छाया

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    जून - जुलाई : 2020
श्रेणी छाया
संस्करण जून - जुलाई : 2020
लेखक का नाम हरि भटनागर





कहानी

 

 

 

 

जवान लड़के की मौत के आघात से रामहरख ने अपने को किसी तरह सँभाल लिया, लेकिन बहू पर उसका कोई वश न था। बहू को जिस पल मृत्यु की खबर लगी, वह गश खाकर गिरी तो आज तक उठी नहीं।

रामहरख ने पड़ोसियों की मदद से लड़के को किसी तरह मिट्टी तो दे दी, उसे किनारे तो लगा दिया, लेकिन जवान बहू का क्या करे जो झुग्गी में अचेत पड़ी है...

रामहरख अभी एक माह पहले ही यहाँ, शहर में लड़के के पास, गाँव छोड़कर रहने आया था। पत्नी की मौत से वह गाँव में अकेला हो गया था। खेती-बाड़ी सँभलती न थी, लड़का शहर में सेंट्रिंग का काम करने लगा था। वह चाहता था कि बाप किसी तरह यहाँ आ जाए तो वह उसकी चिंता से मुक्त हो। बाप गाँव छोडऩा नहीं चाहता था- लड़के के दबाव के चलते वह उसके पास रहने आ गया था... कि एक दिन लड़का सेंट्रिंग लगाते वक़्त तीसरी मंज़िल से गिरा और चल बसा।

जब-जब रामहरख लड़के के ख्याल में डूबता पगला-सा जाता। दिल बैठने को होता, चक्कर आने लगते। वह तख़त के पावों को ज़ोरों से पकड़ लेता, लेकिन रोने के अलावा उसके वश में कुछ न था।

 

जिस दिन वह शहर आया, लड़का, नगीना भारी ख़ुश था। उसने बाप के लिए सेंट्रिंग की पटियों का अच्छा-सा तख़त बनाया था। उस पर मोटी दरी डाल दी थी। नया कम्बल ख़रीद लाया था। झुग्गी के बाहर, दरवा•ो के बाजू में मज़बूत छाजन तान दिया था। बाप को तख़त पर बैठाते हुए नगीना ने कहा था: अब सारी फिकर-चिंता छोड़ो! यह तुमारा ठीहा है, आराम करो यहाँ। सितारा तुमारा ख़याल रखेगी। गरमा गरम रोटियाँ देगी। चैन से पड़े रहो। मैं तो सुबह-सबेरे निकलता हूँ तो देर रात तक ही आ पाता हूँ...

रामहरख की आँखों से उस वक़्त ख़ुशी के आँसू बह रहे थे। सोच रहा था कि उसकी घरवाली ज़िन्दा रहती, वह भी साथ आती तो कितना अच्छा होता!

-अम्मा का दु:ख निकाल दो दिल से। जो हो गया सो हो गया, वह लौटेगा नहीं।

उस रात रामहरख जब तख़ते पर लेटा, पूर्णिमा की चाँदनी चारों तरफ़ बरस रही थी। ऐसी स्वच्छ, पारदर्शी और जादुई चाँदनी कि पोखर में अपनी छवि दिख जाए। ऐसी कि सूई में धागा डल जाए। यही नहीं, आईने में अपने को निहार लो।

रामहरख उठकर बैठ गया।

एक नज़र में, नगीना की बस्ती का जो नक़्शा रामहरख के दिमाग़ में बना, वह यह था: शहर की मुख्य सड़क के बड़े से पुल से जिस पर से होकर पानी की पाइप लाइन गुज़री है, दाहिने हाथ मुडऩे पर कच्ची सड़क थी जो सीमेंटेड नाले तक गई थी। नाले पर एक अत्यंत सँकरी पुलिया थी। पुलिया के बग़ल में पान की एक गुमटी थी। पुलिया पार करते ही बाएँ हाथ पर, नाले से सटी जो बस्ती थी, वह नगीना की बस्ती थी जिसे 'गंदी बस्ती’ का नाम दिया गया था। बस्ती के मुहाने पर कचरे का ढेर था जो दूर से बदबू का भभका मारता। सूअरों और कुत्तों की जिसमें अमूल्य खाद्य सामग्री छिपी हुई थी। बदबू का भभका पार करते ही जो झुग्गी सामने थी, वह नगीना की थी। यहीं से झुग्गियों का अबूझ संसार षुरू होता था। बीच में उभरी हुई पक्की सड़क थी। झुग्गियों के आगे लोगों ने बोरों-पन्नियों से घेरकर शौच-स्नान के लिए 'बाथरूम’ बना रखे थे।

नगीना की झुग्गी से दस झुग्गी छोड़कर बाएँ हाथ पर हैंडपम्प था जहाँ अनगिनत डिब्बे-बाल्टियों की पाँत हर वक़्त लगी रहती। लोग अपने-अपने बर्तनों को लाइन में लगाकर चीख़-चिल्लाके बतियाने लगते। जिसकी बारी आती वह हैंडपम्प चलाता और पानी भर के निकल जाता।

नगीना की झुग्गी के पीछे सीमेंटेड नाला था जो बदबूदार कीच से भरा था। लोगों ने उस पार जाने के लिए पुलिया के सँकरे रास्ते के अलावा जगह-जगह पटरे और लचकदार बाँस जमा रखे थे जिन पर डगमगाते वे आवाजाही करते। पास में पीपल का विशाल पेड़ था जिसकी डगालें चारों तरफ़ फैली थीं। बच्चों ने रस्सी और साइकिल के ट्यूब डगालों से बाँध के लटका रखे थे जिन्हें पकड़कर वे करतब दिखाते हुए झूलते या झूलकर उस पार कूद जाते।

चाँदनी में नहायी नगीना की यह बस्ती रामहरख को बहुत ही ख़ू बसूरत लगी। दूर कहीं पेड़ों पर बैठे पंछी यदा-कदा बोल उठते थे। उनके पंख फडफ़ड़ाने की रह-रह आवाज़ें आतीं। पीपल पर असंख्य जुगनू डोल रहे थे। कोटर में दुबका बैठा उल्लू भी गूँजदार आवाज़ में 'हूँ’ बोलकर अपने होने का एहसास करा रहा था...

झुग्गी के अंदर से बहू-बेटे के प्यार की अबूझ साँसों की गंध जब रामहरख के कानों से होती हुई फेफड़ों में गूँजी- रामहरख अपनी पत्नी के ख़याल में डूब गया।

दूर कहीं, यकायक कुत्तों का समूह एक-एक कर रोने लगा- रामहरख ने करवट बदली...

*

सुबह जब उसकी नींद खुली- नगीना काम पर जा चुका था। नाक तक घूँघट काढ़े सितारा ने उसे स्टील के गिलास में चाय और बड़े से जग में पीने का कुनकुना पानी दिया।

-दादा, आराम से चाय-पानी पियो, चाय और भी है गंजी में, माँग लेना।

सुबह की ख़ुशनुमा धूप चारों तरफ़ फैली थी। रामहरख ने मुँह खोलकर उसमें पानी डालके गट-गट पिया और गरम गिलास को गमछे में दबा के झुग्गी के पीछे, नाले की ओर बढ़ गया।

नाले की दीवार पर दूर-दूर तक बैठे छोटे-बड़े बच्चे झाड़ा फिर रहे थे। कुछ बच्चों के सामने उनकी माँएँ थीं जिनकी धोतियों को वे मज़बूती से पकड़े अपने काम में व्यस्त थे। नाले पर रखे पटरे पर लोग आ-जा रहे थे। एक आदमी हाथों में साइकिल टाँग कर निकल रहा था। पास की एक झुग्गी से दसेक साल का एक लड़का निकला। झुग्गी से निकलने से पहले उसने टटरा हटाया फिर बाहर निकल कर लात मार कर टटरा भेड़ दिया। वह वरमुड्डा पहने था और लाल टी-शर्ट। नंगे पैर था। यकायक उछलकर उसने डगाल से लटकी रस्सी पकड़ी और हवा में लहराने लगा।

चाय का गिलास थामे रामहरख यूँ ही टहलता हुआ सँकरी पुलिया तक आया। सामने पान की गुमटी थी जो गुटखा-तम्बाखू के पाउचों से ढँकी थी। उनके बीच पानवाला था जो मुँह में बेतरह पान ठूँसे हथेलियाँ रगड़के तम्बाखू बनाने में मशगूल था। वह गंजा था और काफी लम्बा। आँखें बड़ी-बड़ी थीं और रहस्यमयी जिन्हें देखकर लगता कि चलता-पुर्जा है। दिन भर वह पान बेचता लेकिन सारी झुग्गियों का भेद उसके पास था। पूछने पर सबकी जन्मकुण्डली निकालकर रख देता। कह सकते हैं, वह सी.सी. कैमरा था जिसमें बस्ती की सारी हलचल कैद थी।

रामहरख को देखते ही वह उत्साह से बोला- आप नगीना के बाबू हो, ख़ुशी हुई कि आप आए। नगीना पता नहीं कब से आपको अगोर रहा था... मेरा पक्का दोस्त है, बिना मिले यहाँ से जाता नहीं। $खैर, आप यहाँ मस्ती से रहो, कछू चिंता न करो। यह गुमटी आपकी है। पान-खैनी तमाखू जो मन हो, हाजिर है... कहकर वह हँसने लगा। उसकी आँखें भी हँस रही थीं।

रामहरख ख़ुश हुआ। सोचने लगा, देखने से तो यह छँटा बदमाश लगता है, मगर अपने से क्या मतलब। जो भी हो, यह एक ऐसी जगह है जहाँ वह आ सकता है, वक़्त गुज़ार सकता है। बैठने का ठीहा तो मिला।

*

लड़के की मौत से बढ़कर बहू का चिंता है रामहरख को इस वक़्त। समझ न आता कि क्या करे। जिसने जो भी सलाह दी, उसने पूरी की। डॉक्टर और वैद्य को दिखलवाया। दोनों ने ढेर सारी दवाइयाँ लिख दीं और कहा कि सदमे की वजह से बंदी अचेत है। ठीक हो जाएगी धीरे-धीरे। गाँठ में जो भी लेई-पूँजी थी- क्रिया-करम में स्वाहा हो गई थी। अब उसके पास कुछ न था। उधार से कब तक गाड़ी खिसकेगी? आने वाले दिन कैसे गुज़रेंगे?- भारी सिर लिए जब वह लेटता तो सारी रात आसमान ताकते गुज़र जाती। गहरी अँधेरी रात, मच्छर-झींगुरों का हल्ला उस पर उल्लू की भयावह गूँज- ऐसा मनहूस माहौल खड़ा होता, लगता कोई अनहोनी घटने वाली है... घबराकर वह उठ बैठता। बहू की आहट लेना चाहता। सोचता, आहट लेकर क्या होगा? वह अंदर ज़मीन में अचेत पड़ी होगी। कपड़ों तक का भी ध्यान नहीं रहता उसे। एक बहुत बड़ा सहारा उसे आस-पास की जवान-अधेड़-बूढ़ी औरतों का था जो उसे सँभाले हुए थीं। होश में लाने के लिए वे तरह-तरह की हिकमतें अपनातीं; लेकिन कोई हिकमत काम नहीं आ रही थी। एक अधेड़ औरत पता नहीं कहाँ से एक दिन जड़ी-बूटियों का काढ़ा ले आई। उसने काढ़े को राम-बाण बताया और सितारा के मुँह में धीरे-धीरे ढरका दिया...

संभवत: काढ़े का असर था, दवा या अन्य हिकमतों का, सितारा उस दिन सुबह होश में आ गई। होश में आते ही वह उस अधेड़ औरत से जिसने उसे काढ़ा पिलाया था और उस वक़्त उसका माथा सहला रही थी- लिपटकर नगीना को याद करके बेतरह रोई। अधेड़ औरत भी उसके साथ रोये जा रही थी और सब ठीक हो जाने का ढाँढ़स बँधाती जा रही थी...

रामहरख की देह में जैसे प्राण लौट आया हो- ख़ुशी में वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।

दूसरे दिन जब सुबह की गुलाबी धूप चारों तरफ़ फैली थी, नल पर पानी भरने वालों का हल्ला था, झुग्गियों के पीछे, नाले पर क़तारबद्ध बच्चे झाड़ा फिर रहे थे, पीपल की डगाल पर एक कण्ठीवाला तोता धीरे-धीरे चलता, चोंच में हरा पत्ता दाबे यकायक उड़ा, ठीक उसी वक़्त रामहरख ने देखा, सितारा उँगलियों से मंजन करती, काँख में कपड़े दबाए बोरे-पन्नी से ढँके बाथरूम में घुसी।

जिस गति से वह बाथरूम में घुसी, उसी गति से निकलकर अंदर झुग्गी में आ गई। झट-पट उसने कपड़े बदले। तैयार हुई।

बाहर वह अधेड़ औरत उसका इंतज़ार कर रही थी जिसके साथ होश में आने पर वह सितारा से लिपटकर रोई थी- रामहरख को समझते देर न लगी। ज़िन्दगी तो चलानी है, कोई कब तक पिट्टस करेगा? सितारा ने कई घरों में झाड़ू-पोंछे, बर्तन और कपड़े धोने के काम सँभाल लिए थे और रामहरख को सरेख दिया था कि अब वह घर की तनिक भी चिंता न करे और न ही छोटे-मोटे काम करने की फिकर। उसकी बहू घर को पटरी पर ला देगी और उसका पूरा ख़याल रखेगी।

और आने वाले दिनों में सितारा ने सचमुच घर को पटरी पर ला दिया था और उसका पूरा ख़याल रखा।

रामहरख ख़ुश था और निश्फिकर।

लेकिन उसकी ख़ुशी और निश्फिकरी लम्बी उमर नहीं पाई। उसमें सूराख होता नज़र आया जिसने उसकी नींद उड़ा दी।

बात यों हुई कि उस दिन दोपहर को जब सितारा काम पर गई थी, टटरा सरकार रामहरख खैनी मुँह में दाबे नाले के किनारे-किनारे चलता, पानवाले की गुमटी तक आया। पानवाला मोटरसाइकिल की सीट से टिके खड़े एक नवयुवक के लिए गुटखा बनाने में लगा था। वह कोई रहस्य-सा लिए मुस्कुराते- सिर हिलाते हुए ज़ोर-ज़ोर से उस नवयुवक से बातें भी करता जा रहा था। उसकी चंचल आँखें और मुँह में ठुँसे पान उसके रहस्य को और भी गहरा बना रहे थे।

रामहरख को देखते ही पानवाला अचानक चुप हो गया। एक झटके में उसने रहस्य को अपने अंदर घोंट-सा दिया।

रामहरख को दाल में कहीं काला नज़र आया, शक हुआ कहीं सितारा को लेकर मिस्कौट तो नहीं चल रही है, इसलिए पूछा- कैसे हो भाई? बहुत चहक रहे थे, अचानक चुप क्यों हो गए?

मोटरसाइकिल वाला नवयुवक सहसा चला गया। जाते-जाते उसने तम्बाखू खाई और सिगरेट का ढेर-सा धुँआ उगला।

पानवाला धुँए को तीखी निगाह से देखता जैसे अपने को निर्दोश साबित कर रहा हो, संजीदा होकर बोला- कछू नहीं बाबू! आजकल के लौंडे बहुतै हरामी हैं- इनसे भगवान बचाए!

- क्या हुआ? रामहरख ने पूछा।

- कछू नहीं बाबू, क्या होयगा! कहते हुए उसने रामहरख की ओर हथेली में रगड़ी तम्बाखू बढ़ाई।

रामहरख ने अनमनेपन से चुटकी में तम्बाखू दबाई। रहस्य जानने को वह आतुर था।

- ज़माने का रंग ठीक नहीं है मालिक!- पानवाला थोड़ा गहरे उतरता, रामहरख को मंतव्य समझने का संकेत दे रहा था, इसलिए उसने आगे फिर कहा- क्या है बाबू, आजकल के लौंडे जो भी करें, थोड़ा है, इनसे सावधान रहने की ज़रूरत है...

इसी बीच कई सारे नवयुवक आ गए जो एक-दूसरे को अंधाधुंध गंदी-गंदी गालियाँ बकते हुए ज़ोर-ज़ोर से बातें कर रहे थे। पानवाले को उनके लिए खैनी और पान बनाकर देने थे- वह काम में उलझ गया।

मन में पानवाले का संकेत पकड़े रामहरख जब अपनी झुग्गी के पास पहुँचा, ठीक उसी वक़्त उसे मोटरसाइकिल की सीट से टिके उस नवयुवक का ध्यान आया। वह यही नवयुवक था जिसने सुबह उसकी झुग्गी के आगे बहुत ही झटके के साथ ज़ोरों का ब्रेक लगाया था- जैसे मोटरसाइकिल के आगे कोई बच्चा आ गया हो। ऐसा उसने किसी मस्ती में डूबकर किया था। मोटरसाइकिल रोककर उसने, सीट पर बैठे-बैठे, तिरछा होकर आईने में अपने को निहारा और उँगलियों से बाल सँवारने लगा। गाड़ी उसने बंद नहीं की थी। यकायक उसने चाबी घुमाई। गाड़ी बंद की। फिर तुरंत ही चाबी घुमाई और गाड़ी स्टार्ट कर दी- ऐसा करते हुए वह रामहरख की झुग्गी की ओर देखता जाता जैसे किसी को ढूँढ़ रहा हो। रामहरख से नज़रें टकराने पर उसने यकायक जेब से मोबाइल $फोन निकाला और किसी से ज़ोर-ज़ोर से बतियाने लगा यह शिकायत करता कि तू कहाँ है, मैं यहाँ गंदी बस्ती में हूँ कितना इंतज़ार करवाएगा...

ठीक उसी वक़्त सितारा झुग्गी से निकली। आज उसके संग रोज़ जाने वाली वह अधेड़ औरत न थी।

यकायक नवयुवक भारी उल्लास में भर उठा। मानो इंतज़ार करने वाला उसका साथी आ गया हो। इसी बहाव में उसने मोबाइल $फोन जेब में डाला। और तेज़ी से आगे बढ़ा। जब वह सितारा के पास पहुँचा, गाड़ी काफी धीमी थी। उसने सितारा के समानान्तर चलते हुए सितारा को लुब्ध निगाहों से देखा...

- ओह!!! रामहरख के मुँह से एक घुटी-सी चीख निकली- तो यह है रामलीला!!!

उस रात रामहरख सो न पाया। पूरी रात गहरी साँसें छोड़ते, करवट बदलते गुज़री। बार-बार पानवाले की रहस्यमयी आँखों, उसकी सांकेतिक बातों का वह सूत्र पकडऩा चाहता लेकिन सूत्र पकडऩे से पहले ही हाथ से फिसल जाता। मोटरसाइकिल वाला नवयुवक भी बार-बार ज़ोरों का हॉर्न बजाता, आईने में अपने को निहारता, बालों में उँगलियाँ फेरता, सितारा को ललचाई नज़रों से देखता दिखाई पड़ता। पानवाले की रहस्यमयी मुद्रा और मोटरसाइकिल वाले नवयुवक की ओछी हरकत यकायक फाँसी का फंदा बन जाती और उसके गले को कसने लगती। बचाव में वह चिल्लाता लेकिन मुँह से आवाज़ निकल नहीं पाती।

सुबह जब वह उठा, सितारा चाय और पानी लिए खड़ी थी।

- दादा, रात में आप चीख़-चिल्ला रहे थे, तबियत तो ठीक है?

रामहरख बोला- हाँ, तबियत चंगी है। मैं तो रात भर मज़े से सोया। गहरी नींद में।

- आप ज़ोर-ज़ोर से किसी पानवाले और मोटरसाइकिल वाले को गंदी-गंदी गालियाँ दे रहे थे।

सितारा के कहने पर रामहरख ने कहा: अरे! सपने आ रहे होंगे। जब से नगीना गया है, अंडबंड सपने आते हैं- क्या बताऊँ?

सितारा ने पहली बार नाक के ऊपर घूँघट खींचा जो आँखों के नीचे ही था, कहा- मैं दूधपीती बच्ची नहीं हूँ दादा! आप मेरी फिकर न करो। मैंने नगीना के साथ जो दिन-समय गुज़ारे हैं- वह मेरे जिनगी भर के लिए काफी हैं। मैं उसी के सहारे जिनगी काट लूँगी। मैं कहीं भटकने वाली नहीं। रही आपकी बात, आप बिल्कुल फिकर न करो। आप बने रहो- मैं सब कुछ सँभाल लूँगी। ईश्वर ने नाव में बैठाया है तो वह किनारे भी लगाएगा। छोटी-बड़ी बिपत आएगी, उससे मैं डरने वाली नहीं।

रामहरख शर्म से लाल हो गया। आँखें नीचे झुकीं तो झुकती चली गईं। सितारा उसके अंदर की हलचल को ताड़ गई है- यह बात उसे बेधने लगी। वह तख़ते पर बैठ गया, फिर लेट गया- नाहक वह शहर आया। अच्छा-ख़ासा पड़ा था वहाँ। यह दिन तो न देखना पड़ता। उसका यकायक मन बना कि वह गाँव भाग जाए, लेकिन वहाँ अब वह टिक पाएगा?

सितारा एक क्षण चुप रहकर आगे बोली- जहाँ मैं काम करती हूँ, आप वहाँ के चक्कर क्यों लगाते हो? यह सब क्या है? मुझपे आपको तनिक भी भरोसा नहीं है? जबकि मैं कह चुकी हूँ कि अब मुझे किसी का हाथ पकडऩे की ज़रूरत नहीं...

रामहरख का दिल छलनी हुआ जा रहा है। वह रोने लगा, ज़ोर-ज़ोर से छाती कूटने लगा।

*

 

बहुत ही ख़राब दिन थे रामहरख के। अपने को उसने छाजन-तख़ते में समेट लिया था। लज्जा के मारे वह कहीं निकलता भी नहीं था। सितारा से आँखें मिलाते भारी शर्मिन्दगी महसूस होती। सितारा चाय-पानी-खाना दे जाती, सब तख़ते के नीचे पड़ा रह जाता। वह उनकी तरफ़ देखता ही न था।

सितारा भी गहरे अफसोस में थी। एक दिन उसने गीली आवाज़ में कहा- दादा, जो हुआ सो हुआ, भूल जाओ। इंसान से भूल-चूक होती है। किसी बात की गिरह न बाँधो...

जमी ब$र्फ पिघल गई। रामहरख ने सितारा को आँसू भरी निगाह से देखा मानों क्षमा-याचना कर रहा हो।

रामहरख ने तय किया कि सितारा को लेकर वह अपना मन ख़राब नहीं करेगा। कल्मश नहीं लाएगा। कोई कितना भी कुछ भिड़ाए- वह अनदेखी करेगा। उसने यह भी तय किया कि वह पानवाले के पास भी नहीं फटकेगा...

लेकिन कोई कब तक अपने को घर में कैद रख सकता है। उस दिन रामहरख को घर से निकलना ही पड़ गया। खैनी-तम्बाखू कुछ न थीं। तलब ऐसी कि वह उसे पानवाले के पास घसीट ले गई।

पानवाले ने उसे आता देख, दूर से हाँक लगाई- अरे, आओ, आओ दादा! हम तो आपको ही अगोर रहे थे। कहाँ चले गए थे- तबियत तो फिट-फाट है न?- एक क्षण चुप रहकर वह आगे बोला- आप नहीं दिखे तो फिकर होने लगी... ये हीरो, पैसा दो, पैसा। उधार नहीं चलेगा। खाला की दूकान नहीं है- वह सहसा ज़ोरों से हँसा- कुछ लोग खाला की दूकान समझ लिए हैं- पूरे पचास रुपये हुए, परसों के तीस रुपए- कोई हमें जुल्ल नहीं दे सकता, हम रामहरख दादा थोड़े हैं...

पानवाला जिस नवयुवक से बीच में बतियाने लगा, दरअसल उसके बहाने मोटरसाइकिल वाले नवयुवक की किसी बात को चुहल अंदाज़ में जुबाँ देना चाह रहा था जो सीधे-सीधे सितारा से जुड़ी थी, इसलिए आँखें मटकाकर रामहरख से बोला- है न दादा बात सही?

रामहरख को लगा पानवाला उसे ज़लील करने के लिए नया कंपा डाल रहा है। डपट अंदाज़ में बोला- क्या कहना चाहते हो तुम?

- कछू नहीं मालिक! हम क्या कहेंगे- वह अनजान बना। फिर भी एक विषबुझा तीर छोड़ा- अब तो दुनिया बोलेगी। हम क्या खाके बोलेंगे!

- क्या बोलेगी दुनिया? रामहरख जलती आँखों प्रश्नवाचक था।

पानवाला हँसा। हँसते वक़्त उसके मुँह से पान-तम्बाखू के बारीक़ ज़र्रे सामने आ गिरे- यही तो मैं आपको समझा रहा हूँ- आप समझ ही नहीं रहे हैं?

-क्या नहीं समझ रहा हूँ? रामहरख और कर्रा हुआ।

पानवाला फिर हँसा। आँखें हँसीं। होंठ हँसे। मुँह से ज़र्रेबह निकले- हम नहीं कहते ज़माना कहता है!!!

- क्या ज़माना कह रहा है?- रामहरख ने गुस्से में ज़ोरों का मुक्का उसके पटरे पर दे मारा जिससे पान भरा हण्डा, तम्बाखू के कई सारे डिब्बे-डिबिया और जार अपनी जगह से उछल पड़े।

वह बोला- गुस्साओ नहीं, बाबू! आप तो छोटी-छोटी बात में रिसाय जाते हैं। हम तो फ़िल्मी गाने में मज़ा खोज रहे हैं- लो ये गाना सुनो।

उसने मोबाइल $फोन सामने रख दिया जिसमें गाना बज रहा था- हम नहीं कहते ज़माना कहता है!!!

थोड़ी देर में पानवाले ने मोबाइल $फोन बंद कर दिया। कहा- बाबू, आप लड़के की मौत से परेशान हैं, ठीक है, परेशान हों- लेकिन सवाल है कब तक परेशान रहेंगे? ये दुनिया है रोने से नहीं चलती! ये लो पान खाओ! हम तो हमेशा ख़ुश रहने वाले इंसान हैं, ऐसी शकल नहीं बनाते कि लगे जैसे मँुहै पर कूकुर मूत गया हो!!!

थोड़ी देर चुप रहने के बाद उसने बहुत ही सँजीदा होकर आगे कहा- सुनो, अब साफ़-साफ़ सुनो। हँसी-मज़ाक अपनी जगह, यह बात अपनी जगह। जिस लौंडे की बात हम कर रहे थे, वह अभी हमारे पास था- कह रहा था कि थोड़ी मदद कर दो, हम नगीना की चिडिय़ा को लेकर फुर्र होना चाहते हैं। हमने कहा, ससुर ऐसा करबो तो उधेड़ देंगे हम। यहीं पीपल की रस्सी से लटकाय देंगे। हमारे दोस्त की घरैतिन है, दोस्त नहीं है तो क्या हुआ? बोला- मारो या काटो अब हम उसे उड़ाय ले जाएँगे।

रामहरख को लगा कि वह किसी भी वक़्त गश खाकर नाले में गिर जाएगा।

*

 

एक दिन सुबह-सुबह जब रामहरख तख़त पर बैठा चाय पी रहा था और अंदर सितारा झाड़ू लगाने में लगी थी, अधेड़ औरत सितारा के पास अपने भतीजे का रिश्ता लेकर आई।

अधेड़ औरत ने पहले सितारा के काम की ख़ू ब तारीफ़ की क्योंकि जिन-जिन घरों में उसने उसको जमवाया, सभी मुक्त कण्ठ से सितारा के अच्छे काम की तारीफ़ कर रहे थे, फिर उसने धीरे से कहा- कब तक तू यूँ ही बैठी रहेगी। आदमी को पेट और जिसम की भूख मिटानी होती है। नहीं, दुनिया इधर की उधर हो जाए। मैं तो कहती हूँ तू शादी कर ले और आराम से परिवार बसा ले- कहकर उसने अपने भतीजे का हवाला दिया जो कारपेंटर था, अच्छा बाँकुरा जवान है, अच्छे पैसे पीटता है, यहीं इसी शहर में है, कहीं जाना नहीं पड़ेगा- मैं सब जमवा दूँगी।

सितारा ने सहज भाव में उससे कहा- मैं अब किसी पचड़े में पडऩे वाली नहीं हूँ। गृहस्थी बसाना गुलामी जैसा होगा। एक के साथ जो सुख मिला, ज़रूरी नहीं दूसरा भी वह सुख दे...

अधेड़ औरत यकायक गुस्से में आ गई, बोली- बड़ा ज्ञान बघार रही है तू! अगर ऐसा है तो लोग घर ही न बसाएँ! दुनिया ही ख़तम हो जाए... बड़ी आई है... दो पैसे क्या पाने लग गई; दिमाग़ ख़राब हो गया है- कहकर अधेड़ औरत ने सितारा पर एक लाँछन जड़ दिया। कहा- तू कलोनी में लाला के घर जाती है, उसी ने तेरा दिमाग़ ख़राब किया है- ख़ू ब पैसे देता है, तभी ऊँचे बोल बोल रही है- उसी की छाया में गर्रा रही है- छाया न होती तो ज़बान न खुलती तेरी...

अधेड़ औरत गुस्से में आग, तिड़ककर झुग्गी से बाहर निकली कि बाहर खड़े रामहरख से टकरा गई। रामहरख कुछ बोलता कि वह जलती आँखों बोली- सँभाल अपनी बटेर को, नहीं, उड़  जाएगी, फिर रोटियों के लिए झंखता फिरेगा, कोई पुछत्तर न होगा... बड़ी आई सती सावित्री की...

उसने तमक कर कमर के नीचे हाथ रखा और बहुत ही गंदी गाली दी।

सितारा जब तक क़र्रा जवाब देने के लिए झुग्गी से निकलती, वह धोती सँभालती पक्की सड़क पर दौड़कर भाग गई।

रामहरख सिर थामकर बैठ गया। ज़रूर कहीं न कहीं दाल में काला है, तभी यह औरत तीखा बोलकर गई। ज़रूर सितारा किसी की छाया पकड़े है। छाया न होती तो इसके इरादे इतने बुलन्द न होते। जहाँ रामहरख इस बिन्दु पर सोचता, वहीं वह उस बिन्दु पर भी विचार करता जिसमें वह अपने बलबूते पर रहकर जीवन जीना चाहती है जिसमें वह उसे भी दूर करना नहीं चाहती।

रामहरख इसी तर्क-वितर्क की उधेड़-बुन में आहत होता रहा। कभी वह तर्क के पलड़े को सही मानता, तो कभी वितर्क के पलड़े को। इन्हीं के बीच पलझाया वह एक दिन पानवाले के पास आ खड़ा हुआ।

पानवाले ने आँख मारकर कहा- कहो मालिक, क्या रंग-ढंग है? कैसी उड़ रही है पतंग!!!- संकेत में बोलने वाला यह श$ख्स अब सीधे-सीधे लण्ठई पर आ गया था। यकायक ज़ोर से ठठाकर हँसा, फिर सिर हिलाता, आँखें चमकाता, संजीदा होकर बोला- मालिक, एक बात ज़रूर कहूँगा कि वह ऐसन-वैसन पतंग नहीं है। बड़े मजबूत कन्ने की है। ऐरे-गैरे नत्थू खैरे के हाथ न आएगी। खुली हवा और मजबूत मंझा पकड़ेगी जो नाले में नहीं, आसमान में ले जाए... वह फिर हँसा- यही हम उस चूतिया लौंडे को समझाय रहे थे, मगर भैया तुफैल में हैं, समझतै नहीं, आगे-पीछे दौड़ रहे हैं... दौड़ो...

यकायक उसने कई सारी गुलेरियाँ मुँह में ठूँसते हुए रामहरख से भारी स्नेह में डूबकर कहा- दादा, क्या ऐसो नहीं होय सकत कि पतंग की डोर आप खुदै थाम लेव! सबरा मामलै ख़तम हो।

रामहरख ने पानवाले को गुस्से से देखा।

पानवाले ने छाती पर हाथ जोड़ लिये, कहा- कसम मालिक की, ऊपर वाले की, हमने तो दिल की बात कह दी। आप अब तनक भी गुस्सा न हो। कठोर बात जो लगती है, वह हित की ही होती है। हम आपके दुश्मन तो नहीं- घर की मैना घर में रहे तो क्या गुनाह! एक बार बोल के तो देखौ! नहीं, यहाँ लाख कमीन बैठे हैं उड़ाय ले जाने को। अच्छे-अच्छे फँस जाते हैं, फिर वह तो ग़रीब, सताई स्त्री है, उसके अंदर भी तो रहम है, दिल है, मुहब्बत है, रस है। सच कह रहा हूँ कि नहीं मालिक! भरोसा तो करो मेरा। एक बार बोल के तो देखौ। हो सकता है, बात बन जाए। दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है आज! लोग घर भी बसाते हैं, नहीं भी बसाते हैं- साथ रहने से काम चला लेते हैं- मज़ा तो यह है कि आज उमर बेमानी हो गई है। लोग दिल के अंदर धड़कता इंसान चाहते हैं जो जीने-मरने को तैयार हो- धोखा न दे! धोखा ही है जो घर तोड़ रहा है, इसलिए बंधन आज बेमानी हैं। मालिक, हम तो कहते हैं, एक बार अरदास करबे में क्या जाता है- करके देख तो लो। •यादा होगा गुस्सा करेगी, थूकेगी ऊपर, थूक लेन दो। यह तो परसताव है- माने न माने।

पानवाले ने जो विचार-सूत्र रामहरख को दिए- उसमें गहरी सच्चाई छिपी थी! सितारा फर्र हो गई तो क्या करेगा वह? कौन सँभालेगा उसे? गाँव की ज़मीन जिनके सहारे वह छोड़ आया है, क्या उसे सुरक्षित मिल जाएगी? नहीं, क़तई नहीं। वह गई हाथ से। कमज़ोर मेेड़ को छोटी-मोटी बारिश भी बहा ले जाती है। यहाँ भी कुछ नहीं है। कोई काम-धंधा मिलने से रहा। ऐसे में पानवाले की सलाह उसे पूरी तरह सही लगी; लेकिन क्या ऐसा हो सकता है? वह सितारा जिसने अधेड़ औरत का परसताव नहकार दिया और मेहनत के बल-बूते पर जिनगी जी रही है- उससे अपनी बात कह सकता है? ज़रा भी हियाव है? फिर वह उसकी बहू ठहरी, बेटे की बहू! क्या सोचेगी मन में!

- क्या सोच रहे हो मालिक?- पानवाले की बात उसके कानों तक नहीं पहुँची। वह द्वन्द्व में था।

सँकरी पुलिया पार करता वह आगे बढ़ा। कचरे के ढेर के पास मोटरसाइकिल वाला नवयुवक खड़ा था, सीट के सहारे। कान पर वह मोबाइल फोन लगाए किसी से कह रहा था कि वह उसके लिए ही साँस ले रहा है- रामहरख को उसकी बात कानों में तेजाब-सी जलती पड़ी।

जब वह टटरे के पास पहुँचा, सितारा बाहर बैठी बर्तन घिस रही थी।

-क्या हुआ दादा! हैरान-परेशान लग रहे हो?- सितारा की बात का उसने कोई जवाब न दिया।

-लो चाय पी लो- तख़ते पर था जब सितारा गिलास लिए खड़ी थी- अच्छा लेट जाओ, आपकी तबियत ठीक नहीं है, लेट जाओ, चाय बाद में पी लेना...

आँखें मूँदे वह लेटा था, खोलीं तो सामने कचरे के ढेर से बचते लाला आते दिखे। वह बदबू से बुरा-सा मुँह बनाए हुए थे, किन्तु सितारा को सामने बैठा देखा तो बहुत ही ख़ुश दिखने लगे।

-चाबी देने आया था- ख़ुशी के बहाव में वे बोले- खाना बनाके रख देना, मुझे कहीं जाना है...

सहसा पड़ोस की झुग्गी से किसी के खुसफुसाने की आवाज़ आई जो लाला और सितारा के ढँके-मुँदे रिश्ते से जुड़ी थी।

रामहरख ने यह खुस-फुस साफ़सुनी, ताज्जुब था कि सितारा उससे पूरी तरह बेअसर थी जैसे उसने कुछ सुना ही न हो। इसके उलट लाला को देखकर वह ख़ुशी से फूली नहीं समा रही थी। 

रामहरख $गुस्से से भर उठा किन्तु दूसरे पल जब उसे पानवाले की दी गई सलाह का ख़याल आया, उसका गुस्सा शान्त था। वह सोचने लगा, उसे फालतू बातों से अपना दिमाग़ ख़राब नहीं करना चाहिए। किसी पर शक करना बेमानी है। उसे तो सिर्फ अपने वज़ूद की फिकर करनी चाहिए। इसके लिए विनती-परसताव किसी माने में ग़लत नहीं है। कौन है जो उसे बचा सकता है? दो रोटी दे सकता है? सितारा ही ऐसा कर सकती है। इसके लिए आगा-पीछा क्यों? शर्म-लिहाज काहे की?

इन्हीं विचारों पर सोचते-सोचते उसने प्रस्ताव करने का मन बना लिया।

अपनी बात कहने के लिए उसने कई तरह के रास्ते अपनाए। किसी भी रास्ते पर चलते हुए वह सितारा के सम्मुख अपनी बात कहने का साहस नहीं जुटा पाया।

अंत में उसने भाँग का सहारा लिया जो उसे पानवाले ने मुहैया कराई। क्योंकि वह ख़ुद भी भाँग का परम सेवक था। भाँग ही है, भोलेनाथ की प्रदान की गई औषधि जो भोलेनाथ की तरह ही हर इच्छा की पूर्ति करती है- मनवांछित फल प्रदान करवाती है। उसके सेवन से वह अपनी बात बेधड़क कह सकेगा।

अपनी बात खुलकर कहने के लिए रामहरख ने भाँग के एक गोले का नहीं वरन् दस गोले का सहारा लिया। जीवन में उसने पहली बार भाँग खाई थी। भाँग इतनी जल्द असर करेगी- उसे अनुमान न था। पानवाले के पास से वह तेज़ गति से चला, लेकिन ऐसा लगा जैसे दिमाग़ सुन्न हुआ जा रहा है, पैर आगे नहीं बढ़ रहे हैं, वह एक तरफ़ को गिरने को हो रहा है। वह सँभला, एक पल को बैठ गया, फिर तुरंत ही उठ खड़ा हुआ। वह गंतव्य तक यथाशीघ्र पहुँच जाना चाहता था। यकायक उसे ज़ोरों की प्यास लगी। पानी की तलब हुई। सहसा पेट में कुछ खदबदाने लगा- और ऐसा लगा जैसे कोई जलती लपट पेट से ऊपर उठी और हलक तक आई और हलक तक आते-आते मुँह, नाक, कान, आँख और दिमाग़ की शिराओं को बेतरह जलाने लगी- क्या हो रहा है उसे? क्या हो रहा है उसे? वह बोलना चाह रहा था लेकिन एक शब्द न फूटा।

वह टटरे के पास आकर गिर पड़ा। उसकी आँखें खुली थीं- ज़बान पूरी तरह बंद थी।

सितारा ने देखा, रामहरख की आँखें खुली हैं जैसे उससे स्नेहसिक्तकुछ कहना चाह रही हों और न कह पाने की विवशता के चलते आँसू छोडऩे लगीं... फिर वे ऐसी जड़ हुईं जैसी उसने अपने पति की देखी थीं जिन्हें मीचते हुए डॉक्टर ने कहा था कि अब ये ठण्डा हो गया। ले जाओ। काम ख़तम है इसका।

सितारा ज़ोरों से रो पड़ी।

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निम्नवर्गीय समूहों की कहानियों के अप्रतिम कथाकार। गरीब गुरबों की जीवन कथाएँ लिखने में हरि भटनागर अपने समकालीनों में लगभग अकेले हैं। अवध के किसान मज़दूरों की जीवनी उन्हें भाती है। 'रचना समय’ का संपादन करते हैं। भोपाली नहीं बन सके।

सम्पर्क- मो. 09424418567

 

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