सर्जनात्मक चिन्तन का एक अलग रूपाकार

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    जून 2019
श्रेणी सर्जनात्मक चिन्तन का एक अलग रूपाकार
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम प्रभात त्रिपाठी





क़िताब‍

 

श्याम मनोहर पिछले पचास बरसों से लिखने पढऩे वाली मराठी की एक विभूति हैं। नाटक, उपन्यास, निबंध कला, सभी विधाओं में समान हैसियत से लेखन। पहल में भी प्रकाशित। उनके एक उपन्यास पर 'लिमिटेड आणुसिकी’ फिल्म बनी। उनको हिन्दी में लाने में प्रमुख भूमिका निशिकांत ठकार, चंद्रकांत पाटील और राजेन्द्र धोड़पकर की है। यहां छपी समीक्षा के लेखक प्रभात त्रिपाठी हिन्दी के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित आलोचक हैं। हाल ही में उनकी कृति चंद्रकांत देवताले पर छप कर रज़ा फाउन्डेशन से आई है। संपर्क - मो. 9424183427, रायगढ़

 

 

 

           

प्रसिद्ध मराठी लेखक श्याम मनोहर की पुस्तक ''गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ’’ सृजनात्मक चिन्तनशीलता का एक सार्थक और विचारोत्तेजक उदाहरण है। यह मुक्त शैली में, लिखी गयी है। मुक्त शैली से आशय यह है कि लेखक ने इसे अकादमिक अनुशासन की रूढिय़ों में बंधकर नहीं लिखा है। हिन्दी अनुवाद में कहीं कहीं अटपटी भी लगती है। किताब में आत्मानुभव की ऊष्मा है। पहले ही पाठ में लगता है, कि लेखक के भीतर की गहराई से निकले शब्द हैं। विकल जिज्ञासाएँ जैसे उसकी भाषा के शब्दों के अर्थ में ही नहीं, बल्कि उसकी अन्तर्लय में भी, इस तरह सक्रिय लगती है, कि सहज भाव से उनके साथ साझा हो जाता है। पाठक  निश्चय ही यह महसूस करेंगे, कि इस तरह की बिलकुल अपरिभाषिक शब्दों से बनी भाषा के बावजूद, लेखक आस्तित्विक आत्मिक ही नहीं, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक प्रश्नों पर भी, एक बिलकुल ही अलग ढंग से सोच रहा है और व्यक्त कर रहा है। कई बार जिज्ञासाएँ, कुछ ऐसे सवालों की शक्ल में सामने आतीं है, कि पाठक की अपनी जिज्ञासा और प्रश्नों को भी उकसाती हैं। वह महसूस करता है, कि कुछ जगहों पर अटक कर, वह उन प्रश्नों को थोड़ा गौर से देखे और समझने की कोशिश करे। ऐसा नहीं लगता, कि लेखक किसी सर्वज्ञाता की तरह, पाठक से मुखातिब है। कुछेक जगहों पर वह एक दृढ़ निश्चयात्मकता के साथ, थोड़ा सैद्धांतिकीकरण करते हुए अपनी बात कहता जरूर है, पर उसके कहने के ढंग में गहराई से उठाए जाने वाले सवालों के साथ साथ, एक तरह की सहज साधारणता भी है। वास्तविक व्यावसायिक अर्थ में, यह आत्मालाप और संवाद, दोनों की कोशिश में लिखा गया गद्य है, लेकिन अगर उन्हें वस्तुपरक विषयों या विमर्श के मुद्दों की तरह पढ़ा जाए, तब भी यह महसूस होता है, कि लेखक अपनी मूलभूत सृजनात्मकता याने कथाकार के अनुभव जगत की भाषा में ही, जैसे अपने आत्मचिंतन के संसार को मूत्र्त कर रहा है।

श्याम मनोहर के गल्प साहित्य का मुझे कोई ज्ञान नहीं है, पर अभी, इस किताब को पढ़ते हुए मुझे अनुभव हो रहा है, कि अपने दीगर कथात्मक या कि फिक्शनल लेखन में भी, वे एक तरह के समावेशी 'स्पेस’ की रचना करते रहे हैं, क्योंकि यहाँ भाषणों और निबंधों तक की भाषा में जो खुलापन है, वह आकस्मिक या अकारण या महज नूतन शैली प्रदर्शन की वजह से ही वहाँ नहीं आ गया है। भाषा की आनुभविक जीवन्तता और उसका प्रभाव, इस बात का प्रमाण है, कि जीवन और साहित्य के जिन प्रश्नों पर, उन्होंने यहाँ विचार किया है, उनमें, एक नयी तरह की छटपटाहट की ऊष्मा है। आस्तित्विक और सामाजिक, राजनीतिक प्रश्नों के लिए एक नयी और संवादविकल भाषा की खोज में वे पूरे मन से लगे हैं।

बेशक इन निबंधों का गहन अध्ययन मैंने नहीं किया, एक पेशेवर लिक्खाड़ की तरह इनके बीच से गुजरते हुए इसकी भाषा की जीवंतता मुझे घेरती रही है। बाजवक्त फिजिक्स ही पढ़ाने वाले एक गंभीर हिन्दी लेखक, विपिन कुमार अग्रवाल की याद भी आयी, पर किसी सामान्य अथवा तात्विक समानता के कारण नहीं, बल्कि इस कारण, कि दोनों की भाषा में एक तरह का अलगपन है। खोजने, जानने की विकलता के मामले में श्याम मनोहर की भाषा, वैसी चुस्तदुरूस्त नहीं लगती, जैसी विपिन कुमार जी की है, पर एक सहजता और सोच की स्वत:स्फूत्र्तता को निर्देशित करने वाली भाषा, दोनों के यहाँ मिलती है। श्याम मनोहर की भाषा की एक बड़ी खूबी यह भी है, कि उसके भीतर जैसे वे आवयविक मूत्र्तता में दिखाई पड़ते हैं। वैसे उनसे रूबरू मुलाकात कभी नहीं हुई, पर उनको पढ़ते हुए यह महसूस होता है, जैसे बोलने वाले की उपस्थिति की आँच और रौशनी, दोनों मुझ तक आ रही है। अपने सहज रूप और भाषा के बावजूद, या शायद उसी के कारण, कथा साहित्य की विशेषज्ञता ही नहीं, बल्कि मानवीय अस्तित्व और परिस्थितियों की बहुआयामी चिन्ताएँ उनके यहाँ है।

उनके भाषणों, साक्षात्कारों, निबंधों में भी जैसे उनकी एक अलग तरह की किस्सागोई जारी रहती है। ऐसा लगता है, कि उनका मकसद, महज पाठकों में कुतूहल जगाना नहीं है, बल्कि एक अथक जिज्ञासा से बड़े प्रश्नों के साथ, छोटी समस्याओं को दरकिनार बिना किए, वे एक अनन्त खोज की राह के राही ही लगते हैं। अज्ञेय की याद करते हुए उन्हें राहों का अन्वेषक तक कहने की इच्छा होती है।

संभवत: गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ, एक ऐसी पुस्तक भी है, जो अपने नाम के अनुरूप ही, अपनी सृजनप्रक्रिया के माध्यम से, जैसे जीवन में और सृजन में, इन दोनों की खोज में, या शोध में लगी है, या लिखी गयी है। एकाधिक बार इस तरह के प्रयत्न के लिए लेखक ने 'डिस्कवरी’ अनुसंधान, खोज शब्दों का प्रयोग किया है, और ऐसा भी लगता है, कि यह सिर्फ लेखक द्वारा बहुत बार दुहराए गए 'अज्ञात या सूक्ष्म’ की खोज ही नहीं है, बल्कि, इसमें व्यावहारिक दुनिया में लेखक की तरह, व्यक्ति की तरह और समाज व्यवहार निभाने वाले एक व्यक्ति की तरह, जीवन और मानवीय अन्तर्सबन्धों से प्राप्त अनुभवों को, सृजनात्मकता की सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि से संग्रथित करने की चेष्टा भी है। शायद इसीलिए इस पुस्तक को थोड़ा व्यस्थित रूप देने के इरादे से (व्यवस्थित रूप इस अर्थ में, कि अपनी सृजनात्मक सँरचना में इसका रूप, थोड़ा मुक्त, थोड़ा गैरअकादमिक और बहुत हद तक एक आनुभविक, वैचारिक निजता से जीवन्त लगता है।) ही, अनुवादक ने इसके चार भाग किए हैं। 1. सृजन की प्रक्रिया, 2. पढऩे की संस्कृति, 3. सभ्यता और संस्कृति, 4. भारतीय समाज। इन चारों खण्डों में प्राय: सभी में, लिखित लेखों के अलावा भाषणों को भी संकलित किया गया है, पर लेखक की भाषा या उसकी अन्तर्वस्तु की एकतानता इससे कहीं भी बाधित नहीं हुई है। विभिन्न खण्डों के निबंधों के बीच एक आंतरिक संगति है, यह तो इन हिस्सों के नामों को पढ़कर ही पता चल जाता है। दरअसल पुस्तक के इन चारों हिस्सों में वर्णित विचारों, भावनाओं का संबंध, जाहिर तौर पर तो स्पष्ट दीखता ही है, पर लेखक के मन में इन विषयों को लेकर जो उथल पुथल चलती रही है, उसमें थोड़े व्यावहारिक से लगते विषय भी, (यथा पढऩे की संस्कृति खण्ड के निबंध) मानों लेखक की सृजनशीलता के साथ आवयविक रूप से ही जुड़े हुए लगते हैं। लेकिन सृजन की गहराई और ऊँचाई के लिए, शायद यह भी जरूरी है, कि थोड़े स्थूल से लगते, इस तरह के मुद्दों और समस्याओं पर, भारतीय समाज में एक सार्थक संवादोन्मुख बहस निजी तौर पर, मुझे बहुत जरूरी लगती है।

पहले खण्ड 'सृजन की प्रक्रिया’ के पहले लेख से कुछ पंक्तियाँ लेता हूँ:

''मेरे भीतर के विकारों की समझ मुझे जीवन जीते हुए बहुत पहले ही आयी। शान से बताया जाता था, कि मत्सर नहीं करना चाहिए। जोर शोर से बताया जाता था, कि लोभी मत बनो। मत्सर को कैसे मिटाएँ? मेरे सामने यह सवाल था। लोभ को कैसे मिटाएँ? डाह की कितनी मात्रा समाज के लिए स्वीकृत है? लोभ की कितनी मात्रा की अनुमति है? गरीब को कितना लोभी बन जाने की इजाजत है? सफेदपोश को कितनी और अमीर को कितनी?.......

मत्सर लोभ आदि विकारों का मैं क्या करता हूँ ? विकार मेरा क्या करते हैं ?...... क्या मत्सर पूरी तरह जा सकता है, जैसे प्रश्नों के उत्तर के लिए भी, मेरा लिखना शुरू हुआ।

अध्यात्म एक स्वतंत्र प्रेरणा है। उसका विकारों से सम्बन्ध नहीं है।’’  पृ. 27-28

यह पुस्तक के शुरूआती हिस्से से उद्धृत की जा रही कुछ पंक्तियाँ हैं। इन्हें पढ़ते हुए मुझे अचानक ही मनोविकारों पर लिखे गए, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लेखों की याद आयी, हालाँकि विकारों के बारे में, श्याम मनोहर के लेखन में, शुक्ल जी जैसा व्यवस्थित विश्लेषण नहीं है। 'विषय’ के साथ वैसा वस्तुपरक तटस्थ सम्बन्ध भी नहीं है, लेकिन प्रश्नों को जिस तरह की स्वत:स्फूत्र्तता के साथ रखते हुए, निजी स्तर पर जारी जिज्ञासाओं को अनुभूति की सी भाषा में लिखते हुए, वे सृजनप्रक्रिया के बारे में कुछ बुनियादी बातों की ओर संकेत कर रहे हैं, उससे ऐसा महसूस होता रहता है, जैसे उनका विश्लेषण महज तर्कसम्मत ही नहीं, बल्कि संवेदनागर्भित और विवेकपोषित भी है। वैसे उद्धृत पंक्तियाँ, उनके एक भाषण का ही निबंधात्मक रूप है, लेकिन पढ़कर महसूस होता है, कि मानवस्वभाव की गहराई तक जाकर, वे इन प्रश्नों को, अपनी सृजनात्मक प्रक्रिया से जोड़ते हैं, और फिर सृजन के रस्ते पर बढऩे वाले, किसी भी व्यक्ति के लिए जरूरी प्रश्नों की तरह अपनी जिज्ञासाओं को रखते हैं। इसके ऐन बाद के निबंध का तो उन्होंने शीर्षक ही दिया है 'अनेक प्रश्नों के साथ जीना और लिखना।’

इस विषय से बिलकुल ही भिन्न विषय का विवेचन करते हुए भी, एक स्थल पर उन्होंने मनोविकार के प्रसंग को फिर से उठाया है, लेकिन यहाँ मन ही नहीं, अन्तर्मन पर जाहिर बलाघात है। ये उद्धरण 'भारत की समस्या प्रणाली पर शोध’ नामक आलेख से लिया गया है। भाषा शैली की एक खास तरह की इंडियोसिंक्रेटिक विशेषता इस लेख में भी है। यह शायद इसलिए, कि वे मनोवैज्ञनिक या दर्शनशास्त्री या नृतत्वशास्त्री या समाजविज्ञानी की तरह, मानवीय अस्तित्व या भारतीय समाज के प्रश्नों को, इन आधुनिक अनुशासनों की सुदीर्घ परम्परा की भाषा में नहीं लिख रहे हैं। अधिकांशत: उनका लेखन अपने अध्ययन मनन को भी एक ऐसा रूपाकार देता प्रतीत होता है, कि वह शब्दकर्म से संबंधित, सृजनात्मकता का एक नया और मौलिक विन्यास की तरह लगता है। चाहे वे व्यवहार जगत की स्थूल समस्याओं, यथा 'पढऩे की संस्कृति’ या ''साहित्यिक गतिविधियाँ,’’ जैसा लेख लिख रहे हों, या सभ्यता या संस्कृति के प्रश्नों को कथात्मक साहित्य या फिक्शन से जोडऩे वाले लेख लिख रहे हों,उनकी शैली में, एक आत्मीय प्रवाह होता है, जो उनके वक्तव्य को न सिर्फ शुष्कता से बचाता है, बल्कि एक अन्तरंग ऊष्मा से भर देता है। हर तरह के लेखन में एक तरह की ताजगी है, विचारोत्तेजन है, और कई बार विशद व्याख्या की अपेक्षा रखने वाले शब्दों के निजी अर्थ में इस्तेमाल किए जाने की वजह से, मुझ जैसे पाठक के मन में असहमति भी है। लेकिन अभी मैं फिर से उस मनोविकार की बात कर रहा था, जिसका प्रसंग उन्होंने पहले ही लेख में छेड़ा है।

दूसरा उदाहरण है षड़रिपुओं में से एक लोभ का।....

''लोभ को कैसे जीतें ? आदमी इसे समझ नहीं सकता। आर्थिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए धर्म काम नहीं आता।’’

''पुनर्शोध (रिसर्च) बाहरी मन का व्यवहार होता है। शोध अन्तर्मन का व्यवहार होता है। अन्तर्मन में अज्ञात के किसी पहलू का सुराग मिल जाता है। सुराग मिल जाने की क्रिया, आत्मज्ञान- इण्टयूशन से होती है। सुराग सिर्फ  उजागर होकर रह गया, तो उसे दर्शन या साक्षात्कार कहा जा सकता है। सुराग को लेकर उसे सत्य के रूप में सिद्ध करना होता है। इस सिद्धता के लिए विवेक (रीजन) को काम में लाना पड़ता है।’’

''होता यह है कि प्रश्न अन्तर्मन में नहीं जाते और शोध की क्रिया ठप हो जाती है (याद करें कि  उन्होंने एकाधिक बार कई प्रसंगों में शोध को, खोज को, अन्वेषण को, सूक्ष्म को, किसी भी संस्कृति के लिए जरूरी माना है और इसी आधार पर उसे सभ्यता से अलग किया है) विकार अन्तर्मन में जाने पर मनुष्य विकृत बन जाता है। अज्ञात की जिज्ञासा, अन्तर्मन में जाने पर मनुष्य सर्जनशील बन जाता है।’’

''प्रश्नों को अन्तर्मन में ले जाने से मनुष्य डरता है। इसलिए कि प्रश्न का अन्तर्मन में रहना बेहद तकलीफदेह होता है। शारीरिक श्रम, शारीरिक पीड़ा, बाहरी मन की वेदना, इनसे बढ़कर प्रश्न के अन्तर्मन में रहने की पीड़ा, अधिक तीखी होती है। क्या भारतीय मनुष्य इस वेदना को टालना चाहता है?’’

(भारत की समस्या: प्रणाली कर शोध)पृ. 155-157

मैंने लोभ से अपनी बात शुरू की थी। यह भी विकार ही है और षड्रिपुओं में इसकी भी गिनती है। किसी भी लेखक के लिए आत्मान्वेषण की प्रक्रिया में और जगत निरीक्षण या समीक्षा की प्रक्रिया में भी, मन में उठने वाले, दबाए जाने वाले विकारों का आत्यंतिक महत्व होता है। पर मुझे यह लगता है, कि सभ्यता और संस्कृति की बनावट से भी, व्यक्ति की, याने उसके मन की निरन्तर अन्तक्र्रिया होती रहती है। मन में गहरे जाकर, जब इस तरह के सवाल उठाए जाते हैं, तभी शायद वे अन्तर्मन के सवाल बनते हैं। आश्वस्ति और पूरी समझ के साथ तो नहीं, पर मुझे फिर भी लगता है, कि एक अलग तरह की भाषा में, श्याम मनोहर जी ने, भारतीय और वैश्विक व्यक्ति तथा समाज के अन्तर्मन में उठने वाले प्रश्नों पर, गंभीरता से और एक लेखक की तरह सोचने की कोशिश की है। इसीलिए कथात्मक साहित्य उनके लिए भौतिकी या गणित की तरह, ज्ञान की एक शाखा ही है और इसी अर्थ में वह सभ्यता और संस्कृति के प्रश्नों को भी अपने में समोए हुए है। जीवन क्या है, सृष्टि क्या है, जैसे अज्ञात की खोज की निरंतर साधना के सर्जनात्मक भाषारूप को वे संस्कृति कहते हैं। संस्कृति और सभ्यता के बारे में अपने विचार, वे रि-इटरेट करते हुए ही नहीं, लगभग पुनरावृत्ति करते हुए व्यक्त करते हैं, पर शायद कम ही जगहों पर इन दबे हुए विकारों या मूल मनोविकारों की चर्चा, उन्होंने सभ्यता और संस्कृति के निर्माण के सन्दर्भ या जरूरत की तरह की है। मूल मनोविकारों को, आदिकाल से संयमित या वर्जित करने के जो प्रयत्न चलते रहे हैं, क्या उनका संबंध सभ्यता के किसी भी काल के विशिष्ट रूप से नहीं बनता? ऐसा एक सवाल उनसे पूछने की इच्छा होती है, हालाँकि दिए गए उद्धरण में ही उन्होंने लोभ के प्रश्न को 'सार्वजनिक भ्रष्टाचार’ से जोड़ते हुए, इस तरह के प्रश्नों को अन्तर्मन से टालने की बात की है। अन्यत्र वे यह भी कहते हैं:

''जो भी ज्ञात है, मालूम है, उनमें से कुछ चुनकर मनुष्य जीने के लिए व्यवस्था निर्माण करता है। इसे सभ्यता कह सकते हैं।... असभ्य को नष्ट करने की कोशिश आदमी करता है। बचा हुआ सब कुछ नष्ट नहीं होता। जो नष्ट नहीं होता, उसे मनुष्य छिपाता या दबाकर रखता है।’’

जाहिर है, कि मनोविकार तो हमेशा ही बचे रहते हैं, इस तथ्य की अप्रत्यक्ष स्वीकृति तो उनके इस कथन में है। लेकिन क्या यह भी सच नहीं है, छिपाए और दबाए हुए, ऐसे मनोविकारों का असर सभ्यता पर भी पड़ता ही है? इस तरह के दमन का या अधिक प्रशंसामूलक शब्दों में कहें, तो इस प्रकार संयम का, कोई हिंसक या आत्महिंसक प्रभाव, सभ्यता पर किस तरह पड़ता है? या शोध की राह पर अग्रसर होने वाले अन्वेषी पर किस तरह से पड़ सकता है? दूसरे शब्दों में, अन्तर्मन में जाकर तीखे प्रश्नों को झेलने की प्रक्रिया को, दमन या टालने की यह प्रवृत्ति, क्या किसी तरह बाधित नहीं करती? और अन्तत: क्या ऐसे दमन की गिरफ्त में, किसी अज्ञात की खोज भी बाधित नहीं होती? इसी अज्ञात के बारे में वे कहते हैं:

''अज्ञात की खोज करने वाले उपन्यास को संस्कृति का उपन्यास कहा जा सकता है। संस्कृति मनुष्य की खोजी वृत्ति से संबंधित है।’’                           (पृ. 117-118)

वास्तव में संस्कृति और सभ्यता से सम्बन्धित, उनके बयानों या विश्लेषणों में, शायद 'ज्ञान शाखाओं’ (ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों) में जारी खोज तथा विशिष्ट समाजों में जारी विविध तरह की जीवन व्यवस्थाओं को लिया गया है। इस तरह के विश्लेषण भी प्राय: एक जिज्ञासु व्यक्ति या कथात्मक साहित्य (फिक्शन) के सर्जक के रूप में ही ज्यादातर किए गए हैं। चूँकि एक लेखक के रूप में व्यक्ति, समाज, सभ्यता, संस्कृति, पाठक वर्ग, पढऩे की संस्कृति, जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर, वे अन्तर्मन में उठने वाले सवालों के सन्दर्भ में विचार करते रहे हैं, इसीलिए उनके विश्लेषणों में जटिलता आ गयी है। इसी वजह से कुछेक जगहों पर ऐसा भी महसूस होता है, जैसे सभ्यता और संस्कृति जैसे बहुआशयगर्भी पदों का अर्थ, पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पा रहा है। उनके इन निबंधों में खोज, अनुसंधान, जिज्ञासा, शोध, डिस्कवरी जैसे शब्द बीज शब्दों की तरह इस्तेमाल किए गए लगते हैं। बेशक 'पढऩे की संस्कृति’ जैसे खण्ड के निबंधों में उनका ध्यान, व्यावहारिक स्तर पर क्रियाशील हो सकने वाले सुझावों पर ज्यादा है। एक रोचक निबंध 'साहित्यिक गतिविधियाँ (पृ. 84-89) में तो तीस रोचक और विचारोत्तेजक प्रश्न ही डाल दिए गए हैं। दरअस्ल उनके यहाँ कहीं भी, किसी विधा की सीमाएँ कट्टरता के साथ एकदम ही तयशुदा नहीं हैं। मैं इन प्रश्नों में से एक को उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा:

''इंजीनियर के साथ शादी, डॉक्टर के साथ शादी, राजनीतिक कार्यकर्ता के साथ शादी, अभिनेता के साथ शादी, निर्देशक के साथ शादी... इस तरह की अवधारणाएँ हैं समाज में। लेखक के साथ शादी, कवि के साथ शादी ... क्या इस तरह की अवधारणाएँ हैं?’’                                                                           (पृ. 86)

यह उनके लेखन में यत्र तत्र मौजूद सेंस ऑफ ह्यूमर का अच्छा उदाहरण तो है ही, यह समाज में कवि या लेखक की हैसियत की ओर भी एक अर्थवान संकेत है। अनेक बातों पर विचार करते हुए, दूसरे लेखों, भाषणों में भी, उन्होंने समाज की ही नहीं, राज की, या कि पूरे पढ़े लिखे वर्ग की, इस तरह की उदासीनता और उपेक्षा की बात की है। और 'चाहिए’ की आदर्श स्थिति तक जाने की बात भी कही है। लेकिन ऐसी पंक्तियों को पढ़कर यह भी लगता है, कि भारतीय समाज को, वे उसकी बहुलता, विविधता, वर्गभेद, जातिभेद के रूपों में नहीं देखते। यह बात थोड़ी अजीब सी लगती है, कि समाज की अमूत्र्तता और जटिलता को समझने की जिज्ञासा, उनके इन आलेखों में विरल है, लेकिन समाज की इस सामान्यीकृत अवधारणा के बावजूद, वे जो बातें उसके और सृजनात्मक साहित्य के संबंध के बारे में कहते हैं, वे महज प्रासंगिक ही नहीं, बल्कि महत्वपूर्ण हैं। जिस तरह सभ्यता और संस्कृति को वे अलगाते हैं और सभ्यता को प्राप्त मौजूद व्यवस्था की तरह देखते हैं, और संस्कृति को खोज और शोध की तरह, जीवन के गंभीर प्रश्नों की ओर उन्मुख खोज की तरह, उसी तरह अपने विश्लेषण में वे समाज को थोड़े अमूत्र्त ढंग से, थोड़े एकल और रैखिक रूप में देखते हैं, जबकि व्यक्ति के अन्तर्मन का जो रूप, उनके इस तरह के वैचारिक लेखन से उभरता है, उसमें निश्चय ही गहराई और ऊँचाई ही नहीं, जटिलता की ओर जाने की कोशिश उजागर दिखाई पड़ती है। जाहिर है, कि समाज की उनकी समझ में, एक रचनाकार व्यक्ति की गैरअकादमिक अन्तर्दृष्टि ही क्रियाशील है, पर अकादमिक नहीं होने के बावजूद, या समाज को विशेषीकृत या परिभाषित नहीं करने के बावजूद भी, समाज के बारे में उनके मंतव्य, उनके अन्तर्मन में उमड़ते प्रश्नों की ओर संकेत करते हैं। साहित्य और समाज: 'एक तत्वमीमांसा’ नामक उनके लेख से यह थोड़ा लम्बा उद्धरण:

''भाव-भावनाओं की कमी, शोध की प्रवृत्ति का न होना, इसके आधार पर कहा जा सकता है, कि समाज के गुणधर्म के चलते समाज स्थूल होता है। समाज की समझ में नहीं आता, कि विसंगति का क्या करे? विसंगति को समाज उठा नहीं सकता, विसंगति से समाज धक्के खाता है। विसंगति के सन्दर्भ में समाज में समझौते का तत्व निकलता है। समाज स्थूलता का निदर्शक है। या फिर समाज विसंगति को नजरअन्दाज ही कर देता है। नजरअन्दाज करना स्थूलता की निशानी है। व्यक्ति यथार्थ को प्रतीत करता है, उसी तरह नथिंगनेस को भी। नथिंगनेस की बात समाज के दायरे के बाहर की बात है। इसी लिए समाज को स्थूलता प्राप्त होती है। समाज स्थूल होता है, इसलिए व्यक्ति समाज में अकेला महसूस करता है।’’

                                                (पृ. 169)

इस तरह की बातें पढ़ते हुए, कभी कभार यह भी महसूस होता है, जैसे 'समाज’ कोई व्यक्ति ही हो, जो व्यक्तियों की तरह ही अपने किसी मन से सोचता हो। पर 'समाज’ की इस तरह की अवधारणा में यह वास्तविकता तो निहित ही है, कि अधिकांश साधारण व्यक्तियों के मन में 'समाज’ अपनी इस तरह की स्थूलता में ही जीवित है। सामाजिक विधि निषेधों के बीच, जीते हुए सामान्य व्यक्तियों की साधारण बातचीत में, 'समाज’ की बंदिशों को, रूढिय़ों को, वर्जनाओं को ही नहीं, उसके उत्सवों, परंपराओं या उसकी विधियों को भी इस तरह प्रस्तुत किया जाता है, जैसे दो या दो से अधिक व्यक्ति, 'समाज’ के विषय में बातें कर रहे हों। वे इस तरह उसे सुझाते हैं, जैसे समाज कोई तीसरी या अलग एक जीवन्त उपस्थिति हो, जिसके बारे में सोचना या बातें करना जरूरी हो। इसलिए विधि निषेधों वाले 'समाज’ की इस अवधारणा में यह सचाई तो है, कि कर्तव्य या अकर्तव्य की सामाजिक धारणाएँ, एक तरह की स्थूलता पर आधारित होती है, और तरह तरह की विविधताओं के बावजूद, अपनी अमूत्र्त सी उपस्थिति के बावजूद, उनमें सामान्य विधि निषेधों की उपस्थिति हमेशा सक्रिय बनी रहती है। इसी लिए किसी खोज में लगा, कोई अलग काम करता हुआ व्यक्ति, समाज के साथ अपना तालमेल नहीं बिठा पाता। स्थूल दृष्टि से किसी खोज में तो लगना ही नहीं संभव हो पाता, एक साथ पूरे समाज में किसी सार्थक सर्जनात्मकता की न तो कल्पना की जा सकती है, और न ही पूरे समाज पर कोई 'सर्जनात्मकता’ लादी जा सकती है। वह व्यक्ति के अन्तर्मन की तलाश से जुड़ी है, इसी बात को स्पष्ट करने के लिए, श्याम मनोहर जी ने समाज और व्यक्ति के बीच के लगाव को ही नहीं, उनके अलगाव को भी रेखांकित करने की कोशिश की है। एक अलग तरह का चौकन्ना और खोजी व्यक्ति ही समाज को, उसकी सभ्यता को, उसकी संस्कृति को नयी दिशाएँ दे पाता है। इस मुद्दे पर विविध कोणों से लेखक ने विचार किया है। मूलत: कथात्मक साहित्य के माध्यम से अपनी खोज जारी रखने वाले श्याम मनोहर ने, सर्जनात्मक कल्पनाशीलता की भाषा में भी, सभ्यता के जटिल यथार्थ से गुजरते हुए, व्यक्तियों के भीतर और बाहर के 'अज्ञात’ के रूपाकार में भी, अपने विचारों को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसे एक तरफ  तो 'दर्शन’ जैसे उनके नाटक में देखा जा सकता है, तो दूसरी तरफ  इसी पुस्तक में कथात्मक शैली में लिखी गयी उस मुक्त रचना में जो, 'वर्तमान का आख्यान’ शीर्षक से इस पुस्तक में संकलित है और जिसमें सांप्रतिक यथार्थ के प्रश्नों से जूझते हुए भी, वे एक अधिक सूक्ष्मतर लक्ष्य के विन्यास की ओर बढ़ते दिखाई देते हैं। वास्तव में कथात्मक साहित्य की सर्जनात्मकता का प्रश्न, उनके लिए सामाजिक यथार्थ का प्रातिनिधिक चित्रण भर नहीं है। शायद इसी लिए चन्द्रकान्त पाटील द्वारा 'सामाजिकता ही कथा साहित्य की प्रधान प्रेरणा है,’ जैसे प्रश्न के बारे में अपने निजी विचार वे दो टूक ढंग से व्यक्त करते हैं:

''यह मुझे अधूरी प्रतीत होती है। समकालीन यथार्थ जिसे मैं सभ्यता (सिविलाइजेशन) कहता हूँ , से शुरू होकर साहित्य का संस्कृति तक पहुँचना, कथा साहित्य को पर्याप्तता प्रदान करता है। हाँ ऐसी पर्याप्तता श्रेष्ठ साहित्य की शर्त तो है, लेकिन श्रेष्ठ साहित्य का लक्षण नहीं है। और ऐसी भी शर्त नहीं है, कि समकालीन यथार्थ ही होना चाहिए। किसी भी युग या बिलकुल काल्पनिक यथार्थ अर्थात् काल्पनिक सामाजिक परिसर को भी, कथा साहित्य में ले सकते हैं, और उसे संस्कृति तक पहुँचना चाहिए।’’

सभ्यता और संस्कृति को कथात्मक साहित्य के रूपाकार में विन्यस्त करने के निरंतर प्रयत्न में लगे, मशहूर मराठी लेखक श्याम मनोहर की यह पुस्तक ''गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ’’ लेखक की चिन्तनशीलता और कल्पनाशीलता का एक अनुपम उदाहरण है। हिन्दी के सुधी पाठकों के बीच उनके विचार, एक नयी प्रासंगिक बहस की शुरूआत कर सकते हैं, ऐसा मेरा सोचना है।

समीक्षित पुस्तक: गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ लेखक श्याम मनोहर मराठी से अनुवाद निशिकान्त ठकार

प्रकाशक: रजा पुस्तक माला: राजकमल प्रकाशन, दिल्ली

 

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