अमेयकांत की कविताएं
कविता
चंद्रबिन्दु
गुम होती हुई चीजों में शामिल होने की कगार पर खड़ा यह कागज़ के हाशिए पर आते हुए धीरे-धीरे सरकता जा रहा है बाहर की तरफ़
अब इसके बिना भी चलने लगा है काम जैसे घर में धीरे-धीरे बेमतलब होता जा रहा कोई उम्रदराज़ शख्स
इश्तेहारों से सजे अखबारों के पन्नों में अब कोई गुंजाइश नहीं रह गई बाकी कि ठहरकर सोचा जाए इसके या इस जैसी दूसरी चीज़ों के बारे में
वर्णमाला में सिमटकर रह गए कई अक्षरों की तरह कर दिया जाएगा दरकिनार इसे भी एक दिन भाषा से पूरी तरह
जैसे ग्रहों के दर्जे से बाहर हो गया था प्लूटो जैसे छतों से गायब हो रही गौरैयाएं जैसे आदमी में से इन दिनों खुद गुम होता जा रहा है आदमी
इस वक्त को सुनते हुए
पहले बहुत बदनाम था सफेद झूट अब यह रंग बदल-बदलकर आता है सामने बहुत प्यार और चतुराई से घुसता है हमारे बीच
अक्सर पलता रहता है यह हमारे डर के सहारे मोबाइल फ़ोन से किसी भी समय आ धमकता है बीप की आवाज़ के साथ उकसाता है हमारे गुस्से को डराता है हमें कई-कई तरह से जगा देता है हमारे भीतर मौजूद बरसों से छिपी आदिम घृणा को
झूठ बड़ी सफाई से तब्दील हो जाता है इस समय के क्रूर यथार्थ में किसी ज़हरीले साँप की तरह रेंगने लगता है यह एक पूरी पीढ़ी के मस्तिष्क में लीलते हुए उसकी समूची तर्कशक्ति
एक तारणहार किस्म का आदमी अक्सर बोलता रहता है झूठ कोसते हुए इतिहास को धो-पोंछ डालना चाहता है बहुत कुछ बाँटते हुए यहाँ-वहाँ सस्ते किस्म के समीकरण
बहती रहती है पैसों की अथाह नदी जो भौंचक फटेहालों के लिए सरस्वती की तरह शाश्वत अदृश्य बनी रहती है इस नदी में गोते लगाती एक विचारधारा चुपचाप पनपती रहती है हमारे चारों ओर
स्तुतिगान गुंजायमान हैं हर दिशा में आलीशान स्टूडियो में घुसती हैं चमचमाती गाडिय़ाँ न्यूज़ चैनल का एंकर दौड़-दौड़कर करता है राष्ट्र-निर्माण में भागीदारी अस्पतालों में दम तोड़ते बच्चे न जाने कब चढ़ जाते हैं टीआरपी की भेंट
एक आदमी तब्दील हो जाता है धीरे-धीरे राष्ट्रीय चुटकुले ने धराशाही हो जाते हैं कुछ मौकापरस्त जोड़-घटाव सच को सच कहने वाले मुट्ठी-भर लोगों के हिस्से में आते हैं गालियाँ, थप्पड़ और गोलियाँ
अफ़ीम की तरह कोई चीज़ चुपचाप दिखा रही है अपना असर
हर सूचना पहुँचती है हम तक 'अश्वत्थामा हतो’ की शक्ल में उसके आगे के सच कोलाहल के बीच किसी धुंध में खो जाते हैं
झूठ का बेशर्म अट्टहास अब हर तरफ़ सुनाई देता है
पहाड़ के शहर से
शाम घुमावदार सड़कों की तरह उतरती है पहाड़ों से और ओझल हो जाती है पेड़ों के बीच तुम्हारी आँखों में फैल जाते हैं क्षितिज के रंग मॉल रोड की जगमगाहट के बाद किसी अकेली सी सड़क पर हम बाँटते हैं थोड़ा-सा अच्छा वक्त
कुछ मोमोज़ और उबले-भुने भुट्टों की गंध धीरे से दर्ज हो जाती है हमारे साझे समय में नीले झिलमिलाते तारों की तरह दिखता है तलहटी में बसा एक शहर
हम इस तरह बचा लेते हैं अपने बाकी जीवन के लिए कुछ स्मृतियाँ और थोड़ी सी ठण्डी हवा
उत्तरायण में ध्रुपद (प्रख्यात ध्रुपद गायक रमाकांत गुंदेचा की स्मृति में)
बादलों की सफेद टुकड़ी लुढ़क रही है गहरे नीले-ढलानों पर
कट कर नीचे आती एक पतंग जो नोम-तोम के साथ डोलते हुए ढूँढ रही थी अपना सम हिलग गई है बीच ही में किसी पेड़ की डाल पर
किसी बहुत गहरी खोह से निकलता है खरज का स्वर और विरल होकर खो जाता है आकाश में हवा बदल रही है अपना मिज़ाज और सूरज अपनी विदा की दिशा
सूलताल पर बज रही है भैरवी युद्धक्षेत्रों से दूर प्रतीक्षाएँ अब निकल जाना चाहती हैं अनंत यात्राओं पर
अमेय कान्त, जन्म 10 मार्च, 1983, इंदौर (म.प्र.), शिक्षा - बी.ई., एम.ई. (इलेक्ट्रानिक्स), प्रकाशन) अनेक प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में कविता का प्रकाशन, एक कविता संग्रह 'समुद्र से लौटेंगे रेत के घर’ 2016 में अंतिका प्रकाशन से प्रकाशित। लगभग दस वर्षों तक इंजीनियरिंग कॉलेजों में अध्यापन के बाद इस समय फ्रीलांस अनुवाद। संपर्क- 155-एलआईजी, मुखर्जी नगर, देवास (म.प्र.) 455001 मोबा. 09827785868
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