शिल्प तो अच्छा है, मगर...

  • 160x120
    अप्रैल २०१३
श्रेणी कहानी
संस्करण अप्रैल २०१३
लेखक का नाम राजेन्द्र चंद्रकांत राय









रोज़ की तरह अखबार पढ़ा मैंने और एक सरकारी विज्ञापन देखकर राहत भी महसूस की। राज्य सरकार ने समर्थन-मूल्य और सौ रूपये बोनस के साथ 84 लाख मीट्रिक टन गेहूँ किसानों से खरीद लिया था। सरकार का समर्थन मूल्य ही किसानों को व्यापारियों का शिकार हो जाने से बचाता है।
मेरे अंदर चलने वाली जैविक-घड़ी ने सुबह चार बजे जगा दिया था, क्योंकि मेरी मेज पर एक कहानी मेरा इंतज़ार कर रही थी। कहानी के साथ, पिछले कई दिनों से मेरी जद्दो-जहद चल रही है। पात्र मेरे दिमाग में बहसें कर रहे थे, अब मुझे भाषा देनी है। उपयुक्त शब्द जमा करने हैं। यही कर रहा था कि बाहर गेट पर अखबारों का पुलिंदा आकर 'धम्म' से गिरा। यही आवाज मुझसे कहा करती है कि चलो, उठो खबरें आ चुकी हैं, उन्हें बटोर लो। ये खबरें ही कहानी के कारखाने के इस मजदूर को भट्टी के आगे पड़े रहने की लथपथ-अवस्था से बाहर खींच लाती हैं। थोड़ी सी ताजा हवा मिल जाती है और पात्रों से विलग होन का मौका भी।
यह मौका मेरे लिए अपरिहार्य है। इसी के जरिये मैं उनसे दूर खड़ा होकर उन्हें परख पाता हूँ। कहीं वे मेरे मानस-अवतार तो नहीं हुए जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें तो खुद अपनी तरह होना है - खुद की पृष्ठभूमि, परिवेश और विचारों-आचरणों सहित। उनके तनाव और संघर्षों सहित। यहाँ तक कि निष्कर्ष भी उन्हीं के रहें।
अखबार मुझे विलग करते हैं।
मौका देते हैं।
मैं अखबार पढ़ता हूँ और मेरे पात्र सुस्ता लेते हैं। मेरा इंतजार करते हैं। अपनी जिंदगी के फलसफा का अनुसंधान करते हैं। मृत्यु नहीं खोजते। उनके लिये भी यह मौका होता है कि वे थोड़ा थिर हो जाएं। हबड़-दबड़ ठीक नहीं। इत्मीनान हो। बेकाबू न हो जाएं, सहजता में रहें। मेरा काम तो कुल इतना है कि पंजर उनका हो और खाल मैं पहना हूँ। आत्मा उनकी रहे, रंग-रूप मैं दे दूँ। भावनाएं उनकी, भाषा मैं उपलब्ध करा दूँ। श्रमिक और सृजन का रिश्ता इतना ही रहे। अतिक्रमण न करे।

मैं शहतूत के जिस पेड़ पर रहा करती हूँ, वह एक कहानीकार के आँगन में लगा है। यहाँ और भी पेड़ हैं - अंजीर, आँवला, अमरूद, आम। गुलमोहर और मधुकामिनी। एक श्वेत चंदन भी। एक छोटा सा उपवन। यहाँ पानी भी मिल जाता है। मुझे इस जगह और इस पेड़ से गहरा लगाव हो गया है। मेरे माता-पिता इसी जगह जन्मे और मेरे कई बच्चों का जन्म भी यहीं हुआ है। यहाँ निर्भयता और सुकून है। यहाँ और भी कई चिडिय़ाओं का बसेरा है - कोयल, महोका, कोतवाल, कबूतर और तोते।
मैं अलसभोर जाग जाती हूँ और कहानीकार भी मेरी पहली आवाज के साथ ही उठ पड़ते  हैं। उठकर मेज-कुर्सी पर चले जाते हैं और हर दिन कुछ न कुछ लिखते रहते हैं। क्या लिखते हैं, मैं नहीं जानती। पर जब वे अपना लिखा हुआ, अपनी पत्नी को सुनाते हैं तो मैं इधर डाल पर बैठी-बैठी ध्यान से सुना करती हूँ। वे विभोर होते हैं तो मुझे आंतरिक आनंद मिलता है। मैं उनकी भाषा नहीं समझ पाती, पर भाव समझ लेती हूँ। मनुष्य के पास लिपि है, हमारे पास ध्वनियाँ। वह हमारी ध्वनियाँ तो सुनता है, परंतु हमारे भाव नहीं समझता। समझने की रूचि ही नहीं है उसमें। न फुरसत। वे खूब व्यस्त रहा करते हैं।
एक अजब बात देखने में यह आती है कि इनके घरों में चीजें खूब लायी जाती हैं। हर दिन। सुबह-दोपहर-शाम। थैलों-कागजों-बोरों-बोतलों-डब्बों में। चीजों को आता हुआ तो देखते हैं, परंतु वह कहीं जाता हुआ नहीं दिखता। वे उन्हें बड़े जतन से और ढांक-मूंद कर रखते हैं। हाँ, कुछ घरों में ढेर-ढेर चीजें आती हैं और कुछ घरों में नपी-तुली। ऐसे भी घर हैं, जहाँ चीजें आ ही नहीं पातीं। मन करता है कहानीकार से पूछूँ कि आप लोग इतना बटोर-बटोर कर क्यों रखते हो? कहानीकार मेरे सवालों को नहीं समझ पाता। हमारी भाषा से वह अनभिज्ञ है। वह पेड़ के नीचे से होकर निकल जाता है। सवाल सुनकर रूकता नहीं।
हम कुछ भी जमा नहीं करते। हजारों सालों से यही परंपरा चली आ रही है। पेड़ों पर फला हुआ सब हमारा है पर उसमें से एक तिनका तक निजी नहीं है। सबका सब है, पर व्यक्तिगत किसी का कुछ नहीं। हमारे पंखधारी कुनबे में यही परंपरा है। पर, ये इतना बटोरते क्यों हैं?

माँ कितना डरती है। जरा सी देर के लिए भी आँखों से ओझल होने नहीं देती। इसी पेड़ पर फुदकते रहो, या ज्यादा से ज्यादा उड़कर बगल वाले अंजीर के पेड़ पर चले जाओ, बस। इससे तो हम कभी भी उडऩा सीख ही नहीं पाएंगे। जब पंख हैं तो उड़ान भी होना चाहिए। इतने सारे पेड़ हैं, तो वहाँ जाकर उन्हें देखना भी तो चाहिए। इधर का सब देखा हुआ है। बार-बार उसे ही क्या देखना? कितने पक्षी हैं जो आसमान में उड़ते हुए इधर जाते हैं, उधर जाते हैं। हवा में गोते लगाते हैं। उड़ते-मंडराते और ठिठोलियाँ करते हैं। पर माँ हमें कहीं जाने नहीं देती।
मेरी तोते के एक बच्चे से दोस्ती हो गयी है, वह तेज और बातूनी है। कहता है, मेरे साथ चलो, मैं एक से बढ़कर एक जगहों को जानता हूँ। ऐसी-ऐसी चीजें खिलाऊँगा कि तुमने उन्हें देखा तो क्या, नाम तक न सुना होगा। ऐसी-ऐसी जगहें घुमाऊँगा कि तबियत हरी हो जायेगी। सिर मटका-मटकाकर जब वह बोलना शुरू करता है, तो फिर चुप ही नहीं होता। मनुष्यों की तरह चटर-चटर बोलता ही जाता है, बोलता ही जाता है।
पर उसकी बातें मुझे अच्छी लगती हैं। मन करता है, उसके साथ एक लंबी उड़ान पर निकल जाऊँ। माँ को बतायें बिना। बताया तो फंसे। पाबंदी लग जायेगी। तोते से दोस्ती ही तुड़वा दी जायेगी। पहरा लग जायेगा। लेकिन अब ठान लिया, तो ठान लिया। माँ के बाहर जाते ही मैं उड़ जाऊँगा तोते के साथ। क्या मजा आयेगा - गोते लगाऊँगा। इधर-उधर फुदकूँगा। यह-वह खाऊँगा। और माँ के लौट आने से पहले आ जाऊँगा। उन्हें पता ही न चलेगा। मगर, पता चल गया तो...?

पता चल गया तो कोई बहाना बना देना। अगर आप बहाना बनाना नहीं जानते तो फिर जानते ही क्या हैं? बहाना बनाना मैंने मनुष्यों से सीखा है। बहाना और मनुष्य एक सिक्के के दो पहलू हैं। झूठ और मनुष्य - चोली और दामन हैं। मैं उनके पास रहा हूँ। वे मुझे तो सिखाते थे - 'राम-राम', 'दूध रोटी चित्रकोटी', पर खुद गाली-गलौज करते हैं। झूठ बोलते हैं। बहाने गढ़ते हैं। धोखा देते हैं। ठगी करते हैं।
मैंने बहाना बनाना उन्हीं से सीखा है। दूर तक उड़ जाओ। चले जाओ नदियों-झीलों तक और आओ तो कह दो चार-आठ पेड़ आगे ही तो थे - खेल रहे थे। नींद आ गयी थी, वहीं सो गये थे। आम फल का एक टुकड़ा ले आओ और माँ तो दिखा दो कि इस तोता-परी आम के बाग में छिला-छिलाई खेलते रहे दिन भर। बस। यही तो बहाने हैं, और क्या...?
इस चिडिय़ा के बच्चे जैसा घर-घुसा कोई और चूजा मैंने तो नहीं देखा। अपनी माँ से डरता भी खूब है। शहतूत की डालों पर ही फुदकता रहता है। कहता हूँ चल, तुझे सैर करा लाऊँ। दुनिया दिखा दूँ। दुनिया के नज़ारे दिखा दूँ। नदी-तालाब-झीलों में नहला दूँ। तेरी माँ तो तुझे कहीं जाने न देगी और माँ की गोद से ही चिमटा रहा तो शहतूत से शुरू होकर तेरी जिंदगी शहतूत पर ही खत्म हो जायेगी। हरा-काला खाते रहो और हरी-काली बीट करते रहो - बस।
ह$फ्तों समझाने के बाद अब जरा उसकी हिम्मत हुई है। कहता है, ठीक है चलूँगा, परंतु जल्दी से लौट आएंगे। एक बार घौंसले से निकले तो, फिर लौटने की देखी जाएगी...।
हम दोनों ने बहुत मजा किया। पहले तो दूर तक निकल गये। उडऩे की स्पर्धा ठानकर। चूजा कहीं-कहीं लडख़ड़ाया। उसके पंख लटपटाये, मगर फिर उसने अपने को सम्हाल लिया। मैंने उसे बातया - यह तालाब है। और यह नदी। यह शहर है, और यह बाज़ार। चूजे ने बाज़ार चलने का इसरार किया तो हम बाज़ार में उतर गये। चूजे ने तो अपने कान ही बंद कर लिये। इतना कांय-कांय उसने कभी सुना न था। फिर उसने नाक बंद कर ली। बदबू के बारे में उसे पता न था। खाने को यहाँ बहुत था। अनाज के ढेर लगे थे। सब्जियों के पहाड़ खड़े थे। फलों का मीना बाज़ार लगा था। जो मन हो खाओ। पर मैंने उसे पहले ही समझा दिया था कि जो भी खाना हो पेड़ पर लगा हुआ ही खाना। पेड़ से टूटकर कोई चीज एक बार मनुष्य के हाथ में गयी, तो फिर वह खाने के काबिल नहीं रहती। रूपयों के लिये उससे कुछ भी करा लो। मिलावट। विष-पान। हत्या। मार-काट। धोखा। जालसाजी। चूजा भौंचक रह गया। इन सब बातों के बारे में उसे पता ही नहीं है। कैसे पता होगा। घोंसले में घुसे रहोगे तो क्या खाक जानोगे। निकलो, देखो और जानो। मगर जरा होशियार रहकर।
एक छोटे बच्चे को देखकर चूजे को उस पर लाड़ आ गया। वह गोता मारकर उसके करीब जा पहुँचा। मैंने मुड़कर देखा तो वह गायब था, फिर मेरी नज़र उस पर पड़ी। वह बच्चे के आकर्षण में फंसा हुआ था। उसे देखकर गर्दन मटका रहा था। चीं-चीं कर रहा था। पर लड़का उसे अपना शिकार समझकर गुलेल पर पत्थर फंसाने में जुटा हुआ था। मैं जब तक उन लोगों के पास पहुँचूं बच्चा गुलेल की रबर खान तक खींच चुका था और चूजा-महराज थे कि उसे भी खेल ही समझे हुए थे। मुस्कुरा रहे थे, नाच रहे थे और चीं-चीं करके गा रहे थे। अब क्या करूँ, ये चूजा तो मारा जायेगा। मैंने तुरंत बच्चे के कान में काट लिया। बच्चा बिलबिला गया। गुलेल उसके हाथों से गिर गयी। मैंने चूजे को फटकारा - अब क्या  बैठा हुआ टुकुर-टुकुर देख रहा है... उड़ वहाँ से। जल्दी।
वह उड़ा, पर उसकी समझ में कुछ न आया था।
बोला - क्या हुआ, तोता भाई...?
- अभी तुम मारे जाते...।
- मारे जाते मतलब...?
- मतलब कि तुम्हारे प्राण चले जाते...।
- अरे, कैसे...?
- वह बच्चा तुम्हारा शिकार करने वाला था...।
- शिकार...? शिकार क्या होता है...?
- शिकार माने एक प्राणी के द्वारा दूसरे प्राणी को मार डालना...।
- पर ऐसा तो माँ ने युद्ध का मतलब बताया था...।
- हाँ, युद्ध का भी यही मतलब है, पर वह दो बराबरी वालों में होता है। शिकार भी वही चीज है, मगर इसमें एक के पास अस्त्र-शस्त्र होते हैं और दूसरा निहत्था...।
- अस्त्र-शस्त्र...?
- अरे यार, अब तुझे क्या-क्या समझाऊँ...। धीरे-धीरे तू सब समझ जाएगा...। चल उड़। आ।
- पर वह बच्चा रो रहा है...।
- अगर वह हँस रहा होता तो तेरी माँ रो रही होती...।
- क्यों?
- क्योंकि तू मर गया होता...। अब मेरे प्राण न खा। बस, पीछे-पीछे उड़ा चल...।
मैंने पंखों की रफ्तार बढ़ा दी। वह भी पीछे-पीछे उड़ा। मैं उसे बताने लगा - इन्हें खेत कहते हैं। खेतों में फसल उगती है। फसल माने अनाज। अनाज किसान उगाता है। किसान माने खेती करने वाला मनुष्य। फिर अनाज ले जाकर वह बाज़ार में बेचता है। बेचना माने रूपयों के बदले में देना। और रूपया मतलब धन। धन मतलब... दौलत। दौलत माने नहीं पता।
मैं तो परेशान ही हो गया। बाबा रे बाबा, कित्ता पूछता है यह चूजा। इसके पेट में दाना कम और सवाल ज्यादा भरे पड़े हैं। रोज घूमा-फिरा कर भाई, तभी कुछ जान पायेगा। घोंसले में पड़े-पड़े तो अज्ञानी रहकर ही मर जायेगा? अब अज्ञानी का मतलब न पूछना। वैसे भी अज्ञानी का मतलब होता है - तू। तू महा-अज्ञानी।
चूजे ने कहा - मुझे अज्ञानी मत कहो, तोता भाई...। मैं तुमसे धीरे-धीरे सब सीख लूँगा। तुम कितने ज्ञानी हो...!
मैं खुश हो गया। तोते से ज्यादा ज्ञानी कोई और पक्षी कहाँ...? मैंने उससे कहा - अगर तुम अज्ञानी नहीं हो, तो बताओ... वह सामने क्या है...?
- वह...?
- हाँ, वह...।
- वह तो पहाड़ है...।
मैं खिलखिला कर हँस पड़ा - भोंदू कहीं के... वह पहाड़ है?
- हाँ पहाड़ ही तो है तोता भाई। इतना ऊँचा... इत्ती दूर तक फैला हुआ... इतनी इल्लियाँ, कीट, पतंगे मंडराते हुए...। पहाड़ ही तो है...।
मेरा तो हँसी के मारे दम फूल गया - टें-टें-टें-टें...। ओफ् टें-टें-टें...। पहाड़... है टें-टें-टें। टें-टें-टें... ये पहाड़ है...। पहाड़... टें-टें-टें...
चूजा रूआंसा हो गया। मुझे दया आ गयी। बेचारा पहली बार तो आज बाहर निकला है। मुझे उस पर इतना हँसना नहीं चाहिये।
मैंने कहा - चलो, चलकर देख लेते हैं...।
मैं आगे-आगे और वह पीछे-पीछे चला। मैं तो उस 'पहाड़' के ऊपर उड़ता रहा, मगर चूजा उसके शिखर पर जा बैठा। उसकी टांगें उसमें धंस गयीं। बदबू के मारे नाक फटने-फटने को हो गयी। सिर भनभना गया। बिलबिलाते कीड़ों ने चूजे के शरीर पर दौड़-भाग मचा दी। वह चिल्लाया - तोता भाई, मुझे यहाँ से निकालो...। मैं मरा जा रहा हूँ...।
वह सचमुच मर जाता। कीड़े उसे खा जाते। मैंने उसकी गर्दन अपनी चोंच से पकड़ी और खींच कर निकाल लाया। लाकर एक पेड़ पर बैठाया। वह डर गया था और कांप रहा था।
उसने मरियल सी आवाज में कहा - तोते भाई...  पानी...
मैं एक डबरे पर गया। अपने पंख गीले किये। लौटकर उसे पिलाया।
बड़ी देर बाद वह चैन पा सका।
उसने कहा - यह कैसा पहाड़ है?

- आओ-आओ वीर बहादुर...। आ जाओ...। दबो-सिकड़ो नहीं...। खूब आवारा हो गये हो...। माँ चिंता कर रही होगी इसकी तो कोई फिकर ही नहीं तुम्हें...? कहाँ से तशरीफ ला रहे हैं, जनाब... जरा हमें भी पता चले...।
- कहीं से नहीं, माँ... यहीं जरा दूर वाले पेड़ों पर खेल रहा था...।
- पेड़ों पर...?
-  हाँ...।
- जरा करीब आओ तो बेटा...। हाँ, ठीक है...। ...अगर तुम पेड़ों पर खेल रहे थे, तो तुम्हारे पैरों में यह गंदगी क्यों लगी हुई है?
- गंदगी...?
- हाँ, खुद ही देख लो...।
- ये... वो... वो...।
- वो... वो... क्या कर रहे हो...? क्या अब पेड़ों पर गंदगी होने लगी है...? क्या है, यह...?
- मुझे भी नहीं पता, माँ...।
- दिखाओ तो अपनी टाँग...। अरे... इसमें तो दुर्गंध भी है... कीड़ा भी दिख रहा है... और यह काली-काली सी बेडोल चीज कौन सी है...?
- मुझे नहीं मालुम, माँ....। मैं अब कभी वहीँ नहीं जाऊँगा...।
- गये कहाँ थे, तुम...?
- दूर खेतों-पहाड़ों में...। वह पहाड़ जैसा ही था, मगर पहाड़ न था... जाने क्या था... दलदल जैसा...। मैं उसमें धंस गया था...।
- धंस गये थे...?
- हाँ, माँ... तोते ने मुझे निकाला...। पानी लाकर पिलाया....। वह बहुत अच्छा है, माँ...।
मैंने बच्चे को छाती से लगा लिया। देर तक लगाये बैठी रही। फिर उसे ताकीद दी इसीलिए तो कहती हूँ कि कहीं दूर मत जाओ...।
- अब नहीं जाऊँगा, माँ...।
- ठीक है। चलो तुम्हारे पैर पोंछ दूँ - धुला भी दूँ...। कुछ खा लो और आराम करो...।
- अच्छा माँ...।
मैंने उस दुर्गंध युक्त चीज को एक पत्ते में लपटेकर रख दिया। सबेरे मैं उसे कहानीकार की मेज पर गिरा आयी। वह चौंक गया। उस काली सी चीज को देखकर वह अचरज में पड़ गया। उसने उसे देखा-परखा मगर समझ न सका। वह उसे उठाकर बाहर फेंकने चला कि एक आवाज आयी - ठहरो। वह हतप्रभ रह गया।
यह किसकी आवाज थी?

- यह मैं बोल रहा हूँ... गेहूँ...।
- गेहूँ...?
- हाँ, तुम्हारी रोटियाँ मुझी से बनती हैं...।
- पर तुम्हारी यह क्या दशा हो गयी...?
- मैं सड़ गया हूं...। गल गया हूँ...। मुझ में कीड़े पड़ गये हैं...। मेरा जीवन नष्ट हो चुका है...।
- कैसे हुआ यह सब...? किसने किया...?
- तुमने...।
- मैंने...?
- हाँ, तुमने...।
- यह गलत आरोप है... मैंने तो कुछ भी नहीं किया...।
- कुछ भी नहीं किया... यही तो तुम्हारा दोष है...। तुम कहानीकार हो, तुम क्या नहीं कर सकते थे मेरे लिये...? पर तुम तो अपने चारों तरफ से बेखबर हो...। पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों, फलों-फसलों से तुम्हें कोई लेना-देना नहीं है...। बस अपनी दुनिया में खोये रहते हो। मनुष्यों की दुनिया से तुम बाहर आना क्यों नहीं चाहते?
- आऊँगा...। पर तुम कहना क्या चाहते हो?
- अपनी कहानी...। दुखद कथा...। कड़वे यथार्थ की कथा।
- कहो...।  क्या कहना चाहते हो?

सुनो कहानीकार, मेरी कथा सुनो!
किसान ने मुझे अपने कोठार में बीज के रूप में सम्हाल कर रखा। वर्षा-काल आने पर उसने अपने खेतों में बोया। मिट्टी की नरम शैय्या और शीतल जल में डूबकर, सूर्य की ऊष्मा लेकर मैं अंकुरित हुआ। मेरे पत्ते फूटे तो किसान का रोम-रोम हर्षित हुआ। उसने काले मेघों की घनघोर वर्षा के समय मेरी रक्षा की। खेतों में नालियाँ बनायीं। पानी निकाला। मुझे बचाया और खुद भीगा। कीचड़ में सना। मांदा पड़ा। बुखार में तपता रहा पर मेरी खोज-खबर लेने में कोई चूक न होने दी। पौष माह की भीषण ठंड में वह खेत में ही झोपड़ी बनाकर रहा। ठिठुर-ठिठुरकर... जाग-जागकर मेरी रक्षा में अपनी देह तोड़ता रहा। खाद और पानी, बिजली और दवाओं के इंतजाम में वह गले-गले तक कर्ज़ में डूबा। उसके बच्चों के पास कपड़े न थे, पर वह मेरी धानी चूनकर देखकर खुश होता रहा। उसकी पत्नी के गहने बिक गये थे, परंतु वह मेरी बालियों के सोना समझता रहा। घर में चूल्हे पर चढ़े बर्तनों में अनाज घटता रहा, पर मेरी बालियों को झूमने पर उसके सपने बढ़ते रहे। वैशाख का महीना आया तो उसने फसल काटी और खलिहान का घर भर दिया। उसके भरे खलिहान को देखकर साहूकार और बैंक चक्कर मारने लगे। सरकार की छाती फूलने लगी और वे श्रेय लेने लगे कि इस साल उनके प्रदेश में बम्पर फसल हुई है। खाद्य-विभाग के अफसरों के मुँह में पानी आने लगा। गेहूँ खरीद-केन्द्रों में पदस्थ अधिकारियों ने अपनी बीबियों, पर-बीबियों और प्रेमिकाओं से वादे कर दिये कि इस बार वे उन्हें सोने से मढ़ देंगे। राशन विक्रेता समितियों के स्वामियों ने राशन बेचना बंद करके, कई कोठरियाँ किराये पर ले लीं और वहाँ बोरे रखवा दिये। कस्बों के सेठ-साहूकारों ने साल-भर में बिनवा-छनवाकर घुना, अधकचरा गेहूँ, कंकर, भूसा, तेवड़ा सब जमा कर रखा था। वे सब बड़ी उमंगों से गेहूँ खरीदी की सरकारी तारीखों के इंतजार में जुट गये। सरकार ने समर्थन मूल्य घोषित किया। किसान को संतोष हुआ पर औरों की बांछें खिल गयीं। सरकार ने सौ रूपया ऊपर से बोनस घोषित किया। किसान के सूखे होठों पर मुस्कान की नरमी बिछल आयी, पर औरों ने फोन उठाकर औरों को बधाई दी।
तारीख घोषित हुई। किसानों का पंजीयन हुआ। सरकारी बुलावा आया। कांटे, बांट, पल्लेदार तैयार हो गये। दलाल, बिचौलिये, खरीदी केन्द्र के प्रबंधकगण अश्लील मुस्कान के साथ मंडी में आवारागर्दी करने निकल पड़े। किसानों ने बैलगाडिय़ाँ कसीं, चकों में तेल डाला। बैलों को नहलाया-धुलाया। अन्न की पूजा की। और स्त्रियों ने बड़ी आस के साथ उन्हें विदा किया। सैकड़ों बैल-गाडिय़ाँ खरीदी केन्द्र की तरफ चल पड़ीं। फिर उनकी तादाद हजारों में हो गयी। सब खरीदी केन्द्र पर आ पहुँचे। मगर केन्द्र के दरवाजे पर पहुँचते ही उनके दिल 'धक्' से रह गये। वहाँ ताला झूल रहा था। प्रबंधक लापता था। दलाल घूम रहे थे। बिचौलिये पान की पीकें थूक रहे थे और आपस में गपिया रहे थे।
किसानों ने पूछा - खरीदी केन्द्र बंद क्यों है...?
वे बोले - हमें का पता...?
- प्रबंधक कहाँ गया...?
- हमें का पता...?
एक दलाल जरा दयालु था, उसने धीरे से बताया कि प्रबंधक बहुतई परेसान है... काये से कि बारदाना नईंयाँ... गओ है जुगाड़ करबे...।
किसान दिन भर खड़े रहे। बैल थक गये और चारा-पानी को तरस गये। किसानों की भीड़ लगेगी, जानकर चाय-पान की दूकानें खुल गयी थीं। पानी तक चाय बनकर बिक चुका था और पान के सूखे-मुरझाये पत्तों के भी दाम मिल गये थे। अंधेरा घिरने लगा, पर प्रबंधक न लौटा। तब किसानों ने सलाह की कि अनाज पीछे के खाली खेतों में उलट कर अपने-अपने ढेर लगा लिये जाएं और इंतजार किया जाये। इसके अलावा चारा ही क्या था?
अनाज के हजारों ढेर लग गये। बैलों को चारा मिला। पानी मिला। किसान चावल खरीद लाये - खिचड़ी बनी। मिल कर खाया-पिया। बीडिय़ां जलीं। तम्बाकू घिसी। रतजगा हुआ। भजन चले। मच्छरों ने खून पीने की कोशिश की और निराश हुए।
सबेरा हुआ।
मगर प्रबंधक नहीं लौटा।
वे हताशा से मुँह छिपाने के लिये अखबार बाँचने लगे। अ$खबार में सरकारी विज्ञापन था - ''केन्द्र सरकार भेदभाव कर रही है। बारदाने नहीं दे रही है, पर किसान धैर्य रखें। हम गेहूँ ज़रूर खरीदेंगे।'' किसानों ने धैर्य रखना तय कर लिया। क्योंकि कोई चारा नहीं था। धैर्य रखने के लिए बैल-गाडिय़ाँ घरों को लौटा दी गयीं। नयी-नयी भरी बैलगाडिय़ाँ आती रहीं खाली लौटती रहीं। ढेर लगते रहे। रतजगा चलता रहा। प्रबंधक लापता रहा।
सरकार के खरीदी आंकड़ें बढ़ते रहे, अखबारों में विज्ञापन-दरों पर छपते रहे। किसान अचरज में थे कि बिना खरीदे, खरीदी के आंकड़ें कैसे बढ़ते हैं? वह भी दिन-दूना रात-चौगुना। रात की खरीद ही आंकड़ों की असली ताकत बनी हुई थी। राशन का गेहूँ, व्यापारियों का गेहूँ। सड़ा गेहूँ, घुना गेहूँ। खरीदा जा चुका गेहूँ, खरीद में बार-बार दिखाया गया गेहूँ। यहाँ का गेहूँ, वहाँ का गेहूँ। कहाँ-कहाँ का गेहूँ। किसान को छोड़कर हर तरह का गेहूँ।
गेहूँ तुल रहा था। खरीदा जा रहा था। भुगतान हो रहा था। पर सब कुछ एक अदृश्य विधि से हो रहा था।
एक दलाल ने सलाह दी - सौ रूपैय्या बोरा खर्चा करो तो अब्भैं बिकवा दें।
किसानों ने सिर जोड़े। कुछ राजी हुए और कुछ अकड़ गये। अकड़ गये तो बात बिगड़ गयी। दलाल गुटखा खाने चले गये।
31 मई तक ही सरकारी खरीद होना थी। पाँच दिन ही बाकी रह गये थे। पहले दिन कांटा-बांट आये। किसान खुश हुए। प्रबंधक नहीं आया। दूसरे दिन प्रबंधक आया। किसान और ज्यादा खुश हुए। बारदाने नहीं आये। तीसरे दिन बारदाने आये। किसानों में हर्ष छाया। तौल शुरू नहीं हुई। चौथे दिन तौल शुरू हुई। किसानों ने दीवाली जैसा सुख माना। हबड़-दबड़ मची। हाय-तौबा हुई। लड़ाई-झगड़े हुए। तोड़-फोड़ हुई। पुलिस बुला ली गयी। सरकारी काम में दखलंदाजी का आरोप लगा। किसान गिरफ्तार हुए। किसानों के लड़कों ने वकील किये। वकीलों ने फीस मांगी। कठिन समय और कठिन हुआ। ऐसे कठिन वक्त पर सेठ-साहूकार-व्यापारी उनके काम आये।
उन लोगों ने कहा - गेहूँ यहाँ पड़े-पड़े बरबाद हो रहा है। गैया-बैल-बकरियाँ खा रए हैं...। पखेरू दाने ले जा रए है...। कुत्ते मुँह मार रए हैं...। बाप जेल में पड़े हैं...। औरतें भूखी रो-गा रई हैं...। तो भईया हमायी सलाह तो जा है कि तीन सौ रुपैया बोरा पै तोड़ कैं हम अब्भईं खरीदे ले रए हैं...। तुम लोगन को दुख देखो नईं जा रओ...। आधी रकम अबै लै लो... आधी बाद में दे दैंहें...।
लड़के मान गये।
31 मई की शाम को खरीद बंद हो गयी। खेतों में लगे गेहूँ के हजारों-हजारों ढेर बात की बात में सेठ-साहूकारों-व्यापारियों की मार्फत खरीदी केंद्र के परिसर में पहुँच गये। वहाँ गेहूँ का अपार पहाड़ खड़ा हो गया। सब तरफ का गेहूँ वहाँ था - राशन वाला, व्यापारियों वाला। सड़ा वाला, घुना वाला। कचरे वाला, तिनके वाला। कई-कई बार तुला वाला।
न था तो किसान वाला।
1 जून को नया सरकारी विज्ञापन छपा - मुख्यमंत्री मुस्कुरा रहे थे, कह रहे थे - 'गेहूँ की खरीद - 84 लाख मीट्रिक टन...।'
*
खरीदा गया गेहूँ पहाड़ बनकर सड़ रहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा - गरीबों में बांट दो, सड़ाओ मत।
किसानों के लाड़ले कृषि मंत्री ने कहा - बांट नहीं सकते। व्यवस्था का प्रश्न है। अराजकता हो जायेगी।
गेहूँ सड़ गया। गल गया। कीड़े पड़ गये।
अब सड़े गेहूँ को हटाने का ठेका निकला है, ताकि अगले साल वहाँ पर नये गेहूँ का और भी बड़ा पहाड़ खड़ा हो सके।

इतना सुनकर कहानीकार का मुँह खुला का खुला रह गया और कलम उसके हाथों से छूटकर नीचे गिर पड़ी।
गेहूँ ने भग्न-हृदय से पूछा - तो मेरे विनाश की कथा लिख सकोगे, कहानीकार?

कहानीकार कहानी लिख रहा है।
चिडिय़ा शहतूत के फल तोड़कर उसकी मेज पर सजाती रहती है। गेहूँ का दाना पुस्तकों की अलमारी में बैठकर कांच के पार देखता रहता है कि उसकी दुखों की दास्तान कागजों में कैसे उतर रही है। चूजा और तोता खिड़की की ग्रिल पर फुदकते रहते हैं, आखिर गेहूँ का दाना लाने का कारनामा उन्हीं ने किया है।
कहानीकार ने बड़ी सावधानी से कहानी लिखी और अपने प्रिय संपादक को ई-मेल कर दी।
चौथे दिन संपादक का उत्तर आ गया। स्क्रीन पर उत्तर पढ़ा और पढ़कर कहानीकार अचेत हो गया।
गेहूँ - क्या हुआ कहानीकार...?
चिडिय़ा - कहानी छप गयी क्या...?
तोता - कोई धोखा तो नहीं हुआ न...?
चूजा - कहानी सुनाओ न काका...?
कहानीकार खामोश पड़ा रहा। स्क्रीन पर पंक्तियाँ थरथरा रही थीं - 'अपनी कल्पनाओं से बाहर निकलो कहानीकार, यथार्थवादी बनो...। शिल्प तो अच्छा है, मगर कथ्य विश्वसनीय नहीं है।'
बाज़ार के शिल्प में मुस्कान खिल रही थी।






राजेन्द्र चन्द्रकांत राय ने छात्र संगठनों की राजनीति से जीवन शुरू किया। कहानीकार के साथ मुख्य जीवन, पर्यावरण लेखन और आंदोलन में व्यतीत किया। कृषि वैज्ञानिक साहित्य पर उनकी अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित। आजकल स्वतंत्र लेखन और पत्रकारिता करते हैं। एक संस्था 'परिक्रमा' के निदेशक हैं।

Login