स्वर में जवाब देते हैं-

''लेखकों की ओर से...! आप अजीब बात कह रहे हैं। इलाहाबाद के लेखकों का उस समय अजब हाल था। मैं आगरा से इलाहाबाद जाता था तो वे मुझसे पूछते थे, निराला जी कैसे हैं? मैं कहता था, यहीं इलाहाबाद में तो हैं। आप जा के मिल लीजिए! लेकिन इलाहाबाद में बड़े लेखकों में से शायद ही कोई हो जो उनसे कभी मिलने गया हो।... पंत जी, जब निराला इलाहाबाद आ गए, तो वे उनसे कभी मिलने नहीं आए। हाँ, छोटे-मोटे उदीयमान लेखक निराला से आशीर्वाद पाने या उनके नाम के सहारे प्रसिद्धि पाने की आकांक्षा में अवश्य उन्हें रात-दिन घेरे रहते थे। उधर जो साहित्य के पुरोधा थे या स्थापित हो चुके लेखक थे, वे, आपको हैरानी होगी, इस बात पर बहस कर रहे थे कि क्या निराला को पागलखाने में दाखिल कर दिया जाना चाहिए या नहीं? मुझे याद पड़ता है, मैंने ऐसा एक लेख पढ़ा था।’’

रामविलास जी के ये शब्द पढ़कर मन स्तब्ध हो जाता है। लगता है, कितनी बड़ी त्रासदी निराला झेल रहे थे। हालाँकि, साथ ही एक बड़ी हैरानी यह सोचकर होती है कि उस विकट त्रासदी के बीच निराला कैसे वह सब लिख पा रहे थे, जिसका मोल उस समय भले ही न समझा गया हो, पर आज समझ में आता है कि वह अपने युग का सबसे सच्चा, प्रतिनिधि और निथरा हुआ काव्य था, जिसे सामने रखकर हमारी पीढ़ी के बहुतेरे कवियों ने कविता लिखने की शुरुआत की। और बेशक, आने वाला कल साहित्य की अनमोल धरोहर के रूप में उसे हमेशा-हमेशा के लिए सँजोकर रखेगा।

*

अक्सर मन में सवाल आता है कि निराला और उनके समकालीन साहित्यकारों यानी प्रसाद, पंत, महादेवी के संबंध कैसे थे? क्या साथ-साथ एक ही समय में लिख रहे इन कवियों में एक-दूसरे के संघर्षों को सहानुभूति से देख पाने का भाव था? या कम से कम नैतिक समर्थन...?

इस बारे में बहुत कुछ पढ़ा भी था - कुछ तो स्वयं इन धुरंधर कवियों का लिखा हुआ ही, पर रामविलास शर्मा मेरे सामने बैठे थे, तो भला उनसे पूछे बिना मैं कैसे रह सकता था।

मैंने अपनी जिज्ञासा रामविलास जी के सामने रखी तो वे मंद-मंद मुसकराते हुए बोले -

''देखिए इनके संबंध बड़े अद्भुत थे। निराला और पंत में एक लंबा विवाद चला, जिसके बारे में सभी को पता है। लेकिन यह कम लोगों को पता होगा कि ये एक-दूसरे को पसंद भी बहुत करते थे। बहुत प्रेम भी था आपस में... प्रसाद के साथ यह प्रतिस्पर्धा वाली स्थिति नहीं थी। निराला और पंत दोनों की प्रसाद को बड़ा मानते थे और सम्मान करते थे। प्रसाद ने निराला को उनकी बड़ी ही कठिन परिस्थितियों के दौरान नैतिक समर्थन दिया था।... निराला की 'गीतिका’ की भूमिका भी प्रसाद ने लिखी थी। यों निराला आम तौर से अपनी पुस्तकों की भूमिका किसी से लिखवाते नहीं थे, खुद लिखते थे। ... तो मैं समझता हूँ, प्रसाद के स्नेह के कारण ही यह हुआ होगा। वैसे भी निराला और जयशंकर प्रसाद एक भावभूमि के थे। दोनों ही शक्ति के उपासक थे और पंत अलग भावभूमि के थे, सौंदर्य की देवी के उपासक।...’’

'और महादेवी...?’ मैं सोच रहा था। पर मैं पूछता, इससे पहले ही रामविलास जी का स्पष्ट और बहुत खरा सा उत्तर आया, ''महादेवी तो इस हिसाब से कुछ बाद में आईं।... निराला के साथ महादेवी के संबंधों को सामान्यत: प्रिय ही समझा जाता है, पर असल में ये 'लव-हेटेड रिलेशन्स’ थे - यहाँ 'लव’ को किसी अन्य अर्थ में न लें। मेरा मतलब है सहानुभूतिपूर्ण। लेकिन निराला महादेवी के जीवन जीने के ढंग को जिसमें आभिजात्य काफी था, नापसंद भी बहुत करते थे।’’

मेरे लिए रामविलास जी का यह उत्तर काफी अप्रत्याशित था। जो कुछ मैंने थोड़ा-बहुत पढ़ा था, उससे मन में कल्पना कुछ और ही थी।... हर रक्षाबंधन को निराला जी महादेवी के पास राखी बँधवाने जाते थे, यह मैंने किसी सुप्रसिद्ध साहित्यकार के आत्मीय संस्मरण में पढ़ा था। सो इस समय वही याद आ रहा था।...

मेरा असमंजस शायद रामविलास जी से छिपा नहीं रहा। इसलिए बात को स्पष्ट करते हुए वे महादेवी वर्मा से जुड़े एक प्रसंग की चर्चा करते हैं। महादेवी जी ने 'साहित्यकार संसद’ नाम की संस्था बनाई, जिसका भवन लेखकों, खासकर निराला के रहने के लिए ही बनाया गया था। पर निराला उसमें चार दिन भी नहीं रहे और किराए के उस छोटे-से कमरे में आकर रहने लगे, जो हर तरह से निराला के लिए अनुपयुक्त था। लेकिन निराला जीवन भर उसी में रहे।

बाद में एक दिन निराला ने रामविलास जी को साहित्यकार ससंद वाली घटना के बारे में बताया था, जिसके कारण उन्हें उसे छोडऩा पड़ा। असल में हुआ यह कि निराला जी जिस समय साहित्यकार संसद भवन में रहने गए, उसमें कीमती परदे टँगे हुए थे। जाड़े के दिन थे। निराला ने काम करने वाली नौकरानी को ठंड से ठिठुरते देखा तो एक परदा खींचकर उसे दे दिया। कहा, ''लो, इसे ओढ़ लो।’’ पर महादेवी को यह बात अच्छी नहीं लगी. इसी बात पर महादेवी और निराला में कुछ कहा-सुनी हो गई और निराला साहित्यकार संसद का भवन छोड़कर बाहर आ गये।

रामविलास जी जब यह बता रहे थे, एक सवाल बार-बार मेरे मन में उठ रहा था कि आखिर वे कौन से हालात और परिस्थितियाँ हैं जिनमें निराला जैसा बड़ा कवि पैदा हो सकता है और वे कौन से हालात और परिस्थितियाँ हैं, जिनमें निराला जैसी बड़ी प्रतिभा भी टूटकर बिखर जाती है?

मैंने रामविलास जी से पूछा तो लगा कि उन्होंने स्वयं भी इस बात पर काफी विचार किया है। लिहाजा उन्होंने तत्काल जवाब दिया, ''देखिए, निराला के होने से परिस्थितियों का उतना हाथ नहीं, जितना जैविक रहस्य का, जिसे ठीक-ठीक आज भी समझा नहीं जा सका। एक ही परिवार में एक बालक असाधारण मेधावी, दूसरा अति सामान्य हो सकता है और इसके पीछे जैविक कारण ही होते हैं।... तो निराला को तो निराला होना ही था।... कुछ महिषादल का साहित्यिक-सांस्कृतिक वातावरण, कुछ वेदांत का प्रभाव, कुछ उनकी गहन सौंदर्यवादी दृष्टि, कुछ किसानों और गरीबी की पीड़ा को निकट से देकने का अनुभव- इस सबसे उस प्रतिभा को उभरने का मौका मिल गया। ...हाँ, निराला जैसी बड़ी प्रतिभा जिस कारण बिखरी, उसके पीछे तो सचमुच बड़े ही कठिन हालात थे। अगर निराला को एक साथ इतने शत्रुओं से नहीं निपटना पड़ता, इतने विरोधों का सामना नहीं करना पड़ता, तो शायद वह इस तरह बिखरते नहीं।...’’

फिर रामविलास जी के शब्दों में एक-एक कर वे हालात भी उभरे, जो निराला को बड़ी तेजी से टूटन की ओर ले जा रहे थे। संक्षेप में, जो हालात महाभारत युद्ध में चक्रव्यूह में घिरे अभिमन्यु के सामने थे, वे ही थोड़ी शक्ल बदलकर निराला के सामने उपस्थित हो गए, और वे लगातार दुर्नीति भरे एक चक्रव्यूह में घिरते चले गए। कुछ ऐसे लोग भी थे, जो खुद तो जेनुइन साहित्यकार थे ही नहीं, निराला सरीखे किसी बड़े साहित्यकार की अंतर्वेदना को समझने में भी असमर्थ थे। जरा रामविलास जी के इन शब्दों पर गौर करें-

''...एक ओर उन्हें बनारसीदास चतुर्वेदी और हेमचंद जोशी आदि की टोली बाकायदा पागल घोषित कर रही थी, दूसरी ओर कानपुर की नख-शिखवादी श्रृंगार-मंडली थी, तीसरी ओर छायावाद के भीतर से ही उन्हें बड़ा विरोध सहना पड़ रहा था।... और फिर एक बड़ा कारण आर्थिक भी था। दुर्भाग्य से हमारे समाज में हालत यह है कि जो पैसे वाला है, उसे तो लोग सह लेते हैं, बल्कि बेवकूफियों के बाद भी उनका सम्मान करते हैं, लेकिन जो कमजोर आर्थिक हालत में है और दबंग भी है, उसे वे कुचल देना चाहते हैं। या कम से कम पनपते नहीं देख सकते। इसलिए निराला के यहाँ यह दुख बार-बार आता है कि ''मैं भी होता यदि राजपुत्र...!’’

पर क्या खुद निराला भी जिम्मेदार थे अपने इस बिखराव के लिए? मेरे पूछने पर रामविलास जी थोड़े गंभीर हो गए। एक क्षण रुककर थोड़ा सोचते हुए उन्होंने जवाब दिया, ''हाँ, कह सकते हैं कि उनका जो वेदांत था, उसके कारण उनमें अकेलापन या एकांत साधना वाला भाव बहुत आया। इसीलिए बहुत बार दुख या संघर्ष के क्षणों में वह बहुत ज्यादा अपने भीतर सिमट जाते थे, दूसरों से कटने लगते थे - शायद यह भी एक कारण था उसके बिखराव का!’’

कहीं मैंने पढ़ा था कि कोई व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न हो, एक सीमा से ज्यादा तेज वह वहन नहीं कर सकता था, यो तो वह टूट जाएगा या फिर खत्म हो जाएगा? क्या निराला के साथ भी यही सब हुआ? क्या यह उक्ति निराला पर किसी हद तक लागू होती है? पूछने पर रामविलास जी कहते हैं, ''नहीं, यह निराला पर लागू नहीं होती। इसलिए कि निराला जब सतेज और शक्तिशाली थे, तब तो बड़े से बड़े विरोध को उन्होंने झेला और किसी की परवाह न की। जब शक्तियाँ कुछ-कुछ ढलने लगीं, तभी उनमें बिखराव आना शुरू हुआ।’’

पर निराला में असमान्यता थी किस तरह की? क्या विक्षेप की हालत में उनका व्यवहार पूरी तरह एक असामान्य और असंतुलिस व्यक्ति की तरह हो जाता था? रामविलास शर्मा उनके बहुत निकट थे। उन्होंने बहुत कुछ पास से देखा और जाना भी था। लिहाजा उनसे ज्यादा इस बात को और कौन जानता होगा? मेरा प्रश्न सुनकर रामविलास जी मन में कुछ और गहरे उतरते हुए बोले, ''निराला में खास तौर से एक असामान्य भय की-सी मन:स्थिति थी। उन्हें लगता था, कोई उन्हें देख रहा है... लोग छिपकर बैठे हैं और हमला करना चाहते हैं, या फिर पीठ पीछे खिल्ली उड़ा रहे हैं। कई बार उन्हें लगता था, लोग उन्हें पूरी बात नहीं बताते। कोई राज है जो उनसे छिपा रहे हैं। वे मिलने आने वालों से या मित्रों से शिकायत भी करते थे कि लोग उन्हें 'राज’ नहीं बताते! यों रोग बहुत असाध्यन नहीं था, लेकिन दुर्भाग्य से जो हालात उनके थे, उसमें यह बढ़ता ही गया!...’’

कहते-कहते उस दौर की परिस्थितियाँ जैसे रामविलास जी की आँखों के आगे उतर आई हों। बहुत कुछ उन्हें एक साथ याद आ रहा था, जिसकी चर्चा करना खासा तकलीफदेह था।...

''एक बार उन्हें एक मनोचिकित्सक को दिखाया गया था।’’ रामविलास जी पुरानी स्मृतियों में लौटते हुए कहते हैं, ''उसका भी यही कहना था रोग असाध्य नहीं है। बस, निराला जी का परिवेश बदला जाना चाहिए। यह बहुत जरूरी है लेकिन न हिंदी के लेखकों ने और न सरकार ने ही इस मामले में कुछ किया।... निराला की मृत्यु का कारण भी एक तरह से यही बना। उन्हें हार्निया की शिकायत थी। ज्यादा बड़ी परेशानी न थी। आपरेशन से ठीक हो सकता था। लेकिन न तो निराला इस बात की चिंता करने लायक रह गए थे और न निराला के आसपास के लोगों ने ही उनके भय के कारण इस ओर ध्यान दिया। इसी रोग के बढऩे पर - यानी हार्निया के कारण ही उनकी मृत्यु हुई।’’

*

रामविलास जी जब यह बता रहे थे, मेरे भीतर बहुत कुछ टूट रहा था, बन रहा था। महाकवि के जीवन के आखिरी दिन जैसे कुछ फटी-पुरानी त्रासद थिगलियों की तरह मेरी आँखों के आगे तैर रहे हों। वे मैली-कुचैली दुख की थिगलियाँ एक बड़ा सच कहती थीं, पर उसे झेलना कठिन, बहुत कठिन था।

मेरे चेहरे का रंग स्याह होता जा रहा था। जैसे निराला की मौत में मेरा भी कुछ हाथ हो...!

साथ ही मन में एक गहरी ऊहापोह भी चल रही थी। लग रहा था, जैसे एक निराला में कई निराला शामिल हैं? यानी एक निराला 'जुही की कली’ वाला है जो बहुत कोमल और मांसल सुंदरता की कविताएँ लिखता है, दूसरा निराला 'कुकुरमुत्ता’ जैसी सुरुचिभंजक कविता लिखकर जैसे खुद उस सुंदरता का मजाक उड़ा रहा हो। तीसरा निराला वेदांत या अध्यात्म में डूबा हुआ बहुत गहरा-गहरा सा कवि है, जो अपनी चेतना की सबसे ऊध्र्वावस्था में होता है तो 'राम की शक्तिपूजा’ और 'तुलसीदास’ सरीखा शक्ति का अमर काव्य रच डालता है, और चौथा 'वह तोड़ती पत्थर’ जैसी कविताओं में आम जनता की गरीबी की पीड़ा का दहकता हुआ चित्र सामने रखकर विचलित कर देता है।... तो कहीं ऐसा तो नहीं कि निराला कई अंतर्विरोधों को एक साथ जी रहे हों? और अंतत: इसी ने उन्हें तोड़ दिया हो।...

मेरा प्रश्न सुनकर रामविलास जी बोले, ''आपकी बात मैं समझ गया। लेकिन जो बात आप कह रहे हैं, वह शायद हर बड़े कवि में मिलेगी। उदाहरण के लिए रवीन्द्रनाथ ठाकुर को लें, तो वहाँ सौंदर्य की कोमल भंगिमाएँ, रहस्य, यथार्थ का दंश सब कुछ एक साथ है।’’

लेकिन शायद यह वैसा नहीं है, जैसा निराला में था! मैं पूछता हूँ, ''क्या निराला आपको इस लिहाज से थोड़े अतिवादी कवि नहीं लगते कि जिधर चले, उधर चलते ही चले गए और एक सीमा से परे चले गए...?’’ मेरी बात से सहमति जताते हुए रामविलास जी ने कहा, ''हाँ, यह बात आपकी सही है कि निराला जिधर भी बढ़े, जिस भी दिशा में गए, वहाँ सरहदें छूकर आए। यह उनकी विशिष्टता है, जबकि दूसरे कवियों में यह बात न थी। प्रसाद हों, पंत या महादेवी, वहाँ यह दुस्साहस या कहिए कि कविता को अपने जीवन में उतारने का जुनून नहीं मिलता। निराला जब जैसी मन:स्थिति में रहे, उन्होंने कविता का साक्षात उसी रूप में किया और उसे पूरी गहराई से जिया।’’

निराला शायद हिंदी के एकमात्र ऐसे कवि हैं जिन्हें 'महाप्राण’ कहा गया। किसी और कवि के आगे यह विशेषण कभी जुड़ा ही नहीं। निराला का यह 'महाप्राणत्व’ क्या है और यह विश्लेषण उनके साथ जुड़ कैसे गया? पूछने पर रामविलास जी हँस दिए। फिर हँसते-हँसते उन्होंने बताया कि सन् 1949 में गंगाप्रसाद पांडेय ने उन पर एक किताब लिखी थी, 'महाप्राण निराला’। तब से निराला के साथ यह महाप्राणत्व जुड़ा और आज तक चला आ रहा है। फिर उन्होने विस्तार से जवाब देते हुए कहा, ''असर में इस दौर में ऐसे विशेषण जोडऩे की प्रथा थी, जैसे गाँधी जी के साथ 'महात्मा’, मालवीय जी के साथ 'महानमा’ जुड़ा।... 'महानमा’ किसी और को नहीं, मालवीय जी को ही कहा गया।... तो निराला भी इस अर्थ में 'महाप्राण’ थे कि इससे उनकी असाधारण तेजस्वी छवि, आज और लंबा, ऊँचा कद सामने आता था।... हालाँकि मैंने अपने ग्रंथों में इस विशेषण से बचने की भरसक कोशिश की है।’’

नामवर जी का कहना है कि रामविलास जी 'जुही की कली’ या 'राम की शक्तिपूजा’ वाले निराला को जिस तरह देखते हैं या जिस उत्साह से प्रशंसा करते हैं, 'नए पत्ते’ के निराला को वैसी सहानुभूति नहीं दे पाते। मैंने रामविलास जी से इसकी चर्चा की, तो बड़े शांत भाव से उन्होंने जवाब दिया, ''निराला की साहित्य साधना’ का दूसरा भाग देखें तो इस बारे में मेरा मत आपको मिल जाएगा। मैंने विस्तार से इन कविताओं की व्याख्या की है। 'नए पत्ते’ में निराला का नया रूप है, भिन्न प्रकार की कविताएं हैं और मुझे वे अच्छी भी लगती हैं। मैंने उनकी प्रशंसा ही की है। लेकिन 'नए पत्ते’ की कोई कविता अगर मुझे 'राम की शक्तिपूजा’ जितनी बड़ी नहीं लगती, तो आप मुझसे क्यों यह उम्मीद करते हैं कि...?’’

'तुलसीदास’ निराला की महानतम कृतियों में से है, जिसमें उन्होंने संश्लिष्ट रूप से एक साथ बहुत कुछ कहा है, जो वही कह सकते थे। सिर्फ तुलसी की जीवन-कथा ही नहीं, उनके युग का पूरा गहगहा चित्र निराला के इस प्रबंध काव्य में उतर आया है। एक उदात्त भावभूमि की ऐसी सतेज रचना, जिसके शब्द-शब्द में मानो निराला उपस्थित हैं। पुस्तक की सारगर्भित भूमिका भी स्वाभाविक रूप से ध्यान खींचती है। पर किसी साहित्यिक पत्रिका में मैंने पढ़ा था कि जिस 'कृष्णदास’ ने तुलसीदास की भूमिका लिखी है, वे दरअसल रामविलास शर्मा ही हैं। तो भला रामविलास जी ने उस पर अपना नाम क्यों नहीं दिया? यह जानने की उत्सुकता थी। मैंने इस बारे में पूछा तो रामविलास जी मुसकराते हुए बोले -

''असल में मैं विद्यार्थी था, जब यह भूमिका लिखी गई थी। लीडर प्रेस के वाचस्पति पाठक के कहने पर मैंने लिख दी थी। लेकिन यह सोचकर कि मेरे नाम को कौन जानेगा, कोई बड़ा नाम दिया जाना चाहिए - राय कृष्णदास का नाम डाल दिया गया था। यह निराला और वाचस्पति पाठक के बीच की बात थी, लिहाजा मुझे क्या आपत्ति होती? वाचस्पति पाठक ने कहा था, 'राय कृष्णदास क्या लिख पाएँगे। तुम्ही लिख दो।’ मैंने भूमिका लिख दी। छप भी गई।...’’

लेकिन रामविलास जी को तब बड़ी हैरानी हुई, जब काफी समय बाद वे राय कृष्णदास से मिले। राय कृष्णदास ने उस भूमिका का जिक्र करते हुए उनसे कहा, ''मैंने तुलसीदास’ की भूमिका लिखी है, जरा देख लेना।’’ यह प्रसंग बताते हुए रामविलास जी खुलकर हँस पड़े।

*

रामविलास शर्मा निराला के बहुत निकट थे और संकट के समय उनके विरोधियों को उन्होंने जवाब दिया, बल्कि कसकर लताड़ा था। पर क्या ऐसे और भी साहित्यकार थे उस समय जो निराला के साथ खड़े थे...? मैंने अपनी यह जिज्ञासा रामविलास जी के सामने रखी, तो उन्होंने तत्काल जवाब दिया, ''हाँ, नंददुलारे वाजपेयी। वे छात्र-जीवन से ही निराला के साथ थे और उनकी रचनाओं पर लेख आदि लिखकर व्याख्याएँ करते थे। तो वे उनके समर्थन में पूरी तरह खड़े थे।’’

हालाँकि फिर भी निराला जी के विरोधियों के षडयंत्र थमे नहीं थे। मैंने रामविलास जी से पूछा, क्या आप मानते हैं कि विरोधियों को जवाब दिया जा सका? इस पर रामविलास जी का स्पष्ट जवाब था, ''नहीं, इसके बावजूद विरोध तगड़ा था। विरोधी बहुत थे और हर तरह से उनके खिलाफ दुष्प्रचार कर रहे थे। आप कह सकते हैं कि विरोध इतना ज्यादा था कि उसके सामने यह समर्थन हलका था।’’

रामविलास जी ने निराला के स्वर्ण जयंती समारोह की भी चर्चा की। इतनी उपेक्षा झेलने के बाद निराला का यह एक बड़ा और भव्य सम्मान समारोह हुआ था, जिसमें निराला स्वयं उपस्थित थे। रामविलास जी जब निराला के बारे में बता रहे थे, तो उस समय के निराला जी की कुछ प्रसन्न छवियाँ भी उनके शब्दों में उतर आई। रामविलास जी के इस कदर आनंदित होकर यह सारा वर्णन कर रहे थे कि उन्हें सुनते हुए मेरा मन विह्वल सा हो गया। जरा आप भी देखें निराला की यह एक अलग ही सतेज छवि - ''हाँ, वे प्रसन्नचित्त थे और उन्होंने कविताएँ भी सुनाई थी। सिर पर उन्होंने केसरिया मुँडासा पहना हुआ था। बिलकुल विवेकानंद वाली मुद्रा में थे। यों भी विवेकानंद उनके प्रिय नायकों में से थे। इस कार्यक्रम में भी बोलते समय बीच-बीच में वे गड़बड़ा जाते थे और बड़ी कठिनाई से उन्हें साधना पड़ता था। पर कविता पढ़ते समय यह सब गायब हो जाता था और वे इस कदर लीन होकर पढ़ रहे थे, इसी तन्मयता के साथ कि बस देखते ही बनता था - खासकर 'राम की शक्तिपूजा’...।’’

निराला के न रहने पर रामविलास जी ने 'साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा था कि निराला एक सद्गृहस्थ और परिवार के मामले में काफी जिम्मेदार भी थे। जब कभी हाथ में पैसे आते थे तो वे खयाल रखते थे कि इतना पैसा बेटे रामकृष्ण को देना है, इतना बैंक में डालना है, इतने से बहू के जेवर आने हैं। उनका एक भतीजा संगीत सीख रहा था तो उसे चाहे थोड़े ही सही, नियमित पैसे भिजवाते थे जिससे वह फीस दे सके। खासकर जहाँ तक पारिवारिक जीवन की बात है या सामाजिक प्रतिष्ठा की, तो निराला कहीं एक जगह बहुत व्यावहारिक भी थे और इन चीजों का खयाल रखते थे।’’

निराला जी के बारे में रामविलास जी का एक कथन उनके बारे में तमाम सुनी-सुनाई गई बातों से अलग था और निराला के बारे में पीढ़ी के लेखकों के मन में हमेशा घूमती रहती हैं। लिहाजा मैंने उनसे पूछ लिया कि क्या वे बहस में बहुत उत्तेजित हो जाते थे? या अपनी आलोचना सुनकर नाराज हो जाया करते थे? ''नहीं, बल्कि उन्हें आनंद आता था और घंटों हमारे बीच बहसें होती थीं।’’ रामविलास जी ने बताया, ''हर बार निराला जी से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता था। किसी की कोई बात पसंद आ जाती, तो खूब खुश होते थे।’’

रामविलास जी ने एक और बड़ी महत्वपूर्ण बात बताई कि निराला दूसरों की आलोचनाएं भी इतने ही धैर्य से सुन सकते थे। लेकिन दिक्कत यह थी कि किसी का साहस नहीं होता था कि निराला के मुँह पर उनकी आलोचना कर दे, मगर पीठ पीछे निंदा सब करते थे। सबको डर था कि यह आदमी कहीं हमारे लिए चुनौती न बन जाए। इसी बात से वे ज्यादा परेशान और क्षुब्ध होते थे। ''और पत्रिकाओं वगैरह में उनके विरोध में जो लेख छपते थे, उन्हें पढ़कर उनकी कैसी प्रतिक्रिया होती थी?’’ मैंने पूछा तो रामविलास जी बोले, ''अकसर मन में रखते थे। भीतर-भीतर भले ही सुलगते रहते हों, मगर कुछ कहते नहीं थे।’’

निराला जी में स्वाभिमान और अक्खड़ता इस कदर थी कि हिंदी के लेखक के स्वाभिमान के लिए वे महात्मा गांधी और नेहरू तक से भिड़ गए थे। ये प्रसंग अलग-अलग ढंग से बहुत जगहों पर मैंने पढ़े और सुने थे। जब मैंने रामविलास जी से इस बारे में जानना चाहा तो उन्होंने कहा, ''हाँ, यह ठीक है, जवाहरलाल नेहरू से रेल के डिब्बे में उनका विवाद हुआ था। उन्हें पता चला कि नेहरू जी इसी गाड़ी में जा रहे हैं तो वे अपना गुस्सा जताने पहुँचे थे।... असल में नेहरू जी तो अंग्रेजीदां थे। अंग्रेजी के सामने हिंदी साहित्य को कुछ समझते न थे। उन्होंने किसी सभा में ऐसा कह भी दिया था। बस, निराला क्रुद्ध हो गए और उनसे बहस करने पहुँच गए।’’ इसी तरह गांधी जी ने जब कहा कि हिंदी में कोई रविन्द्रनाथ ठाकुर नहीं है, तो निराला उनसे मिलने गए। उन्होंने कहा था, ''क्या आपने निराला को पढ़ा है? आपको दरअसल रवीन्द्रनाथ ठाकुर नहीं, प्रिंस द्वारिकानाथ का नाती चाहिए।’’

निराला के जीवन के इन दो अहम प्रसंगों की चर्चा करते हुए रामविलास जी बोले, ''हिंदी वालों में सचमुच यह कमी है कि उनमें जातीय गौरव का भाव नहीं है। अपने लेखकों का सम्मान करना वे नहीं जानते। निराला इस बात से बहुत खिन्न होते थे।’’

क्या देश की आजादी के बाद निराला की मन:स्थिति क्या कुछ बदली? पूछने पर रामविलास जी ने बताया, ''नहीं, वे निराश ही ज्यादा थे और आशान्वित तो कतई न थे। एक तरह से मोहभंग की हालत थी। उन्हें लगता नहीं था कि यही वह आजादी है, जिसके लिए इतना बलिदान दिया गया। यही वजह है कि निराला जो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी बगैर लिखे रह नहीं पाते थे, उन्होंने आजादी के बाद के कुछ बरसों में कुछ भी नहीं लिखा। जैसे वे एकदम अवाक् रह गए हों। बाद में उनकी किताबें 'आराधना’, 'अर्चना’ वगैरह छपीं जिनमें उनकी तत्कालीन मन:स्थिति के चित्र हैं।’’

मेरा अंतिम प्रश्न था, ''लगता है कि लेखकों के पास बेहतर समाज का कोई सपना ही नहीं रह गया! अगर निराला आज होते तो..?’’ सवाल सुनकर रामविलास जी बोले, ''हिंदी के लेखक एक तरह से पस्त और दिशाहीन नजर आ रहे हैं। निराला आज होते तो चुप न होते, किसी न किसी तरह समय और हालात को ठकठका रहे होते, जड़ता को तोड़ते, 'अर्चना’ जैसी गहन अनुभूतियों की कविताएँ लिख रहे होते...!’’

कहते-कहते रामविलास जी की आँखों में गहरी चमक आ जाती है। जैसे बरसों पहले निराला के साथ बिताए पलों की यादें और स्वप्न उनकी आँखों में भर गए हों। उनसे मिलने के बाद उठकर आया, तो रामविलास जी के साथ-साथ उनकी गूँजदार आवाज, अकुंठ हँसी और आँखों में चमकते विश्वास के बीच कहीं निराला से भी मिल लेने का मीठा भ्रम जैसे चला आया हो।

रामविलास जी से मेरी कई मुलाकातें हैं। वे सभी बड़ी यादगार मुलाकातें हैं, जो अब भी कहीं न कहीं मेरी स्मृतियों में दस्तक देती हैं। पर इनमें निराला को लेकर हुई बातचीत सबसे अलग है। इसलिए कि जब मैं रामविलास जी से बातें कर रहा था, उनकी आँखों में मुझे साक्षात् निराला नजर आ रहे थे।... रामविलास शर्मा और निराला के आत्मीय संबंधों की एक से एक भावपूर्ण छवियाँ नजर आ रही थीं, जिन्हें देख-देखकर मैं विभोर हो रहा था। यह ऐसी भावविह्वल कर देने वाली मुलाकात थी, जब कि रामविलास जी के शब्द मानो शब्द नहीं रह गए थे, बल्कि हिंदी साहित्य के सुनहले दौर की चित्रमय झाँकियों में बदलते जा रहे थे।

सच ही मैंने उस दिन हिंदी के दो दिग्गज साहित्यकारों की उस विलक्षण जोड़ी का साक्षात्कार किया था, जो हिंदी साहित्य के इतिहास में अमर हो चुकी है। इसीलिए निराला की बात आती है तो रामविलास शर्मा जरूर याद आते हैं, और रामविलास शर्मा की चर्चा होती है, तो निराला खुद-ब-खुद चले आते हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में दो समर्पित साहित्यकारों की ऐसी विरल जोड़ी शायद ही कोई और हो।

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प्रकाश मनु, समग्रता में काम करते हैं, फ़रीदाबाद में रहते हैं। यहाँ हिन्दी के दो धुरंधरों को केन्द्र में रखकर उनका संस्मरण। इन दिनों रामविलास शर्मा की जीवनी पर काम कर रहे हैं।

संपर्क- 9810602327

 

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