कांशीराम के बहाने दलित जीवन संघर्ष पर विमर्श

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी कांशीराम के बहाने दलित जीवन संघर्ष पर विमर्श
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम रमेश अनुपम





मूल्यांकन/कांशीराम बहुजनों के नायक

 

बद्री नारायण

 

डॉ. भीमराव आंबेडकर का एक महत्वपूर्ण कथन है जिसे यहां याद किया जाना आवश्यक है। डॉ. आंबेडकर ने कहा था कि 'जाति व्यवस्था से बढ़कर अपमानजनक सामाजिक संगठन हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो लोगों को शिथिल, पंगु और विकलांग बनाकर, उन्हें कुछ भी उपयोगी गतिविधि नहीं करने देती ‘। डॉ. आंबेडकर ने इसी जाति व्यवस्था में दलित होने का अपमान झेला था और अपने जैसे तमाम दलितों के दुख दर्द को समझा था। भारत में एक दलित के रूप में जन्म लेना कितना बड़ा अभिशाप है इसे उनसे बढ़कर भला और कौन समझ सकता था। उनके इस कथन को इसी परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की आवश्यकता है।

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने इसी अपमान जनक जाति व्यवस्था को केन्द्र में रखकर सन् 1930 में 'ऐनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ ( जाति का विनाश ) जैसेे एक सुदीर्घ लेख की रचना की थी। प्रकारांतर में   'जाति का विनाश’ को लेकर आंबेडकर और महात्मा गांधी में एक लम्बा विवाद भी हुआ। महात्मा गांधी मानते थे कि 'जाति का व्यापक संगठन न केवल समाज की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करता है बल्कि राजनीतिक आवश्यकताओं को भी परिपूर्ण करता है’, जबकि डॉ. आंबेडकर जाति व्यवस्था के पूरी तरह से खिलाफ थे इसलिए वे गांधी जी की इस धारणा के भी खिलाफ  थे।

बद्रीनारायण हिंदी के महत्वपूर्ण कवि है। इधर अनेक वर्षों से वे हिंदी कविता में कम और दलित संघर्ष के वैचारिक पक्ष का अध्ययन तथा उसके लेखन के कार्य में अधिक सक्रिय हैं। उनके इस तरह के कार्यों का अपना एक अलग महत्व है। दलितों और अल्पसंख्यकों पर जिस तरह की बहस आज होनी चाहिए उसका सर्वथा अभाव है। वैसे भी वैचारिक और सैंध्दांतिक पक्षों को लेकर बहस की गुंजाइश इन दिनों निरंतर कम होती जा रही है। हमारा विमर्श का दायरा एक तरह से बेहद संकुचित भी होता जा रहा है। रविदास, घासीदास, ज्योतिबा फूले, डॉ. आंबेडकर और कांशीराम जैसे दलित संतों एवं जननायकों को लेकर वैसे भी देश के बौद्धिक क्षेत्रों में एक तरह से सन्नाटा व्याप्त है।

'कांशीराम बहुजनों के नायक’ बद्रीनारायण की एक ऐसी कृति है जिसमें वे कांशीराम के बहाने भारतीय दलित संघर्ष की गंभीर और विस्तृत पड़ताल करते हुए नजर आते है। कांशीराम के जीवन और उनके शुरूआती संघर्ष के दिनों से लेकर आजतक की भारतीय राजनीति की वे इस किताब में एक तरह से जायजा लेते हुए दिखाई देते है। दलित संघर्ष के बहाने कांशीराम के व्यक्तित्व की पड़ताल करते हुए वे दलित संघर्ष के उन विस्मृत इतिहास के पन्नों तक जाते हैं जिसके बिना दलितों के जीवन संघर्ष को समझ पाना लगभग असंभव कार्य होता।

इस किताब की भूमिका में ही बद्रीनारायण ने अपने मंतव्य को स्पष्ट कर दिया है। उन्होंने इसकी भूमिका में दलित समाज के अध्ययन के दरम्यान अपने निजी अनुभवों को पाठकों से साझा करते हुए लिखा है 'अपने अध्ययन के हिस्से के तौर पर दलित राजनीति के काम करने के तरीकों का निरीक्षण करने और दलित मनोविज्ञान को समझने के लिए भी, दलित बहुसंख्या वाले बहुत सारे गांवों का मैंने दौरा किया। एक गांव से दूसरे गांव में जाते हुए मैंने यही पाया कि दलित अब अधीन और दबे रहने वाले नहीं थे। इसकी जगह आत्मविश्वास और पहचान तथा आत्मसम्मान की एक मजबूत भावना से लबरेज एक समूह में उनका रूपांतरण हो चुका था’।

यह सच है कि भारतीय राजनीति में कांशीराम का आगमन एक ऐसे समय में हुआ जब भारत में दलितों की दबी कुचली आवाज को नेतृत्व देने वाला कोई नहीं था। डॉ. आंबेडकर के पश्चात् ऐसा कोई दलित नेता नहीं हुआ जो दलितों के संघर्ष को एक नई धार दे सके, उन्हें लामबंद कर उनके भीतर एक नया आत्मविश्वास और जोश पैदा कर सके। कांशीराम का दलित राजनीति में आगमन ठीक ऐसे ही समय में हुआ। कांशीराम डॉ. आंबेडकर के सपनों को मूत्र्त रूप देने वाले एक जमीनी नेता साबित हुए, जिन्होंने एक लंबे समय तक भारतीय राजनीति में दलित आंदोलन का प्रतिनिधित्व किया।

 'कांशीराम बहुजनों के नायक’ में बद्रीनारायण ने कांशीराम और दलित आंदोलन को एक नए रूप में देखने का प्रयत्न किया है। उन्होंने इस किताब के बहाने दलित विमर्श को एक नई दिशा की ओर उन्मुख करने का भी प्रयत्न किया है। इस किताब की भूमिका में कांशीराम के विषय में वे लिखते हैं 'यदि आंबेडकर को भारतीय लोकतंत्र के संवैधानिक आधार को खड़ा करने का श्रेय दिया जा सकता है तो इस बात का श्रेय कांशीराम को है कि उन्होंने हाशिए के अधिकांश लोगों को राजनीति में लाकर अपने सांगठनिक और राजनीतिक दांव पेंच से इसकी वैधता को और मजबूती प्रदान की’।

कांशीराम और दलित आंदोलन की पूर्व पीठिका रचते हुए बद्री नारायण मंडल कमीशन रिपोर्ट की भी गहरी पड़ताल अपनी इस किताब में करते है जिससे कंशीराम जैसे दलित नेता के राजनैतिक उदय को समझने में हमें मदद मिलती है।

वी.पी. सिंह ने जिस तरह भाजपा और शिवसेना जैसी साम्प्रदायिक शक्तियों को 'मंडल कमीशन’ के बहाने भारतीय राजनीति के केन्द्र में आने की कोशिशों को नाकाम करने का प्रयत्न किया था, वह भारतीय राजनीति के इतिहास का एक अहम अध्याय बन चुका है। यहीं वह समय है जब लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार जैसे पिछड़े वर्ग के नेता हिंदी प्रदेशों से उभर कर आते है और केन्द्रीय राजनीति में अपनी जगह बनाने में सफल हो जाते हैं। पिछड़ी जातियां और दलित 'मंडल कमीशन’ के फलस्वरूप एक नई ऊर्जा से दीप्त हो जाते हैं। कांशीराम का दलित राजनीति में पर्दापण भी इसके कुछ ही दिनों बाद होता हुआ दिखाई देता है।

'कांशीराम बहुजनों के नायक’ के केन्द्र में कांशीराम अवश्य है पर बद्री नारायण की खूबी यह है कि वे कांशीराम के बहाने दलित जीवन संघर्ष और दलित आंदोलन को भी केन्द्रीयता प्रदान करते है। 'दलितों के नेता कांशीराम: जीवन के शुरूआती वर्ष’ में बद्री नारायण लिखते है 'आंबेडकर ने जो सपना देखा, उसे वास्तविकता में कांशीराम ने साकार किया, लेकिन अपने तरीके से उन्होंने दलितों की सोई हुई चेतना को जगाया और उन्हें एक आवाज दी। उन्होंने पूरे देश की यात्रा करके दलितों एवं हाशिए पर फेंके गए समूहों की जीवन स्थितियों को जाना तथा राजनीति का एक ऐसा मॉडल पेश किया जो उनकी जिंदगी को बदल देगा। मान्यवर कांशीराम के शब्दों के जादू ने उनको प्रेरणा दी तथा लोगों ने पूरे मनोयोग से संघर्ष में हिस्सा लिया’।

इस किताब के प्रथम अध्याय में कांशीराम के प्रारंभिक जीवन तथा उसके परिवार पर लेखक ने फोकस किया है। रोपड़ जिला के खवासपूर में पिरथपुर बुंगा गांव में हरिसिंह के परिवार में जिन सात बच्चों का जन्म हुआ उनमें कांशीराम भी एक थे। रोपड़ में स्कूल और कालेज की शिक्षा ग्रहण के पश्चात् कांश्ीराम ने सन् 1965 में उच्चशिक्षा के अध्ययन तथा प्रशिक्षण के लिए देहरादून स्टॉफ कालेज में प्रवेश ले लिया। सन् 1958 में रिसर्च असिस्टेंट के रूप में पूना (पुणे) में उन्हें नौकरी भी मिल गई।

पूना कांशीराम के जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हुआ। बद्रीनारायण ने पूना के उनके जीवन और उनके जीवन में आ रहे बदलाव का सटीक वर्णन इस अध्याय में किया है। बद्रीनारायण के मार्फत ही हम कांशीराम के साथ काम कर रहे एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी दीनाभाना के बारे में जान पाते है। जो कांशीराम के जीवन के बदलाव का एक प्रमुख कारक बने।

दीनाभाना ने ही कांशीराम से दो टूक शब्दों में यह कहने की हिम्मत की थी कि 'अधिकार छीने जाते हैं, मांगे नहीं जाते। मांगने से केवल भीख मिलती है। वे लोग जो अपने अधिकारों के लिए लड़ते हैं, उन अधिकारों को अपना हक मानते हैं’। दीनाभाना ने यह कहकर कांशीराम को सोचने लिए मजबूर कर दिया, दीनाभाना ने एक तरह से यह कहकर उनके ह्रदय और मस्तिष्क में हलचल मचा दी। जिसके फलस्वरूप कांशीराम को डॉ. आंबेडकर के 'जाति का विनाश’ जैसा सुदीर्घ लेख पढऩे के लिए विवश होना पड़ा। ज्योतिबा फूले और शाहूजी के कार्यों और रचनाओं को जानने के लिए 'गुलामगीरी’ का भी अध्ययन कांशीराम के जीवन में बदलाव का कारण बना। इससे कांशीराम को अहसास हुआ कि 'ब्राह्रम्णवादी व्यवस्था हजारों साल से मुट्ठीभर लोगों के फायदे के लिए कार्य कर रही है तथा यह व्यवस्था भारत की निम्नजाति के बहुसंख्यक लोगों का शोषण उत्पीडऩ करती है। देश के प्रशासन एवं शासन को संचालित करने वाले ज्यादातर लोग ऊपरी जातियों के हैं, जो कि भारत की जनसंख्या का केवल वाले 15 प्रतिशत है। भारत की बहुसंख्यक जनता दरिद्रता एवं दासता का शिकार हैं’।

इसके पश्चात् की स्थिति का वर्णन करते हुए बद्रीनारायण कांशीराम के संदर्भ में लिखते हैं 'जब एक बार उन्होंने दलितों को एकजूट करने का मिशन अपने हाथ में लिया तोप्रथम श्रेणी के अधिकारी की नौकरी छोडऩे का भी महत्वपूर्ण फैसला लिया। यद्यपि उन्होंने कोई औपचारिक त्याग पत्र नहीं दिया, लेकिन उन्होंने ऑफिस जाना बंद कर दिया’।

दूसरे अध्याय 'मास्टर कुंजी की खोज’ में बद्री नारायण उन कारणों को ढूंढ़ते है जिसके फलस्वरूप कांशीराम उस मास्टर कूंजी की खोज करते है जिसके मार्फत वे सत्ता के शीर्ष तक पहूंच सकते थे। इस संदर्भ में बद्री नारायण का यह कथन दिलचस्प है कि कांशीराम आंबेडकर के इस कथन को अब पूरी तरह से समझ चूके थे कि 'सामाजिक न्याय प्राप्त करने की मास्टर कुंजी राजनीति सत्ता है’ इस अध्याय में इस बात का उल्लेख है कि कांशीराम किस तरह दलित शोषित समाज संघर्ष समिति से होते हुए सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी तक पहूंचते है।

1972 में प्रारम्भ 'दलित पैंथर’ और उससे सम्बद्ध दो युवा दलित कवि नामदेव ढ़साल और दया पवार की चर्चा भी इसीअध्याय में की गई है। अमेरिका के 'ब्लेक पैंथर’ के तर्ज पर महाराष्ट्र में 'दलित पैंथर’ की शुरूआत जरूर हुई पर यह असमय ही कालकलवित भी हो गई। नामदेव ढसाल और राजा ढाले के मतभेद के चलते जिस तरह 'दलितपैंथर’ आंदोलन को दम तोडऩा पड़ा इसकी विस्तृत चर्चा भी इस अध्याय में की गई है। 'दलित पैंथर’ आंदोलनने राजनीतिक स्तर पर भले ही कुछ समय बाद दम तोड़ दिया था। पर वह अपने पीछे एक ऐसा बहुमूल्य दलित साहित्य छोड़ गया है जिसके बिना भारतीय साहित्य की चर्चा हमेशा आधी अधूरी सिध्द होगी। नामदेव ढसाल, दया पवार जैसे अनेक मराठी कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से भारतीय कविता को न केवल समग्रता प्रदान की है वरन् उसे समृद्ध भी किया है। इस किताब में अगर 'दलित पैंथर’ आंदोलन की चर्चा नहीं की जाती तो शायद यह किताब अपनी समग्रता में सफल नहीं हो पाती।

इसी अध्याय में बद्रीनारायण ने कांशीराम के जीवन संघर्ष को काफी निकट से देखने का प्रयास किया है। बद्रीनारायण के माध्यम से ही हम जान पाते है कि कांशीराम का शुरूआती राजनीतिक जीवन बेहद संघर्षमय था। उनकी जेब में पैसे नहीं होते थे, पुणे से वे मुम्बई की रोज रेल यात्रा करते थे। कांशीराम ने पुणे से मुम्बई की यात्रा के लिए एक मासिक पास बनवा लिया था। पुणे में वे साइकिल से रोज रेल्वे स्टेशन पहुंचते थे। साइकिल को स्टैंड में रखकर वे मुम्बई के लिए महालक्ष्मी एक्सप्रेस पकड़ते थे। मुम्बई पहुंचकर वे आंदोलन के अपने साथियों से मिलते और फिर रात में वापस पुणे लौट जाते थे। साइकिल स्टैंड से साइकिल उठाकर ऑफिस पहुंचकर फर्श पर तिरपाल बिछाकर सो जाते थे। एक बार साइकिल में हवा भरवाने के लिए पांच पैसे भी उनकी जेब में नहीं थे। कांशीराम के जीवन का शुरूआती दौर बेहद संघर्षमय था। अभावों के बीच भी उन्होंने दलितों को संगठित करने का कार्य किया।

कांशीराम के उन दिनों के मित्र मनोहर आटे के इस कथन को बद्री नारायण ने अपनी इस किताब में प्रमुखता के साथ उद्धृत किया है 'कांशीराम दरवाजा बंद करके ऑफिस से चले गए मुश्किल से पांच मिनट के अंदर वे वापस आ गए। उन्होंने मुझसे कहा आटे तुम्हारे पास कुछ पैसा है? मैंने कहा बिल्कुल नहीं उन्होंने कहा देखो इधर उधर कुछ पड़ा तो नहीं है। मैंने उनसे कहा कि एक भी पैसा नहीं है। फिर भी मैंने दराज आदि जगहों पर देखा। मैंने उनसे पूछा कि साहिब पांच पैसे की क्यों आवश्यकता है? उन्होंने कहा कि साइकिल में हवा नहीं है। हवा भराने के लिए कम से कम पांच पैसा चाहिए। साहिब ने कहा मैं पैदल ही स्टेशन चला जाऊंगा। मैंने देखा साहिब भागते हुए स्टेशन जा रहे है’।

दलितों को बहुजन समाज पार्टी से जोडऩे के काम में कांशीराम का अपना एक अलग अंदाज था। वे एक अलग किस्म की दलित राजनीति का सूत्रपात कर रहे थे। बद्रीनारायण बहुजन समाज पार्टी के शुरूआती सफर के बारे में बताते हुए लिखते हैं कि कांशीराम सभाओं के आयोजकों के सामने शर्त रखते थे कि सभा के पांच किलोमीटर के दायरे में चारपहिया वाहन नहीं रहेगा। उनके वजन के अनुपात में एक झोले में बारह हजार रूपये जमा कर उन्हें दिया जाये। सभा में बारह हजार लोगों की भीड़ हो जिसमें तीन हजार साइकिल सवार भी हो।

सन् 1984 में कांशीराम ने देश के विभिन्न स्थानों से पांच बड़ी साइकिल रैली का आयोजन किया। ये पांचों साइकिल रैली 15 मार्च सन् 1984 को दिल्ली के वोट क्लब में एकत्र हुई। यह कांशीराम के और बहुजन समाज पार्टी के लिए एक ऐतिहासिक रैली सिद्ध हुई। कांशीराम की यह जीत भारतीय राजनीति में एक नये मोड़ का सूचक भी बनी। दिल्ली में दलितों ने पहली बार अपनी विशाल ताकत का अहसास करवाया। मीडिया में पहली बार दलितों के इस संघर्ष को जगह दी। अब कांशीराम के लिए मानों 'दिल्ली दूर नहीं थी’।

दूसरे अध्याय में कांशीराम और मायावती के प्रथम मुलाकात को भी बद्रीनारायण ने जगह दी है। कांशीराम मायावती के किस तरह राजनीतिक गुरू बने इसका भी वर्णण उन्होंने इस अध्याय में प्रमुखता के साथ किया है। मायावती के उस कथन को भी उद्धृत किया है जिसमें वे कहती हैं कि 'मैं स्वीकार करती हूं कि मान्यवर कांशीराम हमारे गुरू जैसे हैं। वे मुझसे बहुत उम्रदराज हैं और वे राजनीति में मुझसे बहुत पहले आये। वे आंदोलन से घनिष्ठ रूप से जुड़े हुए थे। उनका आशीर्वाद हमारे साथ है और मैं ह्रदय और आत्मा से उनके साथ हूं। मैं लगातार उनसे सीखती हूं’।

अगर कांशीराम मायावती के जीवन में न आते तो मायावती का पर्दापण संभवत: राजनीति में, विशेषकर दलित राजनीति में संभव न हो पाता। इस तरह यह देश सन् 1995 में उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक दलित स्त्री को मुख्यमंत्री के रूप में देखने से वंचित रह जाता। आगे के अध्यायों में बद्रीनारायण ने कांशीराम से जुड़े अनेक ऐसे तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है जिसके विषय में एक तरह से अब तक हम अनभिज्ञ थे।

कांशीराम ने 'दि चमचा एस एज: एन एरा ऑफ स्टूजेज’ जैसी एक किताब अंग्रेजी में लिखी है। इस किताब के विषय में हममें से अनेक पाठक अनभिज्ञ होंगे। इस किताब में कांशीराम ने डॉ. भीमराव आंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच सन् 1932 में हुए ऐतिहासिक समझौते 'पूना पैक्ट’ का भी विस्तार से उल्लेख किया है कि किस तरह जब डॉ. आंबेडकर ने अंग्रेजों से पृथक निर्वाचन की मांग की ताकि अस्पृश्यों के राजनीतिक हितों की रक्षा हो सके तो इसके विरोध में महात्मा गांधी विचलित होकर आमरण अनशन की शरण में चले गए। कांशीराम ने अपनी इस किताब में महात्मा गांधी की तीखी आलोचना की है। उन्होंने कांग्रेस पर यह आरोप भी लगाया है कि वह जनता की मुख्य शत्रु है। कांशीराम यह मानते है कि महात्मा गांधी ने आमरण की धमकी देकर एक तरह से अपनी चिरपरिचित अदांज में आंबेडकर को ब्लैक मेल किया था।

डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखित इस किताब का एक उद्धरण बद्रीनारायण ने अपनी इस किताब में भी उद्धृत किया है जिसे आज के संदर्भ में नए सिरे से देखे जाने की, उस पर बहस की ज्यादा जरूरत है '1931 और 1932 के बीच गांधी और कांग्रेस ने एक साथ मिलकर व्यवस्थित तरीके से अंधेरे के युग से ज्ञानोदय के युग में दलितों को ले जाने की कोशिशों को तबाह कर दिया। हांलाकि गांधी और अन्य कांग्रेसी नेता एक साथ मिलकर कुछ अलग तरह की चीजों के लिए षड्यंत्र कर रहे थे। जैसा कि गांधी जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक व्यवस्था के आधार पर समाज को चलाना चाहते थे, जिसमें प्रत्येक आदमी जाति व्यवस्था के अनुसार अपने धर्म का पालन करता था। ऐसा करके गांधी दलितों को अंधेरे युग में कीचड़ में बनाए रखना चाहते थे, जैसा चतुर्वर्ण (समाज का संस्तरीकरण) ने उन्हें शताब्दियों तक बनाए रखा था।

कांशीराम के किताब के इस उध्दरण को ज्ञान के एक नए आलोक में देखे जाने की आज ज्यादा आवश्यकता है। महात्मा गांधी के दलितों के प्रति नजरिये की भी एक नए सिरे से पड़ताल करने की कहीं ज्यादा जरूरत है। दलितों को हरिजन की संज्ञा से विभूषित करना और उन्हें मंदिरों में प्रवेश दिलाना भर काफी था या उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल किये जाने को लेकर एक व्यापक जन आंदोलन के जन्म देना उचित था इसे समझा जाना चाहिए। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी दलित हमारे 'डिस्कोर्स’ में प्रमुखता के साथ जगह क्यों नहीं बना पाते हैं। हमारी सारी संवेदनाएं और भावनाएं आज भी दलितों की ओर जाती हुई, उनसे एक रागात्मक सम्बंध बनाती हुई क्यों नहीं दिखाई देती है। इन सवालों से भी आज निर्ममता पूर्वक टकराने की आवश्यकता है। बद्रीनारायण की इस किताब की सफलता इस बात में भी निहित है कि वे इन सवालों से बार-बार टकराने और दो-दो हाथ करने की भरपूर कोशिश करते है।

बद्रीनारायण ने कांशीराम के भाषणों, साक्षात्कारों के माध्यम से कांशीराम को एक नए रूप में पाठकों के समक्ष रखने का कार्य किया है। कांशीराम के इन भाषणों और साक्षात्कारों के अभाव में कांशीराम के जीवन संघर्ष तथा उनके वैचारिक ताप को समझ पाना लगभग एक दुष्कर कार्य होता। बद्रीनारायण ने यथासंभव इन भाषणों और उध्दरण का आश्रय लेकर कांशीराम के व्यक्तित्व के बहुस्तरीय पर्तों को खोलने का काम किया है। एक साक्षात्कार में कांशीराम ने जातिवाद को लेकर जो कुछ कहा है उससे भी बहुजन समाज पार्टी की नीतियों की भनक मिलती है। 'वे लोग जो जातिवाद को बनाए रखना चाहते हैं वे हमसे कहते हैं कि हमें जाति के बारे में बात नहीं करनी चाहिए। यदि कोई ऐसा करने की कोई जरूरत है तो वे इसे हमारी ओर से करेंगे इसका मतलब है कि अपमानों को सहन करते रहना चाहिए। हम लोगों को उनकी जाति के आधार पर संगठित कर रहे हैं, ताकि जाति व्यवस्था को समाप्त किया जा सके’।

बद्रीनारायण कांशीराम के सम्बंध में लिखते हैं ‘ कांशीराम समझ गए थे कि विभिन्न संतों और गुरूओं तथा फूले और आंबेडकर जैसे नेताओं के सभी प्रयासों के बावजूद जाति व्यवस्था समाप्त नहीं हो पाई, इसलिए वे हाशिए के समुदायों की जातीय चेतना का राजनीतिकरण करने के सिध्दांत पर पहुंचे। इस काम के लिए उन्होंने सबसे पहले ऊंची जातियों याने समाज के प्रभावशाली समुदायों द्वारा दलितों को दी गई यातना की स्मृतियों को जगाया और उनके इर्द गिर्द निम्न जातियों को गोलबंद करने की कोशिश की’।

हाशिए के समुदायों की जातीय चेतना का राजनीतिकरण जिस तरह से कांशीराम ने जीवन पर्यंत अपने भाषणो के माध्यम से किया उसका एक व्यापक प्रतिफलन हम बहुजन समाज पार्टी और मायावती में देख सकते है जिनके सहयोग के बिना सारी राजनीतिक पार्टियां असहाय जान पड़ती है। यह सब कांशीराम के संघर्ष के फलस्वरूप ही संभव हो सका है।

'कांशीराम की सांस्कृतिक राजनीति और बसपा का गठन’ में पुन: बद्रीनारायण बसपा की गठन की पृष्ठभूमि में जाकर दलित राजनीति की बारीकियों को समझने का प्रयास करते हैं, बसपा और कांशीराम के मंतव्यों को वे अनेक जाने-अनजाने संदर्भों के साथ देखने की कोशिश करते है। बसपा के चुनाव चिन्ह को लेकर कांशीराम के नजरिये को वे बहुत हद तक स्पष्ट करते हुए दिखाई देते है’।

कांशीराम ने चुनाव चिन्ह के रूप में हाथी को पसंद किया था और चुनाव आयोग से इसकी मांग भी की थी। बद्रीनारायण के अनुसार यह उनके लिए सांस्कृतिक प्रतीक था। बद्रीनारायण लिखते है 'मान्यवर कांशीराम ने जो चुनाव चिन्ह पसंद किया और चुनाव आयोग से उसकी मांग की, वो था हाथी। हाथी निचले समुदायों से बने हुए इस क्षेत्र के शुरूआती निवासियों का एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रतीक है। इस विशाल हाथी जैसे समाज के सिर पर अल्पसंख्यक ऊंची जाति के मनुवादी महावत की तरह बैठे हैं और हाथी जैसे गरीब बहुसंख्यक आबादी को अन्याय, शोषण और उत्पीडऩ के लोहे के अंकुश से तब तक कोंचते है जब तक खून न निकलने लगे और पूरे दिन कमरतोड़ मेहनत के लिए मजबूर करते है’।

बसपा के चुनाव चिन्ह हाथी के पीछे कांशीराम की इस परिकल्पना को भी समझा जाना चाहिए। हाथी की इस तरह की व्याख्या कांशीराम की अपनी मौलिक व्याख्या है। हाथी को बसपा का चुनाव चिन्ह बनाएं जाने के इतर कारण भी थे। बुद्ध से संबंधित जातक कथाओं में हाथी से संबंधित अनेक कथाएं संग्रहीत हैं। डॉ. आंबेडकर ने भी आरपीआई के प्रतीक चिन्ह के रूप में हाथी को ही चुना था। इस तरह बसपा के चुनाव चिन्ह के रूप में हाथी का चुनाव कर कांशीराम ने अपनी गहरी राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया था।

कांशीराम ने एक अन्य महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि उन्होंने उन तमाम दलित संतो और दलित नायकों की खोज करवाई ताकि उन्हें दलित राजनीति में एक सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में स्थापित किया जा सके।

उत्तर प्रदेश में ऐसे अनेक स्थानीय नायकों की खोज की जो एक तरह से स्मृतियों की धूंध में कहीं खो चुके थे, उन्हें दलितों के मध्य प्रचारित किया गया। 1857 की महान क्रांति से जुड़े दलित नायकों को भी उन्होंने खोज निकाला। बालु महेतर, उदैया पासी, चेतराम जाटव, बांके चमार, गंगा बख्श, वीरा पासी, मक्का पासी, मातादीन भंगी, झलकारी बाई, ऊदा देवी, अवंति बाई ऐसी ही प्रतिभाएं थी। विभिन्न स्थानों पर उनकी मूर्तियां लगवायी ताकि दलित समाज अपने नायकों की पहचान कर सके।

इस किताब के पांचवे अध्याय में बद्रीनारायण ने कांशीराम और बहुजन समाज पार्टी की 'सत्ता के लिए दावेदारी को केन्द्र में रखा है। एक तरह से बहुजन समाज पार्टी का गठन ही चुनाव लड़ कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने हेतु हुआ था। अन्य राजनैतिक दलों की तरह सत्ता पर आसीन होना बसपा का एक प्रमुख लक्ष्य था। यही कारण है कि सन् 1995, 1997, 2002, 2007 में उत्तर प्रदेश में मायावती मुख्यमंत्री के रूप में अवतरित होती है। कांशीराम डॉ. आंबेडकर और अपनी स्वयं की छवि मायावती के भीतर देखते है। उनके अनुसार दलित राजनीति में मायावती उनके ही काम को आगे ले जाने वाली किसी नेत्री से कम नहीं थी।

25 अगस्त 2003 में कांशीराम द्वारा दिए गए भाषण को बद्रीनारायण ने उद्धृत किया है जिसमें वे मायावती पर अपना अगाध विश्वास प्रकट करते हुए कहते हैं 'इस समय मेरी कोशिश मायावती का कद मुख्यमंत्री से अधिक बढ़ाने की है। आज सभी लोगों में से बहुत सारे लोग ऐसे होंगे जिनके साथ मैंने इस आंदोलन को आगे ले जाने के लिए मेहनत की है। मायावती उनमें से एक है, उनके स्कूल और कॉलेज के रिकार्ड और पार्टी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को भी ध्यान में रखते हुए मैंने महसूस किया कि इस लड़की में कुछ खास बात है। इसीलिए मैंने उसे आगे बढ़ाने की कोशिश की। मैं बूढ़ा हो रहा हूं, मैं अपने काम में व्यस्त हूं, लेकिन काम करने की मेरी क्षमता लगातार घट रही है। जब तक मैं जिंदा हूं काम करूंगा, लेकिन मेरी यह हार्दिक इच्छा है कि मेरी मुत्यु के बाद मायावती मेरे अधूरे कामों को आगे बढ़ाएं’। आगे बद्रीनारायण लिखते है कि 'मायावती के माध्यम से कांशीराम को आखिरकार 'मास्टर की’ मिल गई थी जो गरीब और पददलित दलितों को मुक्त करने में मददगार साबित हुई’।

कांशीराम की भाषण शैली की प्रशंसा करते हुए बद्रीनारायण कहते है कि 'कांशीराम की संवाद शैली स्कूल के अध्यापक से ज्यादा मिलती जुलती थी, जो कठिन से कठिन सिद्धांतों को भी गांव के साधारण दिमाग के बच्चों के सामने खोलकर रख देता है।

बद्रीनारायण ने कांशीराम के राजनीतिक दांव-पेंच और उनकी अवसरवादिता की भी अच्छी खबर इस किताब के सातवें अध्याय में ली है। कांशीराम एक ऐसे दलित राजनेता भी थे जो अवसर आने पर मनुवादियों (भाजपा) से भी हाथ मिलाने में कोई संकोच या परहेज नहीं करते है। सन् 1995 में भाजपा से हाथ मिलाकर ही उन्होंने मायावती की सरकार बनने में मदद की थी। दलित मोर्चा के संगठनकत्र्ता महिपाल सिंह ने कहा था कि 'बसपा का हाथी अब दलितों का समर्थक नहीं रह गया है, इसकी जगह मनुवादियों का गणेश बन गया है, जो दलितों को अपना दास बनाना चाहते हैं ‘।

बद्रीनारायण अपनी इस कृति में बहुजनों के नायक कांशीराम को लेकर मोहग्रस्त या अंधभक्त नहीं है। यहीं कारण है कि कांशीराम को वे उनकी खूबियों और कमियों के साथ प्रस्तुत करते है। सन् 2002 में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों पर भी कांशीराम की चुप्पी पर बद्रीनारायण ने निशाना साधा है कि वे चारों तरफ  से होने वाली कड़ी निंदा के बावजूद गुजरात में मुसलमानों के खिलाफ  2002 में हुए दंगों के मामलों में आश्चर्यजनक रूप से चुप रहे यह सोचकर कि वहां दलितों का प्रतिशत अन्य राज्यों की तुलना में काफी कम है।

इसी अध्याय में पार्टी और परिवार के बीच हुए संघर्ष पर बद्रीनारायण ने प्रकाश डाला है। कांशीराम के परिवार के सदस्य इस बात से क्षुब्ध थे कि बीमार कांशीराम की चिकित्सा व्यवस्था मायावती के घर पर और उनके इशारे पर की जा रही है। इस संदर्भ में कांशीराम के परिवार की ओर से राष्ट्रपति को लिखे गए पत्र को भी प्रकाशित किया गया है। इसे लेकर परिवार के सदस्यों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक मुकदमा भी दायर किया। पर यह मुकदमा इसलिए खारिज कर दिया गया क्योंकि कांशीराम ने न्यायिक रजिस्ट्रार के समक्ष अपना यह बयान दर्ज करवाया कि वे मायावती के घर पर अपनी मर्जी से रह रहे हैं और उन पर किसी का कोई दबाव नहीं है।

अंतिम अध्याय 'कांशीराम का संदेश अमर रहे’ में कांशीराम की राजनीतिक सीमाओं को ध्यान में रखा गया है। ये सीमाएं बहुजन समाज पार्टी की भी सीमाएं हैं। बद्रीनारायण तथा अनेक राजनैतिक विश्लेषकों की यह राय है कि सन् 2007 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई इसके पीछे मायावती की 'सोशल इंजीनियरिंग’ की रणनीति थी। बद्रीनारायण इस सम्बंध में लिखते है कि 'इस रणनीति के द्वारा उन्होंने निम्न जातियों अर्थात् बहुजन और उच्च जातियों का सतरंगी गठबंधन बनाने की कोशिश की थी जिसे 'सर्वजन’ का नाम दिया गया था। यहां उन्होंने यह भी जोड़ा कि 'बहुजन से सर्वजन की राजनीति दलितों में बहुजन की पहचान की भावना को कमजोर बनाती है’। यह भी सच है कि सन् 2007 में मुख्यमंत्री के रूप में मायावती ने ऊंची जातियों को खुश रखने के लिए अपनी सरकार में ब्लॉक से लेकर राज्य स्तर तक उन्हें हिस्सेदारी दी। दलितों के उत्थान की बात करने वाली बसपा सत्ता में बने रहने के लिए अन्य जातियों के लोगों को भी खुश करने में लगी हुई थी।

इन्हीं सब कारणों से सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा को हार का मुंह देखना पड़ा। इस चुनाव में मायावती बुरी तरह पराजित हुई। इस चुनाव में समाजवादी पार्टी भारी बहुमत से चुनाव जीत गई। बहुजन समाज पार्टी इसके पश्चात् देश की राजनीति तथा उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी कोई गहरा प्रभाव डाल पाने में असफल रही। बद्रीनारायण उन तमाम सूत्रों को तलाशने की कोशिश करते हैं जिसके कारण बसपा का पतन हुआ और एक तरह से कांशीराम का सपना अधूरा ही रह गया। बसपा के अंतर्विरोधों को लक्ष्य करते हुए बद्री नारायण अपनी इस किताब में अतत: इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 'यदि बसपा फिर से उभरना चाहती है तो उसे उन उद्देश्यों की ओर वापस आना होगा, जिनके साथ कांशीराम ने पार्टी की नींव रखी थी। पार्टी का उद्देश्य पहले दलितों का राजनीतिक सशक्तिकरण के माध्यम से सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान करना था और उत्तर प्रदेश में एक सामाजिक रूपांतरण लाना और दीर्घकालिक तौर पर पूरे भारत में इसे साकार करना था’।

दलितों का राजनीतिक सशक्तिकरण तथा उनका सामाजिक सांस्कृतिक उत्थान किस तरह बसपा के राजनैतिक एजेंडा से काफी दूर होता चला गया, यह दलित राजनीति के अध्येताओं को भली भांति मालूम है। दलित राजनीति भी किस तरह अन्य राजनीतिक पार्टी की तरह ही आचरण करने लगी तथा दलितों का विश्वास खोने लगी यह सब उत्तरप्रदेश में मायावती के मुख्यमंत्री रहते रहते सबकों दिखने लगा था। बहरहाल दलित आंदोलन का उद्देश्य दलितों के समग्र विकास के लिए ना होकर सत्ता के गलियारे तक पहुंचने का साधन बन चुका था।

आगे बद्री नारायण यह भी लिखते हैं कि 'यद्यपि बसपा भारत की महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पार्टियों में से एक है और उत्तर प्रदेश में प्रभावी स्थिति में है जो सरकार बना सकती है, सरकार गिरा सकती है, लेकिन कांशीराम ने जिस उद्देश्य से इसकी नींव डाली थी, उससे वो बहुत दूर है। इसे करने के लिए उसे चुनावी सत्ता पाने की अल्पकालिक राजनीतिक रणनीतियों से आगे देखना पड़ेगा और इसकी जगह विशाल संख्या में दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्थान पर ध्यान केन्द्रित करना पड़ेगा’।

बद्री नारायण इसलिए अपनी इस किताब में बहुजन समाज पार्टी में आए हुए इस बदलाव से सहमत नहीं है। कांशीराम ने जिस बहुजन समाज पार्टी की आधारशिला रखी थी और उनका जो उद्देश्य था, उस उद्देश्य से यह पार्टी भटक चुकी थी। वैसे देखा जाए तो इस भटकाव में स्वयं कांशीराम की भूमिका भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं थी। सत्ता तक किसी तरह पहुंचने के उनके रास्ते भटकाव पूर्ण ही थे, बावजूद इसके कांशीराम बसपा और मायावती भारतीय राजनीति में अपना एक विशेष प्रभाव रखते हैं।

बद्री नारायण की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी इस किताब में दलित समस्या को एक भिन्न 'डिस्कोर्स’ में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उन्होंने हमें फिर से दलित समस्या से रू-ब-रू करवाने का ही नहीं, वरन् इस पर समग्र बहस के लिए उकसाने का भी काम किया है। भारत में दलित और अल्पसंख्यकों को लेकर हमारे यहां व्यापक बहस की गुंजाइश है, इससे हम भाग नहीं सकते हैं। दलितों और अल्पसंख्यकों पर बोलना, उसे डिस्कोर्स के प्रमुख बिंदु तक खींच कर लाना बेहद जरूरी है। महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू पर लिखना या बातें करना तो हमें रास आता है पर डॉ. भीमराव आंबेडकर या कांशीराम हमारी चेतना के केन्द्र बिंदु में प्रमुखता के साथ आने से वंचित क्यों रह जाते हैं? इस पर भी आज व्यापक बहस की जरूरत है।

हिंदी साहित्य में विगत अनेक वर्षों से कविता, कहानी, उपन्यास की चर्चा से समूचा हिंदी जगत अटा पड़ा है, पर दुर्भाग्य यह है कि दलित एवं अल्पसंख्यक के डिस्कोर्स के लिए कहीं कोई स्पेस नहीं है। दलितों की समस्या शायद हमारी समस्या नहीं है। स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी दलितों की स्थिति आज भी भयावह क्यों हैं? राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल होने से पहले ही उन्हें बार-बार हाशिए की ओर धकेलने की कोशिशें क्यों होती रहती हैं? दलितों की और अल्पसंख्यकों की समस्याएं, उनके साथ हो रहे अमानवीय व्यवहार हमारी संवेदना के तारों को झकझोरते क्यों नहीं है? इस पर भी गहन विचार विमर्श करने की आज अधिक आवश्यकता है।

बद्री नारायण ने बेहद ईमानदारी और गंभीरता के साथ 'कांशीराम बहुजनों के नायक’ में कांशीराम जैसे बहुजनों के नायक के प्रति मुकम्मल रूप से न्याय किया है। वे कांशीराम के बहाने जिस तरह दलित जीवन संघर्ष को एक नए परिप्रेक्ष्य में उठाने का प्रयत्न करते हैं, भारतीय समाज में उनकी जीवन स्थितियों को जिस तरह से विश्लेषित करने का और सवाल उठाने का दुस्साहस करते हैं, वह बद्री नारायण जैसे समर्थ कवि चिंतक और विचारक ही संभव कर सकते थे।

बद्री नारायण इस किताब के बहाने जिस नई तरह की बहस को छेडऩे के लिए आतुर हैं, उसे गंभीरता से समझे जाने की जरूरत है। आज फिर से कांशीराम के बहाने दलितों पर चर्चा क्यों एक बेहद जरूरी मुद्दा है? उसे लेकर बार-बार गंभीर विमर्श की आवश्यकता है। डॉ. आम्बेडकर और कांशीराम की एक नये परिप्रेक्ष्य में, एक नए संदर्भ में आंकलन की आवश्यकता को बद्री नारायण ने अपनी इस किताब में गंभीरतापूर्वक रेखांकित करने का प्रयत्न किया है।

बद्री नारायण की इस बात के लिए प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने एक ऐसे विषय पर लिखना उचित समझा जिस पर अमूमन हम सब हाथ डालने से बचते हैं कि कहीं हमारी संभ्रात छवि पर दलितों पर लेखन का कोई ठप्पा न लग जाये। बद्री नारायण का यह कार्य बेहद उल्लेखनीय है। यह एक नए 'डिस्कोर्स’ की आधारशिला भी है।

बद्री नारायण ने कांशीराम की किताब से एक महत्वपूर्ण उध्दरण अपनी इस किताब में उद्धृत किया है जिसे आज के परिप्रेक्ष्य में समझा जाना उचित होगा-'यहां तक कि गुलामों, नीग्रों और यहुदियों की कोई भी तुलना भारत के अछूतों से नहीं की जा सकती। जब हम एक मानव द्वारा दूसरे मानव के साथ अमानवीय व्यवहार के बारे में सोचते है, तो अछूतों के खिलाफ हिंदूओं की कट्टरपंथियों जैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता है। भारत के अछूत शताब्दीयों से सर्वाधिक दयनीय गुलाम रहे है। ब्राह्मणवाद के भीतर इस प्रकार का जहरीला तत्व है, जिसने सबसे बद्तर तरीके के अन्याय का विरोध करने की जो कुछ भी इच्छा थी, उसे मार डाला, शताब्दियों तक भारत के अछूतों की दयनीय दशा का जो समय रहा है, उसे उनके लिए अंधकार का युग कह सकते हैं। ब्रितानवी शासन के दौरान अछूतों का पश्चिमी शिक्षा और साक्षरता से गहरा रिश्ता कायम हुआ, जिसने उनके भीतर विद्रोह की भावना को सुलगाया। जिसके चलते हम बीसवीं शताब्दी की शुरूआत में अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ  दलितों के खड़े होने के सबूत पा सकते है’।

डॉ. आंबेडकर और कांशीराम की यह पीड़ा उनकी कोई निजी पीड़ा नहीं है। यह एक बहुसंख्यक आबादी की नर्क में जीने और मरने की पीड़ा है, जिसके खिलाफ वे जीवनपर्यंत लड़ते रहे। उनके लडऩे के मायने संभव है हम जैसे सभ्रांतजनों को कभी रास न आए, उनकी पीड़ा और संघर्ष से यह भी संभव है कि हम नाभिनालबध्द रूप से जुडऩे में कभी समर्थ न हो पाएं अगर दुर्भाग्य से ऐसा होता है तो हम अपने समय में होने वाने अन्याय का कभी प्रतिकार करने का साहस भी नहीं जुटा पाएंगे। तब हम बहुत दूर तक दलितों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के साथ निर्भयतापूर्वक खड़े हो पाने की हिम्मत भी न जुटा पायें।

गौरतलब है कि बद्री नारायण की यह किताब 'कांशीराम बहुजनों के नायक’ हमें एक बार फिर से जाति व्यवस्था के बारे में सोचने के लिए विवश करती है। बद्री नारायण ने इस किताब की भूमिका में लिखा है कि 'मुख्य चुनौती अपने विषय से एक आलोचनात्मक दूरी बनाने, अपने पाठकों तक पहुंचने की निर्णायक परीक्षा में सफल होने की थी’।

जाहिर है इन दोनों चुनौतियों में बद्री नारायण अपनी इस किताब में खरे उतरे है।

 

 

बद्रीनारायण आठवें दशक में अग्रिम पंक्ति के कवि थे। फिर उनकी दिशा दलित विमर्श की तरफ मुड़ी और उन्होंने इस प्रसंग में बड़ा मूल्यवान काम किया है। उनका एक नया कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य है। रमेश अनुपम छत्तीसगढ़ से आने वाले तेजस्वी रचनाकार है। पहल में पहले भी छपे है।

सम्पर्क : मो. 9425202505

 

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