उत्तर पूर्व : भूटान- खुशहाली के देश में !

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    जून 2019
श्रेणी उत्तर पूर्व : भूटान- खुशहाली के देश में !
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम जितेन्द्र भाटिया





बस्ती बस्ती परबत परबत

 

 

  यदि दलाई लामा की मानें तो खुशहाली का आर्थिक और दुनियावी सम्पन्नता से बहुत कम रिश्ता होता है। खुशहाली दरअसल एक आध्यात्मिक और मानसिक स्थिति है जिसमें इंसान स्वयं और अपने परिवेश से  मधुर  सामंजस्य बना एक सार्थक जीवन जीता है। मुझे इस फलसफे का सबसे खूबसूरत उदाहरण संवेदनशील फिल्मकार प्रवीण मोरछले की पुरस्कृत फिल्म  'वॉकिंग विद दी विंड’ में दिखाई दिया जिसमें सुदूर लद्दाख में बसे एक छोटे से स्कूल में दस-बारह साल का बच्चा हर रोज़ सात-आठ किलोमीटर का सफ़र अपने खच्चर के साथ तय करता है और जब उसकी लापरवाही से क्लासरूम की कुर्सी का एक पैर टूट जाता है तो उसे दुरुस्त करना उसकी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है। खूबसूरत वादियों में मुश्किल जीवन जीते हुए अत्यंत गरीब, मगर खुशहाल लोगों के बीच से गुज़रती यह फिल्म बेहद कमजर्फी के साथ अपनी बात कहती है। प्रवीण ने इसके बाद कश्मीर के पुलवामा की एक 'आधी विधवा’ पर बेचैन करने एवं कोलकाता फिल्म समारोह में श्रेष्ठ फिल्म पुरस्कार जीतने वाली फिल्म 'विडो ऑफ़ साइलेंस’ भी बनाई है, लेकिन हमारी द्रोणाचार्य नज़र फिलहाल लद्दाख वाली उनकी पहली फिल्म पर है।

उत्तर पूर्व की यात्रा के दौरान प्रवीण की सुदूर लद्दाख में फिल्मायी 'वॉकिंग विद दी विंड’ का याद आना अनायास नहीं है। पश्चिम बंगाल की उत्तरी सरहदों से सटे भूटान देश की समूची आत्मा में गोया कि 'वॉकिंग विद दी विंड’ का वास है और अपने दार्शनिक चिंतन में भी यह प्रदेश लद्दाख या कि बौद्ध साधकों की सुझायी जीवन शैली के बहुत नज़दीक दिखाई देता है। कठिन पहाड़ी जीवन जीते हुए, बहुत कम में भी कैसे अत्यंत संपन्न और सुखी हुआ जा सकता है, इसका मूलमंत्र यहाँ की हवाओं और यहाँ फैले 'पवित्र’, अछूते जंगलों में बसा है। जीवन के इस सबक की संभवत: सबसे अधिक ज़रूरत भूटान के बड़े भाई ('बिग ब्रदर’) भारत को है, हालाँकि इस पार की गलाकाट व्यावसायिक मनोवृत्ति को शायद ही कोई महत्त्व ही कभी समझ में आए. बहुत से पर्यटकों ने सहज भाव से भूटान को 'लैंड ऑफ़ हैप्पीनेस’ की उपाधि से नवाज़ा है। लेकिन भूटान की इस अंदरूनी, खुशनुमा रूह तक पहुँचने के लिए आपको सबसे पहले अपने मानदंड और पारंपरिक 'टूरिस्ट’ लबादे एक ओर फेंकने होंगे।  

भूटान की इस दूसरी यात्रा की मुकम्मल तैयारी मैंने कोलकाता से पारो की एक घंटे की हवाई यात्रा से पहले ही कर ली थी। उम्मीद के अनुसार जब सुबह का आसमान साफ़ निकला था तो उड़ान भरने से पहले ही मैंने बांये ओर की खिड़की पर अपना कैमरा तैनात कर लिया था। उम्मीद के अनुसार आधी यात्रा के बाद पायलट ने सूचना दी थी कि बांयी ओर के यात्री अब अपनी खिड़कियों से एवरेस्ट शिखर देख सकते हैं तो मैंने उत्सुकता में क्षितिज पर धीरे धीरे उभरती पर्वतमालाओं की ओर देखा था। सब कुछ उम्मीद के मुताबिक़ था, लेकिन उस साफ़ आसमान में भी ऐन मौके पर एवेरेस्ट शिखर पर टिके एक छोटे से बादल के टुकड़े ने सारी कोशिश बेकार कर दी थी और प्रकृति से हार मान मुझे कैमरा रख देना पड़ा था। शायद ऐसी ही किसी स्थिति के लिए निदा फ़ाज़ली ने लिखा होगा कि 'कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता/ कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता’!

एवरेस्ट की इससे बेहतर तस्वीरें मुझे पहली यात्रा के दौरान मिली थी, मगर मेरा मानना है कि एवरेस्ट अपनी ऊँचाई के बावजूद कंचनजंघा और हिमालय की कई दूसरी कम ऊंची चोटियों जितना खूबसूरत नहीं है। ज़मीन के कई स्थलों से तो इसकी ऊँचाई का अहसास तक नहीं होता और इसकी अनेकानेक यात्राओं से लौटे कुछ पर्वतारोहियों का कहना है कि जब तक बीच के पड़ाव साउथ कोल और उससे आगे पर्वतारोहियों द्वारा दशकों से फैलाए कचरे की मुकम्मल सफाई नहीं हो जाती, तब तक इस शिखर की बेहद लोकप्रिय यात्राओं पर बेतरह नियंत्रण लगाया जाना ज़रूरी है। लेकिन नेपाल का वाणिज्य विभाग अपने देश के इस सबसे बड़े आकर्षण पर यह प्रस्ताव मंज़ूर करेगा, इसमें भारी संदेह है।

सत्रह हज़ार फीट ऊंचे पहड़ों के बीच गहरी घाटी में बने पारो हवाई अड्डे को दुनिया के सबसे खतरनाक हवाईअड्डे का अप्रिय खिताब प्राप्त है। कहा जाता है कि दुनिया में केवल आठ पायलट ही  पहाड़ों के बीच से यहाँ प्लेन उतारने की दक्षता रखते हैं। 1981 में भारत के सहयोग से बने इस हवाईअड्डे पर पहले सिर्फ छोटे डोरनियर विमान ही उतर सकते थे। 1990 में हवाई पट्टी की लम्बाई बढ़ाने के बाद यहाँ बड़े जेट हवाई जहाज़ों का आना संभव हुआ। इतनी जोखिम भरी पट्टी पर उतरने के बावजूद इस हवाई अड्डे का बेदाग़ इतिहास अनुभवी पायलटों की बेहतरीन कुशलता का परिचायक है।         

पारो हवाई अड्डे पर सही सलामत उतर चुकने के बाद खुशहाली का दूसरा अहसास आपको यहाँ के इमीग्रेशन कक्ष में पहुँचने पर होगा। यूरोप के तमाम हवाई अड्डों पर 'ई यू’ (यूरोपियन यूनियन) के नागरिकों के लिए बने काउंटरों से ज़न्नाटे में पार हो जाने वाले यात्रियों को देख हम 'अदर फॉरेनर्स’ की लम्बी कतारों में अनंतकाल के लिए फंसे फिसड्डी हिन्दुस्तानियों को हमेशा हीनता का भाव महसूस होता है। भूटान पहुँच आप इस अपमान का बदला ले सकेंगे। यहाँ भारत, बांग्लादेश और मालदीव के 'सार्क’ नागरिकों के लिए अनेकानेक काउंटर हैं (वर्ष 1949 की एक संधि के अनुसार इन देशों के नागरिकों को यहाँ आने के लिए वीज़ा की दरकार नहीं है), जबकि 'अन्य विदेशियों’ पर भूटान प्रवेश के लिए  वीज़ा के साथ साथ रिहाइश के लिए प्रति दिन दो सौ डॉलर फीस देने की अनिवार्यता है।  

पर्यटन भूटान के लिए एक बड़ा उद्योग है, लेकिन फिर भी यहाँ आने वाले मेहमानों के संख्या बेतरह संचालित की जाती है ताकि पर्यटकों की भीड़ से पर्यावरण के लिए कोई खतरा पैदा न हो। पिछले वर्ष देश में आए कोई ढाई लाख पर्यटकों में से तीन चौथाई हिंदुस्तानी थे, जिनका पर्यावरण संबंधी 'ट्रैक रिकॉर्ड’/ अनुशासन शायद विदेशियों के मुकाबले बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता। शेष में बांग्लादेश, अमेरिका, चीन, कोरिया, जापान और सिंगापुर से आने वालों की संख्या सबसे अधिक है। लेकिन भूटान की कुल 8 लाख की जनसंख्या को देखते हुए हर तीन व्यक्तियों पर एक पर्यटक का यह अनुपात भारत के 145 व्यक्तियों पर एक पर्यटक के अनुपात से लगभग पचास गुना अधिक है, जिसे देखते हुए भूटान सरकार द्वारा इसके समुचित संचालन की गंभीरता समझ में आती है।

लद्दाख की ही तरह भूटान भी बौद्ध मठों और विहारों का प्रदेश है। माना जाता है कि नवीं और दसवीं शताब्दी के बीच भारतीय मूल के बौद्ध गुरू पद्मसंभव (रिनपोन्चे) ने भूटान, नेपाल, लद्दाख, सिक्किम और उससे आगे तिब्बत तक में बौद्ध धर्म फैलाया था। इन प्रदेशों के बौद्ध अनुयायी पद्मसंभव को 'दूसरे बुद्ध’ की तरह पूजते हैं. एक तरह से भूटान के बौद्ध धर्म में तिब्बत के तांत्रिक बौद्ध धर्म, बौद्ध पूर्व की 'बोन’ आस्थाओं और ज्हूंग ज्हुंग परम्पराओं का भी समावेश है, जिसके चलते यहाँ के कर्म कांड में आपको इन सभी परम्पराओं के प्रतीक दिखाई दे जायेंगे।

पारो का इतिहास भी वहां पद्मसंभव के आगमन से जुड़ा है। दसवीं शताब्दी के आरम्भ में उन्होंने यहाँ पारो नदी के किनारे प्रसिद्ध रिनपुंग द्ज़ोंग मठ की स्थापना की थी. मठ का पत्थरों से बना पांच मंजिला किलेनुमा स्वरूप तिब्बत की ओर से होने वाले हमलों को रोकने के लिए था। रिनपुंग यानी रत्नों का पुंज, लेकिन ये सारे रत्न 1907 की एक भयानक आग में राख हो गए थे। द्ज़ोंग का सिर्फ एक हिस्सा बचा रह गया था, जिसे स्थानीय राजा या नवाब (स्थानीय भाषा में 'पेनलोप’) दवा पेनजोर और उनके बेटे त्शेरिंग पेनजोर ने दुबारा बनवाया था। इसके भीतर अब मुखौटों और पोशाकों का एक अनूठा संग्रह है। यहीं से ऊपर पहाड़ी पर पुरानी मीनार-चौकी है जिसे अब राष्ट्रीय संग्रहालय में तब्दील कर दिया गया है।

आधुनिक पारो का विकास एक तरह से वहाँ हवाई अड्डा आ जाने के बाद ही हुआ है। यहाँ आम पर्यटक स्थलों की तरह एंटीक सामग्री की दुकानें, चंद कॉफ़ी हाउस-रेस्त्रां और फुटकर शहरी दुकानों की कतारें दिखेंगी जिनके दूकानदार और मालिक अंग्रेज़ी/ हिंदी बखूबी समझने के अलावा हमारे पर्यटकों से मोल-भाव की देशी कला भी धीरे-धीरे सीख रहे हैं।

 उत्सव वाले दिनों में पारो नदी के किनारे सड़क पर मेले के लिए आये लोगों की गाडिय़ों का जमावड़ा हो जाता है। यह मेला बौद्ध पंचांग के दसवें दिन ज़ोर-शोर से लगता है जिसमें कई तरह की प्रतियोगिताओं का आयोजन होता है और ये उत्सव अब देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए तस्वीरें खींचने का सबब भी बनने लगे हैं।

रात में लगभग डेढ़-दो घंटे हुई हल्की बारिश ने पारो से भूटान के सबसे ऊंचे चेलेला दर्रे की तीस किलोमीटर की यात्रा को अविस्मर्णीय बना दिया। साढ़े बारह हज़ार फीट की ऊँचाई पर स्थित भूटान के सबसे ऊंचे दर्रे चेलेला पर हमेशा कुछ बर्फ मिलती है, लेकिन पिछली रात की बारिश ने देवदार और लाल-सफ़ेद बुरांश के पेड़ों के साथ-साथ पूरी सड़क को बर्फ से ढँक दिया था। चेलेला से जोमोलहारी और जिचू द्राके की इक्कीस-बाईस हज़ार ऊंची सीधी चोटियों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। बर्फ को काटते हुए हम बमुश्किल ऊपर तक पहुंचे तो पूरा दर्रा सफ़ेद चादर से ढंका हुआ मिला। अलस्सुबह धूप की पहली किरणें पेड़ों से छनकर हम तक पहुँच रही थी। उस शून्य के आसपास के तापमान में दर्रे की बेंचों पर बर्फ से घिरे, साथ लाये नाश्ते के साथ थरमस से गर्म चाय पीने के सुख तो शब्दों में बांधना मुश्किल था। इतनी ठण्ड में भी दो सफ़ेद कुत्ते भोजन की तलाश में पता नहीं कहाँ से आकर हमारे गिरोह में शामिल हो गए थे। बर्फ़बारी के बाद आसमान के खुलने पर ठंडक अपने चरम पर पहुँच जाती है। गाड़ी में हीटर होने के बावजूद हम बाहर ताज़गी भरी बर्फीली हवा में बैठने से अपने को रोक नहीं सके थे।

लौटती खेप पर हमें बर्फ में फंसी कई गाडिय़ाँ मिली, जिनमें से कई को हमारे हंसमुख चालक दोरजी ने हँसी-खुशी अपनी अनुभवी युक्तियों और धक्कों से बाहर निकाला दिया। इस कमाल पर हमने तालियाँ बजायीं तो उसने असम्पृक्त भाव से बताया कि सर्दियों में तो वहाँ के ड्राइवरों के लिए यह रोज़ का किस्सा होता है।

चेलेला की ढलानों पर अक्सर खूबसूरत मोनल पक्षी के साथ-साथ वहां के दुर्लभ रक्तिम तीतर 'ब्लड फेज़ेट’ के झुण्ड ऊपर चढ़ते या उतरते दिखते हैं। इन्हें ढूँढने के लिए पर्यावरण प्रेमी अक्सर कई-कई दिन यहाँ गुज़ार देते हैं, लेकिन दोरजी और हमारे स्थानीय गाइड रबदे की चौकन्नी निगाहों की मदद से ये दोनों ही पक्षी हमें आसानी से दिख गए। इसके दो तीन दिन बाद ही सुदूर बूमथांग में साढ़े ग्यारह हज़ार फीट की ऊँचाई पर बने थारपालिन गोंपा (मठ) में हमने इन पक्षियों को दुबारा देखा था। चौदहवीं शताब्दी में बने प्राचीन थारपालिन गोंपा का रास्ता सुरम्य छूमे घाटी से होता हुआ धीरे धीरे ऊपर चढ़ता चला जाता है। यहाँ के आँगन में शाम के वक्त बौद्ध भिक्षुओं द्वारा फेंके दानों को चुगने के लिए आस पास के जंगलों से मोनल पक्षी आते हैं। मनुष्यों की छाया तक से डरकर भाग जाने वाले ये पक्षी भिक्षुओं से ज़रा भी नहीं डरते।  उत्तरांचल, अरुणाचल और नागालैंड में पिछले कई दशकों से हज़ारों मोनल अपनी सुन्दर कलगी के लिए बेरहमी से मारे जाते रहे हैं। थारपालिन गोंपा में आप इन पक्षियों को निर्भीक घूमता देख सकते हैं।

चौदहवीं शताब्दी में तिब्बत से भागकर बूमथांग आये न्यिंगमापा विचारधारा के महान दार्शनिक लोंग्चेन रबजाम ने 1352 में थारपालिन गोंपा का निर्माण किया था और तब से अनेक नायकों द्वारा पुनर्निर्माण से गुज़रा यह गोंपा आज भी तांत्रिक न्यिंगमापा दर्शन का प्रमुख केंद्र माना जाता है। यहीं से कुछ और उत्तर में छोद्रक मठ है जहां कहते हैं गुरू रिनपोन्चे ने स्वयं  तपस्या की थी।

भूटान की तीन चौथाई आबादी बौद्ध है और शेष एक चौथाई में हिन्दू और दूसरे समुदायों के लोग आते हैं, जिनमें से अधिकांश देश के दक्षिणी भाग में भारत की सीमा के निकट बसे हैं। यहाँ की सत्तर प्रतिशत धरती जंगलों से ढंकी है। बौद्ध धर्म अनुयायिओं की दो प्रमुख धाराएं द्रुक्पा काग्यू और न्यिंगमापा हैं। बौद्ध परंपरा में 'पवित्र’ जंगलों को काटना या नष्ट करना वर्जित है, जिसके चलते दुनिया के सबसे अच्छे प्राचीन जंगल आज भूटान में पाए जाते हैं।

भूटान की भाषा द्ज़ोंगखा (दुर्ग की भाषा) दरअसल यहाँ के शासक वर्ग द्वारा विकसित भाषा है, हालांकि इसके समानांतर यहाँ के उत्तरी भाग में बंजारों की अनेक जनजातियाँ आज भी बेहद सादगी का जीवन व्यतीत करती हैं।  इनमें से प्रमुख—'ब्रोकपा’ और 'लयप’ जातियों के पूर्वज सदियों पहले तिब्बत के त्शूना इलाके से भूटान आये थे। ये गायें पालने वाले हमारे पहाड़ी खानाबदोशों की तरह अपने याकों के साथ यहाँ से वहां भटकते रहते हैं। कहते हैं कि इन्होंने पिछली कई सदियों में अपने परिवेश में ही रहते हुए दुनिया की संभवत: सबसे मुश्किल आबोहवा में जीने की काबिलियत विकसित कर ली थी। इनकी एकमात्र संपत्ति उनके याक जानवर हैं। इनके पास एक से सौ डेढ़ सौ याक तक हो सकते हैं और इनका दूध, मक्खन, मांस और चमड़ा इनके जीवन का आधार बनता है।  गर्मियों से पहले, साल में एक बार याक के बाल उतारे जाते हैं। इसकी ऊन से कपड़ों के अलावा टोपियाँ और तम्बू बनते हैं। कहा जाता है कि याक ऊन से बना तम्बू औसतन तीस साल तक चलता है। सर्दियों में पूरा परिवार एक तम्बू में दुबककर ठण्ड से बचता है। ब्रोकपा बंजारों में स्त्री अक्सर परिवार की प्रमुख होती है। इनमें बहुविवाह का चलन है और संपत्ति का बंटवारा रोकने के लिए स्त्रियाँ कई बार अपने पति के सभी भाइयों से शादी कर लेती हैं। वक्त की रफ्तार के साथ ब्रोकपा परिवारों की परम्पराएं भी धीरे धीरे बदल रही हैं और सरकार भी इन खानाबदोशों को जीवन की मुख्य धारा में लाने का प्रयास कर रही है।                        

पारो नदी (पा छू) के किनारे पारो शहर से भूटान की राजधानी थिम्फू तक का 55 किलोमीटर का रास्ता शायद भूटान का सबसे व्यस्त मार्ग है। इसी पर आगे चलकर आप थिम्फू और पारो नदियों के संगम छुज़ोम पर आ जाएंगे, जहां से एक रास्ता दक्षिण की ओर भारत की सीमा पर बसे फंत्शोलिंग शहर की ओर निकल जाता है और दूसरा, थिम्फू नदी (वांग छू)  के किनारे से ऊपर चढ़ता, सेब, नाशपाती और चेरी के फूलों से लादे पेड़ों से होता हुआ हमें देश की राजधानी तक पहुंचाता है। द्रुत गति से बहती नदियों पर बने बांधों से भूटान में 1600 मेगावाट से अधिक बिजली पैदा होती है, जिससे देश के लगभग सभी गांवों को रोशन करने के बाद भी बहुत हिस्सा बच जाता है। भूटान के सरकारी खर्च का 27 प्रतिशत हिस्सा बिजली के निर्यात से आता है और देश के कुल सकल उत्पाद में भी इस बिजली का 14 प्रतिशत हिस्सा है।  देश की लगभग सभी हाइड्रोपॉवर योजनाएं भारत के आर्थिक सहयोग से बनी हैं और यहाँ की बिजली का लाभ आज पश्चिमी बंगाल के अतिरिक्त बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा और सिक्किम को मिल रहा है।

लेकिन बिजली की इस बहुतायत के बावजूद लगभग एक लाख की आबादी वाली देश की राजधानी थिम्फू में आपको बिजली के दुरूपयोग की शायद ही कोई मिसाल देखने को मिले। पुराने शहरों की तरह चौराहों पर लाइट्स की जगह नृत्य करते पुलिसमैन तैनात हैं और अधिकाँश इमारतों में लिफ्ट नहीं है। यूं भी भूटान में ऊंची इमारतों का बहुत कम चलन है। साढ़े सात हज़ार फीट पर स्थित थिम्फू दुनिया की सबसे ऊंची राजधानियों में पांचवें नंबर पर है लेकिन इसकी चार हज़ार प्रति वर्ग किलोमीटर से भी कम की आबादी दुनिया के अधिकांश शहरों से कम ठहरेगी। शहर के प्रमुख बाज़ार नोर्ज़िन लाम पर चलते हुए भी आपको बेहद खुलेपन का अहसास होगा।

थिम्फू की ताशीछो द्ज़ोंग, जहां राजधानी के अधिकाँश सरकारी दफ्तर स्थित हैं, एक बहुत बड़ी और भव्य इमारत है, लेकिन इसी से सटकर खड़े देश के शाही निवास की सादगी और नामालूम पहचान आपको आश्चर्य में डाल देगी। यह घर किसी भी नज़रिए से रानी एलिज़ाबेथ के बकिंघम पैलेस की पांव की धोवन के भी बराबर नहीं है। लेकिन इसके भीतर रहने वाले नौजवान 39 वर्षीय राजा को आज 'जनता के राजा’ का बेहद लोकप्रिय खिताब हासिल है और भूटान में शायद ही कोई दूकान, रेस्त्रां, सार्वजनिक स्थल या घरों की बैठक होगी जहाँ उनकी और उनके परिवार की खूबसूरत तस्वीरें न दिखाई दें। इसमें कोई शक नहीं कि जिग्मे खेसर वांगचुक देश के चहीते नायक हैं और उनकी यह सर्वव्यापी पहुँच और मान्यता अनायास नहीं है।

1864 में अंग्रेज़ों से हुई दुआर संधि के बाद से भूटान के ब्रिटिश सरकार के साथ शांतिपूर्ण सम्बन्ध स्थापित हो गए थे। इसके तुरंत बाद वहां पारो और तोंग्सा के बीच गृहयुद्ध छिड़ गया, जिसमें अनेकानेक छोटे-मोटे संघर्षों के बाद तोंग्सा के नवाब (पेनलोप) उग्येन वांगचुक विजयी हुए और उन्होंने कई वर्षों तक पूरे देश को एक करने का काम किया। 1907 के एक ऐतिहासिक आयोजन में देश के सभी बौद्ध प्रमुखों, अधिकारियों और महत्वपूर्ण राजघरानों ने उग्येन वांगचुक को सर्वसम्मति से भूटान का राजा घोषित किया था और अंग्रेज़ों ने भी 1910 में इस चुनाव को विधिवत स्वीकार कर लिया था। 

भूटान 1947 में भारत की स्वतंत्रता को मान्यता देने वाला पहला देश था। 1949 में भारत और भूटान के बीच एक संधि पर हस्ताक्षर हुए और 1953 में तत्कालीन राजा जिग्मे दोरजी वांगचुक ने वहां जनतांत्रिक पद्धति अपनाने के लिए विधान सभा का गठन किया। इससे आगे 1965 में वहां एक राजकीय सलाह समिति भी बनाई गयी जिसने 1968 में मंत्रिमंडल की स्थापना की। 1972 में जिग्मे दोरजी वांगचुक की मृत्यु के बाद उनके बेटे जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने गद्दी संभाली तो उन्होंने सत्ता में आते ही सबसे पहले सत्ता के अधिकांश अधिकार अपने मंत्रिमंडल को सौंप दिए। इन अधिकारों में बाकी चीज़ों के अलावा दो तिहाई जनमत होने पर राजा को भी हटाने का प्रावधान था! 2006 में जिग्मे सिंग्ये ने सत्ता छोड़ कर अपनी जगह 28 वर्षीय बेटे जिग्मे खेसर को देश का राजा बनाया। लेकिन जिग्मे खेसर ने जनतांत्रिक मूल्यों को कुछ और आगे बढ़ाते हुए कहा कि वे देश में जनमत द्वारा अनुमोदित किये जाने के बाद ही सत्ता संभालेंगे। 2008 में भूटान के सम्पूर्ण राजशाही से जनतांत्रिक राजशाही बनाये जाने के अवसर पर उन्होंने कहा, ''हम मज़बूत और शांतिप्रिय राजशाही से एक जीवंत जनतंत्र की ओर कदम बढ़ा रहे हैं और इस समय हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता इस जनतंत्र को सफल बनाना होगी!’’

2008 में जिग्मे खेसर वांगचुक के राज्याभिषेक में भारत का प्रतिनिधित्व तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने किया था। इससे कुछ महीने पहले ही भूटान सरकार देश के पहले संविधान को भी पारित कर चुकी थी। जिग्मे खेसर की लोकप्रियता भूटान में ही नहीं, वहां से बाहर भी है। 2006 में जब वे थाईलैंड के राजा के 60 वर्षों के उत्सव में भाग लेने के लिए बैंकाक गए थे तो वहां की असंख्य महिला प्रशंसकों के चलते श्चह्म्द्गह्यह्य ने उन्हें 'प्रिंस चार्मिंग’ की उपाधि दी थी। भारत से उनके सम्बन्ध शुरू से ही मधुर रहे हैं और 2013 में भारत के स्वतंत्रता दिवस समारोह में वे मुख्य अतिथि बनकर आए थे। 2002 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में दुनिया भर में बच्चों की खुशहाली को लेकर उनके भाषण को भी सराहा गया था।

थिम्फू से पुनाखा का सुन्दर रास्ता एक और दर्रे दोचुला से होकर गुज़रता है। मार्च के महीने में यहाँ चेरी के पेड़ असंख्य बैगनी फूलों से लादे दिखाई देंगे। बुरांश के फूल अभी निकलने ही शुरू हुए हैं लेकिन तीखी चोंच वाले रंगबिरंगे शक्करखोरे पक्षियों ने अभी से इन पर धावा बोल दिया है। साफ़ मैसम में यहाँ से हिमालय का विहंगम दृश्य दिखता है। इनमें साढ़े तेईस हज़ार की सबसे ऊंची मसंगगांग चोटी भी है जिसे आज तक कोई चढ़ नहीं सका है। यहीं भूटान का प्रसिद्ध रॉयल बोटैनिकल उद्यान हैं जहां बुरांश की 46 किस्में मिलती हैं। इनमें से 29 सिर्फ भूटान में पायी जाती हैं। दोचुला दर्रे पर बने 108 बौद्ध स्तूप या 'चोर्तेन’ राजा की पत्नी द्वारा बनाए हुए हैं। बौद्ध परंपरा में राजधर्म की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी 'किदू’ कही जाती है, जिसमें राजा अपनी प्रजा की मदद के लिए हाथ आगे बढ़ाता है। राजा जिग्मे खेसर के सुदूर गाँवों में 'किदू’ के किस्सों के लोग अब भी याद करते हैं। 2009 और 2011 के भूकंप और बाढ़ के दौरान वे स्वयंसेवकों के साथ मिलकर काम करते रहे थे। उनके भूमि सुधार कार्यक्रम से कई साधनहीनों को ज़मीनें मिली हैं।

अक्टूबर के महीने में भूटान सेना के सम्मान में दोचुला वांग्याल उत्सव लगता है जिसमें रंग बिरंगे मुखौटों वाले चेहरों के नृत्य देखने को मिलते हैं। दोचुला दर्रे से नीचे पुनाखा घाटी में उतरते हुए हम सरू और मैगनोलिया के पेड़ों से घिर जाते हैं। चांदनी रातों में मैगनोलिया के चमकते बड़े बड़े सफ़ेद फूलों पर गिरती रोशनी का ज़िक्र चीन और जापान के साहित्य में बार-बार आता है। जापान के महान कवि-पर्यावरण प्रेमी मियाज़ावा केंजी ने तो अपनी एक कहानी में रात के समय इन फूलों से चमत्कृत भालू के निरीह बच्चे और उसकी मां के बीच के काल्पनिक संवाद तक को बाँध डाला है। जंगल के इन कदाचित सबसे खूबसूरत फूलों को देखने के लिए उत्तर पूर्व के हिमालय से बेहतर कोई दूसरी जगह नहीं।

यहीं से आगे पुरुष $फो छू और स्त्री मो छू नदियों के संगम पर खड़ा है भूटान की पुरानी राजधानी का सबसे भव्य दुर्ग पुनाखा द्ज़ोंग जिसे 'पुंगतांग देवा छेनबी फोद्रांग’ यानी असीम प्रसन्नता और सुख का महल भी कहा जाता है और थिम्फू स्थानांतरित होने से पहले 1955 तक यहाँ से देश की सरकार चलती रही। इस दुर्ग या महल के भीतर प्राचीन तिब्बत के द्रुक्पा-काग्यु बौद्ध धर्म के पवित्र चिन्ह सुरक्षित हैं। भूटान की सर्दियों की राजधानी पुनाखा में स्थित इस द्ज़ोंग में देश के प्रमुख बौद्ध धर्म प्रमुख अपना शीतकाल गुज़ारते हैं। 

भूटान की पहाडिय़ों पर आपको अक्सर रंग बिरंगे तिकोने झंडों की भरमार मिलेगी। इनके पांच रंग प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं। सफ़ेद बादल, नीला आसमान, लाल अग्नि, हरा जल और पीला धरती। हवा में फ़रफराते इन झंडों पर कभी-कभी अंकित बौद्ध मन्त्र इन शक्तियों से शांति और खुशहाली का आह्वान करते हैं।

मुझे दिखाई देता है कि पिछले छ: वर्षों में भूटान का पर्यटन बेतरह विकसित हुआ है और कई छोटी-बड़ी पर्यटन संस्थाएं और कम्पनियाँ विदेशी पर्यटकों को उनकी रूचि के मुताबिक़ देश के विभिन्न हिस्सों में ले जाने लगी हैं, जहां तक पहुंचना पहले इतना आसन नहीं था। आज भी पारो और थिम्फू के अलावा दूसरे स्थानों तक जाने के लिए अग्रिम अनुमति लेना आवश्यक है, लेकिन  यह सारी जिम्मेदारी अब ये मेज़बान कंपनियां ले लेती हैं।

पुनाखा से आगे बढ़ते हुए हम भीतरी भूटान के त्रोंगसा गाँव की और आ जाते हैं। यहाँ सदियों से पश्चिम से पूर्व जाने वाली एकमात्र सड़क थी जिससे दोनों इलाकों के बीच का व्यापार होता था। स्थानीय प्रमुख 'पेनलोप’ के आदेश पर यदि इसके दरवाजे बंद कर दिए जाते थे तो पूरा देश दो हिस्सों में बाँट जाता था। यह देश का खेतिहर इलाका है लेकिन यहाँ आलू और चावल के अलावा बहुत कम फसलें होती हैं। हमने कई जगह छोटे छोटे संतरों से लादे पेड़ भी देखे। और इन सबके अलावा या कि इनसे ऊपर भूटान में सबसे अधिक खेती अलग अलग किस्म की मिर्चों की होती है। इनमें तीन किस्में 'शा एमा’, 'बाएगोप एमा’ और 'सुपर सोलो’ प्रमुख हैं। हर परिवार न सिर्फ अपने लिए पर्याप्त मिर्चें उगाता है बल्कि उनमें से बची हुई को बाज़ार तक भी पहुंचता है। एक अनुमान के अनुसार भूटान में प्रतिवर्ष लगभग तीन हज़ार टन मिर्चों का उत्पादन होता है जिनमें से एक तिहाई भारत निर्यात कर दी जाती हैं और शेष स्थानीय खपत के लिए बचती हैं। यदि इन आंकड़ों को देश की जनसँख्या से जोड़कर पढ़ा जाये तो अंदाज़ होगा कि एक भूटानी व्यक्ति हर साल औसतन 20 से 25 किलो मिर्चें खा जाता है!

हमारा गाइड रबदे कुछ सम्मान के साथ बताता है कि पूरे देश में नि:शुल्क स्कूली शिक्षा की जिम्मेदारी सरकार लेती है। यहाँ स्थानीय भाषा के अलावा अंग्रेज़ी की शिक्षा भी दी जाती है, जिसके चलते अधिकाँश पढ़े लिखे लोग अंग्रेज़ी समझते और बोलते हैं। ''यहाँ सरकारी स्कूलों का स्तर काफी अच्छा है और राजवंश के सारे बच्चे भी इन्हीं स्कूलों में पढ़ते हैं!’’ लेकिन फिर भी डाक्टरी और इंजीनियरिंग की शिक्षा के लिए युवक बाहर जाते हैं। खुद राजा ने भी उच्च पढ़ाई विदेशों में की है।

पिछली बार की यात्रा पर हमें अधिकाँश जगहों पर भूटानी भोजन मिला था जिसमें याक के मक्खन और पनीर की भरमार थी। लेकिन इन छ: सात वर्षों में लगभग सभी होटलों और रेस्तराओं में भारतीय भोजन उपलब्ध होने लगा है और अधिकांश शहरों में याक के पनीर की जगह साधारण मक्खन और पनीर का इस्तेमाल किया जाने लगा है। त्रोंगसा के एक खूबसूरत रिसोर्ट में पत्तागोभी की स्वादिष्ट 'एमा दात्शी’ मिली। यह यहाँ का सबसे लोकप्रिय व्यंजन है। स्थानीय द्जोंग्खा भाषा में 'एमा’ का अर्थ है मिर्च और 'दात्शी’ पनीर को कहते हैं। इन दोनों के मिश्रण से असंख्य भूटानी व्यंजन बनाए जा सकते हैं। मिर्चों के बीस तीस प्रकार मिलते हैं और पनीर भी याक या गाय के दूध का हो सकता है। इनके साथ एक तीसरी सब्ज़ी भी मिलायी जा सकती है। और मिर्चों की जगह आलू, फलियों या कुकुरमुत्तों का इस्तेमाल होने पर यह 'केवा दात्शी’, 'चम दात्शी’  या 'शमु दात्सी’ बन जाती है। मिर्चों की किस्मों के आधार पर यह कम तेज़ या बेहद तीखी हो सकती है। सुदूर उरा गाँव में हमें स्थानीय चावल की स्वादिष्ट मुड़ी भी मिली जिसे वे 'ज़ाऊ’ कहते हैं।

हम सामान्य पर्यटकों की सीमाओं से आगे भूटान के दूसरे सबसे ऊंचे हिमाच्छादित दर्रे थ्रुमशिन्गला तक आ पहुंचे हैं, जहाँ सड़कों के दोनों ओर गहरी घाटियाँ हैं और चोटी के आसपास प्रार्थना के झंडे लगे हुए हैं, वहां तक सकुशल पहुँचने की कामनाओं के साथ। हमने जाना कि ईश्वर और प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का यह भाव ही यहाँ के धर्म का मूल आधार है जिसे सदियों से ऋषियों से लेकर सामान्य लोगों ने अपने जीवन में अपनाया है। यह दर्रा सर्दियों में काफी समय के लिए बंद रहता है और मार्च में भी जब हम यहाँ से गुज़रे तो आधे रास्ते रुक रुककर बर्फ गिरती रही। भूटान की अगली योजना के अंतर्गत यहाँ की मुख्य सड़क पर एक नया बाईपास प्रस्तावित है जो थ्रुमशिन्गला को छुए बगैर नीचे से ही निकल जाएगा। पर्यावरण प्रेमियों के विरोध के बावजूद सरकार ने इस नयी सड़क पर काम शुरू कर दिया है।

यहाँ से आगे हम तेज़ी से नीचे उतरते हुए बुमथांग और यांग्खोला, मोंगार के पूर्वी जिलों में आए हैं जहां से थिम्फू और पारो की अपेक्षाकृत संस्कृति एक ख्वाब जैसी दिखाई देती है। यहाँ ऊंचाइयों से नीचे गिरते झरने पारदर्शी ठन्डे पानी को ज़मीन तक पहुंचाते हैं। घर घर फूलों से लादे नाशपतियों के पेड़ों के बीच से दो झबरीले कुत्ते दुम हिलाते हुए हमारी ओर लपकते हैं। हमने पूरे भूटान में एक भी आक्रामक कुत्ता नहीं देखा। एक लेखक ने लिखा है कि थिम्फू में इंसानों से अधिक कुत्ते हैं और यहाँ लावारिस कुत्तों को कोई परेशान नहीं करता। वे कहीं भी आराम से सो जाते हैं। मुझे याद आता है कि पिछली बार की भूटान की यात्रा पर एक बड़ा सा कुत्ता चार दिनों तक लगातार हमारे साथ रहा था तो हमें लगा था कि ये जनाब शायद हमारे साथ भारत जाने के इच्छुक हैं।

पिछली एक कड़ी में हमने गुवाहाटी के उमानंद द्वीप पर पले सुनहरी लंगूरों का जिक्र किया था। यांग्खोला से वापस लौटते समय त्रोंगसा के नज़दीक यांग्खिल में हमने इन लंगूरों को पहली बार जंगल में विचरते देखा। छ: सात साल पहले तक ये लंगूर भारत में मानस नदी के दक्षिणी तट पर फैले मानस अभायारण्य से उत्तर में नहीं दिखते थे। हमारे गाइड का मानना है कि मानस नदी पर बने पुलों के बन जाने के बाद से ये बन्दर इस तरफ भूटान तक आ पहुंचे हैं और अब ये आगे भी फैलेंगे।

इस प्रदेश का एक और विलक्षण पक्षी मधुमक्खियों के छत्तों के आसपास पाया जाने वाला पीले रंग का मधुसूचक 'हनीगाइड’ है। यह छत्तों के कीड़े और लारवा खाता है और मधु इकठ्ठा करने वाले अक्सर इसका पीछा करते हुए जंगल में मधुमक्खियों के छत्ते ढूंढ निकालते हैं. यह मधुसूचक पक्षी आज विश्वस्तर पर संकटग्रस्त है।

अपने आखिरी मुकाम फुन्त्शोलिंग से सड़क द्वारा भारत आते हुए हम एक बार फिर भूटान की स्वच्छ और सादा छवि के कायल होकर लौट रहे थे। 2016 वर्ष में भूटान को दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे कम भ्रष्ट देश माना गया था और आर्थिक स्वतंत्रता में भी इसे पहला स्थान मिला था। यही नहीं, यह दुनिया का एकमात्र देश है जो राष्ट्र के रूप में अपनी अभिनव 'सकल राष्ट्रीय खुशहाली’ का विधिवत आकलन करता है। इस परिभाषा को पहली बार 1972 में वहाँ के नरेश जिग्मे सिंग्ये वांगचुक ने प्रतिपादित करते हुए कहा था कि 'सकल राष्ट्रीय खुशहाली’ दरअसल देश के 'सकल राष्ट्रीय उत्पाद’ से अधिक महत्वपूर्ण है। इससे आगे भूटान ने 'सकल राष्ट्रीय खुशहाली’ के नौ तत्व—मनोवैज्ञानिक प्रसन्नता, स्वास्थ्य, शिक्षा, समय का उपयोग, सांस्कृतिक विविधता और इसका लचीलापन, सुशासन, समाज की जीवन्तता, पर्यावरण की विविधता-सक्षमता और जीवनस्तर—भी परिभाषित किए थे जिनके आधार पर वहां हर वर्ष आकलन किया जाता है. एक सौ तीस करोड़ और आठ लाख की जनसँख्या में काफी फर्क होता है। लेकिन फिर भी देश में चलते चुनाव के मौसम में मेरे मन में सवाल उठ रहा था कि निचले स्तर के गालीगलौज, झूठे सामरिक पराक्रम और थोथे राष्ट्रप्रेम की जगह भूटान के इन नौ तत्वों के आधार पर भी क्या हमारे देश में कभी कोई चुनाव लड़ा जा सकता है? और यदि हाँ तो उसमें हमारे देश को सौ में से कितने अंक प्राप्त होंगे? 

फुन्त्शोलिंग से भूटान छोडऩे का ठप्पा अपने पासपोर्ट पर लगवाकर हमें भारत में प्रवेश करना था। भूटान की दो सप्ताह की यात्रा के दौरान बहुत कोशिश के बाद भी हमें वहाँ एक भी व्यक्ति भीख मांगता दिखाई नहीं दिया था। लेकिन भूटान की चौकी से ठप्पा लगवाकर हमारी गाड़ी जैसे ही बगल की भारतीय चौकी में प्रवेश का ठप्पा लगवाने के लिए दो कदम आगे सरकी तो उसके रुकते ही स्त्री-पुरुष भिखमंगों के एक आक्रामक जत्थे ने हमें चारों ओर से घेर लिया था। इन दोनों के बीच का यह अंतर ही शायद इन दोनों देशों की असली पहचान भी है।               

(उत्तर पूर्व पर 'पहल’ की इस विशेष श्रृंखला की आखिरी कड़ी में अगली बार सिक्किम)

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