उर्वर माटी की विभूतियां

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    जून 2019
श्रेणी उर्वर माटी की विभूतियां
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम श्याम बाबू शर्मा





निबंध

बैसवाड़ा

 

 

 

किसी क्षेत्र विशेष का महत्व उसकी भौगोलिक स्थिति सांस्कृतिक सामाजिक एवं ऐतिहासिक स्थिति की वजह से और भी अधिक बढ़ जाता है। इन्हीं विशेषताओं से समृद्ध  उत्तर प्रदेश के अंतर्गत अवध क्षेत्र में बैसवाड़ा रियासत उन्नाव, रायबरेली एवं फतेहपुर के एक बड़े भूभाग पर फैली हुई है। यह क्षेत्र अकबर के काल से ही अवध के अंतर्गत संघर्षशीलता और स्वाभिमान के कारण ख्यात रहा। गंगा, लोन और सई सदियों से सिंचित बैसवारे की धरती जैसी उपजाऊ है वैसी ही साहित्यकारों के मामले में भी है। सभी जातियों के बीच सद्भाव तथा हिंदू-मुस्लिम एकता की भावना ने इस क्षेत्र को जहाँ एक ओर सांप्रदायिकता से बचाया वहीं दूसरी और इसी एकता और सहजीविता की भावना ने ब्रिटिश सत्ता के सामने चुनौती भी प्रस्तुत की। बैसवाड़े के अंतिम राजा रावराम बक्स एवं राणा बेनीमाधव सिंह ने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया। बैसवाड़ा का क्षेत्र एक समय काफी विस्तृत था। बैसवाड़ा और उसके राज्य के विषय में कवि गिरधर की पंक्तियां उल्लेखनीय हैं-

 

अवध के राय डलमऊ बरेली घुलेंडी से

मौरावाँ ससेंडी निगोहा सरवन सिहारे में

गिरधर कवि सातनपुर पाटन बड़हार

गुला देवरख कहिंजर बिराजन जवारे में

पनहन ससान मगरायर सेदू घाटमपुर

बरकत विशाल शालिवाहन के वंश बारे

बसति बैस साढ़े साइस मुहाल बैसवारे के।

(बैसवाड़ा : एक ऐतिहासिक अनुशीलन, लाल अमरेन्द्र सिंह)

बैसवाड़ा की उपजाऊ माटी ने जहाँ निराला को जन्म दिया जो ऐसी व्यवस्था का स्वप्न देखते थे जिसमें शोषण की कोई जगह न हो, जहाँ अन्याय एवं अत्याचार सिर न उठा सकें। वहीं प्रताडि़त, प्रवंचित, पीडि़त के शोकों का निस्तारण यहाँ आगे के अनेक कलमकारों की प्रतिबद्धता रही। पं. प्रतापनारायण मिश्र, गंगा प्रसाद शुक्ल स्नेही, आचार्य नन्ददुलारे बाजपेयी, डॉ. रामविलास शर्मा, भगवतीचरण वर्मा, नन्द दुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, डॉ. शिवमंगल सिंह सुमन, चन्द्रभूषण त्रिवेदी, रमई काका, डॉ राममनोहर त्रिपाठी, डॉ. शिवबहादुर सिंह भदौरिया आदि के साहित्यिक अवदान को भला कैसे विस्मृत किया जा सकता है। इस भूमि को नजदीक से देखने-समझने का सुअवसर मिला डॉ. रामप्रकाश जी के साथ सन 2011 में। अपने घर गढ़ी मुरारमऊ और रामपुर खरही के पश्चात हम तकिया मेला पहुँच गए। हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक यह मेला मोहम्मद शाह की दरगाह पर लगता है जहाँ आज भी बिना किसी अलगाव-दुराव के हिन्दू-मुसलमान दोनों मज़ार पर चादर चढ़ाते हैं।

महाप्राण निराला का गाँव गढ़ा कोला, जनपद उन्नाव मुख्यालय से करीब तीस किलोमीटर बैठता है। अभाव ने निराला को अलग कर दिया लीक पर चलने से और लाचारों के बीच ले जाकर खड़ा कर दिया। स्याह सोचों से कुर्सी की दावेदारी पक्की करना उनके चिंतन में न था। लखपेड़ा की बाग से बक्सर की तरफ जब निकले तो भिक्षुक के संदर्भ-प्रसंग जीवंत हो उठे। 'वह आता/दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता/पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को भूख मिटाने को/मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता।’ कलेजे के दो टूक करने वाले भिक्षुक हिन्दी कविता में अपना सानी नहीं रखता। उसका लकुटिया टेक कर चलना, फटी पुरानी झोली का मुँह फैलाना, साथ के बच्चों का पेट मलना और हाथ फैलाना और कुछ न मिलने पर आँसुओं के घूंट पीकर रह जाना उनकी चेतना को सार्वभौमिक रूप देते हैं। शोषित, पीडि़त वर्ग के प्रति उनकी रचनाएँ कुकुरमुत्ता, नए पत्ते, अणिमा, बेला आदि सामाजिक कुपोषण का रेखाचित्र हैं।

पराधीन भारत की अनेक असमानताओं से ग्रसित सामाजिक व्यवस्था के प्रति जनता को जाग्रत करती हर प्राण की आकुलता उनकी अपनी व्यथा बन गई। सामाजिक विभीषिका, शोषण के दहला देने वाले चित्र इसका साक्ष्य हैं। परिस्थितियों को दूर से निहारने की बजाय उनके भोक्ता बन वेदना से आक्रोश तक की यात्रा पूर्ण करने वाले निराला। वह साहित्यकार ही क्या जो सत्ता की चाकरी में अपनी रचनाओं का भविष्य देखता  हो। उनकी कविता ही नहीं जीवन की पूंजीपरक व्यवस्था के खिलाफ एक शसक्त हस्ताक्षर बनकर उभरा। देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के समकालीन निराला ने उनकी नीतियों पर सवाल उठाने की हिम्मत की। 'तोड़ती पत्थर’ का उपजीव्य नेहरू का वही इलाहाबाद था। निश्चित ही यह सिर्फ एक कविता नहीं है बल्कि हमारी मरी हुई संवेदना के राजपथ पर अपनी वेदना के गीत सुनाती जनता की मर्मांतक आवाज है।

आचार्य जी की जन्मस्थली देखने का अवसर पहली बार सन 1993 में तब प्राप्त हुआ था जब दौलतपुर से सटे रामबाग इंटर कॉलेज में इंटर परीक्षाएं दे रहा था। पंडित ज्वालादत्त शर्मा को 21 मई 1914 को लिखे एक पत्र में आचार्य द्विवेदी जी ने स्वयं लिखा है, ''मेरा गाँव बड़ी बीहड़ जगह में है। तीन मील रेत पर चलना पड़ता है। बैलगाड़ी कभी-कभी मिल जाती है।’’ खैर अब हम लोग अत्याधुनिक गाड़ी में थे और ड्राईवर पगही के बजाय अक्सीलेटर खींच रहा था। गजेटियर 1923-पृष्ठ 154 में बक्सर का उल्लेख करते हुए लिखा गया है - गंगा उत्तरायणी बह कर यहां शिव को अध्र्य प्रदान करती है, जिससे यह बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यहां पर चिरजीवी दाल्भ मुनि के सुपुत्र बक ऋषि का आश्रम था, उसके पास स्थापित बकेश्वर महादेव मंदिर आज भी मौजूद है। बक्सर का वैदिक कालीन नाम बकाश्रम था। वाल्मीकि रामायण में इस प्रदेश को कारूप्रद प्रदेश बताया गया है जो अयोध्या से पश्चिम-दक्षिम के कोने पर स्थिति है। तत्कालीन दाण्यक-उपनिषद में अश्वशिर विद्या का यहीं बड़ा केंद्र था। महाराजा हाग्रीव की राजधानी भी यहीं थी। गर्ग ऋषि ने गंगा तट पर गेगासों नगर (गर्गस्त्रोत धाम) बसाया जो आज भी लालगंज-बैसवारा-फतेहपुर रोड पर गंगा के किनारे स्थित है।

गौतम बुद्ध के काल में इस क्षेत्र को हामुख या अयोमुख कहा जाता था। यहीं द्रोणिक्षेत्र नगर का द्रौणिमुख बंदरगाह था, जो गंगा के जलमार्ग से नाव द्वारा व्यापारिक सुविधा के लिए बनवाया गया था। द्रौणि का अर्थ (तट) किनारा होता है। यही गांव आज डॉडिया खेडा के नाम से जाना जाता है। एलेक्जेंडर-कनिंघम् और चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा कुछ अन्य देशी-विदेशी विद्वानों ने 'अयोमुख’ नगर को ही डॉडिया खेड़ा बताया है। हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने कादंबरी और हर्षचरित्र में चंडिका देवी के मंदिर का उल्लेख किया है जो डॉडिया खेड़ा रियासत के किले से एक मील की दूरी पर स्थिति है। मां चंण्डिका देवी के परम भक्त कविवर्य आचार्य सुखदेवजी मिश्र थे। वे पहले असोथर के राजा भगवंतराय खीची के यहां रहते थे, वे वहां से डौडिया खेड़ा (बैसवाड़ा) चले आए। इन दिनों बैसवाड़े में राजा मर्दन सिंह का राज्य था। उन्होंने सुखदेव मिश्र को चंडिका देवी के पूजन हेतु एक आश्रम की जगह दे रखी थी। चंडिका देवी को प्रणाम कर हम ऊंचगांव आ गए।

राजा अमर सिंह ने सुखदेव जी की मर्जी से गंगा के किनारे एक बड़ा भूखंड दान स्वरूप दे दिया था। सुखदेव मिश्र ने उसी जगह ग्राम दौलतपुर बसाया, जहां हिंदी साहित्य के युग प्रवर्तक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म हुआ। जिन्होंने अंग्रेजी शासन काल में हिंदी भाषा-साहित्य का परिष्करण करके हिंदी भाषा-साहित्य का युग प्रवर्तन किया। भोजपुर चौराहे पर बने द्विवेदी द्वार से दौलतपुर दो कोस। हमें अजनबी जानकार कुछ लोग तुरंत आ गए। जब उन्हें बताया कि, ''हम यई गढ़ी मुरारमऊ के।’’ उन्हें अवधी सुनकर अच्छा लगा। मात्र कंकाल, ईंटों का ढाँचा घर के नाम पर। जिस युग पुरुष ने साहित्य में अपना पूरा जीवन खपा दिया उस महामनीषी पर ध्यान देने वाली कोई सत्ता नहीं कोई पाटी नहीं। घर के ठीक सामने राष्ट्रीय स्मारक समिति रायबरेली द्वारा उनकी धर्म पत्नी का स्मृति मंदिर जरूर धरोहर के रूप में मौजूद मिला।

उनके पिता दस रुपया मासिक की एक छोटी नौकरी करते थे। पढऩे का कोई ठीक प्रबन्ध गांव में न था। आटा, दाल पीठ पर लाद कर दूर के जिन गांवों में स्कूल थे वहाँ पढऩे जाते। 13 वर्ष की आयु में रोटी बनाना सीख न पाये थे सो पकती दाल में आटे की टिकिया पकाकर उससे भूख शांत करते, और शिक्षा की साधना में लगे रहते। नौकरी के दिनों में ही उनकी संचित साहित्यिक विद्वता का परिचय लोगों को मिलने लगा था। रेलवे की नौकरी छोडऩे पर उन्हें नया काम मिलने में देर न लगी। मातृभाषा की सेवा करना चाहते थे। हर सच्चे मन से-चाहने वाले की तरह उन्हें भी उनका अभीष्ट माध्यम मिल गया। सरस्वती के सम्पादन कार्य में उन्हें हर महीने 20 रुपये वेतन और 3 रुपये डाक खर्च कुूल 23 रुपये मिलते थे। रेलवे की नौकरी में उन्हें ऊंचा वेतन मिलता था परंतु स्वाभिमान को गिरवी रखना बैसवारा की संस्कृति में नहीं। आमदनी एकदम घट जाने का उन्हें तानिक भी दु:ख न हुआ।

राहों पर चलना कितना आसान होता है उन्हें बनाना उतना ही मुश्किल। इसलिए दूसरा विकल्प चुनने वाले लोग बिरले ही होते हैं। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भी उन्हीं दुर्लभ हस्तियों में से थे जिन्होंने आज की हिंदी के लिए रास्ता बनाया। किसी बड़े और घने दरख्त की तरह वे एक लंबे समय तक साहित्यिक जगत के सिरे पर साया बनकर खड़े रहे। उनकी इस छाया में हिंदी साहित्य के कई नाम फले-फूले। कमण्डल त्रिपुण्ड भले ही उन्होंने धारण न किया हो पर जिस निस्पृहता का जीवन वे जी रहे थे उसे देखते हुए उन्हें त्यागी ही कहा जा सकता है। अन्य संपादकों की तरह इधर-उधर के लेखों को छाँटकर अखबार के पन्ने भर देने की बेगार टाल देने वाले द्विवेदी जी न थे। पत्रिका में छपने के लिए आए हुए लेखों के एक एक शब्द को वे ध्यानपूर्वक देखते और अपने हाथों उसे दुबारा लिखते। इस प्रकार उनकी लेखनी की खराद पर चढ़कर निखरा हुआ प्रत्येक लेख भाषा और भाव की दृष्टि से राष्ट्रभाषा के-गौरव के उपयुक्त ही बन जाता। सरस्वती में छपी प्रत्येक रचना, साहित्यिक दृष्टि से सब प्रकार खरी और परिष्कृत मानी जाती थी।

दूसरों के लिखे को मनोचित और परिष्कृत करने के साथ ही सबसे बड़ा काम यह किया कि अगणित नवोदित लेखकों को मार्ग दर्शन एवं प्रोत्साहन देकर उन्हें नौसीखिये से आगे बढ़ते हुए महान साहित्यकार बनाया। पारस को छूकर लोहा सोना बनता है पर द्विवेदी जी ऐसे पारस थे कि उनके संपर्क में जो आया वह भी पारस बन गया। पदुमलाल पुन्नालाल बक्शी ने अपनी पुस्तक विश्व साहित्य में लिखा है - यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया, तो मैं उसे समग्र आधुनिक साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है। कुछ लेखक ऐसे होते हैं जिनकी रचना पर ही उनकी महत्ता निर्भर है। कुछ ऐसे होते हैं जिनकी महत्ता उनकी रचनाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। द्विवेदी जी की साहित्य सेवा उनकी रचनाओं से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। उनके व्यक्तित्व का प्रभाव समग्र साहित्य पर पड़ा है। मेघ की तरह विश्व से ज्ञान राशि संचित करके और उसकी वर्षा करके उन्होंने पूरे साहित्योद्यान को हरा भरा कर दिया। वर्तमान साहित्य उन्हीं की साधाना का सुफल है।

यह उनका अतुलनीय योगदान ही था जिसके चलते आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग’ (1893-1918) के नाम से जाना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल विश्वम्भरनाथ शर्मा, कौशिक, पदुमलाल पन्नालाल बख्शी, मैथिलिशरण गुप्त जैसे चमकते हुए हिंदी साहित्य के न जाने कितने नाम द्विवेदीकाल की ही देन हैं। उन्होंने स्वयं बहुत कुछ किया है। केवल कविता कहानी, आलोचना ही नहीं उनके लिखे का विषय अर्थशास्त्र, इतिहास, पुरातत्वशास्त्र, समाजशास्त्र भी रहा। यही नहीं उन्होंने अनुवाद की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण काम किए क्योंकि वे कहने से पहले करने में भरोसा रखते थे। और दूसरों से कहने से पहले उन्होंने खुद यह सभी आजमाकर देखा था। उनके अनुवादों की श्रृंखला में देशी-विदेशी सभी पुस्तकें रहीं। श्री महिम्न स्तोत्र संस्कृत के 'महिम्न स्तोत्र का संस्कृति वृत्तों में अनुवाद, गंगा लहरी का अनुवाद, बेकन-विचार-रत्नावली बेकन के प्रसिद्ध निबन्धों का अनुवाद, 'स्वाधीनता’ 'ऑन लिबर्टी’ का अनुवाद।

उन्होंने लगातार अठारह वर्ष तक सरस्वती का सम्पादन किया। अवकाश ग्रहण करने के बाद भी वे सात-आठ वर्षों तक नियमित रूप से लेखन-कार्य करते रहे। अपनी निज की रचनायें लिखने की अपेक्षा उनका प्रधान कार्य दूसरों की कृतियों को परिष्कृत कर उन्हें उपेक्षित से उत्कृष्ट बनाना रहता था। रद्दी में डाले जा सकने वाले लेखों को अपनी कलम से दुबारा लिखकर उन्हें साहित्य में ऊँचा स्थान मिलने योग्य बनाया करते और उनके लेखकों को व्यावहारिक रूप से यह बताया करते थे कि उनसे कहाँ भूल हुई, क्या कमी रही, और किन बातों का समावेश आवश्यक था। इस प्रकार वे बिना विद्यालय खोले हुए भी 'सरस्वती’ के दफ्तर में बैठकर सहस्त्रों नव-युवकों को राष्ट्र के भावी साहित्य निर्माता बनाने में लगे रहे।

मध्य-युग की परम्परा का अनुसरण करते हुए उन दिनों भी श्रंगारी कविताओं और कवियों का बाहुल्य था ऐसे लोगों का वे सदा निरुत्साहित करते रहे और उस प्रवृत्ति को राष्ट्र-निर्माण के लिये अनुपयुक्त बताकर उससे दूर रहने की शिक्षा देते रहे। उन्होंने इन कवियों से पूछा है - ''चींटी से लेकर हाथी पर्यन्त पशु, भिक्षुक से लेकर राजा तक मनुष्य, बिन्दु से लेकर समुद्र पर्यन्त, अनन्त आकाश, अनन्त पृथ्वी, अनन्त पर्वत सभी पर कवितायें हो सकती हैं। सभी से उपदेश मिल सकता है। फिर क्या कारण है कि इन विषयों को छोड़कर कोई कवि स्त्रियों की चेष्टाओं का वर्णन करना ही कविता समझे?’’

राष्ट्र-भाषा के अमर शिल्पी-द्विवेदी जी ने - 21 दिसम्बर 1938 को महाप्रयाग किया पर उनकी श्रद्धा, त्याग और तपस्या ने हिन्दी साहित्य का जो गौरव बढ़ाया उसे देखते हुए उन्हें अजर-अमर ही माना जाता रहेगा। जिन आचार्य द्विवेदी ने 1918 से 1921 तक दौलतपुर के विलेज मुंसिफ़ और 1922 से 1938 तक दौलतपुर के सरपंच के रूप में सेवा की आज उनके घर में दीया जलाने वाला कोई नहीं है।

 

कोसी, दण्डकारण्य, सतपुड़ा, थार, मराठवाड़ा के घने अंचलों और पूर्वोत्तर भारत यानी कि देश में जो परदेस है उस पर पहल लगातार संवेदनात्मक वृतांत प्रकाशित कर रही है। इस बार एक नवोदित प्रतिभा श्यामदास (शिलांग) ने उस बैसवाड़ा की हिन्दी पट्टी की एक छोटी सी खबर ली है जहां महावीर प्रसाद द्विवेदी और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जड़ें और गांव घर थे।

संपर्क - 9863531572, शिलांग

 

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