आलोचना-कथालोचना का नया विवेक

  • 160x120
    जून 2019
श्रेणी आलोचना-कथालोचना का नया विवेक
संस्करण जून 2019
लेखक का नाम रविभूषण





मूल्यांकन/मलयज के बाद देवीशंकर अवस्थी

अगली बार विजय मोहन सिंह

 

 

 

''समीक्षा कृति एवं कृतिकार के लिए उपयोगी है, सामान्य पाठक के लिए उपयोगी है एवं ज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में अपने आप में भी उपयोगी है। उसकी इस रूप मे अपनी स्वतंत्र सत्ता भी है.. इन सभी उपयोगिताओं के मूल में आधारभूत या उपजीव्य सामग्री वह रचना विशेष ही होती है। रचना की जटिल संकुलता एवं अर्थस्तरों को स्पष्ट करके पाठकों को रचना का जो जीवंत बोध देकर ज्ञान के एक आयाम का वह विस्तार करती है - यही उसकी चरम सार्थकता है।’’

- कल्पना : नवम्बर 1960, रचना और आलोचना

वाणी प्रकाशन, 1995, पृष्ठ-10

 

''समकालीनता बोध और समसामयिक लेखन का जीवंत सम्पर्क नयी आलोचनात्मक प्रज्ञा को जन्म देता है तथा अगंभीर समीक्षाओं के बीच गंभीर और गणनीय समीक्षा-क्रिया को सामने ले आता है। आलोचना की यह भयंकर खामी होगी कि वह तमाम समसामयिक लेखन से कटा रहे... समकालीनता बोध से रहित आलोचना को आलोचना नहीं कहा जा सकता - शोध पाण्डित्य या कुछ और भले ही कह दिया जाये। आलोचना का पहला दायित्व नवलेखन के प्रति ही है। आलोचक-वर्ग का उदय जिस सांस्कृतिक प्रक्रिया का अंग है, उसमें उसे समसामयिक साहित्य की दुरुहता एवं मूल्य-चिन्ता दोनों से ही उलझना पड़ता है।’’

- 'विवेक के रंग’ की भूमिका, वाणी प्रकाशन, 1995, पृ. 10

 

''कहानी या उपन्यास का संबंंध भाषिक प्रयोगों पर आधारित न होकर उस बाह्य, यथार्थ से चुनी गई छवियों और उन छवियों को चुनने वाली दृष्टि-शक्ति पर निर्भर करता है। यहां तादात्म्य शब्दों नहीं, शब्दों के माध्यम से आभासित होने वाले यथार्थ से होता है। इस यथार्थ के लिए दृश्यों, व्यापारों, वस्तुओं और व्यक्तियों से ही कथा-समीक्षक का मुख्य सरोकार होता है - न कि लय, प्रतीक, बिम्ब या शैली के जंगल से।’’

- नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति की भूमिका

पृ. 22, राजकमल प्रकाशन, 1973

 

स्वतंक्ष भारत के आरंभिक दो दशक (1947-1967) और 'उनिभू’ (उदारीकरम, निजीकरम, भूमंडलीकरण या भूमंडीकरण) भारत के तीन दशक (1990-91-2019) बार-बार हमें एक साथ कई प्रश्नों पर विचार के लिए आमंत्रित करते हैं। जहां तक स्वतंत्र भारत के आरंभिक दो दशकों का प्रश्न है, अभी तक उसे उसकी समग्रता में, जिसमें एक साथ कला, साहित्य, फिल्म, आलोचना, विचार, सिद्धान्त, आधुनिकता, समकालीनता, संस्थाए, शिक्षा, राजनीति, अर्थनीति, चुनाव, लोकतंत्र, संस्कृति आदि है, कम विचार किया गया है। देवीशंकर अवस्थी (5 अप्रैल 1930-13 जनवरी 1966) ने 15 अगस्त 1947 को महत्व दिया है। उनके अनुसार यह एक परिवर्तनकारी समय है। उनका सारा ध्यान साहित्य पर है, उस 'स्ट्रक्चर’ पर नहीं जो ब्रिटिश शासकों ने निर्मित किया था और आज भी वह 'स्ट्रक्चर’ बरकरार है।

उनका ध्यान एक साथ 'रचना और आलोचना’ पर था। दोनों में आने वाले अन्तर को वे रेखांकित करते हैं। उन्होंने बार-बार यह कहा है कि साहित्य की प्रकृति में हुए बदलाव के साथ-साथ आलोचना की प्रकृति में भी बदलाव आता है। अपने आलोचनात्मक लेखन के पहले वे ऐसे परिवर्तनों को साहित्य से अलग भी देख रहे थे। छात्र-जीवन में ही उन्होंने 'दैनिक विश्वमित्र’ के सम्पादक के नाम 1951-52 में एक पत्र लिखा था - 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की घातक कूटनीति! (विवेक के कुछ और रंग, स्वराज प्रकाशन, दिल्ली, 2003) इस पत्र में उन्होंने 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की आड़ में 'संघ’ का प्रचार की बात कही थी। भारतीय जनसंघ की स्थापना (1951) के पहले अभाविप (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) की स्थापना 9 जुलाई 1949 को हुई थी। स्थापना वर्ष के मात्र दो वर्ष बाद ही इसकी गतिविधियों की ओर अवस्थी का ध्यान गया था। अपने पक्ष में उन्होंने संघ का उद्देश्य 'सदैव से राजनैतिक सत्ता हथियाने का माना’ था। लिखा था - ''एक ओर तो संघ केवल सांस्कृतिक संस्था रहेगी तथा दूसरी ओर नाम बदलकर हिन्दू डिक्टेटर शाही की स्थापना का प्रयत्न किया जाएगा।’’ (वही, पृष्ठ 71) जिस समय अभाविप के जाल में राजेन्द्र प्रसाद फंस रहे थे, इसके 'वास्तविक रूप और उद्देश्य का पता न लगाकर अपना शुभ संदेश’ दे रहे थे, जिसे पढ़कर सब 'सहयोग देने को उद्यत’ थे, शिक्षण-शिविर में कॉलेज के प्रिंसिपल भाषण दे रहे थे, मंत्री आदि इस संस्था को लिखित आशीर्वाद दे रहे थे, उस समय डी.ए.वी. कॉलेज कानपुर का यह छात्र लिख रहा था। ''सरकार का यह कर्तव्य है कि इन शिक्षा प्रचारकों की गतिविधि पर सतर्क दृष्टि रखे’’। ये उस समय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का उद्देश्य समझ चुके थे - ''रा.स्व.संघ स्वयं तो एक मूल शक्ति या कार्यकर्ता शक्ति के रूप में सुरक्षित रहेगा और तमाम दूसरी संस्थाएं बनाकर राजनैतिक उद्देश्य पूरा करेगा।’’ (वही पृष्ठ 93)

'विवेक’ उनकी आलोचना का बीज शब्द है। अपनी पत्नी कमलेश अवस्थी को 12.12.1956 के पत्र में उन्होंने लिखा - ''एम.ए. के दिनों में सुरेन्द्र शंकर, खेमका, बालकृष्ण ने मेरा नाम 'बुद्धि पक्ष’ रख छोड़ा था क्योंकि मैं द्गद्वशह्लद्बशठ्ठड्डद्य और ह्यद्गठ्ठह्लद्बद्वद्गठ्ठह्लड्डद्य बातों को मूर्खता समझा करता था। मैं बुद्धि को सर्वप्रथम तत्व समझा करता था और उसे आधुनिक मनुष्य की चरम उपलब्धि यहां तक कि अपने आलोचनात्मक लेखों में भी मैंने इसी दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की है।’’ (देवीशंकर अवस्थी रचना-संचयन, सम्पादक, कमलेश अवस्थी, साहित्यक अकादमी, नई दिल्ली, 2012, पृष्ठ 457) पैंसठ वर्ष पहले इस विवेक-चेतना और दृष्टि के कारण ही अवस्थी ने 1954 में 'भारत में प्रजातंत्र के ख़तरे’ ('विवेक के कुछ और रंग’ में संकलित) पहचाने थे और भारतीय राजनीति में 'अधिक भयंकर तत्व के रूप में’, 'मध्यवर्ग की तानाशाही’ के 'प्रविष्ट’ होने की बात कही थी। वे स्वयं मध्यवर्ग के थे और इस वर्ग को - किसी भी देश की सामाजिक चेतना की रीढ़ मानकर यह चिंता प्रकट कर रहे थे - ''हमारे देश की द्बठ्ठह्लद्गद्यद्यद्बद्दद्गठ्ठह्लह्यद्बड्ड बौद्धिक श्रेणी की यह मानसिक अवस्था राष्ट्र के राजनीतिक और आर्थिक भविष्य के लिए एक बड़े संकट का आवाहन कर रही है।’’ (वही, पृष्ठ 69) 1959 के इस लेख में अवस्थी ने भारत के दक्षिणपंथी दलों में 'भारतीय जनसंघ’ को 'अत्यन्त प्रतिगामी संस्था’ माना था और यह लिखा था - ''उसने भारतीय राजनीतिक चेतना में एक बड़े खतरनाक तत्व को जन्म दिया है, वह तत्व है अप्रत्यक्ष रूप से अधिनायक तंत्र में आस्था उत्पन्न करना। मजा यह है कि यह डिक्टेटरशिप ऑफ प्रोलेतैरियत न होकर डिक्टेटरशिप ऑफ मिडिल क्लास के रूप में आ रही है।’’ (वही, पृष्ठ 68) हिन्दी कविता में प्रसाद 'कामायनी’ में निराला 'गहन है यह अन्धकारा’ में और मुक्तिबोध ने 'अंधेरे में’ इस स्वार्थ की बात कही थी, पर आलोचकों में संभवत: देवीशंकर अवस्ती ही पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने साफ शब्दों में यह लिखा ''व्यक्तिवाद में स्वार्थों का बढऩा अनिवार्य है एवं उनके फलस्वरूप पारस्परिक अन्तर्विरोध और सत्ता हथियाने के षडयंत्र भी सम्मुख आएंगे।’’ (वही)

उनकी कथालोचना नामवर और सुरेन्द्र चौधरी से ही नहीं, धनंजय वर्मा और मधुरेश से भी, विजयमोहन सिंह, विश्वनाथ त्रिपाठी, चन्द्र भूषण तिवारी आदि से भी भिन्न एक नूतन मार्ग का निर्माण कर रही थी, जो उनके असामयिक निधन के कारण अधूरी रह गयी। उनका आलोचनात्मक, लेखन मुश्किल से पन्द्रह वर्ष का है, सघन रूप से केवल दस वर्ष (1956-55) का, पर उसमें जो चमक और कौध है, आलोचना की उपयोगिता और आवश्यकता पर जितना बल है, कथालोचना के संबंध में जैसे जितने विचार हैं, वे आज भी हमारे लिए कुछ-न-कुछ उपयोगी ज़रूर हो सकते हैं क्योंकि हम जिस समय में जी रहे हैं, उसमें संवाद कम है, आलोचना के प्रति उदासीनता बढ़ी है और पत्र-पत्रिकाओं के कुछ ही सही, नव लेखन और नये कथाकारों पर जो अंक केन्द्रित हुए हैं, उनमें पचास-साठ के दशक जैसी न तो बहसें हैं, न जीवनंतता और न नये लेखन को प्रतिष्ठित करने की वैसी  बेचैनी।

देवीशंकर अवस्थी के जिस 'आलोचनात्मक विवेक’ की बात बार-बार कही जाती है, वह विवेक दृष्टि उनमें छात्र जीवन से ही विद्यमान थी। 1950 के उनके दो लेखों 'वैज्ञानिक उन्नति और मानवता’ (उर्मि, अगस्त 1950) और 'दीप जलाकर बुझा न देना’ (दैनिक विश्वमित्र, 1950) का आज स्मरण आवश्यक है। छात्र-जीवन में ही वे विज्ञान को 'मानव की बुद्धि के विकास का परिणाम’ के रूप में देख रहे थे, सभ्यता और संस्कृति से 'विज्ञान का घनिष्ठ संबंध’ समझा रहे थे और जहाँ तक 'सत्य की समीक्षा के प्रयत्न’ का प्रश्न था, वे उसे 'न्यायालयों की अपेक्षा प्रयोगशालाओं में’ देख रहे थे। ('विवेक के कुछ और रंग’, पृष्ठ 177) बीस वर्ष की अवस्था में वे 'युद्धों की भयंकरता’ को 'वैज्ञानिक साधनों’ से न जोड़कर युद्धों के मूल कारणों को समझ और समझा रहे थे -  अवस्थी मार्क्सवादी आलोचक नहीं हैं, पर छात्रावस्था में ही उन्होंने यह समझ लिया था कि 'वर्तमान युग में स्वार्थपरता, लिप्सा एवं लोभ’ की वृद्धि का दोष ''वर्तमान सामाजिक पद्धति का, पूंजी के वैषम्य का, वस्तु के विषम विभाजन का एव ं इस सहजती संस्कृति का है। समाज में यदि यह पूंजीवाद एवं वर्गभेद समाप्त हो जाए, शोषण की यह सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो जाए तो यह सभी कलुषित मनोवृत्तियां स्वत: दूर हो जाएंगी’’ (वही, पृष्ठ 178)। गीत-पंक्ति का उनका विवेचन-विश्लेषण उनकी बौद्धिक और चिंतन क्षमता का प्रमाण है। 1950 में बी.ए. का एक प्रखर, मेधावी, विवेकवान छात्र एक साथ ''संस्कृति, समाज एवं साहित्य- जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक गतिरोध उत्पन्न’’ होते देख रहा था। इस गतिरोध का कारण क्या था? ''हम न तो भली भाँति प्राचीन को त्याग सके न सम्यक रूप से नवीन को ग्रहण ही कर सके हैं। चिरंतन एवं चिरनूतन का समन्वय हमसे नहीं हो सका। इन दीपों के आलोक में हबमें इस गतिरोध को समाप्त करना है।’’ (वही)

पचास का दशक 'नये भारत’ या 'आधुनिक भारत’ के निर्माण का दशक है। नेहरू की भारत-परिकल्पना गांधी की भारत-परिकल्पना से नितान्त भिन्न थी। उन्होंने अपने ढंग से अपने समय में 'नये’ और 'आधुनिक भारत’ का निर्माण किया। सब कुछ बदलने लगा था। साहित्य इस बदलाव से अछूता नहीं रह सकता था। आलोचना भी नहीं। 1950 के आसपास 'साहित्यिक रचनाशीलता के नये उन्मेष’ की बात अवस्थी ने कही है। पचास के दशक में ही 'नयी कविता’ और 'नयी कहानी’ अस्तित्व में आई। 1958-59 में 'नवगीत’ भी प्रस्तुत हुआ। 'नयी समीक्षा’ को लेकर उस दौर में अवस्थी ने सर्वाधिक विचार किया था। 1950 से 1960 के निबंधों का वह अपना संग्रह 'नव्य समीक्षण’ नाम से प्रकाशित करना चाहते थे। रामस्वरूप चतुर्वेदी की पुस्तक 'हिन्दी नवलेखन’ 1960 में आई, रघुवंश का 'साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य’ 1963 में आया, 1962 में 'नवलेखन’ मासिक पत्र के प्रकाशन की योजना बनी, (13 मई 1962 का शरद जोशी का पत्र, 'हमको लिख्यौ है कहा’, सम्पादक - डॉ. कमलेश अवस्थी, भारतीय ज्ञानपीठ, 2001, पृष्ठ 610) जिसका पहला अंक जून 1962 में प्रकाशित हुआ था। इस सबके पहले पचास के दशक में  ही अवस्थी न केवल नवलेखन को रेखांकित कर रहे थे, अपितु उनके पक्ष में, किसी भी आलोचक की तुलना में कहीं अधिक डटकर खड़े थे। नवलेखन की पहचान नयी आलोचना के बिना संभव नहीं थी और अवस्थी पचास के दशक में कानपुर में रहते हुए आलोचना और नयी आलोचना पर अपना ध्यान केन्द्रित कर चुके थे। जब 'नयी कविता’ और 'नयी कहानी’ बहस और विमर्श में थी, वे नयी समीक्षा का पूर्व समीक्षा से अंतर स्पष्ट कर रहे थे। इलाहाबाद के त्रिदिवसीय साहित्यकार सम्मेलन (15-17 दिसम्बर 1957) की आलोचना वाली गोष्ठी - 'आलोचना के मान’ में उन्होंने 'सामान्य पाठक और आलोचक’ विषय पर अपना लेख पढ़ा था। उस सम्मेलन में 'हिन्दी आलोचना में गतिरोध’ की बात चली थी। अवस्थी यह मान रहे थे कि ''हिन्दी आलोचना व्याख्या से आगे बढ़कर विश्लेषण तक आ गयी है।’’ (देवीशंकर अवस्थी रचनावली, खण्ड 1, पृष्ठ, 72, वाणी प्रकाशन, 2018) 'वसुधा’ के सम्पादक को 'नयी समीक्षा’ से संबंधित उनका पत्र 1958 का है और उदयभान मिश्र को लिखा पत्र 1960 का है। पहले पत्र में वे 'उस व्यक्ति को आलोचक मानने को तैयार नहीं’ थे, जो ''समसामयिक साहित्य से जूझकर उसके उभरते हुए विकासशील स्वस्थ अंकुर को न पहचान सके।’’ (वही, पृष्ठ 71) नयी कृतियों की समीक्षा के लिए नयी आलोचना-दृष्टि आवश्यक थी, जिसके बिना नयी कृतियों की समुचित, सार्थक आलोचना संभव नहीं थी। वे 'नयी समीक्षा-पद्धति की आवश्यकता’ महसूस कर रहे थे, जो 'शास्त्रीय शैली’ में संभव नहीं थी। 1958 में उन्होंने यह स्वीकारा - '' 'नवलेखन’ के विविध प्रकारों का जिस प्रकार अपना एक व्यक्तित्व निर्मित हो चुका है, उसी प्रकार 'नयी समीक्षा’ का अब भी कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं उभरा है।’’ (वही, पृ. 72)

जिस समय हिन्दी के कुछ प्रतिष्ठित लेखक आलोचना के महत्व को नज़रअंदाज़ कर रहे थे, उस समय अवस्थी आलोचना की अनिवार्यता और उपयोगिता के साथ-साथ नयी आलोचना का स्वरूप भी निर्मित करने में लगे थे। उनका ध्यान पाठक पर भी था। 1954 में अवस्थी ने उपेन्द्रनाथ 'अश्क’ के उपन्यास 'गर्म राख’ की समीक्षा की थी ('कल्पना’, जनवरी 1954) 'अश्क’ ने उपन्यास के आरंभ में पाठक के दो वर्ग बताये थे - 'आम पाठक और गंभीर पाठक’ इन दोनों में अंतर है। तीन वर्ष बाद (1957) अपने लेख 'सामान्य पाठक और आलोचक’ में उन्होंने आलोचक को 'विशिष्ट पाठक’ कहा। सामान्य पाठक किसी कृति को मनोरंजन की दृष्टि से पढ़ता है वहाँ 'विशिष्ट पाठक’ 'साहित्यिक अनुभव का मूल्यांकन’ करता है। वे पाठक और समीक्षक उन्होंने में 'सहृदय भावक की स्थिति अनिवार्य’ मानते थे। उनका ध्यान पाठक के पढऩे के उद्देश्य पर था। साहित्य उनके लिए 'हमारी सभ्यता और संस्कृति का व्यापार’ है। उनका ध्यान एक साथ 'रचना और आलोचना’ पर था। आलोचक के साथ-साथ पाठक भी क्योंकि आलोचक प्रथमत: और अनन्त: एक पाठक ही है। अवस्थी ने प्रबुद्ध साहित्यिक पाठक के निर्माण की कम कोशिशें नहीं की। आज जब अधिसंख्यक पुस्तक समीक्षक और आलोचक कृति और कृतिकार के चयन पर कम ध्यान देते हैं तब अवस्थी याद आते हैं। ''यदि वर्तमान समीक्षक इस प्रश्न से आरंभ करे कि 'यह’ (अथवा कोई) किताब क्यों पढ़ी जाए?, तो उसे अधिक मौलिक और गहरे प्रश्नों की ओर आने में सहायता मिलेगी।’’ (वही, पृ-9) रिव्यूवर और 'पेशेवर समीक्षक’ में वे 'बोध और विश्लेषण की एक जैसी वृत्तियां’ अपेक्षित मानते थे। फर्क यह है कि समीक्षक केवल महत्वपूर्ण कृतियों पर अपनी राय व्यक्त करता है जबकि रिव्यूवर 'हर प्रकार के नव प्रकाशित साहित्य के बारे में’ अपनी राय प्रकट करता है। अवस्थी ने आलोचनात्मक आलेखों के अलावा कई कविता संग्रहों, आलोचनात्मक कृतियों, नाट्यकृतियों, उपन्यासों और कहानी-संग्रहों की रिव्यू की। देवीशंकर अवस्थी रचनावली खण्ड 1 में आलोचना, कविता, उपन्यास, कहानी और नाटक के संबंधित 52 आलेख और 53 पुस्तक समीक्षाएं हैं। विवेकवान और प्रबुद्ध पाठक, रिव्यूवर और आलोचक में वे अन्तर करते हैं। किसी को ख़ारिज और दूसरे की तुलना में हीनता या कमता में उनके आलोचना-संबंधी आलोख कहीं अधिक है। कहानी-संबंधी आलोक 9, उपन्यास-सबंधी  5, कविता संबंधी 15 और आलोचना संबंधी आलेखों की संख्या 25 है। उनकी प्रमुख चिन्ता आलोचना - संबंधी थी। आलोचना-संबंधी उनकी तीन पुस्तकों के शीर्षक ही 'आलोचना’ से जुड़े हैं - 'आलोचना और आलोचना’ (1960) 'रचना और आलोचना’ (1979) और 'आलोचना का द्वन्द्व’ (1999)।

हिन्दी के तीन कथालोचकों - नामवर सिंह, सुरेन्द्र चौधरी और देवीशंकर अवस्थी का पश्चिमी आलोचना और कथालोचना का अध्ययन अत्यन्त व्याप्क है। नयी से नयी पुस्तकों के तीनों बड़े गंभीर अध्येता थे। पचास-साठ के दशक में हिन्दी की जो नयी आलोचना बन रही थी, उसके निर्माण में पश्चिमी और यूरोपीय आलोचकों की एक बड़ी भूमिका है। हिन्दी का अपना आलोचना शास्त्र नहीं था। नवलेखन के लिए भारतीय काव्यशास्त्र का कोई अर्थ और महत्व नहीं था। स्वतंत्र भारत में आधुनिकता का 'मॉडल’ यूरोपीय था, पश्चिमी था। नेहरू के सामने पश्चिम और यूरोप का उदाहरण था। हिन्दी के आलोचकों ने भी उधर रुख किया। पचास-साठ के दशक के सभी महत्वपूर्ण आलोचक-नामवर, साही, अवस्थी, सुरेन्द्र चौधरी, विजयमोहन सिंह, मलयज और कुछ अंशों में रघुवंश और रामस्वरूप चतुर्वेदी भी यूरोपीय आलोचना को देख-समझ रहे थे और प्रभावित हो भी रहे थे। अवस्थी ने साहित्य-रचना की पहचान के लिए संस्कृत और पाश्चात्य दोनों दृष्टियों और परम्पराओं पर ध्यान दिया। नामवर और देवीशंकर अवस्थी हजारी प्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे। नामवर ने 'पृथ्वीराज रासो की भाषा’ पर शोध किया था और देवीशंकर अवस्थी ने 'अठारहवीं शताब्दी के ब्रजभाषा काव्य में प्रेमाभक्ति’ पर। बाद में ये दोनों समकालीन साहित्य की आलोचना की ओर मुड़े। अवस्थी की आपत्ति हिन्दी आालेचना को पीछे ले जाने को लेकर थी। उन्होंने अधिकांश शास्त्रीय समीक्षाओं को, हिन्दी समीक्षा को, शुक्ल जी से पीछे ले जाते देखा। पचास के दशक में हिन्दी आलोचना में बदलाव दिखाई देता है। वह 'व्याख्या’ से निकलकर 'विश्लेषण’ तक आ गयी और 'विश्लेषण सामाजिक पृष्ठभूमि से लेकर सृजन प्रक्रिया तक तथा कथ्य की विविध भावभूमियों और संवेदनाओं से लेकर बिम्ब-शक्ति की जाप तक फैलता है।’’ (देवीशंकर अवस्थी रचनावली, 1/72)

अवस्थी के यहां युग बोध और इतिहास बोध दोनों महत्वपूर्ण हैं। समकालीनता पर विशेष और सर्वाधिक आग्रह के बाद भी वे युग के बदलाव पर विशेष ध्यान देते हैं। आलोचना का मानदंड सदैव एक नहीं रहता। नयी रचनाशीलता नयी आलोचना - पद्धति का भी निर्माण करती है। ''हर युग की आलोचनात्मक समझ अपने युग के साहित्य से अनुकूलित और अनुशासित होती है और उसे अनुकूलित करती भी है। एक ही पीढ़ी या समय की प्रमुख चेतना-संवेदना एक और अखंडित होती है - व्यक्त चाहे वह कविता में हो, कहानी में हो या आलोचना में’’ (विवेक के रंग, 1995, पृष्ठ - 10) आलोचना में उनके यहां 'साहित्यिक आकलन’ का महत्व है, पर वे साहित्य की सापेक्ष अध्ययन परम्परा को खारिज नहीं करते। 'निरपेक्ष एवं सापेक्ष अध्ययन परम्पराओं की अतिवादिता’ से बचने की उनकी सलाह है। साहित्य के साहित्येतर अध्ययन के पक्ष में अवस्थी नहीं है। 'बाह्य संदर्भ सांचा’ से अधिक महत्वपूर्ण उनके लिए 'कलानुरूप का आन्तरिक संदर्भ सांचा’ था। अपने एक लेख 'समकालीनता का संदर्भ और आन्तरिक अध्ययन विधि’ (माध्यम, जून 1965) में उन्होंने बाह्य संदर्भ सांचा को समाजेतिहास या जीवनी से जोड़ा है और 'आन्तरिक संदर्भ सांचा’ को 'कलानुरूप’ से। ''बाह्य संदर्भ सांचें में साहित्य एक दस्तावेज मात्र बनकर रह जाता है। उससे बहुधा अनुभव की प्रामाणिकता की जगह 'इतिहास’ या 'व्यक्ति’ की प्रामाणिकता लक्षित होती है... इस सांचे को अन्तत: आन्तरिक संदर्भ सांचे में घुलाकर समीक्षा के मार्ग में बढ़ा जा सकेगा।’’ (रचनावली 1/180) आलोचक की भूमिका कहीं अधिक बड़ी है। उसका कार्य कृति और रचना के विश्लेषण से उन विचार बिन्दुओं को स्पष्ट करना भी है, जो पाठक को बौद्धिक रूप से जाग्रत-सक्रिय करे और आलोचना को भी एक सार्थक दिशा प्रदान कर सके। अवस्थी 'समाज-शास्त्र, मनोविज्ञान, इतिहास, जीवशास्त्र या अर्थशास्त्र आदि का प्रयोग साहित्य में नितान्त वर्जित’ नहीं मानते थे। उनके अनुसार इनका 'साधन के रूप में एक सीमा तक ही स्वीकार करना उचित है।’ ('साहित्यिक अध्ययन की प्रकृति : कल्पना; जुलाई 1959, रचनावली 1/87) साहित्यिक प्रश्न और साहित्येतर प्रश्न का विभाजन प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचना के विरोध में उठाया गया। अवस्थी महत्वपूर्ण आलोचक हैं। उनकी आलोचना में प्रगतिशील और मार्क्सवादी आलोचना का मुखर खंडन नहीं है, पर वे आलोचना के क्षेत्र में साहित्येतर प्रमुख प्रश्न को अलग रखते हैं। उनके लिए जीवनी, दर्शन, इतिहास, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, राजनीति और साहित्यशास्त्र भी एक उपकरण है। साहित्य की निजी प्रकृति पर उनका सदैव बल रहा है। मार्क्सवाद और कम्युनिस्ट आन्दोलन से वे बहुत दूर थे, पर मार्क्सवादी लेखकों - आलोचकों से उनकी मैत्री और निकटता थी। वे शिवदान सिंह चौहान के आलोचक थे और नामवर के करीबी। 'हिन्दी साहित्य कोश’ में उन्हें जिन कुछ 'वादों’ पर लिखना था, उनमें एक 'जनवाद’ भी था। 22.12.1956 को राम्विलास शर्मा को लिखे अपने एक पत्र और लगभग इसी समय नामवर को लिखे अपने एक पत्र में उन्होंने 'जनवाद’ के बारे में जानना चाहा था। ('हमको लिख्यौ है कहा’ पृ. 521 और 283) अवस्थी ने मुक्तिबोध के आलोचक-व्यक्तित्व को उनके कवि-व्यक्तित्व से कम महत्वपूर्ण नहीं माना है।

प्रगतिवादी समीक्षा से उनकी मुख्य शिकायत यह थी कि इसमें रचना गौण रहती है और युग-प्रभाव प्रमुख होता है। वे आलोचनात्मक विश्लेषण में 'सामाजिक पृष्ठभूमि से लेकर सृजन प्रक्रिया’ तक को महत्व देते हैं। अज्ञेय उनके प्रिय कवि-लेखक थे और वे स्वयं आलोचना के एक नये मार्ग के 'अन्वेषी’ थे। प्रगतिवादी और मनोविश्लेषणात्मक (फ्रायडिन समीक्षा) समीक्षा-पद्धति से सर्वथा अलग अवस्थी 'नयी समीक्षा’ की पहचान और विकास पर अधिक ध्यान देते हैं। 'नयी समीक्षा’ को उन्होंने आलोचना की पूर्व कथित 'दोनों प्रणालियों का समन्वय’ कहा है। हिन्दी में 'नयी समीक्षा’ को प्रतिष्ठित करने वाले वे महत्वपूर्ण 'नये समीक्षक’ हैं। पुराने और नये समीक्षक में उन्होंने अंतर किया। ''पुराना समीक्षक जहां भाव पक्ष तथा कला पक्ष के पुराने व्यर्थ के द्वन्द्व से चिपटा रहता है, वहीं नया समीक्षक इस पचड़े से अलग रहकर रचना के विविध जटिल स्तरों का उद्घाटन करता है।’’ (रचनावली 1/123) नयी आलोचना में पहली बार रचना-प्रक्रिया का विवेचन हुआ था। नामवर ने 'रचना और रचना’ निबंध में ऐसे विवेचनों पर पाश्चात्य प्रभाव की बात कही थी। अवस्थी ने ऐसे ही प्रभाव 'हिन्दी की आलोचना पर भी ढूँढे जा सकने’ की बात कही और यह लिखा - ''स्वयं, 'नयी कहानियां’ में 'हाशिए पर’ उन्होंने फैंटेसी, 'नीलम देश की राजकन्या’ आदि पर जो बातें कही हैं, उनका मूल काफ्का पर लिखी गुंथर एंडर्स की पुस्तक में उपलब्ध हो सकता है। पर मैं इसे कमजोरी न मानकर स्वास्थ्य का लक्षण मानने का प्रस्ताव करूंगा।’’ वे गुंथर एंडर्स की जिस पुस्तक का उल्लेख कर रहे थे, वह 'फ्रैंज काफ्का’ शीर्षक से एक वर्ष पहले 1 जनवरी 1960 को प्रकाशित हुई थी। अपने इस लेख में अवस्थी ने 'जीवंत हिन्दी समीक्षा की एक और दुष्प्रवृत्ति’ बताई - 'बिना ठीक से पुष्टि किए कुछ फिकरे कस देना।’

अवस्थी और मलयज दोनों आलोचना के प्रश्नों से उलझते हैं और अपनी आलोचना से हिन्दी की नयी आलोचना को एक स्वरूप और पहचान देते हैं। मलयज का चिंतन-पक्ष अधिक मौलिक और समृद्ध है। अवस्थी अपने कई लेखों में विविध रूपों से आलोचना के विविध रूपों-पक्षों पर विचार करते हैं। 'सामान्य पाठक और आलोचक’, 'नयी समीक्षा-1 और 2’, 'समसामयिक सांस्कृतिक गतिविधि और साहित्यिक समीक्षा’ 'रचना और आलोचना’, 'समीक्षाशास्त्र : उपयोगिता का प्रश्न’, 'आलोचना की विविध परिभाषाएं और  उसका स्वरूप’ 'हिन्दी आलोचना का वर्तमान घटिया स्तर’ 'नवलेखन और आलोचनात्मक मानदण्ड की समस्या’ 'रचना और आलोचना का अन्तराल’, 'समकालीनता का संदर्भ और आन्तरिक अध्ययन विधि’, आलोचना का गतिरोध’ और 'रचना और आलोचना : अन्तराल के प्रश्न पर पुनर्विचार’ लेख उनकी आलोचना-संबंधी चिंताओं से जुड़े लेख हैं। आलोचना-कर्म को लेकर अवस्थी में एक बेचैनी थी। वे आलोचना के एक सर्वथा नये मार्ग की तलाश करते दिखाई देते हैं। ''आलोचना के विविध मत-मतान्तरों से घबराकर भागने या किसी एक ही मत को परम सत्य मानकर बैठ जाने की अपेक्षा आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न समीक्षा-दृष्टियों को एक सार किया जाये तथा उन्हें एक समग्रता के भीतर पिरोया जाय।’’ ('समीक्षा शास्त्र : उपयोगिता का प्रश्न, कल्पना, फरवरी1961, रचनावली 1/135) अवस्थी 1963 में आलोचना के वर्तमान परिदृश्य से संतुष्ट नहीं थे। केवल साहित्य का ही नहीं, आलोचना के भी मूल्य उन्होंने 'सच्चाई’ और 'ईमानदारी’ माना। समकालीन हिन्दी आलोचना में भी उस दौर में प्रतिभाशाली और 'चतुर’ दोनों थे। अवस्थी ने नामोल्लेख न कर समसामयिक समीक्षा का यह 'दायित्व’ माना था कि वह 'प्रतिभाशाली’ और 'चतुर’ के मध्य पहचान करे। ''आलोचक का दायित्व है कि इस दुरुहता (समसामयिक साहित्य की दुरुहता) का वहन करते हुए वह सामान्य पाठक के बोध को पैना करे एवं उस रचना की अर्थवत्ता को सम्प्रेषणीय भी बनाये। (रचनावली 1/154) साहित्यक रचना के आन्तरिक और बाह्य अध्ययन का उल्लेख कर 'आन्तरिक अध्ययन’ पर उनका सारा बल रहा है। साहित्य के विवेचन, विश्लेषण में या साहित्य को सामाजिक पृष्ठभूमि से जोडऩे में उन्हें कोई एतराज नहीं था। यह सामान्य कार्य नहीं है क्योंकि इसके लिए ''अधिक श्रम, अधिक गहरी प्रज्ञा और विश्लेषण के साथ इतिहास के निभ्र्रान्त बोध की अपेक्षा रहती है। मनोविश्लेषण को भी एकांत व्यक्ति नहीं, सामाजिक व्यक्ति के संदर्भ में देखना ही उपयुक्त हैं। (देवीशंकर अवस्थी : संकलित निबंध सम्पदाक मुरलीमनोहर प्रसाद सिंह, नेशनल बुक ट्रस्ट, 2012, पृष्ठ - 10) ये आधुनिक युग में समीक्षा के गुरुतर दायित्व को समझ चुके थे। पर यह अधिकतर रचना के आन्तरिक अध्ययन तक था। अपने एक लेख 'आधुनिक युग में समीक्षा’ में उन्होंने 'साहित्यशास्त्र एवं समाज विधाओं के मध्य एक संयोजन (कोआर्डिनेशन) एवं समन्वय की स्थिति विचारणीय’ मानी है। ('रचना और आलोचना’, पृष्ठ 7, वाणी प्रकाशन 1995)

समकालीन साहित्य और नवलेखन को अवस्थी ने आलोचना के केन्द्र में रखा। उन्होंने कई स्थलों पर यह कहा है कि आलोचना का रिश्ता केवल समकालीन लेखन और समकालीनता से है। लेखकों के पुर्नमूल्यांकन के पीछे भी वे 'समकालीन दृष्टि का गहरा एहसास विद्यमान’ देखते हैं। कृति और कृतिकार की 'युगानुरूप पुनव्र्याख्या’ भी इसी से संभव होती है। 'अंग्रेजी में 'न्यू क्रिटिक्स ने लांगिनुस और कॉलरिज की नयी व्याख्याएं कीं तथा शिकागो के 'नियो-एरिस्टो-टेलियन्स’ ने अरस्तू के अनुकरण - सिद्धान्त को आधुनिक साहित्य के लिए प्रसंगानुकूल बनाने की चेष्टा की।’’ ('विवेक के रंग’, 1995, पृष्ठ 11) रामचन्द्र शुक्ल ने इस सिद्धान्त की जो पुनव्र्याख्या की थी, उसके पीछे अवस्थी 'समसामयिक जीवन और साहित्य के गहरे आग्रह’ देखते हैं। इस आग्रह पर 'उनका अधिक ध्यान था। वे एक साथ प्रेमचन्द और रामचन्द्र शुक्ल में 'सृजनात्मक स्तर पर प्रतिबद्धता’ देखते हैं, जो प्रेमचन्द के साहित्य और शुक्ल जी के 'साधारणीकरण’ को जन्म दे रही थी। यह सामान्य आलोचकीय दृष्टि नहीं है। इस अर्थ में देवीशंकर अवस्थी की आलोचना को हम सर्जनात्मक आलोचना कह सकते हैं। बिना सर्जनात्मक दृष्टि के आलोचना, सर्जनात्मक नहीं हो सकती। युग-बोध अवस्थी की आलोचना का एक बीज शब्द भी है, जो लेखक और आलोचक दोनों के लिए अनिवार्य है। नए आलोचनात्मक विवेक के लिए युगबोध और इतिहास बोध दोनों आवश्यक हैं। इसके अभाव में पुरानी कृतियों का पुनर्मूल्यांकन संभव नहीं है। अवस्थी ने 'पुनर्मूल्यांकन’ को 'आलोचना का दूसरा मुख्य दायित्व’ माना है।

साहित्य के 'मनोवैज्ञानिक’, 'जीवनी परक’, 'समाजशास्त्रीय’ अध्ययन पर भी संक्षेप में ही सही, उन्होंने विचार किया, पर वे ऐसे अध्ययन के पक्ष में नहीं रहे। साहित्य के सामाजिक अध्ययन की शुरुआत प्रगतिशील आन्दोलन और प्रकतिवाद से आरंभ हुई थी। ''प्रगतिवाद के बाद से साहित्य के सामाजिक पक्ष पर अधिक जोर दिया जाने लगा है। साहित्यिक अध्ययन या समीक्षा की दृष्टि से, इस प्रकार के अध्ययन (समाजशास्त्रीय का कोई सीधा संबंध नहीं होता... ऐसे अध्ययनों का उपयोग तभी है जब निश्चित शब्दावली में यह बताया जा सके कि लेखक द्वारा चित्रित सामाजिक चित्र तथा वास्तविक समाज यथार्थ परस्पर किस सीमा तक संबंधित हैं... ऐसे अध्ययन के लिए यह अनिवार्य है कि अध्येता साहित्य के अतिरिक्त अन्य स्रोतों से भी सामाजिक जीवन की अवगति प्राप्त करे’’ (रचना और आलोचना 1995 पृ. 15) रचना का स्वतंत्र अस्तित्व उनके लिए कहीं अधिक मूल्यवान था। ''उसका इसी रूप में अध्ययन प्रारंभ होना चाहिए।’’ (वही) जहाँ तक कृति की सापेक्षता का सवाल है, वे 'कृति की स्वतंत्र सत्ता’ से इसका 'एक गत्यात्मक मानदंड पर संतुलन’ आवश्यक समझते थे। नये साहित्य के स्वीकार में नयी आलोचना  का जन्म हुआ था। नामवर ने 1957-58 में ही देवीशंकर अवस्थी को 'नया आलोचक’ मान लिया था। सार्थक आलोचना का प्रश्न आज भी कम उठाया जाता है। इसलिए इस प्रश्न का अधिक अर्थ नहीं है कि क्या नयी आलोचना सार्थक आलोचना भी है? उसका अपना एक ऐतिहासिक महत्व और अवदान है। उनकी आलोचना दृष्टि के निर्माण में पश्चिम के कुछ आलोचकों की भूमिका है। पोलिश दार्शनिक रोमन इन्गार्डेन, (5.2.1893-4.6.1970) जिनका सौन्दर्यशास्त्र, ज्ञान मीमांसा एवं सत्ता मीमांसा में मुख्य कार्य था, को उल्लेख कर अवस्थी ने रचना के संकुल स्तरों एवं अनेकमुखता के विश्लेषण की बात कही है। इन्गार्डेन ने 'चार स्तरों’ की बात कही थी। अवस्थी ने माना ''इन्गार्डेन ने इन स्तरों की अवस्थिति की ओर बड़े स्पष्ट एवं सार्थक संकेत दिए हैं।’’ (रचना और आलोचना, पृ. 17) इन्गार्डेन ने चौथा स्तर 'घटनाओं, पात्रों आदि को एक विशेष दृष्टि बिन्दु से देखा जाने वाला स्तर’ कहा था अवस्थी के अनुसार इस चौथे स्तर से ही यह पता चलता है कि 'रचना पवित्र है या उदात्त, भयावनी है या त्रासद’’। (वही)

जिस समय अनुभव की 'प्रामाणिकता’ ही रचना आलोचना में प्रमुख थी, उस समय अवस्थी ने 'अनुभव की अद्वितीयता’ की बात कही। जब हिन्दी आलोचना में 'बाज़ार’ का दूर-दूर तक कोई जिक्र नहीं था उन्होंने 1958 में ही 'साहित्यिक लेखन : एक व्यवसायिक समस्या’ में रचना के प्रकाशन को 'सृजन-प्रक्रिया का अगला और शायद अंतिम कदम’ मानते हुए लेखक द्वारा 'एक वस्तु (ष्शद्वद्वशस्रद्बह्ल4) के उत्पादन’ की बात कही। लेखन या रचना एक 'उत्पादित वस्तु’ हैं, इसे पहली बार हिन्दी में देवीशंकर अवस्थी ही कहते हैं।  अर्थशास्त्र में 'उत्पादन’ और 'बाजार-मूल्य’ पर विचार किया जाता है। मार्क्स ने सबसे पहले 'पूंजी’ में इस पर विचार किया था। 'साहित्य सृजन’ अवस्थी के अनुसार एक सामाजिक क्रिया है। 1958 में सृजनात्मक कर्म को 'सामाजिक व्यवसाय’ कहा बहुत बड़ी बात थी। उन्होंने अन्य व्यवसायों से इसका अंतर किया। ''लेखक वैसा ही व्यवसाय नहीं बन सकता है जैसे कि अन्य है।

देवीशंकर अवस्थी ने समीक्षा के दो अतिवादों - स्थूल समाजशास्त्रीय और रूपवादी रुझान से भिन्न एक नये तीसरे मार्ग की तलाश की। आलोचना की अगर हम तीसरी परम्परा को स्वीकारें, तो उन्होंने इसका निर्माण और विकास किया। भारती के 'सात गीत वर्ष’ की समीक्षा (कल्पना, मार्च 1961) में वे कहते हैं - ''सौभाग्य से प्रस्तुत समीक्षक विविध दलीय दलदलों से अलग ही रहा है, अत: उसे विश्वास है कि जो कुछ वह कह रहा है, अपने विवेक (भारती के प्रिय शब्द: की कसौटी पर कस कर ही कह रहा है। (रचनावली 1/409) 'विवेक’ को उन्होंने सदैव प्रमुख माना। सबने यह स्वीकारा है कि विवेक उनका 'प्रिय प्रत्यय’ है। उनके समग्र लेखन में उनका यह आलोचनात्मक विवेक विद्यमान है। 'विवेक के रंग’ (1965), 'नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति’ (1966) और 'साहित्यिक विधाओं की प्रकृति’ (प्रमुख चिंतकों, आलोचकों, लेखकों के निबंधों के अनुवाद) (1993) उनकी सम्पादित पुस्तकें हैं - निर्मल वर्मा ने 'विवेक के रंग’ को 'सांस्कृतिक बंधुत्व’ का 'ऐतिहासिक घोषणापत्र’ कहा है। इन तीनों सम्पादित पुस्तकों में लेखक - आलोचक किसी एक मत, विचार, विचारधारा के नहीं हैं। अवस्थी विवेक के कई रंग देखते, मानते, स्वीकारते और प्रस्तुत करते हैं। उनके यहां आलोचना लोकतांत्रिक बनती है। आज जब लोकतंत्र अपने देश में संकट की स्थिति में है, हमें इस आलोचक की याद करनी चाहिए, जिसने कभी अपनी विवेक चेतना एवं लोकतांत्रिक दृष्टि को अन्य किसी चेतना और दृष्टि से प्रभावित नहीं होने दिया। सबके बीच उनके सम्मानित होने और उनकी सर्वप्रियता का यह एक प्रमुख कारण है। नामवर की 'लोकप्रियता’ और अवस्थी की 'सर्वप्रियता’ में अंतर है। गुट निरपेक्ष आन्दोलन की स्थापना। सितम्बर 1961 को भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, मिस्र के राष्ट्रपति गमाल अब्दुल नासीर, युगोस्लाविया के राष्ट्रपति टीटो, इंडोनेशिया के सुकर्णो एवं घाना के अन्क्रमां ने की थी। उस समय संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ विश्व के दो बड़े पावर ब्लाक थे, जिसके साथ या विरोध में नहीं रहने का इन नेताओं ने निर्णय लिया था। 1961 के पहले देवीशंकरअवस्थी ने अलोचना की दोनों प्रमुख धाराओं समाजशास्त्रीय और रूपवादी रुझान वाली से अलग रहकर अपना जो स्वतंत्र मार्ग निर्मित-विकसित किया, उसका ऐतिहासिक महत्व है। जिस प्रकार भारत को नेहरू ने एक भिन्न और स्वतंत्र पहचान देने की सफल-असफल कोशिश की, क्या बहुत कुूछ, उसी प्रकार या उससे मिलते-जुलते रूप में देवीशंकर अवस्थी ने हिन्दी आलोचना को एक नयी मौलिक और भिन्न, पहचान देने की कोशिश नहीं की? उन्होंने समय और युग-विशेष को हत्व देकर सभी साहित्य रूपों में हुए बदलावों को समझा-समझाया।

अवस्थी की अलोचना - दृष्टि भेद परक नहीं है। वह संतुलित, वस्तुपरक, निभ्र्रान्त और सहानुभूति पूर्वक है। 'साहित्यिक विधाओं की प्रकृति’ में शामिल 19 लेख किसी एक विचार-दृष्टि वाले आलोचक-विचारक के नहीं हैं। यहाँ मार्क्सवादी आलोचक अन्स्र्ट फिशर और राल्फ फाक्स के साथ नये समीक्षक क्लींथ ब्रुक्स एवं राबर्ट पेन वारेन भी हैं, रेने वेलेक, फ्रैंक ओ कोन्नार और ब्रेंडर मैथ्यूज के साथ गणेश त्र्यंबक देश पांडे भी हैं, केवल रामचन्द्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी ही नहीं, मुक्तिबोध और देवराज उपाध्याय भी हैं। विवेक और विचार के विविध रंग हैं। हिन्दी आलोचना उनके यहां पहली बार व्यवस्थित ढंग से अपना लोकतांत्रिक स्वरूप ग्रहण करती है। वे किसी भी कृति को अपने आप में 'एकांत सत्य’ न मानकर उसे अपने समय तक की परम्परा की अंतिम कड़ी के रूप में देखते हैं। उनकी आलोचना एक पक्षीय न होकर बहुपक्षीय है। अचानक कई खिड़कियां खुल जाती है और हवा की ताजगी से आलोचना-कक्ष भर उठता है। अवस्थी संवादी आलोचक हैं, वाद-विवादों नहीं उनके यहां तार्किक विश्लेषण और बौद्धिक व्याख्या है। वे साही और भारती की तरह आक्रामक नहीं है। मलयज और अवस्थी की आलोचना आक्रमण रहित है। ये दोनों आलोचना को सर्वथा एक नया रंग-रूप प्रदान करते हैं, विश्लेषणात्मक दृष्टि का विस्तार करते हैं। यहां कट्टरता का सर्वथा अभाव है। परम्परा और आधुनिकता के बीच अवस्थी के यहां टकराहट नहीं है। उनके मौलिक आलोचनात्मक लेखन का यह एक प्रमाण है कि वे प्रगतिवाद और प्रयोगवाद को एक दूसरे के विरोध में न देखकर दोनों को एक ही आन्दोलन मानते हैं - प्रगतिवाद को 'सामाजिक चेतना’ और प्रयोगवाद को 'व्यक्ति-चेतना’ के बीच 'अन्त: मिश्रण’ रचना के सभी स्तरों के साथ आलोचना की गहरी सम्पृक्ति उनके यहाँ आवश्यक है। अवस्थी के यहाँ व्यावहारिक आलोचना के भीतर सैद्धान्तिक आलोचना के सूत्र विद्यमान है। बल द्वन्द्वात्मकता पर है। 'आलोचना का द्वन्द्व’ (1999) का रिश्ता युगीन द्वन्द्व से भी है। वहां ज्ञान और संवेदना भाव और विचार की द्वन्द्वात्मकता है। उन्होंने हिन्दी आलोचना के कई नये पद (टम्र्स) दिये, नयी शब्दावली दीं -'अनुभव की वास्तविकता’, 'अनुभव संवेदना’, 'यथार्थ का शिल्प’, 'शिल्प का यथार्थ’, 'कथात्मक यथार्थ’, 'मानवीय सहानुभूति’, 'समकालीन संदर्भ - सांचा’, 'जटिल भाव-संकुलता’, 'संश्लिष्ट बोध’, 'आलोचनात्मक प्रज्ञा’, 'कृति की आन्तरिक सत्ता’, 'पाठ की समग्रता’, 'साहित्यिक मूल्य’, 'आंतरिक अध्ययन विधि’, आंतरिक संदर्भ सांचा’, 'रुपबंध’, 'संयोजन और समन्वय’, 'समीपी अध्ययन’, 'रचना की जटिल’ 'संकुलता’, 'साहित्यिक मूल्यवत्ता’, 'कलात्मक समग्रता’, 'उत्पादक कर्म’, 'आत्मपाती’, 'अनुभव आदि।

देवीशंकर अवस्थी की प्रसिद्धि एक कथालोचक के रूप में अधिक है। कथालोचना के क्षेत्र में अवस्थी का आगमन नामवर सिंह के बाद हुआ। नामवर का पहला कहानी-संबंधी लेख, 'आज की हिन्दी कहानी’ ('कहानी’ नववर्षांक, 1957) है और देवीशंकर अवस्थी का पहला लेख 1959 का है - 'चरित्र प्रधान कहानियाँ’ (युगप्रभात : जुलाई 1959) इस लेख के पहले नामवर ने अपने लेख 'नयी कहानी : सफलता और सार्थकता’ ('कहानी’ नववर्षांक, 1958) में कहानी को विभिन्न अवयवों-कथानक, चरित्र, वातावरण आदि में बांटकर देखने का विरोध किया था। यह वह 'विभक्तिवाद’ था, जिससे नामवर ने कथालोचना को मुक्त किया। अवस्थी दैनिक पत्र 'आज’ के कहानी-विशेषांक में प्रकाशित अपने उपर्युक्त लेख में कथा-कहानियों की मानव-सृष्टि जितनी पुरानी परम्परा मानकर मनुष्य को उसी प्रकार 'कहानी का प्रवाह’ कहते हैं, जिस प्रकार 'जलस्रोत की धारा’ नदी है। कहानी को इस पहले लेख में उन्होंने 'युग के यथार्थ’ से जोड़ा और मनोरंजन से न जोड़कर 'जीवन-मर्म का उद्घाटन करने वाले साहित्य का सबलतम रूप’ माना। कहानी में वे 'चरित्र चित्रण का महत्व सबसे अधिक’ देख रहे थे। 'यथार्थ’ को महत्व देने के बाद भी 'मनोविश्लेषण’ को उन्होंने महत्व दिया और कहानी का 'परम काम्य’। 'विविध प्रकार के मनोभावों, संघर्षों एवं अन्र्तद्वन्द्वों का चित्रण’ माना कहानी में एक साथ यथार्थ, मनोविश्लेषण और चरित्र-चित्रणपर अपने इस पहले लेख में वे विचार करते हैं, चरित्रों का वर्गगत और विशिष्ट दो रूपों में विभाजन करते हैं और तीन पीढिय़ों के कहानीकारों के यहां चरित्र-प्रधान कहानियाँ देखते हैं। इस समय अवस्थी कानपुर में थे। दिल्ली आने के बाद उनकी कथालोचना अधिक जीवंत, विकसित और गतिवान हुई।

नामवर ने पहली बार अपने पहले कहानी-लेख (1957) में 'जागरुक पाठक’ की बात की। कहानी-आलोचना से पहले 'पाठक गायब था। वर्जीनिया वल्फ की 'द कॉमन रीडर’ 1925 में प्रकाशित हो चुकी थी। इसके पहले जॉनसन ने 'साधारण पाठक’ के महत्व की बात कही थीा। 'हाशिए पर’ के एक लेख 'साधारण पाठक : सहज दृष्टि। कहानी-पाठ की प्रक्रिया में नामवर पाठक और पाठ की प्रक्रिया पर विस्तार से विचार किया। 'चरित्र-प्रधान कहानियाँ’ को छोड़कर अवस्थी के कहानी-संबंधी नौ लेख है - 1961, 62, 63, 64, 65 और 66 के, जो 'लहर’, 'नयी कहानियाँ’, 'आजकल’, 'ज्ञानोदय’, 'अणिमा’ और 'धर्मयुग’ में प्रकाशित हुए थे। कहानी-संबंधी इन लेखों के अतिरिक्त उन्होंने कहानी की दो पुस्तकें - 'कहानी-विविधा’ (1963) और 'नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति’ सम्पादित की। 'लहर’ में प्रकाशित अपने लेख - एक रसता टूटे और बेकली बढ़े में 'नयी कहानी’ की अधिक चर्चा के पीछे 'प्रबुद्ध होते हुए लेखक-पाठक वर्ग की संभावना’ देखी। नयी कहानी को वे सम्ग्रता से देख रहे थे, जहाँ 'क्षण’ और 'वातावरण’ दोनों महत्वपूर्ण हैं। उस समय कहानी-चर्चा में विषय वस्तु और शिल्प को अलग-अलग देखने की दृष्टि समाप्त नहीं हुई थी, जिसे अवस्थी 'हिन्दी समीक्षा का एक विचित्र दुराग्रहवादी द्वैत’ कहगते हैं। कहानी का 'आंतरिक गुण या तत्व’ उनके अनुसार 'कथातत्व’ 'रंजकता’ एवं 'अपेक्षाकृत बहुजन ग्राहयता’ माना, जिसके कारण कविता की तरह इस विधा में 'शिल्पगत प्रयोग’ की अधिक छूट नहीं है। कहानी में विचित्र चरित्रों की प्रस्तुति-उपस्थिति के पक्ष में वे नहीं रहे। वे एकरसता को तोड़े जाने के पक्ष मे है। कहानी में यथार्थ, बाह्य स्थितियां एवं संवेदनाएं सब महत्वपूर्ण हैं। उनकी सार्थकता इसमें है कि वह ''आज की प्रबुद्ध स्ेिथति में अधिक संतुलित ढंग से हमारे यथार्थ को तेजी से बदलती स्थितियों एवं संवेदनाओं को एवं उगते हुए मनुष्यको अपने माध्यम से वेयेजित करे या समझने का मौका दें।’’ (रचनावली 1/523) 'नयी कहानी’ उनके लिए 'अभूतपूर्व’ नहीं थी, वह 'जीवन की सहजधर्मी’ व्यंजनाएं थीं, नयी थी, पर अपरिचित नहीं थी, बदली हुई थी, पर 'हमारे अन्तस के निकट’ थी।

'कहानी-विविधा’ (1963) की भूमिका 'हिन्दी के कहानी-साहित्य पर एक बातचीत’ में उन्होंने एक साथ कहानी को आनंद, ज्ञान और शिक्षा से जोड़ा, मनुष्य के अपने अनुभव को 'कहानी का मूल’ माना और कहानी-चर्चा के क्रम में ऋग्वेद, महाकाव्य और पुराण तक गये। इस भूमिका में उन्होंने कहानी की 'आधुनिकता’ और 'नयेपन’ कीबात की। 'दुलाईवाली’ कहानी (1907) 'जीवन की एक साधारण घटना’ पर लिखी गयी थी और उन्होंने इसे 'साधारण की विजय’ के रूप में देखा। कहानी के विकास के लिए आरंभिक कहानियों में 'आकस्मिक संयोगों’ का सहारा लेने को रेकांकित किया और कहानी की विकास यात्रा में कहानी को 'बाहर से भीतर की ओर गमन’ देखा। ''पुराने जमाने की कहानियों में बाह्य घटनाएं एवं प्रसंग महत्वपूर्ण थे, मनुष्य का मन नहीं।’’ (देवीशंकर अवस्थी रचना-संचयन, पृष्ठ 309) वे प्रेमचन्द के यहां कहानी को 'नई’ होते देखते हैं और 'मानव चरित्र’ नामक एक नई प्राण-शक्ति का संचार रेखांकित करते हैं। इस संकलन में उसने कहा था 'कहानी में से पंजाबी गीत उन्होंने हटा दिया। यहां एक सवाल उठता है कि क्या किसी सम्पादक को यह अधिकार है कि वह किसी कालजयी कहानी के प्रमुख हिस्से को स्वेच्छा से हटा दे। छात्रों के लिए तैयार की गयी इस पुस्तक के पीछे कई तर्क दिये जा सकते हैं।

नामवर और अवस्थी की कथालोचना में समानता के बिन्दु कम और भिन्नता के अधिक हैं। नामवर ने 'हाशिए पर’ के कुछ लेखकों में 'भावुकता’ पर हमला किया था, उसे पुराने बोध के अन्तर्गत रखा था। अवस्थी के अनुसार 'भावुकता नयेपन की भी होती है।’ उन्होंने 'छोटे-छोटे ताजमहल’ पर की गयी नामवर की टिप्पणी अपने लेख 'कहानी : अच्छी और नयी’ (नई कहानियां मई 1962) में उदृत की, जिसमें नामवर ने 'कल्ट ऑफ एक्सपीरिएंस’ की आधुनिकता के साथ 'भावुकता की सृष्टि’ भी देखी थी। अवस्थी के अनुसार ''पुरानेपन का अनिवार्य लक्षण 'वैयक्तिक संबंधों’ की बारीकियाँ और निजी अनुभूतियों के छोटे-छोटे कण नहीं हैं।’’ (रचनावली 1/527) नामवर कहानी को 'एक’  की कहानी भर नहीं मानते, जबकि अवस्थी उसे 'वैयक्तिक और निजी कला’ कहते हैं। अवस्थी ने नामवर में 'अनुभूति के चित्रण से घबराहट’ देखी। कहानी में यह 'अनुभूति’ अवस्थी के यहां प्रमुख है। उनका ध्यान एक साथ कहानीकार की 'अनुभूति की पूंजी’ पर था और उसकी शक्ति पर भी। मुख्य सवाल वहां 'अनुभूति’ को 'पुनर्रचित एवं पुर्नगठित करने’ का है। फॉकनर ने 'मनुष्य के हृदय के द्वन्द्व’ की महत्वपूर्ण माना था जिससे अच्छा लेखन निर्मित होता है।

नामवर ने जब 'परिन्दे’ को 'नयी कहानी की पहली कृति’ कहा था, तो न वह फतवा था न फिकरा, पर अवस्थी को 'पठार का धीरज’ को हिन्दी की पहली नयी प्रेम कहानी कहना स्वयं 'फतवा देना’  लगा। वे जनवरी 1935 के 'विशाल भारत’ में अज्ञेय द्वारा जैनेन्द्र के कहानी-संग्रह 'दो चिडिय़ा’ की रिव्यू को महत्व देते हैं और कहानी - समीक्षा की दृष्टि से 'विवेक के रंग’ की भूमिका में महत्वपूर्ण मानते हैं। 'नई कहानी : संदर्भ और प्रकृति’ अज्ञेय को समर्पित है। अवस्थी के पहले नामवर ने 'हाशिए पर’ में 'पठार का धीरज’ कहानी पर विचार किया था - 'रचनाधर्मी कहानी की संश्लिष्टता और पठार का धीरज! नामवर ने 'पठार का धीरज’ कहानी का चयन कहानी के 'आंतरिक समवाय या संघटन की जटिलता को स्पष्ट करने के लिए’ किया था। अवस्थी ने इस कहानी में प्रेम की प्रकृति को पहचानने की चेष्टा पर ध्यान दिया। कहानी में किशोर और प्रमीला 'छायाओं से नहीं, वास्तविक से प्यार करते हैं’ एक दूसरे से। अवस्थी ने अपने लेख में इसे पहले की प्रेम कहानियों से भिन्न माना, जिसमें प्रेम 'बलिदान त्याग, नि:शेष समर्पण, सतत वेदना, सतत आत्मदान आदि महिमाशाली शब्दों से मंडित’ था। ''पचास वर्ष होने को आये, ये लहना सिंह, देवदास और गुण्डा, सालवंती पारो और मधूलिका बार-बार रूप बदलकर हमारे कथा साहित्य में प्रकट होते आये हैं’’। (रचनावाली 1/529) उनके अनुसार अज्ञेय ने किशोर-प्रेम को 'पठार का धीरज’ और 'विवेक’ देना चाहा है, कथाकार अपने पात्रों को विवेक के यास्वयं पात्र विवेकवान बने। नामवर ने 'पठार का धीरज’ कहानी में 'वास्तविकता के अलग-अलग स्तर’ की बात कही थी - पठार की अपनी वास्तविकता है, उनकी अपनी वास्तविकता। दोनों समानान्तर हैं, सहजीवी हैं, संयुक्त हैं। नामवर का सवाल था - ''प्रेम में धीरज है या कि यह धीरज का प्रेम है! उनका सवाल यह भी था कि ''लेखक की जीवन-दृष्टि ने स्वयं कहानी के संघटन का कितना भावित किया है?’’ अवस्थी के सामे अशरीरी और शारीरिक प्रेम का सवाल है। उनके सामने सामाजिक बंधनों का भी प्रश्न था। वास्तविकता से प्यार से ही शारीरिकता का उदय होता है।

अवस्थी का ध्यान कहानी के कला-रूप पर अधिक है। 'रूप बंधन’ उनके यहां कम महत्वपूर्ण नहीं है। रामविलास शर्मा की पुस्तक 'प्रेमचन्द्र और उनका पुत्र’ की उन्होंने आलोचना की क्योंकि डॉ. शर्मा ने ''प्रेमचंद के एक भी उपन्यास के रूपबंध का विश्लेषण करते हुए उसकी आन्तरिक कलात्मक सत्ता, एकान्यिति आदि के विश्लेषण की कोई चेष्टा’’ नहीं की थी। अवस्थी 'कला दृष्टि’ को महत्व देते हैं। महत्वपूर्ण है 'कलाकार  का कल्पनात्मक भावन।’ 'विवेक के रंग’ अवस्थी ने अपने गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी को समर्पित किया। द्विवेदी जी ने प्रेमचन्द को 'उत्तर भारत के जन जीवन के प्रामाणिक गाइड’ कहा था। अवस्थी ऐसी आलोचना से सहमत नहीं है। ''कथा-साहित्य की आलोचना प्रारंभ से ही अनेक विकृतियों में फंस गई’’। (वही, पृष्ठ 13-14)

क्या अवस्थी ने हिन्दी आलोचना और कथालोचना के कुछ मूल्य का मानदण्ड निर्धारित किए? 'नयी कविता बनाम नयी कहानी’ (आजकल, अप्रैल 1964) लेख की आरंभिक पंक्ति है। ''आलोचना के मानदण्डों या मूल्यों की अराजकता के उदाहरण हिन्दी में रोज ही दिखाई पड़ते हैं।’’ अवस्थी ने छह मुखी कथा-तत्वों के आधार पर कहानी की अध्ययन-पद्धति का विरोध किया। रामस्वरूप चतुर्वेदी के लेख 'असमय बूढ़ा होता कथा-साहित्य’ का उन्होने विरोध किया और बताया कि कहानी युग-संवेदना को वहन करने में पूर्ण समर्थ है। वे एक ही भावबोध से नयी कविता और नयी कहानी का जन्म देखते हैं नयी कविता और नयी कहानी के बीच हुई बहस उनके लिए बेमानी थी। मोहन राकेश ने नयी कहानी आन्दोलन को नयी कविता से आगे का कहा था। बाद में उनके साथ कमलेश्वर भी आ खड़े हुए थे, जिन्होंने नयी कविता को 'कुंठावादी’ कहा और 'नयी कहानी’ में 'एक नयी सामाजिकता’ देखी। अवस्थी ने नयी कविता को प्रयोगवाद से जोड़ा। मोहन राकेश ने कई बार 'क्राइसिस’ की बात कही और इसे विभाजन से जोड़ा, नयी पीढ़ी पर इसका गहरा प्रभाव देखा। अवस्थी ने राकेश की जमकर आलोचना की। विभाजन पर सबसे अधिक गहानियां अज्ञेय ने लिखी थीं। अवस्थी ने प्रश्न किया क्या अज्ञेय 'नयी कहानी’ में शुमार किये जायेंगे? राकेश को उन्होंने 'विभाजन-ग्रस्त लेखक’ कहा। उनके लिए विभाजन का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं था। ''विभाजन से हमारे सामाजिक संगठन में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा जो नयी संचेतना आयी है, वह विभाजन के बिना भी आकर संगठन में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ है तथा जो नयी संचेतना आयी है, वह विभाजन के बिना भी आकर रहती।’’ (रचनावली 1/538) अवस्थी के यहां 'संवेदनात्मक धरातल’ महत्वपूर्ण है। वे व्यापक माध्यम के रूप में कहानी की संभावनाओं को देख रहे थे। 'सामाजिकता’ की उन्हें बार-बार आलोचना की। उसे 'प्रगतिवाद की उतारी हुई वेशभूषा ही अधिक’ माना। भावप्रवण या अनुभूत विचारों की कहानियाँ को वे 'बौद्धिक कहानी’ कहते हैं। समस्या-प्रधान कहानियों का उनके लिए कोई अर्थ नहीं था। अर्थवान कहानियाँ 'अनुभवधर्मा कहानियां’ थीं। 'कहानियाँ : वास्तविक रचनाशीलता का संदर्भ’ (ज्ञानोदय, नवम्बर 1964: में उन्होंने जन-जीवन के नारे की छाया के बीच लिखे गये 'प्रगतिवादी रचनात्मक साहित्य’ के 'फिसफिसाकर बैठ जाने’की बात कही। उनके लिए जनजीवन। 'परिचित जीवन’ का पर्याय नहीं है। रचनात्मक लेखन और समीक्षात्मक चिंतन दोनों में वे प्रगतिवाद का विरोध करते हैं। उनके लिए 'कला की दुनिया जीवन के समानान्तर’ है। दूसरी ओर वे 'यथार्थ जीवन की प्रतिबद्धता’ की बात करते हैं - ''साहित्य की दृष्टि-सम्पन्नता यथार्थ के प्रति प्रतिबद्धता है।’’ (वही, पृष्ठ 544)

यथार्थ 'आखिर है क्या?’ अवस्थी ने इसे 'सबसे रपटीला शब्द’ कहा है, जो कई नाम रूपों ('नाना रुप धरौ हरि:’) में हमारे सामने आता है - कभी समस्या के नाम से कभी अनुभव के नाम से, तो कहीं किसी अन्य नाम-रूप में। उन्होंने 'यथार्थ’ को समझने की बात कही - ''यथार्थ दृष्टिकोण है या विषयवस्तु, यथार्थ शैली है या रूपबोध का सम्पूर्ण शिल्प। यथार्थ के प्रति प्रतिबद्ध होने की शर्त क्या है और उसकी पहचान क्या है?’’ (वही, पृष्ठ-549) इस लेख में (कथा वार्ता : सार्थकता का प्रश्न, 'अणिमा’, जनवरी1965) उन्होंने बाद में 'यथार्थ की बात’  करने की कही थी क्योंकि ''बिना इस शब्द की स्पष्ट व्याख्या के तमाम चर्चा अरूप और आधारहीन बनी रहती है।’’ (वही) इसके बाद के अपने लेखों में भी उन्होंने 'यथार्थ’ की बात की। सात-आठ महीने बाद उन्होंने 'यथार्थ का शिल्प और शिल्प का यथार्थ’ जैसा पद प्रस्तुत किया। यथार्थ को लेकर अवस्थी के विचार बन-बिगड़ रहे थे। महेन्द्र भल्ला की कहानी 'एक पति के नोट्स’ पर उन्होंने विस्तार से विचार किया। मूल्यहीनता के कारण व्यक्ति में उत्पन्न द्वन्द्व को 'अधिक विकसित यथार्थ का परिचायक’ मानते हैं। सवाल यह है कि यह विकसित यथार्थ किसका है? क्या यह सीमित यथार्थ नहीं है। जन-जीवन और समाज अवस्थी की आलोचना में नहीं है, जिससे वहां 'सामाजिक’ या 'व्यापक यथार्थ’ का कोई प्रश्न नहीं उठता। 'एक पति के नोट्स’ की जितनी विस्तार से उन्होंने समीक्षा की है, उतने विस्तार से किसी अन्य कहानी की नहीं। इस लेख का आरंब उन्होंने कहानी की इस पंक्ति से किया - ''अगर वह मेरी पत्नी न होती तो मैं उसे जरूर चूम लेता या चूमने की इच्छा को दबाता कड़वा मजा लेता।’’ साठ के दशक में मध्य वर्ग जिस मार्ग पर चल पड़ा था, उसकी पहचान न कर कहानी के 'नये स्वर’ की अवस्थी ने प्रशंसा की। 'अभ्यस्त पाठक’ और 'विवेकी पाठक’ का अंतर बताया। क्या 'अभ्यस्त पाठक’ 'विवेकी पाठक’ नहीं था? क्या विवेकी पाठक मात्र नया पाठक है? महेन्द्र भल्ला की कहानी का यथार्थ 'आधुनिक जीवन की विडम्बना और नियति’ है। इस यथार्थ की पहचान सही है, पर यह निजी यथार्थ है। ''फ़र्क इससे पड़ता है कि इस कहानी का यथार्थ अधिक गहरा और अधिक नया ही नहीं, अधिक निजी भी है।’’ अवस्थी के अनुसार 'एक पति के नोट्स’ कहानी एक 'नये तरह के पाठक’ की भी मांग करती है। 1960 के बाद स्थितियां पूर्ववत नहीं रही थीं, पर बहुत 'धक्केदार’ कहानियां कम लिखी गयी। 'एक पति के नोट्स’ का पति में जैविक और लैंगिक पक्ष प्रबल है। उसके लिए 'प्रेम’ नहीं 'सेक्स’ प्रमुख है। पति 'पड़ोसी लड़की चन्द्रा को फ्लर्ट करने की कोशिश’ करता है और पड़ोसी किशोरीलाल की पत्नी को भी पाने की कोशिश। अवस्थी मानते हैं ''प्रेम, परिवार, सेक्स, पति-पत्नी संबंध, पड़ोसी व्यवहार आदि के पुराने स्थापित आदर्शों से यह स्थिति भिन्न है’’। (रचनावली 1/552) इस नये स्वर, व्यवहार और चरित्र की पहचान सही है पर इसकी सराहना ठीक नहीं है। इसकी एक पहचान इस अर्थ में भी की जानी चाहिए कि साठ की दशक में मध्य वर्ग का एक हिस्सा कितना अधिक स्वबद्ध हो गया था और जब उपभोक्तावाद का आगमन नहीं हुआ था, कभी उसमें भोग आरै दूसरे को प्राप्त करने की लालसा कितनी तीव्र हो उठी थी। अवस्थी का नयेपन के प्रति यह वह विशेष आग्रह है, जिसमें 'बुराई’ के 'सिग्नीफिकेंस’ पर भी ध्यान दिया। ''बुराई की इस गणनीयता के पीछे एक अत्यन्त प्रश्नशील मस्तिष्क की आवश्यकता है और यह प्रश्नशीलता अनिवार्यत: अनास्था, निराशावादिता की ओर ले जाएगी।’’ (वही)नये स्वर की पहचान महत्वपूर्ण है। नये स्वर का समर्थन नहीं। हिन्दी कहानी में यह नया स्वर अधिक दिनों तक टिक नहीं सका। अवस्थी के यहाँ 'निजता’ महत्वपूर्ण है।

कहानी पर अवस्थी के लेख संख्या में कम है, पर अपनी मौलिकता, चिंतनशीलता और आलोचनात्मक प्रज्ञा के कारण वे हमें आज भी सोचने-विचारने को बाध्य करते हैं। अगस्त 1965 की 'नयी कहानी’ में अवस्थी का लेख 'एक पति के नोट्स’ पर था और दो महीने बाद अक्टूबर 1965 के 'धर्मयुग’ में प्रकाशित लेख 'भयावह संदर्भ और कुछ कहानियां’ में वर्तमान संदर्भ को समझने और परिभाषित करने के लिए उन्होंने लेख के आरंभ में 'धर्मयुग’ 'टाइम्स’ और 'दिनमान’ में 1965 में प्रकाशित सम्पादकीय और आलेखों की कुछ पंक्तियां प्रस्तुत कीं। जिससे आजादी (1947) के बाद के 'बिखरे स्वप्न’ का पता लगे और 'तरुण भारतीय लोकतंत्र’ की वर्तमान स्थितियों की जानकारी भी। 'शांत और सुखी दुनिया’ समाप्त हाेरही थी और अवस्थी अनुभव की प्रामाणिकता के प्रति लेखकीय सजगता और रचना के प्रति उसकी ईमानदारी पर ध्यान दे रहे थे, भले चित्रण 'अप्रीतिकर ही क्यों न हो। नयी कहानी का सारा विद्रोह वे 'फार्मूलाबद्ध गैर ईमानदारी’ के प्रति देखते हैं। वे इससे सहमत नहीं है 'कि देश के यथार्थ से नये कहानीकार कटे हुए हैं। वे एक ओर 'निजी यथार्थ’ की बात करते हैं और दूसरी ओर 'देश के यथार्थ’ की भी। दोनों में अंतर है। 'एक पति के नोट्स’ में उन्होंने व्यक्ति और समाज के बीच 'बेखबरी’ की बात कही थी, जो बाद में 'अंतत: भय, आतंक या आततायीपन’ तक ले गयी। लेख के आरंभ में उन्होंने जो उद्धरण दिये, उनमें भयावह स्थितियों की ओर संकेत था। यह भयावह यथार्थ था, जो सर्वत्र नहीं था, पर जिसकी छायाएँ पडऩे लगी थीं। अब निर्मल की 'परिन्दे नहीं’ 'लंदन की एक रात’ कहानी केन्द्र में थी। मूल्यबोध बदल रहा था और अवस्थी ने इन कहानियों को मूल्यहीनता की कहानी न माना।

अवस्थी साठ के बाद की हिन्दी कहानियों के सर्वप्रमुख आलोचक हैं। नामवर ने 1965 में 'माया’ पत्रिका के नववर्षांक में 'नयी कहानी और एक शुरूआत’ लेख लिखा था, पर उसमें अवस्थी जैसी पक्षधरता या सहकारिता नहीं थी। उन्होंने साठ के बाद के कुछ कहानीकारों की कहानियों का नामोल्लेख भर किया था, अवस्थी का विचार-चिन्तन इससे कहीं अधिक व्यापक था। उन्होंने कलकत्ता के कथा-समारोह (दिसम्बर 1965) में 'आधुनिकता’ को एक 'प्रक्रिया’ मानकर इस प्रक्रिया में 'यथार्थ की भावना-प्रक्रिया’ के बदलने की बात कही और पीढ़ी की एक चेतना या अपने अनुभव को भी स्पष्ट किया, जो यथार्थ से संबद्ध है। अब अवस्थी सारे संसार को 'यथार्थ’ कह रहे थे, जिससे रचनाकार कुछ छवियों का चयन करता है और इसी पर उसका कहानी-संस्कार निर्भर करता है। इस चयन के पीछे कहानीकार की 'वैयक्तिक प्रतिभा’ होती है। अवस्थी ने अपने इस व्याख्यान में नयी कहानी की कोई चर्चा नहीं की क्योंकि वह अब 'थकी-पुरानी’ हो गयी है। नामवर ने केवल संकेत दिये थे, विजयमोहन सिंह ने बाद में साठोत्तरी कहानी पर कहानी - संकलन निकाला, पर इस दौर की कहानियों पर गंभीर विचार इस समय केवल देवीशंकर अवस्थी ने ही किया। ज्ञानरंजन, रवीन्द्र कालिया, काशीनाथ सिंह, महेन्द्र भल्ला की कहानियों में उन्होंने कहानी 'सृजन-प्रक्रिया के अंतर’ और 'यथार्थ के प्रति अलग-अलग रुखों’ को चिन्हित किया। लिखा - ''चौथे-पाँचवे दशक के लेखक 'यथार्थ का सृजन’ करते थे, पचासके लेखक 'यथार्थ को अभिव्यक्त’ करते थे, पर एकदम नया समकालीन कथाकार 'यथार्थ को खोजता’ है। (वही, पृ. 564) 'नयी कहानी’ को 'यथार्थ’ नाम से 'छौंक लोभी’ कहा। 'सामाजिकता की मांग ‘ करने वाले कथाकारों के साथ एक प्रकार के भविष्यवाद, से जुडऩे की बात कही। इनके सामने लेखन का, साहित्य का प्रयोजन, उसकी शक्ति सब गौण और व्यर्थ हो गयी थी। अवस्थी ने इस पीढ़ी के लिए लिखा - ''सामाजिकता या मानवता जैसे वाक्य इस पीढ़ी के लिए या तो 'एब्सट्रेक्शन’ है या एकदम 'इर्रेलिबेंट’ इनके 'आब्जेक्टिव’ और 'सब्जेक्टिव’ संसारों में फर्क नहीं रह गया है... इन काहनियों की दुुनिया छोटी भले ही हो, पर अधिक प्रामाणिक है।’’ (वही, पृष्ठ 567)

अवस्थी ने कहानी में 'किस्सागोई’ को खारिज किया। ''जिस प्रकार चित्रकला को सबसे बड़ा ख़तरा फोटोग्राफी से है या कविता को संगीत से होता है, उसी प्रकार कहानी या उपन्यास का सबसे बड़ा खतरा किस्सागोई है।’’ (वही, पृष्ठ 548) कहानी से किस्सागोई की विदाई कहानी की सामाजिकता की विदाई है। कहानी समीक्षा के यहां यूरोपीय समीक्षक छाये रहे। कहानी-समीक्षा में उनके मत-विचार प्रमुख रहे। कहानी के विश्लेषण में नामवर, अवस्थी का काम बड़ा है, पर कहानी की सैद्धान्तिकी का इन्होंने निर्माण नहीं किया। वह आवश्यक न था, न है। अवस्थी सिद्धान्त-चर्चा को आलोचना नहीं मानते। कहानी को 'उपन्यास का खासा गरीब संबंधी’ मानने की बात उन्होंने कही है और वे कहानी की स्वतंत्र सत्ता और इयत्ता को प्रतिष्ठित करने में लगे रहे। नये कहानीकारों ने 'कहानी में पुरानेपन की चौखट’ पूरी तरह नहीं तोड़ी थी। यह कार्य नयी कहानी के बाद के कथाकारों ने किया। कहानी-आलोचना में पहले से कुछ भी नहीं था। सब कुछ नये सिरे से आरंभ करना था। शुरुआत नामवर ने की, जिसे अवस्थी ने स्वीकार है, और बाद में अवस्थी ने उसे एक नूतन पहचान दी। कथा-समीक्षा की नयी पद्धति या ओजारों के विकास में वे पश्चिम के 'फिक्शन क्रिटिसिज्म से हिन्दी की कथा-समीक्षा पूरी तरह मुक्त नहीं हुई। आधुनिकता का जो मॉडल निर्मित किया जा रहा ता, वह भी अपना न होकर यूरोपीय था। क्या यह मान लिया जाये कि नेहरू और उसके बाद की आधुनिकता का जो भी मॉडल हमने अपनाया उसी मार्ग पर न सही, किनारे-किनारे ही सही कथा-समीक्षा की पद्धति भी चली? अवस्थी ने कथा-समीक्षा में जिस 'काव्य-समीक्षा की कोटियों’ की बात कही है, वह पश्चिम की 'न्यू क्रिटिसिज्म’ से भी थी। अवस्थी ने कहा है- ''पश्चिम से आयातित किये जाने पर मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है’। ('नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति, पृष्ठ 17) उन्होंने 'पश्चिम की विकसित समीक्षा-पद्धतियों से जाने-अनजाने प्रभावित होने की बात कही। पश्चिम में 'फिक्शन क्रिटिसिज्म’ में उपन्यास और काहनी दोनों के रूपगत अन्तरों पर विचार किया गया है। अवस्थी मानते हैं ''दोनों के समीक्षा-मूल्यों के सेट अलग-अलग नहीं किये जा सकते।’’  अवस्थी हिन्दी प्रदेश में उपन्यास की तुलना में कहानी की मुख्यता देखते हैं - 'समाज से कट कर लड़ी जाने वाली गुरिल्ला लड़ाई के रूप में नहीं, बल्कि पूरे सामाजिक वस्तु-सत्य के भीतर मनुष्य के द्वन्द्व, तनाव, आशा, आकांक्षा को भी समेटने वाली।’’ (वही, पृष्ठ 18) अवस्थी के कथालोचक में कई अन्र्तविरोध है। एक ओर से कहान को वे 'निजी कला’ कहते हैं और दूसरी ओर 'सामाजिक वस्तु-सत्य’ पर भी ध्यान देते हैं। उनके लिए कहानी-आलोचना में 'कृति की कलात्मक क्षमता’ या 'यथार्थ-बोध को दिया गया नया आयाम’ प्रमुख है। 'प्रतीक’ को वे 'कृति के कलात्मक विकास’ में सहायक न मानकर 'किसी एक स्थिति या भाषा-प्रयोग के विश्लेषण की कसौटी’ मानते हैं। 'कथानक’ को देखने की उनकी दृष्टि भिन्न है। वे इसे घटनाओं और विवरणों के अर्थ में देखकर अरस्तू की सहमति से 'कार्य-व्यापार की आत्मा’ के अर्थ में देखते हैं। उनके लिए महत्वपूर्ण है 'वास्तविक’ और 'अनुभव की प्रत्यक्षता’। प्रतीक, मिथक, अन्योक्ति आदि की चर्चा उनके अनुसार 'वास्तविक का अवमूल्यन’ है। प्रतीक-चर्चा में 'अनुभव की फ्रत्यक्षता के प्रति एक अवमानना का भाव’ है। अवस्थी का सारा खेल 'प्रत्यक्ष अनुभव’ पर हैं, 'भले ही वह उबड़-खाबड़ या अपरिष्कृत हो’ पश्चिम में कहानी को आत्मपरक और 'लिरिकल’ माना गया है। अवस्थी की आपत्ति कहानी को 'जीतिवत’ मानने पर है क्योंकि ''यह समानता आत्मपरकता तक ही सीमित है और उसे गीति को प्रतीक-योजना में चलाने की चेष्टा सिर्फ स्मार्टनेस ही कही जा सकती है’’। (वही, पृष्ट 19) वे कथा-प्रकृति की उपेक्षा कर काव्य-समीक्षा की पद्धतियों या मानदंडों के लाने के खतरों की चर्चा करते हैं। (वहीं, पृष्ठ 18)

'नयी कहानी’ संदर्भ और प्रकृति की भूमिका में उन्होंने 'यथार्थ को अस्वीकार कर रूपवादी वृत्ति को बढ़ाना’ देने का विरोध किया है, जो ''अपनी तार्किक परिणति में भाव पक्ष या कला पक्ष के पुराने द्वैत को पुनर्जीवित करती है! वे इसे 'भाववादी दर्शन’ की देन मानते हैं और मार्क्स के साथ क्वान्टम फिजिक्स द्वारा इसे साखरहित करने का उल्लेख करते हैं, फिर भी कइयों ने अवस्थी को रूपवादी आलोचक कहा है। कहानी की आलोचना के क्रम में अवस्थी ने दर्शन और फिजिक्स की भी चर्चा की है। कहानी की आलोचना में 'भाषा-संवेदना’ उनका एकमात्र आधार नहीं है। रामस्वरूप चतुर्वेदी की 'नयी कहानी’ में 'युग-संवेदना’ और 'आधुनिकता’ नहीं देखी थी। अवस्थी ने उनकी आलोचना की और इसका खंडन किया कि 'भाषा का सृजनात्मक रूप’ बिम्ब और प्रतीक ही है। गद्य का स्वभाव उसकी वर्णनात्मक प्रकृति है। कथा समीक्षा की उसकी प्रमुख कटौती 'चरित्र-निर्माण क्षमता’ और 'कथानक संघटन शक्ति’ हैं, न कि भाषा, प्रतीक और बिम्ब। उनका ध्यान उस 'गद्य-प्रवाह’ पर है, जिसमें शब्द-योजना, बिम्ब-विधान, लाक्षणिकता, बाधा ही नहीं डालते, अपितु ''कथा के अभिप्रायों को भी बाधित करते हैं’’। (वही, पृष्ठ 21) गद्य और कविता की भाषा-प्रयोग-विधियां भिन्न हैं। उनकी चिंता में 'विधाओं का ऐतिहासिक-साहित्यिक अस्तित्व है। वे विधाओं में 'कॉमन लिटरेरीनेस’ खोजने की बात करते हैं, पर खतरा यह है कि ऐसी स्थिति में हम 'प्रभाववादी समीक्षण’ के पास पहुंच सकते हैं। उनके आलोचनात्मक विवेक पर फिलिप राथ का प्रभाव है। 'नयी कहानी : संदर्भ और प्रकृति’ की भूमिका में उन्होंने दो स्थलों पर फिलिप राथ को उद्धत किया है - ''कलाकार की मुख्य समस्या शैली की न होकर 'दृष्टि बिन्दु’ 'कलात्मक परिदृश्य’ आदि सं संबंधित बातों से रही है - यानी कि अपनी विषय-वस्तु को परिभाषित करना, अपने कथानक के भीतर से रास्ता बनाना की कथाकार की मुख्य समस्या है।’’ (वही, पृष्ठ 22)

हिन्दी की नयी आलोचना और कथालोचना के साथ देवीशंकर अवस्थी का नाम ऐतिहासिक रूप से जुड़ा हुआ है। इक्कीसवीं सदी में देखना यह है कि हम उनकी आलोचना, कथालोचना में क्या-कितना कुछ ग्रहण कर सकते हैं।

 

संपर्क - मो. 9431103960

 

Login