कविता और आलोचना की साझा जमीन

  • 160x120
    मार्च - 2020
श्रेणी कविता और आलोचना की साझा जमीन
संस्करण मार्च - 2020
लेखक का नाम अच्युतानंद मिश्र





आलोचना

 

विजय देव नारायण साही

 

कविता का जो सम्बन्ध आलोचना से है,क्या वही सम्बन्ध कवि का आलोचक से है? आलोचक और कवि के बीच के तनाव से आलोचना और कविता के बीच जो रचनात्मक सम्बन्ध विकसित होता है, उसका इस प्रश्न से गहरा सम्बन्ध है, लेकिन यह प्रश्न तब और जरुरी हो जाता है, जब आलोचक स्वयं कवि भी हो।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कविता में इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमें मुक्तिबोध और विजय देव नारायण साही बरबस याद आते हैं। मुक्तिबोध को पढ़ते हुए इस प्रश्न पर विचार करना और कठिन हो जाता है, क्योंकि मुक्तिबोध विधाओं की सीमाओं के पार चले जाते हैं और वहां पर कविता या आलोचना का विभाजन एक स्थूल विभाजन बनकर रह जाता है।

इस प्रश्न पर विचार करते हुए साही को समझा भी जा सकता और उनके लेखन के अंतर्विरोधों की पहचान भी की जा सकती है। साही कवि होते हुए भी आलोचक की निगाह से ही कविता को देखते हैं, लेकिन वे कवि और आलोचक के बीच के तनाव को छोड़ते नहीं। परिणामस्वरूप उनकी आलोचना कविता के साथ एक रचनात्मक संवाद करती है। यह संवाद साही के यहाँ आत्म संवाद की शक्ल इिख्तयार करता है, लेकिन उसकी अनुगूँज दूर तक जाती है।

''मेरी समझ में आलोचना का काम साहित्यिक कृति की संवेदना को जबरदस्ती खींचकर पाठक तक पहुँचाना नहीं है। आलोचना सिर्फ इतना कर सकती है कि पाठक के जो भी वैचारिक या धारणात्मक पूर्वग्रह, जाने या अनजाने, अपनी उपस्थिति या अनुपस्थिति के कारण पाठक को उस और उन्मुख होने से रोक रहे हैं जहाँ से काव्य का 'प्रभाव’ प्रवाहित हो रहा है, उन्हें विनष्ट करके पाठक को एक उचित तत्परता की अवस्था में छोड़ दे। यंत्र जगत की एक स्थूल उपमा के द्वारा हम यों कह सकते हैं कि रेडियो की सुई को उचित लहर-मान प्रश्न लाकर लगा भर देना आलोचना का काम है; बाकी ट्रांसमीटर से आता हुआ गायन तो रेडियो सेट स्वयं पकड़ेगा। अब अगर वहां से गायन आ ही न रहा हो, या आवाज़ में गडबडी हो,तो आलोचक गाने वाले के स्वर से स्वर मिलकर गा नहीं सकता’’।

यहाँ आलोचना की रचनात्मक भूमिका और कविता के साथ उसके समवर्ती संवाद की तरफ इंगित करते हुए साही आलोचक की भूमिका स्पष्ट करते हैं। आलोचना और कविता के अंतर्संबंध में यह हिंदी आलोचना की उपलब्धि कही जा सकती है।

'लघुमानव के बहाने हिंदी कविता पर एक बहस’ लिखकर साही नई कविता की वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हैं। साही के दृष्टिकोण में नई कविता का मूल विरोध छायावाद से है। छायावाद से नई कविता की यात्रा में साही युग संदर्भ को रखते हैं। एक तरह से वे युगबोध और समाजशास्त्र के अनुशासन को कविता से जोड़ते हैं। आज तक़रीबन आधी सदी से भी अधिक समय के बाद इस लेख का महत्व असंदिग्ध है। असंदिग्ध इसलिए कि यह लेख आलोचना के लिए अन्तर-अनुशासनात्मक पद्धति को महत्व देता है। ऐसा करते हुए साही कविता के समाजशास्त्र की पृष्ठभूमि को विकसित करते हैं।

कविता का समाज और युग से जो सम्बन्ध है, वह स्थूल न होकर एक गतिशील सम्बन्ध है इसलिए छायावाद की महानता अपने युग के उपरांत अर्थहीन होने लगती है। साही मनुष्य की परिकल्पना को रखते हैं और युगीन जटिलता के साथ उसकी संगति एवं विरोध की पहचान करते हैं। वे लिखते हैं -

''मनुष्य की हर परिभाषा मूलत: 'सहज मनुष्य’ की परिभाषा है। चाहे हम मनुष्य की इस परिभाषा को कितना ही विकृत या अयथार्थ क्यों न समझे। अगर वह सहज मनुष्य की न हुयी तो उसे परिभाषा कहना ही व्यर्थ है’’।

साही के अनुसार मनुष्य की परिकल्पना में मौजूद समस्या को उठाना साहित्य का काम है।  साहित्य की मुख्य भूमिका सृजनात्मक यथार्थ को व्याख्यायित करना है। यथार्थ गतिशील होता है। गतिशीलता को पकड़ सकना सिर्फ साहित्य में ही संभव होता है। परिभाषा जहाँ मनुष्य को एक दौर विशेष से बांधती है, वहीं साहित्य उसे स्वतंत्र करता है, क्योंकि वह परिवर्तित युग संदर्भ को व्याख्यायित करने में सक्षम है। इसे वे छायावाद से जोड़ते हुए बताते हैं कि छायावाद में भी लघु से महत् की और प्रस्थान का प्रयत्न है। जयशंकर प्रसाद की आलोचनात्मक दृष्टि का उल्लेख करते हुए साही इस और ध्यान आकृष्ट करते हैं कि प्रसाद जी छायावाद की इसी चेतना को व्याख्यायित करते हुए यथार्थ को लघु से और आदर्श को महत् से सम्बद्ध करते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए साही लिखते हैं-

''लघु और महत् दोनों कहीं न कहीं वैसे ही मिलते हैं जैसे यथार्थ और आदर्श। यह कोई नई उपलब्धि नहीं है। प्रसाद जी ही क्यों, सारे 'छायावाद युग’ की कोशिश इन दोनों का भेद मिटाने की ही रही है। 'यथार्थोन्मुख आदर्शवाद’, आदर्शोन्मुख यथार्थवाद या उसी वजन पर अगर हम बना सके 'लघुन्मुख-महत्वद’ या 'महदुन्मुख-लघुवाद’’।

 

छायावाद में यथार्थ की जमीन पर खड़े होकर आदर्श की और देखा जाता था। ऐसा इसलिए भी था कि राष्ट्रवादी आन्दोलन में गांधीवाद की यही परिकल्पना थी। गांधी का दृष्टिकोण एक युग एक समाज और सभ्यता के दृष्टिकोण में ढल चूका था। यही वजह है कि गांधीवाद के अनुरूप ही छायावाद भी एक समग्रता को इंगित करती थी। क्या यह जुड़ाव सहज था या स्थूल था? छायावाद जिस सूक्ष्मता के प्रश्न को सामने लेकर आई थी, क्या उसका दृष्टिकोण उसके विपरीत स्थूलता को नहीं रच रहा था? साही बताते हैं कि छायावाद के कवियों के यहाँ देशकाल से मुक्त एक तरह का आध्यात्मिक रवैया भी देखने को मिलता है, और राष्ट्रवादी संघर्ष के यथार्थ के समानांतर गाँधी के यहाँ भी मानवीय दर्शन की देश कालातीत अवधारणा सदैव सक्रिय रहती है। साही के अनुसार छायावाद अंतर्जगत और बाह्यजगत के विभाजन को नकार देती है और उसके एकमेक होने पर बल देती है। वहां आदर्श और नैतिकता में कोई विभाजन नहीं रह जाता। इस तरह छायावाद समग्रता को इंगित करने का प्रयत्न करती है। वह समाज, संस्कृति, जीवनधारा और अंत:करण सब को एकमेक करने का लक्ष्य सामने रखती है। यही उसका नैतिक विजन है।

क्या समाज भी इसी नैतिक विजन के सहारे चलता है, तीस के दशक में यह नैतिक विजन अपर्याप्त होने लगता है, यह समग्रता टूटने लगती है। गांधीवाद का यथार्थोन्मुख आदर्शवाद युग के साथ संगति नहीं बिठा पाता है। छायावाद का जादू तो टूटता है ही साथ ही एक बड़ा शून्य भी पसरता है। साही कहते हैं इसी शून्य में एक तरह का रोमान पल्लवित होता है तो साथ ही मुखर राष्ट्रवाद भी पुष्पित होता है। साही इसे ही तीसरा दशक कहते हैं। वे कहते हैं अधिक वस्तुपरक होना इस समय की मांग थी और इसी अर्थ में तीसरा दशक वस्तुपरकता को नये सिरे से सृजित करता है-

''तीसरे दशक की कविता का सबसे महत्वपूर्ण योगदान यही है कि उसने यह देखा कि सभ्यताएं और संस्कृतियाँ सिर्फ प्रतीकों और आदर्शों के सहारे नहीं चलती। उनको चलाने वाली वस्तु उनसे भी गहरी है जो उनका भी निर्माण करती है- वह है हमारे देश की आन्तरिक लय’’।

साही के लिए तीसरे दशक में राष्ट्रीय आन्दोलन की दिशा बदलती है और गांधीवादी भारतीय समग्रता एवं नैतिक विज़न का जादू टूटने लगता है। लेकिन इस टूटने की प्रक्रिया में एक अगम्भीरता, एक तरह का सरलीकरण, एक तरह की नाटकीयता समूचे परिवेश पर हावी हो जाती है। तार सप्तक के कवियों के समक्ष मूल प्रश्न यह था कि तीस के दशक में जो अगम्भीरता और रूमान दृश्य पर हावी हो चुका था, उससे कविता को मुक्त कैसे किया जाए? साही के लिए नई कविता की आधारभूमि यही थी। इस अर्थ में साही प्रयोगवाद को कहीं भी महत्व नहीं देते हैं। उनके अनुसार छायावाद और तीसरा दशक दोनों के खिलाफ विद्रोह करने का काम नई कविता ने किया, जिसका आरम्भ तार सप्तक से हो जाता है। लेकिन नई कविता किसी एकात्मक काव्य चेतना को परिलक्षित करती हो, ऐसा नहीं था। नई कविता में कई धाराएँ थीं।

 

साही की कविताओं से उनके आलोचनात्मक दृष्टि का क्या रिश्ता है? यह एक बेहद जटिल और  अबूझ प्रश्न है। अबूझ प्रश्नों के अनेक उत्तर हो सकते हैं। इस अर्थ में भी प्रश्न अबूझ हो जाते हैं लेकिन प्रश्नों के उत्तर ढूँढना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है। अत: साही के संदर्भ में भी इस प्रश्न का उत्तर दिया जाना चाहिए। इसे इस तरह भी पूछा जा सकता है कि नई कविता को लेकर जो दृष्टिकोण साही के आलोचक का है, क्या वही दृष्टिकोण कवि साही का भी है? अगर ऐसा नहीं है, तो क्या इसे विधागत फांक के रूप में ही देखा जाना चाहिए या कि यह व्यक्तित्व के अन्तर्विरोध के परिणामस्वरूप है?

ऊपर हमने साही के आलोचनात्मक मानों की चर्चा की। साही का स्पष्ट मानना था कि नई कविता अन्दर और बाहर के बीच के सहज सम्बन्ध को नहीं स्वीकारती। वह दोनों के बीच एक बड़ी खाई को पाती है और यह खाई मनुष्य के अनुभव को लगातार बदल रहा है। वह किसी विराटता की ओर उन्मुख नहीं है, बल्कि अपने अंतस में या तो गुम है या बाह्य के तीव्र शोर में बही जा रही है। क्या यह निष्कर्ष साही स्वयं अपने लिए भी बनाते हैं, जहाँ उनका आलोचनात्मक बाह्य उनके संवेदनात्मक अंतस के मध्य खाई को पाट नहीं पाता?

साही की आरंभिक कविताओं का प्रकाशन तीसरा सप्तक में हुआ। तीसरा सप्तक का प्रकाशन 1959 में हुआ। हालाँकि यह नवोदित कवियों को प्रकाश में लाने का उपक्रम था, लेकिन साही इसमें प्रकाशित होने से पूर्व चर्चित हो चुके थे। वे परिमल की बौद्धिक इकाई के अगुआ थे।

तीसरा सप्तक की साही की कविताओं में एक तरह का रूमान है। यह रूमान नई कविता का रूमान तो है ही लेकिन इस रूमान में छायावाद के रुमान का विरोध भी मौजूद है. साही की समग्र संवेदना और बौद्धिकता को अगर हम समझना चाहे और उसमें अंतर्निहित मूल्य को रेखांकित करना चाहे, तो हम कह सकते हैं कि साही नें दोनों ही धरातल-संवेदना और बौद्धिकता- पर छायावाद के प्रति एक सतत आलोचनात्मक विवेक विकसित किया।

साही की तीसरा सप्तक की कविताओं में भी छायावाद के गीति-तत्व का विरोध अंतर्निहित है। साही मानते हैं बाह्य और अन्त: के बीच का संतुलननई परिस्थितियों में विनष्ट हो चूका है। आधुनिकता ने भारतीय चेतना में मौजूद सनातनता की अवधारणा को अपर्याप्त बना दिया है। सनातनता के बोध से जो संवेदना निर्मित हो रही है, वह सूक्ष्म जीवन बोध या वर्तमान जीवन अनुभव से संपृक्त नहीं रह गयी है।

साही जीवन राग को नहीं जीवन दर्शन को कविता में रखते हैं। छायावाद ने दर्शन को राग में बदला था. साही कविता में उसे फिर से दार्शनिकता में बदलते हैं।

टूटते, तीखे नशे- सी याद

आँगन में खड़ी चुपचाप

तकती अपलक करुणा असहाय

किसी लम्बी कथा के आभास सी यह रात

आज मैंने फिर तुम्हारा नाम लिख कर

खत्म कर दी बात।

साही रूमानियत की भाषा में रूमानियत के बोध का विरोध रचते हैं। वे दर्द का गीत गाने की बजाय, पीड़ा के झूठे आनंद पर सवाल उठाते हैं। एक रात की पारिस्थितिकी में उसकी याद का नक्श उभरता है, लेकिन याद तो याद है। हकीकत नहीं। यह एक झूठा अनुभव देता है। इस झूठ के साथ कोई कैसे संवाद करे? इसलिए साही नाम लिखकर बात खत्म करते हैं। शून्य में जीवन व्यापार आगे नहीं चल सकता। छायावाद के कवि मन मंदिर में बनी आकृति को ही जीवन का संबल मानते थे, लेकिन साही कल्पना और यथार्थ को इस तरह जोडऩे की बजाय स्मृति को उस क्षण विशेष पर रोक देते हैं। इसमें पूरा जीवन नहीं, एक क्षण है और उस क्षण के अनुभव का सरमाया है।

साही आधुनिक बोध के कवि हैं। वे वायवीय भाषा को काव्य बोध का पर्याय नहीं मानते, इसलिए कल्पना के रास्ते कल्पनात्मक तृप्ति को आलम्ब नहीं बनाते। वे कल्पना से यथार्थ की ओर आते हैं। उनके यहाँ जीवन जगत और प्रकृति के आदर्शवादी चित्र नहीं हैं। वे किसी विराट प्रकृति का आह्वान नहीं करते, क्योंकि विराटता का दृश्य या विचार, मनोगत अनुकूलन को ही प्रसारित करता है। उनकी कविताओं को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि मनुष्य होने के अर्थ से परिपूर्ण अपने सीमित दायरे के वास्तविक अनुभवों को ही वे कविता में रखते हैं। अनुभवों की तल्खी एवं उनके बेचैन और सक्रिय व्यक्तित्व की गहरी छाप, उनकी कविताओं की जैविक काया निर्मित करती है।

साही की कविताओं में कल्पना से यथार्थ, अनुभव से व्यवहार के बीच संवेदनात्मक यात्रा की प्रक्रिया दिखाई देती है।

दो मुझे

वह वेग

जिस से थाह की यह सालती अनिवार्यता मिट जाय

वह रोध

जिस से यह उछलता भंवर ठहरे ठहर कर फट जाय

यहाँ दर्द से दर्द की तरफ जाने की आकांक्षा नहीं है, न ही उमड़ कर मिट जाने की छायावादी चाह। यहाँ तो पीड़ा का सहज स्वीकार है और उससे निकल कर कहीं पहुँचने की सरल इच्छा।

साही की कविताओं में पीड़ा के अनेक क्षण हैं। ये तमाम क्षण मिलकर एक समग्र जीवन बोध रचते हैं. मछलीघर की कविताएँ वस्तुत: इसी पीड़ा से साक्षात् होने की कोशिश है। मछलीघर का प्रथम प्रकाशन 1966 में हुआ. तीसरा सप्तक के बाद की कविताएँ इस संग्रह में शामिल हैं। ये कविताएँ, अपने शिल्प में सप्तक की कविताओं से भिन्न हैं। इन कविताओं में साही पूरी तरह छायावाद से बाहर आ जाते हैं. ये कवितायेँ संवाद करती हैं। साही ने भूमिका में इसे एकालाप कहा है। यानी ये कवितायेँ आत्म संवाद की कविताएँ हैं। इन कविताओं में कवि और पाठक का द्वैत नहीं हैं, दोनों एक ही है. ऐसा इसलिए क्योंकि साही इसमें अनुभव के वैशिष्ट्य को नहीं रखते, बल्कि अपने अनुभवों को अपने सहज बोध में रूपांतरित करते हैं। ये कविताएँ आत्म अनुभव को सहज अनुभव बनाने की कविता है। जाने पहचाने दृश्यों को जज्ब करने की कविता है। अनुभव को बोध में बदलने की कविता है।

जानते हो घर लौटने के बाद मैंने क्या सोचा ?

कि सचमुच जब मैं बाते कर रहा था

तब तुम भी नहीं थे -

सिर्फ वे शब्द थे

जो मुझे तराशते चले जा रहे थे।

आत्म अनुभव के आत्मबोध में बदलने की उपलब्धि क्या है? साही के लिए वह सहजता को प्राप्त करना है, गुरुता से मुक्त होना है। अन्दर की गांठे खोलकर ही हम बाहर की जटिलताओं को सुलझा सकते हैं।

सिर्फ आलोक ही नहीं

वह भी जिसमें आलोक समा जाता है

सिर्फ विभोरता ही नहीं

वह भी जो विभोरता के बाहर सांय सांय करता है

साही की इन कविताओं में जीवन-जगत का बाहरी रूप लगभग नहीं है। लेकिन जीवन जगत का वह सान्द्र रूप जरुर है जो बाहर से भीतर एक शक्ल अख्तियार करता है। इन कविताओं में भाषागत रूप दृश्य ज्यादा हैं। मूर्त कम। लेकिन वेमूर्तन के विरुद्ध नहीं हैं।

दरअसल साही की कविताएँ अमूर्तन से मूर्तन की प्रक्रिया को जीवन जगत की गतिशीलता से संपृक्त नहीं करती। वे इसे एक दार्शनिक निष्पत्ति तक ले जाते हैं। कविता के सम्बन्ध में यह कितना कारगार साबित होता है, इसपर अलग से बहस हो सकती है, लेकिन दुनिया को समझने के क्रम में साही कविता के पास जाते हैं। वे अमूर्त से अमूर्त की यात्रा नहीं करते। वे मूर्त दुनिया को आत्मविवेक की कसौटी पर कसते हैं। इसलिए साही के यहाँ जो भय है, प्रश्नाकुलता है, आशंका है, वह निजी होते हुए भी एक सामूहिक अनुभव का लघु रूप है।

किसने मुझे इस स्वनिर्मित केंद्र में छोड़ दिया

जिसमे चारों और खोखले समुद्र की तरह

सिर्फ आलोकहीन विस्तार हैं

और दूर किनारों पर भागते हुए मद्धिम नक्षत्र -लोक?

साही यह भी जानते हैं कि आत्म अनुभव तक ही सीमित रहना, व्यापक विस्तार से काट देता है। मुक्तिबोध ने इसके लिए एक लगातार आवाजाही की बात की थी और नई कविता पर इसके अभाव का आरोप भी लगाया था। वे नई कविता के कवियों में आत्मसंघर्ष की कमी की बात करते हैं। साही के यहाँ इसका आत्मस्वीकार है।

मछलीघर की कविताओं में मैं और तुम की शैली है। हर कविता में कवि की उपस्थिति देखी जा सकती है। दरअसल साही तटस्थता को वायवीयता मानते हैं। वे कहते हैं

अगर यों सिर्फ आँखें फेरने से काम चल जाता

तो फिर ऐ दोस्त जी लेना बहुत आसान हो जाता

मगर हम और हम जैसे

कि जिनसे जिंदगी की बात का मतलब निकलता है

महज़ आसान रस्तों में भुलाये नहीं जा सकते।

साही की कविताओं में सहज भाषा की तार्किकता देखी जा सकती है। साही से पूर्व हिंदी कविता में न तो यह रोजमर्रा की जुबान है और न इतनी स्पष्ट तार्किकता। बावजूद इसके हम यह प्रश्न पूछ सकते हैं कि साही की कविताएँ, उस तरह हमारे भावजगत को नहीं छूती, जिस तरह मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय या श्रीकांत वर्मा की कविताएँ छूती हैं, तो इसका एक स्पष्ट कारण तो यह है कि वे रोजमर्रा की भाषा में कविता जरुर लिखते हैं, लेकिन उसमे रोजमर्रा का जीवन बोध नहीं आता। वे रूमान से तर्क की और आते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में संवेदनात्मक रूपांतरण का काम छूट जाता है।

गला काट देने पर

मुर्ग तड़पता है

साफ़ लगता है

अभी कुछ होगा।

 

थोड़ी देर में

मुर्ग मर जाता है

साखी की कविताओं में साही का संवेदनात्मक विस्तार तो नजर आता है, जैसे अकेले पेड़ों का तूफान  -

इस नगर में

लोग या तो पागलों की तरह

उत्तेजित होते हैं

या दुबक कर गुमसुम हो जाते हैं.

जब वे गुमसुम होते हैं

तब अकेले होते हैं

लेकिन जब उत्तेजित होते हैं

तब और भी अकेले हो जाते हैं।

आधुनिकता के संकट को इस कविता में बहुत सहजता से देखा गया है, लेकिन इन कविताओं में भी जो मछलीघर के बाद की कविताएँ हैं जन जीवन के दृश्य लगभग नहीं हैं।

साही की कवितायेँ पढ़ते हुए हम यह तो कह ही सकते हैं कि उनका बौद्धिक आत्म उनके काव्य हृदय पर हावी हो जाता है. मुक्तिबोध इस प्रकट तार्किकता को काव्यात्मकता में बदलने के लिए फैंटेसी का इस्तेमाल करते हैं. साही संवाद की भाषा तलाशते हैं, लेकिन इस भाषा की प्रकट तार्किकता से वो गुरेज़ नहीं करते। इस वजह से उनकी कविताएँ अपनी संवेदना का विस्तार नहीं कर पाती।

आज तक़रीबन आधी सदी से भी अधिक समय गुजर जाने के बाद साही की कविताओं का औचित्य क्या है? किसी भाषा की मुक्ति और विस्तार के तत्व उस भाषा की कविता में भी तलाशे जा सकते हैं।

साही ने संवाद की भाषा में दार्शनिक प्रश्नों की कविताएँ लिखी। ये कविताएँ किसी समूह या वर्ग को सामने रख कर नहीं लिखी गयी। दरअसल ये कवितायेँ अपने आत्म के सन्मुख होकर लिखी गयी हैं। छायावाद के कवियों खासकर निराला ने ऐसा किया लेकिन साही ऐसा करते हुए साहित्यिक भाषा नहीं बल्कि रोजमर्रा की भाषा का प्रयोग करते हैं।

समकालीन कविता के वर्तमान विस्तार को समझने के लिए हमे साही तक जाना होगा। यह स्पष्ट है कि साही अपनी ज्ञानात्मक चेतना को संवेदनात्मक दृष्टि में सफलतापूर्वक नहीं बदल पाते, लेकिन साही को पढ़ते हुए हम 50’ के दशक की बेचैनी को पढ़ सकते हैं। साही की कविताओं में जो प्रश्नाकुलता है, वह एक ही साथ स्वयं को और युग संबोधित है.छायावाद के उपरान्त हमारे पास एक ऐसी कविता का अविर्भाव होता है जिसकी फुनगियों परसमकालीन कविता के फूल खिले। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नई कविता से समकालीन कविता की जो भाषिक यात्रा है, उस यात्रा के पथ निर्माण में साही की बड़ी भूमिका है। साही को पढऩा अपने वर्तमान को अपने अतीत के साथ देखने की एक अनिवार्य कोशिश है।

 

पहल के जाने माने और नियमित लेखक।

संपर्क- मो. 9213166256

 

Login