आबादकारी

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    जून - जुलाई : 2020
श्रेणी आबादकारी
संस्करण जून - जुलाई : 2020
लेखक का नाम शहादत





कहानी

 

 

'तूफान गुजर जाने के बाद किसी शहर की तरह उस हादसे ने भी हमारी ज़िंदगी को पूरी तरह तबाह कर दिया था। लोग मारे गए थे और घर खंडहर में तब्दील हो गया था’, उसने बोलना शुरू किया, 'शायद इसीलिए मैं आज तक उस सबको भूल नहीं पाया हूँ।’

'इतने वर्ष बीत जाने पर भी...’ उसने एक लंबी सांस लेकर कहा, 'मैं जब उस सबको याद करता हूँ तो मेरे जिस्म में कंपकपी-सी दौड़ जाती है... उसी हादसे के बाद दूसरी चीजें घटना शुरू हुई। यूं जैसे वे सब उस हादसे का मुआवजा हो।’

वह रुका। धीरे से गले को साफ किया और फिर बोलने लगा, 'हालांकि मैं यह नहीं कहूंगा कि वह हादसा सिर्फ हमारे घर में ही हुआ था। इस तरह के हादसे हमारे समाज में आम हैं। हर रोज के अख़बारों और टीवी पर प्रसारित होने वाली खबरों में इस किस्म के हादसों की भरमार रहती है, लेकिन उसे इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता है। आप जानते हैं क्यों? क्योंकि हम हिंसा पसंद लोग हैं। हत्याओं का उत्सव मनाने वाले। हम प्रेम, सुख, शांति और समृद्धि नहीं चाहते, वह

विनाश और तबाही चाहते हैं। इसीलिए समाज में फैलते आतंक और बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से हमें फर्क नहीं पड़ता। कहा गया था कि जो हिंसक होगा, वहीं हिंदू होगा। मुझे लगता है कि ये बात एकदम गलत है। कहने वालों को कहना चाहिए था कि जो जितना बड़ा हिंसक होगा वह उतना ही पक्का हिंदू होगा। आप ये मत सोचिएगा कि मैं यहां हिंदू कहकर किसी धर्म विशेष की ओर इशारा कर रहा हूं। यहां हिंदू का मतलब हर उस शख्स से है जो हिंद की सरजमीं पर पला-बढ़ा है, जिसने यहां की हवा में सांसे ली हैं और यहां की संस्कृति को जिया है। चाहे वह किसी भी धर्म या मजहब का मानने वाला क्यों न हो।’

वह रुक गया। मानो किसी बादल की तरह उमड़ आए अपने विचारों को एक ठहराव देना चाहता हो। एक तरतीब, लयबद्धता। ताकि वह अपनी बात को उसी एहसास के साथ बयां कर सके, जैसा उसने उसे खुद महसूस किया था। उसने कहा, 'लेकिन जैसे उस हदासे ने हमें प्रभावित किया था वैसे किसी ओर को नहीं किया होगा।’

वह मेरा तब्लीगी जमात का साथी था। उन दिनों तब्लीगी जमात से जुडऩे के बाद मैंने ढेरों नए-नए साथी बनाए थे। जिनमें से कुछ मुझसे मिलने मेरे घर तक चले आते। मुझसे मिलने आने वाले उन नए-नए लोगों को देखते हुए अम्मी ने बाहर का कमरा खाली करा दिया था। उसमें उन्होंने पलंग, सोफा सेट और एक मेज छोड़कर बाकी सब सामान हटा लिया था। वह जनवरी का एक कोहरा भरा दिन था जब मैं अपने ऐसे ही कुछ साथियों के साथ उस कमरे में बैठा हुआ था। बाहर किटकिटा देने वाली ठंडी हवा चल रही थी और कोहरे की बूंदे पानी की शक्ल में कांच की खिड़की से रिस रही थीं। अम्मी दो बार चाय बनाकर भिजवा चुकी थी और कुछ देर में तीसरी बार चाय आने वाली थी। चाय की चुस्कियों के साथ ही कई लोगों ने अपनी बीती जिंदगी की कुछ यादगार कहानियां सुनाई थी। मैंने भी उन्हें अपने स्कूल के दिनों का एक किस्सा सुनाया था। मेरे बाद ही उसने बोलना शुरु किया था। वह एक खूबसूरत नौजवान था। घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी आंखें, गोल नाक और होंठों पर हर वक्त तैरती एक महीन-सी मुस्कुराहट। उसके व्यक्तित्व में एक किस्म का आकर्षक था और शायद इसीलिए मैं उसे पसंद भी करता था। लेकिन उसके भरे-भरे चेहरे और होंठों पर तैरती उस मुस्कुराहट में कुछ ऐसा भाव था जो उस किस्म के व्यक्तियों में देखा जाता है, जो अपने जीवन में शायद ही कभी किसी बात पर गंभीर होते हों। या फिर किसी वाक्य या घटना को ज्यादा दिनों तक याद रखते हों। और अगर वे याद भी रखते हैं तो कुछ अरसे बाद ही उसे इस तरह भुला देते हैं जैसे वह कभी हुई ही न हो। उस दिन जब वह बोल रहा था तो मैं उसे बड़े ध्यान से सुन रहा था, क्योंकि तब वह, वह नहीं था, जो हर रोज मेरे सामने होता था। तब उसका अलग ही अंदाज था। एक ऐसा अंदाज जिसे मैंने तबसे पहले कभी नहीं देखा था। उसने कहना शुरू किया।

उन दिनों हम दिल्ली से सटे व शहर के एक उपनगर में रहते थे। हमारा घर माोहल्ले के आखिरी सिरे पर था। इसके बावजूद घर हमेशा लोगों से भरा रहता। मौहल्ले की औरतें, रिश्तेदार या फिर अब्बू जी के पुराने दोस्त, कोई न कोई हर वक्त आया ही रहता। हालांकि उन मिलने आने वालों से घर में अम्मी के अलावा कोई और नहीं होता था। अब्बू जी सुबह आठ बजे एक बार दुकान के लिए निकलते तो शाम को मगरिब के बाद ही लौटते। उनके कुछ देर बाद ही भाई भी कॉलेज के लिए निकल जाता और दोपहर के बाद लौटता। कपड़े बदलता, खाना खाता और फिर दोस्तों के साथ घूमने निकल जाता। फिर वह इशा के बाद खाने के वक्त ही लौटता। मेरा भी यही हाल था। अब्बू जी के साथ ही मैं भी स्कूल को निकलता तो दोपहर को लौटता। खाना खाकर ट्यूशन के लिए निकलता तो साथ में अब्बू जी का खाना लेकर जाता। उसके बाद मैं भी शाम को ही वापस आता। हमारे पीछे अम्मी के साथ रह जाती थी अफरोज बाजी, यानी मेरी बड़ी बहन।

घर के कामों के साथ-साथ मिलने आने वाले उन सब लोगों की खिदमत की जिम्मेदारी भी बाजी पर होती थी। इसलिए उनका सारा वक्त रसोई और साफ-सफाई में बीत जाता। हालांकि उन्हें किसी भी वक्त मुंह उठाकर चले आने वाले ये लोग बिल्कुल भी पसंद नहीं थे। खास तौर से तो मौहल्ले की औरतों से उन्हें सख्त चिढ़ थी, जो हमेशा किसी न किसी जरूरत से ही आती थी। साथ ही आते थे उनके छोटे-छोटे गंदे बच्चे, जो घर में घुसते ही उधम मचाना शुरू कर देते। सोफे के तकियों को यहां-वहां गिरा देते, झूले पर झूलते या फिर प्लास्टिक की कुर्सियों को इधर-उधर खिसका देते। सुबह-शाम गरम पानी के पीछे से चमकाए गए फर्स पर उनके नंगे पैरों के निशान दूर से ही दिखाई देते थे। हालांकि इन औरतों और उनके उज्जड बच्चों से घर में एक खामोश सी गहमा-गहमी रहती थी। जिसके बारे में लोगों का कहना था कि मौहल्ले में मस्जिद के बाद आबाद रहने वाली कोई जगह है, तो वह हमारा घर है। यही वो बात थीं जो बाजी को खुशी देती थी और उन्हें लगता था कि अगर वह चाहे तो घर को मस्जिद से भी ज्यादा आबाद कर सकती थीं। दुनिया की तरह।

बाजी की तरह अम्मी का भी कुछ ऐसा ही मानना था। उन्हें तो बल्कि यूं लगता था कि उनका घर मस्जिद से भी ज्यादा सम्मानित और आबाद है। एक ऐसी जगह, जहां कोई भी बेहिचक आ सकता है और उनसे मिल सकता है। वह लोगों से मिलती भी थीं कुछ इसी तरह। एकदम तपाक से। पूरी गर्मजोशी के साथ। मुस्कुराते हुए।

उनकी इस मिलनसारी ने उनकी सोचों को कुछ हद तक सच भी साबित कर दिया था, क्योंकि उस सघन आबादी वाले मौहल्ले में उनकी पहचान लोगों के मददगार और हमदर्द की सी थी। शायद इसीलिए लोग घर को अब्बू जी के नाम से कम और अम्मी के नाम से ज्यादा जानते थे।

उन्हीं दिनों अम्मी ने अब्बू जी से कहकर घर में फोन लगवाया था। इसके पीछे भी एक वजह थी। दरअसल अम्मी के इकलौते भाई याने मेरे मामू जी दारुल उलूम देवबंद से फारिग होकर आगे की पढ़ाई के लिए मदीना चले गए थे। पहले जब वे यहीं रहते थे तो महीना-बीस दिन में एक बार घर का चक्कर लगा दिया करते थे। नानी भी कभी-कभी उनके साथ आ जाया करती थीं, लेकिन उनके मदीना चले जाने के बाद अम्मी के पास अपने भाई से बात करने का कोई साधन नहीं था। वह उन्हें चिट्ठी नहीं लिख सकती थीं और न ही इसके लिए हममें से कोई तैयार था। मामू ने भी चिट्ठियों का जवाब देने से इंकार कर दिया था। मदीना जाने के पहले जब वह हमसे मुलाकात के लिए आए थे तो उन्होंने ही अम्मी को फोन लगवाने की सलाह दी थी। सलाह देते हुए उन्होंने कहा था कि फोन लग जाने से अम्मी न केवल उनसे बात कर सकेगी, साथ ही उनका नानी से भी बात करना आसान हो जाएगा, जिनके पास पहले से ही अपना एक फोन था।

मामू के जाने के कोई महीने भर बाद अब्बू जी ने घर में फोन लगवा दिया था। अब हमारा घर मौहल्ले के उन चुनिंदा घरों में शामिल हो गया था जिनमें फोन था और साथ में खुद का वाहन भी। हालांकि घर में फोन लग जाने से ये तो पता नहीं कि अम्मी की नानी और मामू से बात करने में कितनी आसानी हुई थी, लेकिन हां, इससे मौहल्ले की उन औरतों को जरूर सहूलियत हो गई थी जिनके रिश्तेदार दूसरे शहरों में बसे थे अब उनके घर वालों, भाई-बहनों और दूसरे रिश्तेदारों के मरने-जीने, शादी-ब्याह और हारी-बीमारी की सारी खबरें हमारे फोन पर आने लगी थी। इसके साथ ही अब उन लोगों ने भी हमारे घर आना शुरू कर दिया था जो अभी तक हमसे एक दूरी बनाकर रखते आए थे। खासतौर से तो वे औरतें जो अम्मी से एक किस्म का हसद रखती थीं।

उस फोन ने एक साथ कई चीजों को बदला था। घर को, अम्मी के व्यवहार को और साथ ही लोगों के साथ हमारे ताल्लुकात को हालांकि इसने कुछ समस्याएं भी पैदा की थीं। सबसे बड़ी समस्या तो यह थी कि जो औरतें पहले सिर्फ दिन में ही किसी काम से अम्मी से मिलने आया करती थीं वे अब शाम को भी आने लगी थीं। बल्कि मगरिब और इशा के वक्त भी कोई न कोई फोन सुनने या करने आ जाया करता था।

दिन भर में रात के खाने का वक्त ही एक ऐसा वक्त होता था जब हम सब लोग साथ होते थे, क्योंकि सुबह में सबका घर से निकलने का वक्त अलग-अलग था तो नाश्ता भी अपने वक्त पर ही करते थे। दोपहर में तो साथ खाने का सवाल ही पैदा नहीं होता था, क्योंकि अब्बू जी दुकान पर होते थे। भाई कॉलेज में और मैं स्कूल में। इसलिए एक वही वक्त था जब पूरा परिवार साथ होता था। कभी हम आपसी बातचीत करते थे। मेरे स्कूल के बारे में, दिन भर में घर आने वाले लोगों के बारे में और कभी-कभी भाई के कॉलेज या फिर रिश्तेदारों के बारे में। उस वक्त हमारे रौबदार और हुक्मराना अंदाज वाले अब्बू जी काफी अच्छे मूड में रहते थे। वैसे वे कोई लंबी बात नहीं करते थे। बस हमारी बातों पर ही छोटी-छोटी टिप्पणियां करते चलते। कभी-कभी चुटीले अंदाज में तो कभी-कभी सीख देने वाले अंदाज में। कभी वह हमारा मजाक उड़ाते, तो कभी अम्मी के किसी पुराने किस्से को सुनाने लगते। हालांकि भाई के साथ उनका ऐसा रवैया नहीं था। उसके साथ वह गंभीर और दोस्ताना अंदाज में बात करते थे। शायद यह इसलिए था कि भाई उनकी बराबर के थे। फिर वह उनकी पहली औलाद भी थे। हमारी बात और थी। मेरी और बाजी की। हम छोटा था और बाजी उनकी बेटी। जिनके लिए रिश्ते से ज्यादा सामाजिक दायरे मायने रखते थे।

वह एक ऐसा वक्त था जो हमें एक परिवार के रूप में एकजुट करता था। जो बताता था कि अपनत्व से भरी इस तरह की छोटी-छोटी बातें आपको किस प्रकार एक-दूसरे से जोड़े रखती हैं। सारा दिन समंदर सरीखी दुनिया में भटकते रहने के बाद जब आप रात को घर लौटते हैं तब आपको एहसास होता है कि आप अकेले नहीं हैं। आपके साथ भी लोग खड़े हैं। आपके मां-बाप और भाई-बहन। बिना किसी कीमत के आपकी जरूरतों को पूरा करते हुए और आपकी देखभाल की जिम्मेदारी उठाते हुए। खून के रिश्तों की यही पहचान होती है कि कुछ भी न होने पर भी यह आपके अंदर एक-दूसरों के लिए प्यार और चाहत पैदा करते हैं। आपको बताते हैं कि गुस्सा और लापरवाही के बावजूद सामने वाले के दिल में आपके लिए कितना मौहब्बत है।

फोन लगने के बाद हमारे इस वक्त में खलल पडऩा शुरु हो गया था। जब हम खाने की तैयारी कर रहे होते या खाना खा रहे होते तभी फोन की घंटी बज जाती, या फिर कोई फोन करने चला आता। फोन एक को करना होता, लेकिन उसके साथ पूरा घर आता। बड़े, बच्चे, बूढ़े हर कोई। फिर वे सभी बारी बारी से बात भी करते, और इससे कॉल इतनी लंबी हो जाती कि कभी-कभी लगता कि यह कॉल खत्म भी होगी या नहीं।

बाजी की तरह अब्बू जी को भी मौहल्ले के लोगों का यूं घर आना बिल्कुल भी पसंद नहीं था। इस बात को लेकर उनका अम्मी के साथ पहले भी कई बार झगड़ा हो चुका था। अम्मी हर बार अब्बू जी से एक ही बात कहतीं, 'वे हमारे पड़ोसी हैं। हम पर उनका हमारे रिश्तेदारों से भी ज्यादा हक है। हम उनसे कट कर नहीं रह सकते। अलग-थलग। फिर उनकी जरूरत में काम आना तो हमारा फर्ज है। इस्लाम भी यही कहता है।’

और फिर फोन लग जाने के बाद तो ये झगड़े मानो रोज की बात हो गए थे। अम्मी अपनी बात पर अड़ी रहतीं और अब्बू जी चाहते थे कि वे घर में लोगों का यूं आना-जाना बंद करे। इस बार अब्बू जी को बाजी का भी साथ मिल रहा था। उन्हें तो क्योंकि पहले से ही लोगों का यूं आना-जाना पसंद नहीं था और अब जब अब्बू जी खुलेआम इसके विरोध में थे तो बाजी भला ये मौका क्यों हाथ से जाने देती? उन्होंने भी उनकी हां में हां मिलाना शुरू कर दिया, लेकिन जब अम्मी पहली की तरह ही उनकी बातों को सुना-असुना करती रहीं तो फिर बाजी ने खुद ही मोर्चा संभाल लिया। किसी का फोन आता तो वह बोल देती, 'आपने जो नंबर मिलाया वह गलत। कृपया अपना नंबर जांच ले।’ अगर कोई बार-बार फोन करता तो रिसीवर को क्रेडिल से उठाकर नीचे रख देती। कोई फोन करने आता तो कह देती कि फोन खराब है या अम्मी नानी से बातें कर रही हैं। कभी-कभी तो वह साफ इंकार कर ही देतीं, 'यह कोई सरकारी फोन नहीं है कि जब चाहो मुंह उठाकर चले आओ, हमने यह फोन अपने लिये लगवाया है। पब्लिक के लिए नहीं। जाओ यहां से।’

अम्मी को जब बाजी की इन हरकतों का पता चलता को वह बहुत गुस्सा होतीं, लेकिन बाजी पर अम्मी के गुस्सा का कोई असर नहीं होता था। उन्होंने अपने इस अमल को बदस्तूर जारी रखा।

फिर एकाएक जाने क्या हो गया था। खुद अम्मी ने ही फोन सुनने आने वाले लोगों से मगरिब (शान की अनाज) के बाद आने से मना कर दिया था। उन्होंने उन सबसे कहना शुरु किया, 'अपने रिश्तेदारें से कहो कि वे मगरिब के बाद फोन न करे। अगर करना है तो मगरिब से पहले ही कर लिया करें। हम मगरिब के बाद किसी को फोन सुनने नहीं देंगे।’

अम्मी के रुप में आने वाली ये तब्दीली जितनी हैरान करने वाली थी उतनी ही परेशान करने वाली भी। आखिरी उन्हें हो क्या गया था? वह ऐसा कैसे कर सकती थीं? कैसे वह इतनी स्वार्थी हो सकती थीं? उन्होंने तो हमेशा से ही लोगों का भला चाहा था और उनकी जरूरत में हमेशा उनके साथ रही थीं। फिर अब क्या हो गया था। शुरूआत में चीजें बिल्कुल धुंधली थी। कोहरे में लिपटी इस सुबह की तरह। लेकिन धीरे-धीरे वक्त बीता। धूप खिलने लगी और कोहरा छंटने लगा। चीजें अपने रूप में दिखाई देने लगीं और फिर पूरी तरह से वाजह हो गई।

दरअसल भाई, जो हमेशा दोपहर का खाना खाने के बाद दोस्तों के साथ घूमने निकलता तो रात के खाने के वक्त ही लौटता था, उसने अब शाम होते ही घर आना शुरु कर दिया था। वह मगरिब के आस-पास घर आ जाता। कभी-कभी नमाज पढऩे में भी जाने लगा था। इससे पहले उसने शायद ही कभी नमाज पढ़ी हो। अम्मी और उसके बीच में एक यही कसक थी कि भाई नमाज नहीं पढ़ता था, जबकि अम्मी चाहती थीं कि वह अब्बू जी की तरह पांचों वक्त की नमाज पढ़ा करें। भाई मगरिब की नमाज पढ़कर आता तो अम्मी के चेहरे की खुशी देखने वाली होती। नमाज से कुछ देर बात ही फोन की घंटी बजती। भाई अम्मी को देखकर हल्का-सा मुस्कुराता और फिर फोन सुनने के लिए चला जाता। भाई जब तक बात करता कोई भी उसके पास नहीं जाता था। उस वक्त बाजी रसोई में खाना बना रही होती। मैं स्कूल का होमवर्क कर रहा होता और अम्मी अंदर वाले कमरे में बैठी कुरान पढ़ रही होतीं।

कभी-कभी जब भाई वक्त पर घर नहीं होता था तो अम्मी उस कॉल को सुना करतीं। रिसीवर कान से लगाकर वह वह एक पल खामोश रहती और फिर बोलतीं, 'यह अभी यहां नहीं हैं। आएगा तो खुद कर लेगा।’

भाई जब हांपता-कांपता घर आता तो अम्मी उसे देखकर मुस्कुरातींं और कहतीं, 'तेरा फोन आया था। जाकर बात कर ले।’ अम्मी की मुस्कुराहट के जवाब में भाई भी मुस्कुराता और फोन करने चला जाता।

अम्मी की छत्रछाया में भाई जब मौसम के हिसाब से वक्त बदलते हुए रात के शुरुआती पहर में उन अनजान पोन काल्स को सुन रहा था उन्हीं दिनों बाजी के व्यवहार में भी एक अनोखा नयापन आना शुरू हो गया था।

इस नएपन ने उनमें अभूतपूर्व बदलाव कर दिया था। सूखी लकड़ी की तरह तने वाला उनका शरीर किसी लचीली कोंपल की तरह लहराने लगा था। नापसंदी से उभरी-सिमटी उनकी आंखें ताजगी से चमकने लगी थी। सिकुड़े होठों पर एक छिपी-छिपी-सी मुस्कुराहट उभरने लगी थी। यह नयापन उन तक ही सीमित रहता तो कोई बात नहीं था। यह बाहर भी दिखाई देने लगा था। घर आने वाले पड़ोसियों और रिश्तेदारों को देखकर मुंह बना लेने वाली बाजी अब मुस्कुराकर उनका स्वागत करती। पहले जिन्हें पानी तक नहीं पूछा जाता था अब उन्हे ंचाय दी जाती। औरतों के साथ आने वाले बच्चों को घूरकर खामोश रहने के लिए इशारा करने वाली बाजी अब उन्हीं के साथ खेलने लगी थीं। इतना ही नहीं जाते वक्त उन्हें टॉफी या एक-दो बिस्कुट भी दे दिया करतीं। उन्होंने फोन सुनने आने वाले लोगों से 'मना’ करना भी बंद कर दिया था। किसी का फोन आता तो वह दौड़कर छत पर जाती और आवाज देकर बोलती, '...तुम्हारा फोन आया है। आकर सुन लो।’

यूं लगता था कि उन्हें रसोई और घर के बाहर कुछ मिल गया था। कुछ ऐसा जिसने उन्हें नए सिरे से पढऩा शुरू किया था। उनका बदलता मिजाज हर तरफ दिखाई देता। एक वक्त में वह सीढिय़ों और छत पर, बाहर आंगन और बरामदे में और घर के अंदर-बाहर सब जगह होती। किसी तितली की तरह। चहकती और मुस्कुराती हुई। हममें से कोई नहीं जानता था कि उन्हें क्या हो गया था। और सच कहूं तो जानने की कोशिश भी न करता। उस वक्त तक तो बिल्कुल भी नहीं जब तक कि चीजों ने खुद को स्वीकारे जाने का मुताब्ला करना शुरु नहीं कर दिया था।

अब्बू जी तीन दिन की जमात में गए हुए थे। उन्हीं तीन दिनों में से एक दिन भाई अपने एक दोस्त को घर लाया था। यह पहला मौका था जब भाई का कोई दोस्त घर आया था। चौड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें और लंबी नाक वाली यह साफ रंगत की एक खूबसूरत लड़की थी। छोटी कद-काठी और नीचे से कंटिग किए हुए सीधे लंबे बालों वाली। मुश्किल से ही वह भाई के कंधे तक आती थी। सबसे पहले अम्मी उससे मिली और फिर हम लोग। तभी हमें पता चला ता कि भाई रोज शाम को उसी से बात करते थे और वह उसकी गर्लफ्रेंड थी।

बाजी को अब इस सबसे कोई मतलब नहीं रह गया था कि घर में कौन आ-जा रहा है। वह अपनी ही दुनिया में मगन थी। एक ऐसी दुनिया में जिसका उस दुनिया से कोई मतलब नहीं था जो वह हम लोगों के साथ बरसों से जीती आ रही थी। पड़ोस की एक लड़की भी अब उनसे मिलने आने लगी थी। यह भी पहली बार ही था कि जब कोई बाहरी लड़की बाजी से मिलने आ रही थी। हालांकि अम्मी उस लड़की को पसंद नहीं करती थीं। उसकी मां रिश्ते कराने वाली थीं और अम्मी को लगता था कि उसके अंदर भी अपनी मां की-सी 'चालाकी’ है। इसलिए वह उसे 'चालाक लोमड़ी’ कहा करतीं। लेकिन बाजी पर अम्मी की इन बातों का कोई असर नहीं होता था। वह आसानी से उनकी बातों को नजरअंदाज कर देती। अब वह खुद मुख्तार हो गई थीं। जब चाहती उस लड़की को बुला भेजती और वह भी फौरन चली आती। बाजी उसे लेकर अंदर वाले कमरे, बरामदे या फिर छत पर चली जाती।

भाई की दोस्त अक्सर ही घर आने लगी थी। महीने दो महीने में वह एक बार आ ही जाती। अम्मी उससे मिलकर इस तरह मुस्कुराती जैसे उन्होंने पता नहीं क्या पा लिया है। वह सारा वक्त उसे अपने पास बिठाए रखतीं। अपने हाथ से बिस्कुट उठाकर देती। कभी-कभी छुट्टी वाले दिन वह हमारे साथ दोपहर का खाना भी खाती। भाई इस सारे वक्त में कम ही बोलता, लेकिन इन मुलाकातों की खुशी उसके चेहरे पर अलग ही दिखाई देती थी।

पहले बाजी की सहेली उनसे मिलने आया करती थी। अब वह खुद भी

उससे मिलने जाने लगी थी। कभी-कभी उन्हें वहां इतनी देर हो जाती कि ट्यूशन से लौटकर मुझे उन्हें बुलाने जाना पड़ता। अम्मी कभी मौहल्ले में किसी के यहां इज्तमा (धार्मिक मजलिस) में जाती तो उनके पीछे बाजी भी सहेली के यहां चली जाती। एक बार जब अम्मी इज्तमे से लौट रही थीं थे उन्होंने उस लड़की के साथ किसी लड़के को भी घर से निकलते देखा था। अम्मी के घर तक पहुंचने से पहले ही वे दोनों अपनी गली में मुड़ गए थे। और इससे पहले की अम्मी घर आकर उसके बारे में बाजी से पूछती वह लड़का उनके घर से ही चला गया था। अम्मी के पूछने पर बाजी ने कह दिया था, 'वह उसके चाचा का बेटा था। उसे बुलाने आया था।’

ये सब शुरुआती बातें थी। बाद में उन्हें कई ऐसी नाकाबिले यकीन जगहों पर देखा गया था जहां उनका होना कोई तसव्वुर भी नहीं कर सकता था। एक बार अम्मी ने उन्हें सड़क की तरफ से घर की ओर दौड़ते हुए देखा था। एक बार वह ऊपर वाली बाउंड्री से बगल वाली छत पर कूद गई थी। कई बार उन्हें फोन पर लंबी-लंबी बाते करते हुए देखा गया था। एक बार उस लड़की के साथ रिक्शा में बैठकर कहीं जाते हुए भी अम्मी बाजी का खिला हुआ चेहरा, चमकती आंखें और मुस्कुराते होंठ देखतीं तो उन्हें हैरानी के साथ-साथ परेशान भी होती। वह बाजी के चेहरे को शक भरी निगाहों से देखतीं और कुछ ऐसा तलाश करने की कोशिश करतीं जो उन्हें मिल नहीं रहा था। फिर एक दिन भाई ने उन्हें उस गुम हुई चीज का सिरा पकड़ा दिया। उन्होंने बाजार में बाजी को किसी के साथ बाईक पर बैठे देखा था। यह सुनते ही अम्मी आग बबूला हो गई। उनकी आंखें दहकने लगी और जिस्म कांपने लगा। हालांकि उन्होंने खुद को नियंत्रण में रखा और बाजी की चुटिया पकड़कर खींचती हुई उन्हें अंदर वाले कमरे तक ले गई और अंदर धक्का देकर बाहर से कुंडी बंद कर दी।

शाम को अब्बू जी घर आए तो दस्तूर के मुताबिक पानी का गिलास देने की जगह अम्मी ने उन्हें बाजी के बारे में बताया। अम्मी की बात सुनकर अब्बू जी के अंदर जैसे आग सुलग उठी हो। उन्होंने भाई की चमड़े की बेल्ट उठाई और कुंडी खोलकर दरवाजे को जोर से लात मारकर चौपट खोल दिया। वह अंदर घुस गए। हम बाहर खड़े रहे। घंटे भर बाद वह टूटी बेल्ट, पसीने से तर शरीर और धौंकनी की तरह चलती सांसों के साथ बाहर आए।

तीन दिन तक अम्मी का दिया हुआ खाना और एक गिलास पानी लेकर मैं उस कमरे में गया। वहां धुप्प अंधेरा था। सबसे अंदर होने के कारण उस कमरे में हमेशा अंधेरा रहता था। जब हममें से कोई उसमें जाते तो साथ में मोमबत्ती लेकर जाता। मैंने भी खाने की प्लेट और पानी का गिलास रखा और रसोई से मोमबत्ती जलाकर ले आया। धीरे-धीरे रोशनी होने पर कमरा अपने पूरे आकार में दिखने लगा। वहां कुछ खास नहीं था। सिर्फ दिवार से लगकर बिछी चारपाई पर रजाई और गद्दे रखे हुए थे। मैंने कमरे में नजर दौड़ाई और फिर एक कोने में बाजी को सिमटे-सिकुड़े बैठे देखा। उसके लंबे काले बाल बिखरे  हुए थे आरै जहां-तहां से फटे कपड़ों से नीली-लाल चमड़ी दिखाई दे रही थी। सच कहूं तो मुझे उस वक्त उसके पास जाते डर लगा। मैंने एक बार मुड़कर देखा। पास रखे स्टूल पर मोमबत्ती रखी और धीरे-धीरे उनके पास चला गया। घुटनों के बल बैठकर कपकंपाते हाथों से छूने की कोशिश करते हुए मैंने पुकारा, 'बाजी..!’

उन्होंने धीरे से चेहरा उठाया और मुझे देखा। वह मुझे देखती रही और फिर बाहों में भरकर सिसक-सिसकर रोने लगी।

महीने भर बाद ही बाजी का रिश्ता तय हो गया और उनकी शादी कर दी गई।

शादी की चहल-पहल के बाद जब भाईसाहब (बहनोई) बाजी को मिलने आए थे तब यह बात किसी से छुपी नहीं रह गई थी कि उनकी जोड़ी कितनी बेमेल थी। वह खूबसूरत, गबरू जवान, छह फुट लंबा, उसकी मजबूत कद-काठी को देखते हुए ही अब्बू जी ने दहेज में 'राजदूत बुलट’ दी थीं। बाजी इसके एकदम उलट। दरमियानी कद-काठी और सांवली रंगत वाली। हालांकि उनका नाक-नक्श बहुत सुंदर था। जिसके कोई मायने नहीं थे।

शादी के बाद बाजी जब भी घर आई हर बार वह पहले के मुकाबले ज्यादा कमजोर दिखीं। उनकी रंगत तो पहले ही सांवली थी अब काली नजर आने लगी थी। सुनाई आया था कि भाईसाहब बाजी को सांवली रंगत के कारण पसंद नहीं करते और उनकी सास-ननदें दूसरी चीजों को लेकर ताने कसती रहती हैं। एक बार जब बाजी नहाकर निकल रही थीं तो अम्मी ने उसके गर्दन और कंधे पर दांतों और नाखूनों के निशान देखकर पूछा था, 'यह क्या हुआ तुझे?’

उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया था। बस एक नजर अम्मी को देखा और फिर वहां से हट गई थीं।

इस पूरे घटनाक्रम की दरमियान लोगों ने हमारे यहां आना-जाना बिल्कुल कम कर दिया था। रिश्तेदारों को तो छोड़ों, पड़ोस की वे औरतें भी जिनका दिन में एक बार हमारा यहां आए बिना काम नहीं चलता था, वे भी अब आने से कतराने लगी थीं। अगर वे आ भी जातीं तो इस तरह तिरछी-तिरछी निगाहों से घर का जायजा लेतीं मानो किसी डरावनी जगह आ गई हों। उसके साथ ही वे अम्मी से बहुत संभलकर और फुसफुसाकर बातें करतीं। उनका यह बेतकल्लुफीपन जो वह अम्मी के साथ महसूस करती थीं खत्म हो गया था।

अम्मी लोगों के इस व्यवहार से झुंझला जातीं। इसके लिए वह बाजी को जिम्मेदार ठहरातीं। रात को जब हम खाने के लिए बैठते तो वह कहतीं, 'यह सब उस कमीनी की वजह से है। उसने हमारा मुंह पर कालिक पोत दी। अगर इतना ही यारबाजी का शौक था तो किसी कोठे पर जाकर क्यों नहीं बैठ गई? क्या बर्बाद करने के लिए मेरा ही घर मिला था उस करमजली को? इज्जत बनाने के लिए इंसान सारी जिंदगी लगा देता है और ये नासपिटी बेटियां एक पल में उसे धूल में मिला देती हैं। सही कहते हैं लोग बदजात औलाद से अच्छा इंसान बांझ रह ले, वो ठीक।’

यह मामला सिर्फ अम्मी के साथ ही नहीं था। अब्बू जी ने भी लोगों के व्यवहार में एक नई बात देखी। एक 'खिल्ली’ उड़ाने और अपमानित करने वाली बात। वह लोगों से कतराने लगे थे। मस्जिद भी कम ही जाते। घर पर ही नमाज पढ़ लेते, भाई के साथ भी यही था। उसने भी मौहल्ले के सभी दोस्तों से किनारा कर लिया था और बस कॉलेज और घर का होकर रह गया था।

लटके चेहरों और बेरौनक घर को देखकर अम्मी का गुस्सा फिर उबाल मारता और वह बाजी को कोसने लगतीं, 'मेरे अच्छे-खासे आबाद घर को बर्बाद कर दिया। कैसे हर वक्त लोगों से हरा-भरा रहता था और अब यहां चिडिय़ा भी पर नहीं मारती। मां-बाप का मुंह काला करके कौन सुखी रह सकता है भला? कोई नहीं।’

और वाकई बाजी सुखी नहीं थी। वक्त बीतने के साथ उन्होंने घर आना कम से कमतर कर दिया था। उनका फोन आना भी लगभग बंद ही हो गया था। भाई ही कभी-कभार भाईसाहब से बात करके खैरियत पूछ लिया करता। उन्हें गए हुए दो महीने हो गए थे। रमजान आने वाला था। शादी के बाद लड़कियां पहली ईद घर की ही करती हैं। अम्मी ने कहा था कि वे बाजी को रमजान में बुलाएंगी। लेकिन उनके फोन करने से पहले ही उधर से फोन आ गया था। अम्मी, अब्बू जी और भाई तीनों घबराए और बदहवास अस्पताल की और दौड़ पड़े। खबर थी बाजी ने तेल झिड़क कर आग लगा ली थी।

आंगन में बाजी का जनाजा रखा हुआ था। गुस्ल (नहलाने) देने वाली औरतों का कहना था कि जनाजा इस हालत में नहीं था कि उसे गुस्ल दिया जा सके। उनका सुझाव था कि जनाजे को बिना गुस्ल के ही दफन कर देना चाहिए। मौलाना ने उनके इस सुझाव को सख्ती से इंकार कर दिया। कहा कि जैसे भी हो वह जनाजे को गुस्ल दे दे। अगर पानी का इस्तेमाल नहीं हो सकता तो तयम्मुम (मिट्टी से) ही सही।

गुस्ल के बाद जनाजे को आखिरी बार देखने के लिए रखा गया। लेकिन किसी ने उसे देखने की हिम्मत नहीं थी। कई नौजवान लड़कियां उन्हें देखकर चीख पड़ी। कुछ औरतें बेहोश हो गई। कुछ ने चीख भरी रुलाई रोकने के लिए अपनी मुंह में दुपट्टे ठूंस लिए। कुछ बिना देखे ही वापस लौट गई।

मैं भी देखने गया। वह बहुत बहादुर और हिम्मतवाली औरते ने, जिसने खुद से ही देखने आने वालों के लिए जनाजे के सिर से कफन हटाने की जिम्मेदारी ले ली थी, कफन हटाया। मैंने देखा। नहीं, बस देखने की कोशिश भर की, क्या ये वही चेहरा है जो कभी बाजी का हुआ करता था? नहीं, ये वह नहीं था। यह तो एक कालक का ढेर था, जिसका कोई रूप-रंग या नक्श नहीं था। मैं उन्हें देख रहा था और खुद पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था। मेरा सिर चकरा रहा था और सहारे के लिए जनाजे के पलंग की बांही पकडऩे लगा। लेकिन मैं कुछ नहीं कर सका। एक ठंडी लहर मेरे जिस्म में दौड़ गई और मैं कंपकंपाने लगा। मेरी पैंट गीली हो गई और मैं वहीं ढह पड़ा।

बाजी के दफन के बाद उनके ससुराल वालों से बात शुरु हुई। अम्मी इस बात पर यकीन करने को तैयार नहीं थी कि बाजी खुद को आग लगा सकती थी। वह जानती थीं कि उनकी बेटी कभी भी इस तरह का कोई कदम नहीं उठा सकती थीं। उन्होंने बाजी की नेकनामी बहादुरी की मिसालें दीं। कहा कि सांवली होने के कारण ससुराल वालों ने उसे परेशान किया जिसके चलते यह कदम उठाया। अब्बू जी ने भी चेतावनी देते हुए कहा कि वे न केवल उन लोगों के खिलाफ दहेज हत्या का मुकदमा दर्ज कराएंगे साथ ही अपनी बेटी के कातिलों को जेल के पीछे भेजकर ही दम लेंगे।

लेकिन बिरादरी के जिम्मेवार लोगों ने ऐसा कुछ भी नहीं होने दिया। उन्होंने दोनों पक्षों को बैठाया और समझा-बुझाकर बीच की राह निकालने की सलाह दी। दोनों पक्ष राजी हो गए। कई दौर की बैठकों के बाद तय हुआ कि वे लोग दहेज के सारे सामान के साथ पांच लाख रुपये नकद देंगे। अब्बू ने जब यह बात अम्मी को बताई तो उन्होंने अल्लाह का शुक्र अदा करते हुए कहा था कि यह पैसा हमारे लिए 'आबादकारी’ होगा। इससे लोगों की नजरों में न केवल हमारी इज्जत बढ़ेगी बल्कि घर भी पहले की तरह आबाद हो जाएगा। अगर आप कुछ गलत करते हैं तो आपको उसका हर्जाना देना ही पड़ता। बस उसके नाम बदल जाते हैं। कोई उसे दियत कहता है, कोई हर्जाना, कोई कफ्फारा तो कोई कसास। अम्मी ने उसे नया नाम दिया था - आबादकारी।

बाजी की अपनी चाहतों के एवज में दी गई जान की कीमत से अपनी धूल में मिली इज्जत को वापस पाने के लिए अब्बू जी जिस दिन उस आबादकारी समझौते पर दस्तख्त करने जा रहे थे उसी दिन भाई अपनी एक्स गर्लफ्रेंड और अब नवेली बीवी के साथ हनीमून के लिए यूरोप जा रहा था।

समझौता हो गया था आरै उसके होने में तब्दीली भी आई थी। लोगों ने हमें देखकर फुसफुसा कर बातें करना बंद कर दिया था। अब वह पहले की तरह हमें या घर को हिकारत की नजरों से नहीं देखते थे। इसकी जगह उनकी नजरों में अम्मी और अब्बू जी के लिए एक सम्मान और चाहत की भावना आ गई थी। घर आने वाले लोगों का व्यवहार भी बदल गया था और साथ ही उनकी तादाद भी बढऩे लगी थी। औरतों द्वारा अपनी जवान होती बेटियों को दिए जाने वाला 'ताना’ भी बदल गया था। पहले वे कहती थीं, 'वे कोई हौर होंगे जो जवान बेटियों को ऐबदारी की छूट देते हैं, मैं तो काट के गाड़ दूंगी।’ इसकी जगह अब उन्होंने कहना शुरू कर दिया था, 'अगर ज्यादा तीन-पांच करेंगी तो अफरोज से भी बदतर हसर करवा दूंगी। उसके मां-बाप ने तो उसे ससुराल भी भेज दिया था। मैं तो घर से बाहर भी न जाने दूंगी।’

इतना सब होने के बाद भी चीजें उस तरह नहीं हुई थीं जैसा कि अम्मी ने उनके होने की उम्मीद की थी। समय को पीछे नहीं लौटाया जा सकता था। तार वाले फोन का जमाना कब का बीच चुका था। अब घर-घर में सस्ते सेल फोन आ गए थे। फिर लोगों की मसरूफियात भी बढ़ गई थी और जरूरतों को पूरा करने के साधन भी।

भाई को गए हुए एक अरसा बीत चुका था और हर बीतते दिन के साथ हम उसकी वापसी की कॉल का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। सबसे ज्यादा तो अब्बू जी। वह शाम को आते तो घर में घुसते ही उनका पहला सवाल होता, 'हुसैन की कॉल आई?’ अम्मी इंकार में गर्दन हिला देती।

एक दिन अब्बू जी अम्मी से यही बात कर रहे थे तो फोन की घंटी बज उठी। उस वक्त मैं फोन के पास बैठा था, लेकिन फोन उठाने की बजाय मैं वहां से उठ गया। मेरे उठते ही अब्बू जी आकर बैठ गए। उन्होंने रिसीवर उठाया और हैलो कहा। इसके बाद उन्होंने सलाम का जवाब दिया और फिर खामोश हो गए। जितने देर रिसीवर उनके कान से लगा रहा उतनी देर उनके चेहरे का रंग हर पल बदलता रहा। जब उन्होंने फोन रखा तो उनका चेहरा दर्द और गुस्से से इस तरह ऐंठा हुआ था कि जैसे किसी ने उनकी पीठ पर खंजर घोंप दिया हो।

हुसैन, मेरा बड़ा भाई और अब्बू जी की सबसे चहेती औलाद। जिसके लिए उन्होंने हर चीज को हाजिर-नाजिर रखा था। उसने जो कह दिया वह हो गया। शायद ही उसे कभी इंकार सुनने को मिला हो। वह उनका वारिस था। उसे ही उनके कंधे का बोझ अपने ऊपर लेना था। घर को संभालना था और कारोबार को बढ़ाना था। उसे ही अब्बू जी के उन सपनों को पूरा करना था जिन्हें केवल वे देख सके थे। उसने लौटने से इंकार कर दिया था। उसने बताया था कि उसे नीदरलैंड की एक यूनिवर्सिटी में स्कॉलरशिप मिल गई थी, जिसके लिए उसने शादी से पहले ही एप्लाई किया हुआ था। वह बहुत खुश था और उसने अम्मी-अब्बूू जी से भी खुश रहने के लिए कहा था।

वाकई यह खुशी की बात थी, लेकिन अब्बू जी इस खुशी को बर्दाश्त नहीं कर सके और एक रात सोते के सोते ही रह गए। अब्बू जी का यूं चले जाना हम पर किसी कहर के टूटने की तरह था। पूरी तरह अविश्वसनीय और अप्रत्याशित। हम समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर हो क्या रहा है? पहले बाजी। फिर भाई और अब अब्बू जी भी। घर में हम दो ही जन रह गए, अम्मी और मैं। अम्मी इद्दत में बैठ गईं और मैंने स्कूल छोड़ दिया। घर की जिम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी थी। मैंने दुकान पर जाना शुरू कर दिया।

घर बिल्कुल खामोश हो गया। जिन्नातों के डर से छोड़ दी गई किसी डरावनी इबादतगाह की तरह। सज्दे में पड़ी अम्मी की सिसकियां ही कभी-खभी इस खामोशी को तोड़ती थी। बाकी समय बेचैन रुहों की तरह हम उसमें यहां-वहां डोलते रहते। अम्मी अंदर वाले कमरों में और मैं छत पर या आंगन में।

वह अम्मी की इद्दत का दूसरा महीना था जब उनकी एक दूर की खाला की बेटी का फोन आया था। उसने बताया कि मामू जी का मदीना में हुए एक एक्सीडेंट में इंतकाल हो गया। एक्सीडेंट इतना वीभत्स था कि उनकी लाश को समेटकर यहां नहीं भेजा जा सकता था। मामू की मौत की खबर सुनकर नानी लगभग पागल हो गई थी। उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

अम्मी ने मुझे फोन किया और तुरंत घर आने को कहा। मैं घर पहुंचा तो वह सामान समेटकर कमरों में बंद कर चुकी थीं और बुर्का पहनकर तैयार थीं। हम दोनों साथ-साथ बाहर निकले। उनके हाथ में बड़ा-सा ताला था। दरवाजा बंद करने से पहले वह मुड़ी और एक नजर घर को देखा। उनकी आंखों से आंसू निकल आए। यह वही घर था जो कभी मस्जिदों से भी ज्यादा आबाद था और जिसके लिए उन्होंने आबादकारी समझौता भी किया था। लेकिन अब क्या? अब वह किसी कब्रिस्तान की तरह तन्हा और भयावह नजर आ रहा था। वह दरवाजा बंद कर रही थीं और एक मोटी,काली मकड़ी अंदर जा रही थी, उन्होंने ताला लगाया आरै सड़क की ओर चल पड़ी।

हम नानी के घर चले आए, हमेशा के लिए। यहां, इस शहर में।

 

 

शहादत: शहादत युवा कथाकार और अनुवादक हैं। उर्दू से हिन्दी तर्जुमा करते हैं। कुछ समय मशहूर 'रेख्ता’ के साथ काम किया है। संपर्क - मो. 7065710789

 

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