सीता हसीना के साथ एक सम्वाद

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    जून - जुलाई : 2020
श्रेणी सीता हसीना के साथ एक सम्वाद
संस्करण जून - जुलाई : 2020
लेखक का नाम सुभाष पंत





कहानी

 

 

 

 

जैसे हमला हुआ। माहौल भयभीत, बेचैन और उत्तेजित था। महिलाओं की अगुवाई में लोगबाग नारे लगाते हुए सड़को पर थे और सुरक्षा कवचों में हथियारों से सुसज्जित पुलिस ने उन्हें घेर रखा था। हर कहीं।

  ऐेसे विस्फोटक समय में मुझे एक कहानी लिखने का आदेश हुआ था। एक और इम्तहान और मेरा दिमाग़ एकदम शून्य था। मेज पर काग़ज़ फैले हुए थे और अक्षर जो कभी फूल की तरह उन पर उतर जाते थे, पत्थर बने हुए थे। मैंने अपने भीतर की हलचल भरी जड़ता को तोडऩे के लिए सिर कुर्सी के दासे पर टिका रखा था। लेकिन जाग्रत और एकाग्र होने की जगह विचार उस चिडिय़ा की तरह सहमें हुए थे, सर्दी की बारिश में भीगने से जिसके पंख उड़ान पर भरोसा खो चुके हों।

   तभी उसने हौले से दरवाज़ा खोला और हवा के एक कोमल प्रवाह के साथ, जिसे मैंने बंद आंखों की पलकों पर किसी अनुभूति की तरह महसूस किया, वह आई और मेरे सामने कुर्सी पर बैठ गई। 'परेशान हो,?’ उसने पूछा।

   'हाँ।’ मैंने बौखलाहट से कहा, 'एक कहानी लिखनी है और मुझे कुछ भी नहीं सूझ रहा...’

'लेकिन कहानियाँ तो हमारे चारों ओर बिखरी हुई है....हर जगह....हर कहीं....जितने मनुष्य हैं उतनी कहानियाँ हैं, बल्कि उससे भी ज़्यादा...’

'लेकिन मैं शायद अपने खोल में सिमट गया हूँ और मेरी संवेदनाएँ पथरा गई हैं।’

'तो मेरी कहानी लिख लें। समझ लें कहानी आपके पास खुद आ रही अपने को लिखवाने के लिए। मेरा ख़याल है कि आप उसे लिख सकेंगे। कहानी देखने से नहीं महसूस करने से लिखी जाती है।’

'अजीब बात है, लोग कहानियाँ पढऩा नहीं चाहते लेकिन उनकी हार्दिक इच्छा रहती है कि उन पर कहानी लिखी जाए।’ मैंने रूखे स्वर में कहा।

'शायद आप ठीक कह रहे,’ उसने सहमति प्रकट की, 'मेरी भी कहानियाँ पढऩे में कोई खास रुचि नहीं थी। लेकिन अब जब मैं अस्तित्वसंकट से गुज़र रही तो मैंने देश के विभाजन पर कुछ कहानियाँ पढ़ी और महसूस किया कि कहानी मनुष्य की अनिवार्य ज़रूरत है। और यह भी कि वे लिखने वाले से कहीं अधिक ईमानदार और संवेदनशील होती हैं।’

   मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा। वह मुझे एक थरथराती छाया सी लगी। अफ़सोस! मुझे मोतियाबिंद का आपरेशन करा लेना था, जिसे मैं टालता जा रहा था।’ आप कहना क्या चाह रहीं। मेरी समझ में नहीं आ रहा। रचना लेखक की संतान होती है।’

'मैं अपनी बात पर कायम हूँ,’ उसने मजबूती से कहा। हवा में कुछ वैसी हलचल हुई जैसे तालाब के ठहरे पानी में कोई पत्थर फेंका गया। 'चलिए उदाहरण के लिए मंटो की कहानी 'टाबाटेक सिंह’ को ले लेते हैं। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का विभाजन हो गया है और अब पागलखानों के पागलों की अदला बदली होनी है। बिशन सिंह पाकिस्तान की जेल में है, उसे हिन्दुस्तान की जेल में भेजा जाना है। लेकिन उस देश में रहना चाहता है जहाँ उसका शहर टोबाटेक सिंह है। टोबाटेक सिंह पाकिस्तान में है लेकिन उसे जबरन हिन्दुस्तान की सीमा में धकेलने का प्रयास किया जाता है, लेकिन जब उसे मालूम होता है कि इस पार उसका टोबा टेक सिंह नहीं है, जहाँ उसे धकेला जा रहा तो वह नो मैन लेंड में जिसके एक ओर तारों के पर पाकिस्तान है और दूसरी ओर तारों के पार हिन्दुस्तान है पत्थर की तरह जड़ खड़ा हो जाता है और अंत में वहीं खड़े-खड़े मर जाता है।’

'हाँ, यह अविस्मरणीय कहानी है।’ मैंने सहमति प्रकट की।’

'और इस कहानी का लेखक मंटो अपना वतन हिन्दुस्तान छोड़कर पाकिस्तान चला गया। कृपया बताइए कि बिशन सिंह पागल है या सियासत पागल है जिसने एकलाख बीस हज़ार लोगों को बेघरबार किया; दस लाख लोगों को मौत के मुँह में धकेला और पिचहत्तर हज़ार औरतें को अगवा या ज़्यादतियों का शिकार किए जाने को मजबूर किया और यह भी कि टोबाटेक सिंह कहानी बड़ी है या उसका लेखक बड़ा है?’

एक लेखक के रूप में मैंने कभी ऐसा सोचा ही नहीं, जिसे यह महिला एक पाठक के रूप तें अनुभव कर रही थी। मैंने कोई प्रतिवाद नहीं किया। यह किसी भी पाठक का रचना और रचनाकार के बारे में सोचने का जनतांत्रिक अधिकार है। लेकिन उसके इस तर्क के बाद उसे उपेक्षित भी नहीं किया जा सकता था। 'देखिए,’ मैंने कहा, 'कहानी लिखना कोई यांत्रिक प्रक्रिया नहीं है, गणित का कोई सवाल भी नहीं जिसे कभी भी हल किया जा सके। कहानी का विचार या उसकी धूमिल सी रूपरेखा विद्युत तरंग की तरह दिमाग़ में कौंधती है और अवचेतन में लम्बे समय तक उथल-पुथल मचाने के बाद कहानी बनकर काग़ज़ पर उभरती है। और तब भी वैसी नहीं जैसी सोची गई। इसलिए मैं यह वायदा नहीं कर सकता कि आपकी बात कहानी बन जाए। लेकिन यह हो सकता है कि मैं हमारे बीच होने वाले संवाद को लिखता चला जाऊँ।’

'ठीक है।’ उसने सहमति प्रकट की। और मैंने कलम सभँाल ली।

'मेरा नाम सीता हसीना है।’ उसने बात शुरु की।

मैंने चौंककर उसकी ओर देखा और मुझे सहसा उसके चेहरे पर अध्यात्म की गरिमा और कलाओं का माधुर्य दिखाई दिया और काग़ज़ पर मेरे हाथ थम गए।

'हैरान हो गए?’ उसने मृदुल मुस्कान के साथ पूछा।

'हाँ...दरअसल...’

'हैरानी की बात तो है ही,’ उसने सहमति दर्शाई और फिर गरिमाभरी वाणी में कहा, 'मैं न हिन्दू हूँ, न मुसलमान... और मैं दोनों हूँ।’

इस बार मैं उसकी बात से चौंका नहीं और काग़ज़ पर उसका नाम लिखने लगा। दरअसल मैंने क्षणांश में ही उसके चेहरे पर कुरआन भी देखी और गीता भी। नाम लिखकर मुझे सुखद अनुभूति हुई। इससे पहले इतनी सुन्दर लेखनी में मुझसे कोई नाम नहीं लिखा गया था। 'और पिता का?’ मैंने पूछा।

'अब्दुल नारायण।’ उसने कहा, 'वे भी न हिन्दू थे, न मुसलमान थे....वे दोनों थे।’

'और माँ?’

'सरिता नूर। वह भी न हिन्दू थी, न मुसलमान...वह दोनों थी।

मैंने काग़ज़ पर उनके नाम लिखकर उसकी ओर देखा तो मुझे उसकी आँखों में पानी की एक झिल्ली सी तैरती दिखाई दी। उसने बोझिल आवाज में कहा, 'वे कत्ल कर दिए गए। शायद ऐसे लोग सदा ही कत्ल किए गए हैं, जो अपनी अंतरात्मा की आवाज पर यक़ीन करते हैं और किसी खास खांचे में बंदी न होकर सहज और सरल जिंदगी जीना चाहते हैं।’

'अफ़सोस।’ मैंने खेद प्रकट किया।

उसने आँखों की नमी को भीतर ही जज़्ब करते हुए संयमित स्वर में कहानी को गति दी, 'मैं मुल्तान जानेवाली सड़क पर रायविन्द स्टेशन के पास बसे गाँव कोटरा में पैदा हुई। अपने बचपन का कुछ समय मैंने वहाँ बिताया। यह खेतों की हरियाली से भरा जीवन था। मैं आज भी दूर तक फैले गेहूँ और मक्के के खेतों की हरियाली अपने लहू में महसूस करती हूँ। लेकिन गाँव में और उसके आसपास कोई स्कूल नहीं बस एक मदरसा था। मेरे पिता यह कतई नहीं चाहते थे कि मेरी शिक्षा मदरसे में हो। उनका ख़याल था कि धर्मगुरुओं के पास धर्म कि गलत व्याख्याएँ होती हैं। इसके अलावा मुझे मदरसे में पढऩे के लिए मुसलमान होना पड़ता। लेकिन अब्बा कहते कि मैं न मुसलमान हूँ और न हिन्दू, मैं दोनों हूँ। मैं अम्मा के साथ पिता के पास शहर आ गई, जहाँ वे वे एक बड़े आढ़तिए थे। वे मुझे मिशनरी स्कूल में पढ़ाना चाहते थे, जिससे मैं एक नई भाषा और संस्कृति को भी जान सकूं। लेकिन तभी देश का बंटवारा हो गया और दंगे शुरु हो गए।’

'अंग्रेजों की डिवाइड एंड रूल की यह एतिहासिक नीति उनके जाने के बाद अपने चरम रूप में जहर की तरह हमारे खू़न में फैल गई। और इतना बड़ा कत्लेआम हुआ दोनों तरफ  जिसकी मिसाल इतिहास में नहीं है।’ मैंने अफ़सोस जाहिर करते हुए कहा।

'भारत के इतिहासकारों का एक सनातन वाक्य,’ उसने जलती हुई आवाज़ में कहा, 'लेकिन यह एकांगी सच्चाई है। हमें इसके दूसरे पहलू पर भी सोच लेना चाहिए और शायद यह ज़्यादा ज़रूरी है। और वह है-दे रूल्ड अस बिकाज वी वर डिवाइडेड। वर्ना क्या यह हो सकता था कि एक व्यापार करनेवाली कम्पनी, जिसे हम साथ खड़े होकर एक हाथ से धक्का देते तो समंदर में डूब जाती, इस महान देश को अपना गुलाम बना लेती। हमें बचपन से ही एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा कर दिया जाता है।’

सहसा मुझे याद आया जब मैं छोटा था तो माँ अकसर कहा करती थी कि मुसलमान सबसे क्रूर होते हैं। उसे उनसे सबसे ज़्यादा डर लगता है। हालांकि हमारा किसी मुसलमान परिवार से सम्पर्क नहीं था फिर भी माँ  की इस घोषणा के बाद बचमन में मुसलमानों को लेकर मेरे भीतर भी शायद कोई ग्रंथी बन गई थी, जिसे पिघलने में बहुत वक्त लगा था।

'यह मुस्लिम बहुल इलाका था। उसे पाकिस्तान होना था। हिन्दू और सिक्ख उनके दुश्मन हो गए थे। वे भाग रहे थे, लुट रहे थे, कत्ल हो रहे थे, उनके घर-दर जलाए जा रहे थे और उनकी औरतें अगवा हो रहीं थी या उनकी इज्ज़त लूटी जा रही थी। कुछ हिन्दू, सिक्ख औरतों को खुद कत्ल कर रहे थे या वे स्वयं कुओं में कूदकर आत्म हत्याएँ कर रहीं थीं जिससे उनकी इज्जत के साथ खिलवाड़ न किया जाए।

'हमें भरोसा था कि हमारे साथ ऐसा सलूक नहीं किया जाएगा। हम मस्जिद जाते थे, रोजे रखते थे और जकात करते थे। लेकिन हमारा भरोसा टूट गया और एक वहशी भीड़ ने हमें घेर लिया, क्योंकि हम मंदिर भी जाते थे, अष्टमी के व्रत भी रखते थे और होली-दीवाली भी मनाते थे।’

'भीड़, भीड़ होती है और उसका अपना कोई विवेक नहीं होता। दरअसल भीड़ एक अंधी सुरंग है।’ मैंने कहा।

'मेरे पिताश्री से कहा गया कि वह अपना दोगला चरित्र छोड़कर सच्चे मुसलमान बन जाए और जब उन्होंने इसके जवाब में पूछा कि पहले उन्हें बताया जाए कि सच्चा मुसलमान शिया, सुन्नी, वहावी, सूफी या मुस्लिमों के लगभग एक सौ पचास छोटे सम्प्रदायों में कौन होता है तो उनके खिलाफ़ फ़तवा जारी हो गया कि वे क़ाफिर हैं। उनके सिर की क़ीमत तय हो गई। वे कत्ल कर दिए गए। उन्हें बचाने के लिए माँ दौड़ी। वह भी कत्ल हो गई। घर को लूटा गया और फिर उसे आग के हवाले कर दिया गया।

'मैं उस समय बगीचे में मुर्गी के चूजों की बिल्ली से रखवाली कर रही थी, जो ऐसे लग रहे थे मानों मखमल के बने हों और इतने कोमल कि उन्हें देखें तो उनकी कोमलता दिल में इस तरह कुलबुलाती जिसे बस महसूस किया जा सकता है, बताया नहीं जा सकता। तभी मैंने देखा और चिल्लाना चाहा लेकिन मेरी आवाज खो गई। मैंने दौडऩा चाहा लेकिन मेरे पैर जड़ थे। और जब सब खत्म हो गया मैं तब सड़क पर बेतहाशा दौडऩे लगी। शरीर के हर हिस्से से। दिशाहीन। लेकिन मेरी आवाज उस समय तक नहीं लौटी  थी।’

मैंने देखा सहसा वह काग़ज़ जिस पर मैं लिख रहा था सड़क में बदल गया जिस पर लाशों, नारों, हत्यारों और, आहों और जलते हुए मकानों के बीच एक लड़की भागी जा रही है, जो चिल्लाना चाहती है, लेकिन उसकी आवाज गुम है। मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने रायविंद स्टेशन तो कभी देखा ही नहीं और न विभाजन के दौर का कत्लेआम। तो फिर क्या यह सड़क जो मेरे काग़ज़ों पर फैल गई जबलपुर की वह सड़क थी जहाँ इस धर्मनिरपेक्ष देश में आजादी के बाद 1961 में पहला साम्प्रदायिक दंगा हुआ था जिसमें दो सौ के करीब आदमी मारे गए थे या फिर उसके लगभग 60 साल बाद हाल ही में हुए सुनियोजित दंगों की शिकार दिल्ली के चांदबाग की सड़क है जहाँ पुलिस का एक हिस्सा मूक और दूसरा दंगाइयों के साथ था।

'मुझे नहीं मालूम। मैं कितनी देर दौड़ती रही और कब दौड़ते हुए बेहोश होकर सड़क पर गिर पड़ी।’ उसने कहा तो मेरी तंद्रा टूटी। सड़क बना काग़ज़ फिर काग़ज़ बन गया और दृश्य फिर शब्द में बदल गए।’ मेरी आँख एक चिकित्सा शिविर में खुली जहाँ पाकिस्तान सरकार के विशेष आग्रह पर हिन्दुस्तान से भेजे गए डाक्टरों की टीम दंगा पीडितों का उपचार कर रही थी। मैं उस मेहरबान को कभी नहीं जान पाई जिसने हत्याओं और आगजनी के बीच मुझे शिविर में पहुँचाया।’

'वक़्त कैसा भी हो कितना ही हत्यारा, मनुष्यता हर समय जिन्दा रहती है।’ मैंने कहा।

'सिर पर टाँके लगाने और ख़ू न चढ़़ाए जाने के बाद भी जब मैं उनके किसी सवाल का ज़वाब नहीं दे सकी तो डॉक्टर हताश हो गए कि चिकित्सा शिविर के अल्प संसाधनों में मुझे बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन मैं जिन्दा रहकर फिर से अपनी खोई हुई आवाज़ पाना चाहती थी। धीरे धीरे मैं जीवन में लौटने लगी और मेरी आवाज भी लौट आई।

'शिविर में मेरे जैसे कई और बच्चे भी थे जो दंगों में अपने परिवार खो चुके थे और खुद मानसिक और शारीरिक रूप से घायल थे। कुछ समय बाद कैम्प हिन्दुस्तान लौटा तो बच्चों के साथ मैं भी हिन्दुस्तान आ गई। हम अभी पूरी तरह स्वस्थ भी नहीं थे। सभी को दिल्ली के इरविन अस्पताल में भर्ती कर दिया गया, जहाँ स्वस्थ होने के बाद हमारा भविष्य तय होना था।

'और जब हम कुछ ठीक हो गए, हालांकि ऐसे बच्चे कभी ठीक नहीं होते, जिन्होंने उस समय अपने परिवारों को कत्ल होते देखा जब वे अपने जीवन के सबसे मासूम समय में थे, हमें मिलने के लिए अनीस किदवई आईं, जिन्होंने अपना जीवन महात्मा गांधी को दान कर दिया था और जो उन दिनों बंटवारे के दर्द और धर्म की आग के बीच जीवन की तलाश करते हुए विभाजन में अपहृत और बलाकृता औरतों और इधर उधर बिखर गए बच्चों को एकीकृत करने का काम कर रहीं थी।

'जब मैंने उन्हें अपना नाम बताया तो वे चौंक गईं। माँ और पिता का नाम सुनकर और भी। उन्होंने मुझे बताया कि मेरा धर्म पिता के धर्म से तय होगा। अगर वे मुसलमान थे तो मैं भी मुसलमान मानी जाउँगी और चाहूँ तो पाकिस्तान जा सकती हूँ। इस मामले में पाकिस्तान सरकार से बात करेंगी।

'हाँ, ऐसा ही होता है। बच्चे के जाति और धर्म पिता की जाती और धर्म से तय होती है, जब कि माँ उसे अपने गर्भ में पालती है और प्रसव पीड़ा सहकर जन्म देती है। यह हमारे समाज का स्वीकृत कानून है। इस अन्यायपूर्व क़ानून के विरोध में आवाज़ उठाई जानी चाहिए।’ मैंने कहानी में व्यवधान डालते हुए कहा।

वह हंसी। यह ऐसी हंसी थी जिसमें स्त्री के दर्द की सारी आवाज़ें थीं। 'हाँ, ऐसा होना चाहिए। और शायद औरतें ही कभी यह आवाज़ उठाएँगी, इतिहास के इस साक्ष्य को जानते हुए भी कि विजय सदा अन्याय की हुई है। न्याय सिर्फ  मिथकों में जीतता है, इतिहास में नहीं।’

'लेकिन अहिंसक होने की ताक़त पर संघर्ष हमेशा जीते हैं। बहरहाल आप अपनी कहानी सुनाती रहें। वह दिलचस्प होती जा रही है।’

'मेरे पिता न हिन्दू थे और न मुसलमान, वे दोनों थे और उन्होंने मेरे भीतर भी यह समझदारी पैदा की कि मैं न मुसलमान हूँ और न हिन्दू, मैं दोनों हूँ।’ मैंने अनीस किदवई से कहा, 'और फिर मेरा जन्म जहाँ हुआ, वह हिन्दुस्तान था। मैं पाकिस्तान क्यों जाऊँगी?’ फिर वह मेरी ओर मुखातिब होकर बोली,’ यह मेरा उस समय का निर्णय था, जब मैं एक ना समझ बच्ची थी। बाद में जब मैं वयस्क और समझदार हो गई तो मुझे अहसास हुआ कि यह मेरे जीवन का सबसे अहम और पवित्र $फैसला था जिसने मुझे ऐसे देश में जाने से बचाया, जिसकी स्मृति लूटमार, हत्या, बलात्कार और आगजनी से शुरु होती है और भविष्य में जिसकी संस्कृति इकहरे धर्म की रेखा से लिखी जानी थी।’

'वाकई यह तो सही है कि भारत एक विविध धर्म, समुदाय, भाषा, संस्कृति का एक ऐसा कोलाज़ है कि उस कोलाज को जितनी बार भी देखो उतनी बार उसमें से नए रूपाकार और नए रंग संयोजन उभरने लगते हैं।’

मेरे इस कथन को बहुत क्रांतिकारी माना गया और अनेक समाचार पत्रों में इसका उल्लेख हुआ। 'उसने कहा,’ लेकिन जब इरविन अस्पताल के इन अनाथ  बच्चों को गोद लेने के लिए अखबारों में इश्तिहार दिया गया तो लगभग सभी लड़के गोद ले लिए गए, लड़कियाँ अनाथलयों में चली गई, मुझे न किसी परिवार ने गोद लिया और न किसी अनाथालय या यतीमखाने ने स्वीकार किया। इसके लिए मुझे हिन्दू या मुसलमान में से कोई एक होना था और मैं दोनों थी। ये बहुत उदास दिन थे। मैं इरविन अस्पताल से हर दिन अपने साथी खोती जा रही थी। हर साथी के खोते जाने के बाद मैं उम्र में बड़ी और समझदार हो जाती। मैं स्वस्थ हो चुकी थी और अब अस्पताल में मेरे लिए कोई जगह नहीं रह गई थी। मैं यह सुनकर हर समय डरी रहती कि मुझे भीख मांगने का धंधा करने वाला गैंग उठा लेगा। मैं सपनों में अपने को अंगभंग किसी चौराहे पर भीख मांगते देखती और चौंककर जाग जाती। मेरी एकमात्र आशा अनीस किदवई थी। लेकिन वे उन दिनों पंजाब में पुनर्वास के काम में व्यस्त थी। मैं हर दिन ईश्वर से प्रार्थना करती और खुदा से दुआ करती। इस मामले में मैं किसी से भी अधिक धनवान थी। मेरे पास ईश्वर भी था और अल्लाह भी।

'महात्मा गाँधी की तरह....’ मैंने कहा।

'नहीं,’ उसने विरोध किया,’ उनके पास ईश्वर और अल्लाह दोनों थे लेकिन तब भी वे सनातनी हिन्दू थे। बहरहाल, मेरी प्रार्थनाएँ कबूल हो गई। व्यस्तताओं के कारण अनीस किदवई तो नहीं आ सकी लेकिन मृदुला साराभाई मुझे मिलने आई। शायद अनीस किदवई ने उन्हें मेरे बारे में बताया होगा। वे इस बात से अचम्भित थी कि पाकिस्तान से शिविर के साथ एक ऐसी लड़की भी आई है, जो न हिन्दू है और न मुसलमान, वह दोनों है। उन्होंने मुझे अपनी बाँहों में भरते हुए कहा कि अगर महात्मा गाँधी की हत्या न की गई होती तो उनके साबरमती आश्रम मेरे लिए आदर्श स्थान होता। लेकिन वे मार दिए गए और इस देश में उग्रवाद जन्म ले चुका है, जो कभी इस देश की राजनीति पर हावी हो सकता है और यह बहुत ख़तरनाक वक़्त होगा।

'मेरी समझ में नहीं आया कि जो वक़्त मैंने देखा, उससे ख़तरनाक भी कोई वक़्त हो सकता है। लेकिन अब लग रहा कि शायद वे...

'देश के प्रमुख उद्योगपति अंबालाल की बेटी और महान वैज्ञानिक और भारत में अंतरिक्ष विज्ञान के जनक विक्रम साराभाई की बहन और कांग्रेस की महिला शाखा की सचिव और नोवाखली के साम्प्रदायिक दंगों में महात्मा गाँधी की सबसे बड़ी सहायक मृदुला साराभाई ने, जिन तथ्यों को बहुत बाद में जब मैं समझदार हो गई थी तक जाना, मुझे अपने संरक्षण में ले लिया। वे जैन थे। उनके माध्यम से मैंने एक अनिश्वरवादी धर्म के बारे में भी जाना, जिसकी मान्यता है कि सृष्टि का संचालन करनेवाला कोई नहीं है, वह स्वयं संचालित और स्वयं शासित है।

'उन्होंने मेरे धार्मिक विश्वासों से कोई छेड़छाड़ न करते हुए मेरे पोषण और शिक्षा की सारी व्यवस्था की।’

'ग्रेट।’ मैंने अभिभूत स्वर में कहा।

'जीवन में कोई दिन आता है, जो सोने के अक्षरों से लिखा जाता है। यह वहीं दिन था। मृदुला साराभाई के विशेष आग्रह पर नेहरु जी ने समारोह के मुख्य अतिथि का आमंत्रण स्वीकार कर लिया था। उनके हाथों प्रतिभाशाली छात्रों को सम्मानित किया जाना था। मैं भी प्रतिभाशाली छात्र-छात्राओं में शामिल थी। इसके अलावा मुझे स्टेज पर उनकी लिखी किताब 'डिसकवरी ऑव इंडिया’ से मौखिक एक पैरा सुनाना था। यह किताब पढ़ते हुए मैंने जाना कि यह संवेदनशील लेखक की रोमानी या अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं सोदेश्य यात्रा है जो प्राचीन परम्परा और बुद्धिमत्ता को संगठित करते हुए इतिहास में की गई गलतियों और असफलताओं से सबक लेने का आग्रह करती है। सच, मैं इतनी अभिभूत थी कि मेरी समझ में ही नहीं आ रहा था कि नेहरु जी राजनेता बड़े हैं या लेखक बड़े हैं।

'वे चूड़ीदार पैजामे और अचकन में थे। ऐसी पोशाक जो न दूसरों के सामने अपने को छोटा बनाती है और न दूसरों को अपने सामने छोटा महसूस करने देती है। अचकन में गुलाब की ताज़ा टिटकी कली मुस्कुरा रही थी। उनकी आँखों में सपने थे। चेहरे पर उदात्त गरिमा थी और मुस्कराहट में विश्वास था। जब उनके हाथों से पुरस्कार लेने के लिए मेरा नाम पुकारा गया तो वे चौंक गए।

'सीता हसीना।’ उन्होंने जिज्ञासु दृष्टि से मृदुला साराभाई की ओर देखा।

'यह लड़की विभाजन के समय अपने परिवार को खोकर चिकित्सा शिविर के साथ भारत आई थी। यह अपना यही नाम बताती है और कहती है कि वह न हिन्दू है और न मुसलमान, वह दोनों है।’

'प्रधानमंत्री ने गहरे अपनत्व से मेरा कंधा थपथपाया। उनकी इस थपथपाहट से मेरे रक्त में हज़ारों हज़ारों फूल मुस्कुरा गए। इसके बाद एक और कल्पनातीत आश्चर्य हुआ। अविस्मरणीय। उन्होंने अपनी अचकन में सजी गुलाब की कली निकालकर मुझे देतेे हुए कहा कि मैं सच्ची हिन्दुस्तानी हूँ और देश का वह भविष्य हूँ, जिनका उन्होंने सपना देखा।’

अपने जीवन के महानतम क्षणों की स्मृति से गुजरते हुए उसका चेहरा बहुत मोहक हो गया था। इसके बाद सहसा वह आहत वर्तमान में लौट आई जैसे चमकदार शिखर से अंधे कुए में फेंक दी गई हो। उसने बहुत निराश और हताश स्वर में कहा, 'और उसके कई दशकों के बाद अब  लोकतंत्र बहुत उदार हो जाना चाहिए था और धर्मों के बीच की रेखाएँ पिघल जानी चाहिएँ थी.....मुझे अफ़सोस है। मैं गहरे असमजंस में हूँ और मुझे नहीं मालूम कि अपने इस देश में मेरी कोई जगह है या नहीं।’

'लेकिन उस कानून के खिलाफ़ लोग सड़कों पर हैं।’ मैंने उसे आश्वस्त किया, 'सारे देश में हर जगह और हर कहीं। पहली बार पता लगा कि इस देश में हर कहीं शाहीनबाग है।’

'उन्हें सलाम है,’ उसने सलाम की मुद्रा में अपना हाथ माथे से लगाया। 'शाहीनबाग की इन महिलाओं ने विरोध की ऐसी इबारत लिखी जैसे पहले कभी नहीं लिखी गई।’

'लेकिन इन्हें तो देश का गद्दार कहा गया। गोली मारने के नारे लगे और इतनी आगजनी, हत्याएँ और लूटमार हुई।’

मेरी बात सुनकर वह हँसने लगी, 'यह भी इस देश में एक नए ढंग का राष्ट्रवाद है। बहरहाल मेरी समस्या तो इससे बिल्कुल अलग है। हालांकि इस मुश्किल वक़्त में जब कपड़ों से आतंकवादियों की पहचान होती हो, यह मालूम करना जोखिम भरा था कि मेरी और मेरे जैसे लोग जो न हिन्दू हैं, न मुसलमान है, और वे दोनों है की जगह इस कानून में कहाँ है। मैंने हिम्मत की और उनसे पूछने गई। लेकिन मेरी उनसे मुलाकात नहीं हो सकी। वे उस समय हिन्दू संस्कृति में थे, जिसे भारतीय संस्कृति कहा जा रहा..... हताश लौटते हुए मैंने आसमान में देखा वहाँ एक पतंग उड़ रही थी जिस पर स्वास्तिक का पवित्र प्रतीक बना हुआ था। लेकिन तब तब मैं बेहद आतंकित होती रही जब जब पतंग हवा में करवट बदलती और पवित्र प्रतीक उलट उलट जाता रहा।

   इसके बाद इस उम्मीद के साथ मैं एक लेखक की तलाश करने लगी जो मेरी बात वह जनता तक पहुँचाएगा। संयोग से आप भी कहानी की तलाश में परेशान थे।

 

पंत देहरादून में रहते हैं। वरिष्ठ और बड़े कथाकार हैं। उनकी मशहूर कहानियाँ 'पहल’ में छपती रही है। यहां प्रकाशित उनकी कहानी राष्ट्रवाद का नया दर्पण है।

 

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