रहट की आख़िरी घरिया का इंतज़ार

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी रहट की आख़िरी घरिया का इंतज़ार
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम नीरज खरे





एक सच्ची-झूठी गाथा (उपन्यास) - अलका सरावगी

 

 

अलका सरावगी

 

अलका सरावगी के उपन्यास अपने सरोकारों के साथ औपन्यासिक होने की कसौटी पूरा करते हैं - जिसका पहला प्रमाण सर्वाधिक चर्चित उपन्यास 'कलिकथा: वाया बाइपास’ में मिला था। जहाँ इतिहास से वर्तमान की आवाजाही और तीन पीढिय़ों के समय को अगोरते कथानक के बीच खुलते और विकसित होते हैं - कथा पर लादे या चस्पा गिए गए नहीं हैं। उन्होंने उपन्यास और भी लिखे हैं। इक्कीसवीं सदी के बदलावों का बाज़ारवादी चेहरा 'जानकीदास तेजपाल मैनशन’ में है। वे हर उपन्यास के नॅरेट करने का ढंग दोहराती नहीं हैं। इन दिनों प्रचलित विमर्शों के मुहावरों से वे सर्वथा अलग ही रहती हैं। इस मायने में औपन्यासिकता की प्राय: नयी चुनौती को निभाती है।  पाँच उपन्यासों की लेखिका का छठा उपन्यास 'एक सच्ची-झूठी गाथा’ (राजकमल प्रकाशन, 2018) इस कसौटी पर खरा है कि नॅरेट करने का तरीका फिर एक बार नया है और पठनीयता को रोचक अंदाज में बेशक बाँधे रहता है। यह उपन्यास की पहली सफलता है।

लेकिन, औत्सुक्य की दक्षता से पढ़े तीन भागों में बँटे करीब डेढ़ सौ पृष्ठों के बाद, कई सवाल दस्तक देने लगते हैं। इस पठनीयता ने क्या-क्या सौंपा? उपन्यास के फलक पर साहित्यिकता और सर्जना की कसौटी, पर हम अपने समय को कैसे और किन आधारों पर देक पा रहे हैं? क्या उनके पूर्व औपन्यासिक उपक्रमों की तरह 'एक सच्ची-झूठी गाथा’ में नॅरेट करने की नयी पद्धति द्वारा समय कथा की तहों को उलट-पलट कर, कोई व्यापक औपन्यासिक विमर्श साझा हुआ? उपन्यास में कभी टेकनीक या जिसे सहजता से शिल्प का रूप कह देते हैं - सच के लिए कथा कहने का एक छद्म होता है। कभी-कभी टेकनीक इतनी सच या वास्तविकता होती है कि उसमें कहा जाना वाला सत्य आभासी या झूठा हो जाता है। अकारण नहीं कि इस उपन्यास का शीर्षक ही 'एक सच्ची-झूठी गाथा’ है। कहने को उप्यास अपने बीतर समय के अनेक विमर्शों, चिंताओं और विचार या विचार-दृष्टियों को समेटे है, पर उनका कथा-रूपक या औपन्यासिक स्तर पर रूपांतरण सीमित है। कई प्रश्नों को उठाते हुए भी, ठीक तरह किसी पर टिक न पाया, उसकी सीमा और रचनात्मक नीति का हिस्सा भी है।

यह उपन्यास, रचना की सैद्धांतिक कसौटियाँ- चाहे काल का विस्तार हो या चरित्र का संघर्ष और कथानक आदि सभी स्तरों पर इंकार करता है। घटना-परिघटना भी न के बराबर है - काल खंड भी बहुत छोटा है। जहाँ कथ्य कई आयामों में बिखरा हो, कोई खास किरदार न हो, सिर्फ वार्तालाप हो - ऐसा असंगत या एब्सर्ड नाटकों में होता था। यहाँ भी सिर्फ संवाद हैं, चलती हुई बातचीत है - गाथा और प्रमित सान्याल नाम के दो पात्रों के बीच। वह बातचीत भी प्रत्यक्ष या आमने-सामने न होकर इंटरनेट की तरंगों के इस और उस पार बैठे दो लोगों के बीच है- ईमेल के जरिए, जो एक तरह फ्लेश बैक से आयी है। एयरपोर्ट पर प्रमित के इंतजार में गाथा क्रमश: कई चरणों में हुई ईमेल की बातचीत याद करती है - वही साझा होकर कथा होने का दावा कर विकसित होती है। जाहिर है शीर्षक में गाथा 'कथा’ के अर्थ में है और 'गाथा’ पात्र का नाम भी है। एक बार लगता है कि प्रमित उसका विशेष है, जिससे उसकी मुलाकात भी आभासी ही है और अंत तक वैसी ही बनी रहती है। यह आभासी मुलाकात या रिश्ता मोबाइल-कम्प्यूटर के सूचना युग में ही संभव था। यह संबंध समस्त मानवीय बोध और भावना व्यापार के कौटुंबिक-पारिवारिक, रिश्तेदारी, पहचान, प्रेम-मित्रता या निर्मित संबंधों को चुनौती देता है। उम्र में वे माँ-बेटे जैसे हैं, पर वे किसी मान्य संबंधों का दायरे में नहीं हैं। अगर इसे मित्रता के निकट माने तो वह अंत तक रहस्य है और प्रत्यक्ष होती ही नहीं। इसी वर्चुअल प्लेटफार्म पर हुए संवादों का ही वृतांत है।

इक्कीसवीं सदी का वर्तमान माध्यमों की अधीनता का चरम समय है। उनका वर्चस्व इस कदर है कि हमारी आदत में शुमार है। हर आदमी जैसे माध्यम की गिर$फ्त में है। आज हर रियलिटी के आगे कैमरा है, हम उसके दिखाए को ही सच मानने विवश हैं। हर हाथ में मोबाइल और इंटरनेट की अदृश्य तरंगें हैं। आज यह नियति बन चुकी है। उपन्यास शुरुआत में ही कैमरा के जिक्र अकारण नहीं आया! बागडोगरा एयरपोर्ट पर प्रमित के आने के इंतज़ार में बैठी गाथा को कैमरा घूर रहा है और उसे सहज नहीं रहने देता। लिखा है - ''कैमरा गाथा की परेशानी और हैरत को देख रहा है। आज जब सब्जी-भाजी वाले का फोन तक बंद नहीं मिलता, एक पढ़ा-लिखा शख्स अपने फोन को चालू न रखे, ऐसा कैसे हो सकता है? जिंदगी का महज़ एक फोन पर इतना भरोसा करके चलना आदत सी बन गई है।’’ (पृ. 9) मीडिया, संचार और सूचना प्रणाली की नयी तकनीकों ने वस्तुगत सत्य पर ही प्रश्न चिन्ह लगा दिया है - उसके मूल संदर्भ हट चुके हैं। एक प्रतीकात्मक या आभासी यथार्थ को देखने-जानने के लिए 'मास’ उसका उपभोक्ता है। इक्कीसवीं सदी में झूठ का कारोबार एक बड़ी चुनौती बन कर फैल रहा है। 'झूठ’ जो हमारे पूरे 'वर्तमान’ कर पुता है या पोत लिया गया है। और, वह कई स्तरों पर गुमराह भी कर रहा है। आज तकनीक के नए माध्यमों से घिरे उत्तर-आधुनिक रूपों की चरम स्थितियाँ हैं। आज जो चीज बिकती नहीं, वह मूल्यहीन है। वस्तुएं ही नहीं, हर घटना-समाचार, धर्म, आध्यात्म, ज्योतिश से लेकर कोई 'विचार’ भी बिक रहा है। दरअसल 'मूल्यवान’ को अपदस्थ कर इस बिहकने के बहुलार्थों को मूल्य की तरह स्थापित करना, इस समय रणनीति का बड़ा हिस्सा है। वैसे यथार्थ के मूल संदर्भों के लोप को ही उत्तर-आधुनिकतावाद में 'अर्थ की मृत्यु’ कहा जाता है - यही नहीं विचारधारा, लेखक, इतिहास, कला आदि के अंत की घोषणाएँ भी बहुत पहले ही हो चुकी हैं। अब यथार्थ और भोक्ता के बीच एक माध्यम है, जो यथार्थ को बदल रहा है। उपन्यास अपनी तमाम चिंताओं के बीच वर्चुअल रियलिटी के इस 'माध्यमवाद’ से जन्मी इन स्थितियों का आालेचक तो है, पर उन्हीं स्थितियों के फार्म पर खड़ा भी है।

आज के समय को उत्तर-आधुनिकतावादी अवधारणाओं के एक चिंतक ल्योतोर ने उत्तर-आधुनिक स्थितियाँ कहा था। उनका मानना है कि 'उत्तर-आधुनिकतावाद महावृत्तांत (ग्रांड नॅरेशन) के विरुद्ध है और अस्मिता विमर्शों का उदय सकलतावादी विश्व व्यवस्था के विरुद्ध उत्तर-आधुनिक आवाजें हैं।’ अकारण नहीं कि प्रमित अपने उपन्यास का आरंभिक अंश गाथा से साझा करता है - ''महाकाव्यों को फिर से लिखने का समय आ गया है। अब जो लिखा जाएगा, वह एक विचार से शुरू होगा। ऐसा विचार जो पूरी मनुष्यता के मन में हमेशा से उठता रहता है। इसमें शायद कुछ भी नया नहीं होगा। पर अब यह विचार फैलता जाएगा।’’ (पृ. 50) उपन्यास संकेत करता है कि कथा-साहित्य में महावृत्तांत/महाकाव्य को विस्थापित कर विमर्शों का आना उत्तर-आधुनिकता की ही नीति का हिस्सा है। गाथा सुविधासंपन्न, स्थापित और पेशेवर लेखिका है और प्रमित क्रांतिकारी विचारों और कुछ अराजक किस्म का लेखक, जिसके किसी आतंकवादी संगठन से जुड़े होने के संकेत हैं। उनकी बातचीत दो विरोधी विचार या मन:स्थिति के लेखकों या बुद्धिजीवियों की है - आत्मालोचन और वाद-प्रतिवाद भी है। उपन्यास महावृतांत भले न बन सका हो, पर उनकी बातचीत का दायरा व्यापक ज़रूर है। जिसमें लोकतंत्र, राजनीति, नक्सलवाद, आतंकवाद, हिंसा और नफ़रत से पैदा हुए राष्ट्रवाद, देशभक्ति, धर्म, सांप्रदायिकता, जातिवाद, सूचना प्रौद्योगिकी-मीडिया से लेकर प्रेम, स्त्री, परिवार, ईश्वर, साहित्य के मुद्दों तक वैचारिकी मौजूद है। इस वैचारिकता के अनेक स्तरों को इंटरनेटीय संदेशों के अपने शिल्प में बेहतर व्यवस्था दी गई है कि पूरी बातचीत भरसक नीरस और बोझिल नहीं बन पाती! दोनों लेखक एक-दूसरे के आलोचक हैं - दोनों की दुनिया असंगत है। यह वार्तालाप आख्यान की शक्ल लेना चाहता है - जिसमें हमारा देशकाल और समय मौजूद है।

गाथा की लेखकीय निष्ठा और प्रतिबद्धता के बीच प्रमित की बहुपठनीयता कई जगह व्यक्त है। उसके साथ कई विदेशी लेखकों को उद्धरित किया गया है। आरंभ में भाग-1 के पहले ही पृथक पृष्ठ पर 1929 में लिखे गए विलियम फ़ौक़नर के उपन्यास 'द साउंड एंड फ्यूरी’ का उद्धरण अचानक चकित करता है - ''वे एक साथ बोल रहे थे: उनकी आवाजें में ज़िद थी, असंगति थी, अधीरता थी। शायद वे मानते थे कि कल्पना को रुप देना संभव है या कि ऐसी संभावना गढऩा। या फिर कल्पना उनके लिए अकाट्य तथ्य बन गई थी। यह तब होता ही है जब अरमान शब्द बन जाते हैं।’’ इसे यहाँ देने का औचित्य क्या है? इसका राज तीसरे भाग के लगभग अंत में मिलता है। जब गाथा अपने लिखने का कारण बताती है, तो प्रमित का जवाब है - ''बाप रे। तुमने तो बहुत सी बातें गढ़ रखी हैं। असल में तो फ़ौक़नर की बात सच है, जीवन एक मंदबुद्धि गूँगे आदमी की कथा है जिसमें शोर और गुस्सा भरा है - साउंड एंड फ्यूरी। इस कथा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि इसे कोई नहीं समझता।’’ (पृ. 145) ऐसी चीजें उन्यास के वस्तुजगत से गहरा रागात्मक संबंध जोड़ती हैं, जिसके संदर्भों का परिप्रेक्ष्य सही मायने में तभी जाना जा सकता है - जब उन्हें भी पढ़ा जाए! बहरहाल, उपन्यासकार ने इतनी छूट अपने पाठक को दे रखी है कि सीमित संदर्भों से भी उनके आशय जान सकें।

समकालीन कथा साहित्य के अधिकांश हिस्से की बड़ी ख़ासियत है और सीमा भी कि उसका लेखक अपने कथा पात्र के पीछे या सामने डटा रहता है। वजह यह है कि उसे अपने समय की कथा कहनी है - सत्य कहना है, जिसके लिए उसे बहुत से ब्यौरे देना हैष यह यथार्थ का हाहाकार उपन्यास-कहानी पर ऐसे हावी है कि कथापन की क्षति होने लगती है। हालांकि मुद्दों की बहुलता के बावजूद, यह उपन्यास इन प्रभावों से लगभग मुक्त है। उसमें यथार्थ है - वह ब्यौरों में नहीं, दो छोरों पर ठोस विचारों में है। हालांकि गाथा के नज़रिए से इसका स्त्रीवादी कलेवर भी हो सकता था। संकेत कहीं मिलते हैं। उनके मन ें प्रमित को लेकर शंकाओं की लहर उठती है - ''कितना आसान है कंप्यूटर-लैपटाप के पीछे अपने नाम, उम्र अपना पूरा वजूद बदलकर कुछ और बन जाना। यह कुछ 'सिजोफ्रेनिया’ के शिकार लोगों का खेल हो सकता है। गाथा के दिल में धड़कन कुछ बढ़ गई है। आखिर वह एक औरत है। एक आसान शिकार। अपनी सारी आज़ादी के बावजूद। अपनी पहचान के बावजूद कि वह एक लेखक है।’’ (पृ.14) लेकिन, उपन्यासकार ने इसे विमर्शों के समाजशास्त्र या सामाजिकी बनने से बचाए रखा है। इसके बावजूद कथा और किरदारों को लेकर जो व्यवहार लेखक का होता है, वह भी यहाँ नहीं है। उपन्या बिना इसके ढेर संदर्भों के साथ रोचक बन सकता है तो उसके शिल्प की ही भूमिका है। वरना यह बेहद साधारण और सिर्फ ल$फ्फ़ाजी की लंबी कहानी या नाटकीय कथा भर होती! हालांकि, बीच बातचीत में प्रमित अपने मारे गए मित्र कबीरू का ज़िक्र कर भावुक हो जाता है। उसके अपने तर्क हैं कि उसे और कबीरू को अपना लक्ष्य पाने के लिए बंदूक उठाने का रास्ता क्यों चुनना पड़ा? इसके बावजूद गाथा और प्रमित की वैचारिकी का कथा से परोक्ष संबंध ही है, बल्कि वह कथा ठीक से बनती ही नहीं! अत: उसके पाठक की संवेदना से जुडऩे के अवसर कम हैं, जबकि विचार और बौद्धिकता के स्तर पर हतप्रभ होने के अवसर अधिक। इसीलिए समकालीन मुद्दों के प्रति विचार-दृष्टि देने की कोशिश बराबर है। कहने की एकरेखीयता प्राय: प्रचलन में रही है, लेकिन लेखिका ने उसे नया बनाने की अपनी प्रविधि खोजी है। और इस प्रक्रिया में औपन्सासिक रचना का शास्त्र उलट दिया है। इसलिए उपन्यास आलोचना के पूर्व मानकों के आधार पर कोई इसे आसानी से खारिज कर सकता है।

कला और भाषा की जटिलता के बिना छोटे और एकरेखीय वृतांत को जानने के लिए दो कथन उद्धरित करना सहायक हो सकते हैं: गाथा का कथन - ''मुझे लगता है प्रमित कि असल में तो तुम ही एक ऐसे अपूर्व कथाकार हो, जो एक ऐसी कहानी लिख सकता है, जो असल में एक मुकम्मल कहानी हो। एक 'परफेक्ट’ कथा। पर मुश्किल यही है कि तुम उस अपने साथ में पूर्ण कथा को - जो एक नया प्रतिमान बनाए-लिखना ही नहीं चाहते।’’ प्रमित का जवाबी कथन - ''असल में मैं कथा का शीर्ष तक ऊपर उठाना यानी 'वर्टिकल’ तो जानता हूँ, पर उसका समतल पर फैलाव यानी 'हौरिजोंटल’ को लेकर उलझन में हूँ।’’ (पृ. 118) हालांकि, इस शब्दावली के आशय प्रमित ने स्पष्ट किए हैं, पर इस उपन्यास के लिए यह उलझन लेखिका भी हो सकती है। गौरतलब है कि यह उपन्यास भी 'वर्टिकल’ ही ज्यादा है, उसे उपखंडों में ऊपर उठते तीर (ऐरो) के संकेतों द्वारा छापने का भी संभवत: यही अर्थ है। इस एकरेखीय शिल्प के लिए पहले कभी खेती-बाड़ी में सिंचाई के लिए कुओं में लगने वाले 'रहट’ का जिक्र मौजूं लगता है। जिसमें बारी-बारी रहट में लगी एक-एक घरिया (खंड) ऊपर आकर पानी उड़ेल जाती है। उपन्यास में संवादों के छोटे-छोटे उपखंड, इसी तरह बारी-बारी आकर पाठक की चेतना पर कुछ छोड़ जाते हैं। इसे पढ़ते हुए उनके आने की उत्सुकता लगातार बनी रहती है कि उपन्यास खत्म हो जाता है! लगता है कि कुछ और आना था, जो बाकी रह गया? मनुष्यता के पक्ष में जब लगातार स्वतंत्र विचारों के विरुद्ध पहरेदारी है - लेखिका ने राष्ट्र-राज्य की तमाम अवधारणों और समस्याओं को बहस में रखने का साहस दिखाया है, पर 'गाथा’ और 'प्रमित’ नाम के दो विचारों की टकराहट में लेखिका का मंतव्य किसके साथ है? यह अस्पष्ट ही रह गया है। प्रमित के आख़िरी कथन का हिस्सा - ''गाथा, मेरा सच क्या है, यह तुम कभी जान नहीं पाओगी। मेरा सच है तो ज़रूर इसी ब्रह्मांड में, पर वह किसी की भी पहुंच के बाहर है।...’’ तटस्थ होना, पाठकों को भ्रमित भी कर सकता है। जरूरी नहीं उसे निष्कर्षों में कहा जाए! इसीलिए औपन्यासिक शिल्प के रहट-रूपक में उस शेष का आख़िरी 'घरिया’ का इंतज़ार फिर भी सालता है।

 

 

 

नये आलोचक नीरज खरे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। पहल में यह आलेख उनका पहला अवसर है। 'अलका सरावगी’ प्रतिष्ठित और पुरस्कृत कथाकार हैं। उनका नया उपन्यास 'एक सच्ची झूठी गाथा’ पिछले वर्ष प्रकाशित हुआ।

संपर्क - मो. 9450252498

 

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