हत्याओं की कहानियों का कोई शीर्षक नहीं होता

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    जून - जुलाई : 2020
श्रेणी हत्याओं की कहानियों का कोई शीर्षक नहीं होता
संस्करण जून - जुलाई : 2020
लेखक का नाम मिथिलेश प्रियदर्शी





कहानी

 

 

 

 

कोई भी अपने परिवार और दोस्तों के लिए ख़तरनाक नहीं होता लेकिन बीमा पॉलिसी की तरह इसमें भी नियम और शर्तें लागू होती हैं। मैं कभी अपने परिवार और दोस्तों के लिए ख़तरनाक नहीं था। पर सच यह था कि फ़िलहाल मेरे कमरे में फर्श पर खुली आंखें और अधखुला सिर लिए जो आदमी बेजान पड़ा था, मेरा दोस्त था।

ख़तरनाक मैं कभी नहीं था, मुझसे बेहतर यह कौन जानता है। लेकिन पूर्व की गुस्से, भय और बचाव में की गयी कुछ कार्रवाइयों ने मेरी छवि को कुछ ऐसे गढ़ दिया था कि लोग मुझसे हर संभव तरीके से बचते थे। मुझे घर नहीं बुलाया जाता था। मैं शादी जैसे बड़े मौकों में भी लोगों की अतिथि सूची से गायब था। कहीं कोई संयोग से मिल जाता तो मुझे आश्चर्य होता, उसने शादी कब की, बच्चा कब पैदा किया। वे मुझसे मिलने आने से बचते थे। जन्मदिन, प्रमोशन या ऐसे ही जानबूझकर पैदा किये गए मौकों की पार्टियों में जब मैं उन्हें बुलाता, शराब के लती लोगों को छोड़ कोई नहीं आता। यह जानते हुए भी कि मैं नौकरी करता हूं, लोग कितनी भी बुरी स्थितियों में हों, मुझसे उधार नहीं मांगते। मैंने अपने तईं सब करके देख लिया था। लोगों से जब भी मिलता माहौल को खुशनुमा बनाने के लिए बेज़रूरत हंसता। उन्हें पहले से रटकर रखे गए चुटकुले सुनाता। खाना बनाने की जाने कितनी विधियां मैंने उनके लिए सीखी थीं। लेकिन मुझे लेकर लोगों के मत इतने दृढ़ थे कि किसी पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ा था।

एक तो यह झा समाज की वजह से भी था जिसमें मैं पैदा हुआ था। इसमें लोग एक दूसरे से ऐसे जुड़े हुए थे कि मैं कितने भी नये शहर में चला जाऊं, मेरे पहुंचने से पहले मेरी प्रोफाइल पहुंच जाती थी। हर कोई किसी न किसी तरह एक-दूसरे को जानता था। इस समाज का कोई अगर गलती से मेरी कम्पनी में निकल आता, फिर यह संघर्ष कई गुना बढ़ जाता. एक दिन लंच ब्रेक में ऑफिस की एक लड़की ने जिससे मेरी नजदीकियां बढ़ रही थीं, जो आगे आने वाले शनिवार की शामों में मेरे बियर मग की साझीदार बन सकती थी, हंसकर पूछ दिया, ''विजय तुमने बचपन में एक सांड का मर्डर किया था? इज इट ट्रू?’’ मैं बस हंस दिया। मुझे हंसता देख अपनी आंखें आखिऱी हद तक बड़ी करते हुए उसने कहा, ''हाऊ क्रूएल यू आर..दे आर जस्ट लाइक आवर गॉड।’’

चार दिनों बाद ऑफिस की ऐसी ही एक दोपहर उसी टेबल पर नूडल्स की लडिय़ों को सुलझाकर खाते हुए उसने पूछा, ''सॉरी विजय, बट आई हर्ड योर यंगर ब्रदर डाइड इन एन एक्सीडेंट?’’ यहां से सात सौ मील दूर एक छोटे से शहर में करीब बारह साल पहले हुई एक अंजान मौत की बाबत एक चंडीगढ़ की लड़की मुझसे बिना किसी संदर्भ के यह पूछ रही थी। मैं जानता था, यह सब उसे कौन बता रहा था। वह अकाउंट सेक्शन में दरभंगा का कोई राहुल झा था, जो शुरुआती दो दिनों के उत्साही हाय-हैलो के बाद मुझे देखकर रास्ता बदलने लग गया था। मैं उसे नहीं जानता था। मैंने कहा, ''हां...वह मेरा छोटा भाई था। रेलवे पुल से एक ट्रेन के सामने कूद गया था।’’ मैं उसका चेहरा देख रहा था। वह मेरे जवाब से शायद संतुष्ट नहीं थी और जैसे कुछ और पूछना चाहती थी पर कोई ठीक वाक्य नहीं मिल पाने की वजह से चुप थी।

ऑफिस के ठीक नीचे फुटपाथ पर एक शाम जब मैं लाल मिर्च की तीखी चटनी में लिथड़े गर्म मोमो खा रहा था, वह वहां से गुजरी। मैंने उसे मोमो खाने के लिए आवाज़ दी। वह पलटी, मुस्कुराई और आंखों से ही मना करके आगे बढ़ गयी। मैंने कहा, ''नीरू एक तो खा लो। इसका स्वाद तुम्हें तुम्हारे घर तक पहुंचा देगा।’’ वह आ गयी। कुछ मिनट यूं ही मोमो वाले लड़के को देखती रही, फिर बोली, ''मैंने सुना विजय, तुमने एक पुलिसवाले को मारा था?’’ इसके पहले कि मैं मुस्कुराता या इंकार में सिर हिलाता या चौंकता या चेहरे पर कोई दूसरे भाव लाता, उसने कहा, ''इज ही अलाइव ऑर डेड?’’ पता नहीं क्या हुआ कि मुंह में लगी लाल चटनी की आग अचानक दिमाग ने पकड़ ली। मैंने मोमो सहित पेपर प्लेट फेंक दिया और उसकी कलाई पकड़ कर कहा, ''न वो ज़िन्दा है न मरा है, ग़ायब हो गया। क्यों राहुल ने नहीं बताया..पूछना उससे?’’ वह अवाक् थी और जैसे कलाई छुड़ा भाग जाना चाह रही थी। मैंने कहा, ''और अपने छोटे भाई को भी पुल से नीचे मैंने ही धकेला था। और सुनो, उस सांड को भी मैंने ही मारा था।’’ मैंने उसकी कलाई छोड़ दी। उसने अपनी कलाई पर पड़ी मेरी उंगलियों के निशान देखे और डरकर भाग गयी।

यह मेरा कोई पहला अनुभव नहीं था। नीरू तो तब भी किसी पिता सरीखे दरोगा की तरह पूछताछ कर रही थी। कुछ तो मुंह पर ही कह देते कि तुमसे डर लगता है। शादी के लिए आये एक परिवार के मुखिया ने मेरी मां को लगभग डांटते हुए कहा था, ''बताइए..लड़के के बारे में हमलोगों को इतने अंधेरे में रखा गया?’’ वह दांतों से जीभ काट रहा था, अपने दोनों कान छू रहा था। बोला, ''बाल-बाल बच गए। बेटी के साथ अनर्थ हो जाता।’’ जाते हुए उसने मुझसे धीमे से कहा था, ''तुम अब तक बच कैसे गए बाबू?’’

लोगों की अफवाहों ने मेरी शादी नहीं होने दी थी। जाने कैसे लोगों को मेरे बारे में पता चल जाता। और बात बनते-बनते बिगड़ जाती। ऑटोमोबाइल की नौकरी में किसी से प्रेम होने की उम्मीद बहुत कम थी। यह संयोग था कि मुझे इस कम्पनी में नीरू मिल गयी थी। लेकिन उस घटना के बाद नीरू से मांगी गयी कई माफियों के असरहीन होने और ऑफिस के हर गॉशिप में मेरे प्रसंग शामिल होने के बाद से मन बहुत विचलित हो गया था। यह विचलन तब अपने चरम पर चला गया जब कम्पनी ने एक साथ तीन सौ लोगों को निकाल दिया। तीन सौ में मैं और नीरू भी थे। कम्पनी की गाडिय़ां नहीं बिक रही थीं और हमें देने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। इसका अंदेशा हमें पिछले साल से था और जब यह हुआ, मेरी जिंदगी नेटवर्क चले जाने के बाद डिब्बा बने किसी मोबाइल की तरह हो गयी थी।

मुसीबतों ने जैसे मेरा पता जान लिया था। नौकरी जाने के बाद सबसे बड़ी उलझन थी लोन चुकाने की, जो गाज़ियाबाद में एक फ्लैट बुक करने के लिए लेना पड़ा था। वर्तमान फ्लैट का किराया, बुक किये गए नये फ्लैट का लोन, खाना और बियर, मुझे कम से कम पैंतीस हज़ार रुपये हर महीने चाहिए ही चाहिए थे। फूटे बाल्टी से पानी रिसने की तरह बचत खाते से पैसे निकलते जा रहे थे, जिस पर मेरा कोई नियंत्रण नहीं था। नौकरी के सिलसिले में लोगों से मिलने मैं सुबह ही निकल पड़ता। पर मुझे देखते ही न्यूनतम से लेकर अधिकतम जान-पहचान वाले भी छिप जाते। जिन्हें मैं पकडऩे में सफल होता वो मुझसे भी ज्यादा दयनीय शक्ल बनाकर कहते, वो भी कब तक काम कर रहे हैं, उन्हें नहीं पता।   

मैं अचानक बेकार और खाली हो गया था। झाड़ू लगाने, जींस धोने, सब्जी भूनने में घंटों लगाता। आठ-आठ सीजन तक फैले उबाऊ वेब सीरिज देखता। पर समय इतना बहुतायत में था कि ख़त्म ही नहीं होता। जिस सोमवार से मुझे मच्छरों से भी ज्यादा चिढ़ थी, अब कब गुजर जाता पता भी नहीं चलता। शनिवार का पता शाम को ठेके पर चलता, जब और दिनों के मुकाबले वहां भीड़  ज्यादा होती और ठंढी बियर ख़त्म हो जाती। शनिवार की ऐसी शामों में जब मैं मग में बियर ढाल रहा होता, लगता साथ में कुछ और मग होने चाहिए थे। सबसे ज्यादा बेसहारा रविवार होता। उसकी बेहतरी के लिए मैं कुछ नहीं कर पाता। उसे न दोस्तों की पार्टियां दे पाता, न किसी कहकहे वाले का साथ। वह बेचारगी के साथ आता और मुझे दिन भर सोता देख खाली हाथ ख़ामोशी से चला जाता। लेकिन अक्टूबर के इस आख़िरी रविवार की शाम सब कुछ किसी तटीय तूफ़ान की तरह अचानक हुआ था। इंजीनियरिंग कॉलेज के वक्त का सामान्य जान-पहचान वाला एक क्लासमेट आया था। जैसे वह आया था, वापस चला जाता तो यह एक सुखदायी रविवार माना जाता। वह चला जाता तो मैं उठता और बिखरे बियर के केन, आलू के चिप्स, सिगरेट के टुकड़े आदि इक_े कर झाड़ू देता, पोछा लगाता, फिर इत्मिनान से सो जाता। लेकिन वह यहीं था, नीचे फर्श पर पड़ा हुआ और अब इन चीजों के साथ उसे भी हटाने की माथापच्ची करनी थी।

वह घर आने से पहले शुक्रवार की शाम मेरे फेसबुक के इनबॉक्स में आया था। ''क्या इंजीनियर, कैसे हो? पहचाना?’’ इंजीनियर मुझे कॉलेज के वो लड़के बुलाते थे जिन्हें मैंने पटाखों के बारूद और माचिस की तीलियों के फास्फोरस से कामचलाऊ बम बनाकर रैगिंग से बचाया था। मुझे पूरे दो मिनट लग गए थे याद करने में कि ये नरेश शेर कौन है? फिर मैंने उसकी प्रोफाइल तस्वीरें देखनी शुरू की। शुरुआती राम, हनुमान, ब्राह्मण श्रेष्ठ, हिन्दू सम्राट आदि की तस्वीरों के बाद उसकी अपनी तस्वीर दिखी। वही फ्रेंच कट दाढ़ी, गदबदा शरीर और ज़रूरत से बड़े कान। वह नरेश झा था जो पता नहीं कब नरेश शेर में बदल गया था।

वह कॉलेज की रैगिंग की पहली रात थी। कोई सिक्कों से कमरे की लम्बाई-चौड़ाई नापकर उसका क्षेत्रफल निकाल रहा था तो कोई केवल मां पर आधारित पचास गालियां लिख रहा था। नरेश से बचपन की कोई बात बताने के लिए कहा गया था। कोई ऐसी बात जिससे उस वक्त उसके दिमाग में भरे गोबर का पता चल सके। उसने अक्षय कुमार की फिल्म 'सबसे बड़ा खिलाड़ी’ के एक गाने 'भोली भाली लड़की खोल तेरे दिल की प्यार वाली खिड़की’ के बारे में बताया कि इसे सुनने के बाद उसे लगा था, हीरो अपनी हिरोइन से चड्डी उतारने के लिए कह रहा है। उसकी इस बात पर सारे सीनियर जमकर हंसे थे और  गाल पुचकारते हुए प्यार से उसे अपनी तरफ बिठा लिया था। यह हम सबके लिए डाह से मर जाने वाली बात थी। मेरा नंबर आने पर एक सीनियर ने नरेश से कहा, ''इसकी रैगिंग तुम लोगे’’ और नरेश ने मुझसे मेरे पीछे जल रहे ट्यूबलाईट को 'मैं गांडू हूं’ कहते हुए मुंह से फूंककर बुझाने के लिए कहा। मैं पीछे मुड़ा और शॉल के भीतर छिपाए अपने घरेलू बम निकाले और वापस पलटकर पटक दिया। धुंए और शोर के बीच यह उससे मेरा पहला परिचय था। मैंने उसका कॉलर पकड़ रखा था और वह बम के किसी छोटे छर्रे से हाथ पर आये खरोंच को सहला रहा था। उसने मुझे मां की गाली दी और धक्का देकर भाग गया। उसके बाद आगे के दिनों में किसी की रैगिंग नहीं हुई। मैंने अपने बम की रेसिपी सबको सिखा दी थी, सिवाय नरेश झा के। इसका जवाब उसने कॉलेज में सरस्वती पूजा के दिन दिया। हम नाच रहे थे और बम फोड़ रहे थे। वह अचानक हमारे बीच आकर नाचने लगा। मेरे एक दोस्त ने उसे अपनी कुहनी मारकर घेरे से बाहर करना चाहा। वह मुस्कुराया और जेब से कट्टा निकालकर हवा में फायर कर दिया। यह एक तरह का जैसे शक्ति संतुलन था, जिसे सबने स्वीकार कर लिया। हम अपने गुटों में खुश थे और लकीरें नहीं लांघते थे।

एक रात हॉस्टल में भीषण छापा पड़ा। किसी तरह हम अपने असलहे पखाने की टंकियों में फेंकने में सफल रहे। हम निशस्त्र होकर वापस एक ही पृष्ठ पर आ गए थे। यह सफ़ेद कबूतरों को उड़ाये जाने की तरह था। इसी के साथ हमारे बीच का शीतयुद्ध लगभग ख़त्म हो गया था। उसने कहा था, ''इंजीनियर, शर्ट जींस के भीतर डालकर मत पहना करो। तुम्हारी टांगें लम्बी हैं और कमर के ऊपर का हिस्सा छोटा। अजीब लगता है।’’ मैंने उससे कहा था, ''अपने कानों के आसपास के बाल मत कटवाया करो। तुम्हारे कान बड़े हैं। बालों को कान के ऊपर चढऩे दिया करो। बालों से ढंके कान बड़े नहीं दिखते।’’

यह ठीक बात है कि मैं आज भी कमीज अंदर करके नहीं पहनता और इतने सालों बाद भी नरेश के कान बड़े बालों के नीचे छुपे हुए थे। लेकिन उसके साथ दोस्ती-यारी के ऐसे भावुक किस्से जोडऩे का कोई मतलब नहीं था। ऐसे रिश्ते उस तक आते-आते दम तोड़ देते थे। उसके साथ यह संभव ही नहीं था। दिल, पैसे, सम्मान आदि किसी मामले में वह दुरुस्त नहीं था। उसने कभी किसी पर फूटी कौड़ी नहीं ख़र्च की थी। जहां गुटखा खाता, सैकड़ों रुपये उधार थे। पैसे रहता पर देता नहीं। किसी लड़के के कमरे में बन रहे मुर्गा, मछली की महक वह दूर से सूंघ लेता और बिना बुलाये पहुंच जाता। उसने किसी एकलौती शाम भी खुद के पैसे से खाना नहीं खाया था। उसने कई मर्तबा खुलेआम कहा था, वह अपने पैसों से शराब नहीं पीता। पी भी ले तो उसे चढ़े न। मुंह पर मुझे इंजीनियर कहता और पीठ पीछे इंजीनियर की झांट।

जहां तक हमारे बीच बने संतुलन की बात थी यह उसी दिन ख़त्म हो गया था जब उसे ज्ञान, शील और एकता का प्रचार करने वाले एक विद्यार्थी संगठन का अध्यक्ष बना दिया गया था। वह बीसियों  लड़कों के हुज़ूम में चलता। अपने नेताओं को हवाई अड्डा छोडऩे-पहुंचाने वाली भीड़ का अहम हिस्सा होता। धरने, जुलूसों में पुलिस की तरफ से उसके दल को प्रदर्शनकारियों के हौसले तोडऩे, लाठियां भांजने, आगजनी आदि के लिए बुलाया जाता। वह कक्षाओं में कम दिखता और सड़कों, अख़बारों और मैदानों में ज्यादा। कुछ महीनों में ही उसके नाम का जलवा ऐसा चलने लगा था कि लड़के-लड़कियां मैदान क्या कक्षाओं में भी अलग-अलग बैठने लगे थे।

एक दोपहर वह अपने दोस्तों के साथ किसी नौजवान जोड़े से उठक-बैठक करवा रहा था। दोनों रो रहे थे। मैंने कहा, ''जाने दो बे। राधा-कृष्ण हैं। क्यों रुला रहे हो?’’ उसने बाएं हाथ के अंगूठे और तर्जनी का गोला बनाकर दाएं हाथ के मध्यमा को उसमें डालकर निहायत अश्लील अंदाज़ में हंसते हुए कहा, ''कामसूत्र का अध्याय लिखने की कोशिश कर रहे थे। इनके ज़रिये बाकियों को संदेश दे रहा हूं। इसको राजनीति कहते हैं इंजीनियर। तुम नहीं समझोगे। तुम बम बनाओ। ज़रूरत पड़ेगी तो मांग लूंगा।’’

राजनीति तो उसने की थी, वह भी मेरे साथ, जिसका पता मुझे कॉलेज छोड़ते समय चला था। पहली बार जब छापा पड़ा, मुझे लगा था निशाना पूरा हॉस्टल है। सबके कमरे के हीटर, हॉकी डंडे और नरेश का कट्टा सब साथ जाएगा। लेकिन उस दिन असली निशाना मैं था। बाद के दिनों में जब भी मैंने बम बनाये रात को छापा पड़ा। अंतत: मैंने ऊबकर बम बनाना ही छोड़ दिया। यह नरेश की करतूत थी। वार्डन को वही सूचित करता था। सीनियर के साथ हुए दो झगड़ों में जिसमें मैं निलंबन की कगार पर पहुंच गया था, इसी का किया-धरा था। दस हज़ार का भारी जुर्माना भी मुझे इसी की वजह से भरना पड़ा था।

अचानक इतने सालों बाद इनबॉक्स में उसका मैसेज देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सोचने में दो दिन लगा दिए, यह मुझसे मिलने क्यों आ रहा? उसने कहा था, ''दारू नहीं पिलाओगे इंजीनियर? तुम्हारे हाथ का मुर्गा खाए भी कितने बरस हो गए?’’ मैंने उसे पता दे दिया। रविवार की शाम जब वह आया, उससे गले मिलते हुए मैं समझ नहीं पा रहा था, मैं ख़ुश होऊं कि क्या करूं? इसमें दो राय नहीं थी, मैं उसे पसंद नहीं करता था। पर उसके आने से मेरा महीनों का अकेलापन दूर हुआ था। वह मेरे लिए मकड़े की तरह था। मकड़ों के जाले लगाने से मैं ख़ुश होता क्योंकि उसमें मच्छर फंसते। लेकिन मैं उन्हें मार भी देता क्योंकि उनके जालों से दीवारें भद्दी दिखतीं।

बातों की रेल निकल पड़ी। मैंने पूछा क्या चल रहा है तो बताया, ''दिल्ली में पार्टी का सोशल मीडिया विंग देखता हूं।’’

''मतलब?’’

''मतलब ट्विटर, फेसबुक, व्हाट्सएप्प पर पार्टी के विचारों को फैलाना।’’

''हूं..’’ मैंने सिर हिलाया।

''तुम बताओ, अभी भी बम बनाते हो?’’

''बनाऊंगा तो पटकूंगा किस पर?’’ मैं मुस्कुराया।

वह ठठाकर हंसने लगा। बोला, ''सही मायने में तुम्हारे बमों की जरूरत अभी ही है। बहुत सी खोपडिय़ां इधर बढ़ गयी हैं। क्या तो धांसू बम बनाते थे इंजीनियर..तुम्हारे बम के एक छर्रे का निशान हाथ पर अभी भी है।’’ उसने अपने बाएं हाथ पर पड़े मटर के दाने भर का चिन्ह दिखाते हुए कहा।

मैंने मुस्कुराते हुए माफी वाली नज़रों से उसे देखा।

''इंजीनियरिंग कॉलेज से निकलकर सीधे यहीं आ गए थे?’’ उसने दीवार पर लगी एक ग्रुप फोटो देखते हुए पूछा।

''नहीं..सबसे पहले बैंगलौर गया था। फिर हैदराबाद। फिर यहां।’’  मैंने बताया।

उसकी नज़र एक तरफ कोने में फैले कई डम्बल्स पर गयी तो हंसते हुए बोला, ''डम्बल्स तो दिख रहे हैं लेकिन तुम्हारे शरीर पर उसके निशान नहीं दिख रहे।’’

''कसरत रोज नहीं करता हूं। ये बियर पीने के बाद सुबह पसीने के साथ हैंगओवर उतारने के काम आते हैं।’’ मैं हंसा।

''भाभी और बच्चे कहीं निकले हैं क्या, दिख नहीं रहे?’’ उसने सोफ़े पर से ही भीतर झांकते हुए पूछा।

''शादी नहीं हुई भाई।’’ उसके सामने भूनी हुई मूंगफलियां और खीरे के कतरे रखते हुए मैंने कहा।

''मतलब शादी करनी है या नहीं?’’ उसने हंसते हुए कहा तो मैंने भी हंस दिया। उसे किंगफिशर की केन पकड़ाते हुए कहा, ''और ठंढ़ी चाहिए हो तो बताना।’’

''इस देशी पर कब से उतर आये इंजीनियर?’’ वह एक साथ चौंकता और हंसता हुआ बोला।

''जब से नौकरी गयी।’’ मैंने कहा।

''हें..तुम्हारी नौकरी चली गयी..कैसे भाई?’’ वह हंसता हुआ बोला।

मुझे समझ में नहीं आया वह मेरी इस बात पर हंस क्यों रहा था.

''अर्थव्यवस्था के बारह बजे हैं। कम्पनियों की हालत ख़स्ता चल रही है। नौकरी तो जानी ही थी।’’ मैंने कहा।

''कैसी बात कर रहे हो इंजीनियर..लोगों को नौकरी से तब निकाला जाता है जब कम्पनी को लगता है, कर्मचारी की कार्यक्षमता कम्पनी के अनुरूप नहीं है। उसे रखना फ़ायदे का सौदा नहीं है।’’ वह बियर की एक बड़ी घूंट गटकता हुआ बोला।

''मतलब कम्पनी केवल नकारे लोगों को निकालती है?’’ मैंने इतने ठंढे तरीके से कहा कि सामने वाले को भीतर उठे गुस्से का पता नहीं चले। 

''देखो हर बात के लिए अर्थव्यवस्था और राजनीति को दोष देना ठीक नहीं है इंजीनियर। पूरी दुनिया आज हमारा लोहा मान रही है। लेकिन लोगों को नकारात्मकता में जीने की आदत हो गयी है।’’ उसने महज़ पांच घूंट में केन ख़त्म कर दिया था और दूसरी निकालने ख़ुद ही फ्रिज की ओर चला गया था।

लौटा तो बोला, ''मैं तुमको फेसबुक पर फॉलो करता रहता हूं। बुरा मत मानना भाई लेकिन तुम भी बहुत नकारात्मकता फैलाते हो। एक आदमी जो हमारा मुखिया है, नष्ट हुए देश को पटरी पर वापस लाने में दिन-रात लगा हुआ है। जब हम खर्राटे ले रहे होते हैं, वह जाग कर अधिकारियों के साथ मीटिंग में व्यस्त होता है। अभी हमलोग बियर पी रहे हैं, वह फाइलें निपटा रहा होगा। बावजूद उसके अपने देश के लोग सोशल मीडिया पर उसका मज़ाक उड़ाते हैं, गालियां देते हैं। ख़ुद को राष्ट्र की सेवा में इस कदर झोंक देने वाला आदमी क्या न्यूनतम सम्मान का भी हकदार नहीं है?’’ उसने जैसे एक सांस में कहा था। मैंने हल्का सा सिर हिला दिया।

''देखो बहुत साफ बात है इंजीनियर, देश बदल रहा है। लोगों को इस बदलाव में सहायक होना चाहिए। जो इससे नहीं जुडऩा चाहता, उसके यहां रहने का कोई मतलब नहीं है।’’ उसने आख़िरी घूंट लेकर बियर का दूसरा केन भी ख़त्म कर दिया था। जब वह लहराता हुआ तीसरा लेकर आया, बोला, ''घर तो बहुत धांसू है। ख़रीदा या किराये पर है?’’

मैंने कहा, ''किराये पर है। अपना घर गाज़ियाबाद में बुक किया है।’’

''अरे क्या बात इंजीनियर..बहुत ख़ूब..बहुत खूब..कितने में?’’ उसने पूछा।

''बत्तीस लाख में।’’ मैंने कहा।

''अरे यार तुम तो छुपे रुस्तम निकले।’’ वह हंसा।

''क्या छुपा रुस्तम..लोन चुकाना है और नौकरी नहीं है।’’ मेरा मन उदास हो गया था।

मुझे उदास देख उसने कहा, ''चिल करो इंजीनियर, सब ठीक हो जायेगा। पर एक बात कहूं बुरा मत मानना..अभी जो तुम अर्थव्यवस्था डूबने की बात कर रहे थे न..इसके पीछे ये भी एक बड़ा कारण है। हमलोग लोन ले लेते हैं और चुका नहीं पाते और बेचारे बैंक को हर्ज़ हो जाता है। फिर बैंक बचाने के लिए सरकार को अपना पैसा देना पड़ता है। बाद में लोग कहते हैं अर्थव्यवस्था डूब गयी।’’

कुछ सेकेण्ड के ठहराव के बाद वह फिर बोला, ''इसलिए मेरा बहुत स्पष्ट कहना है, आदमी को उतना ही पैर फैलाना चाहिए, जितनी चादर हो..क्यों ग़लत बोल रहा हूं?’’

मूंगफली के साथ का काला नमक ख़त्म हो गया था। मैं उठकर लाने चला गया। लौटा तो सामने दीवार पर थोड़ी ऊंचाई पर लटके एक पुराना ग्रुप फोटो दिखाते हुए उससे पूछा, ''पहचान रहे हो, उसमें कौन-कौन है?’’

वह उठा और नशे से भरी आंखें मींचकर देखने की कोशिश करने लगा। फिर बोला, ''समझ में नहीं आ रहा है कौन-कौन है?’’

''देखो..देखो..उतार कर देखो।’’ मैंने तस्वीर के ठीक नीचे रखी कुर्सी की ओर इशारा करते हुए कहा। वह झूमता हुआ चढ़ गया और सेकेण्ड के पांचवें हिस्से की बात होगी जब कुर्सी एक आवाज़ के साथ टूट गयी और वह भहराकर नीचे रखे डम्बल और उसके लोहे के प्लेट्स पर सिर के बल गिर पड़ा। और जब वह गिरा, वापस नहीं उठा। 

जैसा कि आमतौर पर होता है, लोग हत्या के बाद घटनास्थल से बदहवास हो भागते हैं, मुझे कहीं जाने की कोई जल्दी नहीं थी। यहां कोई नहीं आने वाला था। मुझे दिक्कत इस बात से थी कि उसे इस तरह निर्जीव देखना थोड़ा अजीब लग रहा था। कुछ देर पहले तक वह जोर-जोर से बोल रहा था और अब अचानक इतना सन्नाटा। दूसरी बात, वहां बेतरतीबी से पसरे खून को देख मुझे परेशानी हो रही थी जिसने मेरे ड्राइंग रूम का नक्शा बिगाड़ दिया था। फुटमैट खून से सन गया था। खून सूंघकर जाने कहां से छोटी मक्खियां आ गयी थीं, जबकि मेरे भले मकान मालिक ने मेरी शिकायत के बाद सारे स्लाइडिंग डोर के साथ लोहे की जालियां लगवा दी थीं। इनसे नफरत का बड़ा कारण यह था कि आप चिढ़कर भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते। ये मच्छर मारने वाले रैकेट की करंट दौड़ती जालियों से भी साफ़ बचकर निकल जातीं। मैंने उसकी बॉडी के पास मच्छर भगाने वाली अगरबत्तियां जला दीं। लेकिन वह दृश्य कुछ अटपटा था, ठीक मछली दुकान में मछलियों के पास जलायी जाने वाली धूप बत्तियों की तरह। मैंने अगरबत्तियां हटा दीं।

उसके गिरकर मरने के तुरंत बाद मैंने उसकी मृत्यु का समय नोट किया था, छह बजकर ग्यारह मिनट। यह सिर्फ मैं जानता था। किसी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में घड़ी के कांटों का यह मिलन हु-ब-हू दर्ज होना संभव नहीं था। हो सकता है उसकी मृत्यु का समय शाम पांच बजे जब वह चिप्स कुतर रहा था से लेकर सात बजे के बीच बताया जाए या फिर छह से आठ बजे के बीच। कुल मिलाकर मेरे पास एक घंटे के आसपास का वक्त था और मुझे जो करना था, जल्दी करना था।

एकबारगी लगा, पुलिस को कॉल करूं और सारी जानकारियां दे दूं। लेकिन उन शैतानों को मैं करीब से जानता था। बताने के बाद क्या होता, एक अंतहीन मानसिक पीड़ा। सच कहने के बाद भी मार-कुटाई, गालियां, अपमान के सिलसिले। उसके बाद काले कोट पहने दूसरे शैतानों का प्रवेश। न्याय दिलाने के उनके फरेबी आश्वासन। पैसों की उनकी निर्लज्ज लोलुपता। कुल जमा मेरे बचत खाते में दो लाख रुपये रह गए थे। हत्या से बचने के लिए यह रकम आज के महंगाई वाले ज़माने में काफी कम थी। और रिश्वत देना भी चाहता तो किसको देता? क्या गारंटी थी, पुलिस को पैसे देता, वह मुझे बचा लेती? और वकीलों के लिए तो दुनिया की कोई रकम छोटी पड़ जाये। जज ईमानदारी, सच्चाई और बुद्धिमता के मामले में सबसे ओवररेटेड लोग थे। इनकी जाहिलियत और बदनीयती जो आमतौर पर इनकी सेवानिवृति के बाद मुंह खोलने पर सामने आती, इनसे न्याय की उम्मीद करना बैंकिंग का फ्रॉड करने वालों से पैसे लौटा देने की उम्मीद करने की तरह था। इन्हें अगर मैं घटना को हर्फ दर हर्फ बता देता, तब भी ये नहीं मानते। मैं अपने सहित दूसरे धर्मों के सभी ईश्वरों की शपथें लेता, मिन्नतें करता, रोता तब भी ये नहीं मानते। इनके लिए ऐसे सच रोज की बात थी। ठीक अस्पताल में असीम दर्द से कराह रहे मरीज के प्रति किसी पुरानी नर्स की अनदेखी और रुखाई की तरह। जेलों में पहले से इतनी भीड़ और बदतरी थी कि समझदार आदमी किसी भी जुर्म में वहां जाने की बजाय फांसी की सज़ा मांगना पसंद करे।

घर में बताने का कोई फायदा नहीं था। मां इतना रोती जैसे मैं ही मर गया हूं। स्कूल जाना छोड़ देती और बदहवासी में जाने किसको-किसको कॉल कर देती। लोग मेरी प्रोफाइल में एक हत्या और जोड़ लेते। सबसे ज्यादा मुझे मेरा मौसा कोसता जो पिता की मौत के बाद से मां के साथ रह रहा था। पिता की मौत के कुछ महीनों के बाद मौसी की मौत हुई थी, करंट लगने से। कैसे वाला सवाल सबने पूछा था और मौसा ने सबको बताया भी था। बस एक रात जब मैंने पूछ दिया, '‘कैसे मौसा, आख़िर कैसे?’’ तब से उस आदमी ने मुझसे बात करनी बंद कर दी थी। मौसा के अलावे मुझे वो लोग भी कोसते जो ताउम्र कईयों की हत्याओं का मंसूबा पाले बूढ़े हो गए थे। मुझे नीच हत्यारा कहकर वो लोग भी गालियां देते जो अपने लिंग के उत्थान के दिनों से दुनिया की सभी लड़कियों को जबरन खाना चाहते थे और अब बुढ़ापे में असक्त हो जाने से चिड़चिड़े और क्रोधी हो गए थे। ये सभी अपने जवानी के दिनों से झूठ फैलाने की मशीन थे। और अब तो इनके पास मोबाइल भी था। इस घटना की महक पाते ही इनके मोबाइल के संदेशों में मैं कहीं चाकुओं से गोदकर हत्या कर रहा होता, कहीं तकिये से सांस घोंट रहा होता तो कोई मुझसे पांच-दस राउंड गोलियां चलवा रहा होता।

इन सब मुसीबतों से बचने के लिए मेरे पास दो ही विकल्प थे। बॉडी को ग़ायब कर दूं या फिर कोई ऐसी कहानी गढ़ूं जिस पर पुलिस सहजता से नहीं तो गहन पूछताछ के बाद ही सही यकीन कर ले और मैं हत्या जैसे आरोपों के झमेले से बच जाऊं। बॉडी ग़ायब करना अगर सबसे सुरक्षित तरीका था तो सबसे कठिन भी। बॉडी नहीं मिली, मतलब अपराध नहीं हुआ। लेकिन इस नये शहर में ऐसा कर पाना मेरे लिए नामुमकिन था। मुझे उन लोगों से नफ़रत थी जो लाश ग़ायब करने के लिए उसे कहीं जला देते थे, छोटे टुकड़े करके अलग-अलग जगहों पर फेंक आते थे या एसिड से भरे ड्रमों में उसे नष्ट होने के लिए डाल देते थे। दूसरे दिन अख़बारों में इन्हें पढऩा कितना वीभत्स लगता था। मैं यह नहीं कर सकता था।   

मुझे यह कहानी विश्वसनीय बनानी थी। एक ऐसी कहानी जो स्वाभाविक लगे। लेकिन दुर्घटनाओं की ऐसी कहानियों की अपनी एक सीमा होती है। दुर्घटनाओं की जब समीक्षा होती है, कई सवाल सामने आते हैं। आदमी कोई पानी का बुलबुला या गुब्बारा नहीं होता कि गर्दन झटक कर कोई कह दे, फूट गया। जान इतनी आसानी से भी नहीं जाती। कोई कारक होना चाहिए। गोली से मरा, मतलब किसी ने गोली चलायी। यह कोई रेल दुर्घटना नहीं थी। न ही कोई नया बना पुल गिर गया था। वह जैसे भी मरा, मेरे कमरे पर मरा, मेरी उपस्थिति में मरा और मैं इससे इंकार नहीं कर सकता था।

मैंने एक झटके में उन तमाम फिल्मों को याद किया जिसमें ऐसी परिस्थितियां थीं। लेकिन उन सबके तरीके मुझे बहुत घिसे-पिटे लगे। जब कुछ नहीं सूझा तो मुझे लगा मेरा खेल ख़त्म हो गया. अब या तो तिल-तिल कर मुकदमा झेलूं या एक झटके में मर जाऊं। मैं किचन में गया और गैस खोल दिया। थोड़े डर और रोमांच के बीच मुझे यह तरीका ठीक लगा। नरेश का दाह-संस्कार भी हो जाता और मुझे सांसारिक झमेले से मुक्ति मिलती। लेकिन फिर मुझे ऊपर और नीचे के फ्लैट में रहने वाले बच्चों की याद आयी जो यदा-कदा लिफ्ट में मिलते थे। सिलिंडर ब्लास्ट होता तो केवल हम दोनों की कहानी ख़त्म नहीं होती। मैंने झट से गैस बंद कर दिया। लेकिन इस ब्लास्ट वाले विचार से मेरे मन में एक नया विचार पैदा हुआ। सिलिंडर का विकल्प कुकर हो सकता था।

सबसे पहले मैंने फर्श पर बिखरे खून को फिनाइल से साफ किया। फिर किचन में आकर मैरिनेट किये हुए मुर्गे को वापस फ्रिज में रखा जिसे बियर पीने का बाद नरेश के लिए पकाना था। फिर मुफ़लिसी के दौर में ख़रीदे गए एक पुराने और घिस चुके लोकल कम्पनी के कुकर जिसके सेफ्टी वॉल्व पर भरोसा नहीं किया जा सकता था, निकाला और उसमें मसूर दाल की खिचड़ी चढ़ाई। कुकर की सिटी को अदरक कूटने वाले पत्थर की छोटी ओखली से दबा दिया। गैस को तेज़ कर दिया और नरेश को वहां लाकर कुछ ऐसे खड़ा किया कि उसका अधखुला सिर सिटी के ठीक पास हो। लेकिन अचानक ध्यान गया, कुकर फटने से किचन के स्लाइडिंग डोर के ग्लास टूट सकते थे। मैंने जल्दी से उन्हें जैसे-तैसे कम्बल से ढंक दिया। फिर याद आया, धमाका होगा तो आवाज़ से पूरी बिल्डिंग जान जाएगी। मुझे धमाका चाहिए था लेकिन नियंत्रित परिस्थतियों में। मैं धमाके की आवाज़ को दबाने के लिए कुछ उपाय ढूंढने लगा। पर तुरंत सूझा, मैं यह क्यों कर रहा हूं? मुझे तो दिखाना ही है कि कुकर का धमाका हुआ और उसी दुर्घटना में इसके सिर का पिछला हिस्सा फट गया। ऐसे में आवाज़ छिपाने की क्या गरज? और धमाका होगा तो स्वाभाविक तौर पर ग्लास टूटेगा ही। नहीं टूटेगा तब शक होगा। मैंने स्लाइडिंग डोर से जल्दी से कम्बल हटा लिए और नहाने के लिए वाशरूम में घुस गया। मैंने अपनी सबसे अच्छी चड्डी पहनी क्योंकि धमाके के बाद सहायता की गरज और बदहवासी दिखाने के लिए मुझे भीगे बदन ही भागकर 503 वाले पड़ोसी का दरवाज़ा पीटना था। फिर 503 वाले को नॉक करने का आयडिया ठीक नहीं लगा। क्योंकि कोई भी सवाल कर सकता था, जब आप महज सात कदम दूर ठीक सामने 504 नंबर वाले फ्लैट का दरवाज़ा खटखटा सकते थे तो अठारह कदम दूर 503 को नॉक करने क्यों गये? अब उसको क्या बताऊंगा कि सामने 504 नंबर फ्लैट वाला आदमी कितना बदमाश है और 503 में रहने वाली भाभी कितनी मीठी। भाभी एक अच्छी गवाह साबित हो सकती थी। जबकि सामने 504 वाला संभव है मुझ पर शक करता। वह मुझसे पहले से ही उखड़ा रहता था। मैं जब भी अपने म्यूजिक सिस्टम में गाने बजाता विशेषकर कव्वाली या गजलें, वह मुझे आवाज़ कम करने के लिए टोकने चला आता। हालांकि आवाज़ कितनी भी ऊंची हो, पंजाबी या दूसरे पॉप म्यूजिक बजाने पर उसने कभी कुछ नहीं कहा था।

मैं देह पर साबुन मलकर कान बंद कर कुकर के फटने का इंतज़ार कर रहा था। मुझे बचपन में फोड़े गए सुतली बम की याद आ गयी, जिसके पलीते में आग लगाकर मैं कान बंद कर दूर खड़ा हो जाता। पापा पीछे से कहते, जब इसकी आवाज़ सुननी ही नहीं है, तो पैसा क्यों बर्बाद किया? मैंने अपने कानों से हाथ हटा लिए। सौ से उल्टी की तरफ गिनना शुरू किया कि अचानक चौरासी पर किचन से एक ज़ोर की आवाज़ आयी। वाशरूम का दरवाज़ा खोला तो देखा, ओखली नीचे लुढ़की पड़ी है और कुकर सिटी दे रहा है। मैंने शोर करते सिटी को दबाने की कोशिश की लेकिन शक्तिशाली भाप का ज़ोर देख लगा कहीं यह मेरे सामने ही न फट जाए। खिचड़ी पकने की खुशबू ने मेरी भूख के एहसास को बढ़ा दिया था। मैंने दो-तीन सिटी लगने दिए। सोचा खा लूं फिर इसे निपटाऊंगा। क्या पता पुलिस तुरंत हत्या के नती•ो पर पहुंचकर मुझे बंद न कर दे। फिर जाने अगला निवाला कब मिले। मैंने इसे अपने आखिऱी भोजन की तरह लिया और इसे भव्य बनाने में जुट गया। घी, जीरा और मिर्च से खिचड़ी में तड़का लगाया। पापड़ सेंका। बैंगन का भर्ता बनाया। दही निकाला। आम का अचार लिया। यह सचमुच एक दिव्य भोजन था। मैंने मैरिनेट किये हुए चिकेन को उन जासूसी दिमाग वाले लोगों के विश्लेषण खातिर छोड़ दिया जो ऐसी चीजों को देखकर इस नतीज़े पर पहुंचते हैं कि हत्या की मंशा और योजना के साथ चलने वाला हत्यारा चिकेन मैरिनेट करने के लिए नहीं रखेगा। 

पेट भर जाने से देह किसी अजगर की तरह हो गया था। लेकिन देर करने पर पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मेरी गढ़ी हुई कहानी और मृत्यु के असली कारण तथा समय के बीच फ़र्क आ सकता था। मैंने चावल निकाला। फिर लगा बिना सब्जी और दाल के चावल पहले पकाना किसी को बेतुका लग सकता था। साथ ही हादसे को ज्यादा भयावह और नुकसानदायक बनाने में चावल उस स्तर पर शायद सफल नहीं हो पाता। मैंने चावल वापस रखकर दाल लिया और ज्यादा मात्रा में हल्दी मिलायी। पीली दाल फैलकर सबूतों को ढंकने में सहायक हो सकती थी। अब बड़ी चुनौती थी, कुकर के फटने लायक परिस्थितियां बनाना। मैंने कुकर की सिटी निकाल दी और एक कील लिया, जिसकी मोटाई सिटी की नली के आसपास थी। मैं चाह रहा था, कील को किसी तरह उस छेद में इस कदर फंसा दूं कि भाप का अधिकतम आवेग भी उसे हिला न सके। मैं हथौड़ी मारकर छेद में कील ठोकने ही वाला था कि लगा, ढक्कन के चिथड़े उड़ जाएं तब भी संभावना थी कील उसी में रह जाये और अगर ऐसा हुआ तो यह कील मेरी ताबूत की आख़िरी कील होगी।

मैंने कुकर गैस पर चढ़ा दिया। किचन के ठीक सामने वाशरूम था। मैंने नरेश को इस बार किचन के प्लेटफॉर्म के सहारे कुछ इस तरह खड़ा किया कि उसकी पीठ की तरफ कुकर था और सामने वाशरूम। जैसे वह खाना पकाते हुए मुझसे बातें कर रहा हो। एक मरे हुए आदमी को अपने हिसाब से खड़ा करना बेहद मशक्कत वाला काम है, यह मैंने उस रोज़ जाना। मैंने उसका बायां हाथ लिया और हथेली को जबरदस्ती सिटी पर टिका दिया। उसके हाथ के भार से सिटी दब गयी। अब बस भीतर गैस जमा होने भर की देर थी।

मैं भागकर वाशरूम में गया। खुद को शॉवर के नीचे भिगोया। शरीर पर साबुन मला और पैन पर बैठकर इंतज़ार करने लगा। अगले आने वाले दस मिनट में सबकुछ बदल जाने वाला था। मुझे नहीं पता था, इस बार मैं बच पाऊंगा या नहीं। मेरा दिल जैसे डूब रहा था।

जाने कैसे इन पलों में नीरू याद आ गयी। मैं उसको भेजे अपने माफी के मैसेज पढऩे लगा। दस मैसेज के बाद भी उसने कोई जवाब नहीं दिया था। मैंने सोचा, पता नहीं मेरा आगे क्या हो, उसे उसके सवालों के जवाब दे देने चाहिए।

'नीरू, इस मैसेज के बाद आगे और मैसेज करके तुम्हें परेशान नहीं करूंगा। यह ग्यारहवां और आख़िरी मैसेज है। मैंने उस सांड को मारा क्योंकि उसने अपने सींगों पर पापा को उठा रखा था। वह रास्ते में बैठता था। मां उसे पूजा के बाद सिंदूर लगाती और रोटी खिलाती। पापा उसे रोज़ रास्ते से हटाते। एक दिन वह भड़क गया और पापा को उठाकर दीवार पर दे मारा। सब तमाशा देख रहे थे। मैंने बगल के मुर्गे की दुकान से छुरी उठायी और इसके पहले की वह पापा को दुबारा पटकता, मैंने छुरी उसके गर्दन में पिरो दी। मुझे उस दिन वहां खड़े लोगों ने बहुत मारा। मैं उनकी मार से बच गया क्योंकि पापा सिर फटने से मर गए। दो साल बाद भाई एक धक्कामुक्की में मुझसे पुल से गिर गया। उसने एक लड़की का बलात्कार किया था और हमलोगों से उम्मीद कर रहा था हम मुक़दमें में उसकी मदद करें। वह वकील को देने के लिए मां के गहने छीनकर ले जा रहा था। मां ने कहा, ये नीच मर क्यों नहीं जाता और भाई मर गया। मेरे धक्के से भाई को नीचे गिरते कईयों ने देखा था पर किसी ने थाने में नहीं बताया। दूसरे दिन लड़की की मां ने अख़बार में कहा था, भगवान ने उस पापी को सज़ा दे दी। लगा मैं ही भगवान हूं।

जहाँ तक उस पुलिस वाले की बात है, तुम उसकी फ़िक्र मत करो। वह दुष्ट आदमी ज़िन्दा है, बस पागल होकर कहीं निकल गया है। उसने मां को गांजा उगाने के अपराध में पकड़ लिया था जिसे उन्होंने शिव पर पत्तियां चढ़ाने के लिए रोपा था। उसने मां से रिश्वत में बीस हज़ार रुपये मांगे, नहीं तो गांजे के एक बड़े केस में मेरा नाम डालने की धमकी दी। मैंने उसे बांधकर उसके गुप्त रूप से रखे गांजे के पांच बोरे उसके सामने ही जला दिए। अब पता नहीं गांजे के धुएं से या अपनी करोड़ों की सम्पति जलने से वह पागल हो गया। बस यही जानो, अगर वह पागल नहीं होता तो मुझे मार देता।’

मैंने मैसेज से पुलिस वाला हिस्सा हटा दिया। उस मामले की फाइल अभी पूरी तरह बंद नहीं हुई थी। नीरू के लिए पुलिस वाली कहानी कुछ ज्यादा ही अविश्वसनीय हो जाती। मैसेज को एक सरसरी निगाह से देखकर मैंने उसे भेज दिया। एक छिपकली पहले मिनट से मुझे यह सब करता देख रही थी। मेरी कहानियों के लिए उसकी आंखों में दिख रहे अविश्वास से घबरा कर मैंने उसे भगा दिया। लेकिन वह ज़िद्दी वापस आकर मुझे वैसे ही घूरने लगी। मैंने दीवार से सिर टिकाकर आंखें बंद कर खुद को एकदम ढीला छोड़ दिया। लगा जैसे मेरा शरीर किसी गहरी झील की तली में बैठा जा रहा हो। मैं पानी में फूलकर दुगुना हो गया था। सुंदर छोटी मछलियां जिन्हें कल तक मैं चाव से खाता था, आज बेहद आहिस्ते से मेरा ध्यान रखते हुए मुझे नोंच रही थीं। टन्न की आवाज़ से ध्यान टूटा। शायद नीरू का जवाब था। देखा तो भेजे गए मैसेज के फेल्ड होने का नोटिफिकेशन था। मैंने राहत महसूस की और पूरा मैसेज मिटा दिया।

इसके ठीक दो मिनट बाद एक तेज़ धमाका हुआ। मेरे बनाये किसी भी बम से ऐसी भीषण आवाज़ नहीं आयी थी। कुकर का कोई टुकड़ा वाशरूम के दरवाज़े से भी टकराया था। किचन की रंगत बदल गयी थी। दीवारों पर जैसे किसी ने चारों तरफ पीले रंग का गाढ़ा पेंट फेंक दिया था। दाल में लिथड़ा नरेश नीचे लुढ़का पड़ा था। मैंने कुकर के चिथड़ों में से एलुमिनियम का एक बड़ा और तीक्ष्ण टुकड़ा चुना और नरेश के अधखुले सिर में उसे ठोक दिया। इसके पहले कि मैं यह सब निपटाकर पड़ोसी का दरवाज़ा पीटने बाहर जाता, कई लोग मेरा दरवाज़ा पीट रहे थे। अपने पीछे दाल से लिथड़े पैरों के निशान छोड़ता हुआ मैंने जैसे ही भागकर दरवाज़ा खोला, लोग बिना किसी औपचारिकता के भीतर घुसते चले आये थे। वो मुझसे दर्जनों सवाल कर रहे थे, लेकिन मैं संज्ञाशून्य सा खून से सने उस डम्बल को देखे जा रहा था जिसे हटाना मैं भूल गया था। 

 

 

मिथिलेश प्रियदर्शी : वामपंथी चेतना से लैस युवा मिथिलेश प्रियदर्शी ने समय-समय पर बेहद उल्लेखनीय कहानियाँ लिखीं हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के रूप में अध्ययन करते हुए वहाँ की घटनाओं पर एक पुस्तिका का प्रकाशन। फिलहाल मुम्बई में मराठी फ़िल्म लेखन में सक्रिय। 'पहल’ में दूसरी बार प्रकाशित।

 

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