चर्चा-वालियाँ

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी चर्चा-वालियाँ
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम शेखर मल्लिक





कहानी

 

 

इस समय दरवाजे पर दस्तक हुई तो मिसराइन ने समझ लिया कि जैतु आ गया है। एकदम पक्का है। बोलकर गया था, गाँव जा रहे हैं, घर में एक गो जन मर गया है। दूर का ही कहिये। लेकिन गोतिया में घट जाता है तो.. दस पन्द्रह दिन में आ जायेंगे। आज पन्द्रवें दिन हाजिर हो गया है! हरदम पगलाया रहता है, दीदी अगला कहाँ है? कहाँ चलना है? मंदिर वाला अच्छा हुआ था। सच बात है कि उसके बिना मिसराइन का काम चलेगा भी नहीं। उसकी अनुपस्थिति में कितने आर्डर स्थगित रहे हैं।

महिला मंडली में बनी शिव चर्चा मंडली कस्बे में खासी लोकप्रिय हो गयी है और ट्रेंडिंग कर रही है! मिसराइन गजब की व्यस्त हैं और उनसे 'तारीखें’ हासिल करना उपलब्धि के सामान मानी जा सकती हैं। कस्बे में और आसपास के इलाकों में भक्ति की लहर उठाने में मिसराइन और उनके समूह का जोरदार ऐतिहासिक अवदान घोषित होना चाहिए...

जैतु ही था। कंधे पर लटका ढोलक और हाथ में झोला, ''आज ही सूबे (सुबह) पहुंचे हैं दीदी!’’ उसके अंदर आते हुए कहा और कंधे - हाथ का वज़न दीवार के सहारे रख दिया। ''पानी पिलाईये न दीदी,’’ उसने मिसराइन से आग्रह किया, ''बड़ी धूप है महराज! हे भोले बाबा...’’

मिसराइन अन्दर की तरफ मुड़ी, ''तुम्हारे पास छाता - उता नहीं है?’’ बगल में रसोई वाले कमरे में घुसी और फ्रिज़ खोलकर पानी का बोतल निकाल लिया।

''अरे लेट हो जायेगा सोचकर छतरिया के चक्कर में नहीं पड़े। एक है तो वह भी ई ले गयी है।’’ जैतु पानी पीकर कंधे के गमछे से मुंह माथा पोंछते हुए दीवार के पास बैठ गया, ''टेसन से सीधे डेरा और सामान फेंककर सीधे निकल आये... आपको कह दिया है कि आ जायेंगे तो महराज, छटपटी लगी रहती है।’’

पंखा चल रहा था मगर जून की जाती हुई गर्मी उमस के मारे परेशान किये हुए थी। पानी पीने के बाद भी जैतु अपने चेहरे और गर्दन से पसीना पोंछता रहा।

''आज ही तुमको लेकर सब बात कर रही थीं। समझा न... कल पूर्णिमा पड़ रहा है। पाल कालोनी के बदरी भैया के यहां कल रखाया है। आज नहीं पहुंचते तो तुमको फोन करने ही जा रहे थे।’’

''बद्री जी कौन? इसी बार न उनके यहाँ हुआ था?’’ जैतु पूछ रहा था।

''कब हुआ था! तुमको तो कुछ याद रहता नहीं है। बदरी भैया वही हैं, जो पीछे माह मंदिर में लंगर खिलाये थे। उनकी छोटकी पतोहू के लड़का हुआ है। बदरी भैया कितने बार बोले हैं कि लक्ष्मी अपनी मण्डली लेकर आओ। घर में बहुत दिन से इच्छा है। लेकिन, हम ही लोग इतना बीजी रहते रहे कि... सब भोले बाबा की इच्छा है... आदमी का क्या मर्जी?’’ मिसराइन ने सोफे पर बैठे बैठ आँख मूंदकर हाथ जोड़ा। जैतु ने भी अनुसरण किया।

ढोलक पर थाप दे देकर जैतु उसको परख रहा था। माइक वाले ने छत पर चढ़ कर लाउडस्पीकर बाँध दिया था। मिसराइन ने माइक हाथ में ले रखा था। शिव-चर्चा मण्डली की सरदारिन है वह। उसके हाथ में ही दल की बागडोर है और उसे वह खूब काबू में रखती थी। दोपहर की धूप में गली सुनसान पड़ी थी। कोने वाले पीपल पर कोयल की कूक थी जो, थोड़ी देर में दब जाने वाली थी। घूँघट काढ़े, बिना काढ़े दस-बीसी औरतें रंगबिरंगी साडि़य़ों में गोला बनाये बैठ चुकीं थीं। एक तरफ आराध्य देवता की फोटो पर अर्चना की सामग्रियाँ, फूल, नैवेद्य आदि सजे पड़े थे। उसी तरफ घर की मालकिन सुरजा देवी अपनी पतोहूओं को अलग बगल लिए बैठी थी। नयकी बहू, जो अब पर्याप्त नई नहीं रह गयी थी, की गोद में नर्म कपड़े में लिपटे शिशु को उसकी सास बराबर ध्यान में रखे हुए थी।

मिसराइन ने सब ओर की सेटिंग से तसल्ली करते हुए माइक को मुंह के पास ले जाकर जोर से जयकारा लगाया, ''बोल सच्चे दरबार की!’’

मण्डली ने प्रतिध्वनित किया, ''जय!’’

''भोले भंडारी, बाबा विश्वनाथ की जय!’’

''जय...!!!’’

दोपहर का सन्नाटा सन्नाटा नहीं रहा। माइक पर रंदे के नाद जैसे स्वर मोहल्ले को पार कर दिग-दिगंत फैलने लगे। कस्बे को एतराज नहीं था कि इस प्रकार भीषण रूप से शांति भंग हो... बल्कि भक्ति की शांति में तिरते सरल मनुष्य को 'गूंगे के गुड़’ समान आनंद की प्राप्ति हो रही थी। वैसे भी, इस दबंगी भक्ति की रस धारा के विपरीत जाने का साहस ही किसी में नहीं था। एकाध लोग असहज महसूसते भी थे तो वे नक्कारखाने में तूती की तरह बजने से खुद को बरजे हुए थे।

हाथ जोड़े झूम रही औरतों के दल में मिसराइन सप्तम स्वर में फ़िल्मी गीतों की धुन पर अपने रचे मौलिक भजनों को गाने लगी। ढोलक और खंजड़ी की संगत में मिसराइन की भक्ति धारा आलवार संत गायिका आंडाल को टक्कर देने की स्थिति में जैसे प्राय: पहुँच ही जाती थी... बल्कि वैसा प्रभाव पुन: स्थापित होने के कगार पर था! बीच में जयकार, हूंकार और 'कथा’ बांचने की शैली के द्वारा कार्यक्रम आगे बढ़ता जा रहा था। बदरी भैया का परिवार प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस आयोजन के जरिये श्रद्धा और भक्ति के सागर में गोता लगा रहा था और देर सबेर अपने हितों और कल्याण के मोती पा जाने पर मुतमईन था।

मिसराइन ने गाना बंद करके कहना शुरु किया, ''एक बार एक गरीब आदमी जंगल में जा रहा था... उसकी गाय... पार्वती माता बोली, प्रभु...’’

* * *

तो बोलो शिभ शंभू की...

जय...!!!’

 

एक छोटी लड़की के साथ बड़ी बहू शर्बत लाकर सबको बांटने लगी। दल की औरतें तन्मयता से झूम झूम कर गा रही थीं। मिसराइन के स्वर बदलते ही... दो औरतें ढोलक की थाप और खंजड़ी की घुँघरू की झनक पर बेसुध नाचने लगीं। घेरे के बीच तालियाँ पीट पीट नाचने का दौर चलने लगा। कमरे में कोई मर्द नहीं था। केवल स्त्रियाँ ही थीं। यह मिसराइन का जो 'फेनामिना’ था, वह 'फेमिनिया’ था...! वह 'महिलाओं द्वारा, महिलाओं का और महिलाओं के वास्ते’ किस्म का था...! यों भी धर्म प्रदत्त कार्यभार - भक्ति, आराधना, सेवा, समर्पण, बलिदान आदि - औरतों को ही पट्टे पर दे दिया गया है, सो...

और जैतु जो मर्द था तो सही, मगर जब से उसने सौ रुपल्ली के लिए इस सत्संगीनियों के लिए ढोलक की साथ संगत स्वीकार की थी, इस समूह में लैंगिक रूप से 'न्यूट्रल’ हो गया था। उसके चरित्र और ईमान की मिसाल वर्तमान में किसी को भी दी जा सकती थी और बाद में पछताना पड़ेगा जैसे ख़तरे से सुरक्षा की शत प्रतिशत गारंटी भी! बिहार के उसी गाँव में जहाँ मिसराइन का ननिहाल था, में एक बीबी, एक बेटी वाला जैतु लोगों के बाल, दाढ़ी-मूंछ बनाया करता था और होली, फगुआ में मार ढोलक पीटता था। कुछेक साल पहले अपने साले के बुलाने पर वह इस कस्बे में आ गया था और कपड़े इस्त्री करने लगा। मिसराइन से परिचय के बाद वह उनके दल में इकलौता बजैया बन गया था। और फिर 'लागी ऐसी लगन’ वाली तर्ज़ पर दल के कारोबार में अभिन्न हो गया था। अल्प-विराम के तौर पर पुड़ी-सब्जी का प्रसाद आ गया। पूडिय़ों पर एक लड्डू रखकर बड़ी बहू वितरित करने लगी। सामान्यत: बादाम और मिस्त्री के कतरे हुए दाने मुख्य प्रसाद के रूप में दिए जाते थे, मगर जो सम्पन्न और सामथ्र्यवान जजमान आयोजक होता, वह नाश्ते का भी इंतजाम करता। विद्युत विभाग से नौकरी पूरी कर हाल में ही सेवानिवृत हुए बद्रीप्रसाद सिंह के कौन कमी थी। दोनों बेटे सरकारी नौकरी पर। घर के पिछाड़े उन्नत नस्ल की चार चितकबरी गायें पूँछ डोलाती नांद में मुँह दिए खड़ी थीं। घर के सामने अहाते में एजबेस्ट्स की छाया में कार को ड्राइवर पोंछ रहा था। कस्बे के शिव मंदिर में जीवन भर संध्या को तुलसीदास कृत मानस लयबद्ध कंठ से गाते रहे। भगवान से डरने वाले बाल बच्चेदार गृहस्थ बने रहे और माना कि जो फला ईश्वर की कृपा से फला! फ़िलहाल उनको लगता है कि जिंदगी के बचे दिन भजन-भाजन-भोजन में निकाल दें। पत्नी ने आग्रह किया कि छुटकी के पहलौटी का भी! इस बात से एकाएक एक अंदरूनी फक्र का बद्री भैया को एहसास हुआ और मिसराइन मय दलबल आज दोपहरी से संध्या उनके घर में गुंजायमान थीं!

बड़ी बहू जो हिंदी में एम ए करते ही बहू बन गयी थी, ने दल की उम्रदार वासवी आंटी की हथेली पर पूड़ी सब्जी का दोना रखते हुए उनके पाँव छुए। हिंदी साहित्य में 'बड़े घर की बहू’ का आदर्श उसे अच्छा लगा था और 'सुन्नर पांडे की पतोहू’ जैसा घातक आदर्श उनके सामने कोई दूरस्थ की भी संभावना नहीं थी। वह 'पढि़ए गीता, बनिए सीता...’ के यथार्थ को भूल गयी थी। लेकिन इसमें उसका नहीं... उसकी कक्षा के शिक्षकों का दोष रहा क्योंकि वे उसे ठीक से 'यथार्थवाद’ समझाने में विफल रहे थे!

''जीती रहो! भोले बाबा की कृपा है!’’ वासवी आंटी ने सर पर हाथ रखा।

बहू ने मुंह उठाया, चेहरे पर गिर गया घुंघट सरकाकर बोली, ''आंटी, और चाहिए तो बोलिएगा।’’

पूड़ के कौर को लड्डू के साथ स्वाद लेकर खाते-खाते फुले मुंह से कहा, ''अरे नहीं बहू! और काहे लेंगे... बहुत है। प्रसाद है!’’

 

मुकुला ने आँख दबा कर माया से पूछा, ''सुधा को एइसा नहीं करना चाहिए था। और उसका आदमी तो डेढ़ सयाना निकला, नहीं...’’ बगल में बैठी दमयन्ती दोने की आखिरी पूड़ी निगल कर और चाहने के लिए थोड़ी दूर बढ़ गई बड़ी बहू की तरफ देखने लगी जो शायद उसकी ओर नहीं आने वाली थी। थोड़ी को$फ्त के साथ उसने जवाब दिया, ''मरे वह! जैसा करेगी, वैसा भरेगी! अपना मर्द रहते... छि...’’ मुकुला उसका मुंह देखती रही। अपने टाइम पर बुढिय़ा के गुल कहाँ कहाँ खिले थे!

मिसराइन घर की मालकिन के इशारे पर उसकी तरफ जाकर बैठ भोग खाने लगी थी। बद्री प्रसाद सिंह की पत्नी ने बुजर्गियत से कहा, ''आप लोग बहुत अच्छा कर रहे हैं! हमारे टाइम पर ऐसा मौका कहाँ था? आपका ग्रुप में जितनी औरतें हैं, सब कम से कम घर से बाहर तो निकलती हैं... घर-गिरस्थी के बाद दुनिया जहान से मिलती जुलती हैं। अरे भगवान के नाम पर ही सही... ऐसा भला आड़ लेकर नाच गा रही हैं...’’ वे हंसी, ''भगवान का नाम तो लेना चाहिए। फिर सुध रखने से कैसे चलेगा!’’

कस्बे में एक डेढ़ साल में ही मिसराइन का दल सर्वाधिक मांग वाला हो गया था। यूँ भी माह के दूसरे चौथे सोमवार ''शिव-चर्चा’’ मण्डली की दुपहरियां तय रहती थीं। दल के बारे में सोचते हुए मिसराइन को हमेशा लगता रहा है कि दूसरा जीवन मिला है... पहला जीवन थोड़ा टेढ़ा था। वाचाल तो वह पहले से ही थी! स्कूल की सहेलियों में, पड़ोस के हमउम्रों में, सबसे बतकुचनी... मिसराइन अपने चार बहनों में पहले नम्बर पर थी और सारी बहनें फितरतन खूब बातूनी थीं। शादी के बाद भी मिसराइन ने बोलना नहीं छोड़ा। वह बोलती थी, जब मिश्रा जी बोतल पर बोतल पीकर ड्यूटी न जाकर महीनों घर में पड़े रहते थे और साल के पांच छ: महीने ऐसे ही नौकरी अब गयी तब गयी के आसन्न खतरे को महसूसते हुए बीतते थे। वह बोलती थी, जब साल के बाकी दिनों में जब वे ड्यूटी से लौट कर आधी रात तक मिसराइन की लानत मलामत करते थे और अश्रवणीय गालियाँ देते थे। अंतत: मिसराइन की बोलती बंद हो जाती थी और उनके क्वार्टर के आसपास से गुजरने वाले हरेक आदमी को को$फ्त होने लगती थी। कई बार दोपहरी में ही विस्फोट हो जाता... किन्तु मिसराइन धैर्य की नायाब मिसाल बनकर उभरी और मिश्रा दम्पति के भी चार बच्चे हुए, दो बेटे, दो बेटियां... सभी बच्चों ने होश सम्भालते ही अपने घर की दैनिक परिघटनाओं का आंकलन किया और यथाशीग्र हरेक कलह से निस्पृह हो गये। माँ-बाप की लड़ाई के दौरान वे घर से जिस प्रकार गायब हो जाते, और रहते भी तो अलग कमरे में अपने आप में निश्चिन्त हुए पड़े रहते, उसी प्रकार जब वे मिसराइन के आध्यात्मिक समूह का गठन हुआ था, वे इससे वे निर्वैयक्तिक हुए रहते थे, माँ की व्यस्तता शायद उनके लिए भली चीज थी। दूसरी भली बात थी कि 'चर्चा’ का अमूमन एक साप्ताहिक आयोजन मिसराइन के घर में ही हुआ करता था... और इस तरह घर का वातावरण अधिक सामाजिक हुआ और परिणामस्वरप मिश्रा जी अब काफी हद तक सामान्य हो गये थे।

मिसराइन ने दल को हुड़का दिया, ''अरे बहनों, जल्दी करो... गप्प लौटती में मार लेना।’’

''दीदी, आप उठाईये न। हम तो पीछे से हैं...’’ कोमल ने अपनी नायिका को आश्वस्त करते हुए कहा।

''हे भोले बाबा!’’ मिसराइन ने माइक फिर उठाया, ''भोला... मेरा भोला... कैसा अवधूत कैसा अलबेला...’’

ढोलक पर जैतु माथा डोलाते हुए थाप देने लगा। तालियाँ देती हुई, कोरस गाती हुई पूरी मण्डली काम पर लग गयी... लाउडस्पीकर दोबारा कर्कश स्वर में शोरगुल करने लगा...

 

शाम ढल गयी थी। वातावरण में लू की धमक अभी भी बनी हुई थी। लगता था हवा नहीं भाप बह रही है। आज का बदरी भैया के यहाँ का खत्म हो या था। पास पड़ोस के बच्चे-बड़ों को बादाम-मिश्री का प्रसाद बांटा जा रहा था। बदरी भैया ने शीतल पेय का इंतजाम करवा दिया था, सो सब प्लास्टिक के गिलासों में घूंठ लिए जा रहे थे। ऑटो वाली शामा पहले से आकर खड़ी थी। इस शामा की भी एक कथा है... अजन्म इसी कस्बे की रही। और स्त्री के खाल में मर्द थी! दरअसल, उनके बाप ने बेटे की आरजू की थी। इकलौती जन्मी यही। तो बाप ने अपनी हसरत निकालने के लिए लड़की को ही लड़के की तरह पालना शुरू किया। लड़कों की तरह के कपड़े और छोटे बाल... लड़कों के खेल और लड़कों के साथ खेलकूद! शारीरिक चाहे जो, पर बढ़ती उम्र के साथ उसकी मानसिक बुनावट में स्त्रियता लेशमात्र भी न रही। माँ परेशान... इसके बाप को कौन समझाये कि मर्दाना लड़की के कभी ब्याह होगा भी कि नहीं... कैसी मति फिर गयी है! लड़की में लड़की के कोई लक्षण नहीं! और सचमुच उनकी शंका यथार्थ में परिणत हुई। शामा शादी के लिए तैयार न हो! दो तीन बार उसे देखने आये तो उसकी लड़काई हरकतों के मारे सर पर पैर रख कर भागे। लड़के वालों के सामने इश्तिहार के वास्ते, शादी के वास्ते औरत वाले कपड़े पहने ही ना। अब बाप भी तनाव में आने लगे कि लड़की का क्या होगा! ईंटमार पतंग की तरह डोलती लड़कामार लड़की को कौन बहू बनाये या यह भी बनना चाहे!

दोस्त यारों से यारबाशी में सिगरेट भी फूंकी, खैनी भी पीटी और बाइक चलाना भी सीख लिया। महिला मंडल ने किश्तों पर एक ऑटोरिक्शा लिया था, जिसके सामने वाले शीशे पर मंडल का नाम बड़े बड़े अक्षरों वाले स्टीकर पर अंकित था और पीछे उतने ही भारी अक्षरों में लिखा था, 'हाइपोथेटिकेटेड टू भारतीय ग्रामीण बैंक, कालापाथर शाखा।’ मिसराइन ने आपसी सहमति से शामा को उसका चालक नियुक्त किया। तब तक शामा शादी शुदा हो गयी थी। लेकिन, चूँकि शामा का जीवन और वैवाहिक जीवन सामान्य हो ही नहीं सकता था, सो आखिरकार माँ-बाप द्वारा बड़ी मुश्किल, मेहनत और धोखे से करा दी अपनी शादी को धता बताकर वह ससुराल से भाग आई थी और तदुपरांत यहाँ एक लड़की से ही उसे इश्क हुआ। जानने वालों के लिए इसमें भौहें उठाने की बात ही न थी कि उसे लड़की से ही इश्क होना था! उसने उसी के साथ रहना शुरू कर दिया था, बल्कि डंके की चोट पर उसे अपनी पत्नी कहती थी। दोनों दम्पत्ति की तरह साथ रह रहे थे। बाइक चलाने का हुनर काम आया और वह महिला मंडल का ऑटो चलाने के लिए सर्वोपयुक्त पाई गयी।

 

'शिव-चर्चा’ दल अपना सामान समेटकर ऑटो पर सवार होने को खड़ा था।

 

सिमरन कौर अपने दुपट्टे को समेटते हुए ऑटो में बैठ गयी। उनके चेहरे पर खूब मुस्कान रहती थी... इधर मण्डली में शामिल होने के बाद उन्होंने अपने उपर खासा ध्यान देना शुरु किया था और नतीज़न उसके लिबास में और चेहरे पर विशेषकर ओठों पर सुर्खी में बदलाव को आसानी से पकड़ा जा सकता था। 'शिव-चर्चा’ मण्डली से 'महिला मंडल’ का अविर्भाव पहले हुआ था। मिसराइन दोनों की जन्मदात्री हैं, यह सर्वविदित है, महिलाओं का गुट ही मंडल है, इस अवधारणा का विकास करते हुए मिसराइन ने महिलाओं को एकजुट किया। जन वितरण प्रणाली की दुकान का लाइसेंस मिलने के बाद कस्बे के एक पिछड़े हिस्से में जन वितरण प्रणाली के अंतर्गत केंद्र सह भंडार गृह स्थापित किया। मण्डली की किशुन बहू ने अपने बरामदे से लगा हुआ मकान का अगला हिस्सा जिसमें तीन कमरे थे, इस काम के लिए सौजन्यतावश सुपुर्द किया। सिमरन कौर सर्वसम्मती से वहां की प्रभारी बनीं। पिछले दो महीने से राशन की सप्लाई बंद थी। राशन कार्डधारी जनता बबाल मचा रही थी और रोज रोज औरतें आ आकर जी खोलकर बहस करतीं। गालियाँ बकतीं... समस्या हल होने की तारीख के बारे में पूछतीं। इस देश में राजकीय समस्याएं प्राय: हल किये जाने के लिए पैदा नहीं की जातीं, सो इस सवाल का जवाब कोई संतोष पैदा नहीं कर सकता था। ब्लॉक विकास पदाधिकारी की ओर से माननीय पंचायत समिति सदस्या मिसराइन जी को प्रखंड आपूर्ति पदाधिकारी के दफ्तर में कई बार मय दफ्तरी सलाह के प्रेषित किया गया था, मगर हालात जस के तस थे। सिमरन जी ने इसी बाबत अभी पूछना बेहतर समझा, क्योंकि कल सुबह किसुन बहू उसे मोबाइल कर बुला ही लेती, 'सिम्मी दी, आदमी लोग जमा हो गया है, आईये!’

''दीदी, सप्लाई का क्या कुछ मालूम हुआ?’’

''नहीं रे! भोले बाबा कृपा करें... वो साला बीडीओ भी भकुआ है, उससे कुछ लोग नहीं! ब्लॉक सप्लाई आफिसर के पास ठेल देता है। उधर गोदाम में माल भरा है, सड़ जाएगा। सप्लाई देने के टाइम बोलता है, ये नहीं है, वो नहीं है... देखो, लिखकर दिए हैं। क्या होता है... शिव शम्भू की दया से इन हरामियों को भी काम करने का मन होगा कि नहीं...’’ मिसराइन ने बोला था, उसका आशय उनसे सिमरन के पूछे प्रश्नों के पूर्व उत्तरों से भिन्न नहीं था। सो सिमरन मुंह बनाकर हंस दी।

भिखुआ की सास एक और बात कबसे कहना चाह रही थीं, ऑटो के चल पडऩे पर मुंह चलाते हुए उन्होंने कहा, ''सुधा कैसी औरत है जी? उसका आदमी तो जान ले ले तो कम। दूगो बच्चा है... हैं! बड़की लड़किया तो सभे समझती है। बोली है, माँ के मूंह पर थूक देगी! वह बाप के तरफ हो गयी है...’’

लता ने गर्दन मोड़कर पीछे की सीट वालियों से कहा, ''बहुत मारा है सुना। अरे फेसबुक से दोस्ती कर ली थी, इ क्या बात हुई कि फेसबुक में दोस्ती कर ली, न जान न पहचान... फिर एकाध बार घर भी आया होगा। तभी न शक हुआ उसके आदमी को। जासूसी कैमरा फिट कर रखा था! फंस गयी है बेचारी...’’ ऑटो कभी धीरे और कभी तेज, हिचकोले लेता आगे बढ़ रहा था। मण्डली की 'चर्चा’ भी वैसे ही चढ़ा-उतरा रही थी...

''क्या बेचारी? ज्यादा फुदफुदाने से यही होता है।’’ वासवी आंटी ने मुंह बनाकर कहा, ''उसको तो ये मोबाईल, फोबाइल चलाना भी नहीं आता था। सब वह भतार-छोड़ी रजनी का क्रिया करम है। पति का घर दुआर छोड़कर यहाँ पड़ी है। उसी के साथ ज्यादा दोस्ती है न। उसी ने ये फेसबु ठेसबु सिखाया... खुद जैसी है वैसा गुण सिखा दिया ई सुधा को।’’

''उसका आदमी जो विडियो बनाया है, उसमें सुधा ही है न?’’ सिमरन जी ने पूछा।

''हां भई! वही है। यहाँ वाले क्वार्टर से निकल जाने को बोला, उसका आदमी, फिर गाँव वाले मकान में दम भर पीटा है।’’ वासवी आंटी के पास खबर थी।

''मारे। मारेगा नहीं तो क्या फूल चढ़ाएगा!’’ दमयन्ती ने घिन से मुंह बिगाड़ लिया। ''एक खसम होने के बाद फिर ऐसा लक्षन... बाबा रे बाबा... एईसी औरत को लात मारकर निकाल देना चाहिए... देखो क्या करता है बेचारा आदमी।’’

ऑटो चलता हुआ गन्तव्य तक पहुँच गया, मिसराइन के घर के सामने, जो अड्डा था। सब उतर कर खड़े रहे। अभी बहुत कुछ जैसे बोला जाना बाकी था और किसी घर जान की हड़बड़ी नहीं महसूस हो रही थी।

''सुना है, सुधा ने मारपीट के पास पुलिस में शिकायत की है। बोली है कि हसबैंड क्वार्टर में घुसने नहीं दे रहा... मायका भेज दिया था कुछ बोलकर...’’ सिमरन जी ने बताया।

''हाँ। पुलिस गाड़ी में बैठकर कल शाम को आई थी न।’’ वासवी आंटी ने खुलासा किया, गो कि ये बात मोहल्ले में सब जानते थे।

''छि:, लाज न शरम... उसी दम उसका आदमी मारने मारने जैसा हो गया था, पुलिस देख के काबू रहा... उसके बाद मारने दौड़ा था, हाँ... उसकी लड़किया रोक न देती तो चौरास्ते पर ही...’’ उन्होंने आगे का अपने हाथ से बताया कि क्या हो सकता था।

मिसराइन ने जैतु को उसकी मेहनताने के सौ रुपए दिए। जैतु हंसते हुए बोला, ''दीदी, अब अगला थोड़ा दिन बाद होगा न?’’

''काहे?’’

''एक गो प्रोग्राम है।’’

''तुम्हारा और प्रोग्राम? कब?’’

''है एक... बताएँगे।’’ जैतु शर्मा कर हंसा।

''जाओ जाओ, बेटा, तुम्हारा भी पर निकल रहा न...’’ मिसराइन के हँसते ही जैतु और भी विश्वास के साथ हंस पड़ा।

''क्या बड़ी दीदी, आप ही बताईये... सुधा वाला केस। हमलोग तो एकदम बायकाट किये हुए हैं। आखिर उसका भी सुनना चाहिए। उसका आदमी भी कौन दूध का धुला हुआ है! एक संथाली औरत से फंसा हुआ था। अब बोलता है कि छोड़ दिया, पुरानी बात है। लेकिन शादी के बाद भी हमलोग नहीं देखे क्या गत थी और उसका आदमी उस कलटीया को सब ढाल रहा था! चलें उसके पास, आखिर वो आदमी है। एकदम अकेली पड़ गयी है... महिला मंडल के नाते हम क्या उसका पक्ष की बात भी न सुने?’’ दीपा बोली, अभी कॉलेज में पढ़ रही थी। कहाँ से यह सब जानती है? इसके घर में ये मुकुला ही ज्यादा घुसी रहती है... सबकी जड़ खोदने वाली औरत मुकुला है। मिसराइन की गाढ़ सहेली न होती तो इस मंडली में उसकी जगह पर संदेह है!

दमयन्ती तेज स्वर में दखल देती हुई बोली, ''क्या! उसके घर जाकर उसके साथ हाथ बांधें! क्या बोलती है ये लड़की! घर का मरद हमलोग को भी लात मारकर निकाल देगा, नहीं देगा? चोर का खबर लेने वाला भी चोर न हुआ? उस औरत ने जैसा किया, वैसा फल भगवान देगा। क्यों दिदिया?’’

''हे भोले शम्भू... हे कैलाशपति...।’’ मिसराइन ने हाथ जोड़े और आँखें बंद की, फिर खोलीं, ''क्या बोलें हम। बोलने जैसा बात है? महिला मंडल का सवाल नहीं है। सवाल मुद्दा का है। सब सीशा जैसा साफ़ है...’’

दीपा ने टोका, ''दोष किसका है? क्या हमलोग बिना जाने पूछे...’’

''दोष का फैसला करने वाला हमलोग कोई नहीं हैं। भगवान सब देखता है! महिला मंडल का काम कुलक्षनीया औरत का दोष-निर्दोष विचारना नहीं है। और वीडियो में जो सब लोग देखा है, उसके बाद क्या बोलना है? वह खुद मान रही है। माफ़ी मांग रही है। दोषी है तभी न... उसके पास जाके क्या पूछेगा लोग? उससे पूछने का क्या जरूरत है?’’ दमयन्ती की आवाज़ तेज हो गयी।

मुकुला ने फूंका, ''भगवान सबका देखता है... आपका भी देखा होगा!’’

बुढिय़ा अबकी गरम हो गयी, ''क्या मतलब है तेरा रे? हम क्या यही सब...’’

''हम क्या कहें, भगवान ने देखा होगा!’’ मुकुला फूंक मारती रही। वह ऐसी है... दीपा मुंह फेरकर मुस्कुराने लगी।

''तुमलोग बात को कहाँ से कहाँ घुमा देती हो। गलत है, तो गलत है... उसको इतनी खुजली चढ़ी थी तो भोगे... बाल बच्चा, घर गिरस्ती सब बर्बाद कर दिया।’’ बासवी आंटी मानों बर्दास्त नहीं कर सकती थी। उसकी बहू बेटी ने एइसा किया होता तो किरासन डालके आग लगा देती, सच...

''उसका आदमी तो भला है कि बेदखल नहीं कर रहा,’’ वासवी आंटी ने अपनी बात पूरी की। मन की बात मन में ही रहने दिया।

''आपके पति तो कितना सपोर्ट करते हैं... देखिये पंचायत वाला चुनाव आप लड़ी, जीती... शिव-चर्चा करती हैं... कितना नाम-धरम कमा रही हैं। पति का सपोर्ट नहीं होता तो होता ये सब? बम भोले और माँ पार्वती की जोड़ी हैं आपलोग।’’ सिमरन कौर ने मिसराइन को गर्व से देखा।

''खसम है तो सब है रे। इसका आदमी चाहे जितना मुंह का बुरा है, मन का भला है।’’ दमयंती ने पुष्टि की।

''अरे... ओ क्या बोलेगा?’’ मिसराइन ने खम ठोंकने के लहजे में कहा, ''उसका अब कुछ नहीं चलता। और उसके बोलने से चलेगा कौन। हमको कौन हाथ उठाएगा है हिम्मत? औरत लोग सब मिल जाय ना तो इतना शक्ति...’’ मिसराइन की बात मुकम्मल होने ही जा रही थी कि दरवाजे पर मिश्रा जी बनियान - लुंगी पहने अवतरित हुए, हाथ उठाके ठिठकी हुई जम्हाई ली और भारी आवाज़ में पुकारा, ''ऐ, सुमन की माँ!...’’

मिसराइन मुड़कर उसी निरन्तरता में बोली, ''जी आते हैं...!’’ और सधे क़दमों से घर के अंदर चली गयी।

 

 

संपर्क - मो. 9852715924

 

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