दंडकारण्य : यूं ही लाल नहीं है

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    जनवरी - 2019
श्रेणी दंडकारण्य : यूं ही लाल नहीं है
संस्करण जनवरी - 2019
लेखक का नाम शिरीष खरे





 

बस्तरनामा

दंडकारण्य

 

 

मीना खलको!

'हां नाम सही तो लिखा तुमने

और समाचार भी ठीक है तुम्हारा

साथी ने पुष्टि की और

व्याकरण की कोई त्रुटि किए बगैर

पहली बार साफसाफ लिखा-

मीना खलको!

 

'पुलिस के साथ मुठभेड़ में नक्सली युवती की मौत के मामले में नया मोड़

पत्रकारिता के '6नियम का पालन करते हुए

इस सबहेडलाइन से

संपूर्ण समाचार बनाया

 

'निर्दोष आदिवासी युवती नहीं थी नक्सली, पुलिस ने किया अनाचार और उतार दिया मौत के घाट’-

विपक्षी नेता की प्रेस विज्ञप्ति में उठे प्रश्नों को भी

पूरी जगह दी थी

मीना खलको!

 

कोई तो रोता ही है

किसी का कलेजा तो पसीजता ही है

मौत पर मीना खलको!

ऐसा नहीं है कि हम पत्थरदिल लोग हैं

कलेजा हमारा भी बैठता है, परंतु

एक अड़चन है तुम्हारे साथ

 

तुम आए दिन अपराध की चौथी, पांचवीं या छटवीं सुर्खी में क्यों बदलबदल आती हो इस राज्य में

मीना खलको!

 

पता है कि तुम्हें दोहराने के लिए

तुम जिम्मेदार नहीं हो मीना खलको!

 

'पुलिस के मनोबलके बारे में क्या सुना है तुमने

क्या क्लास और क्या समझ थी तुम्हारी मीना खलको!

 

इस मुद्दे पर आज ही एक समाचार संपादित किया है

तुम्हारी मौत एक रहस्य है

पर्दा न उठने के बाद भी समाचार रहोगी मीना खलको!

 

हां, अभी तुम्हारा समाचार नहीं लिखा जा रहा है

छोटे समाचार में कहीं दबी रह गई हो तो

मेरा ध्यान गया नहीं

 

पर तुम्हारा समय शीघ्र लौटेगा

अपना अनुभव कहता है तुम फिर आओगी इस राज्य में

सियासी सुखिर्यों के बीच तुम्हारी मौत

फिर लौटेगी मीना खलको!

 

समाचारों में तब तक तुम्हारे

जिंदा रहने की आस है

पर हम यह नहीं कह सकते

समाचारों में जिंदा रहते तुम्हारी मौत के रहस्य से पर्दा उठ ही जाएगा

 

पर एक अड़चन और है तुम्हारे प्रकरण में

अगर पर्दा उठने भी लगे मौत से तुम्हारी

तो फिर घटनाक्रम बदल बदलकर बारंबार इस राज्य में

तुम आती हो मीना खलको!

 

समाचार लिखते समय कई चरित्र ऐसे होते हैं जो हमारे मनमस्तिष्क में घर कर जाते हैं। कई बार तो ऐसा हुआ कि मैं उनसे कभी नहीं मिला, फिर भी कई बार संवाद हुआ। ऐसी ही एक चरित्र है जिससे मैंने कुछ वर्ष पहले संवाद किया था। नाम था मीना खलको! अप्रैल दो हजार चौदह में नया-नया रायपुर आया था और उसके बाद जून दो हजार सतरह तक 'राजस्थान पत्रिकाके रायपुर और जगदलपुर संस्करणों में पत्रकारिता करने के दौरान इस प्रकरण से जुड़ी सुर्खियां मेरे मनमस्तिष्क में रहरहकर दौड़ती रहीं। समाचार हमें सीमित कर देते हैं। 'मीना खलकोसे संवाद उसी से बाहर निकलने की छटपटाहट थी। हर बड़े युद्ध में यौन हिंसा को हथियार की तरह उपयोग में लाया गया है। इसका उद्देश्य शक्तिप्रदर्शन और बलात जीतने और अपमानित करने की इच्छा है। हर बड़े युद्ध में युवतियां सबसे अधिक दमन का शिकार होती हैं। बस्तर में नक्सिलयों के विरुद्ध युद्ध में भी यौन उत्पीडऩ के प्रश्न उठते रहे हैं।

मैं जानता हूं कि मेरा लिखना लगभग बेकार है और छपकर भी यह विशेष काम नहीं आने वाला, मैं लिखता रहा हूं। मैं सोचता हूं कि मेरी बेचैनी मेरी अपनी है जो मुझे ही अशांत करेगी, मैं सोचता रहा हूं। दूसरों के दुखों से दुखी होकर कई बार मुझे यह सोचकर ही खुशी हुई है कि चलो यही तो चीज है जो मुझे बाकी कइयों से अलग करती है। यही बात सोचकर मैंने यात्रा और ठिकानों के एक सामानांतर संसार में विशेषकर यात्राओं के दौरान डायरी लिखने की सोची, कई बार कोशिश की जो हर बार अधूरी रही। पिछले दिनों इन्हीं डायरियों को ढूंढऩे पर सिर्फ एक हाथ लगी और जो लगी उसमें अपने ही विचार बासे पड़े थे। किन मोड़ों पर ये विचार बासे पड़े तो नहीं मालूम लेकिन इन्हें पढ़ते हुए लगा कि नये सिरे से सब लिखने बैठूं। दरअसल, बाहरी अन्याय और अराजकता से जुड़ी घटनादुर्घटनाओं ने मेरे बनने की आंतरिक यात्रा को इस तरह प्रभावित किया है कि पुराने पन्नों पर मेरे विचार बासे पड़कर मुझे ही चिढ़ा रहे हैं। इस डायरी में महत्त्वपूर्ण संदर्भविवरण हैं इसलिए न इसे फेंकते बना और न ही रखते।

तो तारीखों को उसी क्रम में रखते हुए मैं इसे नये सिरे से लिखने बैठ रहा हूं, ताकि वह सब लिख और सोच सकूं जिसे लिखे और सोचे जाने की गुंजाइश पहले से बहुत कम हो रही है। अब तो असहमतियों को कुचलने की प्रक्रिया पहले से कहीं अधिक तेज हो रही है और देश के अलगअलग राज्यों से मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारियां लगातार बढ़ती जा रही हैं। स्थिति यह है कि 'नगरीय नक्सलीप्रायोजित प्रताडऩा का पर्याय बन चुका है। ऐसे में यह डायरी बस्तर और उसके आसपास के मोर्चे पर है। अब जब हम पहले से अधिक अमानवीय परिस्थितियों में तो प्रवेश कर सकते हैं लेकिन केशकाल घाट से होकर बस्तर के जंगल में प्रवेश नहीं कर सकते हैं तो इस अंधेर समय में मैं अपनी डायरी के बूते एक बार फिर केशकाल घाट से गुजरते हुए बस्तर के जंगल में प्रवेश कर रहा हूं। इस तरह, मैं अपना रचनात्मक प्रतिरोध दर्ज कर रहा हूं....

सावधान! आगे घाट है

29 सितंबर, 2015... सुनो! क्या यही घाट है जहां से प्रवेश करते हुए जीवन का कोई मूल्य नहीं! या यही घाट है जहां से प्रवेश करना मानवीयता के अधिक निकट जाने जैसा है!

मुझे कल दोपहर कार्यालय की ओर से आपातकालीन संकट पर कुछ दिन बस्तर संस्करण में संपादकीय सहयोग करने के लिए तुरंत रायपुर से जगदलपुर पहुंचने को कहा गया है और इस समय दोपहर के साढ़े तीन बजे मैं छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से कोई एक सौ साठ किलोमीटर दूर जगदलपुर जाने वाली सड़क पर केशकाल घाट पार कर चुका हूं जो बस्तर के रास्ते संपूर्ण राज्य को दक्षिणभारत से जोड़ता है, अब से पहले मैं बस्तर से दूरी बनाकर चलता रहा हूं, बावजूद इसके जैसे एक लहर के पहले अनंत लहरें किनारा छू चुकी होती हैं, मैं आज बस्तर की पहली यात्रा के पहले अपनी कल्पनाओं की उड़ान से बस्तर की कई यात्राएं कर चुका हूं। उजाड़कथाओं के इस दौर में मुझे बस्तर हमेशा एक रक्तरंजितपीड़ास्थल की अत्यंत भयावह अनुभूतियों के साथ दिखता रहा है जिसमें इसकी तुलना किसी और क्षेत्र से नहीं की जा सकती है। जैसे अभी इस समय बस की खिड़की के बाहर इस घाट के दस बेहद घुमावदार मोड़ों से निकलते हुए तक मेरी स्मृतियों में बस्तर का जो पहला दृश्य कौंध रहा है उसमें भूख, अभाव, रोग, मृत्यु और अकालमृत्यु के समाचारीब्यौरे के बीच लाठियों पर पैरों को बांधकर और उलटा लटकाकर लाया जा रहा एक महिला का शव है।

वर्ष 1947 के बाद भारत का भूगोल भले ही दो भागों में न बटा हो, लेकिन विभाजन के मुद्दे पर मेरा अहसास मेरी अनुभवसीमा के परे अब यह सोचने पर विवश करता है कि बस्तर के भीतरबाहर एक ही देश की सीमा में कई लाख आबादी विस्थापित क्यों हुई! हुई तो सुनियोजित उजाड़ योजनाओं के अलगअलग अंतराल में इतनी बड़ी तबाही एक प्रमुख घटना की तरह प्रस्तुत क्यों नहीं हुई! वनवासियों की मार्मिक कहानियां साहित्य में 'आधी रात की संतानेंक्यों नहीं हुईं! या सिनेमा की 'गर्म हवाक्यों नहीं बनी! इसके विपरीतसत्ता के नवदावेदार युग में उजडऩे की यह अमानवीय प्रक्रिया स्थायी परिस्थितियों में बदल देने की सीमा तक क्यों पहुंच गई है!

30 सितंबर, 2015... (विश्रामगृह में)... बस्तर में दोपहर डेढ़ बजे। दक्षिणकौशल, दंडकारण्य, लालआतंक, लालगढ़, लालगलियारा...और न जाने क्याक्या! बस्तर के साथ कई नाम जुड़ जाते हैं। लाल रंग बस्तर की पहचान बन गई है। इसके अतिरिक्त बस्तर के कई रूप हैं। जैसेजनजातियों की समृद्ध संस्कृति वाला बस्तर, वृक्षों की घनी हरियाली से ढंकी मनमोहक घाटियों वाला बस्तर और नक्सलगतिविधियों के लिए जाना जाने वाला बस्तर। इसके अलावा बस्तर लकड़ी, बांस, माटी और धातुओं की अनूठी कलाकृतियों के लिए भी जाना जाता है। बस्तर का लोहा पूरी दुनिया मानती है। फिर भी अकूत संपदाओं से संपन्न यह भारत के अतिगरीब लोगों की धरती है। बस्तर का जिलामुख्यालय बस्तर से दस किलोमीटर दूर जगदलपुर में है। कांकेर, कोंडागांव, नारायणपुर, बीजापुर, दंतेवाड़ा और सुकमा कभी बस्तर जिले में थे। बाद में ये अलगअलग जिलों में बंटकर बस्तर संभाग में आ गए। इंद्रावती नदी यहां की जीवनरेखा और आस्था की सूचक है। बस्तर का अधिकांश भूभाग कृषियोग्य नहीं है। दूसरे अर्थ में जंगल ही यहां के खेत हैं और इस 'खलिहानमें कोषा, तेंदूपत्ता, लाख, साल बीज, इमली और अमचूर होता है। बहुत पहले कभी बस्तर में 36 बोलियां थीं जिनमें से अब गोंड़ी, हल्बी, भतरी और धुरवी जैसी कुछ बोलियां ही शेष हैं। कहा जाता है कि बस्तर में मैना अधिक बोलती है और आदमी कम। किंतु, आदमी की चुप्पी कब गोलियों की गडग़ड़ाहट और बारूद के धमाके में बदल जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।

मैं इस समय अठारवीं सदी में हूं

1 अक्टूबर, 2015... क्या आप किलो दो किलो अन्न की आस में नब्बे किलोमीटर लंबी पैदलयात्रा करने की सोच सकते हैं? और इतना कष्ट सहने के बाद भी यदि आपको अन्न का एक दाना नसीब न हो तो क्या दशा होगी! किंतु, यही दुर्दशा है देश के सर्वाधिक दुर्गम भूखंडों में एक बस्तर की। यहां से सोचिए.. महाराष्ट्र की सीमा के समीप अबूझमाड़ यानी अबूझ जंगल के मेटाबेड़ा गांव में सत्ताइस परिवार अनाज और राशनकार्ड पाने के लिए छह रात पेड़ों के नीचे बिताते हैं और सातवे दिन जब वे नारायणपुर के खाद्यविभाग कार्यालय पहुंचते हैं तो वहां बैठे एक अधिकारी के पास एकटकासा उत्तर है— 'तुम्हारे कार्ड नहीं बने। छोटीछोटी आवश्यकताओं के लिए नदीनाले पार करना और नब्बेसौ किलोमीटर तक पैदल चलना  यहां लोगों की आदत में है और इस तरह के समाचार आम जीवन का भाग हैं।

अपने समाचारपत्र के जगदलपुर संस्करण कार्यालय में आज मेरा पहला दिन है और बारह की संपादकीयबैठक के बाद समाचारों का रुझान जानने के लिए जब मैं हफ्तेपंद्रह दिनों की अखबारीफाइल पलट रहा हूं तो पीछे के पन्ने के एक कोने में यह दबा समाचार मुझे चौंकाता है। यह बताता है कि एक आम बस्तरिया का बस्तरनामा यहीं से शुरू होता है जिसमें कुछ किलो अनाज मानवीयता की सबसे बड़ी आवश्यकता है। गत दिनों के हर पन्ने के बैनर, फ्लायर, लीड, एंकर और बाटम समाचार बस्तर में दशहरा की तैयारियों से रंगे हैं। मैं डीसी (डबल कॉलम) और टीसी (ट्रपल कॉलम) के विवरणों से विशेष समाचारों के आइडिया नोट कर रहा हूं। इन्हें पढ़ते हुए पता चलता है कि अंतिम पंक्ति का आदमी यहां हर दिन किस तरह से ठगा जा रहा है और संक्षिप्त समाचारों में छपी उनकी विपत्तियां सामान्य दिनचर्या की तरह समाप्त हो रही हैं। और 'नहीं मिला मिड डे मिल का पैसा’, 'मनरेगा की मजदूरी पर अफसरों का डाका’, 'पेंशन के लिए दरदर भटक रहीं विधवाएंजैसे समाचार हेडलाइन बदलबदलकर जहांतहां पन्ने भरने के काम आ रहे हैं।

2 अक्टूबर, 2015... आज मैंने बस्तर में अपनी पहली रिपोर्ट फाइल की है। हेडलाइन है— '11 की उम्र में 12 किमी लंबा स्कूल का रास्ता। यहां से देखिए.. यह कष्ट जिलामुख्यालय से दक्षिण की ओर कोई दो घंटा दूर तुलसी डोंगरी पहाड़ी के चांदामेटा गांव के नन्हे बच्चों का है जिन्हें हर दिन उबड़खाबड़ रास्तों से होकर आनाजाना पड़ता है। इस गांव के बच्चों को यदि पांचवी के बाद भी पढऩा हो तो इसके लिए उन्हें कोलेंग गांव के मिडिल स्कूल आनेजाने के लिए बारह किलोमीटर का अंतर पाटना पड़ता है। आश्चर्य यह कि एक वर्ष में उनके लिए यह रास्ता चार गुना लंबा हो गया। ऐसा इसलिए कि सरकार ने चांदामेटा से चार किलोमीटर दूर छिंदगुर का मिडिल स्कूल बंद कर दिया। यह वेदना अकेले एक गांव की नहीं बल्कि सरकार के युक्तिकरण के आदेश के कारण इस वर्ष बस्तर संभाग के 782 स्कूल एक झटके में बंद कर दिए गए हैं। कल मैंने दरभा ब्लॉक के शिक्षा अधिकारी अखिल मिश्रा से बात की तो उन्होंने बताया कि यह सरकार का निर्णय है जिसका हम सिर्फ पालन कर रहे हैं। जिन स्कूलों में बच्चे कम हैं उन्हें बंद करना ही था। हालांकि, गांव के सरपंच पंडरुराम समझ नहीं पा रहे हैं कि सरकार ने स्कूल बंद क्यों किया, जबकि स्कूल बढिय़ा चल रहा था और उसमें बच्चियां भी आजा रही थीं। यह अपनी आंखों से बस्तर की बदहाली की पहली झलक है। कहा जाता है कि स्कूल बच्चों को लोकत्रांतिक नागरिक बनाता है। इस दृष्टि से मैं जैसेजैसे जंगल के भीतर घुसता गया वैसेवैसे यह सपना दूर होता गया।

हो सकता है कि मैं स्थानीय परिस्थितियों का अभ्यस्त नहीं हूं और इसलिए मुझे यह समाचार एक्सक्लूसिव लग रहा हो। फिर भी मैं बस्तर को नई दृष्टि से देख पा रहा हूं और इस पहले समाचार के साथ मैं पहली बार बस्तर के समाज और समय से हस्तक्षेप कर रहा हूं, जहां मेरे कानों में प्रकृति का आदिमराग तो सुनाई देता है लेकिन हरीभरी पहाड़ी बेचैन है और आंखों में कोई जलधारा राहत देती नहीं दिखती।

4 अक्टूबर, 2015... आज मैंने दूसरी रिपोर्ट फाइल की है। हेडलाइन है—'बस्तर में एंबुलेंस की जगह चल रही चारपाई। मध्यप्रदेश से विभाजित होकर छत्तीगढ़ राज्य को अस्तित्व में आए डेढ़ दशक हो गए। किंतु, आज तक इंद्रावती नदी के पार सौ साल पुराना संसार ठहरा हुआ है। इस दरम्यान प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए निवेश का विकास तो तीव्र गति से हुआ लेकिन मूलभूत सुविधाओं की दृष्टि से इंद्रावती नदी के पार करीब पांच सौ गांव जहां के तहां रह गए। स्वास्थ्य सुविधाओं की ही दृष्टि से देखें तो ये गांव अठारवीं सदी में दिखेंगे। ओझा यहां का एमबीबीएस डॉक्टर है और गंभीर मरीजों को ही पच्चीस से तीस किलोमीटर दूर अस्पताल पहुंचाने के बारे में सोचा जाता है। सड़क, पुलपुलियों के अभाव में उन्हें नाव के बूते नदी पार कराई जाती है और इसके बाद अस्पताल की यात्रा शुरू होती है खटिया भरोसे। जगदलपुर में अस्पतालों के सामने खटियों की संख्या देख समझ आता है कि आखिर क्यों बस्तर संभाग में हर वर्ष स्वास्थ्य कारणों से करीब चार हजार से अधिक मरीजों की मौत हो जाती है। रक्तपात से सना लालगढ़ रक्त की भारी कमी से जूझ रहा है। आदिवासी बहुल प्रदेश में उपचार के लिए एक लाख पैंतीस हजार यूनिट रक्त की कमी है। अकेले बस्तर जिले में साढ़े तीन हजार से अधिक बच्चे गंभीर एनीमिया की चपेट में हैं। बीते वर्ष दौ सौ से अधिक महिलाएं प्रसव के दौरान दम तोड़ गईं। बरसात में सांपों के काटने से अकालमृत्यु का क्रम शुरू होते ही कुछ महीने में ही सौ सवा सौ लोग सर्पदंश के शिकार बन जाते हैं। जुलाईअगस्त में दूषित पानी और भोजन के कारण हैजाअतिसार महामारी का रूप धर सैकड़ों के प्राण दबोच लेता है। मच्छरों के काटने से आम लोगों के मरने की तो ठीकठीक गिनती भी नहीं की जा सकती। हां, ऐसा कोई वर्ष नहीं बीतता जब सरकारी रिकार्ड पर मलेरिया से पचास से अधिक जवान न मारे जाते हों। और तो और, नक्सली मुठभेड़ में घायल जवानों को भी उपचार के लिए रायपुर के निजी अस्पतालों में लाया जाता है। इस दौरान कई जवान लंबेदुर्गम रास्तों में ही शहीद हो जाते हैं। कुल मिलाकर, यहां जीना अत्यंत जटिल और मृत्यु के असंख्य कारण हैं।

बस्तर का यही परिदृश्य किसी लेखकपत्रकार को प्राकृतिक सौंदर्य और भाषा के इंद्रधनुषीय रंगों से बचा ले जाता हैं और देश के इस समस्याग्रस्त क्षेत्र की हरी पीड़ा और लाल विडंबनाएं जनोन्मुख सरोकार पर लिखने के लिए बाध्य करता है।

6 अक्टूबर, 2015... आज मेरी तीसरी फ्लायर छपी। ताजा रिपोर्ट की हेडलाइन है—'बीस साल पहले गई बिजली अब तक नहीं लौटी। जी हां! यह सत्य है कि आंधी के कारण तब से गांव की बिजली गई तो अब तक नहीं लौटी। यह घटना नारायणपुर से पैंतीस किलोमीटर दूर एहनार की है। किंतु, इस तरह की घटनाएं यहां आम हैं। बस्तर संभाग के करीब चार सौ गांव लालटेन युग में हैं। कई गांवों में बिना तारों के खड़े खंबे बता देंगे कि स्वतंत्रता के बाद यहां विकास के कदम जमीन पर नहीं पड़े। दूसरी ओर, केंद्र सरकार के ऊर्जा मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ से हरियाणा तक बिजली पहुंचाने के लिए नई ट्रांसमिशन लाइन बिछाने की योजना बनाई है। बिजली की रिपोर्ट के सिलसिले में मैं नया रायपुर के संचालनालय में एक अधिकारी से मिला था। उसने बताया था कि ट्रांसमिशन लाइन से जुडऩे के बाद अपनी आवश्यकता से अधिक बिजली उत्पादन करने वाला छत्तीसगढ़ दूसरों राज्यों तक आसानी से बिजली पहुंचा सकता है। हरियाणा तक 365 किलोमीटर लंबी ट्रांसमिशन लाइन जोडऩे में करीब बारह सौ करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसके अलावा तमिलनाडु तक ट्रांसमिशन लाइन बिछाने की योजना बनाई जा रही है। सरकार का दावा है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में बिजली उत्पादन के कुल लक्ष्य का लगभग एक चौथाई योगदान अकेले छत्तीसगढ़ देगा। किंतु, दूसरी सच्चाई यह है और इसका ठीकठीक उत्तर किसी के पास नहीं है कि आज भी बस्तर के लगभग एक हजार स्कूलों तक बिजली क्यों नहीं पहुंची? कुल मिलाकर, अनियमितता, उपेक्षा और विसंगतियों के त्रिकोण में दंडकारण्य के भीतर का घुप्पअंधेरा छटने का नाम नहीं लेता है, जबकि यहीं के संसाधनों का अंधाधुंध उपयोग करके बस्तर के बाहर रोशनी की लंबीलंबी रेखाएं खींची जा रही हैं।

बाजार में बिछ जाती हैं लाशें

8 अक्टूबर, 2015... आज सुबह दस बजे मोबाइल के रिंगटोन से मेरी नींद टूटी। सूचना मिली कि कल रात ओडि़सा सीमावर्ती क्षेत्र में पुलिस ऑपरेशन के दौरान मारी गई एक महिला नक्सली का शव बरामद हुआ है। कुछ घंटे बाद अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक विजय पांडे से पता चला कि यह मुठभेड़ दरभा से कोई पैंतालीस किलोमीटर दूर एक बसाहट के पास हुई। उनकी मानें तो नक्सलियों और पुलिस के बीच शाम से रात एक बजे तक चली गोलीबारी के बाद 315 शॉटगन और 12 बोर की बंदूके भी बरामद हुईं। हालांकि, इससे पहले कई मुठभेड़ और नक्सली आत्मसमपर्ण की लहरे फर्जी सिद्ध हुई हैं जिनकी चर्चा बाद में। फिलहाल तो जमीनी पड़ताल के लिए हमें जगदलपुर से दरभा घाटी पार करनी है। सब जानते हैं कि 25 मई, 2013 भारतीय राजनीति के इतिहास में कभी न भूलने वाला दिन है। इसी दिन दरभा घाटी पर एक बड़े नक्सली हमले के दौरान कांग्रेस के बड़े नेता महेन्द्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और विद्याचरण शुक्ल सहित तीस से अधिक कार्यकर्ता मारे गए थे। मैंने लगभग 11 बजे अपने साथी रिपोर्टर अमित मुखर्जी के साथ मोटरसाइकिल से लालघाटी कही जानी वाली दरभा घाटी को पार करने के लिए जगदलपुर छोड़ दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि अमित जगदलपुर का ही है लेकिन उसने अपने जीवन में दरभा घाटी को कभी पार नहीं किया। हमें सिर्फ इतना पता है कि यह घटना दरभा के आसपास हुई है लेकिन इसकी ठीक दिशा और बसाहट के बारे में इस समय तक हमें कुछ नहीं मालूम। हम दोनों ने जिस एक सूत्र के भरोसे घटनास्थल तक पहुंचने का खतरा उठाया उसका मोबाइल लगातार बंद बताता रहा।

और दोपहर दो बजे हरी पहाड़ी से सड़क पर दौड़ते वाहन यहां अधिक ही सावधानी से दौड़ रहे हैं। इस बीच सामने से फ्लैगमार्च करते हुए मोटरसाइकिलधारी सुरक्षाबलों की टुकडिय़ां हमारी मोटरसाइकिल के आजूबाजू से निकल गईं। लगा, हम ऐसे अपरिचितसुदूर अंचल में हैं जहां दो पक्ष एकदूसरे के रक्त के प्यासे हैं और दोनों पक्ष हर एक को संदेह से देखते हैं, जबकि हमें दोनों पक्षों में से कोई नहीं जानता। इस समय तक हम दोनों की पकड़ से बाहर हैं लेकिन दोनों का डर हवा में तैर रहा है। प्रकृति अपने रंग में होती है तो हरी होती है लेकिन यहां असुरक्षा के बोझ तले इस हरेभरे स्थान में मुझे डर का रंग ही हरा दिखाई देने लगा। यकायक मुझे याद आया कि मैं किसी का पुत्र, पति और पिता हूं और अपनी दो वर्ष की बच्ची श्रुति के साथ आकार लेते सपने, एक मकान और उच्च जीवनस्तर जैसी मध्यमवर्गीय चिंताओं से घिरता जा रहा हूं। सुकमा की ओर जाने वाली एक सूनी सड़क पर इन विचारों के साथ मोटरसाइकिल की आवाज कानों में और अधिक गूंजने लगी है। मैं सोचता हूं कि जब इतनी देर में बगैर कुछ हुए हमारी यह मनोदशा है तो शाम से देर रात एक बजे तक चलती गोलियों के बीच कोई पिता किसी बच्ची को कहानी कैसे सुनाता होगा! हम चालीस किलोमीटर प्रति घंटे की गति से चलते रहे। मैंने अमित से कहा, 'भाई, गाड़ी एक समान गति से दौड़ाते रहना।

दरभा पहुंचने पर हर आदमी एकदूसरे को ऐसे देखता रहा मानो इसके कुछ किलोमीटर आगे कुछ हुआ ही न हो! मुठभेड़ के दस घंटे बाद हर एक ऐसा लग रहा है मानो रात की घटना के बारे में कुछ नहीं सुना। हम भी दो अपरिचित किससे क्या पूछे। लिहाजा, किसी तरह सूत्र के घर तक पहुंचे जहां दरवाजे पर ताला लटका मिला। अब घटनास्थल तक पहुंचे तो कैसे? यह सोचते हुए हम दरभा थाने पहुंचे और एक वर्दीधारी को पत्रकार होने का हवाला देकर मुठभेड़ और घटनास्थल तक पहुंचने के बारे में बात की। उसने चेताया कि अभी तो पैंतालीस किलोमीटर बीहड़ में घुसना खतरे से खाली नहीं। इसके बाद न वह अधिक बोला और न हमने उससे कुछ अधिक पूछा। बस्तर की परिस्थिति ऐसी है कि नक्सली और पुलिस देानों में से किसी एक की भी 'गलतफहमी के शिकारबनने में अधिक देर नहीं लगती।

अब अन्य समाचार की खोज में हम सरकारी कार्यालय पहुंचे और एक अधिकारी से पूछा कि किसी सुरक्षित गांव का ऐसा स्कूल बता दीजिए जहां बच्चों की पढ़ाई के बारे में जान सकें। उसने बताया कि यहां कोई चप्पा सुरक्षित नहीं। मेरी आंखें उसके सिर के ठीक पीछे दीवार पर बस्तर संभाग के मानचित्र पर गईं और उसने खिड़की से बाहर झांकते हुए मुझे बताया, 'बाहर देखो दरभा का बाजार लगा है, यह बाजार भी सुरक्षित नहीं है। बाजार में पता नहीं कब गोलियां चल जाएं और देखते ही देखते खून से लथपथ लाशें बिछ जाएं!

तो यहां किसी जगह किसी पर विश्वास नहीं किया जा सकता? कैसा समय है और हम इसी समय की दोपहर में बस्तर का हाटबाजार घूम रहे हैं। यहां अधिकतर महिलाएं हैं। सुखरी बाई सूखी मछलियां लेकर आई हैं। इसी तरह, कोई महुआ तो कोई रंगबिरंगी चूडिय़ां बेच रही हैं। दोने में बेर के आकार के छोटे टमाटर बेचने वाली बुर्जुग मेहतरीन बाई से मैंने पूछा कि ये पूरे सारे टमाटर कितने के हैं तो उन्होंने दसदस के आठ नोट कहकर हिसाब बता दिया। कई मील दूर तोकापाल से पैदल चलकर पहुंचीं मेहतरीन बाई को आखिर इस उम्र में यहां क्यों आना पड़ा? दोतीन बार पूछने पर वे हंसकर कुछकुछ बोलीं, लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आया। यहां हंसी की भाषा ही काम कर सकती है। एक महिला जंगली वृक्षों की दातुन बेच रही हैं। ये भी दिनभर में पचास से अधिक क्या कमा पाएंगी! यही वजह है कि जीवन के इस पड़ाव में जीने की लड़ाई लडऩे वाली इन महिलाओं को हाट में पाया तो मुझे बड़ी राहत मिली। और दरभा का भय एक झटके में कम हो गया!

ऐसा कोई रंग नहीं जो हाट में नहीं दिख रहा है। किंतु, लाल रंग सब रंगों पर भारी पड़ रहा है। यह रंग प्रेम और क्रांति का है। हम देखते हैं कि महिलाएं माटी के अलगअलग आकार के लाल बर्तन लेकर कतारबद्ध बैठी हैं। अधिकतर महिलाएं इसी रंग की साड़ी में हैं। सिर ढकने के लिए गमछों से लेकर सामान ढोने वाले गमछे भी लाल। इन्हीं गमछों को बिछाकर लाल मिर्च और लाल गुड़ बिक रहा है। यहां तक की माटी भी हल्के लाल रंग की है। आश्चर्य यह कि इसी रंग के साये में प्रेमी जोड़े मिलते हैं। समाज इस प्रेमसंबंध को स्वीकार करता है। एक बुजुर्ग ने बताया कि उनका विवाह भी इसी हाट में तय हुआ। यहां से यह कल्पना करना मुश्किल है कि हिंसा की परछाई में प्रेम कैसे पनपता होगा! तथ्य यह है कि कभी नक्सली बाजार में अपने पुलिस और पुलिस के मुखबिरों पर हमला कर देते हैं तो कभी पुलिस रक्तपात के संदेह में हाट बंद करा देती है। औरछा और नेतानार बाजारों में हुई मुठभेड़ में नक्सली कई जवान और बड़े व्यापारियों की हत्या कर चुके हैं।

एक इलेक्ट्रानिक सामान बेचने वाले से पूछने पर उसने बताया कि यहां टार्च की बैटरी सबसे अधिक बिकती है। एक चबूतरे पर जगदलपुर का व्यापारी टेंट लगाकर तिल, सरसों, इमली और महुआ खरीदता दिखा। वह हर सप्ताह पचास हजार तक की चीजें खरीद लेता है। एक पंक्ति में पेड़ के नीचे बैठकर कुछ लोग सल्फी (बस्तर की बीयर) की चुस्कियां ले रहे हैं तो दूसरी पंक्ति में बेसन के गर्म पकौड़ों के शौकीन पकौड़े खा रहे हैं। बस्तर संभाग में साढ़े तीन हजार से अधिक गांव हैं। अनुमान है कि यहां साढ़े चार सौ से अधिक हाट लगते हैं। यह हाट लोगों के उत्साह, मिलन और अनुशासन का संगम है। यहां से देखने पर यह लगता है कि विशालकाय बाजार को छोटा बाजार और विशालकाय सभ्यता को छोटी सभ्यता को रौंध डालने का कोई अधिकार नहीं है।

11 अक्टूबर, 2015... दोपहर तीन बजे एक गांव के सारे घर बंद हैं। बूढ़ी अम्मा बैठी हमारी ओर टकटकी लगा देख रही हैं। पूछने पर बताया यहां कोई नहीं है, सब जंगल में है। पूछा तो बिना डरे अपना नाम बतायासुक्को। इसके बाद सुक्को बाई हर प्रश्न पर उत्तर के स्थान पर बस अपनी मुसकुराहट बिखेर देती हैं। यह समझना कठिन है कि पूरे गांव पर लाल आतंक का साया है या सुरक्षाबलों की दहशत का असर। नक्सली इन्हें अपने पक्ष में करना चाहते हैं और सुरक्षाबल अपने। और इन दो पक्षों के बीच एक आम बस्तरिया के अपने पक्ष का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।

दंतेवाड़ा से कोई पचास किलोमीटर दूर यह गांव है अरनपुर। यहां गांव की अधिकतर बस्तियों में यह आए दिनों की बात है। वजह, बीते दिनों बस्तर के कई क्षेत्रों में नक्सलियों के साथ मुठभेड़ की घटनाएं हो चुकी हैं जिसके कारण बस्तर की आंतरिक बसाहटों में स्थिति तनावपूर्ण बनी हुई है और यहां तक पहुंचना और भी अधिक दुर्गम हो गया है। यहां के युवकों पर नक्सली और सुरक्षाबलों का इतना अधिक दबाव रहता है कि वे अपने प्राण बचाने के लिए और भी अधिक घने जंगल की शरण लेते हैं। सुक्को बाई शायद यह नहीं जानतीं कि दंतेवाड़ा से यहां पहुंचने के लिए सुरक्षाबलों के दो कैंपों से होकर गुजरना पड़ा है। सुरक्षाबल अधिकारी ने इस अतिसंवदेनशील क्षेत्र में आने के लिए मना किया था। फिर भी किसी तरह यहां पहुंचे। सोचा बस्ती है तो हलचल होगी लेकिन यहां दिन के उजाले में रातसा सन्नाटा है।

जगदलपुर की ओर लौटते हुए यह अहसास और अधिक पुष्ट होता है कि बस्तर का समूचा संघर्ष और टकराव मनुष्य के सांस लेते रहने और मूलभूत जीवनअधिकारों के बारे में है। सबसे अंतिम पंक्ति में धकेली गई आबादी के बारे में है जो संपूर्ण गरिमा के साथ अपने स्थान पर उपस्थित रहना चाहती है।

पहले खेत छीने, अब कह रहे, 'टाटा

16 अक्टूबर, 2015... 'टाटा के बायबाय कहने से हमारे घाव तो भर नहीं जाएंगे न! कोई बताएगा कि दस बरस से किस कसूर की सजा दी गई हमें? पहले आपने स्टील प्लांट का झूठा सपना दिखाया और फिर बेवजह ही हमारी जमीन हड़प ली। कुछ किए बगैर हमें बर्बाद कर दिया। जब कुछ करना ही नहीं है तो भैया अब हमें हमारी जमीन तो लौटा दो! बताया गया था प्लांट बनेगा तो दस गांव उजड़ेंगे, सो दस बरस से दस गांव में विकास का एक काम नहीं हुआ।यह दर्द है कुरसाराम कश्यप का जो जगदलपुर से पश्चिम की ओर तीस किलोमीटर दूर चित्रकोट जाने वाली सड़क से हटकर सटे बंडाजी गांव के रहवासी हैं। बंडाजी, छिंदगांव, कुम्हली, ठाकुरगुड़ा, बेलर, दुरागांव, छोटा परोदा, दावपाल, सिरिसगुड़ा और बेलियापारा गांव लोहंडीगुड़ा विकासखंड के अंतर्गत आने वाले गांव हैं जहां वर्ष 2005 को राज्य सरकार और टाटा कंपनी ने लोहंडीगुड़ा मेगा स्टील के नाम से संयंत्र स्थापित करने के लिए अनुबंध किया था और तब बस्तर को भिलाई की तरह विकसित करने का दावा किया था। किंतु, इस बीच संयंत्र स्थापित करने का काम शुरू नहीं किया गया और अब कहा जा रहा है कि टाटा पूरी योजना से कदम खींच रहा है। यह बस्तर के सबसे संपन्न किसानों का क्षेत्र है जहां उपजाऊ खेतों से प्रतिवर्ष दो बार फसल ली जाती है। ग्रामीणों का कहना है कि सरकार अब भी हमारी भलाई चाहती है तो तुरंत जमीन के पट्टे वापस दे दे। लोहंडीगुड़ा से कुछ कोस दूर बंडाजी पहुंचने के लिए पक्की सड़क नहीं है। मैं कच्ची पगडंडी के बूते यहां तक पहुंचा। ग्रामीणों से बात की तो उन्होंने बताया कि दस वर्ष से उन्हें बिना अपराध की सजा भुगतनी पड़ रही है। यहां तक कि अधिकारी पहचानपत्र बनाने तक में नानुकुर करते हैं। बस्तर के विकास के नाम पर बस्तर के लोगों का ही विकास रुक गया है। लोहंडीगुड़ा के संघर्ष की कथा लंबी हैं लेकिन इसकी व्यथा का सार यह है कि राजसत्ता के सहयोग से उद्योग स्थापित करने का झूठा दावा करके जंगलजंगल और बस्तीबस्ती भूमि अधिग्रहण का खेल खेला जा रहा है।

बस्तर के भीतर कई स्थान हैं जहां जीवन का रत्ती भर मोल नहीं, जहां 'सभ्यताका विकास अलगअलग अंचलों की जनजातियों को रौंधकर जीतने की अपार महत्त्वाकांक्षा से लैस है जिनका उद्देश्य जंगलों में अतिक्रमण करके अपने विचार और निजी कंपनियों को स्थापित करना है। बस्तर के भीतर वंचितों का अदृश्यीकरण ही आज की सच्चाई है जो भूगोल से ही नहीं साहित्यराजनीति सहित जीवन के हर क्षेत्र से उनके स्थान पर पहले से कहीं अधिक अधिकार जमा लिया है। 

छत्तीसगढ़ में खनन कारोबारी बेरोकटोक बहुमूल्य संपदा को देशविदेश में बेच रहे हैं। मैंने कई विवरण एकत्रित किए हैं और शीघ्र ही रिपोर्ट फाइल करने वाला हूं कि केंद्र सरकार के आंकड़े में गए वर्ष इस राज्य से 21 हजार करोड़ रुपए का खनिज निकाला गया है जिसके बदले सरकार के खजाने में 3,300करोड़ रुपए की ही रायल्टी आई। स्पष्ट है कि खनन कारोबारी प्रतिवर्ष जितने मूल्य का खनिज निकाल रहे हैं उस अनुपात में नाममात्र की रायल्टी सरकार को मिल रही है। वहीं, अवैध खनन के मामलों में लगातार बढ़ोतरी के बावजूद प्रतिवर्ष हजारों करोड़ रुपए घाटे का अनुमान सरकार को नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि राज्य में प्रतिवर्ष अवैध खनन के औसतन साढ़े तीन हजार प्रकरण न्यायालय में पहुंच रहे हैं। इस दौरान अवैध खनन में लिप्त करोबारियों से महज 23 करोड़ रुपए का ही जुर्माना वसूला गया है।

24 अक्टूबर, 2015... आज मेरा जन्मदिन है। वैसे तो यह बाकी दिनों की तरह ही होता है लेकिन अपनों की दुआसलाम और प्यारमुहब्बत के कारण विशेष बन जाता है। इस विशेष दिन मुझे बलौदाबाजार शहर के नजदीक परसवानी नाम के एक गांव में जाने का अवसर मिला। यहां बीस वर्ष पहले सीमेंट बनाने वाली एक निजी फैक्ट्री स्थापित हुई और तब से अब तक यह यहां की चट्टानों को खोदकर जमीन को ऐसा बर्बाद किया कि बांध का पानी सूख गया है। नतीजा चूना पत्थरों की खदानों ने पूरे गांव का जीवन तबाह कर दिया। इसीलिए मैंने अपनी अगली रिपोर्ट का हेडलाइन पहले ही सोच लिया— 'सीमेंट फैक्ट्री पी गई पूरे गांव का पानी

परसवानी में इस वर्ष तो सूखे में खेत और पशुओं को पानी पिलाना दूभर हो गया। सरपंच बलरामजी ने बताया कि गांव में अस्सी प्रतिशत चूना खदाने हैं। पहले एक हजार एकड़ जमीन पर खेती होती थी, लेकिन अब सिर्फ दो सौ एकड़ जमीन पर। खेत खराब होने से अधिकतर लोग बेकार हैं। लालजी गायकवाड़ ने बताया कि दो दशक पहले यहां ढाई हजार से अधिक पशु थे, लेकिन अब लोग पशु रखना नहीं चाहते। खनन गतिविधियों से चारागाह भी समाप्त हो गए। दो सौ एकड़ का चारागाह सिर्फ दो एकड़ में सिमट गया है। पच्छत्तर पशु अकाल मौत मारे जा चुके हैं। वहीं, सीमेंट फैक्ट्री की अधिकतम पत्थर खोदने की भूख इस सीमा तक बढ़ गई है कि उसने गांव में आनेजाने का रास्ता रोक दिया है। अब फैक्ट्री इसी पर अधिकार करके बड़े भूभाग पर खनन की तैयारी कर रही है। इस तरह, तीन बड़ी खदानों ने पूरे गांव को घेर लिया है और यह गांव मुख्य रास्तों से कटकर खदान में समाता जा रहा है।

बस्तर और इसके आसपास ऐसे संसार के अनगिनत दृश्य हैं जिनमें जनजाति के गले में पूंजी का फंदा कसता जा रहा है। सरकारों का वश चले तो वायुयानों से इनके पहाड़, नदी, जंगल, लादलादकर नगरों और महानगरों तक पहुंचा दें। जनजाति की कीमत पर विकास का लाभ शहरों को मिला है। एक लोकतांत्रिक देश की अवधारणा में समान अवसर, समान अधिकार तथा समान सम्मान का उल्लेख है लेकिन बस्तर और दिल्लीरायपुर के बीच की खाई और अधिक चौड़ी होती जा रही है।

सबसे मुश्किल है यहां सच्चाई जानना

4 मार्च, 2016... बस्तर में सबसे मुश्किल है नक्सलियों से जुड़ी किसी घटना की सच्चाई जानना। यहां लोकतंत्र इस सीमा तक समाप्त कर दिया गया है कि हर मुठभेड़ के बाद जितने मुंह उतनी बातें होती हैं। हो भी क्यों नहीं? 1 जनवरी, 2016 को चिंतलनार थाना अंतर्गत सत्तर नक्सलियों के आत्मसमर्पण की घटना फर्जी सिद्ध हुई है। बस्तर के पत्रकार साथियों ने रहस्योद्घाटन किया है कि चिंतलनार और आसपास के ग्रामीण तथा हाट-बाजार गए लोगों को पुलिस घेरकर थाने ले गई। इन्हीं लोगों से फर्जीसमर्पण का नाटक कराया गया। जिन लोगों ने फर्जीसमर्पण से मना किया उन्हें जेल भेज दिया। उधर, नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले की आदिवासी महिलाओं का कहना है कि इसी वर्ष 11 से 14 जनवरी के बीच बासागुड़ा थाने के अलग-अलग गांवों में जवान पहुंचे और उन्होंने उनके साथ सामूहिक अनाचार किए। पहले भी ऐसे प्रकरणों में जवानों की संलिप्तता सामने आई है। किंतु, यह तर्क देकर कि जवानों का मनोबल न टूटे उनके विरुद्ध कार्रवाई नहीं की जा रही है।

28 जून, 2016... दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोलंबिया में शांति स्थापित हो सकती है तो बस्तर में क्यों नहीं? बीते दिनों लैटिन अमरीकी देश कोलंबिया में सरकार और विद्रोही संगठन रिवोल्यूशनरी आर्म्ड फोर्सेस ऑफ कोलंबिया के बीच पचास वर्ष से चल रहे गृहयुद्ध को रोकने के लिए दोनों पक्षों के बीच एक स्थायी संघर्ष विराम पर सहमति बन गई है। इसके अगले दिन इधर 24 जून, 2016 को केंद्रीय गृह सचिव राजीव महर्षि की अध्यक्षता में हुई बैठक में बताया गया था कि बीते साल नक्सली ऑपरेशन के दौरान बस्तर की जमीन पर पैंसठ से अधिक लोगों का खून बहा है। साल-दर-साल नक्सली हमलों में चालीस प्रतिशत तक बढ़ोतरी हो रही है। बस्तर में चालीस लोगों पर एक सुरक्षाबल तैनात है जो कश्मीर से भी बुरी स्थिति दर्शाता है। 

बस्तर में नक्सल वर्ष 1980 में पनपा और 2005 से संघर्ष ने अत्याधिक जोर पकड़ लिया। पहले 'सलमा जुडूमफिर 'ग्रीन हंटऔर अब हिंसा का तीसरा वीभत्स दौर चल रहा है। सरकार को लगता है कि हिंसा और 'माइंड वारसे वह नक्सलियों पर लगाम लगा लेगी। 'सलमा जुडूमको लेकर लंबे समय तक सर्वोच्च न्यायालय में प्रकरण चला। इस दौरान पांच सौ से अधिक लोग मारे गए और नब्बे से अधिक महिलाओं ने अपने साथ हुए अनाचार की शिकायते कीं। प्रश्न है कि सरकार बड़े पैमाने पर सशस्त्रबलों के बूते यदि नक्सलियों को समाप्त करना चाहती है तो ये सिमटते क्यों नहीं? दरअसल, सरकार नक्सली हिंसा को सिर्फ कानूनव्यवस्था की समस्या मान रही है, जबकि इसकी जड़ में सामाजिक और आर्थिक कारण छिपे हैं।

दूसरी ओर शांति समझौते के लिए पहली बड़ी बाधा है अविश्वास। वार्ताओं के दौरान केंद्र सरकार पर आंध्र-प्रदेश के नक्सली नेताओं को धोखे से मारने का आरोप है। वर्ष 2010 में राज्य और नक्सलियों के बीच मध्यस्थता कर रहे स्वामी अग्निवेश ने संवाद के लिए तैयार नक्सली नेता आजाद को धोखे से मारे जाने की आशंका जताते हुए इस प्रकरण में उच्चस्तरीय जांच की मांग की थी। आज स्थिति यह है कि सरकार नक्सलियों से संवाद से पहले बंदूक छोडऩे की बात कहती है, जबकि नक्सलियों का उत्तर है कि हमने बंदूक छोड़ दी तो सरकार संवाद ही क्यों करेगी!

तीसरी ओर यह अनुभव भी है कि कारपोरेट बाजार और राजसत्ता की केंद्रीकृत नाल जनजातीय जीवन को जंगल से काटने के लिए हर बार बंदूकों का सहारा ले तो यह आवश्यक नहीं। बस्तर के आसपास बंदूक की ठूंठ के सामानांतर क्रूरता का एक अदृश्य कुचक्र चल रहा है जो पहले नीति, अर्थव्यवस्था, राजनीति और समाजसंस्कृति पर घर करता है और फिर हर ओर ऐसा दृष्टिकोण रचता है जिसमें 'सभ्यबनाने के लिए जनजातियां प्रताडि़त होती हैं। अंतत: आगे की एक कथा हिंसा के दूसरे रुप को स्पष्ट करते हुए बताती है कि 'सभ्यताका यह दुष्चक्र किस प्रकार वनवासियों को मुआवजा, पुनर्वास, नौकरी से होकर अंतत: वन से विस्थापित और कथित मुख्यधारा में मजदूर स्थापित करता है।

और अंत में

30 जून, 2017... 'हीरा जिन्हें चाहिए रख लें, हमें पेट भरने जमीन दे दें’— इस वक्तव्य के पीछे एक करुणव्यथा है। इसकी पृष्ठभूमि में है नक्सल प्रभावित गरियाबंद जिले का पायलीखंड गांव जहां हीरों का अथाह भंडार है। राज्य सरकार ने जमीन के असली मालिक को उसकी जमीन से उजाड़कर खदान तो छीन ली है लेकिन क्या वह इन हीरों को सुरक्षित रख पा रही है? यही उत्तर ढूंढऩे मैं, मेरे राज्य संपादक जिनेश जैन, छायाकार त्रिलोचन मानिकपुरी और सहयोगी जाकिर रिजवी रायपुर से लगभग दो सौ किलोमीटर दूर घने वनांचल से होकर पायलीखंड गांव पहुंचे। यहां पहुंचकर हमने देखाजाना कि सरकार को अब तक एक भी हीरा हाथ नहीं लगा है, जबकि तस्करों ने हीरों का अकूत खजाना लूट लिया।

जिस स्थान को हीरों का खजाना बताया गया वहां हमने देखा कि जमीन के नाम पर गहरी खाइयां बन गई हैं। पता किया तो पता चला कि कि यह जमीन नैनसिंह नेताम की है। संयोग से नैनसिंह आसपास ही बकरियां चराते मिल गए। वर्ष 1993 में अविभाजित मध्य-प्रदेश सरकार ने नैनसिंह की जमीन पर हीराभंडार की पुष्टि की थी। हम नैनसिंह से पुराने दिनों के बारे में पूछने लगे। कोई आधाएक घंटे में नैनसिंह अपने बचपन के दिनों में लौटे। बताने लगे, 'तब दादी ने चमकीले पत्थरों को देखकर मुझसे कहा था कि अपने खेत के भीतर सोने से भी कीमती रत्न हैं, शायद हीरे! तब मैं इतना छोटा था कि समझा नहीं दादी क्या बोल रही है! लेकिन, अब समझ आ रहा है कि ये हीरे किस तरह से मेरी जिंदगी को बचपन में ही तबाह कर गए। तब पिता जिंदा थे और हमारी आंखों के सामने ही बाबू लोगों ने मूंग की खड़ी फसल बड़ी बेरहमी से उखड़वा दी थी।

मैंने नैनसिंह से जाना कि बाबू लोग उनके पिता को किस प्रकार का लालच देते थे। बकौल नैनसिंह, 'वे कहते थे कि तुम्हारे खेत में हीरे हैं तो यह सरकार की जमीन हुई। अच्छा-खासा मुआवजा मिलेगा, इतना सारा पैसा कि दो-तीन पीढिय़ों को कोई काम नहीं करना।किंतु नैनसिंह के पिता ने जमीन देने से साफ मना कर दिया। फिर एक दिन पुलिस आई और चार एकड़ खेत को लोहे के तारों से घेर दिया। लोहे का बड़ा गेट लगा दिया। तब नैनसिंह के पिता दूसरे के खेतों में मजदूरी करने लगे। पिता की मृत्यु के बाद नैनसिंह अपनी मां के साथ मजदूरी करने लगे और अब विवाह बाद पत्नी के साथ मजदूरी कर रहे हैं।

इस गांव के सरपंच चमार सिंह नेताम हैं। हम उनसे मिलने उनके घर पहुंचे। उन्होंने बताया कि बात पच्चीसतीस साल पहले की है जब गांव वाले खेत के चमकीले पत्थर उठाकर नजदीक में मैनपुर के व्यापारियों को बीसपच्चीस में बेच आते थे। बाहरी लोगों को पता लग गया कि यहां हीरे हैं, लूटने वाले मालामाल हो गए लेकिन यहां के गौंड और कमार आदिवासी आज भी महुआ बीनकर गुजारा करते हैं। सरकारी सुरक्षा के लिहाज से खदान पर सीमेंट के दो जर्जर खंबे हैं और गेट जंग खाकर टूट चुका है। पूरी खदान हीरा निकलने के लिए तस्करों के सामने खुली है। बरसात में जब इंद्रावती नदी का बहाव तेज होता है तो गांव की सड़क नदी में डूब जाती है और यह क्षेत्र पुलिस और प्रशासन की पहुंच से दूर हो जाता है। इसी समय अवैध खनन सबसे अधिक होता है। पड़ोसी राज्य ओडिशा और रायपुर के हीराव्यापारी बरसात के मौसम में यहीं ढेरा डाल लेते हैं।

 

अंत में हम नैनसिंह के घर पहुंचे तो देखा कि एक छोटी झोपड़ी में रहने वाले इस परिवार के पास अपने अतिथियों को बैठाने के लिए कुर्सी तक नहीं है। हम घर के आंगन में बोरे बिछाकर बैठ गए। पूरा परिवार किसी तरह दो जून की रोटी के लिए जूझ रहा है। नैनसिंह पूछ रहे हैं, 'सरकार गांव के बाहरी लोगों को क्यों बाल बांका न कर सकी, जिन्होंने ट्रकों से खेतों की मिट्टी उलीची, हमारे हीरे निकाले, उन्हें तराशा, बेचा और अब बड़े मजे लूट रहे हैं।

हम लौटने के लिए खड़े हुए तो नैनसिंह की मां जेमनीबाई ने हमें रोक लिया। वे गिड़गिड़ाने लगीं। इसके बाद उनका हर एक शब्द मेरे कानों में नगाड़े की तरह गूंजने लगा, 'हमें कुछ नहीं मिला। और, बेटा हमें कुछ चाहिए भी नहीं! हमें हमारा खेत भी नहीं चाहिए। उसे तो आठ-दस साल में ही चोरों ने ऐसा खोद डाला कि कोई काम का न रहा। हमें एक लाल पैसा नहीं मिला। हमें एक लाल पैसा चाहिए भी नहीं।

जेमनीबाई के चेहरे पर आंसूओं की दो मोटी धाराएं बहने लगीं। लाल रंग प्रेम और क्रांति का होता है लेकिन इस समय इनकी यह दशा इनके दुबले बदन पर लिपटी सुर्ख लाल रंग की साड़ी से मेल नहीं खाती। जेमनीबाई मेरे और पास आईं। मेरे गालों पर हाथ रखा और बोलीं, 'सरकार तुम्हारी तो सुनेंगी। तो हमें जमीन का छोटासा टुकड़ा दिलवा दो न! दिलवा दोगे न!

संपर्कमोबाइल: 9421775247/ 8827190959 मेल: shirishwyv…@gmail.com

 

 

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