अंत के पार शुरुआत

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    सितम्बर - अक्टूबर : 2020
श्रेणी अंत के पार शुरुआत
संस्करण सितम्बर - अक्टूबर : 2020
लेखक का नाम अच्युतानंद मिश्र





लंबी कविता

 

 

 

धीरे-धीरे स्मृतियों की धमनियों में

दौड़ता रक्त सूखने लगता है

यादों के नुकूश में खुबे चेहरे

पथराने लगते हैं

ठूंठ होता जाता है बचपन का हरा वृक्ष

कलकल बहती नदी होती जाती है गंदली

खेल के मैदानों पर उगने लगतेहैं

कंक्रीट के जंगल

बिजली के तार पर फंसी होती है

पक्षी की कोमल देह

दूर तक कौंधती है उसकी आँखों की तड़प

पत्थर की बेंच का पत्थर

और पुरातन होता जाता है

शाम से पहले गहराने लगता है अंधकार

लौटने में शामिल नहीं रहता चलना

बुझे दिए की तरह धुआं छोड़ती हैं स्मृतियां

धुंए में उभरती हैं शक्लें

जिनमे गडमड लोग सब

एक अदृश्य पीड़ा दबोचती है

पूरे वजूद को

ठंडापन फैलता हथेलियों से

दिमाग के अंधकार में।

 

बैठकर याद करो

कहां से चले थे

किन पत्थरों पर बैठे थे

कितनी मील लंबी यात्रा के बाद

पीछे मुड़कर देखा था,

याद करना

दीवार पर सिर मारना है

पत्थरों के सिवा क्या याद रखता है आदमी ?

चाहो भी तो

नहीं लौट सकते

उदास बसंत में

यहां शोर में कोई रुदन भी नहीं बचा,

कौन सुनता है

तकलीफ के बीच से उठी पुकार को ?

तुम्हें अब भी उम्मीद है

कि कोई हाथ तुम्हारे माथे पर आकर

बालों को सहलाएगा?

आंखें बंद करो और देखो

वह पत्थर का टुकड़ा नहीं है

बच्चे की जली हुई देह है

अब भी उसमें पीड़ा की ऐंठन

महसूस कर सकते हो

उसके मुलायम केशों का स्पर्श

इस दुनिया में नष्ट हो चुका है

उसकी आंखों की चटकीली रोशनी को

दुख के इस विशाल समुद्र में

किस तरह खोजोगे?

स्वीकार करो यह नियति नहीं

यह कोई विपत्ति भी नहीं

यह साबुत पड़ा समय है

एकदम ठोस

समुद्र के बाहर से

उझकते विशाल चट्टान की तरह

 

वर्तमान में रहो या अतीत में

स्मृति में या यथार्थ में

जो समय के पार चला गया

उसे पृथ्वी के घूमने से कोई फर्क नहीं पड़ता

कोई प्लेटो, कोई गैलीलियो नहीं जानता

दुनिया का सच

वे किसी और दुनिया के

सच को तलाश रहे हैं

गैलीलियो का पत्थर

लटक गया है हवा में

वह किस दिशा में बढ़ेगा,

वह रुक भी सकता है

गैलीलियो अब अपनी बेटी को

खत नहीं लिखता

गैलीलियो की उदासी में

छिपा है पृथ्वी का राज

गैलीलियो का आंसू इस समुद्र में

अब भी मौजूद है

खोजोगे उसे तुम इस समुद्र में

क्या ढूंढ पाओगे?

क्या तुम्हें अब भी उम्मीद है

कि वह अंगूठी मिल सकती है?

जबकि अकड़ी पड़ी हुई देह निकली है

शकुंतला की

बुलाओ कालिदास को

वही बताएगा

कितना जीवित बचा है प्रेम देह में

करुणा की हत्या का किस्सा

वही सुना सकता है

हैरान मत हो कि

कालिदास टी.वी पर समाचार पढ़ता है

कालिदास शकुंतला की लाश के विषय में

बता रहा है

उसके चेहरे पर

कोई दुख, कोई रोष

कोई करुणा, कोई विषाद नहीं

कितना जल विहीन है कालिदास का चेहरा

कालिदास का चेहरा जैसे समय का चेहरा

 

कालिदास का चेहरा

शकुंतला की लाश में बदल जाए

इससे पहले टी.वी बंद करो,

आखें बंद करो

 

देखो गुलामों का जत्था लौट रहा है

अपनी उंगलियों को मत हिलाओ

यह कितना बड़ा पश्चाताप है

कि तुम अब कुछ भी गिन नहीं सकते

मत गिनो,

वे किसी भी गणना से बाहर हैं

यह मुक्ति भी है

कि तुम मनुष्य होने से मुक्त हो रहे हो

और पशु होने का विकल्प भी नहीं

अब शेष

कैसा समय यह कि एक चित्रकार

लियोनार्डो द विंची से मिलती है

शक्ल जिसकी

एक विशाल ब्लेड की नोक पर

लौटते मनुष्यों को उकेरता है

ब्लेड पर फैल रहे रक्त को

उकेरने में झोंकता है अपनी सम्पूर्ण कला

उस चित्र के बाद भी विंची मरता नहीं

तुम शुष्क आंखों से

देख रहे हो चित्र को

 

चित्र प्रदर्शनी में बत्ती चली गई

इतनी गर्मी में उतर आए

लोग ब्लेड से

एक बच्चा खींचता है

तुम्हारा कुर्ता

पूछता है ब्लेड पर

कितने मील और चलना है?

तुम हड़बड़ी में देखते हो

विंची की तरफ

वह खुद एक चित्र बन चुका है

एक ठंडा चित्र

दीवार पर लटका हुआ

तो क्या इसी प्रश्न के साथ जीना होगा

ब्लेड पर कितने मील?

 

चित्र प्रदर्शनी के बाहर

एक शहर है

उदास मरता हुआ सा

सड़क है पानी के भ्रम सा

आकृतियां हैं

हिलती हुई मनुष्य की स्मृतियों सी

भीड़ में वह बच्चा खो गया

वह चित्र से बाहर निकलकर

दृश्य में खो गया

उसे खोजा नहीं जा सकता

उसे सुना भी नहीं जा सकता

वह स्मृति में भी नहीं बचा

फिर क्या बचा है

अंत के पार जो शुरुआत

वह वहीं चला गया

 

उसे मत खोजो

लौट आओ

अब तुम्हारे लौटने न लौटने से

कोई फर्क नहीं पड़ता

कोई भाषा भी नहीं रही जिसमें 

तुम्हारा लौटना दर्ज़ हो

पूछो कालिदास से, प्लेटो से

या गैलीलियो से

सभी अंत के पार चले गए

कोई कुछ नहीं बता सकता

कि वर्तमान स्मृति-विहीन कैसे हुआ

कैसे गंदला गई सारी नदियां

कैसे ठूंठ हो गए वृक्ष

कैसे खेल के मैदान

बन गए कंक्रीट के जंगल

 

बचाओ-बचाओ

उस आखिरी गेंद को

जो लुढ़ककर जा रही है

समय के पार

दृश्य के पार

स्मृति के पार

अंत के पार।

 

 

 

आज के समय के महत्वपूर्ण युवा कवि और आलोचक। पहल के लगभग स्थायी लेखक।

संपर्क- मो. 9213166256

 

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