धर्म, जाति और साम्प्रदायिकता

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    अप्रैल - 2019
श्रेणी धर्म, जाति और साम्प्रदायिकता
संस्करण अप्रैल - 2019
लेखक का नाम कश्मीर उप्पल





विमर्श/पांच

 

सुखद आश्चर्य हैं कि हमारे वर्तमान समय और परिस्थिति के बिल्कुल अनुकूल देश के सम्मुख एक साथ तीन पुस्तकें आई हैं। इनमें देश की भाषा में देश के युग पुरुषों के सम्बोधन हैं। ये सम्बोधन इतने सामयिक हैं कि लगता हैं हमारे देश में बढ़ती धार्मिक और साम्प्रदायिक हिंसा के विरुद्ध आज हमारी भाषा और शब्द चाहे कमजोर पड़ते दिखते हों परन्तु हमारे विचारकों के दस्तावेजों में वर्तमान के प्रश्नों के उत्तर ठीक-ठीक दर्ज हैं।

'धर्म और बर्बरता’, 'साम्प्रदायिकता का जहर’ 'जाति का जंजाल’ इन तीनों पुस्तकों के संपादक डॉ. रणजीत हैं। इन तीनों पुस्तकों को मानवीय समाज प्रकाशन की ओर से लोकभारती, इलाहाबाद द्वारा वितरित एवं प्रकाशित किया गया हैं।

'धर्म और बर्बरता’ पुस्तक में विचारकों के आलेखों को सम्मिलित किया गया हैं। इनमें आचार्य चतुरसेन शास्त्री, महापंडित राहुल सांस्कृत्यान, शहीद भगत सिंह से लेकर तस्लीमा नसरीन, मैत्रेयी पुष्पा और कात्यायनी आदि के आलेख हैं।

इनसे गुजरते हुए हम समझते हैं कि धार्मिक मूर्खता के कारण पूरे विश्व समाज की दशा अत्यंत शोचनीय रही है। जिस समाज में जितनी धर्मान्धता है, वह उतना ही गर्त में पड़ा हुआ है। योरोप में रोमन कैथालिक और प्रोटिस्टेंट ने एक दूसरे को अग्नि के हवाले किया था। आज हम इक्कीसवीं शताब्दी के भारत में धर्मान्धता के पागलपन की बढ़ती घटनाएं देखने को अभिशप्त हैं।

ऐसे अंधकारपूर्ण समय में 'धर्म और बर्बरता’ पुस्तक एक लाइट-हाउस की तरह है। राधामोहन गोकुल अपने आलेख 'ईश्वर की असलियत’ में कई ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कहते हैं कि हमारा अवतार और पैगम्बर विज्ञान है, हमारा धर्म विवेक है, हमारा खुदा संसार के मनुष्यों का समूह है। ईश्वर और उसके आश्रित धर्म और राज्य दोनों ही मनुष्य के प्रधान शत्रु हैं। जहाँ अधिकार के नाम पर काम होता है वहीं ईश्वर और शैतान की पैदाइश होती हैं।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री 'धर्म और व्यभिचार’ लेख में पूरे विश्व के धर्मों में निहित व्यभिचार की प्रथाओं के वीभत्स रूप सामने लाते हैं।

इन आलेखों में शहीद भगत सिंह का कालजयी लेख 'ईश्वर के अस्तित्व का सवाल’ धर्म और तर्क के आधार पर समझाता है कि मनुष्य का ज्ञान और विज्ञान ही महत्वपूर्ण है। वे भारत में अंग्रेजों की हुकूमत यहाँ इसलिए नहीं है कि ईश्वर चाहता है बल्कि इसलिए है कि अंग्रेजों के पास ताकत है और हममें उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं है। वे हमें अपने प्रभुत्व में ईश्वर की सहायता से नहीं रखे हुए हैं बल्कि बन्दूकों, राइफलों, बम और पुलिस और सेना के सहारे रखे हुए हैं।

इन दिनों हमारे देश में धर्म और राजनीति की जो घालमेल हो रहा है उसे शहीद भगत सिंह के विचारों से अच्छी तरह समझा जा सकता है। इसी तरह साहित्यकार पंकज विष्ट धर्म, आधुनिकीकरण, वैज्ञानिक विकास और विवेकीकरण के सवाल उठाते हैं। पंकज विष्ट के अनुसार 'क्या धर्म हमारी भौतिक विकास की असफलता को ढँकने, एक बलशाली पश्चिमी सभ्यता की आंधी के सामने अपने ठहरे हुए सामाजिक मूल्यों और जीवनशैली तथा परंपरागत सामंती आर्थिक व सामाजिक ढाँचे को न बचा पाने की हताशा का माध्यम बन गया है? वे आगे कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता का प्रतिरोध करने के लिए एक समाज के तौर पर हम जो रास्ता अपनाने की कोशिश कर रहे हैं वह और भी गर्त में ले जाने वाला रास्ता है। हम जितना पीछे लौटने की कोशिश कर रहे हैं, उतना ही अपनी हार को सुनिश्चित कर रहे हैं। हमारा समाज पश्चिम के समाज के सामने अपनी कोई पहचान नहीं बना पाया है और अपने को हीन पाता है। इसके परिणामस्वरूप सबसे आसान तरीका 'महानधर्म, महान संस्कृति और महान परम्पराओं’ की आड़ लेना हो गया है।

आज हम दुनिया की सबसे ऊँची मूर्ति और सबसे भव्य मंदिर बनाने की योजना बनाने पर सामाजिक-शक्ति खर्च कर रहे हैं। भूलना नहीं चाहिए कि पिछला एक हजार वर्ष का इतिहास पश्चिम के ज्ञान विज्ञान का रहा है। हमें समझना होगा कि भौतिक विकास के साथ जब तक समाज का मानसिक विकास नहीं होता है तब तक समाज के आधुनिकीकरण और विवेकीकरण की प्रक्रिया भी पूरी नहीं हो पाती है। पश्चिमी समाजों में जो तकनीक आ रही हैं उस का वहाँ क्रमिक विकास हुआ है। हमारे लिए विज्ञान और तकनीकी चमत्कार हैं, जीवनशैली नहीं है। इसने हमारे पूरे समाज के दौचित्तेपन को चरम पर पहुँचा दिया है जिसका लाभ प्रतिगामी शक्तियाँ उठा रही हैं।

हमारे देश में धर्म को लेकर तार्किक ढ़ंग से विचार ही नहीं होता है। साम्प्रदायिकता धर्म पर कोई तार्किक विचार और बहस होने ही नहीं देती है। हमारे देश में साम्प्रदायिकता सत्ता हथियाने का एक उपकरण बनी हुई है। 'धर्म और बर्बरता’ पुस्तक से हम हमारे देश में क्रोनी-केपिटलिज्म को भी समझ सकते हैं। राजनेताओं, पूंजीपतियों और सरकारी अधिकारियों का हित धर्म और साम्प्रदायिकता के गठजोड़ में है।

डॉ. रणजीत द्वारा संपादित दूसरी पुस्तक 'जाति का जंजाल’ पहली पुस्तक की पूरक के रूप में पढ़ी जाने की माँग करती है। इसमें सत्ताइस महत्वपूर्ण आलेख हैं। इस पुस्तक में डॉ. आंबेडकर, राममनोहर लोहिया, सच्चिदानंद सिन्हा, योगेन्द्र यादव, रजनी कोठारी, धीरूभाई शेठ और विनोद शाही के विचार अंधकार समय को प्रकाश से भर देते हैं।

अम्बेडकर का लेख लाहौर में वहाँ के एक संगठन जाति-पाति तोड़क मंडल के अध्यक्षीय उद्बोधन का संक्षिप्त रूप है। यह एक संबोधन था जो हो नहीं सका क्योंकि उसकी अग्रिम पंक्तियां पढ़कर सम्मेलन ही रद्द कर दिया गया था। इस ऐतिहासिक भाषण का संक्षिप्त रूप पुस्तक में है क्योंकि मूल उद्बोधन छप्पन पृष्ठों का था। इस आलेख से यह पुस्तक और अधिक महत्वपूर्ण बन गई है।

डॉ. अम्बेडकर के अनुसार 'धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति ये तीनों प्रभुता के स्त्रोत हैं। आज के यूरोपीय समाज में संपत्ति की प्रमुखता है किन्तु भारत में धर्म और सामाजिक व्यवस्था का सुधार किए बिना आज आर्थिक सुधार नहीं कर सकते। धर्म और जाति का प्रश्न इसीलिए महत्वपूर्ण है।

डॉ. अम्बेडकर का भाषण कई उपशीर्षकों में विभाजित है जिससे जाति एवं वर्ण व्यवस्था के विरोधाभास स्पष्ट रूप से सामने आते हैं। यह आलेख कांग्रेस और समाज सुधार, कम्युनिस्ट और समाज सुधार, क्या चातुर्वर्ण श्रम का विभाजन है, आया समाज की वर्ण व्यवस्था, वर्णव्यवस्था असाध्य और हानिकारक, वर्णभेद और प्रजनन विज्ञान, हिन्दू समाज एक काल्पनिक वस्तु, आदिवासी और जातिभेद, शुद्धि संगठन, जाति भेद और सदाचार, मेरा आदर्श समाज, अहिन्दुओं की जातपांत, जातिभेद मिट कैसे सकता है? हिन्दू रोम-रोम शास्त्रों से बंधा हैं, जातिभेद क्यों नहीं मिट सकता? सुधार का पहला कदम: पुरोहितशाही पर नियंत्रण तथा हिन्दुओं के लिए कुछ विचारणीय प्रश्न।

इस तरह डॉ. अम्बेडकर के जाति उन्मूलन के विचार बहुत ही व्यापक सामाजिक प्रश्नों को सामने लाते हैं। आज हमारे देश में धर्म और जाति की राजनीति चल रही है, उसे डॉ. अम्बेडकर के माध्यम से ही उसकी सम्पूर्णता में समझा जा सकता है। डॉ.

अम्बेडकर की चिन्ता का विषय कोई एक जाति नहीं वरन सम्पूर्ण मानवता हैं।

अब जाति का जंजाल प्राचीन परम्पराओं वाला नहीं रह गया है। उसमें अब नये-नये पहलू जुडऩे लगे हैं। इनमें सबसे नया पक्ष आरक्षण का है। विनोद शाही लिखते हैं कि आरक्षण का फायदा पाने की चाहत वालों की जातिगत-अस्मिताएं संगठित हो रही हैं और जो सरकारें बनाने गिराने की हद तक ताकतवर हो रही हैं।

धीरूभाई सेठ के अनुसार आरक्षण के जरिए प्रगति के अवसरों को हड़पने की इस होड़ ने हमारी लोकतांत्रिक चुनावी राजनीति को अलोकतांत्रिक रुझानों से ग्रस्त कर दिया है। इसके कारण झूठे-सच्चे आश्वासन दिए जाते हैं। इससे अन्तत: समाज को तनावग्रस्त होना पड़ता हैं। वे जातिगत आरक्षण के बारे में कहते हैं कि असली समस्या यह है कि समाज में पहले से ताकतवार बने बैठे समुदायों के मुँह में आरक्षण का चस्का लग गया हैं।़

जाति के जंजाल में आरक्षण के बाद भूमंडलीकरण ने एक नाया आयाम जोड़ दिया है। आरक्षण केवल सरकारी संस्थानों में लागू होने वाली प्रक्रिया है। भूमंडलीकरण की मुक्त बाजार वाली व्यवस्था में निजीकरण को बढ़ावा दिया जाता है और आरक्षण के नियम लागू नहीं होते हैं। इस कारण देश में बेरोजगारी की समस्या ने विकराल रूप ले लिया हैं।

श्रृंखला की तीसरी पुस्तक है 'साम्प्रदायिकता का जहर’। इसमें महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, आचार्य नरेन्द्र देव, जय प्रकाश नारायण, अम्बेडकर, प्रेमचन्द, तस्लीमा नसरीन, कमलेश्वर, पुरुषोत्तम अग्रवाल, हिलाल अहमद और डॉ. राम पुनियानी सहित तीस महत्वपूर्ण लेखकों के आलेख सम्मिलित हैं।

डॉ. रणजीत ने इस पुस्तक के लिए अंग्रेजी में प्रकाशित महत्वपूर्ण दस्तावेजी पुस्तकों से आलेखों का अनुवाद कराया हैं। इस तरह हमारे देश के कई विचारकों के आलेख हमें पहली बार हिन्दी में इसी एक पुस्तक में पढऩे को मिलते हैं। जवाहरलाल नेहरू का आलेख आज के साम्प्रदायिक संगठनों का चरित्र समझने में सहायता करता हैं।

जवाहरलाल नेहरू लिखते हैं कि मुझे अभी यह मानने में कोई अफसोस नहीं है कि हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों जिनमें हिन्दू महासभा भी शामिल हैं की गतिविधियाँ साम्प्रदायिक, राष्ट्रविरोधी और प्रतिक्रियावादी रही है। नेहरू बहुसंख्यक सम्प्रदायवाद के बारे में कहते हैं कि यदि वह राष्ट्रीय समस्याओं की अपेक्षा साम्प्रदायिक समस्याओं पर अधिक बल देता है तो वह स्वाभाविक रूप से राष्ट्रद्रोही हैं।

मौलाना अबुल कलाम आजाद के अनुसार यदि हममें से कोई ऐसा हिन्दू है जो हजार वर्ष या उसके अधिक काल की हिन्दू जीवन पद्धति को वापिस लाना चाहता है तो वह केवल स्वप्नलोक में विचरण कर रहा है। इसी प्रकार यदि कोई मुसलमान अतीत कालीन अपनी सभ्यता और संस्कृति का पुनरुत्थान करना चाहता है तो वह भी स्वप्न लोक में विचरण करता है।

आजकल की राजनीति बहुमत की जगह बहुसंख्यक वर्ग की बात करने लगी है। बहुसंख्यक वर्ग की यह सोच अल्पसंख्यक वर्ग के लिए एक संकट बन गई। इस तरह के विभाजन से देश में कानून का राज्य खत्म होने की भी संभावना है।

डॉ. अम्बेडकर अपने आलेख में कहते हैं कि साम्प्रदायिक प्रश्न की सबसे बड़ी कठिनाई हिन्दुओं का इस बात पर जोर देना है कि बहुमत का शासन पवित्र है और इसे हर हालत में बनाये रखना है। वे आगे कहते हैं कि भारत में बहुमत राजनीतिक बहुमत नहीं है। भारत में बहुमत पैदा होता है, इसका निर्माण नहीं किया जाता। साम्प्रदायिक बहुमत और राजनीतिक बहुमत में यही अंतर हैं।

रेणु व्यास अपने आलेख में प्रो. विपिनचन्द्रा द्वारा सम्प्रदायिकता के बताए तीन चरणों का उल्लेख किया है। प्रो. विपिनचन्द्र के अनुसार (1) यह विश्वास कि एक ही धर्म के मानने वालों के सांसारिक हित अर्थात् राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित एक जैसे होते हैं जबकि ऐसा नहीं है। (2) यह विश्वास की भारत जैसे बहुधर्मी समाज में एक धर्म के अनुयायियों के धार्मिक ही नहीं सांसारिक हित भी अन्य धर्मानुयायियों के सांसारिक हितों से भिन्न हैं। इसे विपिनचन्द्र ने 'नरमपंथी साम्प्रदायिकता की संज्ञा दी है। (3) 'उग्रपंथी या फासीवादी साम्प्रदायिकता’ के तीसरे चरण में यह मान लिया जाता हैं कि विभिन्न धर्मों के अनुयायियों के हित न केवल परस्पर विरोधी हैं वरन इनका सहअस्तित्व असंभव है।

हमारे देश में आज यही हो रहा है।

डॉ. रणजीत द्वारा संपादित 'धर्म और बर्बरता’ औैर 'जाति का जंजाल’ की श्रंखला में तीसरी पुस्तक का शीर्षक है 'साम्प्रदायिकता का जहर’। इन तीनों पुस्तकों की विषयवस्तु एक धारा से आगे बढ़ती हैं। ऐसा लगता एक पुस्तक दूसरी और तीसरी पुस्तक की पूरक हैं। इन पुस्तकों को किसी भी क्रम से पढ़ा जा सकता। इनको पढऩे के बाद हम एक ही तरह के निष्कर्ष पर पहुँचते हैं।

साम्प्रदायिकता देश की कई तरह की स्थितियों की उपज होती है। साम्प्रदायिकता से ही विश्व के कई देशों में कई विचारधाराओं का जन्म होता है जैसे फासीवाद, नाजीवाद और कैथोलिक-प्रोटेस्टेंट संघर्ष आदि भारत जैसे विविधता से भरे देश में साम्प्रदायिकता का उभार अधिक खतरनाक है। साम्प्रदायिकता से झुलसे देश आज भी दुनिया के सर्वाधिक गरीब और कुपोषित देश बने रहने को अभिशप्त हैं।

डॉ. रणजीत द्वार संपादित धर्म और बर्बरता, जाति का जंजाल और साम्प्रदायिकता का जहर तीन पुस्तकें होकर भी एक ही विषयवस्तु की एक पुस्तक के समान है। धर्म, जाति और साम्प्रदायिकता एक दूसरे से उत्पन्न प्रश्नों की दुनिया है। इनसे ही पूरे विश्व में कई तरह की विचारधाराओं का जन्म होता है। ये विचार धाराएं किसी एक देश की सीमाओं तक सीमित होकर नहीं रह जाती हैं।

भारत की साम्प्रदायिकता की जड़ें फासीवाद और नाजीवाद की विचारधारा से न केवल प्रेरणा पाती है बल्कि उसे एक आदर्श के रूप में भी देखती हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिम अपनी साम्प्रदायिकता का पश्चाताप कर आगे बढ़ रहा है यूरोप की पतनशील संस्कृति कैसे किसी देश का आदर्श हो सकती हैं?

 

 

संपर्क - एम.आई.जी. 31 प्रियदर्शिनी नगर, इटारसी (म.प्र.) मो. 9425040457

 

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