दुश्मन

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    जून - जुलाई : 2020
श्रेणी दुश्मन
संस्करण जून - जुलाई : 2020
लेखक का नाम नवनीत नीरव





कहानी

 

 

 

 

जब मैंने उसे पहली बार देखा तो वह अजीब-सा लगा। वह काला, ठिगना आदमी था। उसकी ललाट पर जले का निशान था। जिसकी वजह से उनकी शक्ल भद्दी दिखती थी। खाकी की तुड़ी-मुड़ी-सी ड्रेस उसे और बदसूरत बना रही थी। वह चुपचाप नाव की डेक पर खड़ा किनारे खिले जंगली बैंगनी फूलों को निहारे जा रहा था। वह 'खोला’ से मुझे और विजेश को लेने आया था। केंद्रपाड़ा के जिला कलेक्टर विजेश की रिश्तेदारी में थे। व्यवस्था उन्होंने कर दी थी। हमारी मदद के लिए फारेस्ट सेक्सन ऑफिस का यह गार्ड 'सहनी’ भी साथ था।

हाउस बोट मटमैली नदी की धार को चीरती सूरज की ओर बढ़ती चली जा रही थी। दूर तक फैली अथाह जल राशि पर मानों सोना पिघला हुआ था। उसकी खड़-खड़ कर चलने की आवाज वातावरण की शान्ति भंग कर रही थी। दोनों पाटों पर मैंग्रूव वन थे। दलदली जमीन पर पेड़ों की जड़ें खूँटियों-सी उग आई थी। कहते हैं ये पेड़ इन्हीं जड़ों से साँस लेते हैं। सदाबहार दलदल वाले इस जंगल के बादशाह शेर नहीं, मगरमच्छ हैं। खारे पानी में बहते किसी शहतीर के टुकड़े का भ्रम देते सुकून पसंद मगरमच्छ, या फिर नदी किनारे कीचड़ में लिथड़े पड़े। दलदली जमीन पर उनका लेटना इस तरह नमूदार हो रहा था मानों वे निष्प्राण हों। विजेश अपने कैमरे में उन सबकी तस्वीरें करने में व्यस्त था। बोट जब भी उनके समीप से गुजरती, उन निष्प्राण, उन निष्प्राण दिखने वाले मगरमच्छों के शरीर में अचानक हलचल होने लगती। वे झटपट पानी की ओर भागते। जैसे कोई अनहोनी घटने वाली हो। हमें बताया गया था कि गर्मियों में मगरमच्छ अंडे देते हैं। इस मौसम में पर्यटकों का आना निशिद्ध है।

उत्तर-पूर्व के जंगलों में बारिश ज्यादा होती है। वहाँ रहने वाले शेर पेड़ों पर चढ़ जाते हैं। तो दलदली जमीन के मगरमच्छ क्या कुछ करते होंगे? शंकाओं-आशंकाओं के मध्य रोमांच पुलिकित होता है। वैसे भी जंगल रहस्यों से भरे हैं। हम जिस अनजाने जंगल में प्रवेश कर रहे थे, वह हमारे अनुभव में कभी नहीं रहा। हम दोनों बेहद रोमांचित थे। मेरा अवचेतन हर क्षण जैसे कुछ रोमांचकारी घटित होने की प्रतीक्षा में था।

खोला से बीच-पच्चीस मिनट चलने के बाद हाउस बोट एक किनारे लगी। किनारे पर लकडिय़ों से बने मचान थे। सहनी ने बोट से एक बांस की सीढ़ी मचान पर टिका दी। पहले वह उतरा। पीछे हम भी उतरे। वह सामने से सीढ़ी पकड़े खड़ा रहा। मचान पर चलते हुए हम जंगल के प्रवेश द्वार तक पहुंचे। गेट के अंदर प्रवेश करते ही खुली जगह थी। लाल मिट्टी वाले रास्ते के दोनों ओर नारियल पेड़ों की कतारें थीं। दोनों ओर सघन जंगली झाडिय़ाँ और लताएँ चारदीवारी के मानिंद थीं। रास्ता संकरा और सीधा नजर आ रहा था। थोड़ी देर पैदल चलने के बाद हम गेस्ट हाउस के सामने खड़े थे। जंगल की बीच चुपचाप खड़ा मकान। कुछ मिनटों में हमने वहां ठहरने की औपचारिकाएं पूरी कर लीं। गेस्ट हाउस में हमारे अलावे कोई और मेहमान नहीं था। रिसेप्शन पर हमारी चाबियाँ हमें सौंपते हुए सहनी ने कहा

- ''कहीं भी अकेले नहीं जाना साहब इधर कदम-कदम पर खतरा है।’’ उसके स्वर में आग्रह था।

कदम कदम पर खतरा। बात कुछ समझ में नहीं आई थी। सहमति में सिर हिलाते हुए विजेश और मैं अपने कमरे में चले आए। गर्मी और उमस के गठजोड़ ने मौसम का मिज़ाज़ तीखा कर दिया था। जब विजेश ने अपना गीला टी-शर्ट निचोड़ा तो लोटे भर पसीना निकल आया। मैं उसे इंतजार का बोल झटपट नहाने के लिए बाथरूम में घुस गया।

तकरीबन पौने घंटे के बाद हम सहनी के साथ जंगल की ट्रेकिंग पर निकले। सुबह के नौ बज रहे थे। जंगल में आग बरसनी शुरू हो गई थी। धूप-छाँव के साथ उमस का खेल। पूरा जंगल झींगुरों की झनझनाहट से गुंजायमान था। नम जमीन पर जहाँ-तहाँ घास उगी हुई थी। जिनके बीच बेतरतीब रास्ते बने थे। जंगल में हर तरफ मानों संवलाया हुआ हरा अन्धकार व्याप्त था। दूर बारहसिंगों का एक युगल झुकी हुई डाल की पत्तियाँ चबा रहा था। विजेश ने अपना कैमरा संभाल लिया। देखते-देखते उनके तीन-चार क्लिक्स कर दिए।

अचानक गंदे पानी के गड्ढे में गहरे भूरे और बादामी धारियों वाला जंगली गोह अपनी जीभ लपलपाता दिखा। मुझे वह अजीब सा लगा। विजेश ने कैमरे का लेंस उसकी ओर कर दिया। वह थोड़ी देर तक हमारी ओर देखता रहा। फिर रेंगता हुआ पेड़े की जड़ों के अंदर चला गया। वैसे तो जंगल अपने मिलते आप में भरा-पूरा था। लेकिन हमें किसी और ही चीज की तलाश थी.., जो रोमांच पैदा करता हो... कोई जानवर, घटना या फिर कोई क्षण, हम आगे बढ़ते चले।

जंगल के भीतर खड़े बर्ड वाचिंग टावर पर चढ़ते हुए मुझे ऐसा लगा जैसे अपने शहर की पानी की टंकी पर चढ़ गया हूं। सहनी न जाने कितने पक्षियों के नाम गिनाता रहा, जो इस अभ्यारण्य में देखने को मिलते हैं। फ़िलहाल मुझे उस टावर से केवल पेड़ ही पेड़ दिखाई दे रहे थे। कोई पक्षी नहीं। विजेश अपने कैमरे से बगुले, किलकिला, कठफोड़वा और तोते के चित्र निकालने की कोशिश में था। सहनी उसे अलग-अलग दिशाओं में पक्षी दिखाता रहा। वह उसके साथ फोटो निकालने में तल्लीन हो गया था। मेरे मतलब की कोई चीज वहाँ न थी। मैं धीमे-धीमे टावर की सीढिय़ाँ उतर आया।

सीढिय़ाँ उतरते वक्त मुझे नीचे झुरमुट के बीच जल जमाव-सा दिखा। मैं उसकी तरफ आकर्षित हुआ। वहाँ की दलदली जमीन पर लाल केकड़े रेंग रहे थे। पास ही पानी में मछलियाँ तैर रही थीं। सुआपंखी रंग की जेब्रा डिजायन वाली मछलियाँ... कोमल और मासूम। पंखों को तेज से हिलाते हुए पानी में उनका इधर-उधर तैरना बहुत ही आकर्षक लग रहा था। मैं धीमे-धीमे अपने पंजों के बल पानी के ऊपर झुक आया था। एक छोटी मछली मेरे बिल्कुल पास आकर तैरने लगी थी। मैं अपलक उसे निहारता रहा। मछली को बिल्कुल पास तैरते देख सहसा उसे छूने की इच्छा हुई। मैंने अपनी ऊँगली पानी की ओर बढ़ाई ही थी कि ऊपर से सहनी की कड़क आवाज गूंजी -

- ''पानी के पास से हटो... खतरा हो सकता है।’’

आवाज की आवृति इतनी तेज थी कि सारी भावनाएं भरभरा कर गिर पड़ीं। दिल धक से रह गया। मैंने सिर उठाया। सहनी टावर से उतरता दिखा। मुझे क्षण भर के लिए गुस्सा तो बहुत आया। लेकिन सहनी की बात याद कर चुप रह गया। जिसे वह दुहरा रहा था...

- ''यहाँ पानी से दूर रहिए... कहीं भी मगरमच्छ छुपे हो सकते हैं।’’ कहते हुए सहनी आगे बढ़ चला। हम उसके पीछे-पीछे चले।

दोपहर हो चुकी थी। जंगल गर्मी बरसा रहा था। पेड़ों की छाँव भी इस गर्मी को कम करने में मददगार नहीं थी। मैंने शर्ट खोलकर कंधे पर रख लिया। शरीर पसीने से सराबोर था। जिस्म की त्वचा लाल-गुलाबी हो रही थी। मानों किसी गर्म चैम्बर में तापमान धीरे-धीरे शरीर जला रहा हो। हमारी चाल धीमी पड़ रही थी। बीच-बीच में हम इधर-उधर की बातें करने लगते थे। बातें करते वक्त हमारी आवाजें तेज हो जाती थीं। आवाजें तेज होने पर सहनी अपने होठों पर ऊँगली रखते हुए हमें चुप रहने का इशारा करता। उसका बार-बार निर्देशित करना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। सच कहूँ तो भीषण गर्मी और सहनी से अब हम चिढऩे लगे थे। बस एक लालसा हमें बीच जंगल में भटका रही थी अब तक... 'कुछ रोमांचक घट जाए।’

चलते-चलते वह अचानक एक जगह रुक गया। झुककर वह झाडिय़ों की ओर देखने लगा... फिर हमें भी रुकने का इशारा किया। मैंने इशारे से पूछा।

- ''क्या हुआ?’’

- ''आस-पास हाइना है...शशश’’

- ''हाईना... मतलब?’’ विजेश ने पूछा।

- ''लकड़बग्घा’’ मैंने कहा।

''शशश...’’ सहनी ने पुन: इशारा किया। हम दोनों एक पेड़ के तने के पीछे हो लिए। विजेश अपने कैमरे के लेंस सेट करने लगा। साँस लम्बी हो चली थी... धीमी भी। हम दम साधे हुए रास्ते की तरफ देख रहे थे। विजेश की एक आँख कैमरे के लेंस पर एकटक थी। रुमाल से बार-बार वह अपनी बायीं आँख के उपर सरक आते पसीने को पोंछ  रहा था।

अचानक एक मरियल कुत्ता जीभ निकाले हांफता गुजरा।

- ''सहनी... यही तुम्हारा लकड़बग्घा है?’’ विजेश ने व्यंग से पूछा। सहनी ने अजीब सा मुंह बनाया मैं हंस पड़ा।

- ''सुनो। हमें वापस गेस्ट हाउस ले चलो। बहुत हुआ। अब और नहीं करनी ट्रेकिंग।’’ विजेश ने कैमरे की लेंस पर कैप लगाते हुए कहा।

- ''जंगल में बहुत जानवर है... तेंदुआ दिखाता हूँ... टाइगर भी हैं।’’

- ''बकवास बंद करो। इतनी गर्मी में बेवजह अब नहीं घूमना। हम दोनों इस गर्मी में भुन जायेंगे।’’ मैंने तकरीबन चीखते हुए।

थोड़ी देर बाद हम गेस्ट हाउस में अपने-अपने बेड पर थे। गर्मी से हाल बेहाल हुआ जाता था। नहा कर हम अपने बिस्तर पर निढाल हो गए। नींद खुली तो रात के नौ बजने को थे।

डिनर टेबल पर विजेश ने कहा

- ''एक आयडिया है मेरे पास....’’

- ''कैसा आयडिया?’’ मैं अभी तक ऊँघ रहा था।

- ''रात में जंगल घूमने चलते हैं यार। कुछ भी एडवेंचरस तो नहीं रहा आज।’’

- ''ये ऐसा फितूर है तुमको। रात में घूमोगे? वह भी अनजान जंगल में। पागल तो नहीं हो गए।’’

- ''सही कह रहा हूँ। दिन की गर्मी तो धूमने नहीं देगी। कल भर का ही समय है।’’

- ''लेकिन रात में कहाँ जायेंगे।’’

- ''कहीं भी...!’’

- ''आस पास मगरमच्छ हैं। खतरा होगा।’’

- ''यार तू भी सहनी की तरह मत बोल। अब जंगल में आए हैं तो कुछ एडवेंचरस हो जाए...’’

थोड़ी देर बाद हम दोनों एक टॉर्च लिए जंगल के भीतर जाने वाले रस्ते पर थे। सहनी हमें देख न ले इसलिए हमने टॉर्च बुझाए रखने में भलाई समझी। जंगल रात को सोता हुआ नहीं लगता। झींगुरों की झंकार जारी थी। आस-पास धुप्प अँधेरा था। हाथ को हाथ न सूझे। दोनों तरफ ऊँची झाडिय़ाँ थीं। जिनकी ऊंचाई अँधेरे में कहीं विलीन हो जा रही थीं। हम अंदाजन एक कच्चे रास्ते पर बढ़ रहे थे। सामने की झाडिय़ों से कुछ महीन चमकदार रोशनियाँ दिख रही थीं। उन पर नजर पड़ते ही हम ठिठके। मैंने अनुमान लगाया कि जुगनू होगें। मैं विजेश को कुछ कह पाता कि उन चमकदार रोशनियों की संख्या बढ़ गयी। लगा जैसे बहुत सारी आँखें एक साथ हमें देख रही हों। विजेश ने हड़बड़ाहट में टॉर्च जला दी। झाडिय़ों पर रौशनी पड़ते ही जैसे भगदड़ मची हो। लगा टिड्डियों का दल एक साथ हवा में उड़ता हुआ तिर-बितर हो रहा हो विजेश लगभग चीख पड़ा। टॉर्च उसके हाथ से छिटक कर गिर पड़ी थी...

- ''रोशनी बंद कीजिए...’’ ये सहनी की आवाज थी। वह दौड़ता हुआ हमारे पीछे आया और लपक कर टॉर्च बंद कर दी।

- ''आप लोगों की वजह से हमारी नौकरी जाएगी।’’ वह हताश था और हांफ रहा था। विजेश को जैसे काठ मार गया। उसने एक साथ इतने सारे हिरणों को हवा में उछलते नहीं देखा था। थोड़ी देर तक वह बिना हिले-डुले खड़ा रहा। फिर सहनी के पास चला गया...

- 'सॉरी’ वह फुसफुसाया।

- ''आपको बताया था न कि जंगल खतरनाक है। वो भला हो कि मैंने आप लोगों को गेस्ट हॉउस से निकलते देख लिया था।’’

सहनी हमें कमरे तक छोड़ गया। जाते हुए उसने इतना भर कहा कि कल का दिन रोमांचक होगा। कहते हुए उसके होठों पर मुस्कान थी, वह पहली बार मुस्कुराया था।

सुबह तड़के सहनी के साथ हम दंगमाल रिसोर्स सेंटर देखने निकले। रिसोर्स सेंटर जगल के कोर में स्थिति है। सहनी ने बताया कि वह उधर ही रहता है।

इंटरप्रेटेशन सेंटर में खारे  पानी के मगरमच्छ के बारे में बहुत सारे पोस्ट और बोर्ड लगे थे। एक बड़े हॉल के बीचों-बीच लगभग तीस फुट के मगरमच्छ का साबुत स्केल्टन लगा था। सहनी ने बताया कि यह खारे पानी का सबसे बड़ा मगरमच्छ था। इंटरप्रेटेशन सेंटर से निकलने के बाद हम खुले में थे। हरे रंग की जालियों से बने बाड़ों के बीच।

रिसोर्ट सेंटर में ही बड़े तालाबों की बाडऩुमा घेराबंदी की गई थी। अलग-अलग बाड़े में मगरमच्छों की कई किस्में थीं। कुछ बाड़ों में उन मगरमच्छों को भी रखा गया था जो हिंसक हो चुके थे। जो नदी में या जंगल में दूसरे जानवरों पर हमला करते थे।

सहनी एक बाड़े के पास हुक वाला एक लम्बा डंडा लेकर गया। उसके पास बड़ा प्लास्टिक का डिब्बा भी था। हम बाड़े के नजदीक चले आये।

- ''ऑह... ऑह... ऑह...’’ सहनी अजीब तरह की आवाजें निकालने लगा। मानों वह किसी को बुला रहा हो। कुछ क्षण पश्चात एकसफ़ेद सिर पानी से निकला। सहनी ने प्लास्टिक के डिब्बे से एक केकड़ा निकाल कर डंडे में फंसा लिया। फिर उसे मगरमच्छ के ठीक सामने की जमीन पर पटक दिया, केकड़ा सरपट पानी की तरफ दौड़ पड़ा।

- ''ऑह... ऑह... ऑह...’’ फिर वही अजीब आवाजें।

अचानक मगरमच्छ पानी से निकलकर केकड़े पर टूट पड़ा। अब सिर्फ कचर-कचर की आवाजें थीं। विजेश हर क्षण को कैमरे में कैद करता जा रहा था।

- ''यहाँ मगरमच्छ के अण्डों को एकत्र करके रखा जाता है। अण्डों से निकलने पर बच्चे देख-रेख में बड़े होते हैं। फिर उन्हें नदी में छोड़ दिया जाता है।’’ तालाब से हटकर सहनी यह कहते हुए दूसरे बाड़े के अन्दर चला गया। बाड़ा ऊपर से भी जाली से ढँका था। मैंने अंदर झाँका। मगरमच्छ के बहुत से छोटे-छोटे बच्चे एक दूसरे पर पड़े हुए थे। आँके जैसे पानी की बड़ी बूँद किसी कांच पर रखी हुई हो। विजेश बाड़े के अलग-अलग कोनों से उनकी तस्वीरें लेने लगा।

- ''देखिए इसे...’’ सहनी बाड़े के अन्दर से एक बच्चे को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर ले आया। मैंने देखा सहनी की तर्जनी से खून निकल रहा था। मगरमच्छ के बच्चे  ने उसे काट खाया था। ऊँगली पर छोटे-छोटे दाँतों के निशान थे।

- ''इसने काट लिया, है न!’’ मैंने सहनी से जानना चाहा।

- ''इन विचारों को कहाँ मालूम है साहब कि मैं इनके प्रति क्या भाव रखता हूँ। कुदरत ने इसे ऐसा ही बनाया है। खुद के बचाव के लिए।’’ सहनी बड़ी सहजता से बोल गया। जैसे कुछ हुआ ही न हो।

मैंने डरते-डरते मगरमच्छ के बच्चे को छुआ। उसकी चमड़ी चिकनी और मुलायम थी। उसकी आँखें जैसे झपकना नहीं जानती हों। सहनी उसके पूँछ की नोक उसकी आँखों के पास ले आया। स्थिर पानी आँखें झट से बंद हो गयीं। सहनी वापस उसे बाड़े में छोड़ आया।

कुदरत ने हमें बनाया है। अनगिनत प्रजातियाँ बनाई हैं। सबके रंग-रूप रहन सहन तौर तरीके अलग-अलग। एक ही सृष्टि की उनके रचनाओं से हम ताउम्र अनभिज्ञ रहते हैं। रहस्यों के बीच जीते जाते हैं। उन्हीं के बीच मर जाते हैं।

कैंटीन के टी-काउन्टर पर खड़ा मैं इसी सोच में उलझा था। विजेश टेबल पर चाय का प्याला रखे कैमरे में ठीक से न खिंच पायीं तस्वीरें डिलीट कर रहा था।

सहनी चाय की चुस्कियों के साथ उसे देख रहा था।

- ''यार कुछ खास मजा नहीं आया...’’ चेहरे पर थोड़ी नरमी थी। विजेश ने मेरी तरफ देखते हुए कहा, मैंने सहनी की तरफ देखा। सहनी चुप रहा।

- ''सहनी भाई! अगर कुछ रह गया हो तो...’’

- ''इतना बड़ा जंगल है... बहुत कुछ देख सकते हैं।’’ सहनी ने कहा।

- ''नहीं कोई एडवेंचरस हो... कल के रात की तरह’’ विजेस की आँखें चमक उठी।

- ''एक जगह है...’’ सहनी रहस्यमयी मुस्कान मुस्कुराया।

- ''ले चलो न भाई!’’ विजेश अधीर हो रहा था।

स्टाफ क्वाटर्स के सामने से होते हुए हम पेड़ों के झुरमुट के बीच आ गए थे। एक जगह कचनार के तीन पेड़ एक सीध में खड़े थे। पेड़ों की जड़ों के पास मिट्टी का एक चबूतरा बना था। जिस पर कुछ फूल बिखरे थे। मैंने मन ही मन विचार किया कि कोई स्थानीय देवता होंगे... वन देवता या देवी टाइप उन वृक्षों के ठीक सामने खाली मैदान था। मैदान के किनारे पर खपरैल की छत वाला एक कमरे का पुराना सा घर था। घर के ठीक बाजू में एक बड़ा सूखा पेड़ था। जिस पर एक बाज बैठा हुआ था। विजेश ने अपना कैमरा उसकी ओर कर दिया।

सहनी ने हमें उस घर के समीप जाने को कहा। खुद मिट्टी के चबूतरे पर बैठ रहा। अब विजेश और मैं घर के सामने खड़े थे। घर में लकड़ी का दरवाजा लगा था। जैसा गाँव के कच्चे घरों में लगाया होता है। दरवाजे के ठीक ऊपर एक तख्ती टंगी था। जिस पर लाल रंग के टेढ़े मेढ़े अक्षरों में लिखा हुआ था - ''दुश्मन का घर’’।

- ''यह क्या अजूबा दिखाने ले आए सहनी!’’ विजेश चिल्लाया।

- ''दरवाजा खोलिये और देखिये।’’ मैं यहीं बैठा हूँ।

विजेश कैमरा मुझे थमाकर दरवाजे के सामने खड़ा हो गया। कुण्डी पर कोई ताला नहीं था। पल्ले सामने की तरफ़ खुलते होंगे। ऐसा मैंने अनुमान लगाया। विजेश ने कुण्डी हटाकर जैसे दरवाजा खोला...

-  ''हिस्स्स्....फुफ्फ्फ्फ़’’

- ''आह्ह्ह्’’ विजेश की चीख निकल गई। वह झटके से पीठ के बल उल्टा गिर पड़ा। सूखी हुई टहनी पर बैठा बाज पंख फडफ़ड़ाता उड़ गया। अब उसके पंखों की ध्वनियाँ ही शेष थीं।

सामने तकरीबन दो मीटर का कोबरा बड़ा सा फन फैलाए फुफकार रहा था। मानो वह विजेश को काट खाएगा। उसकी जीभ हवा में कलाबाजियाँ खा रही थीं... ''फुफ्फ्फ्फ़’’ विजेश असहाय सा जमीन पर पड़ा था। मेरे भी हाथ-पाँव फूल गए। मैं जोरों से चीख पड़ा।

''सहनी भाई... बचाना!’’

सहनी भागा-भागा आया।

''घबराओ नहीं। वह कुछ नहीं करेगा... दुश्मनी उसकी और मेरी है... आपकी नहीं।’’

उसने झटके से कोबरा को अंदर धकेला और दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी। विजेश को हम पेड़ों की छाया में चबूतरे तक ले आए। उसकी जान में जान आई। वह सहनी को भला-बुरा करने लगा।

- ''आपको तो एडवेंचर चाहिए था न! आप ये नहीं समझ पाए कि जंगल का जीवन एडवेंचर ही तो है।’’ कहकर सहनी मुस्कुराया।

- ''एडवेंचर माय फुट!.. उस कोबरा को कैद करके क्यों रखा है?... और दुश्मन का घर! कौन किसका दुश्मन है?’’ विजेश ने बदहवासी में ही ताबड़तोड़ कई सवाल दाग दिए।

सहनी ने लम्बी साँस भरी और मौन हो गया। उसका सिर आसमान की तरफ उठ गया था। आँखें मिचमिचा रही थीं। मानों नज़रों के सामने के चित्र धुंधले हो रहे हों... और वह स्मृतियों के नक्शों पर किसी सफ़र में निकल पड़ा हो।

बाबू साहबों के गाँव के मुख्य सड़क पर मुसहरों की टोली थी। कोई भी बस से उतरता तो मुसहर टोली से होकर ही गाँव के अन्दर जाता। कई पीढ़ी से इन मुसहरों के पुरनिया वहाँ की मिट्टी में दबे थे। समीप देवी स्थान भी था। खेतों में किसी भी फ़सल की जुताई-बुवाई हो या गाँव में किसी घर का काज-परोजन, मुसहरों की टोली हरदम मदद को तैयार मिलती। बदले में कभी मुट्ठी भर अनाज मिल जाता या फिर कभी जोड़ी-दो जोड़ी कपड़े। बाकि समय पूरे बधार और खलिहान में चूहे पकडऩा तो चलता ही। साथ ही हर शाम महुए से चुआ कर शराब बनती। हर शाम बाबू साहबों की भीड़ मुसहरटोली में रसरंजन के बहाने जुटती। देर रात तक हो हल्ला चलता रहता। इसी तरह मुसहर टोली की जीवन गाड़ी रेंगती। लेन-देन, अकाया-बकाया होता रहता। चूँकि गाँव का मामला था। कभी कोई कुछ कहता नहीं।

बाबू साहबों को एक बार आदर्श गाँव बनाने का ख्याल आया। बड़की दुआर पर पंचायत बैठी। मुसहर टोली के तुलसी सहनी अपने लोगों के साथ पंचायत में बुलाए गए। तुलसी चाहते थे कि बिरजू भी साथ आए। बिरजू का पिछले महीने गौना हुआ था। वह हर पहर अपनी 'मेहरी’ के साथ झोपड़ी के अंदर पड़ा रहता। मेहरी के शरीर से आती गंध उसे मदहोश किये रहती। उन दिनों उसे मेहरी के अलावे कुछ सूझता न था। वैसे भी टोला-गाँव-समाज के मामले में उसे दिलचस्पी न थी। वह सोचता था कि एक दिन मेहरी के साथ बम्बे कमाने चला जाएगा। बाकी बाबू साहबों का व्यवहार उसका देखा-समझा था।

उस दिन पंचायत में कई बातें प्रस्तावित हुईं। जिनमें से एक बात यह थी कि मुख्य सड़क के पास मुसहर टोली होने की वजह से गाँव आदर्श नहीं बन सकता। इसलिए इसे वहाँ से हटाकर 'सीवान’ पर बसाया जाएगा। तुलसी सहनी पर सहमत होने का दबाव बढ़ा। परन्तु वह अकेले कैसे पूरे टोली का फैसला दे सकता था।

- ''साहेब लोग, ई तो बेदखल करना हुआ न! कई पीढिय़ों से हम यहाँ रहते आए हैं।’’ ऐसी ही कोई बात तुलसी सहनी ने कही थी।

बाबू साहबों को इसमें पूरे पंचायत का अपमान लगा। बिना किसी फैसले के सभा ख़त्म हुई। सभी लोग अपने घर लौटे। सिवाय तुलसी सहनी के। बड़की दुआर पर उस अधेड़ को रस्सियों से बाँध कर रखा गया। बिना अन्न-पानी दिए। ताकि उस पर दबाव बनाया जा सके। देखने वाले बताते थे कि मंगल सिंह के बड़े बेटे ने तुलसी पर डंडे का प्रयोग भी किया था।

सूरज पश्चिम की ओर ढलने की फ़िराक में था। बिरजू अपनी झोंपड़ी से नहाने के लिए बाहर चापाकल पर निकला। किसी पुरनिया ने उसको तुलसी सहनी के बड़की दुआर पर बंधक बना लिए जाने की बात बताई।

- ''तू खाली मेहरी के साथे रह। तोरे बाबू को मार दीहें सब मिलके।’’

बिरजू को कुछ समझ नहीं आया कि क्या करे। वह चापाकल पर बाल्टी-लोटा छोड़ बड़की दुआर की तरफ भागा। दुआर पर तुलसी एक किनारे पर भूखे-प्यासे बंधे बैठे थे। पास की चौकी पर मंगल सिंह का बेटा डंडा लिए बैठा था। अपने बाबू की हालत देखकर उसे समझ नहीं आया कि क्या करे?

- ''बाबू के छोड़ावे आए हो। जब तक मुसहरटोली के गाँव से बाहर बसाए जाने पर सहमत नहीं होगा तब तक छोड़ेंगे नहीं।’’ कहते हुए उसने एक डंडा तुलसी सहनी की पीठ पर जमा दिया।

तुलसी सहनी को पिटता देख बिरजू ने न आव देखा न ताव। वह फौरन मंगल सिंह के बेटे पर कूद पड़ा। जाने उसके अन्दर कहाँ से हिम्मत आ गई थी। उससे डंडा छीन बिरजू ने उसके सिर पर जोर से प्रहार किया। उसका माथा फट गया। वह चौकी से नीचे गिरकर तड़पने लगा। बिरजू ने तुलसी सहनी को अपनी पीठ पर लादा और भागा-भागा मुसहर टोली पहुँचा।

- ''बिरजू को घर से भगा दो। बाबू साहब लोग इसको जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। उनको मुसहर टोली को उजाडऩे का बहाना भी मिल जाएगा।’’

टोले में अलग-अलग स्वर थे। सभी बिरजू पर मुसहरटोली छोड़कर भाग जाने का दबाव बना रहे थे।

उसी दिन की गोधूली बेला में तुलसी सहनी ने बिरजू अपने पास बुलाकर कहा - 'अपनी 'मेहरी’ के साथ यहाँ से कहीं दूर चले जाओ।’ उसने धोती के छोर में लिपटा एक पुराना पुरजा बिरजू को दिया। किसी रात एक अजनबी रास्ता भटक कर इस टोले में आ गया था। तुलसी के आवभगत से प्रभावित था। हालाँकि पता दूर का था। जहाँ किसी ने कभी जाने की नहीं सोची थी। विपदा आन पड़ी थी। ज्यादा सोचने का वक्त नहीं था। गाँव से अपनी मेहरी के साथ भागते बिरजू की आँखों में भयभीत पिता का चेहरा जड़ हो गया था।

कई रातें और कई दिन... मिलकर एक हो गए थे। उन्हें न भूख की चिंता थी। न प्यास की। पिता का चेहरा रह-रहकर आँखों में घूम जाता था। आखिरकार पुर्जे पर लिखा पता मिल गया।

वह किसी जंगल का रेंजर था। बिरजू ने उसे सारी राम कहानी कह सुनाई। रेंजर ने उस जंगल में बिरजू और मेहरी के रहने की व्यवस्था करा दी। जंगल को हाल ही में मगरमच्छों का राष्ट्रीय अभ्यारण्य घोषित किया गया था। बिरजू को गार्ड के अस्थाई पद पर काम भी मिल गया।

कई प्रकार के जीवों का आश्रय स्थल पर जंगल। जिसने बिरजू और उसकी मेहरी को आश्रय दिया था।

आबादी से दूर होने के कारण इंसान कम दिखते थे। फॉरेस्ट के कुछ कर्मचारी क्वाटर्स में थोड़े लोग रहा करते थे। गाँव में पली-बढ़ी की मेहरी कभी-कभी परेशान हो जाती। उसे अपना गाँव अपनी जगह बेतरह याद आता। रात घिरने के बाद जंगल अजीब-अजीब आवाजों से भर जाता। दिन में बिरजू के चले जाने पर खाली घर काटने को दौड़ता। शाम को जब बिरजू काम से लौट आता तो ही उसका चित्त स्थिर होगा।

बिरजू को ड्यूटी के बाद जितना भी समय होता मेहरी के साथ बिताता। मेहरी के लिए बिरजू, बिरजू के लिए मेहरी। कभी-कभी उनके बीच के वार्तालाप में गाँव-परिवार उभर आता। मुसहरटोली और तुलसी के साथ क्या हुआ होगा? शंका-आशंकाओं से घिरे दोनों खामोश हो जाते। लगता जैसे किसी विपदा ने फिर से दरवाजा खटखटा दिया हो। वह रात चुप्पियों में ही गुजरती।

मेहरी को क्वार्टर से बाहर झाँकने पर अजीबोगरीब पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ दिखतीं। कभी-कभी वह क्वार्टर के आस पास फूल-पौधों या फिर चीतल, खरगोश देखने के लिए निकल पड़ती। घंटों किसी जगह बैठ उन्हें निहारती रहती। उनकी आवाज़ें, उनके कौतुक उसके खालीपन को भरने लगे थे। मूक जानवरों से उसका लगाव बढ़ता जा रहा था। कभी-कभी वह जंगलों में बनी पगडंडियों पर दूर निकल जाती। बेपरवाह। बिना किसी भय के। धीरे-धीरे वह जंगल के साथ साम्यता बिठा रही थी।

कभी-कभी बिरजू उसे जंगल के मध्य पाले जा रहे मगरमच्छों को दिखाने ले जाता. लेकिन उसकी दिलचस्पी अपने आसपास की छोटी-छोटी गिलहरियों-तितलियों में होती। जिनसे उसका पुराना परिचय था... अपने गाँव से। क्या पता कोई गिलहरी या तितली उसी की तरह उसके गाँव से दूर इस जंगल में आ बसी हो। उनकी ही तरह। बिरजू को हरे घास पर नंगे पाँव तितलियों की पीछे भागती मेहरी किसी वन कन्या जैसी लगती। कभी-कभी उसे लगता कि मेहरी जंगल के सभी पेड़ों और छोटे जानवरों की भाषाएँ जानती है। छोटे-मूक जानवर बिना किसी भय के उसके पास चले आते थे। वह उनको निहारती-पुचकारती। उसके साथ खेलते वक्त वह बिल्कुल किसी बच्चे जैसी हो जातीं... निर्मल-निश्छल। वह अपनी किस्मत पर आश्चर्य करता। मेहरी से आलिंगन बद्ध होते हुए बिरजू को उसकी त्वचा सर्प की मानिंद चमकती लगती। उसे लगता कि मेहरी की छातियों पर जंगली बैंगनी फूल खिला हो। जितना रहस्यमयी उतना मादक। उन दिनों बिरजू मेहरी की मोहपाश में ही डूबता उतराता। गाँव में भी तो वह उसके साथ था। लेकिन न जाने क्यों वह उसके लिए इस अनजाने जंगल में अधिक आकर्षण महसूस कर रहा है। भविष्य में उनके प्रेम के प्रतिफल की जो भी कल्पना बिरजू करता, उसमें उसे मेहरी ही दिखती। मेहरी की ख्वाहिश बिरजू जैसी थी। भविष्य की इस कल्पना को लेकर उनके बीच नोंक-झोंक, प्रेम-मनुहार भी चलता रहता।

जंगल में मौसम बदल रहे थे। बीतता समय उन मौसमों की शक्ल ले लेता। फिर उसके साथ वह भी बदल जाता।

दूसरा बसंत दस्तक दे चुका था। मेहरी अक्सर कचनार के पेड़ों की तरफ निकल जाती। उन जंगली बैंगनी फूलों से उसे प्रेम हो आया था। बिरजू उसे जंगल में दूर न जाने की सलाह देता। लेकिन वह हर बार उसे अनसुना कर देती। उसी बसंत की एक निचाट दुपहरी वह क्वार्टर से निकली थी। पर देर तलक वापस नहीं लौटी। बिरजू ड्यूटी से आ चुका था। वह उसके लौटने का इंतजार करता रहा। इंतजार जब लम्बा खिंचने लगा तो वह आशंकित हुआ। जंगल में जानी-पहचानी हर जगह पर वह उसे ढूँढता रहा। दूर कचनार के पेड़ों के समीप की पगडंडी पर उसे मेहरी की लाश मिली। उसका समूचा शरीर नीला पड़ गया था। वह उसे अपनी पीठ पर लादकर झटपट फॉरेस्ट-डिस्पेंसरी की ओर भागा। डॉक्टर ने नब्ज टटोली। मेहरी अनंत यात्रा पर निकल चुकी थी। किसी कोबरा का दंश था।

बिरजू की तो समूची दुनिया ही छिन गई। सब कुछ जैसे झटके से ख़त्म हो गया। ख्वाहिशें, स्वप्न, उम्मीदें मानों हालात की ठोस शिला से टकराकर चकनाचूर हो गई थीं। उसके सिर पर समूचा आसमान गिर पड़ा था। कई दिनों तक उसे खुद की सुध न थी। वह सोचता है? क्या करता है? वीरान जंगल की सूनी पगडण्डी पर वह लट्ठ लिए उस कोबरा की तलाश में उस जगह भटकता रहता, जहाँ मेहरी गिरी मिली थी। उसे जीने की इच्छा भी नहीं थी। उसे जिन्दा सिर्फ एक मकसद रखे थी। वह खुद को बार-बार यकीन दिलता कि वह उस कोबरा को ढूंढ़ निकालेगा। यही बात हर पहर उसके मन-मस्तिष्क पर हावी रहती। काम-ड्यूटी सब बंद हो गए थे। वह विक्षिप्त सा हो गया था।

एक सुबह वह लडख़ड़ाते क़दमों के साथ अपने क्वार्टर से निकला था। उसी सूनी पगडण्डी पर अपनी धुन में खोया हुआ। बेतरतीब कपड़े... निस्तेज आँखें... उदास चेहरा। जैसे जीने की अब उमंग शेष न हो। सहसा एक फुफकार ने उसका ध्यान आकृष्ट किया। लडख़ड़ाते क़दमों को वह ख़ुद को संभालता इससे पहले किसी सांप ने अपने फन से उसके पैरों पर प्रहार किया... 'हिस्सऽऽ’। कोबरा जैसे बेचैन हुआ जाता था। बिरजू की आँखों के सामने मौत नाच गई। वह झटके से पीछे की तरफ उछला और घास पर गिर पड़ा। उसका सिर चकरा रहा था। कुछ क्षण में जब उसने होश संभाला तो महसूस किया कि उसके एक पैर की चप्पल गायब थी। उसने उठकर देखा कोबरा के साथ-साथ उसकी चप्पल भी घास पर सरक रही थी। शायद चप्पल कोबरा के दाँतों में फंस गयी थी। कोबरा घबराया हुआ भागने की कोशिश कर रहा था। बिरजू ने आव देखा न ताव, कोबरा को उसकी पूँछ से पकड़कर अपने क्वार्टर की ओर दौड़ लगा दी। कोबरा ने उसके हाथ में कुंडली कस दी। बिरजू उसे लेकर अपने रसोई घर में चला आया। वह चाकू से उसके टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहता था। उसकी चप्पल अभी भी कोबरे जबड़े में फंसी हुई थी। बिरजू ने उसके चपड़े से चप्पल छुड़ानी चाही। लेकिन असफल रहा। कोबरा पूरी ताकत से चप्पल अपनी ओर खींच रहा था। बिरजू ने भी पूरा जोर लगाया हुआ था। इसी खींचतान में अचानक चप्पल कोबरा के चबड़े से निकल गई। कोबरा ने झटके से बिरजू की ललाट पर डस लिया... हिस्सऽऽऽ। बिरजू लडख़ड़ाया। उसे लगा कि वह अब नहीं बचेका। उसने हिम्मत जुटाते हुए कोबरा को किसी तरह काबू में किया और आटे के डिब्बे में बंद कर दिया। फिर फौरन स्टोव जलाई और अपनी ललाट स्टोब की लौ पर रखकर जारों से चीख पड़ा था...

कुछ ही क्षणों में कितना कुछ घटित हो गया था।

मैंने देखा सहनी का हाथ उसकी ललाट पर चला गया था। वह अपनी उँगलियों से कुछ टटोल रहा था। लगभग पूरी ललाट जला हुआ था। जो उसे अधिक बदसूरत बनाता था।

- ''मेरी मेहरी इसी चबूतरे के नीचे दफ़न है। दुश्मन तो आपने देख ही लिया...’’ कहते-कहते वह चुप हो गया। जाने क्या कुछ सोचता रहा। एक चुप्पी छा गई। कुछ क्षण बाद जिसे भंग करते हुए वह खुद ही बोल उठा

- ''पहले सोचता था कि इसे जान से मार डालूँ... फिर सोचा कि अगर प्रेम को हम ताउम्र साथ लेकर चल सकते हैं। तो फिर दुश्मन को क्यों नहीं? मेहरी तो नहीं रही... अगर थोड़ी हिम्मत कुछ साल पहले कर लेता तो...’’

मुझे बिरजू सहनी की आवाज डूबती सी लगी। बात अधूरी रह गई थी। उसकी आँखों में तरल उतर आया था। उसने सिर झुका लिया। फिर अपने दायें पैर के अंगूठे से जमीन की मिट्टी कुरेदने लगा। विजेश और मैं चुपचाप उसे जमीन की मिट्टी कुरेदते देखते रहे।

वातावरण में तपिश बढ़ रही थी। सामने 'दुश्मन के घर’ से धीमे-धीमे, रह-रहकर दरवाजे पर चोट करने की आवाजें आती रहीं।

 

 

 

नवनीत नीरव की 'पहल’ में यह दूसरी कहानी है। धार्मिक अंध विश्वास और भेड़-चाल दुर्घटनाएँ उनका प्रिय विषय हैं। घटनाएँ उनकी कहानी का प्रमुख तत्व है। वे जोधपुर में हैं और भारती फाउंडेशन में जीविका है।

संपर्क- मो. 9116001168

 

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