तीन पत्ते/पत्ती उर्फ फ्लश या फलास खेलते वक्त बरती जानेवालीं कुछ एहतियात (कविवर्य नरेश सक्सेना को, जिन्होंने कॉलेज में एक बार अपनी कलाई-घड़ी इस तरह गंवा दी थी, 2012 के इस द्यूत-पर्व पर)
कमाई के लिए मत खेलो दूसरे खेलते हों तो खेलने दो
अपनी छोटी-सी पूरी पूँजी लेकर मत जाओ कुछ कमरे पर छोड़कर जाओ
जिस जगह नाल कटती हो वहाँ मत खेलो हाँ अगर खेल के बाद स्टेशन पर बड़ी फ़जर गरम चाय-समोसे के लिए कुछ पैसे जमा होते हों तो कोई हर्ज़ नहीं
न तो नशे में जाओ न खेलते हुए नशा करो खेल के फ़ौरन बाद भी नहीं जहाँ तक मुमकिन हो दोस्तों के साथ खेलो हालाँकि इस खेल में अज़ीज़ों का भी कोई एतबार नहीं ओछों हलकटों नीम-गुंडों को हँकाल दो नाबालिगों बालिशों को न बैठने दो निठल्लों तमाशबीनों को बाहर रखो प्यारे लफंगों को ज़रूर बुलाओ
अजनबियों के साथ बैठने में कोई अंदेशा नहीं दो-तीन दौरों के बाद वे समझ में आने लगेंगे बहुत चुप या बहुत बोलनेवालों से बेशक़ होशियार रहो वे दोस्त हों या नावाकिफ़ औरतों और बच्चोंवाली जगह पर कभी मत बैठो
तवज्जो दो कि पत्ते बहुत रफ्तार से बँट रहे हैं या सुस्ती से उन्हें गिनो कि कहीं चार न आ गए हों एक सलीके से पकड़ों उन्हें और गौर से पूरे देखो ख़ाससकर चिड़ी और कालेपान को और उसकी बेगम को खेलने के ड्रामाई ढर्रे से बचो चार सौ बीस से बहुत ज्यादा हासिल नहीं होता संजीदगी से खेलने का अपना तरीक़ा ख़ुद ईजाद करो
सुनो कि क्या कहा जा रहा है देखो कि कौन सी हरकतें बार-बार हो रही हैं बहुत बारीक़ मिलीभगतें भी चलती हैं इस खेल में दोस्तियों-अदावतों के नाटक होते हैं
पहले से दर्याफ्त कर लो कि सादा एक-दो-तीन बड़ा होता है या इक्का-बाश्शा-मेम और कहीं दो-तीन-पाँच को भी रन तो नहीं मानते ट्रेल के बाद की रस्में क्या होती हैं तीन इक्कों पर भी शोक करा सकते हैं या नहीं क्या कभी जोकर भी शामिल कर लिए जाते हैं
जहाँ शक हो पहले से पूछ लो पत्ते उठा लेने के बाद सिर्फ़ चाल ही हो सकती है
हर फड़ के अपने टोटके होते हैं
भूलो मत कि तीन इक्कों के सिवा किन्हीं भी पत्तों का अपने-आप में कोई मतलब नहीं होता वे दूसरों के हाथ के मुक़ाबिले ही छोटे-बड़े साबित होते हैं और तीन इक्के तो कभी-कभी मुद्दत्तों तक किसी को नहीं आते
पत्ते फेंक देनेवालों से कहो कि वे बीच में न तो बताएँ न दिखाएँ कि उन्होंने क्या पैक किया है बार-बार बाज़ी छोड़कर जाने-आनेवालों से भी आगाह रहो
गड्डी को हर कुछ दौरों बाद बदलवाओ नई आने दो वह पिछली से मिलती-जुलती न हो
बीच-बीच में पूरे बावन गिनवाते रहो पत्ते सिर्फ लगाए ही नही जाते छिपाए बदले चुराए भी जाते है हर चाल पर हर हाल में एक लापरवाह चौकस निगाह रखनी पड़ती है
न अपने पत्ते दिखाओ न दूसरों के देखो तीन इक्कों की मजबूरी के सिवा उधार माँगकर मत खेलो वैसे इस खेल में उधार मिलता भी कम है या तो पत्ते डाल दो या दो ही हों तो वक्त रहते शो करा लो
कट फॉर सीट करते रहना चाहिए हर खेल में जगहें बदलती हैं
सही है कि असल लुत्फ़ ब्लाइंड खेलने में है चाहो तो दो-तीन बार कवर भी करो लेकिन सामनेवाले ने अगर बीच में पत्ते उठा लिए हों और चाल-पर-चाल दे रहा हो तो एकतरफ़ा ज़िद बेमानी है लेकिन दो की लगातार चालों के बीच वे ब्लाइंड हों या खुली तीसरे तुम मत फँसो वह अक्सर एक फंदा होता है गिरीश और भैयालाल को मत भूलो वे तुम्हारे दोस्त ही तो थे
कोशिश करो कि बोट एक रूपए से ज़्यादा न हो तुम जुआड़ी नहीं हो यह बस तुम्हारा एक शग़ल है खेल को पेशा या लत मत बनाओ लालच टुच्चई बदी से बचो खेलो और खेल और खिलाडिय़ों से एक लगाव-भरी दूरी भी बनाए रखो कुछ को तुम्हारा खेल अच्छा लगेगा कुछ को रास नहीं आएगा उससे क्या पहले से नहीं कह दिया हो कि कितनी देर खेलोगे तो जीतते रहो लेकिन उठना ही पड़े तो साफ़ कह दो कि भाई अब ये मेरी आख़िरी बाज़ियाँ हैं जिसे जीतना हो जीत ले हारते हो तो बिना उधार लिए जो पास में बचा हो उसी के साथ रुखसत हो लो न जीतते वक्त पत्तों से ज़िद करो न हारते वक्त
दो तीन दफा किसी वजह से न लौट सको और किसी दर्दमंद का सच्चा-झूठा पयाम आ ही जाए कि भाईजान कुछ गुस्ताखी हो गयी क्या या कोई और दिक्कत हो तो बताइए आपके बगैर खेल में वो जान ही नहीं आती
तो चले ही जाओ आख़िरकार क्या तुम्हें भी अच्छा नहीं लगता वह पत्तों का पिसना फिंटना बँटना उठना देखा जाना ईंट लालपान चिड़ी कालेपान के मुख्तलिफ छापे इक्का बाश्शा बेगम गुलाम जोकरों के हर बार अलग चेहरे जैसे किसी आश्चर्यलोक से उनकी गंध उनकी छुअन जो उँगलियों के पसीने और पकड़ से बासी होती जाती हैं आसपास के चेहरे पढऩा चालें समझना वह दोस्ती वह तनातनी वह उम्मीद वह मायूसी वह खुशी वह पछतावा वह जीतने का अफसोस वह हारने का लुत्फ़ जो मामूली-सा गल्ला बीच में पड़ा है वह उसके हासिल से कहीं ज़्यादा
विलोम
कहना मुश्किल है कि हर वह व्यक्ति जिसके लिए शोक-सभा की जाती है उस शोक का हक़दार होता है भी या नहीं जो शोक उसके लिए मनाया जाता है वह सच्चा होता है या नहीं और जो उसके लिए शोक मना रहे होते हैं उसमें से कितने वाकई शोकार्त होते हैं और कितने महज़ राहत महसूस करते हुए दुनियादार बहरहाल जैसी भी रही हो उस एक ज़िन्दगी को डेढ़-दो घंटों में निपटा देने के बाद दो मिनट का वह वक्फा आता है जब मौन रखा जाना होता है
मैंने अक्सर देखा है यह एक सौ बीस सेकण्ड हर सिर नीचा किए या शून्य में देखते खड़े हुए शोकार्त पर भारी पड़ते हैं लगता है तभी उनकी आत्मा का साक्षात्कार होता है दिवंगत और मृत्यु से अपने भीतर की खला से तुम नहीं जानते थे कि मौत इतने लोगों को तबाह कर सकती है वे कनखियों से देखते हैं कलाई या दीवाल घडिय़ों को या आसपास खड़े अपने जैसे लोगों को या मंच पर खड़े खुर्राट पेशेवर शोकार्तों को कि वे अपने शरीर की किसी भंगिमा से संकेत दें और अंतत: सभा समाप्त हो जबकि यह दो मिनट का मौन उन्होंने मृतक के पूरे जीवन भर उसके कहे-किए पर रखा होता है और अब जब कि वह नहीं रहा तो सुविधापूर्वक बचे-खुचे इनके जीवनपर्यंत रखा जाएगा
मेरे साथ यह विचित्र है कि कि अगर किसी शोक-सभा में जाता भी हूँ तो मंच पर और मेरे आसपास आसीनों को देखते हुए उन पर और उनके बीच बैठे खुद पर और दिवंगत आत्मा पर बल्कि सारे ज़माने पर लगातार खिलखिलाने या कुछ अभद्र कहने की असभ्य इच्छा होती रहती है जिसे अपने निजी जीवन की चुनिन्दा त्रासदियों को सायास याद करके ही दबा पाता हूँ
मेरा शोक-प्रस्ताव यह होता है कि बहुत रख चुके अब हम इस इंसान की स्मृति में एक सेकण्ड का भी मौन नहीं बल्कि चुप्पी के सारे विलोम रखें और वह भी महज़ दो मिनट के लिए और यहीं नहीं यानी आवाज़ बात बहस ध्वनि कोलाहल शोरगुल रव गुहार आव्हान तुमुलनाद बलवा बगावत चारसू
तिलिस्म
अच्छी किताबों को पूरा पढ़ पाना इसलिए भी मुश्किल है कि शुरू में तो वे हम से खुल जाती हैं कुछ दूर तक दाख़िल भी होते हैं हम उनमें कि रुक कर वर्कों के आरपार देखने लगते हैं या उन्हें बंद करना तक भूल कर उफ़क़ में ताकते रहते हैं अँधेरा होने तक
कहाँ-कहाँ भटका ले जाते हैं उनके अजीब मज़ामीन जाने क्या-क्या तारी कर देती हैं वे महज़ क़िस्सागोई या तगज्जुल ही नहीं क़िन ज़मानों किन दुनियाओं किन मसाइल में हमारे जीवन से पहले की ज़िन्दगियों हमारी मृत्यु के बाद के जन्मों में हमारे कितने भीतर और हमसे कितनी दूर बाज़ औक़ात समझना नामुमकिन
और हम पर भी नाज़िल होता है वह अज़ाबी ख़्वाब कि काश हमसे भी कभी वैसा कुछ हो सकता हम भी बना पाते अर्श से इधर कोई तिलिस्म जिसे निहायत हकीर हम ही अपने में खोलते बेइंतिहा है यह बनती-बिगड़ती कायनात और उसके ये सारे वास्तविक-काल्पनिक अक्स नुकूश ब्यौरे और बयान उसमें न सही उतनी बलंदी पर लेकिन ऐसा एक मंज़र हमारा भी क्यों नहीं हो सकता
A B A N D O N E D
वे शायद हिंदी में त्यागे या छोड़े नहीं जा सकते रहे होंगे उर्दू में उनका तर्क या मत्रूक किया जाना कोई न समझता इंग्लिश की इबारत का बिना समझे भी रोब पड़ता है लिहाज़ा उन पर रोमन में लिखवा दिया गया अंग्रेज़ी शब्द अबेंडंड
उनमें जो भी सहूलियतें रही होंगी वे निकाल ली गयी होती हैं जो नहीं निकल पातीं मसलन कमोड उन्हें तोड़ दिया जाता है जिनमें बिजली रही होगी उनके सारे वायरों स्विचों प्लगों होल्डरों मीटरों के सिर्फ चिन्ह दिखते हैं रसोई में दीवार पर धुएँ का एक मिटता निशान बचता है तमाम लोहा-लंगड़ बटोर लिया गया सारी खिड़कियाँ उखड़ी हुईं सारे दरवाज़े ले जाए गए जैसे किन्हीं कंगाल फौजी लुटेरों की गनीमत कहीं वह खुला गोदाम होगा जहाँ यह सारा सामान अपनी नीलामी का इंतज़ार करता होगा
रेल के डिब्बे या बस में बैठे गुज़रते हुए तुम सोचते हो लेकिन वे लोग कहाँ हैं जो इन सब छोड़े गए ढाँचों में तैनात थे या इनमें पूरी गिरस्ती बसाकर रहे कितनी यादें तजनी पड़ी होंगी उन्हें यहाँ क्या खुद उन्हें भी आख़िर में तज ही दिया गया
जो धीरे-धीरे खिर रही हैं भले ही उन पर काई जम रही है और जोड़ों के बीच से छोटी-बड़ी वनस्पतियाँ उग आई हैं और मुँडेरों के ऊपर अनाम पौधों की कतार सिर्फ वही ईंटें बची हैं और उनमें से जो रात-बिरात दिन-दहाड़े उखाड़ कर ले जाई जा रही हैं खुशकिस्मत हैं कि वे कुछ नए घरों में तो लगेंगी
पता नहीं कितने लोग फिर भी सर्दी गर्मी बरसात से बचने के लिए इन तजे हुए हों को चंद घंटों के लिए अपनाते हों प्रेमी-युगल इनमें छिप कर मिलते हों बेघरों फकीरों-बैरागियों मुसीबतज़दाओं का आसरा बनते हों ये कभी यहाँ नशा किया जाता हो जरायमपेशा यहाँ छिपते पड़ाव डालते हों सँपेरे मदारी नट बाजीगर बहरूपिए कठपुतली वाले रुकते हों यहाँ लंगूर इनकी छतों पर बैठते हों कभी कोई चौकन्ना जंगली जानवर अपनी लाल जीभ निकाले हाँफता सुस्ताता हो
किस मानसिकता का नतीज़ा हैं ये कि इन्हें छोड़ दो उजडऩे के लिए न इनमें पुराने रह पाएँ न नए इनमें बसना एक जुर्म हो
सारे छोटे-बड़े शहरों में भी मैंने देखे हैं ऐसे खंडहर होते मकान जिन पर अबेंडंड छोड़ या तज दिए गए न लिखा हो लेकिन उनमें एक छोटा जंगल और कई प्राणी रहते हैं कहते हैं रात को उनमें से आवाज़ें आती हैं कभी-कभी कुछ दिखता है सिर्फ सूने घरों और टूटे या तोड़े गए ढाँचों पर आसान है छोड़ या तज दिया गया लिखना क्या कोई लिख सकता है तज दिए गए नदियों वनों पर्वतों गाँवों कस्बों शहरों महानगरों अनाथालयों अस्पतालों पिंजरापोलों अभयारण्यों दफ्तरों पुलिसथानों अदालतों विधानसभाओं संसद भवन पर संभव हो तो सारे देश पर सारे मानव-मूल्यों पर
किस किस पर कैसे कब तक लिखोगे जबकि सब कुछ जो रखने लायक था तर्क किया जा चुका
कभी एक फंतासी में एक अनंत अंतरिक्ष यात्रा पर निकल जाता हूँ देखने कि कहीं पृथ्वियों आकाशगंगाओं नीहारिकाओं पर या कि पूरे ब्रह्माण्ड पर भी कौन सी भाषा कौन सी लिपि में किस लेखनी से कहीं कोई असंभव रूप से तो नहीं लिख रहा है धीरे धीरे जैसे हाल ही में बनारस स्टेशन के एक ऐसे खंडहर पर पहली बार लिखा देखा परित्यक्त
उसी तरह
कुछ ऐसा है कि मैं अकेली औरतों और अकेले बच्चों को ज़मीन पर बैठे खाना खाते नहीं देख सकता पता नहीं क्यों मैं एक अनाम उदासी और दु:ख से घिर जाता हूँ जबकि वे चुपचाप निवाले तोड़ते हुए या कौर बनाते सारी दुनिया की तरफ पीठ किए हुए एक अनाम दिशा में तकते जाने क्या सोचते अपना पेट भरते हैं कभी-कभी एक आदिम लम्हे के लिए अचानक अपने आसपास देख लेते हुए मैं इतना चाहता हूँ कि वे मुझे अपने पास इतनी दूरी पर इस तरह बैठने दें जहाँ से वे मेरे चेहरे पर देख सकें कि मैं अपने मन में उनसे कह रहा हूँ खाओ खाओ कोई बात नहीं
लेकिन मुझे मालूम है कि ऐसी किसी भी हरकत से शांति से खाने की उनकी एकांत लय में विघ्न पड़ेगा और वे आधे पेट ही उठ जाएँगे
इसलिए मैं खुद को इसी भरम से बहला कर चला आता हूँ कि जहाँ ऐसी अकेली औरतें ऐसे अकेले बच्चे अपनी उस जून की कठिन रोटी खा रहे होते हैं वहाँ एक वाजिब दूरी पर जो कुत्ते बैठे हुए हैं किसी खुश उम्मीद में बेहद हौले अपनी पूँछ हिलाते हुए उनमें मैं भी शामिल हूँ अपनी वह बात कुछ उसी तरह कह सकने के लिए
सरस्वती वंदना
तुम अब नहीं रहीं चम्पावेल्ली चन्द्रमा और हिम जैसी श्वेत तुम्हारे वस्त्र भी मलिन कर दिए गए यदि तुम्हारी वीणा के तार तोड़े नहीं गए तो वह विस्वर हो गयी है जिस कमल पर तुम अब तक आसीत् हो वह कब का विगलित हो चुका जिस ग्रन्थ को तुम थामे रहती थीं वह जीर्ण-शीर्ण होकर बिखर गया तुम्हारा हंस गृध्रों का आखेट हुआ मयूर ने धारण किया काक का रूप जिस सरिता के किनारे तुम विराजती थीं वह हुई वैतरणी सदैव तो क्या कदाचित् भी कोई तुम्हारी स्तुति नहीं करने आता तुम किसी की भी रक्षा नहीं कर पा रही हो जड़ता से मुझ मूर्खतम की क्या करोगी
वीणावादिनि वर दे यही जा कालिका में विलीन हो जा अब बनने दे उसे उस सबकी देवी जिसकी तुझे बनने नहीं दिया गया आओ चंडिके कटे हाथों का अपना प्राचीन कटि-परिधान तज कर छोड़ आओ अपनी बासी मुंड-माल फेंक दो खप्पर-सहित रक्तबीज का सजावटी सिर शारदा के समस्त विश्वासघाती भक्तों-पुरोहितों-यजमानों की प्रवृत्तियाँ हो चुकी हैं तामसिक और आसुरी कितना कलुष कितना पाखण्ड कितना पाप कितना कदाचार मानव ही रक्त पी रहे हैं मानवों का कितना करणीय है इधर तुम्हारे लिए कराली तुममें समाहित सरस्वती तजे अपना रुधिर-पथ्य तुम्हारी तृषा तुष्ट करने हेतु प्रचुर है यहाँ क्षुधा का शमन करने के लिए पर्याप्त टटके कर मुंड महिष शुम्भ-निशुम्भ रक्तबीज हैं हंस पर नहीं शार्दूल पर आओ भवानी और रचने दो यहाँ अपना नूतन स्तोत्र या देवी सर्वभूतेषु विप्लवरूपेषु तिष्ठिता
अन्वेषक जगत्पति जोशी और दिवंगत ग्रेगरी लुइस पोसेल को
हे वर्णमाला हे भाषा हे चित्रो हे प्रतीको तुम्हारी तीन हज़ार वर्षों की कैसी यह हठधर्मी कि तुम लज्जित नहीं होओगे अपने अर्थ के उद्घाटन से तुमने बंदी बना रखा है एक पूरी सभ्यता को जिस रहस्य कारागार में उसकी कुंजी तुम स्वयं हमारे हाथों में हो किन्तु तुम हँसते हो हम पर कि हम तोड़ नहीं पा रहे तुम्हारा तिलिस्म
नहीं रहे तुम्हारे अनेक असफल व्याख्याकार कई वृद्ध और सनकी और असहिष्णु हो चुके कई माने गए विदूषक तुम्हें स्वयं कैद किया जा चुका है कई किताबों में वहाँ भी तुम आत्मसमर्पण नहीं करते
किन किन ज़ुबानों और इबारतों से बैठाए गए तुम्हारे रिश्ते छान डाली गईं सारी सभ्यताएँ देख डाले गए तमाम देश यंत्रों से गुज़ारे गए तुम्हारे सारे प्रस्तार और समुच्चय किन्तु तुम हमें उसी तरह मूक उपहास में देखते हो जैसे भाल पर पट्टिका बांधेनक्षत्रवेशी वह तुम्हारा समकालीन धर्म-राज कदाचित् या अपने गर्व में नग्न वह नर्तकी
और विस्तृत विश्व के प्रथम और एकमात्र संकेत-पट से गिरे तुम दस चिन्हो-क्या इंगित करते हो तुम क्या किन्हीं धवलवीरों के उस प्राचीन नगर या दुर्ग या भवन का नाम या किसी प्रशासक का मुख्यालय या तुम प्रवेश-सूचना उसदेश में जो मेलुह्हा था या नहीं था - वह भी तुम्हीं बतला सकते हो हमें - जिसे पढ़ लेते थे निपुणता से केमेत सुमेर एलम अस्सुर अक्काद हित्ती कुश पुन्त मगन दिलमुन के जलयात्री व्यापारी या कोई चेतावनी कि कारीगरों कामगारों जनसाधारण का प्रवेश वर्जित है
इतनी ज़िद क्यों क्यों यह अपने साधकों अन्वेषकों को यह चुनौती क्यों चाहते हो तुम कि तुम्हें किसी पराई भाषा से ही समझा जाए रेत के ढूहों के नीचे समुद्रों के तल में कहाँ खोजें उसे कैसा यह अमर्ष यह प्रण यह संकल्प
छोड़ो यह गोपनीयता यह खिझानेवाला सम्मोहक इन्द्रजाल विलम्ब तज दो अब होने दो काल को निरवधि मेरे पास अब उतना समय और धैर्य नहीं अपने को पढ़ लेने दो मुझे हे लिपि हे उच्चारो हे अर्थो
सपनों में दौड़
लेटा हुआ वह पहले थरधराने लगता है जैसे उस पर कोई देव आ रहा हो फिर उसके निचले पंजे फर्श पर और ऊपर के अधर में चलने लगते हैं और वह आँखें मूँदे हुए ही भूँकने लगता है बिंगो सपने देख रहा है
सपने में दौड़ रहा है वह और सोते हुए जिस तरह भूँक रहा है लगता है बहुत दूर से उसकी आवाज़ आ रही है शायद लाखों वर्षों दूर से और इसमें सिर्फ उसकी नहीं उसके पूर्वजों की भी आवाज़ है
दिन या रात के किसी भी वक्त इस तरह सोता हुआ सोते में थरथराता हुआ पंजों से करोड़ों कदम लाँघता हुआ इतने धीमे भौंकता हुआ बचपन में असली देसी अनाथ कुत्तों के आसरे से लाया गया होते हुए भी बिंगो बहुत लाडला लगने लगता है
उसे कौन से सपने दीखते हैं कहना कठिमन है बिल्लयों के बारे में सपने में भी छीछड़े दिखने की अपमानजनक कहावत है कुत्तों पर ऐसी तोहमत नहीं लगी है
वह किसी से भाग नहीं रहा है किसी की तरफ दौड़ रहा है भागनेवाले कुत्ते पीछे देखते हुए भागते हैं और भौंकते नहीं हैं
लगता है वह अकेला नहीं है या तो अपने तीस हज़ार बरस पुराने दोपाये दोस्तों के साथ है जो आखेट पर निकले हैं या नए आसरों की लम्बी तलाश में या उसका शरीर दुहरा रहा है उन दौड़ों को जो उसने अपने पुरखों हेस्पेरेश्वान लेसोश्वान यूश्वान की रक्त-मज्जा में दौड़ी थीं यूँ तो बज़ाते खुद बिंगो सृष्टि के सबसे भोंदू और बेज़रर दूसीश्वान कुत्तों में शूमार है लेकिन इन दो-तीन मिनटों में कितने युग पार कर लेता है वह तब भी उससे यह नहीं पूछ सकते कि कभी उसे 1986 का एक उपद्रवी छोटा काला कुत्ता मिलता है या नहीं
धीरे-धीरे उसकी उम्र हो चली है अब जब वह दोनों वक्त घूम कर आता है तो पहले मुँह खोल कर हाँफता हुआ सुस्ताता है और बाद में पानी पीता है सपने फिर भी देखता है शायद पहले से ज़्यादा पता नहीं दौड़ कर किनमें शामिल या विलीन हो जाना चाहता है जब खुद अपनी भूँक से चौंक कर जाग पड़ता है तो थोड़ी उचाट शर्म में सबकी तरफ देखता है जो कहीं और देखने लगते हैं और वह यह सोच कर कि किसी ने उसका सपना देखना नहीं देखा एक उसाँस, भर कर बाजाब्ता नींद में लौट जाता है लेकिन कुत्तों की त$कदीर में चैन की लम्बी नींद कहाँ
ग़ज़ल
पीरों औलियों से काम नहीं मुझे बिचौलियों से काम नहीं
ज़िंदगी में तुर्शियाँ काफी थीं मुझे निंबौलियों से काम नहीं
धूप से ही बदन सुखाया अब तक मुझे नए तौलियों से काम नहीं
खुद ही हँसता रहा हूँ अपने पर मुझे गोरी-धौलियों से काम नहीं
काट देता हूँ ख़िरद के नश्तर से मुझे रूमानी रसौलियों से काम नहीं
खालिस मदर डेरी का दूध पीता हूँ मुझे गवालों-गौलियों से काम नहीं
अव्वल दर्ज़े के मिलें न मिलें मुझे मँझौलियों से काम नहीं
ये कलाशनिकौफ का ज़माना है मुझे करौलियों से काम नहीं
बलाओं को पकड़ता हूँ कलाई से मुझे कलावों-मौलियों से काम नहीं
प्रत्यागमन
वे लौटे
भागीरथी में रात्रि के प्रथम प्रहर कटि तक खड़े हुए व्यास द्वारा आहूत
वह महातुमुल हुआ जो सोलह वर्ष पहले दोनों सेनाओं के सम्मुख होने पर उठा था
जहाँ गंगा का दूसरा छोर मिलता था अब अदृष्ट क्षितिज से वे प्रकट हुए जल के बीच से आते हुए किन्तु आद्र्र नहीं हुए भीष्म द्रोण विराट द्रुपद पाँचों पुत्र द्रौपदी के अभिमन्यु घटोत्कच कर्ण दुर्योधन शकुनि दु:शासन जरासंधकुमार सहदेव भगदत्त जलसन्ध भूरिश्रवा शल्य वृषसेन धृष्टद्युम्न शिखंडी धृष्टकेतु अलायुध बाह्लिक सोमदत्त चेकितान जयत्सेन पांड्यराज हिडिम्ब सात्यकि के दस पुत्र सुदक्षिण विंद अनुविन्द समस्त बंधु-बांधवों सहित कौरवों की ग्यारह पांडवों की सात अक्षौहिणियाँ
सभी वैसे ही दीप्त जैसे वे कुरुक्षेत्र में वीरगति प्राप्त से पहले थे वही वेश वही ध्वजाएँ वही वाहन उनकी पलकें नहीं झपकती थीं छायाएँ नहीं पड़ती थीं नेत्र स्थिर थे उनके जब वे बोलते थे तो लगता था कि निर्विकार कहीं सुदूर से
भीष्म और द्रोण ने गले लगाया धृतराष्ट्र को सतत् प्रश्नाकुल युधिष्ठिर फिर पूछना चाहते थे दोनों से कुछ किन्तु यह अवसर न था
यह वेला थी जीवितों की दिवंगतों से भेंट की एकपक्षीय उपालंभ शोक हर्ष की
पुन: विलाप उठना चाहिए था किन्तु सब समझ चुके थे उनकी व्यर्थता जो परस्पर हत्याएँ कर मृत्यु को प्राप्त हुए थे वे अपनी शत्रुताएँ कभी की भूल चुके थे
कर्ण देखता रहा अपने वधिक भ्राता अर्जुन को द्रौपदी आई अपने उस एकमात्र ज्येष्ठ के पैर छूने जो उसका पति नहीं हो पाया था कुंती ने सूर्यपुत्र को इस अर्धरात्रि में अपना बेटा कहा दु:शासन ने किया परिहास भीम से देखता हूँ मानव-रक्त पीकर भी तुम्हारी मूछें नहीं आईं
युयुत्सु सहित सारे पुत्र खड़े हो गए चित्रवत् धृतराष्ट्र-गांधारी के समक्ष उन्हें भी इस रात्रि के लिए व्यास ने दे दी थी दिव्यदृष्टि यह मैं हूँ यह मैं हूँ कहते हुए उनकी विधवाएँ उन्हें तकती रहीं अपलक दु:शला अपने सौ भ्राताओं और पति जयद्रथ को देखती रोती रही युयुत्सु अब भी विलग खड़ा रहा हाथ जोड़े
सभी ने पूछा कृष्ण नहीं हैं किन्तु वे द्वारका में तत्पर हो रहे थे किसी और दृश्य के लिए जिसमें मृतक नहीं मृत्यु आएगी सरिता से नहीं सागर से
अभिमन्यु ठिठका रहा उत्तरा के केशों में कुछ रजत तार देखता हुआ साथ में था परीक्षित् अब अपने पिता की आयु का सोलह वर्ष का पिता और सोलह वर्ष का पुत्र देखते रहे एक-दूसरे को अपने से दुगनी आयु की भार्या-माँ के साथ व्यास का वचन था कि वे केवल कौरव और पांडव वंशों तथा उनकी विधवाओं का समागम करवाएंगे दिवंगतों से किन्तु उन्होंने कल्पना न की थी कि यदि मात्र कुरुवंशियों का आव्हान करेंगे तो पांचाल केकय निषाद पिशाच चोल पांड्य भोज शक म्लेच्छ यवन गान्धारादिक सभी वीर भी उनके साथ चले आएंगे
जब मृतात्माएँ लौटने का विवश संकल्प कर ही लेती हैं तो वे कोई अवरोध नहीं जानतीं किन्तु इन अनाहूतों के स्वजन-परिजन विधवाएँ यहाँ गंगा-तट पर नहीं चतुर्दिक सुदूर थे अतएव वे इस सीमित माया और लीला के मात्र कुतूहलमय दर्शक रहे कि उन्होंने किनके लिए युद्ध में वीर-गति का वरण किया था पर-यथार्थ देखते हुए उन्हें स्व-कल्पना से कैसे रोका जा सकता था जबकि यदि वह कुछ था तो अर्ध-यथार्थ ही था व्यास-लीलाओं व्यास-मायाओं व्यास-विद्याओं का कोई अंत न था सोलह वर्ष बीत चुके थे उन अठारह दिनों के पश्चात्
जो उस समय बाल्यावस्था में थे उनपर अब यौवन था उन्हें अपने मृतकों की बहुत स्मृति नहीं थी न परायों का ज्ञान न वे कुतूहलमय थे उनकी आकांक्षाएँ और स्वप्न अलग थे इस दृश्यभ्रम से जाना चाहते थे वे
जो प्रकटे थे वे अपनी मृत्यु के क्षण जैसे थे जबकि उनकी पत्नियाँ गतार्तव हो चुकी थीं कहते हैं अधिकांश ने वैधव्य-धर्म निबाहा किन्तु कुछ ने विवाह किया कुछ ने प्रणय कई लाई थीं अपने साथ अपने नए पतियों पुत्र-पुत्रियों पौत्र-पौत्रियों को अलग-अलग लालसा भय औत्सुक्य अन्यमनस्कता अरुचि सहित
क्या हो चुके थे मृत क्या हो गए थे जीवित अर्थ बदल गए दिवंगत और सजीव होने के वह मृत्यु जीवन थी या यह जीवन मृत्यु था कोई अंतर था भी मृतक और सप्राण होने में क्या था वरेण्य यह जीवन या वह मृत्यु किसी ने कोई प्रश्न नहीं किया किसी ने नहीं दिया उद्बोध जो था समक्ष था कोई विप्रलंभ उपालंभ नहीं थे मृत पुरुषों और जीवित स्त्रियों के बीच वह भ्रम था आलिंगन चुम्बन सहवास का क्या होता है सम्भोग विधवाएँ भूल चुकी थीं पुरुष जिसे निष्पादित कर रहे थे यंत्रवत्
ब्राह्ममुहूर्त पर टूटना ही था व्यास के इन्द्रजाल को कोई रुकना नहीं चाहता था इहलोक में वैसे भी सभी के कलेवरों का हो चुका था कुरुक्षेत्र में दाह-संस्कार किसी ने भी मुड़कर नहीं देखा दुर्लक्षित किया दुबारा अंतिम विलाप को नहीं रोका उन विधवाओं को जो उनके पीछे दौड़ती हुई गंगा में सती हुईं उनके लिए यह सब एक औपचारिक कर्मकाण्ड हो चुका था वे न आए थे न आना चाहते थे मात्र इस एक रात्रि के आख्यान के लिए उन्होंने स्वयं को दुबारा रच लेने दिया था महाभारत-प्रणेता की मर्यादा की रक्षा हेतु अन्यथा यह कर्म निष्काम था
वे लौटे
होते-होते
जब मैं अपने उन विशिष्ट परिचितों को जिन्हें मैं मानता हूँ कि कमीने हैं अपने उन मित्रों से बात करते देखता हूँ जो उन्हें उससे पहले नहीं जानते थे तो बाद में वे मेरे खास वाक़िफ भले ही यह सुपरिचित दावा करें कि अब मेरे वे अज़ीज़ उन्हें मुझसे बेहतर चाहते मानते हैं मैं कुछ नहीं कहता क्या पता मैं उन्हें इसलिए कमीना समझता हूँ कि उतना पहचानने लायक कमीनापन मुझमें भी बचा है
मैं ऐसा क्यों न मानूँ कि जब वे अपने उस अस्थायी पूरे भलेपन और सम्मोहन से मेरे दोस्तों से बोल रहे होते हैं तो अपने व्यक्तित्व का सर्वश्रेष्ठ उनके सामने रख रहे होते होंगे और तब क्या उस वक्फे में वा$कई वे थोड़े-बहुत वैसे नहीं हो जाते होंगे? हरेक को पूरा मौका क्यूँ न मिले खुद को लम्हाती तौर पर ही सही लेकिन भला ईमानदार मेधावी दिखने और समझे जाने का ज़्यादा नहीं तो तभी तक होने दो इस दुनिया को लेश-मात्र बेहतर खूबसूरत और विश्वसनीय क्या पता होते-होते वह हमेशा के लिए पूरी वैसी हो जाय
टिप्पणी : तीन पत्ते वाली कविता का मसविदा पहली बार 'प्रभातवार्ता' (अब बंद) में आया था। यह उससे भिन्न मसविदा है। विलोम और सरस्वती वंदना, कविताएं प्रभात खबर के पिछले दीपावली अंक में आई थीं। यह व्यापक रूप से वितरित नहीं हुआ। |