हरिओम राजोरिया की कविताएं
कविता
कुछ असम्बद्ध कविताएं
एक
ये किसकी छबियाँ दृश्यमान हो रहीं? कौन है ये मसखरा? शहर के जाने-माने सटोरिये का तीसरे नम्बर का साला जान पड़ता है पता नहीं क्या खेल है धक्का मुक्की है, रेलम पेल है गोल-गोल-गोल है क्या हमारे कहन में कुछ झोल है?
भाईसाहिब! मैं तो जनता का सेवक हूँ सबको रोजगार दूंगा सरकार से सस्ती बिजली लूँगा और कुछ सामान तैयार करवाऊंगा इस काम में जनता का पैसा भी लगाऊंगा माल पर माल, माल पर माल कमाऊंगा जैसे ही मौका लगेगा देश के बाहर सटक जाऊँगा मेरी बैंक गारण्टी जप्त कर लो हमारी फैक्ट्री को बैंक खाते के साथ अटैच कर लो क्या लाया था? क्या खोया है? थोड़ा संतोष तो करना ही पड़ेगा मेरा क्या है? ध्यान में चला जाऊंगा गीता पढ़ूंगा, भजन गाऊंगा भवसागर में गोता लगाऊंगा।
दो
राजन को छाजन है फौरी एकता के लिए यह ज़रूरी है दाम भले ही खोटा है अपनी रस्सी है, अपना लोटा है
झोला है, दरी है, मोरी है अनाज रखने को फटी बोरी है दाँत है, दर्द है, इंजेक्शन है, गोली है देश की जनता लाचार है, भोली है
डॉक्टर इलाज नहीं करता प्लॉट खरीदता है एक आदमी चीख़ता है थोड़ी सी जगह हमें छोड़ दो।
जुलूस में सब लाइन बनाकर चलें अब राजधर का ज्ञापन कौन लेगा? हल्के की दरख्यास्त कौन लिखेगा? सोयाबीन है, इल्ली है और टीवी पर एक नकुआती हुई आवाज़ है
वैशाख, ब्याज, किश्त, कोरा काग़ज़ कुँए की सूखती झिर एक खुराक दवा से दस्त साफ हो जाता है फलाँ-फलाँ एंड संस का पिताजी अगर रास्ते के बीच न आता खीर खाई, गप्प लगाई, पैसा हज़म खसरा, खतौनी, चना जोर गरम.
फूल फेंकने वाले
पन्द्रह तरह के नृत्य दल थे तीस तरह के गाने वालों के समूह फूलों की पंखुडिय़ां थीं बीस लाख की जो छतों से बरसाई जानी थीं कीड़े-मकोड़ों की तरह रास्तों पर जमा थे जन-जूध झंडे थे, पुलिस के डण्डे थे, संवाददाता थे सजे सजाए इंतजार में खड़े राम, सीता, लक्ष्मण थे
कहने को वे दीन-हीन जनता के पहरेदार थे पर अब चुनाव जीतते ही राजों के राजे महाराजों के महाराज थे इतना भार था मन पर कि ठीक से मुस्कुरा भी नहीं पा रहे थे वे जन दर्शन को पधारे थे खत्री, निषाद, मारवाड़ी, अग्रवाल आदि अनेक जातियां अपने परिचय बैनर के साथ उनके स्वागत में खड़ी थीं
रास्ते फूलों से भर गए थे कुछ पंखुडिय़ां बालों और कपड़ों में उलझीं थीं शेष पैरों के नीचे पड़ीं थीं वही फूल जो कल तक खेतों में मुस्कुराते थे मसले जा चुके थे सड़कों पर
और कुछ फूल फेंकने वाले ग्रामीण जन एक सेठनुमा व्यक्ति को तलाश रहे थे जो दो सौ रुपये के हिसाब से उन्हें तय करके पाया था फूल फिंकवाने
जन-जूथ लौट रहे थे धीरे-धीरे और फूल फेंकने वालों के चेहरों पर आकर पसर गई थी गहरे रंग की उदासी।
जो है सो है
उन से जब पूछा गया क्या ये समय आपातकाल जैसा है? वे विहँसते हुए बोले हाँ है तो सही पर आपातकाल नहीं है आप लाल को लाल कह सकते हैं हरे को हरा और पीले को पीला बात का सार-संक्षेप है कि लोकतंत्र तो है और अभी बचा हुआ है साबुत
आप संविधान के दायरे में है पर कैमरे की निगरानी में भी भावना को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए न्याय पर उंगली नहीं उठनी चाहिए दस का सिक्का अगर फर्श पर गिरे तो मन के खाली निर्जन में उनकी खनक सुनाई पडऩी चाहिये प्रजातंत्र को प्रजातंत्र की तरह लेना चाहिए थोड़ा बहुत आया है झोल तो झोल की पोल में छुपे रहना चाहिए
आपको पता होना चाहिए और प्रजातंत्र है जस का दस और जैसा है सो आपके सामने है
अब जो है सो है।
बांसुरी
कुछ चीजों के खोने का अफ़सोस ताज़िंन्दगी बना ही रहता है जैसे दादा की बांसुरी पिता कभी भुला नहीं पाये जिसे किसी ने कभी देखा नहीं उसे पर इतनी बार इतनी तरह से बातचीत में उसका चित्र खींचा गया की एक चित्रकथा से जज्ब हो गई ज़ेहन में
वे तेज बुखार में बड़बड़ाते तो उनकी जिद में बांसुरी की खोज शामिल हो जाती कभी कहते - ले चाभी ले जा और अलमारी के नीचले खन में देख! हो सकता है पुरानी किताबों की गठरियों के नीचे कहीं दबी हो मथना में धरीं दीमक खाई चिट्ठियों में कहीं बांसुरी के होने का अंदेशा उन्हें होता बांसुरी न हो जैसे प्राण हों जर्जर देह में अटके हुए कहीं
कई बार बासुरी की चर्चा करते हुए अचेत हो जाते पिता होश लौटते ही पूछते, 'मिली’? पता नहीं क्या था ऐसा उसमें? हो सकता है कोई तर्ज़ याद हो जाती हो उन्हें उन लुप्त हो गए गारी गीतों की जिन्हें ब्याह में गाते हुए स्त्रियाँ पल्लू दबा-दबा कर हंसतीं थीं बांसुरी पर उन गीतों चलते-पिरते उछार सकते थे दादा
कुल जमा एक बांसुरी ही थी पिता के पास अपने पिता की चल-अचल विरासत जो अंधेरे को, बुरे दिनों को, कर्ज़ को घोल सकती थी अपने भीतर किसी आत्मीय जन से बिछुड़ जाने जैसी तड़प थी बांसुरी के न होने में उसे याद करते-करते बेचैनी से भर जाते पिता किसी गीत की पंक्ति का कोई शब्द अनुस्मरण में बिंधकर सोने न देता था उन्हें
बांसुरी के साथ नत्थी था पिता का बचपन जब दादा ने स्कूल इंस्पेक्टर को सुनाई थी बांसुरी पर ऐसी धुन जिस पर मुग्ध होकर सवा रुपया बजीफ़ा मुकर्रर किया था उसने पिता का वह जो थी जीवन का संगीत, लय, राग और गति वह जो अब खो गई थी कहीं
बांसुरी का नहीं खोना था जीवन की कविता का स्मृति का, एक दस्तावेज का पिता उसे अब बजा नहीं सकते थे पर उसे देख अपने पिता के हाथों को, उँगलियों को, होंठों को सांसों को, गीतों को और उनके जज़्बे को याद कर सकते थे।
चर्चित कवि। सक्रिय रंगकर्मी। इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से सम्बद्ध। गुना में रहते हैं।
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