'विट’ के परदे में विडम्बना

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी 'विट’ के परदे में विडम्बना
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम पंकज चतुर्वेदी





आलेख

 

भारत भूषण अग्रवाल

 

 

 

''सपनों से पूछो, क्यों मेरी विह्वलता का पार नहीं है ?

 

जब चम्पा की सुरभि पान कर

किरणें कर उठती हैं नर्तन

जब दिगन्त तक मादकता में

डूब-डूब जाता जग-जीवन

हृदय कुहुक उठता--क्यों कोई मुझको करता प्यार नहीं है?’’

कवि भारतभूषण अग्रवाल  की 'प्रतिनिधि कविताएँ’  की शुरूआत इसी रचना से होती है। हम इसके संपादक अशोक वाजपेयी  के आभारी हैं कि उन्होंने आरम्भ के लिए इतने प्यारे-से, खूबसूरत और मर्मस्पर्शी गीत को चुना। 'तार सप्तक’ में कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा था : ''तुक के चमत्कार ने मुझे कविता की ओर आकर्षित किया और शुरू में गुणा-भाग की तरह कविता लिखी-गिन-गिन कर।’’  प्रसंगवश,  तुक में जो महारत मैथिलीशरण गुप्त  को हासिल थी, आधुनिक कविता में उसका कोई सानी नहीं है। हरिशंकर परसाई  के 'घायल वसन्त’  शीर्षक व्यंग्य में एक कवि इस मुखड़े से अपनी कविता शुरू करता है : 'प्रिय, फिर आया मादक वसन्त।’ परसाई जी  लिखते हैं कि ''तुक की गुलामी करोगे, तो आरम्भ चाहे 'वसन्त’ से कर लो, अन्त ज़रूर  'हा हन्त’ से होगा’’ और यही हुआ : ''कवि ने कविता समाप्त कर दी थी। उसका 'हा हन्त’ आ गया था। मैंने कहा, 'धत्तेरे की !’ 7 तुकों में ही टें बोल गया। राष्ट्रकवि  इस पर कम-से-कम  51 तुकें बाँधते। 9 तुकें तो उन्होंने  'चक्र’ पर बाँधी हैं। (देखो 'यशोधरा’, पृष्ठ 13)।’’  इस तरह ज़बरदस्ती के छन्द या छन्द के अत्याचार पर तंज़ करना तो ज़रूरी और सुखद है,  मगर हम देखते हैं कि गुप्त जी को अब लगभग भुला दिया गया है। उनका ज़क्र करना भी गोया एक पिछड़ापन है। बीते दिनों मैंने एक प्रयोग किया कि गुप्त जी की ये कविता-पंक्तियाँ सोशल मीडिया पर लिखीं :

''केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।’’

अब लोक-शिक्षण, छन्द और  मनोरंजन, इन तीनों में ही शायद बुद्धिजीवी अपनी हेठी समझने लगे हैं। दो-तीन दोस्तों ने वहाँ आकर आक्षेप किया। मैंने उन्हें याद दिलाया  कि रघुवीर सहाय  ने अपने एक लेख में इन पंक्तियों को महत्त्वपूर्ण माना है। वह एक स्वीकार्य नाम हैं, इसलिए मित्रों को लगा होगा कि उन्होंने कहा है, तो ज़रूर कोई बात होगी। ख़ुद रघुवीर सहाय की सफलतम कविताओं में छन्द का जो अभिनव इस्तेमाल है, उस ओर से भी अमूमन आँखें मूँद ली गयी हैं। फिर यह कौन जानना चाहेगा कि बकौल सहाय जी, हरिवंशराय बच्चन  और मैथिलीशरण गुप्त  से उन्होंने कविता लिखना सीखा था? गुप्त जी  का देहावसान 12 दिसम्बर, 1964 को हुआ था। उसी दिन भारतभूषण अग्रवाल  ने उन पर एक कविता लिखी 'भारत-भारती’, जिसकी शुरूआत में यह सवाल है कि ''गुलदान में सजे फूल को / अगर पता चले / कि वह पौधा अब नहीं रहा / जिसने उसे जन्म दिया, / तो क्या वह खिलना छोड़ देगा?’’.....और समापन इन पंक्तियों से होता है :

''नहीं,

मैं रोऊँगा नहीं,

मैं निस्पन्द भी क्यों बनूँ

कि हे राष्ट्र-कवि !

तुम अब नहीं रहे ?

--तुम राष्ट्र-कवि थे यह तो राष्ट्र की बात है--

मेरे तो तुम स्रोत थे

जनक थे?’’

अग्रज कवि के प्रति यह बहुत भावभीनी श्रद्धांजलि या 'ट्रिब्यूट’  है। भारतभूषण अग्रवाल  ने बाद में छन्द में लिखना लगभग छोड़ दिया, मगर उससे संसक्ति की बदौलत वह बदले हुए समय-सन्दर्भ में उसका बेहतरीन इस्तेमाल करने में सक्षम थे और उन्हें भाषा के अन्त:सलिल संगीत की पहचान थी। नज़ीर है उनकी कविता 'समाधि-लेख’।  ऐसी कविता पढ़कर चेस्वाव मिवोश का यह काव्यांश याद आता है : ''उपन्यास और निबन्ध फर्ज़ निभाते हैं, लेकिन बोझ को दूर तक नहीं ले जा सकते / काव्य का एक साफ पारदर्शी टुकड़ा / गद्य की मालगाड़ी के डिब्बे से ज़्यादा वज़न ढो सकता है।’’  महज़ चार पंक्तियों में इतना सारगर्भित, उदात्त और मर्मस्पर्शी आत्मकथ्य कि नि:शब्द कर देता है :  

''रस तो अनन्त था, अंजुरी भर ही पिया

जी में वसन्त था, एक फूल ही दिया

मिटने के दिन आज मुझको यह सोच है :

कैसे बड़े युग में कैसा छोटा जीवन जिया!’’

रचना का सौन्दर्य उसके नाज़ुक तनाव में होता है। यहाँ रस कम पी सकने का अफसोस है, मगर उसके बरअक्स हृदय के वसन्त में-से एक फूल जितना ही अवदान कर पाने का संकोच भी है। और अन्त में एक निर्मम आत्म-समीक्षा, जिसकी बाबत इतना कहना काफी होगा कि जो वास्तव में छोटा जीवन जीते हैं, इस सच को स्वीकार करने का साहस कभी नहीं करते। इसके अलावा यह सिर्फ ९कविता के शिल्प का मामला नहीं है। वह युग सचमुच बड़ा था, जिसमें भारतभूषण जी थे। इसलिए उन्हें यह 'कंट्रास्ट’  रचने की सुविधा थी। कविता की आख़िरी पंक्ति बहुत सम्मोहित करती है। आज मुझे इसकी नक़ल करनी हो, तो मैं लिखूँगा: 'कैसे विकट युग में कैसा नगण्य जीवन जिया!’

अच्छी कविता के लिए और भी कुछ चाहिए होगा, मगर सचाई, संवेदना और साहस बुनियादी चीज़ें हैं, जिनके ब$गैर कविता शायद दो क़दम भी नहीं चल सकती। भारतभूषण अग्रवाल  की कविता अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में जिन विशेषताओं से समन्वित है, वे हैं : सच से प्रतिश्रुति, आत्मालोचना की हिम्मत, विनोदप्रिय अंदाज़ में व्यंग्य और मुक्त छन्द से लगाव। ख़ुद उन्हें इसका एहसास था, इसलिए 'आनेवालों से एक सवाल’ शीर्षक कविता में उन्होंने लिखा है कि आज से पूरे सौ साल बाद उनकी कविता पढ़ी जायेगी, तो लोग देख सकेंगे कि जब उनके समकालीन भाव-विभोर होकर 'आत्मा के मुक्त-आरोहण’ के गीत गा रहे थे और 'आँखें बन्द किये सपनों में डूबे थे’, तब ''.....मैं जिसका स्वर सदा दर्द से गीला रहा / जिसके भर्राये गले से कुछ चीखें ही निकल सकीं / मैं सारा बल लगाकर / आँखें खोले / यथार्थ को देख रहा था।’’ सत्य से अपनी अदम्य आत्मीयता के कारण वह कविता के आसमान की बजाए उसकी धरती पर इसरार करते हैं और छायावादी संस्कारों से लैस पूर्ववर्ती कविता से विद्रोह करते हुए कहते हैं :

''....यह सदा स्वर्ग-वासिनी रही

अप्सरा बनी। जाने दे इस को स्वर्ग, खोज ले आज मही

अपनी मिट्टी के पुतलों के शब्दों में ही अपना कवित्व’’

1943 में आये 'तार सप्तक’  में संकलित 'अपने कवि से’  शीर्षक इस कविता की यह पंक्ति तो बेमिसाल है : ''तू सुनता रहा मधुर नूपुर-ध्वनि यद्यपि बजती थी चप्पल।’’  इसके छह साल बाद ही अज्ञेय का कविता-संग्रह  'हरी घास पर क्षण भर’  आया था, जिसके बारे में इसी बेधक ढंग से उन्होंने कहा : ''हरी घास को चर जायेंगे वृषभ काल के / अमर वचन हैं भारतभूषण अग्रवाल के।’’  'तार सप्तक’  के अपने साथी कवि प्रभाकर माचवे के बारे में उनका यह तुक्तक (limerick/'लिमेरिक’) बहुत दिलचस्प और व्यंजनापूर्ण है : ''मित्र थे हमारे एक प्रभाकर माचवे / बहुत दिनों करते रहे तीन-पाँच वे.....।’’  ऐसे तमाम उदाहरणों से साबित होता है कि मूल्यवान् बात कहने के लिए गंभीर मुद्रा अनिवार्य नहीं, वह विनोदप्रिय लहजे में भी कही जा सकती है; बल्कि कई बार विनोदप्रियता से ज़्यादा सच्ची और गहरी चोट कर पाना संभव है, बशर्ते कि उसमें कुंठा की मिलावट न हो। मेरा खयाल है कि भारतभूषण जी  की विनोदपरक एवं व्यंग्यात्मक कविताओं का ही एक संग्रह तैयार किया जाए, तो वह अपने में अनूठा, दिलचस्प और बेश$कीमत होगा; क्योंकि वह दरअसल 'विट’ के परदे में आधुनिक सभ्यता एवं भारतीय जीवन की विडम्बना का एक आख्यान निर्मित करते हैं। गौरतलब है एक कविता 'रस-सिद्धान्त’ :

''मशीन से बाहर आकर

मुक्ति की साँस लेते ही

गन्ने ने पाया

कि उसका रस

मशीन में ही रह गया है।’’

ऐसी एक और कविता 'ट्रैफ़िक पुलिसमैन’  में चौराहे पर बीस साल तक बिलानागा ड्यूटी करने के बाद एक सिपाही जब रिटायर होता है, तो उसके हाथ चित्रकारी और पैर तीर्थयात्रा के लायक़ नहीं रह जाते। मगर एक दिन उसी चौराहे पर वह जाता है, तो देखता क्या है :

''वहाँ अब मेरा भाई ड्यूटी नहीं देता,

'ऑटोमैटिक’ लाइटें लगी हैं।

 

तो क्या मैं आयु-भर

एक मशीन की एवज़ी करता रहा?’’

रोज़-ब-रोज़ एक विराट् मशीन जैसी होती जाती इस सभ्यता में मशीनें अनिवार्य होती जा रही हैं और आदमी अप्रासंगिक। वह जिस मशीन का पुर्ज़ा है, उसने उसका सत्त्व निचोड़कर उसे आत्महीन और बेसहारा बना दिया है। ट्रेजेडी है कि यह आकस्मिक नहीं, बल्कि मनुष्यता का लिहाज़ न करनेवाले पूँजीवादी तंत्र की देन है। विष्णु खरे  ने खास तौर पर इन कविताओं की सराहना करते हुए लिखा है : ''(इनका) संयत तथा सम्पृक्त हास्य अनेक फैशनेबल हाइकूनुमा कविताओं से ज़्यादा कारगर है। इनमें-से 'ट्रैफ़िक पुलिसमैन’ तो आज के मशीन युग में आदमी की दुहरी-तिहरी निरर्थकता की ऊपर से हल्की-फुल्की, किन्तु अन्दर अत्यन्त ट्रैजिक कविता है। यह आदमी के 'प्लैन्ड ऑब्सोलेसेन्स’  की कविता है।’’

1975 में भारतभूषण अग्रवाल 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’, शिमला में विज़टिंग फेलो बने और वहाँ वह 'भारतीय साहित्य में देश-विभाजन’  विषय पर काम कर रहे थे, जबकि उसी वर्ष के मध्य में 23 जून को हृदयाघात से उनका आकस्मिक देहावसान हो गया। भारत-विभाजन से वह बहुत विचलित थे और यह तकलीफ उनके बौद्धिक अध्यवसाय से लेकर रचनाशीलता तक में समाहित है। एक कविता में वह कहते हैं कि हिटलर ने आत्महत्या इस मक़सद से की कि उसके चाहनेवाले देशवासियों का मोहभंग न हो जाए और गांधी की हत्या इस भय से की  गयी ''कि कहीं सत्य की प्रतिष्ठा न हो जाए!’’ 'आनेवालों से एक सवाल’ इसलिए महत्त्वपूर्ण कविता है कि इसमें भारत ही नहीं, समूची विश्व मानवता की बाबत उनकी अचूक भविष्य-दृष्टि विन्यस्त हुई है। 1963 में वह लिख और जान रहे थे कि आज से सौ साल बाद आनेवाली पीढिय़ाँ दुनिया की दो महाशक्तियों के बीच शीत-युद्ध का इतिहास पढ़ेंगी और इनके व्यवहार के इस विडम्बनापूर्ण अन्तर्विरोध से वाक़िफ होंगी ''कि सौ वर्ष पहले / इनसानी ताक़तों के दो बड़े राज्य थे / जो दोनों शान्ति चाहते थे / और इसीलिए दोनों दिन-रात युद्ध की तैयारी में लगे रहते थे / जो दोनों संसार को सुखी देखना चाहते थे / इसीलिए सारे संसार पर क़ब्ज़ा करने की सोचते थे।’’  शान्ति के मुखौटे के पीछे युद्ध का डरावना चेहरा छिपा हुआ है और जो विश्व-कल्याण की दुहाई देता है, वह दरअसल अखिल मानवता पर शासन के ज़रिए उसका उत्पीडऩ और शोषण करना चाहता है। इस कविता के तीस साल बाद पूँजीवादी महाशक्ति की निर्ममता ही नहीं, समाजवादी महाशक्ति का आंतरिक दमनकारी रवैया जिस तरह उजागर हुआ और जिसके नतीजे में वह बिखर गया, उससे लगता है कि भारतभूषण अग्रवाल  उनके सर्वसत्तावादी मंसूबे और इस सबके अंजाम को सही पहचान रहे थे। सत्ता की फ़ितरत की निर्भय  शिनाख्त सचाई की अभिव्यक्ति में रचनाकार को सक्षम बनाती है। इस सन्दर्भ में सहसा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट  की यह कविता याद आती है : ''नेता जब शांति की बात करते हैं / आम आदमी जानता है / कि युद्ध  सन्निकट है / नेता जब युद्ध को कोसते हैं / मोर्चे पर जाने का आदेश / हो चुका होता है।’’  यही नहीं,  उनकी एक और कविता के शब्द यहाँ प्रासंगिक हैं : ''.....वह आदमी जो दुश्मन के बारे में बकता है / ख़ुद दुश्मन होता है।’’  गौरतलब है कि इन कविताओं की भावभूमि से भारत जी  की संवेदना की ज़मीन कितनी नज़दीक है ! यहीं अपने देश के बारे में उनके इस दर्द का इज़हार हुआ है कि यह ''एक और राज्य था / जो संसार-भर में शान्ति का मन्त्र फूंकता रहा / पर जिसे अपने ही घर में / भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी करनी पड़ी / जो हर पराधीन देश की मुक्ति में लगा रहता था / पर जिसके अपने ही अंग पराये बन्धन में जकड़े रहे।’’ ये काव्य-पंक्तियाँ सबूत हैं कि उनके लेखे आज़ादी हमें पूरी तौर से नसीब नहीं हुई और बँटवारे को मंज़ूर करके हमने अपने को ही अनुदार और अशक्त कर लिया है। शायद वह जान रहे थे कि यह विभाजन अन्तिम नहीं है। कविता में इस परिप्रेक्ष्य को विस्तृत करते हुए वह आधुनिक वैज्ञानिक विकास की विडम्बना पहचानते हैं कि वैज्ञानिक आविष्कारों से इनसान का डर दूर होने की बजाए और बढ़ गया है। उसकी हालत पर गोया उन्होंने मार्मिक आत्म-व्यंग्य किया है ''कि उसने चाँद-सितारों में भी पहुँचने के सपने देखे / जबकि उसके सारे सपने चकनाचूर हो गये थे।’’

कुछ श्रेष्ठ रचनाओं के बावजूद हिन्दी में विभाजन पर केन्द्रित साहित्यिक सृजन बहुत नाका$फी मात्रा में हुआ। जो हुआ भी, वह अल्पसंख्यक या पंजाबी पृष्ठभूमि के ही लेखकों द्वारा, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण घटना-चक्र से सीधे प्रभावित हो रहे थे। अफसोस कि ज़्यादातर लोगों के लिए 1857 बड़ा मुद्दा है, मगर 1947 नहीं। बेज़ारी की शायद यह भी एक वजह रही। उस वक़्त मौजूद और सक्रिय रहे लगभग सभी हिन्दी कवि इस त्रासदी पर चुप हैं। अज्ञेय  निश्चय ही अहम अपवाद हैं, जिन्होंने कुछ कविताएँ और कहानियाँ दोनों लिखीं। लेकिन ज़रा सोचिए, निराला, पन्त, मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन सरीखे दिग्गज प्राय: चुप हैं। हाँ, फणीश्वरनाथ 'रेणु’  का उपन्यास 'जुलूस’  पूर्वी पाकिस्तान से बिहार आ बसे शरणार्थी हिंदुओं को केन्द्र में रखकर ज़रूर लिखा गया, जिसमें बँटवारे के वक़्त के हालात मिलते हैं।

क्या मुख्यधारा के हिन्दी साहित्यकार विभाजन से विचलित नहीं थे या वह उनका कोई सरोकार ही नहीं था? वे बस आज़ादी--जैसी भी वह थी--के मिल जाने से ख़ुश थे, जैसा कि उस दौरान छपी उनकी कृतियों के उत्साहपूर्ण नामों में नज़र आता है? मसलन आज़ादी के बाद के पहले दशक के बारे में मक़बूल कवि रघुवीर सहाय  ने कहीं कहा है कि 'वे नव-निर्माण के हर्ष, उत्साह और उमंग के वर्ष थे।’  यह और बात है कि एक दशक बीतते-न-बीतते इस जज़्बे की परिणति हताशा और मोहभंग में हुई।

कहीं इसका कारण यह तो नहीं कि हिंदी साहित्य का सत्व हिन्दू चेतना से निर्मित होता है, उसका नाभिक हिन्दू मनोविज्ञान में है? क्या पता कि अगर हम अपने वक़्त के फासीवाद की जड़ों में जाएँ, तो इसी उदास मंज़र पर आना पड़े! बहरहाल, विभाजन की बाबत तत्कालीन प्रमुख हिन्दी कवियों के मौन का सबब  एक तो आज़ादी  की ख़ुमारी जान पड़ती है, दूसरे संस्कारगत सचेत धार्मिकता, जिसे ठीक-ठीक साम्प्रदायिकता नहीं कहा जा सकता। अगरचे, उनमें-से द्विवेदी-युग और छायावाद के दौर के अनेक रचनाकारों का कुछ साझा उस 'सजग’  या अस्मितावादी हिन्दू से ज़रूर है, जो मुग़लों  को भी अंग्रेज़ों की तरह विदेशी आक्रान्ता मानता है और देश की गुलामी को मुस्लिम हुकूमत से भी जोड़कर देखता है। ऐसा लगता है कि उपनिवेशवादी शासकों की विदाई और स्वराज के हासिल होने से संतोष तो उनके मन में था ही, विभाजन को भी गोया विडम्बना के समाधान के रूप में देखने और एक 'अन्य’  समुदाय से पीछा छूटने की राहत के नतीजे में शायद वे चुप थे; क्योंकि न सिर्फ तब, बाद के वर्षों में भी उनकी यह $खामोशी नहीं टूटी। उनके साहित्य में इसके निशान नहीं मिलते कि इस आधी-अधूरी, रक्त-रंजित, खंडित और अभिशप्त आज़ादी से वे असहमत और परेशान थे।

यह सचमुच अजीब है कि हिन्दी में एक लम्बे समय तक अन्तरराष्ट्रीय चिन्ताएँ और सरोकार केन्द्र में रहे, मगर हमारे आसपास की बड़ी त्रासदियों को नज़रअंदाज़ किया गया। इस लिहाज़ से शायद बाबरी मस्जिद विध्वंस इतिहास का निर्णायक मोड़ है, जबकि बहुत-से हिन्दी कवि देश के रोज़मर्रा के संकटों से मु$खातब होकर रचना-कर्म को प्राथमिकता देना शुरू करते हैं। इसकी आवृत्ति गुजरात-2002 के दंगों के दौरान होती है, मगर हम तुलना करें, तो पायेंगे कि उस पर लिखा गया साहित्य, कम-से-कम कविता काफी तादाद में है और उन लोगों द्वारा रची गयी है, जो उस क़त्ल-ए-आम से सीधे प्रभावित नहीं हो रहे थे। यह स्मरण कराने की शायद ज़रूरत न हो कि गुजरात के मु$काबले विभाजन के दौर का नरसंहार और विनाश कितना व्यापक और भयावह था। बँटवारा उन लोगों की मर्ज़ी के बिना हुआ, जो बाँटे गये, इस क़दर इनसानी खून की कीमत पर हुआ, जिसका तख्मीना भी नहीं लगाया जा सकता, जिसकी मिसाल पिछले पाँच हज़ार साल के भारत के इतिहास में नहीं मिलती और जो इस तरह किया गया कि अगले तमाम विभाजनों के बीज बो गया। आज अगर तमाम बुद्धिजीवियों को लग रहा है कि हमारे देश की धर्मनिरपेक्ष संरचना खतरे में है; तो हमें इसके बुनियादी कारण, विभाजन के पीछे छिपी मानसिकता की गहन पड़ताल करनी होगी। आज से पाँच साल पहले मैंने वरिष्ठ कवि नीलाभ  से यह सवाल किया था। जो जवाब उन्होंने मुझे लिख भेजा, बहुत अहम और मानीखेज़ है : ''मेरे ख्याल में इसे यूँ देखें कि हिन्दुस्तान और हिन्दी की मुख्यधारा हाशिये के ख़ित्तों को अपने में नहीं समोती। पंजाबी पंजाब और हिन्दुस्तान में और बंगाली बंगाल और हिन्दुस्तान में फर्क करता रहा है, क्योंकि मध्य देश बस अपने ही को 'भारत’ मानता रहा है, बक़ौल रामविलास जी,  'भरत जाति’  का देश, भाषा आदि।’’ जबकि हिन्दी के सबसे ज़्यादा क़रीब है पंजाबी, लेकिन पंजाब तो 'पर्सोना नॉन ग्राटा’ (अवांछनीय/अस्वीकृत विदेशी श$िख्सयत) रहा। यहीं वह तर्क फेल हो जाता है, जो कहता है : अंग्रेज़ों ने मुल्क को एक किया। इसीलिए हिन्दी में विभाजन पर $खालिस हिन्दीवालों की रचनाएँ गायब हैं। हमारे सबसे बड़े कवि निराला भी 1947 पर कहते हैं--''अपना जीवन आया / गयी परायी छाया।’’ सिर्फ सियालकोटी फैज़ कहते हैं-- ''ये दाग़-दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर’’ और अन्त करते हैं-- ''अभी गरानी-ए-शब में कमी नहीं आई.....चले चलो कि वह मंज़ल अभी नहीं आई।’’ क्यों ? मामला हिन्दुत्व ही का नहीं है, और गहरा है, विभाजन के सिलसिले में भी और उसके चित्रण के सिलसिले में भी।’’

विभाजन का प्रश्न भारतभूषण अग्रवाल  को बराबर मथता रहा था। ग़रीबी, अशिक्षा और सामाजिक विषमता के हालात के अलावा सचाई से पलायन, अकर्म, रूढि़वाद, परलोकवृत्ति और साम्प्रदायिक हिंसा के प्रति आकर्षण की भारतीय जनसाधारण की प्रवृत्तियों को वह इस ट्रेजेडी के लिए ज़म्मेदार मानते थे। 1943 में 'तार सप्तक’ में अपने परिचय में उन्होंने कहा था : ''मार्क्सवाद को आज के समाज के लिए रामबाण मानता हूँ। कम्युनिस्ट हूँ।’’  मगर बीस साल बाद 1963 में प्रकाशित दूसरे संस्करण में इसके ठीक उलट वह लिखते हैं : ''आज कम्युनिस्ट नहीं हूँ। यही नहीं, अब तो लगता है कि जब कहता था, तब भी नहीं था।’’ इस बयान में हमारी साम्यवादी राजनीति से निराशा के साथ-साथ आत्म-व्यंग्य का दंश घुला-मिला है। ज़ाहिर है कि भारत जी  लगातार आत्म-संघर्ष और आत्मालोचना करते रहे और ख़ुद को जिस कसौटी पर रखा, उसके औचित्य और संपूर्णता को जाँचते रहे। मार्क्सवादियों से उनकी शिकायत यह थी कि उन्होंने समाज-परिवर्तन पर बहुत ज़ोर दिया, मगर व्यक्ति की घोर अवज्ञा की। दूसरे, वे भारत की अपनी परिस्थितियों के मुताबिक़ धीरज और मौलिकता से 'कोई सम्यक् दर्शन’ विकसित नहीं कर सके। नतीजा क्या हुआ? बंगाल के अकाल के प्रति विद्रोह न कर पानेवाली भूखी और प्रताडि़त जनता तीन साल बाद साम्प्रदायिक हत्याकांड में हिस्सेदार हो गयी और आज़ादी मिलने पर 'साम्राज्यवाद की ऊँटनी’ रही नौकरशाही को हमने जाने क्या सोचकर 'समाजवाद की मोटरकार’ बनाना चाहा! न हम सामासिक संस्कृति को अक्षुण्ण रख सके, न समता और मौलिकता को साकार कर पाए। तदर्थवाद, वाचालता और अकर्मण्यता हमारी पहचान बन गयी। 1967 में 'धर्मयुग’ में छपे एक लेख में--जिसे भारत जी  ने 1970 में आये अपने कविता-संग्रह 'एक उठा हुआ हाथ’ की भूमिका बना लिया--उनके शब्द हैं : ''हमारा हाल का इतिहास भी बड़ा निर्मम रहा है : मुक्ति का फल विभाजन के विष से सड़ गया, समाजवाद का सपना राजनीतिक दलों की पल्लवग्राहिता के कारण जड़ न पकड़ सका, और शिक्षा का वरदान विदेशी भाषा की वल्ली के कारण बीरबल की खिचड़ी बन गया। कठिन सवालों के तात्कालिक कामचलाऊ हल निकालने की प्रवृत्ति ने स्वस्थ विरोध को भूलभुलैयों में डाल दिया। समस्या की बहस को हम समाधान मान लेते हैं, सेमीनार को कर्म।’’

कवि-जीवन के आरम्भ से भारतभूषण अग्रवाल  ने मार्क्सवाद से अपने लगाव को विचार ही नहीं, रचना के स्तर पर भी अभिव्यक्त किया। 'तार सप्तक’ में 'जागते रहो!’ शीर्षक उनकी कविता का समापन इन ख़ूबसूरत पंक्तियों से होता है: ''लो, क्षितिज के पास--वह उठा तारा, अरे ! वह लाल तारा, नयन का तारा हमारा / सर्वहारा का सहारा / विजय का विश्वास।’’  उस दौर में यह एहसास और यकीन दूसरे कवियों को भी था। दो साल बाद 1945 में 'कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह  ने लिखा था : ''वाम वाम वाम दिशा, / समय साम्यवादी।’’  मगर यह अविचारित उत्साह का प्रदर्शन, नारेबाज़ी या उच्छ्वास नहीं, हृदय की गहराइयों से उठती हुई पुकार थी। राह के सही होने को लेकर भरोसा था, पर भविष्य की तस्वीर एकदम साफ नहीं थी। निराशा, अकेलेपन और असहायता के समुद्र में जैसे मुनासिब अवलम्ब की खोज में हिन्दी के निम्न-मध्यवर्गीय कवि ने जनपक्षधर विचारधारा का हाथ थामा था। इस नये बनते रिश्ते में साथ के आश्वासन के बावजूद कहीं एक अपरिचय, संशय और प्रश्नाकुलता का भाव भी शामिल था। 1941 में लिखी शमशेर  की एक कविता 'लेकर सीधा नारा’  में यह नाज़ुक और संवेदनशील तनाव बहुत सुन्दर और मार्मिक अंदाज़ में ज़ाहिर हुआ है : ''मैं समाज तो नहीं; न मैं कुल / जीवन; / कण-समूह में हूँ मैं केवल / एक कण। / --कौन सहारा ! / मेरा कौन सहारा !’’

दिलचस्प है कि कुछ समय बाद 'तार सप्तक’  में सम्मिलित अपनी कविता 'पथ-हीन’ में भारतभूषण  भी समुचित मार्ग की तलाश में राहगीर के तौर पर अपना संशय, बेचैनी और अधीरता व्यक्त करते हैं। यहाँ तीन विकल्पों पर विचार किया गया है : एक तो परम्परा या शास्त्र द्वारा अनुमोदित मार्ग, यानी जिस रास्ते महापुरुष गये हों, वही सही है। 'महाभारत’  के 'वन पर्व’  में यक्ष प्रश्न 'कौन-सा मार्ग है?’  के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठर का कथन है : ''धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां, महाजनो येन गत: स पन्था:।’’  दूसरा मार्ग वह, जो कुछ न्यायप्रिय विद्वान सुझाते हैं, यानी आत्मा जो कहे, वही अनुसरणीय है। तीसरा बिलकुल आधुनिक समाधान है : जनसाधारण से एकात्म होकर क्रान्ति के अभियान में जुटना। मगर विडम्बना यह कि इनमें-से किसी भी राह पर चलना दुश्वार है। 'कौन-सा पथ है ?’ : कविता में टेक की मानिंद इस प्रश्न का दोहराव इसके प्रभाव को बहुत सघन कर देता है और कवि के रूप में भारतभूषण  की अचूक कलात्मक क्षमता का प्रमाण है। महज़ संयोग नहीं कि शमशेर  ने अपने मशहूर लेख 'एक बिल्कुल पर्सनल एसे’  में 'पथ-हीन’  को विशेष रूप से अपनी प्रिय कविता बताया है। इसकी आख़िरी पंक्तियाँ काबिलेगौर हैं :

''पर महाजन-मार्ग-गमनोचित न सम्बल है, न रथ है,

अन्तरात्मा अनिश्चय-संशय-ग्रसित,

क्रान्ति-गति-अनुसरण-योग्या है न पद-सामथ्र्य।

 

कौन-सा पथ है ?

मार्ग में आकुल-अधीरातुर बटोही यों पुकारा :

'कौन-सा पथ है?’ ‘‘

सही पथ जानते हुए भी व्यापक बदलाव के लिए सर्वसाधारण से एकजुट न हो पाने की मध्यवर्गीय विवशता और 'डीक्लास’ होने या व्यक्तित्वान्तरण में समर्थ होने की अक्षमता के लिए भारतभूषण  अपने एवं अपने समकालीनों के साथ कोई रिआयत नहीं बरतते। इस कसौटी पर वह सिर्फ मुक्तिबोध को खरा पाते हैं। उन्हें समर्पित कविता 'एक उठा हुआ हाथ’  में कहते हैं कि जब हम लोग 'उथले पानी में जल-क्रीड़ा’  कर रहे थे;  अकेले मुक्तिबोध  थे, जिनमें आँधी-तू$फान जैसे वातावरण में आगे जा सकने का साहस था। हममें-से कुछ 'चन्दन-नौकाओं’ की सुख-सुविधा की तलाश में थे और कुछ तात्कालिक शोहरत के प्रलोभन में पड़े थे। तभी हमने हैरान होकर देखा कि मुक्तिबोध  मँझधार में ऊँची उठती लहरों से जूझ रहे हैं। तूफान के शोर में हमारी पुकार उन तक पहुँच न सकी और वह देखते-देखते लहरों में समा गये ! कविता का समापन इस मर्मस्पर्शी बिम्ब से होता है :

''.....मुझे अब भी दीख रहा है

वहाँ दूर, मझधार में लहरों के ऊपर उठा हुआ

पताका-सा तुम्हारा हाथ

तुम्हारी जल-समाधि का निशान !’’

यह कविता प्रकारान्तर से कहती है कि उत्कर्ष की प्राप्ति आत्मोत्सर्ग के बिना संभव नहीं और मुक्तिबोध  के अवदान को अपने समय के साहित्य की शीर्ष उपलब्धि के रूप में रेखांकित करती है। ऐसा करने के लिए जितनी उदारता चाहिए थी, उतनी ही बेलौस आत्मालोचना भी। विष्णु खरे ने ठीक लिखा है कि वरिष्ठ कवियों में एक भारतभूषण अग्रवाल  थे, जिन्होंने मुक्तिबोध  के सर्वातिशायी दाय को कविता के ज़रिए न सिर्फ स्वीकार किया, बल्कि इसके शीर्षक से अपने एक कविता-संग्रह का नाम भी रखा : ''मुक्तिबोध को लेकर जो अपराध-भाव भारतजी की पीढ़ी में है, या होना चाहिए, या नहीं है, यह कविता उसकी मार्मिक अभिव्यक्ति है।.....इस एक छोटी-सी कविता में हिन्दी कविता का एक कलंकपूर्ण और स्वर्णिम अध्याय समाहित है।’’

आज जबकि हम अपने देश में फासीवादी राजनीति के प्रभुत्व के साये तले साँस लेने को मजबूर हैं, क्या बुद्धिजीवी और कवि किसी क़िस्म की आत्मालोचना के लिए तैयार हैं ? क्या यह जो संकट दरपेश है, इसे लाने का सारा दोष प्रतिगामी ताक़तों का है और इसमें हमारी कोई भूमिका नहीं, हमसे कोई चूक नहीं हुई? क्या व्यापक हिन्दी जनता से कारगर और प्रभावी संवाद में सक्षम 'पब्लिक इंटेलेक्चुअल’  या लोक-बुद्धिजीवी हमारे पास हैं या जो हैं, उन्हें ज़्यादा-से-ज़्यादा 'प्राइवेट इंटेलेक्चुअल’  कहा जा सकता है? क्या सत्तर बरसों के स्वाधीन भारत में एक पंथनिरपेक्ष समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य--जो कि भारत के संविधान का वादा है--के मूल्यों के बारे में हम अवाम को पर्याप्त जागरूक बना पाये हैं? क्या हम और हमारे अग्रज दुश्मन की क्षमताओं एवं रणनीतियों के अवमूल्यन और कभी-कभी उससे दुरभिसन्धियों में शरीक नहीं रहे? सच तो यह है कि विद्वानों को किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए। अभी उत्तर-भारतीय समाज में शिक्षा की बहुत ज़रूरत है। वहाँ आप कहेंगे कि 'फासीवाद’ आ गया है, तो लोग समझेंगे कि कोई त्योहार आ गया है ! इस पृष्ठभूमि में 'कविता अपने आप में संपूर्ण नागरिकता है’--ज़न्दगी-भर के अपने इस पूर्वग्रह पर पुनर्विचार, बल्कि उसमें संशोधन का रचनात्मक साहस करते हुए 2019 में प्रकाशित कविता-संग्रह 'कम से कम’  की भूमिका में अशोक वाजपेयी  ने मौजूदा दौर में मूल्यों के पराभव की अहम पड़ताल की है : ''कविता से न तो नागरिकता, पर्याप्त नागरिकता या उसका सत्यापन सम्भव हुआ, न किसी तरह का मूल्य-संवर्द्धन। भाषा को सघन-उत्कृष्ट-बहुल कविता करती है--भाषा को कविता में लाती-रखती है--आज भाषा पर ध्यान देने की किसी को फुरसत या ज़रूरत नहीं रह गयी है।.....भयानक और व्यापक आत्मरति और हर दिन बढ़ती संकीर्णता में कविता में आत्मालोचन, आत्मसंघर्ष और आत्माभियोग न के बराबर रह गये हैं।.....लोकतन्त्र के लिए ही नहीं, कविता के लिए भी कुछ संस्थाओं की दरकार होती है। शिक्षा, बुद्धि और ज्ञान की संस्थाएँ, संस्कृति से सम्बन्धित प्रतिष्ठान, मीडिया आदि। ये सभी पतन और ह्रास की प्रक्रिया में चल रहे हैं। जो बड़े स्वप्न धूलिसात् हुए या आज इतिहास के घूरे पर पड़े हैं, उन्हें लेकर हमने कोई निर्मम आकलन या आत्मालोचन नहीं किया है।’’

प्रतिगामी सत्ता-राजनीति के बहुमुखी और हिंस्र हमले के इस समय में भारतभूषण अग्रवाल  की कविता की अगर कोई प्रासंगिकता है, तो सबसे ज़्यादा आत्मालोचना और विनोदप्रिय व्यंग्यधर्मिता की विशेषताओं की बदौलत। उनकी रचनात्मकता में ब्रेखि़्तयन थिएटर के सिद्धान्त से मिलती-जुलती कोई सि$फत है, जिसके कारण जब वह ऊँचे आदर्शों की बात करते हैं, तो हम किसी सुखद बहकावे में न आ जायें; इसलिए एक झटका देकर हमें जगाते और दारुण यथार्थ के प्रति सचेत कर देते हैं। द्रष्टव्य है हिटलर के जीवन-काल में ही लिखी गयी, उनकी 'अहिंसा’ शीर्षक कविता, जो फासीवादी राजनीति के अविवेक, निकृष्टता और भविष्यहीनता को पहचानने के बावजूद उसके वर्चस्व और दुराग्रह से सावधान करती है :

''खाना खा कर कमरे में बिस्तर पर लेटा

सोच रहा था मैं मन ही मन : 'हिटलर बेटा’

बड़ा मूर्ख है, जो लड़ता है तुच्छ-क्षुद्र मिट्टी के कारण

क्षणभंगुर ही तो है रे ! यह सब वैभव-धन।

 

अन्त लगेगा हाथ न कुछ,  दो दिन का मेला।

लिखूँ एक खत,  हो जा गाँधी जी का चेला।

वे तुझको बतलायेंगे आत्मा की सत्ता

होगी प्रकट अहिंसा की तब पूर्ण महत्ता।

कुछ भी तो है नहीं धरा दुनिया के अन्दर।’

 

छत पर से पत्नी चिल्लायी : ''दौड़ो, बन्दर!’’

यही नहीं, जब भारत जी  प्यार पर लिखते हैं, तब भी जताते हैं कि वह आधुनिक जटिल सभ्यता के ताने-बाने में उलझकर कोई स्वप्निल, निरापद और मनोरम एहसास नहीं रह गया; बल्कि ब$गैर किसी मुसीबत के जी लिया जाए, तो ग़नीमत है:

''हम-तुम जिस पर सवार हैं

वह प्यार

चाँदनी-नहाई झील में तिरती नाव नहीं

कि मस्ती में डूब कर डुएट गाएँ--

वह तो ट्रैफ़िक की भीड़ में भागता स्कूटर है

चुपचाप दम साधे पीछे बैठी रहो

यही क्या कम है

कि बिना एक्सीडेंट के हम घर पहुँच जाएँ !’’

 

 

 

 

(कवि भारतभूषण अग्रवाल की जन्मशती के उपलक्ष्य में 'कविता और जीवन’ पर एकाग्र राष्ट्रीय संगोष्ठी/आयोजन 'भारत स्मृति’ में रविवार 17 नवम्बर, 2019 को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्स, नयी दिल्ली में दिये गये वक्तव्य का संशोधित एवं परिवर्धित पाठ।)

 

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