सरबजीत गरचा की कविताएं

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    मार्च - 2020
श्रेणी सरबजीत गरचा की कविताएं
संस्करण मार्च - 2020
लेखक का नाम सरबजीत गरचा





कविता

 

 

 

काला कंपास

 

दिशाहीन

वह उठाए रहता है

अपने अंधेरों को

किसी कंपास की तरह

 

उठाए रहता है

 

घर का अंधेरा

जो वीरान पड़ी हुई

इमारत के एक

बंद मकान में रहता है

 

जूते का अंधेरा

जिसे उसके पैरों का एडिय़ों से

उंगलियों तक का हिस्सा

अंतरंग रूप से जानता है

 

जेब का अंधेरा

जिसमें डूबते हैं हाथ

जैसे रात की नदी के भँवर में

माचिस की डिबिया का अंधेरा

जिसे क़ैद किए हुए जुगनू पहनते हैं

पत्तों के सपनों में डूबे हुए

 

सिनेमाघर का अंधेरा

जो होता है आवाज़ और रंग के

बचेखुचे-टुकड़ों से सराबोर

जब सारे सितारे चले जाते हैं

 

वह मंडराता रहता है

घर से जूते तक

जूते से माचिस की डिबिया

माचिस की डिबिया से जेब

जेब से सिनेमाघर तक

 

लेकिन उसके अंधेरे बुनते हैं

एक इतनी लंबी रात

कि वह खुली आँखों से

देखता ही रहता है एक सपना

जिसमें निकास का निशान

कभी नहीं चमकता

 

धक्का

 

अनजाने में ही ढक दिया था

दादी ने टीवी को

अपने क्षीण शरीर से

 

तैयारी नहीं थी उसकी ज़रा भी

होती तो भी कैसे कर लेती

बेचारी अपना बचाव

दो हाथों के ज़ोरदार धक्के से

जो दिया था उसकी बहू ने

टीवी पर लगे ग्रहण को

हटाने के लिए

 

गिरी नहीं थी दादी

फिर भी

लुढ़क गई थी

एक ऐसी अंधेरी खाई में

जहाँ से उसकी चीख़

कोई नहीं सुन सकता था

सोफे पर पालथी मारकर बैठा हुआ

उसका बेटा भी नहीं

जो अपनी माँ की आँखों में

चिलचिलाती बेचारगी को देख रहा था

 

बेटे ने बीवी की

नज़रों के सामने पड़ी परछाईं को

छितरते हुए देखा

देखा एक अनचाहे शरीर को

अपने अस्तित्व की शर्मिंदगी में

समा जाते हुए

 

लेकिन माँ ने कोई गुहार नहीं लगाई

 

जब कोई चाहे प्रार्थना के लिए ही

हाथ आगे क्यों न बढ़ाए

मुझे हमेशा यही लगता है

कि वे हाथ मुझे

पूरी ताक़त से धकेल देंगे

और मेरे ऊपर से

एक तेज़-रफ्तार ट्रेन

गुज़र जाएगी

 

लेकिन इस बार दादी

ज़ोर से गुहार ज़रूर लगाएगी

 

 

अनुपस्थिति

ऋषि ठक्कर के लिए

 

तुमने कैसे कह दिया

तुम तस्वीर में नहीं हो

आँखे मूँदकर

ध्यान से देखो

तुम भी हो

जिनकी तस्वीर खींची जा रही है

उनके मन की तस्वीर में

हाँ तुम भी हो

 

सहपाठियों में दोस्त भी तो होते हैं

और दोस्तो में वे दोस्त भी होते हैं

जो तस्वीर जब खींची जा रही होती है

तो सोचते हैं आज मेरा यार

भला कहाँ रह गया

 

शायद उनमें से किसी ने

फ़ोटोग्राफर से यह भी कहना चाहा हो

अंकल ज़रा रुकिए

पास ही में है ऋषि का घर

स्कूल के गेट से निकलते ही

सड़क पार करने पर

पंचवटी डाक घर के ठीक ऊपर

रहता है मेरा साथी

इजाज़त हो तो अभी जाकर

उसे साथ ला सकता हूँ

 

लेकिन फिर की न होगी उजागर

उस विद्यार्थी ने अपनी नन्ही मुराद

जब क्लास टीचर ने बच्चों को

जल्दी करो का इशारा किया होगा

तस्वीर की सरहद सिर्फ

उतनी तो नहीं होती मेरे दोस्त

जितनी उसे समेटतीं चार लकीरों में

दिखाई देती है

 

सरहद पार तो आज भी

सब कुछ हरा है

मैदान के एक किनारे खड़े

नीलगिरी के पेड़

बीते बरसों की परवाह किए बगैर

आज भी लहरा रहे हैं

 

तस्वीर खिंचवाने वालों की

थमी-थमी साँसों ने

उन पेड़ों की महक को अपने भीतर

जैसे कसा होगा

वैसे तुम आज भी तो कस सकते हो

 

फिर तुम कैसे कहते हो

कि तुम तस्वीर में नहीं हो

 

तुम हो

तुम हो

ज़रा रूककर

फिर से देखो

 

लालटेन

 

हमेशा चाहा

रहूँ अकेला

 

लेकिन इतना भी नहीं

कि पास वाले कमरे में

किसी के होने का एहसास तक

हमेशा साथ न रहे

 

अपने कमरे में बंद

चाहे चढ़ता रहूँ रात-दिन

एकांत का ऊँचा पहाड़

 

लेकिन जब चोटी पर पहुँचूँ

तो दिखे साँझ में लिपटी

एक छोटी-सी झोंपड़ी

 

पास जाते ही खुल जाए दरवाज़ा

और यह देखकर कोई ताज्जुब न हो

कि हाथ में लालटेन लिए

जो मेरा स्वागत करने आया है

वो वही है जो पास वाले कमरे में

किसी की होने का एहसास

हमेशा बनाए रखता है

 

सामने

 

जिसे दरवाज़ा खोलते ही

सामने कॉरिडोर पर चलना पड़े

उससे बड़ा अभागा

दुनिया में और कोई नहीं

 

कहीं से कोई बहुत सारी मिट्टी

लाकर मेरे घर के सामने बिछा दे

सच कहता हूँ उस पर चलने के लिए

जूते हमेशा के लिए उतार दूँगा

 

जब-जब क़दम बाहर रखूँगा

हाथ में पानी की गडुई उठा लूँगा

धीरे-धीरे छींटे मारते हुए ख़ुद से कहूँगा

बारिश बहुत पास है यकीन न हो

तो इस मिट्टी को छू लो

 

उसके बाद जहाँ कहीं भी जाऊँगा

एक सौंधापन साथ होगा

फिर घनी से घनी भीड़ में भी

ख़ुद को कभी अकेला नहीं पाऊँगा

 

और किसी ने नहीं कहूँगा

मुझे उस घर में ले चलो

जिसका दरवाज़ा खोलते ही

सामने पेड़ ही पेड़ हों

 

अंतहीन

 

अंदाज़ा लगाना मुश्किल है

कि कितना

छोटा रहा होगा वह कमरा

जिसमें लेट सकता था

सिर्फ और सिर्फ एक आदमी

उस रात जब वह शहर

बारिश में डूबने की कगार पर था

 

यह जानना मुश्किल नहीं

कि दरवाज़े पर

दस्तक का मतलब क्या था

 

दरवाज़ा खुला

और थोड़ी ही देर में

कमरे में बस इतनी-सी जगह बची

कि बमुश्किल दो लोग ही बैठ सकें

 

बाहर लिख रही थी बारिश

अपनी अंतहीन कहानी

फिर और एक दस्तक हुई

अब वहाँ तीन थे खड़े

कंधे से कंधा सटाकर

उस दीवार की तरफ़ मुंह किए हुए

जिसके बाहर सड़क थी

 

कहानी में ज़िंक्र नहीं है

किसी खिड़की का

जिसमें से

बाहर की रोशनी का कोई क़तरा

अंदर आ रहा था

 

न ही कोई उल्लेख है

छत से लटकते हुए बल्ब का

या किसी ढिबरी का

 

कहानी यह भी नहीं कहती

कि तीसरी दस्तक ने

चौथे आदमी की आमद के बारे में

कुछ बताया था

 

मगर मदद मांगने कोई और आया होता

तो हम जानते हैं कि क्या हुआ होता

दरवाज़ा खोलने वाला पहला आदमी

बाहर चला गया होता

ताकि भीतर के दो आदमी

खड़े-खड़े सो सकें

 

उसने नए आगंतुक को

देहरी पार करके अंदर जाने दिया होता

उस कमरे में

जिसे सो रहे दो आदमियों ने

अपनी खुली आंखों से बनाया था

 

एक इतना चौड़ा कमरा

कि उसकी छत के नीचे

सारा शहर सो रहा था

जब बाहर

लिख रही थी बारिश

अपनी अंतहीन कहानी

 

कीमत

 

गाड़ी रुके न रुके

हम तो रुक सकते हैं

 

किसे पता

यहाँ दो घड़ी बैठकर

जो बात होगी

उसकी कीमत

ट्रेन में छूट चुके

सामान से कहीं ज़्यादा हो

 

शायद उस बेंच को थामे हुए

प्लेटफॉर्म के कंक्रीट के फ़र्श की चमक

तेज़ी से दौड़ती हुई

खिड़की से दिखने वाले

आसमान से कहीं ज़्यादा हो

 

 

 

सरबजीत गरचा सक्रिय संस्कृतिकर्मी हैं। कविता के साथ एक कुशल अनुवादक है।

संपर्क - मो. 9540896736, गाज़िंयाबाद

 

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