असम की मिया कविता

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    मार्च - 2020
श्रेणी असम की मिया कविता
संस्करण मार्च - 2020
लेखक का नाम प्रस्तुति चंदन पांडे





असमी कविताएं/नए रजिस्टर के खिलाफ़

 गतांक से आगे

 

 

नाना मैंने लिखा है

( शालिम एम हुसैन )

 

नाना मैंने लिखा है,गवाही दी है, तस्दीकी दस्तखत किए हैं

और रजिस्ट्री के कागजों पर सत्यापित किया गया हूँ कि

मैं एक मिया हूँ

देखो अब मेरी उठान

बढिय़ाई नदियों से

भूस्खलनों पर मेरा तिरना

बालू और दलदल और साँपों के बीच मेरी कदमताल

धरती का घमंड चूर चूर करते हुए कुदाल से खोदना एक खाई

घिसटना धान और हैजा और गन्ने के खेतों से

दस प्रतिशत की साक्षरता दर लिए

देखो मेरा कंधे उचकाते और जुल्फें संवारते हुए

दो काव्य पंक्तियों के साथ गणित का एक सूत्र समझते हुए

दबंगों द्वारा मुझे बांग्लादेशी कहे जाते समय भौचक्का होते हुए

और अपने इंकलाबी दिल को यह बताते हुए कि

लेकिन मैं तो मिया हूँ

देखो मुझे अपने सीने से लगाए संविधान के साथ

दिल्ली की ओर उंगली उठाए

अपनी संसद, अपनी उच्चतम अदालत अपने कनॉट प्लेस तक चहलकदमी करते

हुए

और कहना उन सांसदों से माननीय न्यायाधीशों से अपने जादू में लपेट कर

रोल-गोल्ड की अंगूठियाँ

बेचती उस स्त्री से कि

मैं एक मिया हूँ।

कोलकाता, नागपुर और सीमापुरी की मलिन बस्तियों में मुझसे मिलने आओ

देखो मुझे सिलिकॉन वैली में बसे हुए, मैक्दोनौल्ड्स में खपे हुए

खरीद-फरोख्त में गुलाम की तरह दुल्हन बने हुए- मेवात तक लाया जाते हुए

देखो मेरे बचपने पर चिपके हुए दाग

पी.एचडी की सनद के साथ मिले स्वर्ण पदक

और तब पुकारो मुझे सलमा बुलाओ मुझे अमन नाम दो मुझे अब्दुल कहो मुझे

बहतों निसा

या फिर बुलाओ मुझे गुलाम.

देखो मुझे जहाज पकड़ते हुए वीजा लेते हुए बुलेट ट्रेन पर सवारी करते हुए

गोली खाते हुए

अपनी भटकन संभालते हुए

राकेट चलाते हुए

अंतरिक्ष में लुंगी पहनते हुए

और जहाँ कोई नहीं सुन सकता तुम्हारी चीख,

गरजो

मैं मिया हूँ

मुझे इस पर नाज है।

 

तो मैं अब भी एक मिया ही हूँ

( शाहजहाँ अली अहमद )

 

मेरी जो कहानी है वो

एक सुलगती हुई युवावस्था और घुटते सूरज की 

मेरी जवानी सचेत करने वाली एक कथा है

झुके कन्धों की

और नमक बुझे काँटों के चुभने की

मेरी जो कहानी है उसमें

है 'अधिक अन्न उपजाओ’, नरभक्षी  

हैजा है, डायरिया है

और काँटों के इस जंगल में

मेरे पूर्वजों द्वारा बिखेरा गया सुवास का एक आन्दोलन है

मेरी कहानी नायकों की है.

मेरी कहानी सन ‘61 की गांठों से फूटते रक्त की गूँज

और बलिदान की है

मेरी कहानी ‘83, 90-94, 2008, 2012, 2014 की है

मेरी कहानी है जुल्म की, कलंक की

प्रग्रोयोतिश्पुर में द्राविडों के वंचित रह जाने की

मैं शर्मिंदगी का रंग हूँ

उसके कान पकड़े हुए, घुटने झुकाए

जब राजा और रजवाड़े गुजर रहे थे

जोकर की टोपी के नीचे मैं ही था

गूंगे जानवरों की भांति कतारबद्ध

अस्तबल में टंगी हुई

मैं एक पुरानी पेंटिंग हूँ

क्योंकि बोतल भले ही अलग हो शराब वही है के तर्क से

अगर जन्म ही पहचानने का आख़िरी सलीका है,

तो मैं अब भी एक मिया ही हूँ।

 

हमारा इन्कलाब

( रिजवान हुसैन )

 

फटकारो हमें

मर्जी हो तो मार भी लो

सब्र का बाँध बांधें बनाते रहेंगे हम

तुम्हारे महले-दुमहले, सड़कें और पुल

सब्र के साथ खींचते रहेंगे तुम्हारे थके हुए, तुंदियल,

पसीनों से तरबतर तुम्हारे शरीर अपने रिक्शे पर

हम चमकाएंगे तुम्हारे संगमरमर के तल्ले

जब तक उनसे रौशनी न फूट पड़े

धोयेंगे तुम्हारे गंदे कपड़े

जब तक कि वो उजले न हो जाएँ

ताजे फलों और सब्जियों से हम तुम्हें मांसल होने तक भरते रहेंगे

और जब तुम हमारे निरीक्षण के लिए तापजुली चर आओगे,

हम तुम्हें महज दूध ही नहीं

बल्कि  ताजी मलाई भी परोसेंगे

 

तुम हमारा अपमान किये जा रहे हो

आज भी हम तुम्हारी आँखों के कांटे हैं

 

लेकिन क्या है वो कहावत: धैर्य का धैर्य एक दिन चुकता है

टूटे हुए घोंघे मांस में धँस सकते हैं

हम सब भी इंकलाबी बन सकते हैं

हमारा इन्कलाब बन्दूक के बल नहीं बढ़ेगा

हमारा इन्कलाब डायनामाईट का मोहताज नहीं होगा

हमारा इन्कलाब दूरदर्शन पर नहीं दिख सकेगा

हमारा इन्कलाब प्रकाशित भी न हो सकेगा

हमारे इन्कलाब की तस्वीरें भी किसी दीवाल पर शायद न ही दिखें

लाल और नीले रंग की तनी हुई मुट्ठियों सा

 

फिर भी हमारा इन्कलाब झुलसा देगा, जला देगा

तुम्हारी आत्मा को ख़ाक में तब्दील कर देगा।

 

मिया कहलाना मेरे लिए अब अपमान नहीं

( अब्दुर रहीम )

 

मिया कहलाना अब मेरे लिए अपमान की बात नहीं

अपने परिचय में खुद को मिया कहते हुए

अब कोई शर्म नहीं

तुम मुझसे प्रेम कर सकते हो

तुम चाहो तो मुझसे नफ़रत भी कर सकते हो

न मैंने कुछ खोना है

न मैंने कुछ पाना

अपमानित करने के लिए मिया न कहो

अब

तुम मुझे प्यार कर सकते हो

तुम मुझसे नफ़रत भी कर सकते हो

लेकिन सरपरस्ती नहीं कर सकते

अपने अंकवार में भर सकते हो

लेकिन पीठ में छुरा अब नहीं मार सकते

अपमानित करने के लिए मिया न कहो

अब  

 

तपती धूप से जली हुई मेरी पीठ को अब मत देखो

कि तुम्हे कंटीले तारों के दाग देखने है

लेकिन,

लेकिन ‘83, ‘94, ‘12, ‘14 को भूलना भी मत

साहिबान अब मेरी पीठ पर के जख्मों

को कटीले तारों के निशान कहना बंद करो अब

जैसे अपमानित करने के लिए मिया कहना बंद करो

अब

 

साहिबान बंद करो मेरा खून खींचकर उसकी

स्याही से राष्ट्रवाद के गीत लिखना

अपनी बात मेरे मुँह से कहलाना बंद करो अब

दूध के दांत तो कब के टूट चुके

मिया कह कर अपमानित करने का वक्त भी बीत गया

मिया कह कर अपना परिचय देना

नहीं है शर्म की बात

अब

 

आज मैं अपना नाम भी नहीं जानता

( चान अली )

 

नहीं जानता मैं आज अपना नाम

लापता: गुम हो चुका है वर्तनी के फेरों में, तानों में, उपहासों में

और तुम्हारी दफ्तरी कोठरियों, फाईलों, आलमारियों के दलदल में।

सुबह के वक्त पैदा होने से जो फज्र अली था

वो कक्षा मॉनिटर होते समय फजल अली हो गया

मागुन गानों को गाते हुए वही फजल मिया कहलाया

और अंतत: गौहाटी में बेनाम बांग्लादेशी मजदूर कहलाया

मैंने अनेक नाम पाए, अनेक जीवन जिया

लेकिन उनमें से अपना कोई नहीं।

 

मजदूर बाजार में दैनंदिन नीलामी के वक्त

मुझे वर्ग और वर्गमूल के सूत्र याद आया करते थे

मक्के के गठ्ठर ढोते समय मागुन गान याद आते थे और वो मागुन मुझे राहत पहुंचाते

थे

नजरबंदी के दौरान उन्कडू बैठे

मैंने यही सोचा-

क्या यह इमारत मैंने ही नहीं बनाई थी?

 

कुछ भी तो नहीं है अब मेरे तईं

सिवाय एक पुरानी लुंगी के, अधपकी दाढ़ी के

और ‘66 वाली मतदाता’ सूची की छायाप्रति के

जिस पर मेरे दादाजी का नाम लिखा है।

 

सही है कि आज मेरा कोई नाम नहीं है

लेकिन अपना दिया नाम मेरी नजरों के सामने न झुलाओ

मुझे बांग्लादेशी न बुलाओ

मुझे तुम्हारी बकवास की कोई जरुरत नहीं

'नव असमिया’ का तमगा भी न थोपो

कुछ न दो

सिवाय उसके कि जो मेरा है

 

मैं एक नाम खुद के लिए तलाश लूंगा

और वो तुम्हारा दिया हुआ नहीं होगा।

 

 

मेरा बेटा शहरों वाली गालियाँ सीख गया है

( सिराज खान )

 

जब मैं चर से निकल कर शहर आता हूँ

वो पूछते हैं, 'अबे, तेरा घर किधर है?’

कैसे मैं कहूँ, 'बोरोगांग के हृदय-स्थल में,

सफेद रेत के बीच

झाऊ के सरकंडों में झूलते हुए

वहाँ जहाँ कोई सड़क नहीं जाती, कोई रथ नहीं जाता

जहाँ बड़े लोगों के पैर कभी नहीं पड़ते

जहाँ हवा घास सी हरी है,

वहीं, वहीं मेरा घर है।’

 

जब मैं चर से निकल कर शहर आता हूँ 

वो पूछते हैं, 'अबे, तुम्हारी भाषा क्या है?’

जैसी पशुओं और पखेरुओं की होती है

कोई किताब नहीं है, मेरी भाषा का कोई विद्यालय नहीं है

माँ के मुख से कोई धुन चुराता हूँ और

भटियाली गाता हूँ। मैं तुक से तुक मिलाता हूँ

दर्द से दर्द

धरती की ध्वनियों को सीने से लगाये रखता हूँ

और बालू की सरसराहट में बोलता हूँ

धरती की भाषा हर जगह एक ही है.

 

वो पूछते हैं, 'अबे, तेरी जाति क्या है?’

कैसे मैं कहूं कि मनुष्य जाति का हूँ

कि हम लोग तब तक हिन्दू या मुसलमान हैं

जब तक धरती हमें एक नहीं कर देती

 

वो मुझे डराना चाहते हैं, 'ओये, कहाँ से आया है तू?’

मैं कहीं नहीं से आया हूँ

जब जब अब्बाजान जूट के बोझे सर पर उठाए

चर से निकल कर शहर गए

पुलिस वाले उन पर कूद पड़ते थे

और कागजातों की जाँच शुरु हुई

हर बार अब्बाजान पराक्रमी अंदाज में सफल रहे

 

सिर्फ इसलिए कि वो रेतीले क्षेत्र से आते थे

उन लोगों ने उन्हें रंग बिरंगे अनेकोनेक नाम दिए:

चोरुआ बुलाया, पमुआ, म्येमेंसिंघिया,

कुछ ने 'नव-असमिया’ बुलाया

कुछ ने 'विदेशी मिया’

इन चकतों को अपने दिल ही दिले में लिए

वो अपनी कब्र तक गए

 

ये चक्कते एक साथ जमा हुए, अपना सहस्र फन फैलाया और मुझ पर फुफकारा।

 

ओ सपेरे बाबू मोशाय

कब तक लुढ़कते और रेंगते रहोगे

मेरा बेटा अब कॉलेज जाने लगा है

वह शहरों वाली गालियाँ सीख गया है

वह कम जानता है लेकिन खूब जानता है

कविता के मनोहारी घुमाव और सजीले ख़म।

 

 

चंदन पांडे द्वारा प्रस्तुत मिया कविता का दूसरा खंड है। ये कविताएं फासीवाद की दस्तक पहचानती हैं। कविताओं में जो आवाजें हैं वे निर्भीक, कुत्तों का पीछा कर रही हैं।

माँ के मुख से कोई धुन चुराता है और भटियाली गाता हूँ। ये इन कविताओं और कवि के शब्द हैं।

असम से उपलब्ध सबसे ताज़ा कविताएं।

संपर्क -मो. 9901822559, बैंगलुर

 

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