मिया कविता

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी मिया कविता
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम चंदन पांडे





पहल विशेष/दो

असम में एक नया कविता आंदोलन

 

 

 

 

अराजनीतिक होने के, राजनीतिक होने की तरह ही, नितांत अपने खतरे हैं और उन ख़ास खतरों को न उठाना राजनीतिक होना है इसलिए अगर अराजनीतिक दिखने के खतरे उठाते हुए कहा जाए तो भी मिया कविता एक आन्दोलन है। हकीकी 'फेनोमिना’। सोचना यह है कि इस पर बात शुरु की जाए तो किस सिरे से शुरु की जाए। भौगोलिक? भाषिक? मानवीय? राष्ट्रीय? अंतरराष्ट्रीय? हर शब्द यहाँ इस मिया कविता के सिलसिले में एक उलझा सिरा है। और यह भी कि इसे मिया कविता ही क्यों कहा गया है?

राष्ट्रीय सन्दर्भ से समझा जाए तो यह सन्दर्भ 'मिया कविता आन्दोलन’ की मियाद शायद न बता पाए, लेकिन यह जरुर बतायेगा कि यह कविता आन्दोलन, जो 2016 से शुरु हुआ और जिसके रेशे खबीर अहमद की 1985 की कविता 'सविनय निवेदन है कि’ में दिख जाते हैं, इन दिनों चर्चा में क्यों है। 31 जुलाई 2019 नजदीक से नजदीकतर आती चली जा रही है। यही वो दिन है जब कोई रजिस्टर यह तय करेगा कि किसका नाम बतौर नागरिक दर्ज है और किसका नहीं? इस पूरी प्रक्रिया ने लोगों के मन में यह डर भर दिया है कि जिनके भी पास 1971 के पहले की कोई सरकारी पहचान पत्र, सनद, जमीन के कागजात नहीं है उसकी नागरिकता पर संशय है। शायद ही यह कहने की जरुरत है कि वो लोग इससे प्रभावित होने वाले हैं जो पश्चिमी असम में है, जो ब्रह्मपुत्र का दियारा का क्षेत्र है।

मानवीय पहलू की माने तब शायद यह पहला कविता आन्दोलन है जो अपने जरिए अपनी भाषा को सामने लाता है जो अब तक राष्ट्रवाद के बहुरूपों में दबी थी। यह कविता आन्दोलन उन लोगों के अथाह दु:ख को सामने लाता है जिन पर करीब सौ वर्षों से दोयम दर्जे की पहचान थोप दी गई है। इस प्रक्रिया में शासकीय मशीनरी ने उनका ही साथ दिया जो सत्ताधारी थे शक्तिशाली थे, जिनने यह पैमाने गढ़े कि 1900 से 1910 के बीच यहाँ ब्रह्मपुत्र के दियारों, चरों और चापोरियों, नलबारी और ग्वाल्पुरा जिले में बसे लोग मनुष्य कम बंगाली मुसलमान अधिक हैं, मनुष्य कम परुआ मुसलमान अधिक हैं। और तो और, जो सहृदय थे उन्होंने भी इन्हें नव-असमिया का ही दर्जा दिया, बस नहीं दिया तो असमिया का दर्जा नहीं दिया। यह हाल तब है जब ब्रह्मपुत्र की चर-चापोरी आबादी क्षेत्र के अधिकतम, लगभग सभी, बाशिंदों ने, जिन्हें इरादतन और शरारतन मिया कहा गया, 1951 की जनगणना में अपनी भाषा के बतौर असमिया ही दर्ज किया था। यह राज्य और उसकी भाषा, उसकी संस्कृति के लिए अपनी एक निष्ठा थी।

सन 1900 से 1910 के बीच और उसके आगे भी पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से करीबन 15 लाख लोगों ने ब्रह्मपुत्र के इन चरों-चापोरियों को अपना ठीहा बनाया। कुछ तो इसलिए पलायन कर गए क्योंकि जमीदारों के जुल्म नाकाबिले-बर्दाश्त हो रहे थे, दूसरे ब्रह्मपुत्र के वो इलाके, जो इस समय एन.आर.सी. की महिमा से चर्चा में हैं, जो नेल्ली नरसंहार, जिसमें महज कुछ घंटों में दो-सवा दो हजार लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे, निर्जन वन-क्षेत्र थे, इन इलाकों में वो पन्द्रह लाख लोग $फैल गए। जंगलों को काटकर रहनवारी बनाई, खेत बनाए और बस गए। इनकी अपनी भाषा थी जो पूर्वी बंगाल ( अब बांग्लादेश ) के म्येमेसिंधिया क्षेत्र की भाषा थी यहाँ आकर बोली में तब्दील हो गई। बोली से भाषा बनने की आसान प्रक्रिया को राष्ट्र-राज्य की आधुनिक प्रक्रिया ने बेहद जटिल और सत्ताकामी बना दिया है। अगर कोई बोली, जो कि भाषा ही है - हर बोली भाषा है, राष्ट्रीय पैमानों पर भाषा का दर्जा पाती है तो उसके पीछे अनेक राजनीतिक, सामजिक और भौगोलिक स्थितियां होती हैं, जिन्हें रचा जाता है।

और हर जगह लोग ऐसे ही बसते हैं। कहीं से आते हैं और जहाँ आते हैं वहीं के हो कर रह जाते हैं। यह सामाजिक-भौगोलिक बदलाव हर इलाके में देखे जा सकते हैं। यह मान लेना कि असम में इस चर-चापोरी आबादी के अलावा जितनी भी आबादी है सब शाश्वत ही असम के हैं जरा ज्यादती होगी।

तब के पूर्वी बंगाल से आये लोगों को मिया का नाम दिया गया जो यों तो उत्तर भारत में पुकारे जाने वाला शब्द मियाँ से ही था लेकिन इन दोनों के मानी अलग अलग थे। उत्तर भारत में मियाँ जहाँ एक सम्मानसूचक शब्द है, जो अमूमन अपने से बड़ों के लिए कई मर्तबा संबोधन भी होता है। असम में यह मियाँ अपना चन्द्रबिंदु खोकर महज मिया हो जाता है लेकिन अनेक अनर्थ ओढ़ लेता है। इस शब्द में जो अर्थ भरे गए उनमें हर तरह का अपमान शामिल था, उनमें प्रवासी होना भी शामिल था, उनमें गरीब होना भी शामिल था और मुसलमान होना तो खैर शामिल ही था. आलम यह है कि जो दूसरे क्षेत्रों के मुसलमान हैं वो बात बेबात अपना नाता असम से जोडऩे से नहीं चूकते और चर-चापोरी के इन मुसलमानों को यह एहसास भी दिलाते रहते हैं कि ये लोग मिया है। आलम यह है कि जातिसूचक गालियों की तरह मिया भी उस इलाके में एक गाली की तरह प्रयोग होने लगा था। हिंसा सबसे पहले भाषा में होती है और यही वहाँ भी हुआ।

पीढिय़ों तक हुआ। बीस वर्षों की एक पीढी माने तो यह छठी पीढी होगी जिसे मिया शब्द बतौर अपमान सुनना पड़ता होगा, अगर सुनना पड़ता होगा।

इस तरह उनकी बोली का नाम मिया बोली पड़ा। जिसे साफ़ सुथरे दिखावे वाले हलके में चर-चापोरी बोली का नाम भी दिया गया। बहस इस पर भी है कि मिया बोली को बांग्ला से जोडऩा कितना उचित है। वह जितनी असमिया से जुडी है उतनी ही बांग्ला से। यह भी कि इन इलाकों के बच्चे, कई पीढिय़ों से, असमिया भाषा में शिक्षित दीक्षित हो रहे हैं, असमिया पर उनकी रवानगी है और मिया-बोली अपने इलाके तक ही सीमित हो कर रह गई है।

उस इलाके में बेइंतिहा गरीबी का आलम है. अच्छा भला पढता लिखता कोई युवक अगले ही दिन उन चौराहों पर खड़ा मिलता है जहाँ मजदूर जमा होते हैं, अमीर-उमरां या उनके नुमाईंदे जहाँ से मजदूर चुन कर ले जाते हैं। वहाँ से चलते ही इनका नाम धरा रह जाता है और ये महज मिया बन कर रह जाते हैं।

यह सोचते हुए और इसकी दरयाफ्त करते हुए कि इस कविता आन्दोलन को 'मिया कविता आन्दोलन’ का नाम क्यों दिया होगा, बार बार यह ख्याल आ रहा था कि ग़ालिब का वह मिसरा कहीं सच न साबित हो जाए: दर्द का हद से बढऩा है दवा हो जाना। लेकिन वही हुआ। वैसे शालिम एम हुसैन ने अपने एक सुचिंतित आलेख में बेहतरीन तर्क रखे हैं। उनका कहना है कि 'मिया-बोली’ बोली होने के नाते उन पाबंदियों से बची हुई है जो भाषाओं पर संस्थाएं और व्याकरण थोपते हैं। इस नाते वे मिया बोली में सटीक लिख पाते हैं। दूसरे, ऐसा मेरा मानना है कि, वो जो चर-चापोरी जनों के दु:ख हैं वो इस कदर 'यूनिक’ हैं कि उनकी ही बोली या भाषा में लिखे जा सकते हैं।

मिया कविता के सिरे वो 1939 में छपी एक कविता में तलाशते हैं। वह बन्दे अली की कविता है: एक चरुआ का प्रस्ताव। वह कविता हालांकि सहमेल की बात पर जोर देती है लेकिन जोर देने के अंदाज से जाहिर है कि कुछ है जो गड़बड़ है, जिसे कवि इशारों में बताना चाहता है। राष्ट्रवाद का डर और भाषावाद का डर कई बार लेखकों को अपना शिल्प, अपना 'अप्रोच’ बदलने पर मजबूर कर देता है, अगर वो लेखक विषय नहीं बदलना चाहता है तो, वरना तो भाषाई उन्माद कई बार विषय भी निर्धारित कर देता है। कविता का एक अंश देखें:

मेरे अब्बाजान मेरी आई और न जाने कितने बन्धु-भाई

अपना घर छोड़ चुके थे, बे-मुल्क हो चुके थे 

तब कितने लोग इस मुल्क से बावस्ता थे

जो पहने हुए हैं आज ताज और लगाए घूमते हैं नेताओं के से नकाब?

ये लोग लालच से घिरे हुए हैं, मैं जानता हूँ

लालच ने जो भाषा अख्तियार कर रखा है उसे मैं चुपचाप परख रहा हूँ।

लेकिन मैं उस थाली में छेद नहीं करूंगा जिसमें खाता हूँ

मेरा ईमान यह मुझे करने नहीं देगा।

मेरी यह सरजमीं जहाँ मेरा ठिकाना है

उसकी सलामती ही मेरा आनन्दोत्सव है

जिस जमीं से मेरी आई, अब्बाजान

जन्नत को कूच कर गए

वह जमीं मेरी अपनी है, आमार सोनार असम।

इस आबादी और इस बोली की कविता में दूसरा 'प्रस्थान’ 1985 में मिलता है, जब खबीर अहमद 'सविनय निवेदन है कि’ शीर्षक से कविता लिखते हैं। यह कविता बन्दे अली की कविता से कई मायनों में प्रस्थान दर्ज करती है। आवेदन पत्र के शिल्प में होते हुए भी यह कविता पर्याप्त सटायर से भरी है जो नागरिकों के नागरिक अधिकार कम होते जाने को दर्ज करती है। यह कविता असम आन्दोलन और असम अकोर्ड के पश्चात लिखी गई है।

सविनय निवेदन है कि

मैं बाशिंदा हूँ, एक मिया जिससे नफरत रखते हैं लोग

मुआमले कुछ भी हों, मेरे नाम यही होने हैं

इस्माईल शेख, रमजान अली या माजिद मिया

विषय: मैं हूँ असमिया इसी असम का

लेकिन मिया कविता आन्दोलन की शुरुआत वर्ष 2016 में हुई। वह भी फेसबुक पर लिखी गई एक कविता से हुई। खबीर अहमद के मित्र और शिक्षक डॉ. हफीज अहमद ने एक कविता पोस्ट की: 'लिखो कि’। हफीज की इस कविता में एन.आर.सी के बहाने बात थी। और पहली बार एक 'अशर्शन’ था कि 'लिखो कि मैं एक मिया हूँ’। लोग अवाक रह गये। जैसे आप अपने ऊपर फेंके गए पत्थर को उठाते हों, उसकी गर्द साफ करते हों, क्या पता धुलते भी हों और उसे अपना कर नई पहचान देते हों, कुछ कुछ उसी तरह, पूरी तरह नहीं, डॉ. हफीज ने मिया शब्द को एक नया ही रूप दे दिया। अपनी पहचान बना दी।

लिख लो,

मैं एक मिया हूँ,

लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, गणतंत्र का नागरिक

जिसके पास कोई अधिकार तक नहीं,

मेरी माँ को संदेहास्पद-मतदाता** का तमगा मिल गया है,

जबकि उसके माँ-बाप सम्मानित भारतीय हैं,

उस कविता के पोस्ट करने के बाद करीबन बारह लोगों ने, किसी चेन रिएक्शन की तरह हफ्ते भीतर ही, कमेन्ट में और कमेन्ट के कमेन्ट में कविता लिखी। वही बारह लोग इस मिया कविता आन्दोलन की नींव हैं, जड़ हैं. इन सभी ने मिया पहचान दर्ज की। इन सब की कविता 'मिया कविता’ कहलाई और और ये सभी 'मिया कवि’ कहलाए।   

इस प्रश्न पर, कि कहीं इसे असमिया से विद्रोह मान कर न देखा जाए, शलीम एम् हुसैन इसे सिरे से नकारते हुए लिखते हैं कि मामला ठीक इसके उलट है, मिया कविता असमिया पहचान को समृद्ध करेगी। वो ये भी बताते हैं कि 'प्रोजेक्ट इटामुगुर’ में दर्ज सभी मिया कवितायें मानक असमिया भाषा में हैं।

ये कवि अपने को 'चर-चापोरी’ कवि कहलाना भी नहीं चाहते। इनका सीधा सा तर्क है कि हम किसी भूगोल से बंध कर नए तरह की किसी साजिश या राजनीति का शिकार नहीं होना चाहते। हम 'मिया’ है. जो लोग दबी छुपी जबान में भी हमें मिया कहते हैं उनके सामने हमारी पहचान हैं, हमारे दु:ख है, हमारी कविता है। मिया पहचान को स्वीकारने से पाखण्ड ख़त्म होगा, पाखण्ड ख़त्म होगा तो संवाद शुरु होगा।

और संवाद अगर शुरु हो गया तब लोग, एक दूसरे को, स्वीकारेंगे।

 

(यहाँ प्रस्तुत बारह कविताओं के लिए यह अनुवादक, मिया कवि शालिम एम. हुसैन का ऋणी है. शालिम बेहद अच्छे कवि हैं और उनकी एक कविता 'नाना मैंने लिखा है’ मिया कविता नामक यहाँ संकलित भी है। दूसरे, शालिम द्वारा इन बारह कविताओं के मिया से अंगरेजी में अनुवाद करने कारण ही यह हिन्दी अनुवाद भी संभव हो सका है। लेकिन सबसे जरुरी बात यह कि शालिम ने मिया कविता के पक्ष में जो आलेख लिखा है वह किसी भी कविता आन्दोलन के लिए स्वप्न सरीखा घोषणापत्र है। अनुवादक की तमन्ना है कि किसी दिन उस अनकहे घोषणापत्र का भी अनुवाद करेगा।) 

 

एक चरुआ का प्रस्ताव

(बन्दे अली - 1939 में लिखी कविता)

 

कोई कहता है बंगाल मेरा जन्मस्थान है

और गुस्से से भर कर घूरता है

ठीक है, जब वे आए,

मेरे अब्बाजान मेरी आई और न जाने कितने बन्धु-भाई

अपना घर छोड़ चुके थे, बे-मुल्क हो चुके थे 

तब कितने लोग इस मुल्क से बावस्ता थे

जो पहने हुए हैं आज ताज और लगाए घूमते हैं नेताओं के से नकाब?

ये लोग लालच से घिरे हुए हैं, मैं जानता हूँ

लालच ने जो भाषा अख्तियार कर रखा है उसे मैं चुपचाप परख रहा हूँ।

लेकिन मैं उस थाली में छेद नहीं करूंगा जिसमें खाता हूँ

मेरा ईमान यह मुझे करने नहीं देगा।

मेरी यह सरजमीं जहाँ मेरा ठिकाना है

उसकी सलामती ही मेरा आनन्दोत्सव है

जिस जमीं से मेरी आई, अब्बाजान

जन्नत को कूच कर गए

वह जमीं मेरी अपनी है, आमार सोनार असम

यह धरती मेरा पवित्र इबादतगाह है

जिस जमीन की सफाई मैं अपना घर बनाने के लिए करता हूँ

वो मेरी अपनी धरती है

यह शब्द कुरआन से हैं

जिनमें झूठ की गुंजाईश भी नहीं

इस जगह के लोग सीधे हैं, साफ़ मन के हैं

असमिया हमारे अपने हैं

साझे हमारे घर में जो कुछ भी हमारा है हम उसमें साझा करेंगे

और एक स्वर्णिम भविष्य वाला परिवार बनेंगे।

 

मैं न तो चरुआ हूँ और न ही पमुआ*

हम सब अब असमिया ही हो गए हैं

असम की आबो-हवा, असम की भाषा के

हम भी हकदार हो गए हैं

अगर असमिया मरते हैं तो हम भी मरेंगे

लेकिन हम ऐसा होने ही क्यों देंगे

नए दारुण दुखों के लिए हम नए हथियार बनायेंगे

नए यंत्रों से हम बनायेंगे नया भविष्य

जहाँ मिले हमें इतना प्यार, इतना सम्मान

हमें कहाँ मिलेगी ऐसी जगह?

जहाँ हल के फाल से कटती हो धरती और उगता हो सोना

हमें कहाँ मिलेगी ऐसी वैभवशाली जगह?

असम-माँ हमें अपना दूध पर पालती है

हम उसके हुलसित संतान हैं

आओ सब एक धुन में गाएँ: हम असमिया हैं

हम म्यामेंसिंधिया नहीं बनंगे

हमें सीमाओं की जरुरत भी नहीं होगी

हम सब भाई की तरह रहेंगे

और जब दिकू लोग हमें लूटने आयेंगे

हम अपनी नंगी छातियों से उन्हें रोक लेंगे

 

चरुआ: चर इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए कहा जाना वाला एक शब्द

पमुआ: बाहर से आकर बसे बाशिंदे

यह कविता अपने मूल में ्रक्च्रक्च की गेयात्मक शैली में दिखी गई है।

 

सविनय निवेदन है कि ( 1985 )

खबीर अहमद

 

सविनय निवेदन है कि

मैं बाशिंदा हूँ, एक मिया जिससे नफरत रखते हैं लोग

मुआमले कुछ भी हों, मेरे नाम यही होने हैं

इस्माईल शेख, रमजान अली या माजिद मिया

विषय: मैं हूँ असमिया इसी असम का

 

कहने के लिए मेरे पास अकूत बातें हैं

असम की लोककथाओं से पुरानी कहानियाँ

आपकी शिराओं में उफनते खून से

भी पुरानी कहानियां

 

यौमे आजादी के चालीस बरस बाद भी

अपने प्रिय लेखकों के शब्दों में मेरे लिए जगह नहीं है

आपके आलेखकों का ब्रश मेरे चेहरे को छूने भर के लिए भी नहीं छूता

संसद और विधानसभाओं में मेरा नाम अनुच्चारित ही रह जाता है

किसी शहीद स्मारक पर भी नहीं, यहाँ तक कि छोटे छोटे अक्षरों में छपे

किसी समाचार-संसार में भी नहीं।

और तो और, आपने तो अभी यह भी नहीं तय किया है कि मुझे क्या

कह कर बुलाना है-

क्या मैं मिया हूँ, असमिया हूँ या नव-असमिया?

 

फिर भी क्या गजब कि आप नदी की बात करते हो

कहते हो, यह नदी असम की माँ है

पेड़ों का जिक्र करते हो

बताते हो, असम नीली पहाडिय़ों की धरती है

पेड़ों की तरह अडिग, मेरी रीढ़ मजबूत है

इन पेड़ों की छाया ही मेरा पता है ...

आप किसानों, कामगारों की बात करते हो

कहते हो, असम धान और परिश्रम की धरा है

जबकि मैं धान के समक्ष झुकता हूँ, पसीने के समक्ष भी

क्योंकि मैं किसान की संतान हूँ...

 

मैं विनम्र निवेदन करता हूँ कि मैं एक

प्रवासी बाशिंदा हूँ, मिया जिसे सब गंदा कहते हैं

मामला कोई भी क्यों न हो, मेरा नाम है

खबीर अहमद या मिजानुर मिया

और विषय वही - मैं असमिया हूँ इस असम का

बीती सदी में कभी खो दिया अपना 

पता पद्मा के तूफानों में 

किसी व्यापारी की जहाज ने मुझे भटकता पाकर यहाँ छोड़ दिया

तब से मैंने अपने सीने से लगाए रखा है, इस धरती को, इस सरजमीं को

और खोज की नई यात्रा शुरु की

सदिया से धुबरी तक ...

 

उस दिन से

मैंने इन लाल पहाडिय़ों को समतल करने का काम किया है

जंगल काट कर शहर बसाए, मिट्टी को इंटे में ढाला

इंटों से स्मारक रचे

धरती पर पत्थर रखे, दलदली कोयले से अपनी पीठ जला ली,

तैर कर पार की नदियाँ, किनारों पर इन्तजार किया

और बाढ़ को रोके रखा

अपने खून और पसीने से खड़ी फसल को सींचा

और अपने अब्बा के हल से, धरती पर उकेरा

अ...स...म 

 

आजादी का इन्तजार मैंने भी किया

नदी के नरकट में एक घोंसला बनाया

भातियाली में गीत गाए

जब अब्बा मिलने आते,

लुईत का संगीत सुना

अक्सर शाम में कोलोंग और कोपली के किनारे पर खड़े रह कर

उनके किनारों की स्वर्णिम आभा देखा

अचानक एक रूखे हाथ ने मेरा चेहरा खरोंच दिया

‘83 की एक धधकती हुई रात में

मेरा देश नेल्ली की काली भट्ठी पर खड़ा चीख रहा था

मुकाल्मुआ और रुपोही, जुरिया,

साया ढाका, पाखी ढाका के ऊपर बादलों ने भी आग पकड लिया था -

मिया लोगों के घर चिताओं की तरह जल रहे थे

‘84 की बाढ़ हमारी फसल बहा ले गई

85’ में चंद जुआरियों के हुजूम ने हमें विधानसभा

में नीलाम कर दिया

 

खैर मामला जो भी बने, मेरा नाम रहेगा

इस्माईल शेख, रमजान अली या माजिद मिया

विषय भी लेकिन वही रहेगा - मैं असमिया हूँ इसी असम का।

 

एक चरुआ युवक बनाम लोग (2000)

हाफिज अहमद

 

मीलॉर्ड

हाँ, हम दोनों भाई हैं

वो और मैं

एक ही परिवार से जन्में भाई.

फिर भी बड़े * ( बड़ा भाई ) को ऐसा भूत सवार है

राजा बनने का

कि वह इस खून के रिश्ते को भी

मानने से इनकार करता है।

 

मीलॉर्ड

उसके दावों से उलट

मैं उसका सौतेला भाई नहीं हूँ

माँ और बेटे तक तक अलग नहीं हुए थे

जब मैं पैदा हुआ

उसने दोस्तों और दुश्मनों की

कानाफूसियों को ज्यादा ही ध्यान से सुन लिया है

और अपना दिमाग खराब कर बैठा है.

यही वजह हो सकती है कि

आये दिन वो मुझे नाजायज घोषित करते रहता है.

 

मीलॉर्ड

अक्सरहा वो चुप मार जाता है

और उसका गुस्सा उन्मादी रूप धारण कर लेता है

कई बार अनुचित क्रोध के वशीभूत होकर

अपने शरीर से मांस का

लोथ नोच लेता है।

एक बार को भी उसे इसका ख्याल नहीं आता

क्यों आखिर हमारी छ: बहनों

को घर छोडऩे

पर मजबूर होना पडा था

 

मीलॉर्ड

अब वह समझदार हो गया है

या कम से कम मेरा अनुमान यह कहता है

आपने हमारी समस्याओं का अध्ययन किया है

आपने देखा है कि हमारे अपने ही अपनी माँ के ह्रदय

सरीखी चिता पर जलाए जा रहे हैं

हमारे अपने ही हमारे अपनों को

खाए जा रहे हैं

 

मीलॉर्ड

कैसे मैं शान्ति का जल उड़ेलूँ?

कैसे मैं दक्ष के यज्ञ को रोकूँ?

कैसे मैं सती हो चुके शरीर

के टुकड़ों को सम्भालूँ?

 

आह!

हफीज अहमद

( ब्रह्मपुत्र के कटाव में सब कुछ गँवा चुकने के बाद )

 

क्या नहीं था अपने पास?

धान से हरिआये खेत,

तालाबों में तैरती मछलियाँ,

बच्चों की हँसी पर थमा घर,

नारियल और कसैली के पेड़ों की कतारों पर कतारें

त्यौहार पर लोगों से

उनकी खुशियों से भरा हुआ आँगन।

क्या है आज अपने पास?

अपने गले में पड़ी गुलामीं की जंजीरें

और जीतने के लिए यह जग सारा।

 

लिखो कि 'मैं एक मिया हूँ’

हाफिज अहमद

 

लिखो

दर्ज करो कि

मैं मिया हूँ

नाराज* रजिस्टर ने मुझे 200543 नाम की क्रमसंख्या बख्शी है

मेरी दो संतानें हैं

जो अगली गर्मियों तक

तीन हो जाएंगी,

क्या तुम उससे भी उसी शिद्दत से नफरत करोगे

जैसी मुझसे करते हो?

 

लिखो ना

मैं मिया हूँ

तुम्हारी भूख मिटे इसलिए

मैंने निर्जन और नशाबी इलाकों को

धान के लहलहाते खेतों में तब्दील किया,

मैं ईंट ढोता हूँ जिससे

तुम्हारी अटारियाँ खड़ी होती हैं,

तुम्हें आराम पहुँचे इसलिए

तुम्हारी कार चलाता हूँ,

तुम्हारी सेहत सलामत रहे इसलिए

तुम्हारे नाले साफ करता हूँ,

हर पल तुम्हारी चाकरी में लगा हूँ

और तुम हो कि तुम्हें इत्मिनान ही नहीं!

 

लिख लो,

मैं एक मिया हूँ,

लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष, गणतंत्र का नागरिक

जिसके पास कोई अधिकार तक नहीं,

मेरी माँ को संदेहास्पद-मतदाता** का तमगा मिल गया है,

जबकि उसके माँ-बाप सम्मानित भारतीय हैं,

अपनी एक इच्छा-मात्र से तुम मेरी हत्या कर सकते हो, मुझे मेरे ही

गाँव से निकाला दे सकते हो,

मेरी शस्य-स्यामला जमीन छीन सकते हो,

बिना किसी सजा के तुम्हारी गोलियाँ,

मेरा सीना छलनी कर सकती हैं।

 

यह भी दर्ज कर लो

मैं वही मिया हूँ

ब्रह्मपुत्र के किनारे बसा हुआ दरकिनार

तुम्हारी यातनाओं को जज्ब करने से

मेरा शरीर काला पड़ गया है,

मेरी आँखें अंगारों से लाल हो गई हैं।

 

सावधान!

गुस्से के अलावा मेरे पास कुछ भी नहीं

दूर रहो

वरना

भस्म हो जाओगे।

 

*नाराज रजिस्टर: नागरिकों की राष्ट्रीय जनगणना रजिस्टर

** संदेहास्पद मतदाता: डी वोटर

 

 

 

 

चंदन पांडे बनारस में अपनी पढ़ाई के दौरान नये कहानीकार के रुप में पहल में प्रकाशित हुये। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। मिया कविता असम में विद्रोही अभिव्यक्तियों के साथ अब एक जीवित आंदोलन है। देशराग से भरी हुई बेजोड़ कविताएं। एक नोट के साथ पहल में इसे प्रमुख रूप से प्रकाशित किया जा रहा है। पाठक मिया कविता आंदोलन की पृष्ठभूमि विस्तार से जानने के लिए 2019 के अंग्रेजी 'कारवां’ के पिछले अंकों को देश सकते हैं।

संपर्क- 9901822558

 

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