साक्षात्कार - रहमान अब्बास

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    अप्रैल - 2019
श्रेणी साक्षात्कार - रहमान अब्बास
संस्करण अप्रैल - 2019
लेखक का नाम रवि बुले





पहल विशेष/उर्दू रजिस्टर/दो

 

 

 

मुख्यधारा की सोच गलत है तो उसे

बदलने के लिए हमें लडऩा होगा

हिंदी-उर्दू में अभी तक बहुत बंटवारा है

 

 

पिछले बरस दिसंबर में जब साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित हुए तो रहमान अब्बास के नाम ने सबका ध्यान खींचा। उर्दू उपन्यास रूहजिन के लिए उन्हें यह पुरस्कार मिला। 2016 में प्रकाशित हुआ यह उपन्यास भारत समेत पाकिस्तान, मध्य पूर्व देशों, कनाडा और यूरोप में तारीफें बटोर चुका है। इसका जर्मनी में अनुवाद हुआ है और हिंदी-अंग्रेजी में लाने की तैयारी है। 26 जुलाई, 2005 को मुंबई में हुई भीषण बरसात की पृष्ठभूमि में दर्ज रूहजिन की प्रेम कहानी महानगर मुंबई की आधुनिक जिंदगी में धार्मिक आख्यानों, मिथकों, लोक कथाओं और जादुई यथार्थवाद के साथ प्रेम तथा यौन संबंधों के ताने-बाने से बुनी गई है। 46 साल के रहमान अब्बास चार उपन्यासों समेत सात किताबें लिख चुके हैं। उनका जीवन उतार-चढ़ाव से भरा है। पहले उपन्यास के लिए जहां जेल जाना पड़ा, वहीं 2015 में देश में बढ़ती असहिष्णुता के मुद्दे पर वह महाराष्ट्र सरकार का उर्दू साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की वजह से चर्चा में रहे। उर्दू किस्सागोई की दुनिया में रहमान अब्बास नई रोशनी हैं परंतु कट्टरपंथी उनके अंदाज-ए-बयां पर कड़ी आपत्ति जताते आए हैं। उर्दू की दुनिया और अदब को लेकर रहमान अब्बास से रवि बुले ने की यह बातचीत...

-क्या यह सच है कि तरक्की पसंद आधुनिक उर्दू/मुस्लिम लेखक होने पर आपको सबसे पहले अपने ही समाज में विरोध सहना पड़ता है?

- सही है। हमारा पूरा भारतीय समाज कई दीवारों के बीच रहता है। संस्कृति, धर्म, अशिक्षा की दीवारें हैं। कम लोग बहुत सारी दीवारें पार कर पाते हैं। लोग इक्का-दुक्का दीवारे फांद कर ही खुद को तरक्कीपसंद कहने लगते हैं। हमारे समाज को कई ऐसे कानून उलझा रहे हैं, जो अंग्रेजों ने लादे थे। जबकि वह लोग खुद को उन कानूनों से आजाद कर चुके। हम हिंदुस्तानियों ने इस्लाम और ईसाइयत के कट्टर कल्चर की चीजों को अपना कर अपनी संस्कृति-सभ्यता पर पर्दा डाल लिया है। अपने अतीत में झांकें तो हम बहुत उदार और खुला समाज रहे हैं।

-उर्दू में लिखने पर आपको किन दीवारों से टकराना पड़ता है?

- जुबान के लिहाज से उर्दू बेहद शिष्ट है। इसकी परंपरा सबसे उदार है। देश के अलग-अलग राज्यों में मुस्लिम लोग रह रहे हैं और यह समझना होगा कि सारे मुसलमानों की जुबान उर्दू नहीं है। इस समाज के कुछ खास वर्ग हैं, जिन्होंने उर्दू को अपनाया। मैं कोंकण से हूं। मराठी मेरी मातृभाषा है। उर्दू मेरी दूसरी भाषा है। समस्या यह है कि जो हार्डकोर उर्दू है, उसका सौंदर्यशास्त्र मजहब से आया है। इस मजहब का सौंदर्यशास्त्र कई चीजें करने से रोकता है। कहता है औरतों को पर्दे में रहना चाहिए, सह-शिक्षा हराम है, मर्द-औरत को एक दर्जा नहीं है, आप न्यूड पेंटिंग नहीं बना सकते। वह संगीत को हराम बताता है। इस सौंदर्यशास्त्र के साथ आप साहित्य से इंसाफ नहीं कर सकते। मजहब का सौंदर्यशास्त्र साहित्य की तरफ जाने से रोकता है क्योंकि साहित्य का सौंदर्यशास्त्र इंसानी जज्बों के नजदीक है। उर्दू में यह संघर्ष खूब है। हालांकि साहित्य में हमने मजहबी कट्टरताओं को पीछे धकेला है। तरक्की की है। परंतु दूसरी जगहों पर इनका कब्जा है। जैसे पत्रकारिता। उर्दू पत्रकारिता के मानक मजहब के करीब है। यह बात तकलीफ पहुंचाती है।

-जब उर्दू का मीडिया मजहब के करीब है तो क्या वह समाज में सही भूमिका निभा पा रहा है?

- उर्दू मीडिया के इस थोड़े मजहबी होने को मैं इसकी एकमात्र कमजोरी मानता हूं, लेकिन उसका यह मजहबी होना दूसरे मजहब के खिलाफ नहीं है। जबकि संघ का मीडिया सीधे-सीधे दलितों, मुसलमानों और ईसाइयों के खिलाफ है। उर्दू मीडिया इस रूप में प्रो-मजहब है कि उसे अपनी रस्में, परंपराएं और नैतिकताएं पसंद हैं। वह उन्हें प्रमोट करता है। वह किसी के खिलाफ जुमला नहीं देता। मैंने तो नहीं देखा। लेकिन जी न्यूज से लेकर अर्णब गोस्वामी तक जो नफरत फैला रहे हैं, ये हमारे देश के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। इस पैमाने पर उर्दू मीडिया वास्तविक अर्थों में नेशलिस्ट है। इनमें आपको किसी दूसरे धर्म के खिलाफ कोई आलेख नहीं मिलेगा। लेकिन संघ, उनके निवेशकों और हितैशियों के अखबार, पत्रिकाएं, न्यूज चैनल देख लीजिए। आप खुद तय कर लेंगे। आज हिंदी और अंग्रेजी का जो मीडिया आरएसएस का माउथपीस बन बैठा है, उर्दू का मीडिया उससे तो बहुत अच्छा है। वह कम से कम सेक्युलरिज्म की बात कर रहा है। उसके हक में है। वह फासिज्म के विरुद्ध है।

-क्या उर्दू मीडिया को अपनी यह मजहबी कमजोरी दूर नहीं करनी चाहिए?

- बिल्कुल। जब तक हम नादानियों के दायरे से बाहर निकल रहे हों, तब तक तो प्रो-रिलीजन होना ठीक है परंतु इसके बाद आपको विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए। धर्म दूसरों के लिए छोड़ दीजिए। मीडिया का काम धर्म को प्रमोट करना नहीं है। उसका काम तथ्यों की निरपेक्ष ढंग से रिपोर्टिंग करना है। आपको किसी का पक्ष नहीं लेना है। लेकिन यह सब हम उस जमाने में सोच रहे हैं जब हमारे यहां 'सामना’ जैसा न्यूजपेपर निकलता है।

-जो उर्दू अमीर खुसरो से जुड़ती है, जिसकी परंपरा में प्रेमचंद से लेकर मंटो, इस्मत, कृष्णचंदर, बेदी, सुरेंद्र प्रकाश आते हैं उसमें मजहबी मानक कैसे महत्वपूर्ण बन गए?

- इस पर मैंने विस्तार से लिखा है। यह खेल अंग्रेजों ने किया। बांटो और राज करो की नीति। 1857 की क्रांति के बाद उन्होंने हिंदी-देवनागरी को हिंदुओं से जोड़ा और उर्दू, जो हिंदुस्तानी थी, उसकी फारसी या नस्तालीक लिपि को मुसलमानों से जोड़ दिया। पहले विभाजन नहीं था। हमारी भाषा को हिंदवी, रेख्ता, गजनवी, हिंदुस्तानी कहा जाता था। हिंदी-उर्दू बहनें हैं। एक ही जड़ से निकले पौधे। अब जाकर हम इन्हें संस्कृत और फारसी से बहुत ज्यादा जोडऩे लगे हैं। वास्तव में अंग्रेजों ने अपने स्वार्थ के लिए नफरत के बीज बोए। देश विभाजन के बाद उर्दू को निशाने पर लिया गया और इसकी स्थिति बिगड़ी। कोई जुबान अपने तौर पर फासिस्ट नहीं हो सकती। हां, उस जुबान में बोलने वाले फासिस्ट हो सकते हैं। जुबान तो अपने आप में पवित्र है।

-भाषा के धर्म से जुड़ जाने से समस्या पैदा होती है?

- भाषा से समस्या नहीं है। धर्म भी समस्या नहीं है। उर्दू बोलने वाले धार्मिक हैं, ठीक वैसे ही जैसे हिंदी या मराठी बोलने वाले धार्मिक होते हैं। मुश्किल तब होती है जब धर्म से जुड़े संस्थान भाषाओं को भी नियंत्रित करने लगते हैं। लोगों की पहचान से भाषा को जोड़ते हैं। खुद को श्रेष्ठ और दूसरे को कमतर बताते हैं। यह काम हिंदुओं-मुसलमानों की राजनीति करने वाले कर रहे हैं।

-मुस्लिम समाज में अशिक्षा और गरीबी की चुनौतियां हैं। परंतु वह सबसे बड़ी चुनौती कौन सी है जो दिखाई नहीं देती?

- मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा चैलेंज यह है कि कैसे वह हिंदुस्तानी समाज में घुल मिल जाए। कैसे भारतीय समाज के कल्चर, इकोनॉमी और रिलीजन की सतह पर एकाकार हो जाए। भारत में हजारों मजहब है। अनेक भाषाएं हैं। हर आदमी एकाधिक भाषा में पला-बढ़ा है। कई लहरें हैं। यह बहता हुआ समंदर है। इसमें कैसे आप अपनी लहर अलग न रख कर, एक लहर का हिस्सा बनें। मुस्लिम समाज को सोचना पड़ेगा कि वह कैसे इस नए युग में, जब 'आइडेंटिटीज’ पर बहुत जोर दिया जा रहा है, अपने आप को मुख्यधारा में लेकर आएगा। जब तक मुख्यधारा में नहीं आएंगे, अपने अधिकारों के लिए आप सही ढंग से लड़ नहीं पाएंगे। हालांकि यह भी चैलेंज है क्योंकि मुख्यधारा के पहरेदार आपको अंदर नहीं लेना चाहते हैं। ऐसी मुख्यधारा का क्या करेंगे, जिसके पहरेदार संघी हैं। दोनों तरफ से चुनौतियां हैं।

- यानी यह बेहद मुश्किल काम है?

- मुश्किल तो है लेकिन मुस्लिम समाज को फैसला लेना पड़ेगा। अगर मुख्यधारा गलत है तो आपको उसको बदलने के लिए भी लडऩा पड़ेगा। हो सकता है कि मुख्यधारा की पूरी सोच-समझ और व्याख्या गलत हो। बीजेपी का हिंदू और हिंदुस्तान का जो पूरा नरेशन है, वह मुझे एंटी-इंडिया लगता है। यह इतिहास और संस्कृति के अनुकूल नहीं है। आपको इन राजनीतिक इकाइयों के विरुद्ध भी लडऩा पड़ेगा। इनका प्रतिनिधित्व कमजोर है और हमारे शैक्षणिक पिछड़ेपन की वजह से ही ये उभरकर आए हैं।

- लेकिन लडऩा, कहने जितना आसान तो नहीं है।

- आसान इसलिए नहीं है क्योंकि आपके पास तालीम नहीं है। आपका दिल खुला हुआ नहीं है। आप दूसरों को सीने से नहीं लगाते। आपको ऐसा लगता है कि दूसरों को सीने से लगाएंगे तो नापाक हो जाएंगे। आपके दिल में छोटी-छोटी शंकाएं भरी हैं। आप खुल कर जीना नहीं चाहते। दूसरे संप्रदायों-समुदायों में मिलना नहीं चाहते। आप उनके शादी-ब्याह में जाना नहीं चाहते। आप उनकी रस्मों में जाना गुनाह समझते हैं। ये सारा जिंदगी का उसूल रहेगा तो किस समाज में आप विकसित हो पाएंगे? आप खुद अलग-थलग हो जाएंगे। जमात-ए-इस्लामी और तबलीगी जमात जैसी संस्थाएं ये समस्याएं पैदा करती हैं ।

- क्या नई पीढ़ी इन बातों को समझ पा रही है?

- नई जनरेशन उतनी ही जाहिल है जितनी पुरानी जनरेशन। तालीम का हमारे यहां क्या स्तर है! हम तालीम देने के लिए उन लोगों को रखते हैं जो खुद बहुत मजहबी होते हैं। कोई आरएसएस के बैकग्राउंड से है तो कोई जमात के बैकग्राउंड से आया है।

- साहित्य से अपने जुड़ाव और लेखन की शुरुआत के बारे में बताइए।

- मैं चिपलूण, कोंकण (महाराष्ट्र) में पैदा हुआ था। चार साल का था तो अब्बा मुंबई आ गए। मेरी तालीम मुंबई में हुई। अब्बा मोहम्मद अली रोड के आस-पास एक क्लब में मैनेजर थे। वह अंडरवल्र्ड का दौर था। अब्बा बताते थे कि उन दिनों दाऊद इब्राहिम एक बारह-तेरह साल का लड़का था और क्लब में आया करता था। मैं जब चौथी-पांचवीं में था तभी कहानियां पढऩे का शौक लगा। नौंवी तक टीचरों ने कुछ अच्छी किताबें दीं। बारहवीं के बाद लिटरेचर को समझा। मुंबई युनिवर्सिटी में जब मैं उर्दू में मास्टर्स करने पहुंचा तो मेरी कहानियां छपने लगी थीं। इलाहाबाद से निकलने वाले 'शब खून’ शुमारा में छपा तो लोगों ने पहचाना। उसी दौरान मैंने पहला उपन्यास (नखलिस्तान की तलाश) लिखा। मेरी आर्थिक स्थिति बहुत बुरी थी। मुंबई में राइटर्स को मैंने खराब हालत में देखा था। सोचा राइटर बनने से अच्छा है पहले नौकरी करो, पैसा कमाओ, घर बनाओ। फिर लिखते रहो। मैं चार साल के लिए मिडिल ईस्ट चला गया। हालांकि पोस्ट ग्रेजुएशन उर्दू में मैंने युनिवर्सिटी में टॉप किया था। राज्य में दूसरी रैंकिंग थी। खैर, मिडिल ईस्ट में पैसे कमाए। मुंबई लौट कर जिंदगी सैटल की। फिर बी.एड किया। अंजुमन इस्लाम, वीटी में पढ़ाने का काम मिला। मैंने सोचा कि नॉवेल लिख रखा है, उसे ठीक करके छापते हैं। इसी दौरान अंग्रेजी मास्टर्स में भी एडमीशन लिया। लगा था कि इस बहाने अंग्रेजी साहित्य पढ़ेंगे। पता चलेगा कि अच्छा साहित्य क्या है। जो अंग्रेजी नॉवेल पढऩे आए, वे बोल्ड भी थे और उनमें संकोच नाम की चीज नहीं थी। मेरे नॉवेल में भी मैंने कुछ चीजों को काफी खुल कर लिखा। लेकिन वह बात आगे जाकर समस्या बन गई।

- पहले ही उपन्यास के लिए आपको जेल जाना पड़ा। क्या हुआ था?

- नॉवेल का नायक पढ़ा-लिखा है और मुंबई में 1992 के फसादात के बाद पहचान के संकट से गुजरता है। इस माहौल में उसे 'मुसलमान’ पहचान की तरफ धकेला जाता है। हैरान-परेशान अपनी पहचान के सवालों से गुजरते हुए वह एक आतंकी संगठन में शामिल होता है। उसका अंजाम वही होता है, जो ऐसे लोगों का होता है। इसी दौरान जेल के एकांत में वह अपनी गर्लफ्रेंड के साथ गुजारे लम्हों को शिद्दत से याद करता है। इन्हें मैंने काफी खुल कर लिखा। इन लम्हों को उर्दू अखबारों ने इस्लाम-विरोधी बताया और अभियान चलाए। मुस्लिम और भाजपा-शिवसेना नेता भी कूद पड़े। किसी ने उपन्यास नहीं पढ़ा। इनक्वायरी बैठी। एक सुबह पांच बजे दो पुलिस वैन घर आईं और मुझे मुजरिम की तरह ले गईं। बेल नहीं हुई तो एक रात और एक दिन आर्थर रोड जेल में बिताए। इधर, कुछ मुस्लिम मौलाना उस स्कूल में पहुंच गए जहां मैं पढ़ाता था। नौकरी से निकलवा दिया। छह महीने बेरोजगार रहा। दस साल बाद केस की हीयरिंग शुरू हुई तो जिस लड़की ने शिकायत की थी, उसने इस अर्से में जिंदगी को देख-समझ लिया था। अत: शिकायत वापस ले ली। इस तरह 2016 में केस रद्द हो गया। इस दौरान मैंने अपना लिखना जारी रखा था।

- कट्टरपंथियों के विरोध के बाद भी आपने अगले दो नॉवेल उन्हें नाराज करने वाले ही लिखे?

- मेरा दूसरा नॉवेल (एक ममनुआ मोहब्बत की कहानी) तबलीगी जमात को एक्सपोज करता है। कोंकण की पृष्ठभूमि में है। सौ बरसों तक जहां हिंदू-मुस्लिम-दलित मिल-जुल कर रह रहे हैं, वहां कैसे दीवार खड़ी की जा रही है। उर्दू वाले इस पर काफी चुप रहे। फिर तीसरा नॉवेल आया, खुदा के साये में आंख मिचौली। इसमें मैंने व्यंग्य का इस्तेमाल किया और बताया कि कैसे एक उदार-धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति ऐसे शिक्षण संस्थान में पढ़ाता है, जहां सब कट्टर धार्मिक हैं। सारी महिला टीचर बुर्का पहन कर आती हैं और पुरुष टीचर दाढ़ी रखते हैं। इस माहौल में वह उदार आदमी कैसे रहेगा! यह ठीक वैसे ही है जैसे कोई उदार हिंदू हो तो उसे संघ के स्कूल में पढ़ाना कितना मुश्किल होगा। इस उपन्यास को महाराष्ट्र राज्य अकादमी का पुरस्कार मिला।

-चौथे नॉवेल रुहजिन पर आपको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और इसने सबका ध्यान आपकी तरफ आकर्षित किया है। रूहजिन के मानी क्या हैं और इस नॉवेल में क्या है?

- रूहजिन, यह उर्दू में नया लफ्ज है। मैंने दो लफ्जों, रूह और हुज्न को मिलाकर यह बनाया है। रूह मतलब आत्मा और हुज्न यानी तकलीफ-दर्द। एक छोटा बच्चा अपने मां-बाप को या उनमें से एक को किसी गैर के साथ हमबिस्तरी करते देख ले तो उन मां-बाप के लिए हमारे पास शब्द है, उस बच्चे के लिए शब्द नहीं है। वह बच्चा पूरी जिंदगी साइकोलॉजिकल ट्रॉमा में होता है। उस ट्रॉमा के लिए लफ्ज नहीं था। बच्चे पर उस घटना का क्या मानसिक असर होता है, वह रुहजिन है। बच्चे के मन में कनफ्यूजन चलता रहता है और कई बार वह असमंजस में रहता है कि क्या उसने सही देखा था! इससे उभरने वाली क्राइसिस को मैंने रुहजिन में लिखा है। अपनी बुनावट में यह कहानी मुंबई के इतिहास से जाकर जुड़ जाती है। रुहजिन लवस्टोरी है, जिसके कई-कई शेड्स हैं। लेयर्स हैं। कहानी का नायक जब नौंवी क्लास का बच्चा था, तब उसका अपनी टीचर के साथ रिश्ता था। कैसा था, क्यों था वह रिश्ता? फिर वह मुंबई आता है तो रेडलाइट एरिया में जाता है, जहां शांति नाम की प्रॉस्टिट्यूट है, जिससे उसके मामा ने रेप किया, जब लातूर में भूकंप आया था। बाद में उसे रेडलाइट एरिया में बेच दिया। शांति के साथ इस बच्चे के इंसानी रिश्ते की कहानी आगे बढ़ती है। फिर हाजी अली दरगाह के बाहर अचानक इस लड़के को हिना नाम की लड़की नजर आती है। हिना को पहले से पता था कि उसकी जिंदगी में एक दिन आएगा, जब अजीब तरह की बारिश होगी और एक लड़का उसके सामने आकर कहेगा, 'आई लव यू’। इन कथानकों के पीछे रहस्य हैं, मिथक हैं। नॉवेल में मैंने इस्लामी, हिंदू और ग्रीक मिथकों का प्रयोग किया है। उन्हें मिक्स किया है। ये इंटर-कनेक्टेड हैं। आप पाएंगे कि मुंबई की मुंबा देवी के मिडिल ईस्ट की गॉडेस इन्की से क्या रिश्ते हैं! यहां भगवान है तो शैतान भी है! सच-झूठ की परतें हैं। पूरी कहानी मुंबई में है। इस महानगर के अलग-अलग कोने-इलाके, सड़कें-समुद्रतट यहां हैं। करीब 350 पृष्ठों का उपन्यास है। यह थोड़ा जटिल भी है।

- पहला उपन्यास लिख कर आप वर्षों रखे रहे। प्रकाशित नहीं कराया। क्या वजह थी?

- अगर आप बड़े नाम नहीं हैं, कुर्तुलैन हैदर या इस्मत चुगताई तो उर्दू में आपको प्रकाशक को पैसे देने पड़ेंगे। दूसरी वजह थी कि मैं बेरोगजार था। काम किया, पैसे कमाए और फिर सोचा कि खर्च कर सकता हूं। एक अन्य वजह मेरा डर था कि जिस तरह से लिख रहा हूं, उसे स्वीकार किया जाएगा या नहीं? मेरे लिखा सीधे-सीधे रिजेक्ट हो सकता है। मेरा लिखने का अंदाज उर्दू के पारंपरिक अंदाज से बहुत जुदा है। मैंने कड़वी सच्चाई सख्त भाषा में लिखी थी। सिवा इस्मत के उर्दू नॉवेल का गद्य बनाव-सिंगार के साथ लिखा जाता रहा है। बदसूरत आदमी को भी लाया जा रहा है तो हार-सेहरा पहना कर। इस्मत सच्चाई के बहुत करीब रही हैं। जबकि बाकी उपन्यासों का हाल भाषा की सतह पर काफी बनावटी दिखता है। मुझे कुर्तुलैन हैदर के गद्य से भी समस्या रही है। बनाव-सिंगार के साथ आप गद्य नहीं लिख सकते। हालांकि मैं यह नहीं कह रहा कि परफेक्ट उर्दू लिखता हूं। शुरुआती स्तर पर काफी कच्चापन था परंतु मुझे लगता है कि कई बार कहानी इतने फोर्स के साथ आती है कि उस कच्चेपन को शायद बर्दाश्त कर लेती है।

- उर्दू उपन्यासों में भाषा के स्तर पर इस कच्चेपन का क्या कारण रहा है?

- हमारे यहां एडिटर का कोई अस्तित्व नहीं है। उर्दू प्रकाशक एडिटर रखता ही नहीं कि वह ग्रामर या भाषा देखे। सारे काम राइटर्स को करने पड़ते हैं। वही प्रूफ रीडर है, वही एडिटर है। कई बार वह पेज सेटर भी होता है। जब मैंने लिखना शुरू किया तो यह चुनौतियां मेरे सामने भी थीं।

- उर्दू में कहानियां लगातार लिखी जाती रहीं परंतु नई सदी के पहले दो दशक में गिने-चुने उपन्यास लिखे गए। यह स्थिति क्यों रही?

- इसकी वजह है उर्दू शायरी। हमारे यहां उर्दू शायरी का जो साया है, वह किसी जिन्न के साये से छोटा नहीं है। यहां शायरी के साथ ग्लैमर है। आपको बहर में शेर कहना आ गया तो आप मुशायरे में पढ़ सकते हैं। दस हजार लोगों को सुना सकते हैं। एक साथ इतनी भीड़ किसी भाषा के साहित्य में नहीं दिखती। फिर आप मुनव्वर राणा जैसे लोकप्रिय शायर हैं तो एक मुशायरे के दो लाख रुपये भी ले सकते हैं। हमारे यहां शायरी की परंपरा इतनी मजबूत है कि भाषा की थोड़ी भी सुधबुध हो गई तो आप रवां-दवां शेर कहने लगते हैं। एक तरह से यह आसानी लेखक को पहले शायरी की तरफ धकेलती है। 1936 में प्रेमचंद के बाद कहानियों से हमारे यहां नया ग्राफ पैदा हुआ। इससे इंकलाब उठा और बड़े-बड़े राइटर आए। परंतु वे चले गए शॉर्ट स्टोरी की तरफ। सिवा कुर्तुलैन हैदर के। हालांकि इस्मत ने 'टेढ़ी लकीर’ जैसा नॉवेल लिखा परंतु शॉर्ट स्टोरी में ही जमी रहीं। मंटो ने एक नॉवेल (बिला उनवां) लिखा मगर वह खराब है। बेदी ने 'एक चादर मैली सी जैसा’ नॉवेल लिखा पर उनकी पहचान कहानीकार की रही। कृष्णचंदर ने जरूर उपन्यास लिखे लेकिन खास जगह नहीं बना पाए। सिवाय 'शिकस्त’ के। इससे उर्दू में नॉवेल का ग्राफ कमजोर हो गया। पिछली सदी में जरूर नॉवेल लिखे गए परंतु इधर इनकी संख्या बहुत कम हो गई। वैसे बीते पांच वर्षों में उर्दू लेखक फिर नॉवेल की तरफ मुड़े हैं। हो सकता है, आने वाले दशक में हिंदी-मराठी की तरह उर्दू में भी नॉवेल रफ्तार पकड़े। इधर रीडरशिप भी कुछ ठीक हुई है।

- उर्दू में किताबों का मार्केट कैसा है?

- शायरी खूब बिकती है। फैज की लाखों किताबें बिकी होंगी। निदा फाजली, गुलजार, जावेद अख्तर हॉट केक की तरह बिकते हैं। मुनव्वर राणा जैसे शायरों के भी लाखों फॉलोअर हैं और उनकी किताबें खूब बिकती हैं। फिक्शन थोड़ा मुश्किल है लेकिन मुझे लगता है कि प्रकाशकों ने गड़बडिय़ां की। वर्ना प्रेमचंद, मंटो, कृष्णचंदर, बेदी, इंतजार हुसैन खूब बिके हैं। इन लिखकों की किताबें कितनी बिकीं, इनका कोई रिकॉर्ड नहीं होगा। अपने जमाने में ये लोग हीरो थे। आज भी इनकी किताबें ढेर बिकती हैं। इसका मतलब है कि प्रकाशकों ने सच्चाई पर पर्दा डाले रखा। वे करोड़ों में खेल रहे हैं। इन्होंने किताबों के मार्केट को लेखकों से छुपा कर रखा। मार्केट तो है। उसे रेगुलराइज करने की जरूरत है। जैसे अंग्रेजी में होता है। हिंदी-उर्दू या क्षेत्रीय भाषाओं के राइटरों की किताबों की खबर भी अंग्रेजी वालों की तरह लोगों तक पहुंचानी होगी, तब स्थितियां बदलेंगी। अरुंधती रॉय की जब किताब छपती है तो नौ महीने पहले से मार्केट में पब्लिसिटी होती है। अमिताव घोष की किताब के साथ यही होता है। अंग्रेजी के मीडियॉकर राइटरों तक की अच्छी पब्लिसिटी की जाती है। हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषा के प्रकाशकों को भी अपने राइटरों को ऐसे ही मार्केट में पेश करना होगा। उनके टेक्स्ट को सुधारना होगा। अरुंधती के उपन्यास की तक कई बार एडिटिंग हुई। इसका यह मतलब नहीं कि अरुंधती को लिखना नहीं आता। बल्कि एडिटिंग के अपने तकाजे होते हैं। साथ ही हिंदी, उर्दू या मराठी राइटरों की किताबें मूल भाषा के साथ उसी वक्त अनुदित होकर आएं तो हमारे लेखकों का ग्राफ बढ़ेगा। जो उनका हक है और जो अभी तक उन्हें नहीं मिला है।

- उर्दू लिपि के संकटग्रस्त होने की बातें भी हैं। क्या किया जा सकता है इसे बचाने के लिए?

- जब हम मानेंगे कि देवनागरी और उर्दू की लिपि एक ही भाषा के लिए है, तब दुनिया की सबसे बड़ी भाषा 'हिंदुस्तानी’ बन जाएंगे। जिस दिन हमारी संसद कहेगी कि हिंदी-उर्दू एक है, देवगानरी और उर्दू की लिपि का समान रूप से इस्तेमाल किया जा सकता तो हम सही मायनों में लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष देश बन जाएंगे। वैसे अभी यह मुमकिन नहीं है। यह तब होगा, जब देश में ऐसे राजनीतिक दल होंगे, जो धर्म की राजनीति नहीं करेंगे। सौ-डेढ़ सौ साल तो यह मुमकिन नहीं लगता। फिलहाल यह ख्वाब है और इसे देखने में कोई बुराई नहीं।

-आप उर्दू की लिपि नस्तालीक में लिखते हैं लेकिन बहुत सारे मुस्लिम लेखक हैं जो देवनागरी में लिखते हैं। अपने समाज और उर्दू जुबान बोलने वालों की बात या कहानियां लिखते हैं। क्या वे उर्दू के लेखक नहीं हैं?

- इसका जवाब तो वही दे सकता है जो जुबानों की तारीख यानी हिस्ट्री ऑफ लैंग्वेजेज पर महारत रखता हो। मैं ऐसे लेखकों को हिंदुस्तानी लेखकों के तौर पर देखूंगा। उर्दू में लिखें या हिंदी में। अब जैसे कोई फिल्म मुस्लिम परिवेश पर बने और उसमें अस्सी फीसदी संवाद उर्दू के हों परंतु सेर्टिफिकेट हिंदी का लिया जाए। तब वह हिंदी फिल्म कहलाती है। आप खुद कह रहे हैं कि मेरे टैक्स्ट को हिंदी माना जाए। अत: अगर आप देवनागरी लिपि में मुस्लिम परिवेश पर उपन्यास लिख रहे हैं तो सेर्टिफिकेट हिंदी का ही हुआ। आप देवनागरी में लिखते हुए भी नॉवेल के साथ लिख दीजिए कि इसकी लिपि हिंदी की जरूर है परंतु यह है उर्दू का। यह हिंदी लिपि में उर्दू लिखी है। तब वह उर्दू टैक्स्ट करार दिया जाएगा। यह उदारता की बात है कि हम अपने दिल को कितना खोलते हैं। व्यक्तिगत रूप से मुझे कोई परेशानी नहीं है। मेरे लिए नॉवेल सिर्फ नॉवेल है। किसी लिपि में लिखा हो। मुझे लगता है कि चीजें अभी काफी बंटी हुई हैं।

- भाषा और साहित्य यहां आकर राजनीति के शिकार हो जाते हैं?

- यह तो है। उदाहरण के लिए जो लोग पाकिस्तान, यूके या कनाडा में बैठ कर उर्दू अथवा हिंदी में लिखते हैं, क्या आप उन्हें अपने से जोड़ पाते हैं? अपनी परंपरा का हिस्सा मान पाते हैं? सलमान रुश्दी ब्रिटेन में बैठ कर अंग्रेजी उपन्यास लिखते हैं लेकिन वह ब्रिटिश साहित्यिक परंपरा का हिस्सा नहीं हैं। एक साहित्यिक लेखक का देश, एक लेखक की जुबान क्या हो, इसे किस नजर से देखा जाए अभी तक दुनिया में साफ नहीं है।

- मुंबई में होने पर फिल्मों से दूर रहना आसान नहीं होता। आप भी फिल्मों से भी जुड़े रहे हैं?

- मैं 1996 से 1998 तक निर्देशक इस्माइल श्रॉफ के सहायक के तौर पर काम करता रहा। तब मुझे रोजगार की जरूरत थी। उनके साथ दो फिल्में की। मंझधार और गॉड एंड गन। दोनों फ्लॉप रहीं। मैं स्क्रिप्ट और एडिटिंग में भाषा का काम देखता था। राजकुमार और प्रेम चोपड़ा जैसे ऐक्टर उर्दू लिपि ही पढ़ते थे, नस्तालीक में। मैं उन्हें हिंदी से उर्दू करके देता था। एडिटिंग में राज बब्बर, सलमान खान और जैकी श्रॉफ का उच्चारण देखना मेरा काम था। इस्माइल श्रॉफ जुबान की साफगोई को लेकर सजग रहते थे, इसलिए अपनी फिल्मों में हमेशा एक आदमी रखते थे, जो यह काम देखे।

- कभी फिल्मों में ही बतौर लेखक जमने का मन नहीं हुआ?

- उसके लिए एक स्ट्रगल लगता है। एक खास तरह की ऊर्जा लगती है। जो मुझमें नहीं थी। मुझे फौरन नौकरी चाहिए थी। स्ट्रगल का भी समय नहीं था। मुझे लगा कि यहां रहा तो झोला लेकर भटकता रहूंगा। मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार घोषित होने का बाद इस्माइल श्रॉफ ने बुलाया था। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया के फ्रंट पेज पर खबर पढऩे के बाद मुझे फोन कराया। हालांकि वह यह भूल चुके थे कि कभी मैंने उनके सहायक के तौर पर काम किया। मैंने याद दिलाया तो वह बहुत खुश हुए। वह नॉवेल देखना चाहते थे कि उसमें शायद अपनी फिल्म के लिए कहानी मिले।

-रुहजिन के बाद क्या लिखने का इरादा है?

- इस साल शायद नया उपन्यास शुरू करूं। एंटी-वार नॉवेल लिखने का इरादा है। इसमें कई चीजें होंगी। इसका थीम कुछ ऐसा होगा कि कैसे भारत-पाकिस्तान को युद्ध की तरफ धकेला जा रहा है। हम बहक गए हैं। जंग क्या है? हमें लगता है कि यह बहुत अच्छी चीज है। हमारा झंडा सब जगह लहराएगा। ऐसा होता नहीं है। जो लोग हमें युद्ध तक ले जाते हैं, वह भी बाद में नहीं रहते। बाद में सिर्फ तबाही बचती है। ये क्यों हो रहा है, कैसे हो रहा है। भारत-पाकिस्तान को क्यों युद्ध के लिए चुना जा रहा है। वो कौन सी कंपनियां हैं जो युद्ध में निवेश करती हैं। युद्ध का 'निर्माण’ करती हैं। देशों को युद्ध करने के लिए स्पॉन्सर करती हैं। मैंने बीते दस साल में इस पर रिसर्च किया है। अफगानिस्तान युद्ध पर दिन प्रति दिन नजर रखी है। अमेरिका जंग हार गया। नाटो वहां हार चुका है। सोचिए, क्या होगा उस इलाके का जब तालिबान लौटेगा। वह आज 75 फीसदी इलाके पर फिर कब्जा कर चुके हैं। अमेरिकी सेना काबुल में भी हाई-सिक्योरिटी में घूमती है। क्या ताकत होगी वह जिसने नाटो और अमेरिका को हराया। कल अगर वह ताकत हमसे लड़ेगी तो हम उससे कैसे लड़ेंगे? चीन, रूस और ईरान उसे किस-किस तरह से स्पॉन्सर कर रहे हैं। सिर्फ इसलिए कि उन्हें अमेरिका को नीचा दिखाना था। हमारे सामने युद्ध के और रूप भी हैं। कभी हमारी सेना को चीन के विरुद्ध लाया जाता है तो कभी पाकिस्तानी सेना के विरुद्ध। ये सब क्या है? हम शायद यह नहीं चाहते। मुझे लगता है कि ऐसे देश हैं, वहां की बड़ी-बड़ी कंपनियां हैं, जिनकी अर्थव्यवस्था दूसरे देशों के युद्ध पर टिकी हैं। उनकी अर्थव्यवस्था जब डगमगाने लगती है तो वह गरीब देशों को जंग में झोंक देते हैं। हम बीस-पच्चीस लाख मर जाएंगे, हमारे दस-पंद्रह शहर तबाह हो जाएंगे, उनका कुछ नहीं जाएगा। इन बातों को आधार बना कर मैं अपना अगला उपन्यास लिखना चाहता हूं।

 

रवि बुले नयी स्वीकृतियों के साथ चर्चित कथाकार हैं। मुम्बई में रहते हैं, और सिने पत्रकार हैं।

संपर्क :- मो. 9594972277, मुम्बई

 

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