संवाद, साक्षात्कार और बातचीत - फ़हमीदा रियाज़

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    अप्रैल - 2019
श्रेणी संवाद, साक्षात्कार और बातचीत - फ़हमीदा रियाज़
संस्करण अप्रैल - 2019
लेखक का नाम राजकुमार केसवानी





उर्दू रजिस्टर/एक

 

 

 

फ़हमीदा रियाज़

(28 जुलाई 1946 - 21 नवम्बर 2018)

 

आम तौर पर इस नाम - फ़हमीदा रियाज़ - को एक शाइर, कथाकार, मानव अधिकारों के लिए लडऩे वाला योद्धा और इसी तरह की तमाम चीज़ों के साथ लिया जाता है। अपनी मुख़्तसर सी पहचान, वह भी ग़ाइबाना, में मैने इस फ़हमीदा रियाज़ को जाना तो तभी जाना कि इंसानियत की एक मुकम्मल मूरत क्या होती है। सड़कों पर इंसानी हुकूक़ के लिए लड़ती एक जंग-जू औरत, अकेले बंद कमरे में बैठी न जाने किस-किस के दुख में डूबी कलम से लिखती औरत। पल में ख़फ़ा होने और पल में मन जाने वाली फ़हमीदा आपा। दुनिया भर में घूम-घूम दुनिया के लोगों से मिलने उन्हें जानने की कोशिश करती फ़हमीदा रियाज़, तन्हा होते ही ख़ुद को खोजने की कोशिश में खुद को ही आवाज़ें देती फ़हमीदा रियाज़।

फ़हमीदा रियाज़ की अनेक आवाज़ों में से एक आवाज़ मेरे लिए भी थी। उनकी शाइरी पढ़ता तो महसूस होता, वो मुझे आवाज़ दे रही हैं। आख़िर एक दिन मुझे भी यह कुव्वत हासिल हुई कि मैं इस आवाज़ के जवाब में अपनी आवाज़ शामिल कर लूं। नए दौर की तकनीक ने पुराने दौर की रद्द होती आवाज़ों को भी बोलने की कुव्वत दे दी है। मेरी आवाज़, ऐसी ही एक आवाज़ है।

फेस बुक पर फ़हमीदा रियाज़ को देखा तो ख़ुद को रोक न पाया। फौरन एक मैसेज लिख कर भेज दिया, फौरन जवाब भी आ गया। लिखते वक्त पता न था कि क्या लिखूंगा, पर लिखने लगा तो ख़ुद-ब-ख़ुद ही लिख गया - फ़हमीदा आपा। इसके जवाब में जो जवाब आया तो जाना कि इंसान की छठी हिस्स किसे कहते हैं। कैसे वह अपने रिश्ते पहचान लेती है और एक मुनासिब सी आवाज़ भी ईजाद कर देती है।

फ़हमीदा रियाज़ से बातचीत शुरू हुई। मैने तो शुरू भर की बाकी की राह तो उन्होने ही दिखाई। मैं ख़ुश था। एक और इंसान, जिससे कुछ सीखने को मिलेगा। मैं उन्हें भरपूर जान लेना चाहता था। लिहाज़ा उनकी लिखी, कही हर चीज़ को फ़ालो करने लगा। उनका पीछा करते-करते न जाने कितने जाने-अंजाने लोगों की ज़िंदगी में बार-बार दाख़िल होना पढ़ा। उनके सुख-दुख की तासीर से अपने भीतर हरारत महसूस की।

फ़हमीदा रियाज़ से शुरू हुआ बातचीत का सिलसिला बखूबी शुरू होकर चल निकला था। सब कुछ ठीक था। लेकिन ज़माने की नित नई सर्द-गर्म हवाओं ने तूफ़ानी शक्ल इख़्तियार कर ली। मेरी शुरूआती लापरवाही के बाद राह से भटकी बातचीत अधूरी रह ही गई। फ़हमीदा आपा, पहले पाकिस्तान में मची उत्थल-पुत्थल से उलझती रहीं फिर उनकी सेहत पर कु़दरत का एक ज़ालिमाना हमला हुआ। मैं, दूर ख़ामोशी से बैठा, फ़हमीदा आपा की सेहतयाबी की दुआएं करता रहा। बातचीत को यूं भूल बैठा मानो कभी कोई बात ही न हुई हो। एक दिन जब मालूम हुआ कि दुआएं कुबूल न हुईं तो अहसास हुआ कि इस अधूरी दुनिया में हर बात अधूरी ही रह जाती है। फ़हमीदा रियाज़ से मेरी बात भी अधूरी रह गई। सो अधूरी ही सही। उनकी कही बातें ज़ाया तो नहीं होनी चाहियें। सो उसे पेश कर रहा हूं।

मैं इसे रिवायती बातचीत वाले फ़ारमेट से ज़रा अलग ई-मेल पर हुई ख़तो-किताबत को भी लगभग जस का तस पेश कर रहा हूं। फ़हमीदा रियाज़ के ज़्यादातर जवाब रोमन लिपी में हैं, कुछ उर्दू रस्म-उल-ख़त में हैं, जिन्हें मैने देवनागरी में बदला है। शुरूआत में कुछ अंग्रेज़ी में भी बात हुई है। उस बात की दोनो तहरीरें, असल और तर्जुमा, पेश कर रहा हूं।

कुछ ई-मेल, जो इस जगह गैर-ज़रूरी हैं, शामिल नहीं कर रहा।

 

राजकुमार केसवानी

 

डीयर फहमीदा आपा,

आदाब

ज़माने से ख़्वाहिश थी कि आपसे राब्ता कायम हो और कुछ बातचीत हो सके... फेस बुक ने यह काम आसान कर दिया। बहरहाल, असल मुद्दे पर आने से पहले रस्मन अपने बारे में कुछ बताना ज़रूरी होगा... मेरा नाम राजकुमार केसवानी है... हिन्दुस्तान के शहर भोपाल की पैदाइश है और यहीं उम्र कटी है... पेशे से अख़बार नवीस हूं... चालीस बरस के अरसे में अख़बार, टीवी और कुछ रिसालों का रिपोर्टर रहा हूं... 2003 से हिंदी के एक बड़े अख़बार दैनिक भास्कर में एडीटर भी रहा... इसी दौर में मैने ज़ाहिदा हिना जी से अपने अख़बार में पाकिस्तान डायरी नामी कालम शुरू करवाया जो आज भी बदस्तूर जारी है, जबकि मैं नौकरी छोड़ चुका हूं।

इस वक्त मैं अख़बारों में कालम लिखने के अलावा हिंदुस्तान के सबसे नामवर अदबी रिसाले 'पहल’ का, मशहूर कहानीकार ज्ञानरंजन के साथ, एडीटर हूं। मेरी दिली ख़्वाहिश है कि 'पहल’ में आपकी कलम का जादू दिखाई दे... यूं कोई तीन दहाई पहले 'पहल’ के 'समकालीन पाकिस्तानी साहित्य’ वाले शुमारे में आपकी एक नज़्म 'ऐवान-ए-अदालत में’ शामिल थी। एफ्रो-एशियन राईटर्स एसोसियेशन की मदद से शाया हुए इस इशू के पब्लिशर भीष्म साहनी जी थे।

अगर आप मुनासिब समझें तो अपनी हामी के साथ ही अपना ई-मेल और पोस्टल एड्रेस भेज सकें तो बड़ा करम होगा... शुक्रिया...राजकुमार केसवानी

पुनश्च : मेरा ई-मेल rkeswani100@gmail.com

 

फ़हमीदा रियाज़

 

डीयर राजकुमार,

इतने अच्छे और प्यारे ख़त का शुक्रिया। मेरा ई-मेल है fahmidariaz@hotmail.com

ये कांटैक्ट का बेहतरीन तरीका है। ई-मेल मैं रोज़ चेक करती हूं। मेरी नज़्में तुम बहुत ख़ुशी से छापो। पिछले काफ़ी दिनों से मैं प्रोज़ लिख रही हूं।

वैसे, केसवानी सरनेम तो सिंधी लग रहा है। क्या तुम सिंधी हो?

 

राजकुमार केसवानी ....      बुधवार,अप्रेल 24,2013, 4.15 पी.एम 

आपके फौरा जवाब के लिए शुक्रिया। सबसे पहले आपके सवाल का जवाब दे दूं - जी हां, मैं सिन्धी हूं पैदाइश अलबत्ता भोपाल की है। मेरे ख़ानदान के लोग पहले जेकबाबाद और फिर सक्खर-रोहड़ी में आबाद थे... मेरे वालिद साहब जिनकी उम्र 91 बरस है, अक्सर इन शहरों को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं।

अब बात पहल की... मेरी ख़्वाहिश यह है कि नज़्मों के साथ ही आपका प्रोज़, और अगर मुमकिन हो तो ऐसा प्रोज़ जो पहले कहीं न छपा हो, मिल जाए तो पहल के लिए यह बात बाइस-ए-फ़ख्र होगी।

 

फ़हमीदा रियाज़                  बुधवार,अप्रेल 24,2013, 9.37 पी.एम 

ओह, तो मेरा अंदाज़ा सही था। तुम, एक सिंधी, इस धरती के बेटे, पैदा हुए भोपाल में, और मैं, उत्तर प्रदेश की जाई, रहती हूं सिंध में। एक अंतहीन त्रासदी। अफ़सोस! इसका अंत एक पीढ़ी तक महदूद नहीं। एक सिलसिला मुसलसल सा लगता है। आओ हम इसे एक किसी ऐसी चीज़ में बदल दें, जो इंसानियत की बुनियादों को पुख़्तगी देती हो। कम अज़ कम, इतना तो हम कर ही सकते हैं। (अंग्रेज़ी से अनुवाद)

पहल के लिए मेरी तज्वीज़ यह है कि मैं तुमको एक लम्बा, डीटेल्ड इंटरव्यू दूं, और उसमे अपनी नज़्में और प्रोज़ के टुकड़े भी शामिल कर दूं। हम इसको अपने इस सवाल और जवाब से भी शुरू कर सकते हैं, केसवानी तो सिंधियों का नाम होता है। क्या तुम सिंधी हो?  फिर तुम्हारा जवाब, जो तुमने दिया है, और फिर मेरा ऊपर वाला पैराग्राफ़, फिर बात से बात निकलेगी।

लेकिन जो कुछ मैं लिखूं वो सब छापना पड़ेगा। मेरी कही बात कांट्रोवर्शियल भी हो सकती है। लेकिन मैं जो कुछ महसूस करती हूं, वही कहती हूं। इस तरह चन्द दिनों में एक इंटरव्यू तैयार हो सकता है।

क्या खय़ाल है ?

 

Raajkumar Keswani rkeswani100@gmail.com Wed, Apr 24, 2013, 10:14 PM

आपा,

बड़ा ही नेक ख़्याल है। इस विचार को लेकर उत्साह से भर गया हूं। मैं यक़ीनन पूरी तैयारी करूंगा और सिलसिला शुरू करूंगा। और हां, एक और बात जिसे अब और छुपाना नहीं चाहता - मैने हिंदुस्तानी ज़बान में रूमी पर एक किताब ''जहान-ए-रूमी’’ के नाम से की है, जो 2008 में प्रकाशित हुई है। पुस्तक में रूमी पर एक विस्तृत आलेख और साथ ही मेरे अपने नज़रिए से किया गया कविताओं का तर्जुमा भी है। बाद को मालूम हुआ कि आपने भी रूमी का तर्जुमा किया है। तलाश करने पर मुझे उसकी एक झलक भर मिली फिर भी मैं उसके इश्क़ में गिरफ्तार हो गया।

अगर आप अपना डाक का पता इनायत फ़रमाएं तो मैं आपको अपनी किताब की कापी भेज सकता हूं,

मुझे लगता है अब मुझे इस जगह रुक जाना चाहिए। वरना मैं बिना रुके बोलता चला जाऊंगा। न जाने क्या औल-फौल।

पूरे अदब, एहतराम और मुहब्बत के साथ,

आर.के. (अंग्रेज़ी से अनुवाद)

Raajkumar Keswani rkeswani100@gmail.com  Mon, Jun 10, 2013, 12:51 PM      

डीयर फ़हमीदा आपा,

आप हैरान होती होंगी कि मैं कहां उडऩ-छू हो गया। दर हक़ीक़त, मैं इंटरव्यू की तैयारी और उसके साथ ही साथ अपनी दीगर पेशेवर ज़िमेदारियों में मसरूफ़ रहा। इसके इलावा 'पहल’ के नए अंक की तैयारी, जिसे अगस्त में प्रकाशित हो जाना है।

बहरहाल, अब मैं पूरी तरह से तैयार हूं और इस हफ्ते के आख़िर तक आपसे मुख़ातिब होता हूं। उम्मीद है आप मेरी इस देरी के लिए मुझे माफ़ करेंगी।

सादर

राजकुमार (अंग्रेज़ी से अनुवाद) 

 

Fahmida Riaz fahmidariaz@hotmail.com  Mon, Jun 10, 2013, 12:51 PM

किसी माफ़ी की ज़रूरत नहीं मेरे अज़ीज़ राज। मैं तुम्हारे धोके में न जाने कितने केसवानियों से बात कर गई।

तुम तैयार हो तो मैं भी तुम्हें तैयार ही मिलूंगी। और हां, हमारे पहले ख़त का वह हिस्सा जिसमे तुमने मुझे बताया कि तुम सिंधी हो, और मैने तुम्हे जो जवाब दिया, हमारे इंटरव्यू की शुरूआत होगी।

फ़हमीदा रियाज़ (अंग्रेजी से अनुवाद)

 

Raajkumar Keswani rkeswani100@gmail.com        Mon, Jun 10, 2013, 1:01 PM  

हा, हा, हा. कितने केसवानी थे? हा, हा! कमाल तो यह है कि मैं ख़ुद बमुश्किल एक और केसवानी को जानता हूं। हां, मेरे अब्बा जान ज़रूर आज भी पूरी तरह केसवानी, वाधवानी और साधवानी के बीच एक्टिव हैं।

Well, jokes apart, इंटरव्यू की शुरूआत यक़ीनन वहीं से होगी, जो आपने सजेस्ट किया है। मेरे ख़्याल से इससे बेहतर कुछ और हो ही नहीं सकता।

जल्द हाज़िर होता हूं।

आपका

राजकुमार

 

Raajkumar Keswani rkeswani100@gmail.com Wed, Jul 17, 2013, 7:12 PM to Fahmida

प्यारी आपा,

बिल-आख़िर मैं हाज़िर हो रहा हूं, एक अधूरा काम पूरा करने के लिए - यानी अपनी प्यारी फ़हमीदा आपा का इंटरव्यू। मैं बातचीत के इस सिलसिले की शुरूआत उसी तरह कर रहा हूं, जैसा कि आपने सुझाया है।

आपा, आपने सीधे दिल के बेहद नाज़ुक कोने पर हाथ रख दिया। चढ़ती जवानी में तो इस मसले पर बहुत सोच नहीं पाया, लेकिन इस ढलती उम्र में इसी एक सवाल में छुपे हज़ार सवालों से जूझ रहा हूं। सिंध को मैने देखा नहीं, बस सुना है...बल्कि उम्र भर सुना है...भोपाल मेरे लहू के हर क़तरे में शामिल है... मैने क्या खोया है, इसके अंदाज़ा मुझे क़तई नहीं है, हां, यहां क्या पाया है, उससे ज़रूर भरा हुआ हूं... किस कीमत पर पाया है, वह भी बखूबी याद है... सारे मंज़र आज भी आंखों के आगे बाकायदा फ़िल्म की तरह घूमते हैं... इसी से निजात हासिल करने के लिए कुछ बरस पहले एक नाविल शुरू किया था - बाजे वाली गली - इसमे मेरा सुना हुआ सिंध और अपना जिया हुआ भोपाल, बरास्ता तवारीख़ दर्ज करने की कोशिश कर रहा हूं। आप की बात ने थोड़ा हौसला और थोड़ा जोश और बड़ा दिया है। दुआ करें, जीते जी इसे लिख सकूं वरना इस दुनिया को मेरी यह दास्तान आस्मानी चीखों की शक्ल में सुननी पड़ेगी।

खैर, आपसे बातचीत के पीछे मक़सद था आपकी बात करना लेकिन मैं जज़्बात की रौ में बहकर अपनी बात ले बैठा। ज़रा आप बताएं कि आप उत्तर प्रदेश से हैं और सिंध में हैं। कैसे?

फ़हमीदा : राजकुमार यह एक ट्रेजिक कहानी है। मैं जब इंडिया में थी तो मैं अपने सिंधी शौहर ज़फ़र के साथ अहमदाबाद गई थी। वहां हम एक सीपीएम के कारकुन के घर एक सिंधी मुहल्ले में ठहरे थे। दीवारों पर सिंधी बोली में कुछ तहरीर देख कर दिल पर चोट पड़ी थी। मैने एक नज़्म लिखी थी, जिसका अब एक ही शेर याद है- 

जिन गीतों को सुनकर झूमी, ये भी उन उनके ख़ालिक़ थे

जिस घर में एक गोशा पाया, ये भी उसके मालिक थे

यह नज़्म कहीं गुम हो गई। क्यों? क्योंकि यह वाहिद नज़्म थी जिसमें हिंदुस्तान में किसी को दिलचस्पी नहीं थी। कोई भी इसको सुनना नहीं चाहता था।

लेकिन उस घर में मैने एक बात और भी नोटिस की थी। मैं घर के ज़नाना हिस्से में थी। घर की भोली-भाली औरतें इस बात से दूर थीं कि पोलिटिकली करेक्ट क्या बात है और क्या नहीं। जब बढ़ी-बूढिय़ां रवानी में गुफ्तगू करतीं तब वो सिंध के हिंदूज़ को सिंधी और मुसलमानों को सिर्फ मुसलमान कहती थीं। जैसे - हम सिंधी वहां रहते थे और उस गोठ में कुछ मुसलमान भी थे। उनके परसेप्शन में सिर्फ हिंदू ही सिंधी थे। यह शायद काफ़ी कामन परसेप्शन था।

तुम मुझको क्या बताते हो कि भोपाल किस तरह तुम्हारे वजूद का हिस्सा बना। हिजरत के अपने आदाब होते हैं। सिंधु दरिया के लिए अपनी नज़्म में मैने लिखा था - 

 

मेरे साथ मेरा कोई मीत नहीं

कोई रंग-रूप, कोई प्रीत नहीं

मेरी पीढिय़ों के बीते जुग मेरे साथ नहीं

 

और आख़िर में यह अर्ज़

ओ महान सागर

जीवन रस दे

अपने तल में जल पौधा बनकर जड़ लेने दे

सदा जिये

ओ महान सागर सिंधु, तू सदा जिये

 

ओ पालनहार हमारे

धरती के रखवाले

अन्नदाता

तेरी धरती, नर्म, मुलायम, मेहरबान सिंध की धरती

सदा जिए

 

राजकुमार :  वाह, क्या बात कही है आपने ! ''मेरी पीढिय़ों के बीते जुग मेरे साथ नहीं।’’ पीढिय़ों के बीते जुग, मेरी समझ से महज़ किसी इंसान के आबा-ओ-अज़दाद भर नहीं बल्कि उस जुग की पूरी तहजीब और तवारीख़ शामिल होती है। आपने यह बातें उठाकर बातचीत को मेरे असल इरादे से अलग एक बेहद ज़रूरी बात की तरफ़ मोड़ दिया है।

इससे पहले कि मैं एक बार फिर आपके सामने अपना वही सवाल दुहराऊं कि उत्तर प्रदेश से सिंध पहुंचना कैसे हुआ, मैं पूछूंगा कि आपको इस मुख़लिस सदा की सिंधु नदी आपको ''अपने तले में जल पौधा बनकर जड़ लेने की ज़रूरत क्यों पड़ी? मैं सचमुच यह जानना और समझना चाहूंगा कि आख़िर वो क्या फैक्टर्स हैं जिनमे उलझकर इन हालात तक पहुंचता है।

और हां, आप अहमदाबाद कैसे पहुंची और वहां दीवार पर क्या इबारत थी? यह सवाल मैं आपसे आगे ज़रूर पूछूंगा, जब आप यह बताएंगी कि किन हालात में आपको पाकिस्तान छोड़कर दिल्ली आना पड़ा था।

फ़हमीदा : राजकुमार, इसमें भी शायद उस वक्त के सिंध के सियासी हालात पोशीदा हैं। मेरे ख़ानदान, यानी मां-बाप ने सिंध हिजरत पाकिस्तान बनने के बाद नहीं की थी, बल्कि वो इससे बहुत पहले हैदराबाद सिंध चले गए थे। हैदराबाद में जनाब नूर मुहम्मद ने एक स्कूल खोला था। यह सिंध में मुसलमानों के लिए दूसरा स्कूल था। पहला सिंध मदरसा था जो कराची में कायम किया गया था। सिंध के मुसलमान नई तालीम को कुफ्र समझते थे और तालीम में बहुत पीछे रह गए थे। नूर मुहम्मद ने अलीगढ़ यूनीवर्सिटी से तालीम हासिल की थी। तो जब जब हैदराबाद के इस स्कूल को हाइ स्कूल बनाने लगे तो उन्होने अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी को ख़त लिखा कि कुछ टीचर्स हैदराबाद सिंध भेज दें। मेरे वालिद ने भी एम.ए. किया था। उन्होने ये आफ़र कुबूल कर लिआ और वो सिंध चले आए।

मैं तो एक इतिफ़ाक़ से मेरठ में पैदा हुई। हमारे यहां ज़चकी के लिए माएं अपने मायके जाती हैं। इस तरह वो अपनी मां के पास आई हुई थीं। चिल्ला नहाने के बाद वो मुझको लेकर वापस हैदराबाद चली गईं। उस ज़माने में इस रास्ते को छोटी लाईन कहा जाता था और यह अजमेर से होता हुआ जाता था। लेकिन मेरी नाल मेरठ में गड़ी और उससे कहते हैं कशिश होती है।

मैने भी होश सम्भाला तो सिंधियों और बलूचों को देखा। बस वो ही मेरा वतन बन गया।

लेकिन हिंदुस्तान मेरी ज़हनी ज़िंदगी से कहीं गया नहीं था। उर्दू लिटरेचर में तो हिंदुस्तान ही हिंदुस्तान था। अम्मी की ज़ुबानी भी ज़िक्र सुनती रहती थी।

होश सम्भालने के बाद जब पहली बार एक मुशाइरे में शिरकत करने दिल्ली आई तो दिल पर अजब वारदात गुज़र रही थी। मैने एक नज़्म लिखी -

 

दिल्ली! तिरी छाँव बड़ी क़हरी

मिरी पूरी काया पिघल रही

मुझे गले लगा कर गली गली

धीरे से कहे ''तू कौन है री?’’

मैं कौन हूँ माँ तिरी जाई हूँ

पर भेस नए से आई हूँ

मैं रमती पहुँची अपनों तक

पर प्रीत पराई लाई हूँ

 

तारीख़ की घोर गुफाओं में

शायद पाए पहचान मिरी

था बीज में देस का प्यार घुला

परदेस में क्या क्या बेल चढ़ी

 

नस नस में लहू तो तेरा है

पर आँसू मेरे अपने हैं

होंटों पर रही तेरी बोली

पर नैन में सिंध के सपने हैं

तू सदा सुहागन हो माँ री!

मुझे अपनी तोड़ निभाना है

री दिल्ली छू कर चरण तिरे

मुझ को वापस मुड़ जाना है

 

राजकुमार : वाह, वाह! बस, वाह, वाह। वैसे ''उर्दू लिटरेचर में तो हिंदुस्तान ही हिंदुस्तान था’’ से आपकी मुराद क्या है ?

फ़हमीदा : राजकुमार, जो अदबी विरसा हमारा था, उसमे दिल्ली और लखनऊ था, गंगा और जमुना थीं और ब्रह्म पुत्र। उसमे रतननाथ सरशार का फ़साना-ए-आज़ाद था और मुंशी प्रेमचंद, जिन्होने उर्दू में शार्ट स्टोरी की बुनियाद रखी। अल्लामा इक़बाल, जो पाकिस्तान के कौमी शाइर हैं, उन तक ने तो 'सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ लिखी थी। यह नज़्में उनके कलाम से निकाली तो नहीं जा सकतीं और अब भी मौजूद हैं। जैसे उन्होने भृतहरि पर लिखा और उनका मज़मून तर्जुमा भी किया।

यह मतलब था मेरा।

फिर उर्दू का विरसा तरक्क़ी पसंद या प्रगतिशील लिटरेचर है। इसमे कृष्ण चंदर और मंटो, अहमद नदीम कासमी और ऐसे ही कितनो ने दिल में हिंदुस्तान के लिए इला-मुहाला मुहब्बत पैदा कर दी।

जो मेरी जेनरेशन है, जैसे रुश्दी की मिड नाईटस चिल्ड्रन, तो हमने इस ज़हनी माहौल में परवरिश पाई। फिर मेरे कालेज के ज़माने से जनरल अयूब ख़ान के ख़िलाफ़ तहरीक का आग़ाज़ हुआ जो स्टूडेंट्स ने शुरू किया। उसने भी ज़हन पर असर डाला।

मेरी शाइरी में यह सब अक्स नज़र आते हैं। हालांकि इब्तदाई शाइरी तो मुहब्बत की है। जो 'पत्थर की ज़बान’ में है, जो मेरी पहली किताब है। ये 1967 में शाया हुई। तब तक उर्दू में लड़कियां अपनी ही आवाज़ में मुहब्बत की शाइरी नहीं करती थीं। यह अपनी किस्म की पहली किताब समझी गई। आज देखती हूं तो कितनी सारी लड़कियां शाइरी कर रही हैं। तब बहुत ख़ुशी होती है।

राजकुमार : फ़हमीदा जी, आपने मुझे अभी तक यह नहीं बताया कि आप जब मेरठ से सिंध पहुंचीं तो उस वक्त ज़मीनी हालात क्या थे? सियासी और गैर सियासी।

आपने जब पहली बार रिवायती तौर पर, जैसा कि आपने कहा, 'मुहब्बत की शाइरी की’ तो उस वक़्त के रिएक्शंस क्या थे और जब उसे छोड़कर 'बागिय़ाना तेवर’ की शाइरी शुरू की तब उन रिएक्शंस में क्या बदलाव आया?

फ़हमीदा :  देखो राजकुमार, मैं जुलाई 1946 में जन्मी। मेरे अब्बू और अम्मी तो तब तक सिंध में सेटल हो चुके थे लेकिन ननिहाल मेरठ में थी। हमारे यहां कायदा है कि बच्चे की पैदाइश के लिए जाते हैं। बस इसलिए अम्मी मेरठ मेरी पैदाइश के लिए गईं। मैं चालीस दिन की हुई तो वह वापस आ गईं। (स्माईली)

सच तो यह है कि मैं रहना तो पाकिस्तान में ही चाहती हूं, क्योंकि यही मेरा वतन है, लेकिन मरना जमुना किनारे...आप कहेंगे यह शाइराना ख़्याल है. क्यों न हो? मैं शाइर ही हूं।

1947 में बंटवारा हो गया. मेरी पर्सनल याददाश्त तो नहीं हो सकती, लेकिन अम्मी बताती थीं कि मेरे अब्बू के काफ़ी सिंधी हिंदू दोस्त यह कहकर इंडिया गए थे कि हालात नार्मल होने पर वापस आ जाएंगे। उनमे से दो-तीन अपने घर की चाबियां उनको दे कर गए थे कि घर का ख़्याल रखना। फिर रिफ्य़ूजीज़ से भरी ट्रेने आने लगीं। शहर उनसे भर गया और घरों के ताले तोड़े जाने लगे। अम्मी बताती थीं कि मेरे वालिद के दोस्तों के घरों के ताले हुजूम ने तोड़े और वो उनको नहीं रोक सके। वे बहुत ग़मग़ीन रहे उन दिनो।

लेकिन मैं यह बताना चाहती हूं कि होश सम्भालने पर मैने देखा कि हैदराबाद शहर में एक छोटी तादाद में हिंदू रहते रहे। इनमे एक ख़ातून वकील शीला काफ़ी मशहूर थीं। मेरे वालिद के एक दोस्त मि. ऐयर थे जो साऊथ के थे मगर बहुत लम्बे अरसे से हैदराबाद में रहते रहे। वो भी नूर मुहम्मद हाई स्कूल मैं पढ़ाते थे। अम्मी की भी एक दोस्त एक हिंदू ख़ातून थीं। सिंध के दूसरे हिस्सों में हिंदू रहते थे। सिंध में कोई ख़ून-ख़राबा हुआ ही नहीं था। जैसा कि पंजाब में हुआ था। मेरे स्कूल जाने की उम्र तक हालात बिल्कुल कुछ और हो चुके थे। सिंध में इतने माईग्रेंट्स आ गए थे कि सिंधी अपना तशाख़ुस बचाने के लिए परेशान हो गए थे।

तो मैं परवान चढ़ी सिंधी नेशनल राईट्स की तहरीक के माहौल में। बचपन से सुनी सिंधी मौसीक़ी, शाह लतीफ़ और अचल सरमस्त का कलाम। मेरी बड़ी आपा की शादी भी सिंधियों में हुई। इस तरह वो ख़ानदान में शामिल हो गए। लेकिन घर में वो ही यू.पी का माहौल था। ये मेरठ का एक छोटा सा टुकड़ा था जो सिंध की ज़मीन पर पैवस्त था।

मैं कहना चाहती हूं कि ये सब-कांटीनेंट एक बहुत बड़े ट्रोमा से गुज़रा है। हम आज भी एक दोसरे को देख कर आंसू बहाते हैं। लेकिन इस बारे में जज़्बाती बातें नहीं करना चाहती। हमे इसके हक़ीक़त को समझना चाहिए ताकि दोबारा इस िकस्म का ट्रोमा न आए। आख़िर में लोग एक-दूसरे पर इल्ज़ाम लगाते रह जाते हैं। शायद... शायद... शायद... सब-कांटीनेंट में हर किस्म की जितनी डाइवर्सिटी है, उसको सम्भालने के लिए निस्फ़ सदी (आधी शताब्दी) चाहिए थी... म्सिने मज़हब के अलावा बहुत सी वजूहात पर बेहद वाइलेंस होते यहां देख लिया है। मैने मुहाजिर-पठान फ़सादात देखे हैं। शिया मुसलमान पर सलाफ़ी तालिबान के हमले देखे हैं। तो मज़हबी फर्क एक सोचने-समझने वाले पाकिस्तानी के लिए क्या रह जाएगा?? काश यह सब न होता...काश अब न हो।

राजकुमार, तुम बािगयाना तेवर कहते हो, मगर मुझको अपने लिए बाग़ी का लफ्ज़ पसंद नहीं। न मैने किसी बािगयाना जज़्बे के तहर कुछ लिखा। जो महसूस किया, वो लिखा। जब लोगों ने शोर मचाया तो बहुत हैरान और ग़मग़ीन हुई। मेरी दूसरी किताब 'बदन दरीदा’ 1973 में शाया हुई। तब तक मेरी अरेंजड शादी टूट रही थी। 'बदन दरीदा’ की नज़्मे उस की ही दास्तान है। औरत होना, मां बनना, अपनी इंसानियत पहचानना। यह है 'बदन दरीदा।’

(इसके बाद 30 जुलाई 2017 को फ़हमीदा आपा का मेल आया।)

डीयर राजकुमार, क्या हुआ? मुझे उम्मीद है, मैने ऐसी कोई चीज़ नहीं लिखी जो तुम्हे नापसन्द हो।

फ़हमीदा

31 जुलाई 2017

राजकुमार : क़तई नहीं... दरअसल, मैं कुछ दिन से वायरल फ़ीवर में मुब्तला था। उसके बाद फ़िर आपकी बड़ी आपा के इंतकाल की ख़बर मिली। इसके चलते मैने इंतज़ार करना बेहतर समझा।

उम्मीद करता हूं आप मुझसे ख़फा नहीं हैं।

Fahmida Riaz fahmidariaz@hotmail.com    

अज़ीज़ तरीन राजकुमार,

तुमने इसे एकदम गलत समझा। मैं तुमसे बिल्कुल भी नाराज नहीं हूं। प्यारे भैया, मैं दीगर वजूहात से कुछ डिप्रेशन में रही हूं।

मेरी नेक ख़्वाहिशात। जानकर अफ़सोस हुआ कि तुम्हारी सेहत ठीक नहीं थी। अब तुम अपने सवालात मुझे भेज दो।

तुमको अपने स्नक्च पेज पर देखकर बहुत खुशी हुई।

तुम्हारी

फ़हमीदा आपा। (अंग्रेज़ी से अनुवाद्)

Raajkumar Keswani rkeswani100@gmail.com        Sun, Sep 29, 2013, 9:51 PM   

प्यारी फ़हमीदा आपा,

काफ़ी वक़्त हुआ जाता है कि मैने आपकी तरफ़ चंद सवालात भेजे थे, जिनके जवाब का मैं अब तक मुंतज़िर हूं। इस तरफ़ आपकी तव्वजो चाहूंगा।

Fahmida Riaz fahmidariaz@hotmail.com     Sun, Sep 29, 2013, 11:36 PM             

अज़ीज़मन राज,

मेरा जहन पाकिस्तान में हो रही उत्थल-पुत्थल में बुरी तरह उलझा है। दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त।  अगर ऐसी न होती तो चैन से न रहती?

आने वाले दिनों में जवाब भेजती हूं। ख़ातिर जमा रखो।

From: rkeswani100@gmail.com To: fahmidariaz@hotmail.com

मेरी प्यारी फ़हमीदा आपा,

मैं आपकी बात को बख़ूबी समझ रहा हूं। मैं फेस बुक पर आपके पोस्ट लगातार पढ़ रहा हूं, जिनसे मुझे ख़ासा अंदाज़ा है कि आपके ज़हन में क्या चल रहा है। मेरी दुआ है उस रब-उल आलमीन से कि वो आपको उन तमाम मुद्दों पर लडऩे की ताक़त दे, जो आपकी फ़िक्र और ज़िंदगी के मक़सद में शामिल हैं।

मैं फ़िक्र की वजह सिर्फ यह थी कि मैने अनजाने ही कहीं आपको किसी तरह कोई दुख तो नहीं दिया।

रही बात इंटरव्यू की, तो कोई जल्दी नहीं है। बेफ़िक्र रहें।

नेक ख़्वाहिशात के साथ,

राजकुमार

Fahmida Riaz fahmidariaz@hotmail.com   Wed, Sep v}, w…vx, xհ…… PM                

राजकुमार : (1) आप माशा अल्लाह, शायरी, फिक्शन और अनुवाद सब कुछ एक साथ कर लेती हैं।  ज़ाहिर है समाजी तौर पर भी काफ़ी एक्टिव रहती हैं, घर भी सम्भालती हैं। ज़रा सा सुराग दें की आखिर आप अपने 24 घण्टे को कामों के लिए किस तराह तक्सीम करती है कि इनमें 48 घण्टे जितना काम हो जाए? और हां, क्या पूरी पाबंदी से रोज ही लिखाती हैं?

(2) एक बात और जानने की ख़्वाहिश है।  पहली बार में जो कुछ लिख जाता है, मेरा मतलब जो पहले ड्राफ्ट होता है, क्या वही आपके लिए फाइनल होता है, या उसकी पालिशिंग और फ़िनिशिंग का काम बाद में भी चलता रहता है। मैने देखा-सुना है कि कई सारे बड़े पोइट, कई सारे बडे लेखक पहले ड्राफ्ट पर एक लम्बे अरसे तो लगातार काम करते रहते हैं। आप अपनी राय और तजुर्बा बताएं।

Fahmida Riaz fahmidariaz@hotmail.com   Wed, Sep v}, w…vx, xհ…… PM

अरे कहां! घर नहीं सम्भालती हूं मैं। और बहुत दिन से कुछ लिखा भी नहीं है। जब लिखना या पढऩा शुरू कर दूं फिर दूसरी किसी बात का होश ही नहीं रहता। दिन-रात बराबर हो जाते हैं। लिखूं या पढ़ूं, उसमे डूब जाती हूं।

प्यारे राज, मैं अपना सारा वक़्त ख़ुद से बातें करने में गुज़ारती हूं। बाकी वक़्त में कुछ मालूमात हासिल करती रहती हूं। दिन के चंद घंटे रोज़ी कमाने में गुज़ारती हूं। यह हैं मेरे शब-ओ-रोज़। यानी ऐसे नहीं कि जिनको माडल बनाकर किसी के सामने रखा जाए।

मेरे ज़्यादातर लेख पहली बार में ही लिखे गए हैं। अगर रिवाईज़ करूं तो हर बार नई तरह से लिखूंगी। पहली बार अल्फ़ाज़ दिलो-दिमाग़ से अपने आप निकलते हैं। कभी-कभी अलबता, नोक-पलक बाद में दुरुस्त करती हूं। असल में, जल्दबाज़ बहुत हूं। जो कुछ जी में आए उसे जल्द से जल्द लिख डालना चाहती हूं।

*****

इसके बाद यह सिलसिला आगे न बढ़ सका। मैं सैंकड़ों मील के फ़ासले पर यहां बैठा बस एक जादुई स्क्रीन पर हर रोज़ अपनी प्यारी आपा के एक लम्बे, दर्दनाक और रंजूर सफ़र को लाचार निगाहों से देखता रह गया।

कुछ-कुछ आप भी देखिए।

 

30 दिसंबर 2016 *

मुझे क्या हुआ है ?

मैं बे-इंतिहा खांस रही थी। सो मैं डाक्टर के पास गई। उसने मेरे फेफड़ों की एक्स रे करवाई और वहां कुछ निशान मिले। उन्होंने जांच शुरू की और फेफड़े में खराबी पाई। उसने कहा कि यह बहुत गंभीर है, लेकिन अब हमारे पास इसके लिए इलाज है। इन दोनों डाक्टरों ने अलग-अलग एक ही बात कही और दवा दे दी। इस दवा के बुरे असरात बहुत खौफ़नाक हैं। वे मेरे जोड़ों में शदीद दर्द दे रहे हैं। उल्टीयां हो रही हैं। लेकिन वे फिर भी कहते हैं कि मुझे यही दवा दो महीने तक लेना होगी। अभी तो सिर्फ एक महीना ही हुआ है। मेरी बेटी, जो एक डाक्टर है, मुझे भी ऐसा करने के लिए कहती है। भु भु भु। कोई बात नहीं। मैं ज़रा सब्र से काम लेने की कोशिश करूंगी।

6 जनवरी, 2017 *

किस कॉदर बदबख़्त, बीमार लोग हैं जो मुझसे कहते हैं कि मैं ज़हनी (मानसिक) तौर से बीमार हूं.... इन लोगों के लिए मेरी दुआ है कि उनकी रूह को उनके अपने पेज पर सुकून हासिल हो। बस मेरी नज़रों से दूर रहें। (अंग्रेज़ी से)

11 मई 2017

कह रहे हैं कि इंडिया ने पाकिस्तान में इंटर के पर्चे आउट कर दिए। तमाम सबूत मिल गए हैं।

हा हाहाहा... ये क्या हरकत...

तो हम यू.एन.ओ में शिकायत करें। अगर वो हंसना शुरू करें तो आप उन पर लानत भेजें।

11 मई 2017

इस पेज पर सलावातें सुनते सुनते मेरा दिल उदास हो गया है’ मैं उसे अब बंद कर देना चाहती हूं। यहां आने वालों से गुफ्तगू करने का ख़ाब बेमानी लगता है। किसी सवाल का जवाब तो कोई देता नहीं। ये कंसट्रक्टिव लोग नहीं हैं आप पर उल्टे सीधे इल्ज़ाम लगाने लगते हैं। सिर्फ तंज़ से काम चलाते हैं

हो सकता है मेरी भी कुछ ग़लती हो

आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती इस लिए भी कुछ नाज़ुक-मिज़ाज हो गई हूं शायद

शायद लोग भी उकता गए हैं

हर अच्छी या बुरी चीज़ का एक इख़्तमाम होता है।

16 मई 2017

 

आंखें बंद करती हूँ...फिर आंखें खोलती हूं... कुछ नई सी नज़र आने लगी है दुनिया।

इस सड़क पर ठेले वाले गुज़रते रहते हैं। कुछ ना कुछ बनवाने की आवाज़ लगाते। टूटे वाटर कूलर बनवा लो,  फ्राय पेन के हैंडल जुड़वा लो।

मीठी लगती हैं ये आवाज़ें... ये कौन लोग हैं... उन्होंने अपनी आवाज़ों को कैसे ट्रेन कर लिया... अपने गले की रोज़ी कमाते...गली गली घूम रहे हैं... इस धूप में...

भीख नहीं मांग रहे

प्यारे लोगो तुमसे है कायम एतबार हस्ती।

21 मई 2017

आजकल मुझको चक्कर बहुत आ रहे हैं। सोचा नेट पर वजह देखते हैं। कई अस्बाब लिखे थे।  लेकिन एक को पढ़ कर में बहुत हंसी। लिखा था वरबोसिटी - यानी लंबी लंबी तक़रीरें किए जाना। मुझे अपने इमरान ख़ान साहब का ख़्याल आया कि इस सूरत में उन्हें तो तक़रीर के बिल आख़िर इख़तताम के बाद जलसा-ए-गाह से स्ट्रेचर पर ले जाना चाहीए। हा हाहाहा हाहाहा अरे नहीं भई वो तो पहलवान आदमी हैं। वरज़िश करके ख़ूब फ़िट रहते हैं।

सोच रही थी। इमरान ख़ान एक आईडीयलिस्ट हैं।  बस ज़रा कॉमन सेंस की कमी है, किसी भी मसले की मुज़म्मिरात नहीं समझ सकते। उधर उधर से जोड़ कर नहीं देखते। नवाज़ शरीफ़ को उतारो कहते रहते हैं। और ये कि तमाम सियासतदान बेकार हैं। बेईमान हैं। एक हद तक ये बात सही हो भी सकती है। बाज़ बातों पर तो ख़ुद हमें गुस्सा आता है। लेकिन इस तरह ये सिस्टम टूट जाएगा तो उसे रिप्लेस करने के लिए क्या लाएंगे? और इस तरह वो एन्टी डैमोक्रेटिक एजंडे पर काम कर रहे हैं। ये भी नहीं सोचते।

June 20, 2017

कैसे हैं आप दोस्तों,

इतने दिनो से मुलाकात नहीं हुई। सूरत यह है कि मेरे नए डाक्टरों का कहना है कि आठ-नौ महीने मुझको ग़लत दवाएं दी गई। मुझको शायद बिल्कुल दूसरी बीमारी है। बहुत से ब्लड टेस्ट करने पर जो पाज़िटिव आया वह है आटो इम्यून सिंड्रोम - इसमे आपका आधा वजूद आप पर हमला करता है। तो इस जंग में कभी एक की जीत होती है। लेकिन दोस्तों, आधा रेज़िस्ट भी करता है। बिल आख़िर इसकी दवा स्टीयोराइड शुरू की है इसके अपने काम्प्लीकेशन हैं। यह एक रेयर सी बीमारी है इसलिए डाक्टरों को ख़्याल न आया। (अंग्रेज़ी से)

मुझे शिकायत नहीं।

हंसती हूं और सोचती हूं - यह ख़ुदकशी का बड़ा सोफ़िसटीकेटेड तरीका है - आपका आधा वजूद आपको ख़त्म करना चाहता है।

21 जून 2017

कभी मैंने एक फ़िल्म देखी थी One flew over the cuckoo’s nest इसमे मेंटल हास्पिटल वाले एक ऐसे शख्स को पागल बताते हैं जो वाहिद समझदार शख्स है। वो उसके दिमाग़ का आपरेशन करके एक हिस्सा भी निकालते हैं। साठ की दहाई में अमरीका में ये होता था।

मुझे ख़्याल आता है। आटो इम्यून दरुस्त ना हो। बीमार तो वो हैं जो इस दौर में ज़िंदा रहना चाहते हैं।

हा,हा,हा नहीं मज़ाक़ में कह रही हूं।

घर में बच्चे हैं। बहुत रौनक रहती है। हर चीज़ उलट-पलट पड़ी है। ये जो अभी तीन साल का भी नहीं हुआ, घर की हर चीज़ तोड़ चुका है।

मार कर ठोकर मेज़ का कोना तोड़ दिया है

मेरा तो हर सपन सलोना तोड़ दिया है

अपना भी हर एक खिलौना तोड़ दिया है

अब क्या तोड़े कोई एतबार है !

की एक जीती-जागती मिसाल। और प्यारा इस क़दर है कि देखते रह जाएँ। लंबे लंबे पूरे जुमले बोलता है। सबसे छोटा एक महीने का है। इस का नाम पें-पें है क्योंकि ये हर पंद्रह मिनट बाद पें-पें शुरू करता है। उसे घुटने पर लिटाकर उसका चेहरा देखती रहती हूँ। बड़े दिलचस्प एक्सप्रेशन लाता रहता है। अकेला पड़ा खेलता है। कभी अपने बच्चों को ऐसे नहीं देखा था। सच है असल से सूद प्यारा होता है।  अपने बच्चों के वक़्त मां बहुत मसरूफ़ होती हैं।

24 जून 2017

इस ईद पर

हमारे यहां ईद नहीं मनाएंगे। ये अभी तक एक मौत का ही घर है । लेकिन आज हमने मंज़ूर के लिए एक नियाज़ दी और पड़ोसियों और मस्जिद में भिजवा दी। कितने बरस मैं इन चीज़ों को $फुज़ूल समझती रही लेकिन तब मैंने कुछ एक्स्पीरियंस नहीं किया था। मेरे वालिद का इंति$काल हुआ तो सिर्फ पाँच बरस की थी। बस फिर सिर्फ यतीमी रह गई थी। डैडी को मैं शायद भूल गई थी। अब ख़्याल आता है कि ये नियाज़ें, बरसीयां, चले जाने वालों को याद करने के तरीके हैं।

वो नहीं रहते लेकिन हम उनसे बातें जारी रखते हैं।

मैंने कहीं ये ख़्याल अफ़रोज़ बात पढ़ी कि रूह के ला फ़ानी होने का तसव्वुर इन्सान ने उम्मीद कायम रखने के लिए ईजाद किया है।

जानदार जीने से कितनी मुहब्बत करते हैं। बर्दाश्त नहीं कर सकते उस का ख़त्म हो जाना। यही तो शायद राज़ है। बहरहाल शायर तो राज़ के पीछे दौड़ते ही रहेंगे जो कि शायद मैं हूं। कम अज़ कम मिज़ाजा।

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फिर इसके बाद बस 21 नवम्बर 2018 की मनहूस तारीख़ आई।

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संपर्क : मो. 982705559, भोपाल

 

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