जातिवाद के चक्रव्यूह में दलित स्त्री

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    जून 2019
श्रेणी जातिवाद के चक्रव्यूह में दलित स्त्री
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम सूरज पालीवाल





मूल्यांकन/कुठाँव-अब्दुल बिस्मिल्लाह

 

 

 

अब्दुल बिस्मिल्लाह लंबे समय से लिख रहे हैं।  उपन्यास के रूप में यह उनका आठवां उपन्यास है कुठांव । 'कुठांव’ शब्द उन्होंने मलिक मोहम्मद जायसी से लिया है-'मारेसि मोहिं कुठांव’  और समर्पण में लिखा है 'यह बदसूरत किताब सितारा और हुमा ही नहीं, बल्कि उन जैसी तमाम लड़कियों के नाम’। समर्पण उपन्यास के अर्थ खोलता है, अधिकांश समर्पण यह महत्वपूर्ण काम नहीं करते, इसलिये नहीं करते कि अपने मित्रों और परिचितों को समर्पित होते हैं लेकिन हुमा और सितारा अब्दुल बिस्मिल्लाह की रिश्तेदार और मित्र नहीं हैं बल्कि वे ऐसे चरित्र हैं, जिनके जीवन संघर्ष को पढ़कर रूह कांप जाती है । शायद इसीलिये उन्होंने इसे बदसूरत किताब कहा है, स्त्रियों के भयावह और घृणित शोषण की कोई किताब सुंदर नहीं हो सकती। 

अब्दुल बिस्मिल्लाह ने उपन्यास के बारे में 'कहना जरूरी है’ के अंतर्गत दो महत्वपूर्ण बातें साझा की हैं, जिन्हें उपन्यास में कहने की परंपरा नहीं के बराबर है-एक, पहली बात तो यह कि इस उपन्यास में पाठकों को दो आपत्तिजनक बातें दिखेंगी: कुछ-कुछ अश्लीलता और जातिसूचक शब्दों; जो कि आज के युग में असंसदीय या निषिध्द हैं का प्रयोग। मगर यह मेेरी मजबूरी थी। उपन्यास की कथावस्तु के हिसाब से इनसे बच पाना मेरे लिये लगभग असंभव-सा था। फिर भी मैं इसके लिये क्षमाप्रार्थी हूं। दूसरी, अंतत: यह उपन्यास सन्  2013 के अंत में पूरा हो गया। चूंकि मैंने इसे, जैसा कि मैंने बताया कि अत्यंत तनावग्रस्त अवस्था में लिखा था, इसलिये मैंने महसूस किया कि इसमें कई तरह की गड़बडिय़ां हो सकती हैं। इसलिये मैंने इसकी पांडुलिपि अपने  प्रिय शिष्य और अब प्रोफेसर चंद्रदेव यादव को पढऩे के लिये दी। मैंने उनसे यह भी कहा कि वे न सिर्फ  इसकी चीर-फाड़ करें बल्कि इसे साफ-सुथरे ढंग से लिख भी दें क्योंकि मैं अपने लेखन में बहुत काट-पीट करता हूं और उस काट-पीट को वही समझ सकते हैं। मैं प्रो. चंद्रदेव यादव का आभारी हूं कि उन्होंने इस उपन्यास की पुनरावृत्तियों एवं कमियों की जांच-पड़ताल तो की ही, इसके आरंभिक चार अध्यायों को साफ-सुथरे ढंग से लिखा भी ।’ बिस्मिल्लाह साब की यह सफाई अपने शिष्य मित्र के लिये शुभाशीष की तरह है पर क्या कारण है कि दोनों हिंदी के आचार्य होते हुये भी उपन्यास के आरंभ में ही कुछ कमियां छोड़ देते हैं  'इस पूरे इलाके में अक्सर ही कई अवसरों पर मेले लगा करते थे।’ 'अक्सर और कई अवसरों पर’ शब्दों में मुझे पुनरावृत्ति की झलक दिख रही है। डॉ. चंद्रदेव यादव से मैं भी परिचित हूं इसलिये कह सकता हूं कि वे निरे प्राध्यापक हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि 'निरे प्राध्यापक’ चाहे वे कोई हों, रचना प्रक्रिया के अंदर प्रविष्ठ कर उसे साध सकने की क्षमता नहीं रखते। किसी रचना में व्याकरणिक और वर्तनीगत अशुद्धियों को दूर करने और उसकी रचनागत कमियों को सुधारने में अंतर है, इसी अंतर के कारण उपन्यास में बहुत सारे झोल रह गये हैं, जिनकी चर्चा प्रसंगानुसार आगे की जायेगी।

अब्दुल बिस्मिल्लाह उपन्यास में दो मुद्दों को विशेष रूप से उठाते हैंं- एक, मुसलमानों में जातिवाद तथा दो, स्त्री पुरुष संबंध। दोनों ही मुद्दे मुस्लिम समाज को आइना दिखाते हैं। इस हिसाब से यह उपन्यास 'झीनी झीनी बीनी चंदरिया’ से आगे का उपन्यास है। पर 'कुठांव’ को पढ़ते हुये मुझे उनके अंदर बैठी स्त्री देह की कुंठा भी बार-बार दिखाई दी है। इसलिये मैंने उनके प्रिय शिष्य चंद्रदेव यादव को फोन कर अपने मन की बात कही तो वे हंसने लगे। गुरु की इहलीला के बारे में कोई शिष्य क्या कहे? पर वह 'हंसी बहुत कुछ कहती थी’ । बिस्मिल्लाह के यहां स्त्री पुरुष संबंधों में स्त्री देह जिस रूप में बार-बार आती है, वह स्वस्थ संकेत नहीं है। लेकिन इसका जिक्र मैं बाद में करूंगा। अभी तो मुस्लिम समाज में जातिवाद पर ही केंद्रित रहूंगा। यह विडंबना ही है कि जिस धर्म की स्थापना के मूल में समता और समानता का भाव रहा हो, वह धीरे-धीरे कैसे छोटी-छोटी जातियों में उसकी ऊंच-नीच में बंटता चला गया। बिस्मिल्लाह जातिपांति के भेद को उभारने के लिये 'पद दलित मुस्लिम समाज’ नामक संगठन भी खड़ा करते हैं जो छोटे से लेकर बड़े मुसलमानों को जातिवाद के विरोध में समझाने का काम करता है। इसकी शुरूआत सलमान करता है जो इस संगठन का सक्रिय कार्यकर्ता है । वह कहता है 'हमारे समाज का सबसे बड़ा छेद है जातिवाद, जिसे हिंदुओं ने तो समय रहते समझ लिया है मगर हम मुसलमान हैं कि अभी तक न जाने किस छेद में दुबके बैठे हैं।’ नईम बड़े खानदान से हैं इसलिये वे सलमान का विरोध करते हैं। दरअसल, जातिवाद का दंश छोटी जातियां ही झेलती हैं, वे ही इसका शिकार होती हैं, बड़ी जातियां तो इसे बनाये रखने का प्रयत्न करती हैं जिससे उनकी चौधराहट चलती रहे। इसलिये नईम सलमान की बात को नहीं मानता। सलमान आक्रोश में अपना तर्क देता है 'अरे नईम मियां, आप हैं कहां? किस मुल्क में रहते हैं आप? हिंदुस्तानी समाज में जितनी जातियां हिंदू समाज में हैं लगभग उतनी ही जातियां मुस्लिम समाज में भी हैं। क्या आपको पता है कि मैं नाई हूं और रफीक धोबी है। मुसलमानों में कुंजड़े हैं, जुलाहे हैं, धुनियां हैं, चूडि़हार हैं, मनिहार हैं, कसाई हैं। और तो और हेला भी हैं- यानी पाखाना साफ  करने वाले, जिन्हें पहले मेहतर कहा जाता था और बाद में हलालखोर कहा जाने लगा। हिंदोस्तान में जब मुसलमान आये तो यहां की हर उस जाति के लोगों ने इस्लाम धर्म अपनाया जो हिंदू समाज में उपेक्षित थे। क्योंकि इस्लाम के हाथ में मसावात का झुनझुना जो था। मगर यह झुनझुना सिर्फ  देखने और बजाने में अच्छा लगता था।’ नईम ने इसे इस्लाम का विरोध माना तो बात को रफीक ने आगे बढ़ाया 'पेशे वही रहे। नाई, नाई ही रहा और धोबी, धोबी। सिर्फ  उनके नाम बदल गये। रामू नाई रहमान नाई बनकर रह गया। जैसे रामू नाई, ठाकुर साहब की चारपाई पर नहीं बैठ सकता था वैसे ही रहमान नाई भी खां साहब या सैयद साहब की चारपाई पर बैठने की हिम्मत नहीं कर सकता था। और यही स्थिति अब भी है।’

दरअसल, जो मुसलमान बाहर से आये उनमें से अधिकांश यहीं रच-बस गये। वे इस समाज में ऐसे रचे-बसे कि हिंदू धर्म की कितनी बातें, कितनी परंपरायें और कितने रीति-रिवाज अनजाने में उनके धर्म में मिलते चले गये, इसका हिसाब सामान्यत:  समझ में नहीं आता। जब सोचने बैठते हैं तो लगता है कि सैकड़ों साल साथ रहते हुये एक दूसरे से बहुत कुछ लेते-देते रहने के कारण यह सब हुआ है ? जैसे भाषा के साथ हुआ, हम भले ही यह कहते रहें कि हम हिंदी बोल रहे हैं पर हिंदी में कितने ऐसे शब्द हैं जो उर्दू, फारसी और अरबी भाषाओं से आकर हिंदी के अपने शब्द हो गये हैं। जिस प्रकार बाहर से आये हुये शब्दों से भाषा समृद्ध होती है उसी प्रकार समाज और धर्म भी एक दूसरे के संपर्क में आकर समृद्ध होते हैं। अच्छी बात है कि इसे अब्दुल बिस्मिल्लाह भी मानते हैं। लेकिन अच्छाई के साथ बुराई भी समाज का हिस्सा हो जाती है। हिंदू धर्म में हजारों साल से जाति प्रथा विद्यमान है जिसके कारण ऊंच-नीच भी बहुत है। इस जाति प्रथा की सचाई यह है कि इसे न तो मुसलमानों ने खत्म किया और न अंग्रेजों ने बल्कि यह भी सच है कि इसे खत्म करने के बारे में किसी ने सोचा तक नहीं। क्योंकि हर शासक यह मानकर चलता रहा कि नियम कानून आर्थिक लूट और अनुशासन को अमलीजामा पहनाने के लिये होते हैं, समाज को बदलने के लिये नहीं। जिस दिन समाज को बदलने के बारे में सोचने लगेंगे उस दिन समाज की रूढिय़ों में विश्वास रखने वाले अधिसंख्य लोग सत्ता को ही बदल देंगे। इसके उदाहरण हमारे समकालीन समाज में पनसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की सामूहिक हत्या है। तीनों की हत्याएं एक ही तरह से की गई और चोरी छुपे नहीं बल्कि सरेआम की गईं। यह वास्तविकता है कि समाज को बदलने वाले कम होते हैं और रूढिय़ों पर चलने वाले अधिक। तो जो अधिक हैं वे कम संख्या वाले क्रांतिकारियों को क्यों चाहेंगे कि वे समाज को बदलें? वे तो चाहते हैं कि समाज जिस तरह चल रहा है, चलता रहे। सती प्रथा है तो रहे, सबरीमाला में 10 से 50 साल की औरतें दर्शन के लिये नहीं जा सकतीं तो नहीं जायें, चाहें सर्वोच्च न्यायालय स्त्री पुरुष समानता के कितने भी फैसलेे देता रहे, दक्षिण के मंदिरों में अधोवस्त्र पहनकर जाने की परंपरा है, वह रहनी चाहिये, कोई आदमी पेंट पहनकर मंदिर नहीं जा सकता तो नहीं जाना चाहिये, रामेश्वरम में यदि समुद्र और 27 कुंओं में नहाने की परंपरा है तो वह चलती रहे। मेरे मन में कई बार यह प्रश्न आता है कि क्या कारण है कि कोई सवर्ण आदमी या नेता दिखा-दिखाकर दलित के यहां भोजन करता है और बाद में उसे अपनी प्रगतिशीलता भी मानता है कि उसने दलित के यहां भोजन किया। यदि उसके मन में ऊंच-नीच का भेद नहीं है तो वह नि:संदेह प्रगतिशील है, और जब प्रगतिशील है तो फिर दिखावा क्यों?

अब्दुल बिस्मिल्लाह जातिवाद को समाप्त करने के लिये तीन लोगों का संगठन बनाते हैं लेकिन वह संगठन मुस्लिम समाज में कितना प्रभावी है, इसका कोई प्रमाण उपन्यास में नहीं है। केवल कुछ लोग भाषण दे दें, कुछ लोगों को समझा दें इससे जातिवाद समाप्त नहीं हो सकता। जातिवाद की समाप्ति के लिये जिस प्रकार के आंदोलनों की जरूरत होती है, उस तरह के आंदोलनों की उपन्यास में कमी है। उपन्यास में यह कमी भी खलती है कि संगठनकर्ता नईम जैसे खां साहब को आंदोलन में सम्मिलित होने के लिये क्यों कहते हैं? अब्दुल बिस्मिल्लाह तो स्वयं प्रगतिशील हैं, प्रगतिशील लेखक संगठन में भी रहे हैं फिर यह गलती क्यों करते हैं कि जातिभेद या ऊंच नीच को समाप्त करने के लिये ऊंची जातियोंं का सहयोग क्यों चाहते हैं? जो लोग जन्म के आधार ऊंचे बने बैठे हैं, वे क्यों चाहेंगे कि उनका यह रुतबा खत्म हो? इसी रुतबे के कारण 'हिंदुओं में जैसे कोई भी ब्राह्मण या ठाकुर यह कहता हुआ मिल जायेगा कि मैंने गांव की किसी चमारिन, पासिन या खटकिन को नहीं छोड़ा है उसी तरह कोई खां साहब या सैयद साहब के साहबजादे यह कहते हुये आपको आसानी से मिल जायेंगे कि मैंने इलाके की किसी जुलाहिन, चुडि़हाइन या धोबिन को नहीं छोड़ा है। सब मेरी जांघों के नीचे से निकलकर अपनी सुहागरात मनाने गई हैं।’ यह बेशमीपूर्ण गर्वोक्ति उन्हें  जातिवाद ने ही दी है इसलिये नईम खां जो गोपालगंज के जमींदार अली हुसैन खां के बेटे हैं, क्यों चाहेंगे कि कुछ सिरफिरों के कहने से वे ऐसे संगठन से जुड़ें जो उन्हीं के विरोध में खड़ा किया गया है। संगठनकर्ता सलमान क्यों चाहता है कि 'अगर तुम आ जाओ और मुस्लिम समाज में व्याप्त जातिवाद जैसी कुप्रथा तथा पद-दलित मुसलमानों के अधिकार विषय पर एक भाषण दे सको तो अच्छा रहेगा। तुम्हारे आने से हमें बल मिलेगा। बाहर यह संदेश जायेगा कि एक खां साहब भी हमारे साथ हैं।’ आंदोलन की शुरूआत में नईम जैसे लोग अपने अंदर बैठे आभिजात्य से लड़ सकने में असमर्थ रहते हैं। यह बात दूसरी है कि आंदोलन धीरे-धीरे बढ़ता जाये और समाज में अधिसंख्यक लोग उसके साथ जुड़ते चले जायें तो कुछ प्रगतिशील ऊंची जाति वाले भी उससे जुडऩे में अपनी प्रगतिशीलता समझने लगते हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह का यह कहना भी तार्किक नहीं है कि 'टाउनहॉल वाले कार्यक्रम में नईम नहीं गया था। उस इतवार को वह कमरे में ताला लगाकर गायब हो गया था। वह डर रहा था कि कहीं उसे वे लोग पकड़ न ले जायें। दरअसल वह मुसलमानों के जातिवाद में फंसना नहीं चाहता था।’ भारतीय समाज के सामाजिक तानों-बानों और जातिभेद की संरचना को देखें तो डर नईम के अंदर नहीं बल्कि सलमान और अन्य संगठनकर्ताओं के मन में होना चाहिये था। नईम का डर यदि डर है तो भारतीय समाज की जटिलताओं को न समझ पाने के कारण उत्पन्न हुआ है, जो उचित नहीं है। 

'कुठांव’ में यह तथ्य विशेषरूप से रेखांकित किया गया है कि इस्लाम धर्म में समानता के दर्शन से प्रभावित होकर समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी भंगी जाति  ने इस्लाम स्वीकार तो कर लिया लेकिन उसके पेशे में कोई अंतर नहीं आया। अब्दुल बिस्मिल्लाह लिखते हैं 'लेकिन काम उनका वही रहा-पाखाना साफ  करना। चमार और पासी आदि जातियों ने जब इस्लाम स्वीकार करने के बाद अपने पेशे से मुक्त होना चाहा तो उन्हें मार-मारकर भंगी बना दिया गया। फिर यह मुहावरा ही बन गया ।’ यहां यह भी स्पष्ट किया गया है कि 'मुसलमानों में एक भी चमार मुसलमान नहीं मिलेगा, मगर चमड़े का सारा बिजनेस मुसलमानों के हाथ में है। चाहे उत्तर प्रदेश का कानपुर हो या मध्यप्रदेश का जबलपुर।’ प्रश्न यह है कि जब सारी नीची जातियोंं ने इस्लाम स्वीकार किया तो चमारों ने क्यों नहीं? इस प्रश्न का जवाब उपन्यास ही देता है 'हो सकता है वे सभी भंगी बना दिये गये हों।’ यह उत्तर सही हो सकता है क्योंकि समाज में चमारों की हालत भी अच्छी नहीं थी इसलिये उन्होंने भी धर्म परिवर्तन तो किया ही होगा और प्रकारांतर से उन्हें भी भंगी बना दिया गया होगा। दरअसल, सामंती शासन में जिसने भी आंख उठाने की कोशिश की उसे तत्काल कुचल दिया गया। भंगी बनाकर अपना पाखाना उठवाना भी एक प्रकार से कुचलना ही है। मैं जब शाजी जमा का उपन्यास 'अकबर’ पढ़ रहा था तो एक तथ्य ने मेरा ध्यान बार-बार खींचा कि बादशाह नाराज होकर दंड देता कि 'जूते में गू भरकर इसके मुंह पर मार दो।’  मनुष्य का गू सबसे गंदी चीज मानी जाती है और आधुनिक तकनीक नहीं आने तक भंगिनें अपने सिर पर गू से भरा तसला लेकर बाहर फेंकने जाती थीं। यह बहुत ही अमानवीय समस्या थी, जिसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। हमारे जैसा ही एक मनुष्य हमारी अपनी गंदगी को सिर पर रखकर बाहर फेंकने जाये, यह शर्मनाक नहीं तो फिर शर्मनाक क्या होगा? महात्मा गांधी ने इसी प्रसंग में 'शौचालय को मंदिर कहा होगा’ और दक्षिण अफ्रीका पहुंचकर अपनी ही पत्नी से गंदगी भरा पात्र साफ  करने को कहा होगा, बा वैष्णव संप्रदाय से थी, वे गांधी जी की तरह न तो बैरिस्टर थीं और न विदेश घूमकर आई थीं। गांधी जी का यह आदेश उन्हें बुरा लगा और गांधीजी जैसे जिद्दी व्यक्ति ने उन्हें घर से निकालकर बाहर खड़ा कर दिया। विदेशी भूमि पर गांधी जी का अपनी पत्नी के प्रति यह आचरण उन्हें प्रश्नों के घेरे में लाता है पर भारतीय समाज में भंगियों की नजरों से देखें तो गांधी जी अपने समय से बहुत आगे थे। यही नहीं 1893 में दक्षिण अफ्रीका जाने के लगभग एक दशक बाद वे भारत आये तब दक्षिण अफ्रीका में उनके किये गये कामों की कीर्ति हिंदुस्तान तक नहीं पहुंची थी। लेकिन कांग्रेस की आम सभा के दौरान उन्होंने देखा कि पाखाने भरे हुये हैं और उन्हें साफ  करने वाले बहुत कम लोग हैं तो उन्होंने पानी की बाल्टी और तसला फावड़ा लेकर पाखाने साफ  करने शुरू कर दिये, तब सबके कान खड़े हुये और पूछा कि यह आदमी कौन है? तब नेताओं को मालूम हुआ कि दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हितों के लिये लडऩे वाले मोहनदास गांधी हैं। यह सामान्य काम नहीं है पर इस असामान्य काम को एक जाति विशेष ही क्यों करे? गांधी जी ने इस प्रश्न का उत्तर अपने आचरण से दिया। यही नहीं अपने आश्रम भी दलित बस्तियों में बनवाये तथा एक कन्या गोद ली तो वह भी हरिजन कन्या ही थी।

वर्ण-व्यवस्था जो अब जातिवाद के रूप में अमरबेल की तरह पूरे समाज की हरियाली को आच्छादित कर रही है, लगातार फैल रही है। जिस जातिवाद को वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के साथ समाप्त हो जाना चाहिये था, वह लगातार बढ़ रहा है। अब राजनेता उसमें खाद और पानी डाल रहे हैं और अपनी फसल काट रहे हैं। मीडिया से लेकर शिक्षा के उच्च संस्थानों तक में जातिवाद के आधार पर नियुक्ति और तरक्की तय होने लगी हैं। एक जमाना था जब जातियों के बारे में पूछना तथा बताना दोनों ही अच्छे नहीं माने जाते थे लेकिन अब खुले आम जातियों की महत्ता गिनाई जाती है और बताया जाता है कि हमारी जाति में कितने राजनेता और कितने प्रशासनिक अधिकारी हैं। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने जातिवाद के इसी पक्ष को मुसलमानों की तरफ  से उठाया है लेकिन बड़ी और मजबूत दीवार को तोडऩे के लिये जिस ताकत की जरूरत होती है, उसका प्रयोग वे नहीं कर पाये हैं।

'कुठांव’ में हुमा का चरित्र जिस रूप में उभारा जाना चाहिये था, वह विरोध की सामाजिक स्वीकारोक्ति के अभाव में उतना तेजस्वी नहीं हो सका जितना इद्दन और सितारा का। इद्दन का संघर्ष बड़ा है लेकिन उसकी महत्वाकांक्षाएं उसे ध्वस्त करती रहती हैं। इद्दन के मन में एक नैसर्गिक चिंता है कि उसे समाज में जिस प्रकार हेय समझा जाता है उस तरह उसके बच्चों को न समझा जाये। जब पहली बार इद्दन का पति उसे दूसरों का पाखाना साफ करने के लिये कहता है तो उसकी चिंता एकदम उभरकर आती है। उपन्यास में यह चित्रण मार्मिक ढंग से रेखांकित किया गया है। इद्दन का पति सुबराती उससे कहता है-'इज्जत-विज्जत की बात छोड़ो, साफ-साफ  बताओ कि कमाई करने लिये तुम क्यों नहीं जाना चाहतीं? साफ-साफ  बोलूं? हां, बोल। मुझे घिन आती है। ऐसा ही था तो हेला के घर पैदा क्यों हुई? पैदा तो हमारे बच्चे भी होंगे, मगर क्या हमारे बच्चे भी लोगों के गू-मूत साफ  करेंगे? मैं तो अपने बच्चों को यह सब नहीं करने दूंगी। तो फिर वो क्या करेंगे? सुबराती ने पूछा तो इद्दन ने जवाब दिया- मैं उन्हें पढ़ाऊंगी और इज्जतदार इंसान बनाऊंगी। तुम पागल हो गई हो। अपनी औकात भूल गई हो। हमारी किस्मत में यही सब लिखा है। किस्मत में किसने क्या लिखा है, वह अच्छी तरह मैं समझ गई हूं। अगर यही सब करना है तो तुम जाकर क्यों नहीं करते? मेहरारू को क्यों भेजते हो?’ यह केवल पति-पत्नी का संवाद-भर नहीं है बल्कि मूल प्रश्न है। वह जिन परिस्थितियों में रह रही है या रहने को विवश है, वह परिस्थितियां उसके बच्चों को न देखनी पड़ें। हर मां चाहे वह हेला हो या सवर्ण सब इसी प्रकार अपने बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित रहती हैं । इद्दन का यह कहना 'किस्मत में किसने क्या लिखा है, वह अच्छी तरह मैं समझ गई हूं’ बड़ा कथन है। पति नामक संस्था अपनी पत्नी से इस प्रकार के प्रश्न सुनने को तैयार नहीं होती, समाज में उसकी नाक बहुत लंबी होती है इसलिये जरा-सा हवा का झोंका उसे छेड़ देता है पर इद्दन तो साहस के साथ पति से प्रश्न कर रही है।

'किस्मत’ के नाम पर हर बड़ा आदमी और बड़ी जाति नीचे वालों का शोषण करती आयी हैं। मुझे इसी प्रसंग में 'होरी’ और 'गोबर’ का संवाद याद आता है जिसमें गोबर कहता है कि राय साहब 'किसके बल पर यह भजन भाव और दान धर्म होता है’ होरी कहता है-अपने बल पर।’ पर गोबर अपने पिता के विचार से सहमत नहीं है वह अपनी बात रखते हुये कहता है 'नहीं किसानों के बल पर और मजदूरों के बल पर। हमें कोई दो जून खाने को दे दे तो हम आठों पहर भगवान का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोडऩा पड़े तो सारी भक्ति भूल जायें।’ होरी अपने बेटे से ही हारकर कहता है 'अब तुम्हारे मुंह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान की लीला मेंं भी टांग अड़ाते हो।’  हर गरीब आदमी की तरह होरी भी यह मानकर चल रहा है कि 'संपत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्व जन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनंद भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा तो भोंगे क्या?’ यह भाग्यवाद है, जिसे गोबर नहीं मानता उसी तरह इद्दन भी नहीं मानती। वह किस्मत और किस्मत बनाने वालों को ही ठेंगा दिखाती है। यह विद्रोह है पर सामाजिक व्यवस्था की कडिय़ां इतनी मजबूत हैं कि वह अकेली उन्हें तोड़ नहीं पाती। इसलिये कांख में तसला लेकर खां साहब की खुड्डी साफ  करने निकल गई। यह घटना का अंत नहीं है बल्कि शुरूआत है। शुरूआत इसलिये कि जिन खां साहब के यहां खुड्डियां घर से बाहर इसलिये बनी हैं कि भंगिन घर में न आने पाये, जिनसे बात करके भी उन्हें घिन आती है उन्हीं खां साहब का बेटा एक दिन इद्दन को पकड़ लेता है। 'इद्दन खुद को छुड़ाने की बहुत कोशिश करती है, मगर सफल नहीं होती। असलम उसी मुद्रा में दरवाजे की अंदरूनी सांकल लगाता है और इद्दन को अपनी चारपाई पर लगभग पटक-सा देता है। फिर वह इद्दन को नोचने-खसोटने लगता है और उसके कपड़ों को खोलना शुरू करता है। सबसे पहले उसका हाथ ब्लाउज पर जाता है। इद्दन उसके चंगुल से मुक्त होने के लिये कसमसाने लगती है। मगर असलम की जकडऩ इतनी मजबूत थी कि वह कुछ नहीं कर पाती। .... असलम मियां ने आखिर अपना मकसद पूरा कर लिया। आखिर में इद्दन रोने लगी तब असलम मियां को थोड़ा डर-सा लगा कि अड़ोस-पड़ोस के लोग कहीं उसका रोना-धोना सुन न लें, इसलिये उन्होंने इद्दन से कहा, 'चोप्प! हमने तुम्हें मारा-पीटा नहीं है, फिर ये टेसुए क्यों बहा रही हो?’ इद्दन कहती है- 'मार-पीट लेते साहब तो अच्छा था मगर आपने तो मेरी इज्जत को ही तार-तार कर दिया । अब मैं किसको क्या मुंह दिखाऊंगी?’ तब असलम का असली रूप सामने आता है और वह कहता है 'तुम लोगों के पास क्या इज्जत नाम की भी कोई चीज होती है?’ गोपालगंज में वही असलम मियां हेलिन होने के कारण इद्दन का छुआ पान और सितारा के हाथ से सर्बत नहीं लेते, तब इद्दन अतीत से पर्दा हटाते हुये सितारा से कहती है 'असलम खां वही हैं जिन्होंने तुम्हारे हाथ का दिया सर्बत नहीं पिया, न ही मेरा दिया पान खाया । ये असलम मियां जिस गांव के हैं, वहीं हम लोग भी रहते थे और इनके यहां मैं कमाई करने यानी इनके घर की खुड्डी का पाखाना साफ करने जाया करती थी। एक दिन जब मैं इनके यहां कमाई के बदले रोटी लेने गई तो घर अकेला था। इनके मां-बाप किसी दावत में गये थे। मुझे अकेली पाकर असलम मियां ने मेरे साथ जोर-जबर्दस्ती की और मुझे डराया-धमकाया भी। इनके बाप उस गांव के बहुत बड़े रईस थे। मजाल नहीं थी कि कोई नीच जात उनसे आंख मिला सके। अगर उन्होंने आम को अमरूद कह दिया तो सभी को अमरूद ही कहना पड़ता था। अपने इसी रोब-दाब का फायदा उठाकर उस रोज असलम खां ने मेरे साथ जिना यानी बलात्कार किया। और फिर यह सिलसिला लगातार चलता रहा। अपने घर में मौका न मिलता तो हमारे यहां चले आते। मेरा मरद तो मदक के नसे में चूर चमरौटी और पसियाने में लुढ़का पड़ा रहता... इसी बीच तुम पैदा हो गई।’ यह केवल बताना भर नहीं है और न मां बेटी का संवाद भर है बल्कि इद्दन की गहरी टीस है, जिसे वह अपनी बेटी से बताती है कि जातियों का आभिजात्य कितना सबल है कि जो आदमी बलात्कार से उत्पन्न अपनी ही बेटी का छुआ सर्बत न पी सके और जिसके साथ देह संबंध बनाये थे उसके हाथ का बनाया पान न खा सके, यह आभिजात्य उसे उसकी ऊंची जाति ने दिया है। वह हेलिन है इसलिये सब कुछ बर्दाश्त करने के लिये मजबूर है।

मूल समस्या यही है आभिजात्य-वर्ग मानकर चलता है कि नीची जातियों की औरतों की कोई इज्जत नहीं होती। सवर्ण जातियों या जमीदार इत्यादि सबल-वर्ग को यह अधिकार होता है कि वे उनकी औरतों के साथ संबंध बनायें। असलम जैसे युवाओं के मन में यह भावना कैसे आई कि भंगिनों, धोबिनियों और जुलाहिनों को 'दोनों जांघों के बीच दबाकर रखने का काम तो मर्द ही कर सकते हैं। और वह भी हिंदुओं के सवर्ण मर्द और मुसलमानों के अशराफ । क्योंकि इन्हीं लोगों से उसने सुन रखा था कि इस गांव की एक भी चमारिन, पासिन, धोबिन या जुलाहिन ऐसी नहीं है जो हमारी जांघों के बीच दबने से बची रह गई हो।’ यह भावना सवर्ण  और अशराफ  जैसे युवाओं के मन में बैठा दी जाती थी। पर उस भावना का क्या हुआ जो उन्हें अछूत भी मानती थी और साथ सोने में कोई परहेज भी नहीं करती थी?  पवित्रता और अपवित्रता का यह भाव स्वार्थ केंद्रित रहता है, जो सवर्ण और अशराफों के हाथ में एक प्रकार से जातिगत हथियार ही है। उपन्यास पढ़ते हुये यह बात स्पष्ट नहीं होती कि इद्दन ने अपने जीवनानुभवों से लाभ क्यों नहीं उठाया? समझदार आदमी वह है जो दूसरों के अनुभवों से लाभ उठाये और उससे कम समझदार वह जो अपने अनुभवों से कुछ सीखे पर इद्दन ने तो अपने ऊपर हुये बलात् संबंधों से भी कुछ नहीं सीखा। क्या कारण है कि वह अपनी जवान लड़की सितारा को गड़बड़ा के मेले में रात के समय नईम के तंबू में सोने के लिये भेज देती है। और अब्दुल बिस्मिल्लाह उस दृश्य को रूपायित करते हुये लिखते हैं 'पता नहीं उन दोनों को कुछ मालूम था या नहीं, मगर प्रकृति के समक्ष सारे रहस्य खुले हुये थे। अचानक सितारा को अपने बदन पर एक सरसराहट का अनुभव हुआ और वह चित्त हो गई। मानो अपने एक अंग के खींचे जाने से वह अकबका गई हो और दोनों अंगों को उसने समर्पित कर दिया हो। अपने दूसरे अंग पर भी उसे एक स्पर्श का अनुभव हुआ-आह्लादपरक अनुभव। वह सांस रोके चित्त पड़ी रही। स्पर्श करने वाला भी सांस रोके हुये था। कुर्ती के अंदर चिकनी मिट्टी से बना हुआ एक गोल आकार और उस पर किसी का हाथ। सांसों की आवाज और फिर एक अजीब खामोशी। स्त्री और पुरुष और स्त्री-दोनों के लिये मानो एक नया अनुभव। फिर एक इंद्रिय खिसकने लगी। नीचे। वह पुरुष की थी। स्त्री सावधान हो गई। सितारा ने करवट फिर बदल ली।’ फिर दूसरे दिन इद्दन ने नहीं सितारा ने स्वयं कहा 'अम्मा, मैं नईम भाई के तंबू में चली जाऊ?’ सितारा चली गई और 'रात गहरी होती जा रही थी और साथ ही ठंड भी। सितारा की तरफ रजाई थोड़ी कम पड़ रही थी। अत: नईम की तरफ थोड़ा और खिसक गई। फिर वह उनसे लिपट-सी गई। और .... और फिर सितारा को उसी स्पर्श का अनुभव हुआ जो कि पिछली रात में हुआ था। कुछ देर बाद वह सिहर उठी। ठंड की उस रात में रजाई के नीचे पसीना-सा कुछ बहा ... और सितारा ने एक रोमांचक-सा दर्द महसूस किया और बस।’

इस दृश्य को पढ़कर मेरे मन में दो प्रश्न अनायास उपस्थित होते हैं-एक, इद्दन के अनुभव अशराफों के बारे में अच्छे नहीं थे फिर उसने अपनी जवान होती लड़की को किसी अशराफ  लड़के के साथ सोने के लिये क्यों भेजा और भेजा था तो उस इज्जत का क्या हुआ जिसके लिये वह असलम से कह रही थी। साथ सोने और देह संबंध बनाने में मां की इज्जत तार-तार होती है तो बेटी की भी वैसी ही होती है। दूसरा, यह वर्णन या चित्रण जिन देह संबंधों की नग्नता का अतिक्रमण करता है वह किसी अच्छे उपन्यास के लिये अच्छे नहीं माने जा सकते। साहित्य तो संकेतों से काम लेता है, उसे इस तरह नंगे और उत्तेजक चित्रणों की जरूरत नहीं होती। वैसे अब्दुल बिस्मिल्लाह एक बार नहीं बल्कि बार-बार इस प्रकार के चित्रों और विवरणों का सहारा लेते हैं जैसे- 'गजेन्दर सिंह का दाहिना हाथ उसकी कमर में फंसा होता और बायां हाथ ऊपर उठा हुुआ। आबादी खत्म होते ही बायां हाथ नीचे गिरकर सितारा के गोलार्ध में घुस जाता। सितारा की साड़ी हवा में फरफराती। ब्लाउज के पीछे ब्रेसियर के बंद झलकते। धूप के चश्मे से बालों की लटें उलझतीं। पाउडर और लिपिस्टिक से दमकता हुआ चेहरा साक्षात् मुस्कान बन जाता। चलती हुई जीप में सितारा खड़ी होती तो साक्षात् किसी फिल्म की हीरोइन प्रतीत होती। अपना हाथ उठाती तो पसीने से भीगी हुई कांख लोगों के न जाने किन-किन अंगों को भिगो देती।’ .... 'नईम ने अब उसकी ओर ध्यान दिया। जुबैदा पहली बार उसे इतनी खूबसूरत लगी। उसकी ओढऩी संभल नहीं रही थी। वह भी उसे संभाल नहीं रही थी। बड़े गोल गले वाली शमीज के भीतर उसके अंग साफ दिख रहे थे। साटन की उस शमीज के अंदर उसने ब्रेसियर भी नहीं पहन रखी थी, इसलिये सिंदूरी आमों के आगे उगी हुई ललछौंही डोडियां भी झलक रही थीं।’ ... वहां जुबैदा एक तख्त पर चित्त होकर लेटी हुई थी और उसे नींद आ गई थी। उसके घुटने मुड़े हुये थे इसलिये उसका गरारा ऊपर सरक गया था। उसके उभार लो कट वाली शमीज के भीतर से झांक रहे थे। जुबैदा सांस लेती तो वे मानो बाहर निकलकर उसके चेहरे का दीदार करने को आतुर हो उठते।’ ... इद्दन गर्भवती थी इसलिये उसका सिर्फ  पेट ही नहीं फूला था, अन्य भागों के रूप भी बदल गये थे। उसकी सुडौल छातियां ब्लाउज फाडऩे के लिये बेताब दिखती थीं।  ... खां साहब का बेटा असलम उसकी इस देहयष्टि को देखकर बुरी तरह परेशान हो जाता था और अक्सर उसका पाजामा गीला हो जाता था।’ ... 'असलम ने उसी रोज अपने घर के सामने वाले कुयें पर 13-14 साल की एक लड़की को सिर्फ  साड़ी पहने नहाते हुये देख लिया था और उसकी साड़ी से चिपके हुये स्तनों को देखकर ऐसा बेचैन हुआ कि उसे भी खुड्डी में जाकर अपनी उत्तेजना को शांत करना पड़ा।’ ऐसे अनेक चित्र हैं जिनमें उपन्यासकार रस लेता है। मेले तमाशे, भीड़-बाजार इत्यादि में स्तनों को देखने और छूने के विवरणों की भरमार है, कस्बों और गांवों में इतने हल्के स्तर पर देह संबंध नहीं होते। और कहीं हैं भी तो मूल कथा के भटकाव का खतरा उठाकर ऐसे चित्र प्रस्तुत करने का कोई कारण समझ में नहीं आता ।

दरअसल, इद्दन ने सपना ही गलत देखा कि वह अपनी जाति को छुपाकर खां साहब या ठाकुर साहब के यहां अपनी बेटी का रिश्ता पक्का कर लेगी। अब्दुल बिस्मिल्लाह ने उपन्यास के कई पृष्ठ मुसलमानों में जाति-प्रथा की भयावहता पर लिखे हैं फिर वे यह क्यों सोचते हैं कि हिंदू और मुस्लिम समाज में जातिगत आधार पर सबसे नीचे की जाति अपनी पहचान और जाति बदल लेगी और सवर्ण उसे स्वीकार भी कर लेंगे। इद्दन ने दुनिया देखी थी, उसने देखा था कि नीची से नीची जाति भी हेलों से घृणा करती हैं । फिर क्यों उसके मन में महत्वाकांक्षा जागी जिसने उसकी लड़की का भविष्य ही नरक बना दिया। बिस्मिल्लाह लिखते हैं 'सितारा की अम्मां ने इसीलिये सब कुछ जानते-समझते हुये भी किसी किस्म की रोक-टोक नहीं की। सितारा की हकीकत तो गड़बड़ा के मेले में ही स्पष्ट हो चुकी थी, मगर उसकी मां न सिर्फ  खामोश रही बल्कि नईम मियां को पूरा मौका दिया कि वो उसकी बिटिया के प्रेमजाल में फंस जायें। सितारा की मां तो यह भी चाहती थीं कि सितारा गर्भवती हो जाये ताकि सारा मामला आसान हो जाये। मगर ऐसा हो नहीं पाया। तब उन्होंने उसे ठाकुर गजेंद्र सिंह के लिये छोड़ दिया। जवान बछिया की तरह। 'ठाकुर गजेंदर सिंह विवाहित थे मगर जवान बछिया के लिये तरस रहे थे। कारण यह कि उनकी पत्नी गाय हो चुकी थी। मगर बात वहां भी नहीं बनी। बल्कि धीरे-धीरे उन्हें यह समझ में आने लगा कि वे ठगी जा रही हैं ‘ ठग विद्या में इद्दन ही अपने को क्यों माहिर मानती थी, दूसरे भी तो उसे  ठग सकते हैं। फिर अशराफ और सवर्णों को तो यह अधिकार जन्मजात मिला हुआ है, इस तथ्य से इद्दन क्यों मुंह मोड़ती रही है? कोई स्त्री लगातार अपमान सहकर और धक्के खाकर भी स्वयं को समझदार समझे तो उसकी बुध्दि पर तरस ही खाया जा सकता है। लेकिन एक बात फिर-फिर मेरे मानस को बेचैन किये हुये है कि कोई भी गिरी से गिरी मां भी अपनी बेटी को दांव पर नहीं लगाती, तो इद्दन ने ऐसा क्यों किया? इसलिये वह पश्चाताप करती हुई सितारा से कहती है 'मैंने तुम्हें खिलौना बना दिया। पहले नईम खां का और फिर गजेंद्र सिंह का। इन दोनों ने तुम्हारा जिस्म नहीं, मेरे जिस्म को नोचा है। मैंने ऐसा अपनी खुदगरजी के लिये किया। मेरी बिटिया, मुझे माफ कर दो।’

'कुठांव’ भारतीय जाति-व्यवस्था के रेशे-रेशे को खोलता चलता है और बताता चलता है कि सवर्ण जातियां चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान दोनों में ही नीची जातियों के लिये कोई हमदर्दी नहीं है, छोटी जाति की होने के दंश को सबसे अधिक औरतें झेलती हैं। सही अर्थों में पददलित तो स्त्री है जिसके लिये घर और बाहर दोनों उसके अस्तित्व को तोड़ते हैं और अपमानित करते हैं। दलित स्त्री के नारकीय जीवन में इद्दन, सितारा और हुमा जैसे चरित्र बार-बार उभरकर आते रहेंगे और बेचैन करते रहेंगे।

 

 

 

 

सूरज पालीवाल हिन्दी के समकालीन उपन्यासों पर लगातार लिख रहे हैं। उनका यह स्तंभ 'पहल’ में अब वांछित हो चला है। वे वर्धा में रहते हैं और वहाँ हिन्दी विश्वविद्यालय में अपनी सेवाएं दी हैं।

अब्दुल बिस्मिल्लाह 'भीनी भीनी बीनी चदरिया’, अपने शानदार उपन्यास के बाद हिन्दी में प्रमुख कथाकार मान्य हुए। पहल ने उन पर अपनी जिम्मेदारी देर से महसूस की। उनका नया उपन्यास 'कुठाँव’ राजकमल से आया है, हम उसकी चर्चा कर रहे हैं।

 

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