कुलदीप कुमार की कविताएं

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    अप्रैल - 2019
श्रेणी कुलदीप कुमार की कविताएं
संस्करण अप्रैल - 2019
लेखक का नाम कुलदीप कुमार





कविता

 

 

 

नव वर्ष की पूर्व संध्या

 

एक और साल

दिल को बेजान करके चला गया

 

अंधी रातों की बड़ी-बड़ी आँखों में

छलाँग लगा कर

मृगशावक-सा यह दिल

आज भी कुलाँचे भरना चाहता है

चाहता है तपती हुई दुपहरी में उछल कर

सूर्यकिरण का मुँह चूमे

और चम्पत हो जाए

 

और जब साँझ आए ग़मों की मारी बेचारी

तब उसे कस कर एक दुलत्ती मारे और दाँत चियार दे

 

मुद्दत हुई ऐसा कुछ भी हुए

इस साल भी कुछ नहीं हो पाया

 

यह साल तो बस दिल को बेजान ही करके चला गया

जब यह ऐसा था

तो उससे क्या उम्मीद रखें जिसने अभी तक चेहरा ही नहीं दिखाया

पता ही नहीं कि उसके गाल पर मस्सा है या तिल

उसे पुकारेंगे तो वह आवाज़ भी पहचानेगा या नहीं

उसकी छुअन में क्या वह छुअन शामिल होगी

जो इस साल नहीं थी

 

यह साल तो गया

और साथ में लेता गया

 

एक

बेजान दिल

 

रागदर्शन

 

मालकौंस में कलौंस न हो

दरबारी अखबारी न लगे

यमन में वमन न हो

और,

मारवा में खारवा न हो

तो मैं कहूँगा

 

मैं सुखी हूँ

 

मैं सुखी हूँ

क्योंकि मैंने गौड़ सारंग का रंग उड़ते नहीं देखा

जब-जब भी मल्लिकार्जुन मंसूर को गाते सुना

अल्हैया बिलाबल की बिलबिलाहट नहीं सुनी

जब अलाउद्दीन खां ने सरोद पर उसे उकेरा

तोड़ी का तोडऩा नहीं देखा

कृष्णराव शंकर पंडित को सुनते हुए

 

मैं सुखी हूँ

क्योंकि आज भी रोशनआरा बेगम का शुद्ध कल्यान शुद्ध है

अब्दुल करीम खां के सुर सारंगी को मात दे रहे हैं

फैयाज़ खां की जयजयवंती की जयजयकार है

 

केसरबाई की तान की तरह

आज

मैं सुखी हूँ

 

राग की आग

वही जानता है जो इनमें जला है

ढला है जिसकी शिराओं में अनेक स्मशानों का भस्मकुंड

जिसने बिद्ध किया है जीवित और मृत सबको

राग के देवसिद्ध शर से

 

बिहाग के नाग

जब लिपटते हैं

और निखिल बैनर्जी अब अल्हड़ प्रेमी की तरह

उनकी आँखों में आँखें डालकर

सितार को बीन की तरह बजाते हैं

 

तब मुझे लगता है

मुझसे अधिक सुखी कोई नहीं

 

मैं आज

राग देख लिया

 

तिलक कामोद

 

रात में कभी-कभी

बाँसुरी बजती है

चंद्रमा की नाभि से झरता है

अजस्त्र जीवनरस

और

ठीक उस समय

छतों पर टहलती हैं

कुछ परछाइयाँ

एक-दूसरे से बिलकुल विलग

विकल

 

सकल जड़-जंगम से लोहा लेती हुई

बादलों के इक्का-दुक्का पोरों से

एकाएक उठती है

केसरबाई की तान

भिगो देती है अंधकार की चादर

 

यह तिलक कामोद है

मालूम नहीं कहाँ हो रहा है यह रास

भीतर या बाहर

बाहर या भीतर

या समस्त ब्रह्मांड में

सुर-संगत रागविद्या संगीत प्रमाण

 

चीते की चीत्कार जैसी तान की छलाँग

राग-रहस्य की ढीली लाँग

गहन-गह्वर में सबसे इतर

इतराई हुई

धुरी यही है जीवन कीट

 

यही बांसुरी है

जो

जब बजती है तो

चंद्रमा की नाभि से

तिलक कामोद झरता है

 

अंत

 

जान के बाद भी

छूटी रह जाती है एक छाया

धुँध की तरह टँगी रहती है

सारे घर के ऊपर

 

गुस्सा, डर, आतंक, प्यार

सभी हो जाते हैं विलीन स्मृति में

बचा रहता है केवल

एक स्थायी दु:ख

 

फ्रेम में जड़ी यादें

कुछ गूँगे शब्द

शून्य में चित्र बनाती हुई दृष्टि

 

निगमबोध घाट पर एक लाश को जलाकर

कई-कई लाशें लौट आती हैं घर वापस

और शुरू करती हैं

अपना दैनिन्दिन जीवन

 

एक जीता-जागता आदमी

अचानक चला जाता है अपनी कार की चाबी पकड़ा कर

और

बन जाता है अतीत का अंग

 

 

कुलदीप कुमार प्रतिष्ठित और वरिष्ठ पत्रकार हैं। पहल में लंबे अंतराल के बाद प्रकाशित। इन दिनों 'हिन्दू’ के लिए लिखते हैं।

संपर्क :- मो. 9810032608

 

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