अभाव, अंधेरा और अंधविश्वासों का जंगल

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी अभाव, अंधेरा और अंधविश्वासों का जंगल
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





राजा जंगल और काला चांद- तरुण भटनागर

 

तरुण भटनागर

 

'विशु की मां को उस औरत की नग्नता पर आपत्ति थी। उसके खुले वक्ष उसे खराब लगते ।’

'शशांक ने कई बार समझाया। समझाया कि इस गांव में शायद ही कोई इस बात पर ध्यान दे कि औरत ने सिर्फ कमर भर पर कपड़ा बांध रखा है बाकी नहीं। जंगल की औरतों का तो पहरावा ही यही है। शायद ही कोई इस बात पर गौर करे कि उसने ऊपर कुछ भी नहीं पहन रखा। पर विशु की मां ने उनकी बात नहीं मानी।’

'जहां भाषा खत्म होती है, वहां से जो जगह शुरू होती है, उसे बस्तर के जंगल कहते हैं।’

जंगल में पहला सरकारी आदमी विभास गया। 'जंगल के आदमी और औरत ने पहली बार किसी बाहरी आदमी को देखा था। विभास ने पैंट-शर्ट पहर रखी थी और पैरों में गम बूट थे। पैंट-शर्ट पहरे विभास को अचानक देखकर उन दोनों को लगा कि कहीं कोई खतरा है। पता नहीं किस दुनिया का यह शख्स है। दिखता तो उनके जैसा ही है पर कितना अलग!’ 

'बुजुर्ग की मानें तो इंसान के साढ़े चार लाख साल के इतिहास में यह पहली चोरी थी। जंगल के पिछले साढ़े चार लाख साल में घटा पहला वाकया। ऐसी चोरी पहली बार देखी कि चोर बोरा ले जाये और सीमेंट छोड़ जाये। ... उस रात चोरी के बाद मंधा और सोमारू जंगल जा रहे थे। मंधा ने सोमारू को बताया कि वे जो छोड़ आये हैं उसे सीमेंट कहते हैं। दोनों एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराये। सोमारू ने सिर्फ इतना ही कहा कि कितनी तो फालतू चीज है सीमेंट। बाहर की दुनिया के लोग जाने क्या-क्या फालतू बटोरकर रखते हैं।’

'बस्तर का राजा जंगल के सबसे बड़े देव का, सबसे बड़े भगवान का सबसे बड़ा पुजारी था। सबसे बड़ा पुरोहित। इस तरह वह सारे जंगल के मांझियों का मुखिया भी था। वह जंगल का सबसे बड़ा तांत्रिक था। ऐसे सभी लोग जो झाडऩे-फूंकने का काम करते थे, वह उन सबका सरदार था। वह इतना बलशाली और सबल तांत्रिक था कि वो सारी कायनात को बदल सकता था। उसे वे जादू आते थे जो जंगल के किसी बड़े से बड़े गुनिया या टोन्हा करने वाले को भी न आते थे। जंगल के लोग मानते थे कि राजा के चाहने पर ही बारिश होती है। यह माना जाता था कि राजा अपनी दैवीय शक्तियों का प्रयोग कर अकाल का खात्मा कर सकता है। वह मंत्र फूंककर अकाल का नाश कर सकता है।’

पूरे उपन्यास में एक ओर जंगल और उसका सघन अंधेरा है, तो दूसरी ओर अंधेरे में पनपने वाले अंधविश्वासों का घटाटोप है। भारत की आजादी के लगभग 6 माह के अंदर बस्तर रियासत भारत संघ में शामिल हो गई थी लेकिन उसका शामिल होना अन्य रियासतों की तरह नहीं था। भावनगर, गुजरात के राजा ने स्वाधीनता मिलते ही महात्मा गांधी को लिखित में अपना राजपाट सोंप दिया था, उदयपुर के महाराणा ने भी तुरंत यह कहते हुये कि 'हमारी नियति हमारे पूर्वज तय कर गये थे’ भारत संघ में विलय की घोषणा कर दी थी। हैदराबाद, जूनागढ़ और जोधपुर के निजाम, नवाब और महाराजा ने भारत संघ में मिलने में देरी की तो उसका परिणाम सबके सामने है। जो राजा समझदार थे, जो जनता और समय की नब्ज को पहचान रहे थे, वे तुरंत भारत संघ में शामिल हो गये। बस्तर के राजा की मानसिकता सबसे भिन्न प्रकार की थी। हालांकि निजाम हैदराबाद ने भी उन्हें भारत संघ में शामिल होने से मना किया था, पर राजा की मानसिकता को देखते हुये निजाम का कहा जाना कोई अर्थ नहीं रखता। एक तो बस्तर के राजा की उम्र आजादी के समय कुल 18 वर्ष की थी, उनका जन्म जून, 1929 में हुआ था, 6 वर्ष की उम्र में उनका राजतिलक हुआ और 18 वर्ष की उम्र में वे पूर्णरूपेण राजा घोषित किये गये। उम्र और अनुभवों की कमी के कारण वे तुरंत और प्रभावशाली निर्णय लेने में हमेशा कमजोर साबित हुये। दूसरा कारण तरुण भटनागर ने स्पष्ट किया है 'मुख्यमंत्री के सामने टेबल पर सन् 1936 का एक कागज था। यह किसी मनोचिकित्सक का पर्चा था । इस पर्चे में लिखा था कि अगर राजकुमार की अनावश्यक किस्म की परेशानियों और दीवानगी का इलाज न किया गया तो वह पागल हो सकता है।’ इसका प्रमाण देते हुये उन्होंने लिखा 'राजा को कभी-कभी बिलकुल बेलगाम हो जाने का मन करता था। कभी उसका जी करता कि वह, वह सब बकता रहे जिसे दुनिया अनाप-शनाप कहती है। कभी बेवजह गुस्सा होने का मन करता। एक बजबजाता-सा गुस्सा उस पर तारी होना चाहता और वह चाहता कि वह ऐसा हो जाने दे। कभी उसकी हंसी महल में गूंजती। वह बच्चों की तरह हंसता। मासूम खिलखिलाहट के साथ। हर कोई सकते में आ जाता। कभी वह बेवजह रोता। अपने शयनकक्ष में फूट-फूटकर। कभी वह तंत्र साधना में रत हो जाता। कई-कई दिनों तक वह तंत्र साधना करता।’ एक तीसरा और महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि बस्तर की जनता उसे अपने राजा से ज्यादा अपना प्रधान पुरोहित मानती थी, ईश्वर का अवतार मानती थी और विश्वास करती थी कि बस्तर में जो भी घट रहा है या घटेगा वह राजा की इच्छा से ही घट रहा है या घटेगा, उनकी इच्छा के बगैर न पानी बरस सकता है और न अकाल पड़ सकता है। भोली और अपढ़ जनता के इस विश्वास ने कभी यह मानने ही नहीं दिया कि वह अब राजा नहीं रह गया है। बल्कि उसके मन में यह विश्वास समय के साथ दृढ़ होता गया कि भारत की स्वाधीनता के बावजूद बस्तर का राजा वही है। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि अपनी मृत्यु यानी 25 मार्च, 1966 तक वह समय के घात-प्रतिघातों को सहते हुये बस्तर का राजा बना रहा। आजाद भारत के लगभग 20 वर्षों तक कोई आदमी सरकार को नाकचने चवबाकर राजा बने रहने का भ्रम पाले रहे, यह और किस देश में संभव हो सकता था, कहना मुश्किल है।

1990 के आसपास मैं बस्तर गया था। कुछ दिन कांकेर रहा और बाद में कुछ दिन जगदलपुर। तब तक कांकेर जिला नहीं बना था। तब बस्तर के इतिहासकार लाला जगदलपुरी जीवित थे, उनसे उनके घर पर लंबी और आत्मीय भेंट हुई थी। तब उन्होंने बस्तर के इतिहास के अंतर्गत इस घटना का जिक्र किया था और यह भी बताया था कि जिस रात राजा की हत्या की गई थी उस पूरी रात जगदलपुर के राजमहल से आदिवासियों के तीर चलने की आवाज आती थी तो दूसरी ओर से पुलिस की गोलियां चलने की तीखी आवाज। जगदलपुर के पान वाले और चाय वालों से जब बात हुई तो उन्होंने कहा लाखों आदिवासी उस रोज पुलिस ने मारकर इंद्रावती नदी में बहा दिये थे। उस दिन पूरा जंगल राजा के समर्थन में मरने-मारने को राजमहल और उसके आसपास जुटा हुआ था। यदि देश में लोकतंत्र था और बस्तर रियासत भारत संघ का हिस्सा होकर मध्य प्रांत का एक जिला था तो इस प्रकार निरीह आदिवासियों पर गोलियां चलाकर सामूहिक हत्या करने की जरूरत क्या थी? बस्तर के पिछड़ेपन और जनसंचार माध्यमों की कमी के कारण आम आदिवासी को लोकतंात्रिक सरकार और राजा के झगड़े के बारे में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं थी। आदिवासी तो अपने राजा को बचाने आये थे जिसे वे ईश्वर का अवतार मानते थे और मानते थे कि भारत के आजाद होने से बस्तर और उसके राजा पर कोई असर नहीं पड़ा जबकि इससे पहले लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत लोकसभा और विधानसभा के चुनाव हो चुके थे, राजा की शक्ति भी उन चुनावों में स्पष्ट हो चुकी थी। 1957 के विधानसभा चुनावों में राजा समर्थित विधायक भारी संख्या में जीतकर आये थे तथा 1962 के चुनावों में तो कांकेर और बीजापुर को छोड़कर बस्तर की शेष सभी सीटों पर राजा का कब्जा ही हो गया था। राजा जितना भावुक और तुनकमिजाज था, उतना ही शातिर भी था। राजा की मानसिक स्थिति को देखकर जून, 1953 में उनकी संपत्ति 'कोर्ट आफ वॉर्डर्स’ के अंतर्गत सरकार ने जब्त कर ली तथा 1957 के बाद  आदिवासियों की जमीन और जंगल पर कब्जा करने के लिये सरकार ने कानून बनाया तो राजा ने न केवल विरोध किया अपितु विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा भी दे दिया। राजनेता बने राजा को यह मालूम था कि आदिवासियों के परंपरागत कानून को तोड़कर नये कानून के तहत उनकी संपत्ति पर कब्जा किया जायेगा इसलिये उसने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि ऐसी विधानसभा में बैठना उसके लिये संभव नहीं होगा, जो विधानसभा उसके बस्तर और उसके आदिवासियों की संपत्तियों पर कब्जा करने और जंगल को निर्मम तरीके से काटने का कानून बनाती हो। राजा के इस निर्णय का बस्तर की भोली जनता पर अचूक असर हुआ और जनता के मन में यह विश्वास और पक्का होकर बैठ गया कि उसके राजा के रहते बस्तर और उसकी धरोहर को उनसे कोई छीन नहीं सकता।

तरुण भटनागर के उपन्यास 'राजा जंगल और काला चांद’ को पढ़ते हुये पहली बार तो मैं उस जंगल में खोता चला गया, जिस जंगल के बारे में उन्होंने लिखा है 'जंगल उस औरत का जंगल था, जिसे ब्लाउज पहरने में शर्म आती थी, जिसने किताब के गुलाबी रंग पर थूक से सनी उंगलियां फिराई थीं, जिसने रेडियो को अपनी छाती से लगा लिया था’, जिस जंगल में रह रहे विशु ने बिजली का लट्टू नहीं देखा, जिस जंगल में एक बस आती थी जो कम सवारी मिलने के कारण अब बंद हो गई है, जिस जंगल के लोगों को सीमेंट जैसी चीज व्यर्थ की वस्तु लगती हो, जिस जंगल के लोग कागज के नोटों से अधिक सिक्कों को प्यार करते हों, उस जंगल के बियावान अंधेरे में कौन नहीं खो जायेगा? यह जंगल दूर रहकर आकर्षक लगता है पर पास बुलाकर अपने एकांत सन्नाटे से बेचैन भी करता है। सघन पेड़ों की ऐसी छांव में जहां धूप भी आने से डरती है, वहां कोई भी समझदार आदमी बेचैन हुये बिना कैसे रह सकता है? उस जंगल के अंधेरे में मुझे वह औरत बार-बार दिखाई देती है, जिसका उल्लेख तरुण भटनागर करते हैं। वह औरत सामान्य आदिवासी औरतों की तरह है पर उसकी उपस्थिति पूरे उपन्यास में सामान्य नहीं है। क्या वजह है कि एक ऐसी औरत जो न जंगल के बाहर की भाषा से परिचित है और न उनके दैनंदिन जीवन से पर वह उस भाषा के निहितार्थ को भी समझती है और उनके दैनंदिन जीवन को समझने की कोशिश भी करती है, उसमें एक जिज्ञासा भाव है, शायद इसलिये वह अपनी सहज सामान्य उपस्थिति से चकित भी करती है। उस औरत को जंगल से डर नहीं लगता। वह औरत जंगल के अंधेरे से भी नहीं डरती जबकि विशु की मां जंगल से भी डरती है और अंधेरे से भी। विशु की मां जंगल में बाहर से आई औरत है जबकि वह औरत जंगल की ही रहने वाली है। संभव है जंगल के बाहर की होने के कारण 'विशु की मां जंगल से डरती थी। वह विशु के पिता से ज्यादा जंगल से डरती थी। उसे लगता कि शायद वह ही नहीं बल्कि दुनिया की हर औरत जंगल से डरती है। जंगल में अंधेरा है। जंगल मेंं खामोशी है। जंगल में इतनी वीरानियां हैं कि अगर कोई औरत को आश्वस्त भी करे तो वह उसकी बात पर यकीन न करे। बस इसी वजह से एक दिन उसने औरत को ढिबरी दे दी थी। विशु की मां को यकीन था कि जंगल के गहन अंधेरों में यह ढिबरी उस औरत का डर कुछ कम कर देगी। विशु की मां को जंगल के अंधेरे और जंगल की औरत के रिश्तों का पता न था। उन्हें ख्याल न था कि जहां से जंगल शुरू होते हैं, वहां से चीजें ठीक वैसी चीजें नहीं रह जातीं है जो जंगल की उस सीमा से पहले थीं। जो अंधेरा कस्बों और गांवों में औरत को डराता है, वही अंधेरा जंगल में जब जंगल का अंधेरा हो जाता है तो वह औरत को नहीं डराता। जंगल की सीमा के भीतर पहुंचकर अंधेरे की फितरत बदल जाती है।’ यह लंबा उद्धरण विशु की मां के डर को प्रगट करने के साथ जंगल की औरतों के निडर होने की पुष्टि भी करता है। अंधेरे का डर आयातित है, एक बुजुर्ग का उद्धरण देकर तरुण इस बात की पुष्टि करते हैं कि वह बुजुर्ग जंगल में ढिबरियां बढऩे से दुखी और क्रोधित था। अंधेरा किसी को अच्छा नहीं लगता और न कोई समाज अंधेरे में लंबे समय तक रहने की कामना ही करता है, उसकी इच्छा होती है कि उसके आसपास भी उजाला हो, वह भी दुनिया के दूसरे लोगों की तरह रोशनी में रहें और अपना काम करें।

 तरुण भटनागर ने इसी प्रसंग में एक घटना का जिक्र किया है, घटना छोटी है पर बाहरी उजाले की वास्तविकता को बयान करती है। वह औरत जिसे विशु की मां ने अंधेरे और डर से मुक्ति पाने के लिये ढिबरी दी थी, उस औरत के लिये वह ढिबरी पाप का कारण बनी। कहना न होगा कि तरुण भटनागर पाप पुण्य पर उपन्यास नहीं लिख रहे थे पर यह बताना उन्हें जरूरी लगा कि बाहरी दुनिया का पाप और जंगल की दुनिया के पाप में अंतर है। वह औरत ढिबरी जलाने के लिये मिट्टी का तेल लेने के लिये दुकान पर गई। दुकानदार बाहर का आदमी था, इसलिये उसने 'औरत को देखकर उंगलियों से एक अश्लील इशारा किया। औरत उसकी उंगलियों से बनी गोल आकृति को देखती रही। वह इस इशारे को बूझ नहीं  पाई। यह जंगल का इशारा नहीं था। उन मायनों के लिये जंगल को इशारों की दरकार कभी नहीं रही। औरत देर तक उंगलियों के उस संकेत को देखती रही।’ कहना न होगा कि यह संकेत अश्लील किस्म का था और औरत को हमबिस्तर होने का संकेत कर रहा था। वे दोनों हमबिस्तर हुये भी पर यह घटना मध्यवर्गीय लंपटपने को दिखाने के लिये नहीं लिखी गई बल्कि इसके निहितार्थ जंगल और उसकी औरत के लिये बहुत गहरे हैं। उस घटना के बाद से 'जंगल की औरत डर गई थी । उसने बाहर की दुनिया मेंं, बाहर की दुनिया का पाप किया था। वह उससे बच जाना चाहती थी। पर कैसे-उसे पता न था। फिर वह कभी घासलेट की दुकान नहीं गई। जंगल के बाहर की दुनिया की घासलेट की दुकान का एक बेहद ईमानदार ग्राहक खत्म हो गया। जंगल के अंधेरे की चुनौती के लिये एक ढिबरी फिर कभी नहीं जली। गांव का बुजुर्ग खुश था। ढिबरी औरत के घर के कच्चे फर्श पर डुलती रही। उसका घासलेट जमीन में बिखर-बिखर गया। जंगल की मिट्टी में सारा घासलेट सूखकर खत्म हो गया। औरत एक दिन बड़ी नदी गई। जंगल की बड़ी नदी। उसने वह ढिबरी नदी में फेंक दी।’ यह घटना उजाले और निडरता की आशा में जीती हुई उस औरत की घटना है जो विशु की मां के कहे के अनुसार अंधेरे और उसके डर को दूर करना चाहती थी, वह जंगल की औरत थी जो अपने बुजुर्ग और जंगल की मान्यताओं का प्रतिकार करने जा रही थी पर उसके इस संकल्प की भ्रूण हत्या हुई जो पाठक को डराती है। यदि यह घटना न होती तो ढिबरी के प्रति उसका विश्वास और दृढ़ होता, वह अपने आसपास के लोगों को समझाती कि ढिबरी का मतलब क्या है? अब उसके पास कहने को कुछ नहीं है, वह स्तब्ध है । इसलिये 'उसे विशु की मां याद आई। जंगल के बाहर की दुनिया की एक मां। जब विशु की मां ने उसे ढिबरी सौंपी थी तब उसका हाथ उसकी हथेलियों में था। दोनों हथेलियों के बीच ढिबरी थी। विशु की मां कह रही थी-अंधेरा औरत का सबसे बड़ा दुश्मन है, तुम इसे जलाना सीख लो। जंगल की औरत उसकी बात को समझ न पाई थी। दोनों के बीच भाषा की सीमा थी, शब्दों और अर्थों की अंसभावना, दोनेां की जबानों के बीच न जाने कितनी पुरानी अभेद्य खाई थी कि पता ही नहीं चलता था। उसने विशु की मां की आंखों में उस भाषा को पढऩे की कोशिश की थी। अब वह कुछ-कुछ जान रही थी कि क्यों उजालों की दुनिया वाली एक मां उसे अंधेरों से बचाना चाहती थी।’ मेरा विश्वास है कि यदि घासलेट बेचने वाला आदमी बाहर की दुनिया का आदमी नहीं होता तो शायद इस प्रकार की घटना भी घटित नहीं होती। बस्तर के आदिवासी समाज में यौन शुचिता जैसा कोई पवित्रता बोध नहीं है फिर भी घटना के मूल में ढिबरी को अनवरत जलाने के लिये घासलेट का प्रसंग है इसलिये यह घटना जंगल और उस औरत के लिये महत्वपूर्ण है कि उसके बाद न फिर कभी ढिबरी जली और न वह औरत घासलेट की दुकान पर गई।

उपन्यास और उसकी घटनाओं के विस्तार को देखते हुये पात्रों की संख्या कम हैं, स्त्री पात्र तो और भी कम हैं। केवल जंगल है और जंगल की वे भयावह स्थितियां हैं, जो हर पृष्ठ पर बिखरी हुई हैं। कहना न होगा कि उपन्यास की शुरूआत तो बस्तर रियासत के जन्म से होती है लेकिन उपन्यास के केंद्र में बस्तर का राजा प्रवीर भंजदेव और उनका समय ही है। आरंभिक पृष्ठों में तरुण भटनागर बस्तर में आये पहले राजा काकातीय वंश के अन्नामदेव का वर्णन करते हैं और तब के दंडकारण्य का भी लेकिन वह केवल पाठकों को विश्वास दिलाने भर के लिये है कि बस्तर का राज परिवार बहुत पुराना है और उस समय का है जब बस्तर के जंगलों में कोई आना भी नहीं चाहता था। तब केवल अयोध्या से निर्वासित राम और लक्ष्मण दंडकारण्य में आये थे, जिसके प्रमाण तुलसीदास ने अपनी रामचरित मानस में दिये हैं। महत्वपूर्ण इतिहास नहीं है बल्कि महत्वपूर्ण दंडकारण्य से बस्तर के रूप में परिवर्तित 20वीं सदी का आदिवासी समाज है, जो उसी बियावान में भटक रहा है, जिसके चारों ओर अंधेरा है, अभाव और विचारों का अंधेरा, जहां न रोशनी है और न आवश्यक चीजें हीं । इसलिये उन्होंने अपनी जरूरतों को कम कर लिया है। जरूरी चीजों की उपलब्धि हो और कोई अपने हिसाब से अपनी जरूरतों को कम कर ले जैसे महात्मा गांधी ने किया था, यह उदात्तता है पर जरूरी चीजें हों ही न तब उस समाज की निरीहता को देखकर खुद को शर्म आती है। जंगल के इन अभावों का चित्रण तरुण कई पात्रों के माध्यम से कराते हैं। उपन्यास में बहुत छोटा बच्चा है विशु, विशु पढ़ता है और उसके पिता शशांक अध्यापक हैं । विशु अपने स्कूल की किताबों में जिन फलों के नाम पढ़ता है, वे फल बस्तर में होते ही नहीं है, उसे आश्चर्य होता है। 'जंगल में वे फल थे जो दुनिया में कहीं नहीं थे । वे सेब और अंगूर के अनजान पराये फल थे, जो सिर्फ और सिर्फ विशु की पहली कक्षा की हिंदी की किताब में थे। वे फल जो कहीं न दीखते थे। जो किताबों के अलावा कहीं और न थे। कुछ यूं कि यह बात गप्प लगती थी कि सेब और अंगूरों जैसे भी कोई फल होते हैं। उसके साथी भी शक करते थे कि भला ऐसे भी फल होते हैं-अं से अंगूर और स से सेब ।’ प्रश्न उचित है पर उत्तर डराता है। डर इसलिये लगता है कि यह 14वीं सदी का बस्तर नहीं है बल्कि 20वीं सदी का बस्तर है लेकिन जी आदिम युग में रहा है। विशु की किताबों में जलते हुये लट्टुओं की जानकारी दी गई है, विशु की उत्सुकता बढ़ती है, वह अपने पिता से कहता है और पिता समझाते हुये कहते हैं 'कभी हम बड़े शहर चलेंगे। सुबह वाली बस अगले दिन देर सबेरे वहां पहुंच ही जाती है। वहां विशु को बिजली के लट्टु दिखायेंगे। विशु ने अब तक बिजली के लट्टू नहीं देखे । लाइट नहीं देखी। वह कितना खुश होगा न जलते हुये बिजली के लट्टुओं को दखकर!’ विशु और उसके अभावों का यह वह समय है जब देश आजाद हो गया है और बिजली गांवों में पहुंच रही है। शहर और कस्बों में तो थी ही। पर आदिवासी समाज इन सब सामान्य सुविधाओं से वंचित था और उनका राजा अपनी तरह से अपनी हारी हुई लड़ाई लड़ रहा था, उसका दुर्भाग्य यह था कि वह ऐसे समय में राजा बना जब पूरे देश में राजशाही को समाप्त कर लोकशाही की स्थापना हो चुकी थी।

बस्तर में सबसे पहला बाहरी आदमी विभास गया था रेडियो लेकर। लौटते समय वह रेडियो वहीं छोड़ आया था। जंगल का आदमी और जंगल की औरत रेडियो सुनते पर रेडियो की भाषा उनकी समझ में नहीं आती थी। वे लोग 'रेडियो के सामने थोड़ा दूर एक टीले पर बैठे रहे। उन दोनों को न तो ठंड लगती थी, न ही गर्मी और न ही बरसात में भीगते उन्हें कोई कोफ्त होती थी। वे पूरी रात, पूरा दिन जाग सकते थे। वे पूरी रात, पूरा दिन सो सकते थे। वे पूरी रात, पूरा दिन जंगल नदी, पहाड़ भटक सकते थे। वे कई-कई रातों और कई-कई दिनों तक यह सब कर सकते थे। उन्हें जंगल से, पहाड़ों से, नदियों से और आकाश से कोई शिकायत नहीं थी।’ ऐसे लोगों के सामने रेडियो का लगातार बोलना आश्चर्यजनक है, आश्चर्य इसलिये भी कि कई दिन बाद जब रेडियो ने बोलना बंद कर दिया तो आदमी और औरत ने गहरा गड्ढा खोदकर उसे दफना दिया। रेडियो के दफनाने के बाद 'औरत सुबक रही थी। दोनों हाथों से गड्ढे को भर रही थी। गड्ढा पूरा भर जाने के बाद आदमी ने उस पर मिट्टी डाली और उसे पैरों से दबाने लगा। औरत जंगल से सफेद और गेरू रंग का चूरा बटोर लाई। आदमी जंगल से एक मोटी लकड़ी ले आया। वह पूरी रात उस लकड़ी को घिस-घिसकर चिकना करता रहा। अगली सुबह उसने वह चिकनी गोल लकड़की उस जगह गाड़ दी जहां रेडियो दफन था। औरत ने गेरू और सफेद चूरे में पानी मिलाकर रंग बनाया और उस चिकनी लकड़ी पर जीव-जंतुओं की आकृतियां बनाने लगी।’ कहना न होगा कि रेडियो को दफनाने की यह प्रक्रिया ऐसी ही है जैसी आदमी और औरत को दफनाने की होती है। आदमी और औरत यह मानते थे कि जो बोलता है, वह मनुष्य ही होता है चाहे वह किसी भी भाषा में बोले। और चुप होने का मतलब मृत्यु है इसलिये उसे मनुष्य की तरह ही दफनाया जाना चाहिये। यह घटना केवल विवरण भर नहीं है बल्कि आदिवासी समाज की संवेदनशीलता को समझने के लिये एक प्रमाण की तरह है।

आजादी से पहले जंगल बाहरी दुनिया से कटा हुआ था। आजादी के बाद लोग नमक और मिट्टी का तेल लेने के लिये बाहर निकलते थे । बस्तर के जंगल में खरीद फरोख्त नहीं चलती थी यह नमक और तेल के लिये शुरू हुई। सारी चीजें जंगल में थी 'महुआ, ताड़ी, मांस, फल, मछली, लकड़ी ... सब बेपनाह था और जंगल के आदमी को इसे पाने के लिये कोई दाम नहीं देना पड़ता था।’ तरुण भटनागर ने एक और महत्वपूर्ण जानकारी दी है कि बस्तर में जब खरीद फरोख्त शुरू हुई तो रुपये पैसे भी पहुंचे लेकिन लोगों ने नोटो की जगह सिक्कों को चुना। इसका दिलचस्प उदाहरण देते हुये वे लिखते हैं 'जंगल में सबसे पहले सिक्के आये। सिक्के इसलिये क्योंकि ये लुभावने होते थे। जंगल तक तक पैसों के लुभावपनेपन भर को जान पाया था। वह उसके असली और प्रचलित महत्व यानी वह रुपया पैसा कितना है, क्या है, उसका मूल्य क्या है-नहीं समझ पाया था। सिक्के इसलिये आ पाये क्योंकि वे खूबसूरत दीखते थे। वे नोटों की तरह बेजान न थे। वे नोट की तरह नाजुक और कटने-फटने वाले नहीं थे। वे चमकते थे। वे खनकते थे और सबसे बड़ी बात कि उन्हें संभालकर रखने का मन होता था, जबकि नोट सूखे पत्तों की तरह थे, बेजार और बेजान। सिक्के टिकाऊ थे। वे मोहक थे, बेशक! जंगल का आदमी सिक्के चाहता था, नोट नहीं। एक वजह यह भी थी कि नोट को संभालकर रखना कठिन था। नोट भीग सकते थे। जल सकते थे। उन्हें दीमक खा सकती थी।’ जंगल के लोगों का सिक्कों के प्रति इतना आकर्षण था कि जंगल की पहली प्रामाणिक लूट में भी आदिवासियों ने रुपये नहीं सिक्के लूटे और सिक्के भी केवल चार अठन्नियां जबकि अध्यापक के पास सवा दो सौ रुपये के नोट भी थे लेकिन नोटों के प्रति लुटेरों का कोई आकर्षण नहीं था। सिक्कों के प्रति आकर्षण इतना था कि बाद में जब जगदलपुर में सुनार की दुकान खुली तो औरतें सिक्कों की माला गले मेंं पहनने के लिये खरीदकर लाती थी, उसे सौंदर्य और प्रतिष्ठा का प्रतिमान माना जाता था । ये उदाहरण जंगल की गरीबी तथा दुनिया के विकसित होने की जानकारी के अभाव के नायाब प्रमाण हैं । जंगल में कपड़े भी आजादी के बाद पहली बार सरकार ने बांटे इससे पहले न कपड़े थे और न उनकी आवश्यकता ही महसूस होती थी। तरुण ने इसके बारे में लिखा कि 'बुजुर्ग के अनुसार इंसान के साढ़े चार लाख साल के इतिहास के वे पहले लोग थे, जिन्होंने सही-सलामत कपड़े पहरे। कपड़े आ गये तो ठंड भी आ गई। बस्तर के जंगल के आदमी को अब ठंड लगने लगी थी। जैसे-जैसे कपड़े आते गये, उसको लगने वाली ठंड बढ़ती गई। जंगल का आदमी अब कपड़े बिछाता, कपड़े ओढ़ता, कपड़े पहरता, तब जाकर ठंड खत्म होती।’ जंगल के बारे में यह चौंकाने वाली जानकारी है, जिसे उन्होंने बहुत सहज और सजग होकर दिया है। गर्मी, ठंडी और अन्य प्राकृतिक बदलावों का प्रभाव आदमी पर पड़ता ही है लेकिन अभाव उसे इस बात का अहसास नहीं होने देते। बस्तर के लोगों के पास कपड़े जैसी न कोई चीज थी और न उसके विकल्प, इसलिये वे भर ठंडी में कमर भर पर कपड़ा बांधकर नंगे-उघाड़े घूमते रहते थे। अंडमान निकोबार की आदिम जाति जारवा आज भी इसी प्रकार रहती है। उन्हें देखकर हमारी ललचायी दृष्टि उनके अधनंगे होने पर शरमाती नहीं है बल्कि प्रफुल्लित होती है। मध्यवर्गीय अघाये लोगों का लालच सबसे पहले उनकी संवेदनशीलता को मारता है। जब समाज से संवेदनशीलता ही गायब हो जायेगी तब आदमी और जानवर का फर्क भी मिट जायेगा। तरुण भटनागर बस्तर की गरीबी बताते हुये उसमें रस नहीं लेते बल्कि उनके दुखों का ब्योरा दुखी मन से बताते हैं। यह उपन्यास उन लोगों का है, जिन्हें बस्तर के अलावा हर आदमी बाहर का दिखाई देता है, इस उपन्यास का समाज अशिक्षित है इसलिये टोने-टोटकों में ही अपनी मुक्ति देखता है, जहां नाममात्र के स्कूल हैं पर चिकित्सा की सुविधाएं लगभग हैं ही नहीं, इस समाज के पास बाहर के समाज को जानने का कोई साधन नहीं है-न समाचार पत्र और आवागमन। ऐसे बंधे हुये समाज के लोग अपनी ही दुनिया में रहना चाहते हैं, बाहर जाने या बाहर की दुनिया से संबंध रखने में उन्हें खतरे दिखाई देते हैं। खतरे इसलिये दिखाई देते हैं कि उन्हें ऐसा समझाया गया है और समझाया इसलिये गया है कि उनका राजा या बड़ा पुरोहित इससे सुरक्षित रहता है। अपनी सुरक्षा के लिये अपनी ही प्रजा को इस प्रकार के अंधेरे में रखने वाले राजाओं की कड़ी में है राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव।

प्रवीरचंद्र भंजदेव ने यह खुद मान लिया था कि 'उसकी स्थिति दूसरे राजाओं से भिन्न थी। वह देवता तुल्य था। उसके इशारे पर कायनात चलती थी। सारे ब्रह्मांड पर उसकी हुकूमत थी। उसे अपनी शक्ति पर पूरा इख्तियार था। वह गुरूर मेें था। बस्तर में राजा के सिक्के चलते थे। उसका हुक्म जंगल के लिये सबसे बड़ा हुक्म था। जंगल उसकी हुकूमत के सामने नतमस्तक था।’ तरुण भटनागर का मानना है कि वह दूसरे राजाओं से भिन्न और देवतातुल्य था। देवतातुल्य तो सभी राजा माने जाते थे क्योंकि उनके पंडित और पुरोहित गरीब और भोली जनता के मन में यह विश्वास भर देते थे कि राजा ईश्वर का अवतार है इसलिये उस पर सामान्य समाज के नियम लागू नहीं होते। पर बस्तर के राजा की स्थिति की भिन्नता का कारण यह भी है कि पूरे हिंदुस्तान की प्रजा बस्तर जैसी नहीं थी। उत्तर भारत में तो 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया और जिन राजाओं ने अंग्रेजों का साथ दिया वहां की जनता अपने ही राजा के विरोध में थी। उसे आजादी का मतलब मालूम था और उसे यह भी पता था कि अंग्रेजों के साथ मिलकर उसके राजा उन्हें किस निर्मम तरीके से चूस रहे हैं। पर बस्तर की जनता आजादी जैसे किसी भी शब्द से अपरिचित थी इसलिये आजादी के 6 महीने बाद जब बस कंडक्टर ने देश की आजादी के बारे में बताया तो लोग अविश्वास में हंस रहे थे । जनता की इसी जड़ता का लाभ राजा उठा रहा था। उसे यह विश्वास था कि बस्तर की जनता उसके साथ है फिर सरकार क्या होती है? इसीलिये उसने 'सरकार और कलेक्टर को लिखा कि वह नहीं जानता कि वे कौन लोग हैं? उसे नहीं पता कि कलेक्टर क्या होता है? सरकार को इस तरह से उसे लिखने का कोई हक नहीं और दोनों यह जान लें कि आइंदा ऐसा कुछ भी उसे न लिखें। उसने कुछ राजाज्ञाएं तैयार करवाईं। अगले दिन वे राजाज्ञाएं दरबार में पढ़कर सुनाईं गईं। उसका एक सिपहसालार लोगों के सामने उन्हें पढ़कर सुना रहा था। राजा अपने आसन पर बैठा था। हर चीज से बेखबर और खुद में मगन। लोग राजाज्ञाएं सुन रहे थे। कुछ पत्रकार भी आये थे। राजदरबार में वे एक कोने में बैठे थे।’ यह एक चित्र है, स्वाधीन भारत में राजदरबार का यानी समानांतर व्यवस्था का। यह सही है कि किसी भी राजा के लिये राजपाट जाना सामान्य घटना नहीं थी पर जो समझदार थे उन्होंने इस नयी व्यवस्था को स्वीकार कर लिया। बस्तर के राजा की दुविधा यह थी कि वह दोनों स्थितियों में सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा था। 'राजा सोच रहा था कि ठीक है वह आज से राजा न रहेगा, पर उस राजा का क्या होगा, जो सबसे बड़ा देवता है, सबसे बड़ा पुजारी है। वह राजा जो कायनात को चलाता है। वह जिस पर यकीन है पूरे जंगल को। वह जो खत्म नहीं हो सकता। जो सबसे बड़ा तांत्रिक है, सबसे बड़ा पुरोहित। वह राजा। लोगों को भी यह कहां पता था कि बस्तर का राजा उस तरह से राजा नहीं है जिस तरह से दूसरे होते हैं।’ यह राजा का सोच है, उस राजा का जिसने अपनी जनता को तमाम तरह के अंधेरों में बंद कर रखा है, उनकी सोचने की ताकत को कभी पनपने नहीं दिया, वह राजा न प्रजातंत्र के बारे में कोई जानकारी रखता है और न प्रजातंत्र की अनिवार्यता को समझ रहा है। ऐसे राजाओं की विडंबना यह है कि उनके आसपास सिर्फ वे लोग होते हैं, जो उन्हें ईश्वर और सर्वशक्तिमान मानकर स्तुतिगान करते रहते हैं, वास्तविकता बताने वालों के लिये राजदरबार में कोई जगह नहीं होती, ऐसे राजा एक प्रकार के तानाशाह होते हैं और तानाशाही कहीं भी हो लंबे समय तक नहीं चल सकती।

राजा पढ़ा-लिखा था इसलिये उसे यह तो मालूम था कि फ्रांस, रूस या चीन में राजाओं की क्या दुर्गति हुई है पर वह यह मानकर चल रहा था कि उन सब राजाओं से अलग प्रकार का है। उसकी इस सोच को अंग्रेजों ने और अधिक बढ़ावा दिया 'अंग्रेज जानता था कि राजा को सिर्फ और सिर्फ अपनी ठसक और अपना गुरूर सबसे प्यारा है । उसे न तो अपनी अवाम से मतलब है और न अपने मुल्क यानी बस्तर से।’ इसलिये उन्होंने उसे समझा दिया था कि 'वे ऐसा कानून बना दे रहे हैं, जिससे यह बात कि उसका राज्य हिंदोस्तान में शामिल हो या नहीं हो-यह उसी को यानी राजा को ही तय करना होगा। वह चाहे तो हिंदोस्तान में शामिल होने से इंकार करके अपने राज्य का राजा बना रहे। जिस तरह दुनिया के तमाम मुल्क हैं, वैसे ही बस्तर भी एक मुल्क होगा और बस्तर का राजा, बस्तर का राजा बना रहेगा।’ अपनी ही दुनिया में खोये हुये लोग सर्वथा अकेले हो जाते हैं, वे केवल वही सुनना चाहते हैं जो वे सोचते हैं, चालाक लोग ऐसे लोगों का लाभ उठाते हैं, अंग्रेजों ने भी बस्तर को लूटने में राजा की इस सोच का खूब लाभ उठाया। यह एक प्रकार की बीमारी है, लाइलाज बीमारी, जिसका इलाज कठिन है पर असंभव नहीं। पर दिक्कत यह है कि जो राजा स्वयं को दैवीय गुणों से युक्त मानता हो, उसका इलाज कौन करे? यह एक प्रकार से अवसाद की स्थिति भी है जिसमें कभी व्यक्ति स्वयं को सर्वशक्तिशाली मान लेता है और कभी अकेले में बैठकर तरह-तरह की क्रिया-प्रतिक्रिया करता रहता है। तरुण ने उपन्यास में कई स्थलों पर राजा की इस मानसिकता के बारे में विस्तार से लिखा है, जो एक मनोवैज्ञानिक सच है। ऐसे लोग सामान्य जीवन जी नहीं सकते, यह एक प्रकार से राजा का दुखद पक्ष है। दुखद पक्ष इसलिये कि वह अकेला है, उसे कोई समझाने वाला नहीं है। राजा के पक्ष में बस्तर के आदिवासी समाज में कई दंतकथाएं प्रचलित हैं, जिनका लाभ समय-समय पर पाखंडियों ने उठाया भी। इन दंतकथाओं में राजा जीवित है और वह आज भी रात के सन्नाटे में घूमते हुये मिल सकता है पर वास्तविकता यह है कि राजा कुल सैंतीस साल जिया उन सैतीस सालों में 18-19 वर्ष आजाद भारत के थे पर न वह सरकार की ताकत को जान सका और न सरकार ने उसे प्यार से समझाने की कोशिश की। उसकी गिरफ्तारी, उसकी संपत्तियों को छीना जाना, जंगल के परंपरागत कानूनों को बदलने की आड़ में जंगल की खुली लूट, सरकारी कर्मचारियों की तानाशाही तथा लगातार उपेक्षा ने उसके मन-मस्तिष्क को शून्य कर दिया था, जिसकी परिणति उसकी निर्मम हत्या के रूप में हुई। राजा के तमाम किस्से उपन्यास की धरोहर हैं, तरुण भटनागर के सामने उन सब पर लिखना चुनौतीभरा काम था। कई बार हम जिसे अधिक जानते हैं उस पर लिखना सबसे कठिन होता है। उनका आरंभिक जीवन बस्तर में ही बीता है इसलिये उन्होंने दंतकथाओं के साथ बस्तर के इतिहास को भी खूब पढ़ा और समझा है, जिसके प्रमाण उपन्यास में भरपूर मात्रा में मिलते है। इसका एक उदाहरण देना चाहता हूं जो उन्होंने राजा की भयावह मानसिकता के बारे में लिखा है 'उसकी संपत्ति पर पड़े ताले और बंद प्रिवीपर्स का सोच-सोचकर वह कुंठित होता। उसकी बीमारी उसके दिमाग और जिस्म पर हमला करती। वह बिस्तर पर लेटे-लेटे मुट्ठियां भींचता, गालियां देता, सामान फेंकता, शीशे की चीजों को फर्श से टकराकर चूर-चूर करता, कमरे के पर्दों को खींचकर फेंक देता, अपने जिस्म को नोचता और फिर सुबक-सुबक कर रोता। किसी को पता न था कि उसकी बीमारी बढ़ रही थी, लगातार। बेतहाशा खर्च और पैसों को लुटाने के कारण खजाना खाली हो रहा था। जब-जब उसका खजांची उसे खाली होते खजाने के बारे में बताता, तब-तब वह और ज्यादा पैसे लोगों पर लुटाता। आमदनी के स्त्रोत भी कम हो रहे थे। आजादी के बाद कई बरस बीतने को आये। पढ़े-लिखे लोगों ने लगान देना बंद कर दिया था। हर जगह सरकार का बोलबाला था।’

बस्तर मेंं आज जिस तरह नक्सलवादी आंदोलन फल-फूल रहा है उसके सूत्र भी उपन्यास में मिलते हैं। पर उपन्यास राजा की मृत्यु या हत्या के साथ खत्म हो जाता है इसलिये उसका विस्तार यहां नहीं मिलता। 70 के आसपास उस तरह से बस्तर में नक्सलवाद आया भी नहीं था इसलिये अपने समय का स्वर्णपदक प्राप्त डॉक्टर लोगों को उनके शोषण के बारे में समझाता है पर लोग मानने को तैयार नहीं हैं। लोग तो यह भी नहीं मानते कि बस्तर का राजा मर चुका है और अब लोकतांत्रिक सरकार बस्तर में काम कर और करवा रही है। सदियों की मानसिकता जंगल पर हावी है, उससे निकलने में समय लगना स्वाभाविक प्रक्रिया है। लंबे समय की गुलामी का आभास बहुत दिनों तक बना रहता है, उससे मुक्त होकर सीधा तनकर खड़े होने में समय लगता ही है। डॉक्टर की पीड़ा यह है कि वह उनके सुख-दुख में उनके साथ खड़ा है पर उसके साथ अकेले शशांक हैं। उपन्यास में तरुण भटनागर ने बहुत सूक्ष्म तरीके से नक्सलियों के काम करने के गोपनीय ढंग और उनकी विचारधारा को रूपायित किया है, जिससे एक तस्वीर बनती है, जिसे बाद के बस्तर में स्पष्ट देखा जा सकता है।

'राजा, जंगल और काला चांद’ उपन्यास जंगल की मानसिक बनावट और उसकी विडंबना को गहरे अर्थों में स्पष्ट करता है। जंगल में शिक्षा नहीं थी, जंगल में सूचनाएं नहीं थीं, जंगल का संबंध बाहरी दुनिया से नहीं था, जंगल केवल जंगल तक सीमित था इसलिये जड़  समाज की तरह उसमें विकृतियां पैदा हो गई थीं, जिन्हें धरोहर के नाम पर सुरक्षित रखा जा रहा था। राजा जानता था कि बस्तर को शेष दुनिया से अलग-थलग करके रखने में ही उसकी भलाई है इसलिये वह नहीं चाहता था कि बस्तर के लोगों का संबंध दुनिया के लोगों से जुड़े। बस्तर जैसे बीहड़ जंगल का राजा कितना धार्मिक, कितना तांत्रिक और कितना बली था, इसे समझने की न राजा को जरूरत थी और न समझाने की। राजा ने कुछ विश्वास गढ़ लिये थे, जिन्हें वह धीरे-धीरे सच मानने लगा था, जब उनकी अविश्वसनीयता उजागर हुई तो राजा अकेला पड़ गया। अकेले होते राजा की मानसिक अवस्था के साथ जंगल के बियावान अंधेरों की परत दर परत उघाड़ता यह उपन्यास बस्तर की ऐसी गाथा है, जिसे तरुण भटनागर ने बड़ी तैयारी के साथ लिखा है।

 

कहानीकार उपन्यास लेखक तरुण भटनागर की चालीस से अधिक कहानियां प्रकाशित है। पहला कहानी संग्रह 'गुलमोहर की झाडिय़ां’ 2008 में आया। उसके बाद दो कहानी संग्रह और। 'लौटती नहीं जो हंसी’ के बाद यह उनका दूसरा उपन्यास है। इसे उन्होंने किस्सा कहा है। यह बाजार के जीवन पर है।

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