जनता का निज़ाम

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    दिसंबर - 2019
श्रेणी जनता का निज़ाम
संस्करण दिसंबर - 2019
लेखक का नाम अभिनव निरंजन





शुरुवात/ लंबी कविता

 

अभिनव निरंजन

 

 

1.

 

सब तयशुदा बर्बादियाँ हैं

यह बर्बरता यह निरंकुशता यह अतिक्रमण

सब था पूर्वघोषित

प्रस्ताव यही था, रज़ा यही थी

घर घर बाँटे पर्चों पर लिखा था, स्पष्ट अक्षरों में

गली-गली जुलूस-जुलूस बताया गया, साफ़ स्वरों में

जलसा-जलसा यही था शंखनाद

हाँ यही, ठीक यही था प्रस्ताव

सबने तफ़सील से देखा था नए निज़ाम का ब्लूप्रिंट

इसकी ही कील पर टाँगी थी अपनी उम्मीदें

टाँके थे अपने सपने

 

एक मरणासन्न समाज को चाहिए थी ऊष्मा

उसने चुन चुनकर सबसे दहकते अंगारे ठूँसे अपनी जेबों में

संकल्प हेतु उसने तेज़ाब भरा अंजुली में

श्रद्धा और नियाज़ के साथ

उसने तानाशाह के अट्टहास से मिलाये अपने कहकहे

अपने ही प्राणवायु से उनके नारे किये बुलंद

यही वर्तमान है आवाम में संचित किया धीमे-धीमे

बूँद बूँद जतन से स्वयं ही इकट्ठा करा विष

रंगीन बोतलों में

 

2.

 

मगर यह समझने की भूल ना हो

कि जनता ठगा महसूस कर रही है

यह भी मतलब ना निकला जाए

कि जनता को कोई मलाल है

कि उसे अपने निर्णय पर कोई पछतावा है

कि उसे बोतल से निकले जिन्न से कोई भय है

कि जनता को इस छलावे से अपराध-बोध है कोई

 

जनता जनार्दन है

और जनता जनार्दन सारे दायित्वों से परे है

जनार्दन आत्मपीड़ा, परपीड़ा और समस्त संवेदनाओं से परे है

जनार्दन और भी कई चीज़ों से परे है

 

जनार्दन अपने सीने की ओर बढ़ते चा$कू को देखता है

और विस्मित होता है - अद्भुत!

क्या चमक है इसकी

मानो पूर्वजों का सम्पूर्ण गौरव संग्रहित हो

ठीक इसके नोंक पर आ टिका हो!

 

जनार्दन अपने शरीर से बहते रक्त को देखकर आह्लादित होता है

ठहाके मार कर कहता है - लाल!

यह रंग तो शुभ है

सनातन धर्म का प्रतीक है

 

जनार्दन अपनी टूटी हड्डियों पर हाथ रखता है

और शाँत भाव से कहता है - मजबूत!

देखो लाठी कितनी मजबूत है

यही सहारा देगी

जो मेरी हड्डियों का बुरादा कर सकती है

वह क्या गज़ब की बैसाखी बनेगी

जनता अपने नए सरमायेदार और उसके निज़ाम के हर फैसले में देखती है

अपने ही किसी अपूर्ण इच्छा की अभिव्यक्ति

अपने दमित उत्कंठा का विराट चित्र

कहती है ऐतिहासिक

महसूस करती है अलौकिक सम्मोहन

 

3.

नए निज़ाम की अपनी ही बेनियाज़ी  है

ताज़ी रत-ए-हिन्द रफ़ा-दफ़ा के तहत

वज़ी र-ए-आज़म के मगज़ में जो भी आये वही कानून

सिपाह-सालार का डंडा जो जहाँ टिका दे वही व्यवस्था

 

नए निज़ाम के पास इलाज़ है

अब वो मर्ज़ ढूँढ रहा है

मिलते ही, वह जिस तिस को मरीज़ बनाना शुरू कर देगा

 

नए निज़ाम के पास एक अनोखा यन्त्र है

यह सबकुछ चबा जाता है

लोहा लक्कड़ पाौलिथिन

हवा और धूप तक चबा जाता है

यह यन्त्र दिखाई नहीं देता

इसे छूकर भी पता नहीं कर सकते

इसे बस सूंघकर जाना जा सकता है

 

दरअसल यह एक महायन्त्र है

यह सनातन भी है, उत्तरआधुनिक भी

यह दिव्य प्रतीकों की ऊष्मा को सोखकर संचालित होता है

नए निज़ाम ने इसे हर कोने में चिपका रखा है

- विश्वविद्यालय, सिनेमाघर, शयनकक्ष

गुशलखाना, मतदानकेन्द्र, इंटरनेट, मोबाईल, अखबार समेत

जनार्दन के स्नायु में तैर रहा है इसका माइक्रो-चिप

अब यही तय करता है कि क्या तय करना है

कैसे और कब तय करना है

तभी तो घोषणाएँ देववाणी की तरह छूटकर निकलतीं हैं

और उल्का की तरह बरसती हैं मूर्छित समाज पर अचानक ही

कभी भी किसी पहर किसी बहाने

और मूर्छित समाज में आवेग आ उठता है

कि जैसे नींद में चढ़े मिर्गी का दौरा

जनार्दन समवेत स्वर में करने जाता है जाप

सन्निपात ज्वर की तरह चढऩे लगता है उत्सव

 

विश्व के सबसे बड़े कहे जाने वाले लोकतंत्र के संसद से

अब विमर्श और तकरीरें नहीं

बल्कि निकलते हैं केवल विज्ञप्ति, इश्तेहार और ऐलान

सरमायेदार के ज़बान से निकली हर बात हर्फ़-ए-आखिर

उसकी हर अदा लाफ़ानी

उसके हर कारनामे अभूतपूर्व

 

इस नए निज़ाम में सबकुछ नया है

और देखें तो नया जैसा कुछ भी नहीं

हत्यारे अब अप्रासंगिक हो चले

जिसकी हत्या हुई और जिनकी हत्या होने वाली है

वे स्वयं ही दोनों दायित्व निभाने लगे हैं

 

4.

नया निज़ाम मुख्यधारा की परिकल्पना से बेचैन है

बहलाकर या बहकाकर

खदेड़कर या हाँककर

नहीं तो किसी कानूनी पोथी में धरा-वारा को मरोड़कर

पर लाना है सभी को मुख्यधारा में

 

मुख्यधारा एक आम शौचालय है

प्रवेशद्वार पर एक मुलाज़िम बिठा

आपके सर्वाधिक विवशता वाले क्षणों को

नियंत्रित कर सकता है

निगरानी रख सकता है

निज़ाम चाहे तो मनमाफ़िक़ संचालित भी कर सकता है

इसलिए जरूरी है कि आप

कतारबद्ध होकर सावधान की मुद्रा में

उस तख्ती के आगे खड़े हो जाएँ

जहाँ लिखा है - मुख्यधारा!

 

मुख्यधारा में एक मौलिक आकर्षण है

यहाँ गति है, प्रगति है, स्वीकृति है

मुख्यधारा में मोक्ष है

यह संजीवनी है

मुख्यधारा के बाहर अवनति है, दुर्गति है

जो मुख्यधारा में नहीं है

रेशा रेशा बिखर जाना उसकी नियति है

 

पर उनका क्या होना है

मुख्यधारा की आबोहवा जिनके अस्तित्व के प्रतिकूल है

फिर इन्हें तो सारी नदियाँ ही नहीं

ताल तलैये और झरनों को भी

खींचकर समन्दर तक लाना है

गाय और गौमूत्र खैर मुख्यधारा में शामिल हो चुके हैं

बकरियाँ और भेड़ें सतर्क रहे

 

5.

अब कोई भी स्थल निरापद नहीं

अब कोई भी विचार वक्तिगत नहीं

अब कोई भी आचार निजी नहीं

 

तमाम मौलिक और मामूली जरूरतों को

कैसे ब-हत्तर परियोजन से जोड़

देश, काल, समाज, धर्म, अध्यात्मक

और अनंत शाश्वत तत्वों की व्याख्या बना देते हैं

साँस लेने से हाथ उठाने तक किसी भी हरकत के बरक्स

एक विशालकाय प्रतीक सामने आ खड़ा होता है

जिनसे लडऩा भिडऩा तो दूर

शिकायत का हक़ भी इख़्तियार नहीं

अपने निकर और टी शर्ट में

बस बाहर चार कदम टहलना चाहता हूँ

लम्बी साँस लेकर

बाहें फैला, थोड़ा अंगड़ाई लेना चाहता हूं

और सामने आता है संस्कृति का सवाल

जोर से दिल का धड़कना अस्मिता का उल्लंघन हो जाता है

जहाँ खड़ा हूँ, वहाँ रुकना मना है

जिधर कदम उठाता हूँ, उधर 'रास्ता आम नहीं है’

 

भूख से कुलबुलाते कभी

एक निवाला उठाता हूँ, अपने एकांत में

कि सहसा पाता हूँ खुद को बीच चौराहे पर

अजीब उमस भरे सायों से घिरा

कोई मेरे निवाले में खंजर डालकर करता है छानबीन

और महायंत्र से निकली है एक डायग्नोसिस रिपोर्ट

खुलने लगता है यक्ष-प्रश्न का नया अध्याय

कुछ पाया गया है निवाले में जो एक महान संस्कृति को कर सकता है मलीन

 

यह कैसा जंग है, कैसा अखाड़ा?

ना शत्रु दिखाई देते हैं

ना प्रतिद्वंदी

फिर किस से हो रहा हूँ निरंतर पराजित

सारे महान प्रतीक

बन चुके हैं कल-पुर्ज़े इस विशालकाय यन्त्र के

 

मगर याद रहे सरमायेदारों को

जब काल अपने नुकीले दांत गड़ाता है

मशीनों को पकडऩे लगता है ज़ंग

अपनी गहन निद्रा से उठ

यही आवाम अपने नीम-आस्तीन बाजुओं पर फेरती है हाथ

और बिखरने लगते हैं मशीनों के पुर्ज़े...

 

पहली में दूसरी बार

संपर्क- मो. 9650223928, फरीदाबाद

 

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